१४४ उमामहेश्वरसंवादे

भागसूचना

चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

बन्धन-मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करनेवाले शरीर, वाणी और मनद्वारा किये जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् सर्वभूतेश देवासुरनमस्कृत ।
धर्माधर्मौ नृणां देव ब्रूहि मेऽसंशयं विभो ॥ १ ॥

मूलम्

भगवन् सर्वभूतेश देवासुरनमस्कृत ।
धर्माधर्मौ नृणां देव ब्रूहि मेऽसंशयं विभो ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— भगवन्! सर्वभूतेश्वर देवासुरवन्दित देव! विभो! अब मुझे धर्म और अधर्मका स्वरूप बताइये; जिससे उनके विषयमें मेरा संदेह दूर हो जाय॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणा मनसा वाचा त्रिविधं हि नरः सदा।
बध्यते बन्धनैः पाशैर्मुव्यतेऽप्यथवा पुनः ॥ २ ॥

मूलम्

कर्मणा मनसा वाचा त्रिविधं हि नरः सदा।
बध्यते बन्धनैः पाशैर्मुव्यतेऽप्यथवा पुनः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य मन, वाणी और क्रिया—इन तीन प्रकारके बन्धनोंसे सदा बँधता है और फिर उन बन्धनोंसे मुक्त होता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केन शीलेन वृत्तेन कर्मणा कीदृशेन वा।
समाचारैर्गुणैः कैर्वा स्वर्गं यान्तीह मानवाः ॥ ३ ॥

मूलम्

केन शीलेन वृत्तेन कर्मणा कीदृशेन वा।
समाचारैर्गुणैः कैर्वा स्वर्गं यान्तीह मानवाः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! किस शील-स्वभावसे, किस बर्तावसे, कैसे कर्मसे तथा किन सदाचारों अथवा गुणोंद्वारा मनुष्य बँधते, मुक्त होते एवं स्वर्गमें जाते हैं॥३॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवि धर्मार्थतत्त्वज्ञे धर्मनित्ये दमे रते।
सर्वप्राणिहितः प्रश्नः श्रूयतां बुद्धिवर्धनः ॥ ४ ॥

मूलम्

देवि धर्मार्थतत्त्वज्ञे धर्मनित्ये दमे रते।
सर्वप्राणिहितः प्रश्नः श्रूयतां बुद्धिवर्धनः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाली, सदा धर्ममें तत्पर रहनेवाली, इन्द्रियसंयम-परायणे देवि! तुम्हारा प्रश्न समस्त प्राणियोंके लिये हितकर तथा बुद्धिको बढ़ानेवाला है, इसका उत्तर सुनो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यधर्मरताः सन्तः सर्वलिङ्गविवर्जिताः ।
धर्मलब्धार्थभोक्तारस्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ५ ॥

मूलम्

सत्यधर्मरताः सन्तः सर्वलिङ्गविवर्जिताः ।
धर्मलब्धार्थभोक्तारस्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य धर्मसे उपार्जित किये हुए धनको भोगते हैं, सम्पूर्ण आश्रमसम्बन्धी चिह्नोंसे बिलग रहकर भी सत्य, धर्ममें तत्पर रहते हैं, वे स्वर्गमें जाते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाधर्मेण न धर्मेण बध्यन्ते छिन्नसंशयाः।
प्रलयोत्पत्तितत्त्वज्ञाः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः ॥ ६ ॥

मूलम्

नाधर्मेण न धर्मेण बध्यन्ते छिन्नसंशयाः।
प्रलयोत्पत्तितत्त्वज्ञाः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके सब प्रकारके संदेह दूर हो गये हैं, जो प्रलय और उत्पत्तिके तत्त्वको जाननेवाले, सर्वज्ञ और सर्वद्रष्टा हैं, वे महात्मा न तो धर्मसे बँधते हैं और न अधर्मसे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वीतरागा विमुच्यन्ते पुरुषाः कर्मबन्धनैः।
कर्मणा मनसा वाचा ये न हिंसन्ति किंचन ॥ ७ ॥

मूलम्

वीतरागा विमुच्यन्ते पुरुषाः कर्मबन्धनैः।
कर्मणा मनसा वाचा ये न हिंसन्ति किंचन ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा किसीकी हिंसा नहीं करते हैं और जिनकी आसक्ति सर्वथा दूर हो गयी है, वे पुरुष कर्मबन्धनोंसे मुक्ता हो जाते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये न सज्जन्ति कस्मिंश्चित्‌ ते न बद्‌ध्यन्ति कर्मभिः।
प्राणातिपाताद् विरताः शीलवन्तो दयान्विताः ॥ ८ ॥
तुल्यद्वेष्यप्रिया दान्ता मुच्यन्ते कर्मबन्धनैः।

मूलम्

ये न सज्जन्ति कस्मिंश्चित्‌ ते न बद्‌ध्यन्ति कर्मभिः।
प्राणातिपाताद् विरताः शीलवन्तो दयान्विताः ॥ ८ ॥
तुल्यद्वेष्यप्रिया दान्ता मुच्यन्ते कर्मबन्धनैः।

अनुवाद (हिन्दी)

जो कहीं आसक्त नहीं होते, किसीके प्राणोंकी हत्यासे दूर रहते हैं तथा जो सुशील और दयालु हैं, वे भी कर्मोंके बन्धनोंमें नहीं पड़ते, जिनके लिये शत्रु और प्रिय मित्र दोनों समान हैं, वे जितेन्द्रिय पुरुष कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूतदयावन्तो विश्वास्याः सर्वजन्तुषु ॥ ९ ॥
त्यक्तहिंसासमाचारास्ते नराः स्वर्गगामिनः ।

मूलम्

सर्वभूतदयावन्तो विश्वास्याः सर्वजन्तुषु ॥ ९ ॥
त्यक्तहिंसासमाचारास्ते नराः स्वर्गगामिनः ।

अनुवाद (हिन्दी)

जो सब प्राणियोंपर दया करनेवाले, सब जीवोंके विश्वासपात्र तथा हिंसामय आचरणोंको त्याग देनेवाले हैं, वे मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परस्वे निर्ममा नित्यं परदारविवर्जकाः ॥ १० ॥
धर्मलब्धान्नभोक्तारस्ते नराः स्वर्गगामिनः ।

मूलम्

परस्वे निर्ममा नित्यं परदारविवर्जकाः ॥ १० ॥
धर्मलब्धान्नभोक्तारस्ते नराः स्वर्गगामिनः ।

अनुवाद (हिन्दी)

जो दूसरोंके धनपर ममता नहीं रखते, परायी स्त्रीसे सदा दूर रहते और धर्मके द्वारा प्राप्त किये अन्नका ही भोजन करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातृवत् स्वसृवच्चैव नित्यं दुहितृवच्च ये ॥ ११ ॥
परदारेषु वर्तन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः।

मूलम्

मातृवत् स्वसृवच्चैव नित्यं दुहितृवच्च ये ॥ ११ ॥
परदारेषु वर्तन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः।

अनुवाद (हिन्दी)

जो मानव परायी स्त्रीको माता, बहिन और पुत्रीके समान समझकर तदनुरूप बर्ताव करते हैं, वे स्वर्गलोकमें जाते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्तैन्यान्निवृत्ताः सततं संतुष्टाः स्वधनेन च ॥ १२ ॥
स्वभाग्यान्युपजीवन्ति ते नराः स्वर्गगामिनः।

मूलम्

स्तैन्यान्निवृत्ताः सततं संतुष्टाः स्वधनेन च ॥ १२ ॥
स्वभाग्यान्युपजीवन्ति ते नराः स्वर्गगामिनः।

अनुवाद (हिन्दी)

जो सदा अपने ही धनसे संतुष्ट रहकर चोरी-चमारीसे अलग रहते हैं तथा जो अपने भाग्यपर ही भरोसा रखकर जीवन-निर्वाह करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वदारनिरता ये च ऋतुकालाभिगामिनः ॥ १३ ॥
अग्राम्यसुखभोगाश्च ते नराः स्वर्गगामिनः।

मूलम्

स्वदारनिरता ये च ऋतुकालाभिगामिनः ॥ १३ ॥
अग्राम्यसुखभोगाश्च ते नराः स्वर्गगामिनः।

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपनी ही स्त्रीमें अनुरक्त रहकर ऋतुकालमें ही उसके साथ समागम करते हैं और ग्राम्य सुख-भोगोंमें आसक्त नहीं होते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परदारेषु ये नित्यं चरित्रावृतलोचनाः ॥ १४ ॥
जितेन्द्रियाः शीलपरास्ते नराः स्वर्गगामिनः।

मूलम्

परदारेषु ये नित्यं चरित्रावृतलोचनाः ॥ १४ ॥
जितेन्द्रियाः शीलपरास्ते नराः स्वर्गगामिनः।

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने सदाचारके द्वारा सदा ही परायी स्त्रियोंकी ओरसे अपनी आँखें बंद किये रहते हैं, वे जितेन्द्रिय और शीलपरायण मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष देवकृतो मार्गः सेवितव्यः सदा नरैः ॥ १५ ॥
अकषायकृतश्चैव मार्गः सेव्यः सदा बुधैः।

मूलम्

एष देवकृतो मार्गः सेवितव्यः सदा नरैः ॥ १५ ॥
अकषायकृतश्चैव मार्गः सेव्यः सदा बुधैः।

अनुवाद (हिन्दी)

यह देवताओंका बनाया हुआ मार्ग है। राग और द्वेषको दूर करनेके लिये इस मार्गकी प्रवृति हुई है। अतः साधारण मनुष्यों तथा विद्वान् पुरुषोंको भी सदा ही इसका सेवन करना चाहिये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानधर्मतपोयुक्तः शीलशौचदयात्मकः ॥ १६ ॥
वृत्त्यर्थं धर्महेतोर्वा सेवितव्यः सदा नरैः॥
स्वर्गवासमभीप्सद्भिर्न सेव्यस्त्वत उत्तरः ॥ १७ ॥

मूलम्

दानधर्मतपोयुक्तः शीलशौचदयात्मकः ॥ १६ ॥
वृत्त्यर्थं धर्महेतोर्वा सेवितव्यः सदा नरैः॥
स्वर्गवासमभीप्सद्भिर्न सेव्यस्त्वत उत्तरः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह दान, धर्म और तपस्यासे युक्त तथा शील, शौच और दयामय मार्ग है। मनुष्यको जीविका एवं धर्मके लिये सदा ही इस मार्गका सेवन करना चाहिये। जो स्वर्गलोकमें निवास करना चाहता हो, उनके लिये सेवन करनेयोग्य इससे बढ़कर उत्कृष्ट मार्ग नहीं है॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाचा तु बद्‌‌ध्यते येन मुच्यतेऽप्यथवा पुनः।
तानि कर्माणि मे देव वद भूतपतेऽनघ ॥ १८ ॥

मूलम्

वाचा तु बद्‌‌ध्यते येन मुच्यतेऽप्यथवा पुनः।
तानि कर्माणि मे देव वद भूतपतेऽनघ ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— निष्पाप भूतनाथ! महादेव! कैसी वाणी बोलने अथवा उस वाणीद्वारा कौन-सा कर्म करनेसे मनुष्य बन्धनमें पड़ता या उस बन्धनसे छुटकारा पा जाता है? उन वाचिक कर्मोंका मुझसे वर्णन कीजिये॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्महेतोः परार्थे वा नर्महास्याश्रयात् तथा।
ये मृषा न वदन्तीह ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ १९ ॥

मूलम्

आत्महेतोः परार्थे वा नर्महास्याश्रयात् तथा।
ये मृषा न वदन्तीह ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— जो हँसी और परिहासका सहारा लेकर भी अपने या दूसरेके लिये कभी झूठ नहीं बोलते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्त्यर्थं धर्महेतोर्वा कामकारात् तथैव च।
अनृतं ये न भाषन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २० ॥

मूलम्

वृत्त्यर्थं धर्महेतोर्वा कामकारात् तथैव च।
अनृतं ये न भाषन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो आजीविका अथवा धर्मके लिये तथा स्वेच्छाचारसे भी कभी असत्य भाषण नहीं करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्लक्ष्णां वाणीं निराबाधां मधुरां पापवर्जिताम्।
स्वागतेनाभिभाषन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २१ ॥

मूलम्

श्लक्ष्णां वाणीं निराबाधां मधुरां पापवर्जिताम्।
स्वागतेनाभिभाषन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो स्निग्ध, मधुर, बाधारहित और पापशून्य तथा स्वागत-सत्कारके भावसे युक्त वाणी बोलते हैं, वे मानव स्वर्गलोकमें जाते हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परुषं ये न भाषन्ते कटुकं निष्ठुरं तथा।
अपैशुन्यरताः सन्तस्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २२ ॥

मूलम्

परुषं ये न भाषन्ते कटुकं निष्ठुरं तथा।
अपैशुन्यरताः सन्तस्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो किसीकी चुगली नहीं खाते और कभी किसीसे रूखी, कड़वी और निष्ठुरतापूर्ण बात मुँहसे नहीं निकालते, वे सज्जन पुरुष स्वर्गमें जाते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिशुनां न प्रभाषन्ते मित्रभेदकरीं गिरम्।
ऋतं मैत्रं तु भाषन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २३ ॥

मूलम्

पिशुनां न प्रभाषन्ते मित्रभेदकरीं गिरम्।
ऋतं मैत्रं तु भाषन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दो मित्रोंमें फूट डालनेवाली चुगलीकी बातें नहीं करते हैं, सत्य और मैत्रीभावसे युक्त वचन बोलते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये वर्जयन्ति परुषं परद्रोहं च मानवाः।
सर्वभूतसमा दान्तास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २४ ॥

मूलम्

ये वर्जयन्ति परुषं परद्रोहं च मानवाः।
सर्वभूतसमा दान्तास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मानव दूसरोंसे तीखी बातें बोलना और द्रोह करना छोड़ देते हैं, सब प्राणियोंके प्रति समानभाव रखने-वाले और जितेन्द्रिय होते हैं, वे स्वर्गलोकमें जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शठप्रलापाद् विरता विरुद्धपरिवर्जकाः ।
सौम्यप्रलापिनो नित्यं ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २५ ॥

मूलम्

शठप्रलापाद् विरता विरुद्धपरिवर्जकाः ।
सौम्यप्रलापिनो नित्यं ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके मुँहसे कभी शठतापूर्ण बात नहीं निकलती, जो विरोधयुक्त वाणीका त्याग करते हैं और सदा सौम्य (कोमल) वाणी बोलते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कोपाद् व्याहरन्ते ये वाचं हृदयदारणीम्।
सान्त्वं वदन्ति क्रुद्धाऽपि ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २६ ॥

मूलम्

न कोपाद् व्याहरन्ते ये वाचं हृदयदारणीम्।
सान्त्वं वदन्ति क्रुद्धाऽपि ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो क्रोधमें आकर भी हृदयको विदीर्ण करनेवाली बात मुँहसे नहीं निकालते हैं तथा क्रुद्ध होनेपर भी सान्त्वनापूर्ण वचन ही बोलते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष वाणीकृतो देवि धर्मः सेव्यः सदा नरैः।
शुभः सत्यगुणो नित्यं वर्जनीयो मृषा बुधैः ॥ २७ ॥

मूलम्

एष वाणीकृतो देवि धर्मः सेव्यः सदा नरैः।
शुभः सत्यगुणो नित्यं वर्जनीयो मृषा बुधैः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! यह वाणीजनित धर्म बताया गया है। मनुष्योंको सदा इसका सेवन करना चाहिये। विद्वानोंको उचित है कि वे सदा शुभ और सत्य वचन बोलें तथा मिथ्याका परित्याग करें1॥२७॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसा बद्‌ध्यते येन कर्मणा पुरुषः सदा।
तन्मे ब्रूहि महाभाग देवदेव पिनाकधृत् ॥ २८ ॥

मूलम्

मनसा बद्‌ध्यते येन कर्मणा पुरुषः सदा।
तन्मे ब्रूहि महाभाग देवदेव पिनाकधृत् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— महाभाग! पिनाकधारी देवदेव! जिस मानसिक कर्मसे मनुष्य सदा बन्धनमें पड़ता है, उसको मुझे बताइये॥२८॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानसेनेह धर्मेण संयुक्ताः पुरुषाः सदा।
स्वर्गं गच्छन्ति कल्याणि तन्मे कीर्तयतः शृणु ॥ २९ ॥

मूलम्

मानसेनेह धर्मेण संयुक्ताः पुरुषाः सदा।
स्वर्गं गच्छन्ति कल्याणि तन्मे कीर्तयतः शृणु ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— कल्याणि! जो सदा मानसिक धर्मसे युक्त हैं अर्थात् मनसे धर्मका ही चिन्तन और आचरण करते हैं, वे पुरुष स्वर्गमें जाते हैं। मैं इस विषयमें जो बताता हूँ, उसे सुनो॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्प्रणीतेन मनसा दुष्प्रणीततरा कृतिः।
मनो बद्‌ध्यति येनेह शृणु वाक्यं शुभानने ॥ ३० ॥

मूलम्

दुष्प्रणीतेन मनसा दुष्प्रणीततरा कृतिः।
मनो बद्‌ध्यति येनेह शृणु वाक्यं शुभानने ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुभानने! मनमें दुर्विचार आनेसे मनुष्यके कार्य भी दुर्नीतिपूर्ण एवं दूषित होते हैं, जिससे मन बन्धनमें पड़ जाता है। इस विषयमें मेरी बात सुनो॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरण्ये विजने न्यस्तं परस्वं दृश्यते यदा।
मनसापि न हिंसन्ति ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३१ ॥

मूलम्

अरण्ये विजने न्यस्तं परस्वं दृश्यते यदा।
मनसापि न हिंसन्ति ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब दूसरेका धन निर्जन वनमें पड़ा हुआ दिखायी दे, उस समय भी जो उसकी ओर मन ललचाकर किसीकी हिंसा नहीं करते, वे मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्रामे गृहे वा ये द्रव्यं पारक्यं विजने स्थितम्।
नाभिनन्दन्ति वै नित्यं ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३२ ॥

मूलम्

ग्रामे गृहे वा ये द्रव्यं पारक्यं विजने स्थितम्।
नाभिनन्दन्ति वै नित्यं ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गाँव या घरके एकान्त स्थानमें पड़े हुए पराये धनका जो कभी अभिनन्दन नहीं करते हैं, वे मानव स्वर्गगामी होते हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव परदारान् ये कामवृत्तान् रहोगतान्।
मनसापि न हिंसन्ति ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३३ ॥

मूलम्

तथैव परदारान् ये कामवृत्तान् रहोगतान्।
मनसापि न हिंसन्ति ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार जो मनुष्य एकान्तमें प्राप्त हुई कामासक्त परायी स्त्रियोंको मनसे भी उनके साथ अन्याय करनेका विचार नहीं करते, वे स्वर्गगामी होते हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रुं मित्रं च ये नित्यं तुल्येन मनसा नराः।
भजन्ति मैत्राः संगम्य ते नसः स्वर्गगामिनः ॥ ३४ ॥

मूलम्

शत्रुं मित्रं च ये नित्यं तुल्येन मनसा नराः।
भजन्ति मैत्राः संगम्य ते नसः स्वर्गगामिनः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सबके प्रति मैत्रीभाव रखकर सबसे मिलते तथा शत्रु और मित्रको भी सदा समान हृदयसे अपनाते है, वे मानव स्वर्गलोकमें जाते हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतवन्तो दयावन्तः शुचयः सत्यसंगराः।
स्वैरर्थैः परिसंतुष्टास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३५ ॥

मूलम्

श्रुतवन्तो दयावन्तः शुचयः सत्यसंगराः।
स्वैरर्थैः परिसंतुष्टास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शास्त्रज्ञ, दयालु पवित्र, सत्यप्रतिज्ञ और अपने ही धनसे संतुष्ट होते हैं, वे स्वर्गलोकमें जाते हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवैरा ये त्वनायासा मैत्रीचित्तरताः सदा।
सर्वभूतदयावन्तस्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३६ ॥

मूलम्

अवैरा ये त्वनायासा मैत्रीचित्तरताः सदा।
सर्वभूतदयावन्तस्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके मनमें किसीके प्रति वैर नहीं है, जो आयासरहित, मैत्रीभावसे पूर्ण हृदयवाले तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति सदा ही दयाभाव रखनेवाले हैं, वे मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रद्धावन्तो दयावन्तश्चोक्षाश्चोक्षजनप्रियाः ।
धर्माधर्मविदो नित्यं ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३७ ॥

मूलम्

श्रद्धावन्तो दयावन्तश्चोक्षाश्चोक्षजनप्रियाः ।
धर्माधर्मविदो नित्यं ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो श्रद्धालु, दयालु, शुद्ध, शुद्धजनोंके प्रेमी तथा धर्म और अधर्मके ज्ञाता हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुभानामशुभानां च कर्मणां फलसंचये।
विपाकज्ञाश्च ये देवि ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३८ ॥

मूलम्

शुभानामशुभानां च कर्मणां फलसंचये।
विपाकज्ञाश्च ये देवि ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! जो शुभ और अशुभ कर्मोंके फल-संचयके विषयमें परिणामके ज्ञाता हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यायोपेता गुणोपेता देवद्विजपराः सदा।
समुत्थानमनुप्राप्तास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३९ ॥

मूलम्

न्यायोपेता गुणोपेता देवद्विजपराः सदा।
समुत्थानमनुप्राप्तास्ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो न्यायशील, गुणवान्, देवताओं और द्विजोंके भक्त तथा उत्थानको प्राप्त हैं, वे मानव स्वर्गगामी होते हैं॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुभैः कर्मफलैर्देवि मयैते परिकीर्तिताः।
स्वर्गमार्गपरा भूयः किं त्वं श्रोतुमिहेच्छसि ॥ ४० ॥

मूलम्

शुभैः कर्मफलैर्देवि मयैते परिकीर्तिताः।
स्वर्गमार्गपरा भूयः किं त्वं श्रोतुमिहेच्छसि ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! जो शुभ कर्मोंके फलोंसे स्वर्गलोकके मार्गमें स्थित हैं, उनका वर्णन मैंने यहाँ किया है। अब तुम और क्या सुनना चाहती हो?॥४०॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

महान् मे संशयः कश्चिन्मर्त्यान् प्रति महेश्वर।
तस्मात् त्वं नैपुणेनाद्य मम व्याख्यातुमर्हसि ॥ ४१ ॥

मूलम्

महान् मे संशयः कश्चिन्मर्त्यान् प्रति महेश्वर।
तस्मात् त्वं नैपुणेनाद्य मम व्याख्यातुमर्हसि ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने पूछा— महेश्वर! मुझे मनुष्योंके विषयमें एक महान् संशय है। आप अच्छी तरह उस संशयका समाधान करें॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केनायुर्लभते दीर्घं कर्मणा पुरुषः प्रभो।
तपसा वापि देवेश केनायुर्लभते महत् ॥ ४२ ॥

मूलम्

केनायुर्लभते दीर्घं कर्मणा पुरुषः प्रभो।
तपसा वापि देवेश केनायुर्लभते महत् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! मनुष्य किस कर्मसे दीर्घायु प्राप्त करता है? तथा देवेश्वर! किस तपस्यासे मनुष्यको बड़ी आयु प्राप्त होती है?॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षीणायुः केन भवति कर्मणा भुवि मानवः।
विपाकं कर्मणां देव वक्तुमर्हस्यनिन्दित ॥ ४३ ॥

मूलम्

क्षीणायुः केन भवति कर्मणा भुवि मानवः।
विपाकं कर्मणां देव वक्तुमर्हस्यनिन्दित ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनिन्द्य महादेव! इस भूतलपर कौन-सा कर्म करनेसे मनुष्यकी आयु क्षीण हो जाती है? आप मुझसे कर्म-विपाकका वर्णन करें॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरे च महाभाग्या मन्दभाग्यास्तथापरे।
अकुलीनास्तथा चान्ये कुलीनाश्च तथापरे ॥ ४४ ॥

मूलम्

अपरे च महाभाग्या मन्दभाग्यास्तथापरे।
अकुलीनास्तथा चान्ये कुलीनाश्च तथापरे ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस जगत्‌में कुछ लोग महान् भाग्यशाली हैं तो कुछ लोग मन्दभाग्य हैं, कुछ लोग निन्दित कुलमें उत्पन्न हैं तो दूसरे लोग उच्चकुलमें॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्दर्शाः केचिदाभान्ति नराः काष्ठमया इव।
प्रियदर्शास्तथा चान्ये दर्शनादेव मानवाः ॥ ४५ ॥

मूलम्

दुर्दर्शाः केचिदाभान्ति नराः काष्ठमया इव।
प्रियदर्शास्तथा चान्ये दर्शनादेव मानवाः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ मनुष्य दुर्दशाके मारे काष्ठमय (जडवत्) प्रतीत हो रहे हैं, उनकी ओर देखना कठिन जान पड़ता है और दूसरे कितने ही मनुष्य दर्शनमात्रसे मन प्रसन्न कर देते हैं, उनकी ओर देखना प्रिय लगता है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्प्रज्ञाः केचिदाभान्ति केचिदाभान्ति पण्डिताः।
महाप्राज्ञास्तथैवान्ये ज्ञानविज्ञानभाविनः ॥ ४६ ॥

मूलम्

दुष्प्रज्ञाः केचिदाभान्ति केचिदाभान्ति पण्डिताः।
महाप्राज्ञास्तथैवान्ये ज्ञानविज्ञानभाविनः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ लोग दुर्बुद्धि जान पड़ते हैं और कुछ विद्वान् तथा कितने ही ज्ञान-विज्ञानशाली महाप्राज्ञ प्रतीत होते हैं॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अल्पाबाधास्तथा केचिन्महाबाधास्तथापरे ।
दृश्यन्ते पुरुषा देव तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ४७ ॥

मूलम्

अल्पाबाधास्तथा केचिन्महाबाधास्तथापरे ।
दृश्यन्ते पुरुषा देव तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव! कुछ लोग साधारण एवं स्वल्प बाधाओंसे ग्रस्त होते हैं और कुछ लोगोंको बड़ी-बड़ी बाधाएँ घेरे रहती हैं। इस तरह जो भिन्न-भिन्न प्रकारकी विषम अवस्थामें पड़े हुए पुरुष दिखायी देते हैं, उनकी इस विषमताका क्या कारण है? यह मुझे विस्तारपूर्वक बताइये॥४७॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्त तेऽहं प्रवक्ष्यामि देवि कर्मफलोदयम्।
मर्त्यलोके नरः सर्वो येन स्वफलमश्नुते ॥ ४८ ॥

मूलम्

हन्त तेऽहं प्रवक्ष्यामि देवि कर्मफलोदयम्।
मर्त्यलोके नरः सर्वो येन स्वफलमश्नुते ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! अब मैं प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें बता रहा हूँ कि कर्मके फलका उदय किस प्रकार होता है और मर्त्यलोकके सभी मनुष्य किस प्रकार अपनी-अपनी करनीका फल भोगते हैं॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणातिपाते यो रौद्रो दण्डहस्तोद्यतः सदा।
नित्यमुद्यतशस्त्रश्च हन्ति भूतगणान् नरः ॥ ४९ ॥
निर्दयः सर्वभूतानां नित्यमुद्वेगकारकः ।
अपि कीटपिपीलानामशरण्यः सुनिर्घृणः ॥ ५० ॥
एवंभूतो नरो देवि निरयं प्रतिपद्यते।

मूलम्

प्राणातिपाते यो रौद्रो दण्डहस्तोद्यतः सदा।
नित्यमुद्यतशस्त्रश्च हन्ति भूतगणान् नरः ॥ ४९ ॥
निर्दयः सर्वभूतानां नित्यमुद्वेगकारकः ।
अपि कीटपिपीलानामशरण्यः सुनिर्घृणः ॥ ५० ॥
एवंभूतो नरो देवि निरयं प्रतिपद्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! जो मनुष्य दूसरोंका प्राण लेनेके लिये हाथमें डंडा लेकर सदा भयंकर रूप धारण किये रहता है, जो प्रतिदिन हथियार उठाये जगत्‌के प्राणियोंकी हत्या किया करता है, जिसके भीतर किसीके प्रति दया नहीं होती, जो समस्त प्राणियोंको सदा उद्वेगमें डाले रहता है और जो अत्यन्त क्रूर होनेके कारण चींटी और कीड़ोंको भी शरण नहीं देता, ऐसा मानव घोर नरकमें पड़ता है॥४९-५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपरीतस्तु धर्मात्मा रूपवानभिजायते ॥ ५१ ॥
पापेन कर्मणा देवि वध्यो हिंसारतिर्नरः।
अप्रियः सर्वभूतानां हीनायुरुपजायते ॥ ५२ ॥

मूलम्

विपरीतस्तु धर्मात्मा रूपवानभिजायते ॥ ५१ ॥
पापेन कर्मणा देवि वध्यो हिंसारतिर्नरः।
अप्रियः सर्वभूतानां हीनायुरुपजायते ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका स्वभाव इसके विपरीत है, वह धर्मात्मा और रूपवान् होता है। देवि! हिंसाप्रेमी मनुष्य अपने पापकर्मके कारण दूसरोंका वध्य, सब प्राणियोंका अप्रिय तथा अल्पायु होता है॥५१-५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरयं याति हिंसात्मा याति स्वर्गमहिंसकः।
यातनां निरये रौद्रां स कृच्छ्रां लभते नरः ॥ ५३ ॥

मूलम्

निरयं याति हिंसात्मा याति स्वर्गमहिंसकः।
यातनां निरये रौद्रां स कृच्छ्रां लभते नरः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका चित्त हिंसामें लगा होता है, वह नरकमें गिरता है और जो किसीकी हिंसा नहीं करता, वह स्वर्गमें जाता है। नरकमें पड़े हुए जीवको बड़ी कष्टदायक और भयंकर यातना भोगनी पड़ती है॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः कश्चिन्निरयात्‌ तस्मात्‌ समुत्तरति कर्हिचित्।
मानुष्यं लभते चापि हीनायुस्तत्र जायते ॥ ५४ ॥

मूलम्

यः कश्चिन्निरयात्‌ तस्मात्‌ समुत्तरति कर्हिचित्।
मानुष्यं लभते चापि हीनायुस्तत्र जायते ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कभी कोई उस नरकसे छुटकारा पाता है तो मनुष्ययोनिमें जन्म लेता है, किंतु वहाँ उसकी आयु बहुत थोड़ी होती है॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापेन कर्मणा देवि बद्धो हिंसारतिर्नरः।
अप्रियः सर्वभूतानां हीनायुरुपजायते ॥ ५५ ॥

मूलम्

पापेन कर्मणा देवि बद्धो हिंसारतिर्नरः।
अप्रियः सर्वभूतानां हीनायुरुपजायते ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! पापकर्मसे बँधा हुआ हिंसापरायण मनुष्य समस्त प्राणियोंका अप्रिय होनेके कारण अल्पायु हो जाता है॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु शुक्लाभिजातीयः प्राणिघातविवर्जकः ।
निक्षिप्तशस्त्रो निर्दण्डो न हिंसति कदाचन ॥ ५६ ॥
न घातयति नो हन्ति घ्नन्तं नैवानुमोदते।
सर्वभूतेषु सस्नेही यथाऽऽत्मनि तथापरे ॥ ५७ ॥
ईदृशः पुरुषोत्कर्षो देवि देवत्वमश्नुते।
उपपन्नान् सुखान् भोगानुपाश्नाति मुदा युतः ॥ ५८ ॥

मूलम्

यस्तु शुक्लाभिजातीयः प्राणिघातविवर्जकः ।
निक्षिप्तशस्त्रो निर्दण्डो न हिंसति कदाचन ॥ ५६ ॥
न घातयति नो हन्ति घ्नन्तं नैवानुमोदते।
सर्वभूतेषु सस्नेही यथाऽऽत्मनि तथापरे ॥ ५७ ॥
ईदृशः पुरुषोत्कर्षो देवि देवत्वमश्नुते।
उपपन्नान् सुखान् भोगानुपाश्नाति मुदा युतः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके विपरीत जो शुद्ध कुलमें उत्पन्न और जीवहिंसासे अलग रहनेवाला है, जिसने शस्त्र और दण्डका परित्याग कर दिया है, जिसके द्वारा कभी किसीकी हिंसा नहीं होती, जो न मारता है, न मारनेकी आज्ञा देता है और न मारनेवालेका अनुमोदन ही करता है। जिसके मनमें सब प्राणियोंके प्रति स्नेह बना रहता है तथा जो अपने ही समान दूसरोंपर भी दयादृष्टि रखता है। देवि! ऐसा श्रेष्ठ पुरुष देवत्वको प्राप्त होता है और देवलोकमें प्रसन्नतापूर्वक स्वतः उपलब्ध हुए सुखद भोगोंका अनुभव करता है॥५६—५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ चेन्मानुषे लोके कदाचिदुपपद्यते।
तत्र दीर्घायुरुत्पन्नः स नरः सुखमेधते ॥ ५९ ॥

मूलम्

अथ चेन्मानुषे लोके कदाचिदुपपद्यते।
तत्र दीर्घायुरुत्पन्नः स नरः सुखमेधते ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा यदि कदाचित् वह मनुष्यलोकमें जन्म लेता है तो वह मनुष्य दीर्घायु और सुखी होता है॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष दीर्घायुषां मार्गः सुवृत्तानां सुकर्मिणाम्।
प्राणिहिंसाविमोक्षेण ब्रह्मणा समुदीरितः ॥ ६० ॥

मूलम्

एष दीर्घायुषां मार्गः सुवृत्तानां सुकर्मिणाम्।
प्राणिहिंसाविमोक्षेण ब्रह्मणा समुदीरितः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सत्कर्मका अनुष्ठान करनेवाले सदाचारी एवं दीर्घजीवी मनुष्योंका लक्षण है। स्वयं ब्रह्माजीने इस मार्गका उपदेश किया है। समस्त प्राणियोंकी हिंसाका परित्याग करनेसे ही इसकी उपलब्धि होती है॥६०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि उमामहेश्वरसंवादे चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें उमामहेश्वरसंवादविषयक एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४४॥


  1. उपर्युक्त कर्मोंका निष्कामभावसे आचरण करनेवाले पुरुषको परमात्मपदकी प्राप्ति हो जाती है। ↩︎