भागसूचना
त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्राह्मणादि वर्णोंकी प्राप्तिमें मनुष्यके शुभाशुभ कर्मोंकी प्रधानताका प्रतिपादन
मूलम् (वचनम्)
उमोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् भगनेत्रघ्न पूष्णो दन्तनिपातन।
दक्षक्रतुहर त्र्यक्ष संशयो मे महानयम् ॥ १ ॥
मूलम्
भगवन् भगनेत्रघ्न पूष्णो दन्तनिपातन।
दक्षक्रतुहर त्र्यक्ष संशयो मे महानयम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्वतीजीने पूछा— भगदेवताकी आँख फोड़कर पूषाके दाँत तोड़ डालनेवाले दक्षयज्ञविध्वंसी भगवान् त्रिलोचन! मेरे मनमें यह एक महान् संशय है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चातुर्वर्ण्यं भगवता पूर्वं सृष्टं स्वयम्भुवा।
केन कर्मविपाकेन वैश्यो गच्छति शूद्रताम् ॥ २ ॥
मूलम्
चातुर्वर्ण्यं भगवता पूर्वं सृष्टं स्वयम्भुवा।
केन कर्मविपाकेन वैश्यो गच्छति शूद्रताम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् ब्रह्माजीने पूर्वकालमें जिन चार वर्णोंकी सृष्टि की है, उनमेंसे वैश्य किस कर्मके परिणामसे शूद्रत्वको प्राप्त हो जाता है?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैश्यो वा क्षत्रियः केन द्विजो वा क्षत्रियो भवेत्।
प्रतिलोमः कथं देव शक्यो धर्मो निवर्तितुम् ॥ ३ ॥
मूलम्
वैश्यो वा क्षत्रियः केन द्विजो वा क्षत्रियो भवेत्।
प्रतिलोमः कथं देव शक्यो धर्मो निवर्तितुम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा क्षत्रिय किस कर्मसे वैश्य होता है और ब्राह्मण किस कर्मसे क्षत्रिय हो जाता है? देव! प्रतिलोम धर्मको कैसे निवृत्त किया जा सकता है?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन वा कर्मणा विप्रः शूद्रयोनौ प्रजायते।
क्षत्रियः शूद्रतामेति केन वा कर्मणा विभो ॥ ४ ॥
मूलम्
केन वा कर्मणा विप्रः शूद्रयोनौ प्रजायते।
क्षत्रियः शूद्रतामेति केन वा कर्मणा विभो ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! कौन-सा कर्म करनेसे ब्राह्मण शूद्र-योनिमें जन्म लेता है अथवा किस कर्मसे क्षत्रिय शूद्र हो जाता है?॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतन्मे संशयं देव वद भूतपतेऽनघ।
त्रयो वर्णाः प्रकृत्येह कथं ब्राह्मण्यमाप्नुयुः ॥ ५ ॥
मूलम्
एतन्मे संशयं देव वद भूतपतेऽनघ।
त्रयो वर्णाः प्रकृत्येह कथं ब्राह्मण्यमाप्नुयुः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देव! पापरहित भूतनाथ! मेरे इस संशयका समाधान कीजिये। शूद्र, वैश्य और क्षत्रिय—इन तीन वर्णोंके लोग किस प्रकार स्वभावतः ब्राह्मणत्वको प्राप्त हो सकते हैं?॥५॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मण्यं देवि दुष्प्रापं निसर्गाद् ब्राह्मणः शुभे।
क्षत्रियो वैश्यशूद्रौ वा निसर्गादिति मे मतिः ॥ ६ ॥
मूलम्
ब्राह्मण्यं देवि दुष्प्रापं निसर्गाद् ब्राह्मणः शुभे।
क्षत्रियो वैश्यशूद्रौ वा निसर्गादिति मे मतिः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! ब्राह्मणत्व दुर्लभ है। शुभे! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—ये चारों वर्ण मेरे विचारसे नैसर्गिक (प्राकृतिक या स्वभावसिद्ध) हैं, ऐसा मेरा विचार है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणा दुष्कृतेनेह स्थानाद् भ्रश्यति वै द्विजः।
ज्येष्ठं वर्णमनुप्राप्य तस्माद् रक्षेत वै द्विजः ॥ ७ ॥
मूलम्
कर्मणा दुष्कृतेनेह स्थानाद् भ्रश्यति वै द्विजः।
ज्येष्ठं वर्णमनुप्राप्य तस्माद् रक्षेत वै द्विजः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना अवश्य है कि यहाँ पापकर्म करनेसे द्विज अपने स्थानसे-अपनी महत्तासे नीचे गिर जाता है। अतः द्विजको उत्तम वर्णमें जन्म पाकर अपनी मर्यादाकी रक्षा करनी चाहिये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थितो ब्राह्मणधर्मेण ब्राह्मण्यमुपजीवति ।
क्षत्रियो वाथ वैश्यो वा ब्रह्मभूयं स गच्छति ॥ ८ ॥
मूलम्
स्थितो ब्राह्मणधर्मेण ब्राह्मण्यमुपजीवति ।
क्षत्रियो वाथ वैश्यो वा ब्रह्मभूयं स गच्छति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि क्षत्रिय अथवा वैश्य ब्राह्मण-धर्मका पालन करते हुए ब्राह्मणत्वका सहारा लेता है तो वह ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु विप्रत्वमुत्सृज्य क्षात्रं धर्मं निषेवते।
ब्राह्मण्यात् स परिभ्रष्टः क्षत्रयोनौ प्रजायते ॥ ९ ॥
मूलम्
यस्तु विप्रत्वमुत्सृज्य क्षात्रं धर्मं निषेवते।
ब्राह्मण्यात् स परिभ्रष्टः क्षत्रयोनौ प्रजायते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मण ब्राह्मणत्वका त्याग करके क्षत्रिय-धर्मका सेवन करता है, वह अपने धर्मसे भ्रष्ट होकर क्षत्रिय योनिमें जन्म लेता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैश्यकर्म च यो विप्रो लोभमोहव्यपाश्रयः।
ब्राह्मण्यं दुर्लभं प्राप्य करोत्यल्पमतिः सदा ॥ १० ॥
स द्विजो वैश्यतामेति वैश्यो वा शूद्रतामियात्।
स्वधर्मात् प्रच्युतो विप्रस्ततः शूद्रत्वमाप्नुते ॥ ११ ॥
मूलम्
वैश्यकर्म च यो विप्रो लोभमोहव्यपाश्रयः।
ब्राह्मण्यं दुर्लभं प्राप्य करोत्यल्पमतिः सदा ॥ १० ॥
स द्विजो वैश्यतामेति वैश्यो वा शूद्रतामियात्।
स्वधर्मात् प्रच्युतो विप्रस्ततः शूद्रत्वमाप्नुते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो विप्र दुर्लभ ब्राह्मणत्वको पाकर लोभ और मोहके वशीभूत हो अपनी मन्दबुद्धिताके कारण वैश्यका कर्म करता है, वह वैश्ययोनिमें जन्म लेता है। अथवा यदि वैश्य शूद्रके कर्मको अपनाता है, तो वह भी शूद्रत्वको प्राप्त होता है। शूद्रोचित कर्म करके अपने धर्मसे भ्रष्ट हुआ ब्राह्मण शूद्रत्वको प्राप्त हो जाता है॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रासौ निरयं प्राप्तो वर्णभ्रष्टो बहिष्कृतः।
ब्रह्मलोकात् परिभ्रष्टः शूद्रः समुपजायते ॥ १२ ॥
मूलम्
तत्रासौ निरयं प्राप्तो वर्णभ्रष्टो बहिष्कृतः।
ब्रह्मलोकात् परिभ्रष्टः शूद्रः समुपजायते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण-जातिका पुरुष शूद्र-कर्म करनेके कारण अपने वर्णसे भ्रष्ट होकर जातिसे बहिष्कृत हो जाता है और मृत्युके पश्चात् वह ब्रह्मलोककी प्राप्तिसे वंचित होकर नरकमें पड़ता है। इसके बाद वह शूद्रकी योनिमें जन्म ग्रहण करता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रियो वा महाभागे वैश्यो वा धर्मचारिणि।
स्वानि कर्माण्यपाहाय शूद्रकर्म निषेवते ॥ १३ ॥
स्वस्थानात् स परिभ्रष्टो वर्णसंकरतां गतः।
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रत्वं याति तादृशः ॥ १४ ॥
मूलम्
क्षत्रियो वा महाभागे वैश्यो वा धर्मचारिणि।
स्वानि कर्माण्यपाहाय शूद्रकर्म निषेवते ॥ १३ ॥
स्वस्थानात् स परिभ्रष्टो वर्णसंकरतां गतः।
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रत्वं याति तादृशः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाभागे! धर्मचारिणि! क्षत्रिय अथवा वैश्य भी अपने-अपने कर्मोंको छोड़कर यदि शूद्रका काम करने लगता है तो वह अपनी जातिसे भ्रष्ट होकर वर्णसंकर हो जाता है और दूसरे जन्ममें शूद्रकी योनिमें जन्म पाता है। ऐसा व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य कोई भी क्यों न हो, वह शूद्रभावको प्राप्त होता है॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु बुद्धः स्वधर्मेण ज्ञानविज्ञानवान् शुचिः।
धर्मज्ञो धर्मनिरतः स धर्मफलमश्नुते ॥ १५ ॥
मूलम्
यस्तु बुद्धः स्वधर्मेण ज्ञानविज्ञानवान् शुचिः।
धर्मज्ञो धर्मनिरतः स धर्मफलमश्नुते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष अपने वर्णधर्मका पालन करते हुए बोध प्राप्त करता है और ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न, पवित्र तथा धर्मज्ञ होकर धर्ममें ही लगा रहता है, वही धर्मके वास्तविक फलका उपभोग करता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं चैवापरं देवि ब्रह्मणा समुदाहृतम्।
अध्यात्मं नैष्ठिकं सद्भिर्धर्मकामैर्निषेव्यते ॥ १६ ॥
मूलम्
इदं चैवापरं देवि ब्रह्मणा समुदाहृतम्।
अध्यात्मं नैष्ठिकं सद्भिर्धर्मकामैर्निषेव्यते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! ब्रह्माजीने यह एक बात और बतायी है—धर्मकी इच्छा रखनेवाले सत्पुरुषोंको आजीवन अध्यात्म-तत्त्वका ही सेवन करना चाहिये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उग्रान्नं गर्हितं देवि गणान्नं श्राद्धसूतकम्।
दुष्टान्नं नैव भोक्तव्यं शूद्रान्नं नैव कर्हिचित् ॥ १७ ॥
मूलम्
उग्रान्नं गर्हितं देवि गणान्नं श्राद्धसूतकम्।
दुष्टान्नं नैव भोक्तव्यं शूद्रान्नं नैव कर्हिचित् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! उग्रस्वभावके मनुष्यका अन्न निन्दित माना गया है। किसी समुदायका, श्राद्धका, जननाशौचका, दुष्ट पुरुषका और शूद्रका अन्न भी निषिद्ध है—उसे कभी नहीं खाना चाहिये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रान्नं गर्हितं देवि सदा देवैर्महात्मभिः।
पितामहमुखोत्सृष्टं प्रमाणमिति मे मतिः ॥ १८ ॥
मूलम्
शूद्रान्नं गर्हितं देवि सदा देवैर्महात्मभिः।
पितामहमुखोत्सृष्टं प्रमाणमिति मे मतिः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओं और महात्मा पुरुषोंने शूद्रके अन्नकी सदा ही निन्दा की है। इस विषयमें पितामह ब्रह्माजीके श्रीमुखका वचन प्रमाण है, ऐसा मेरा विश्वास है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रान्नेनावशेषेण जठरे यो म्रियेद् द्विजः।
आहिताग्निस्तथा यज्वा स शूद्रगतिभाग् भवेत् ॥ १९ ॥
मूलम्
शूद्रान्नेनावशेषेण जठरे यो म्रियेद् द्विजः।
आहिताग्निस्तथा यज्वा स शूद्रगतिभाग् भवेत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मण पेटमें शूद्रका अन्न लिये मर जाता है, वह अग्निहोत्री अथवा यज्ञ करनेवाला ही क्यों न रहा हो, उसे शूद्रकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन शूद्रान्नशेषेण ब्रह्मस्थानादपाकृतः ।
ब्राह्मणः शूद्रतामेति नास्ति तत्र विचारणा ॥ २० ॥
मूलम्
तेन शूद्रान्नशेषेण ब्रह्मस्थानादपाकृतः ।
ब्राह्मणः शूद्रतामेति नास्ति तत्र विचारणा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उदरमें शूद्रान्नका शेषभाग स्थित होनेके कारण ब्राह्मण ब्रह्मलोकसे वंचित हो शूद्रभावको प्राप्त होता है; इसमें कोई अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यान्नेनावशेषेण जठरे यो म्रियेद् द्विजः।
तां तां योनिं व्रजेद् विप्रो यस्यान्नमुपजीवति ॥ २१ ॥
मूलम्
यस्यान्नेनावशेषेण जठरे यो म्रियेद् द्विजः।
तां तां योनिं व्रजेद् विप्रो यस्यान्नमुपजीवति ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उदरमें जिसके अन्नका अवशेष लेकर जो ब्राह्मण मृत्युको प्राप्त होता है, वह उसीकी योनिमें जाता है। जिसके अन्नसे जीवन-निर्वाह करता है, उसीकी योनिमें जन्म ग्रहण करता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणत्वं शुभं प्राप्य दुर्लभं योऽवमन्यते।
अभोज्यान्नानि चाश्नाति स द्विजत्वात् पतेत वै ॥ २२ ॥
मूलम्
ब्राह्मणत्वं शुभं प्राप्य दुर्लभं योऽवमन्यते।
अभोज्यान्नानि चाश्नाति स द्विजत्वात् पतेत वै ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो शुभ एवं दुर्लभ ब्राह्मणत्वको पाकर उसकी अवहेलना करता है और नहीं खानेयोग्य अन्न खाता है, वह निश्चय ही ब्राह्मणत्वसे गिर जाता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरापो ब्रह्महा क्षुद्रचोरो भग्नव्रतोऽशुचिः।
स्वाध्यायवर्जितः पापो लुब्धो नैकृतिकः शठः ॥ २३ ॥
अव्रती वृषलीभर्ता कुण्डाशी सोमविक्रयी।
निहीनसेवी विप्रो हि पतति ब्रह्मयोनितः ॥ २४ ॥
मूलम्
सुरापो ब्रह्महा क्षुद्रचोरो भग्नव्रतोऽशुचिः।
स्वाध्यायवर्जितः पापो लुब्धो नैकृतिकः शठः ॥ २३ ॥
अव्रती वृषलीभर्ता कुण्डाशी सोमविक्रयी।
निहीनसेवी विप्रो हि पतति ब्रह्मयोनितः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शराबी, ब्रह्महत्यारा, नीच, चोर, व्रतभंग करनेवाला, अपवित्र, स्वाध्यायहीन, पापी, लोभी, कपटी, शठ, व्रतका पालन न करनेवाला, शूद्रजातिकी स्त्रीका स्वामी, कुण्डाशी (पतिके जीते-जी उत्पन्न किये हुए जारज पुत्रके घरमें खानेवाला अथवा पाकपात्रमें ही भोजन करनेवाला), सोमरस बेचनेवाला और नीचसेवी ब्राह्मण ब्राह्मणकी योनिसे भ्रष्ट हो जाता है॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुतल्पी गुरुद्रोही गुरुकुत्सारतिश्च यः।
ब्रह्मविच्चापि पतति ब्राह्मणो ब्रह्मयोनितः ॥ २५ ॥
मूलम्
गुरुतल्पी गुरुद्रोही गुरुकुत्सारतिश्च यः।
ब्रह्मविच्चापि पतति ब्राह्मणो ब्रह्मयोनितः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो गुरुकी शैय्यापर सोनेवाला, गुरुद्रोही और गुरुनिन्दामें अनुरक्त है, वह ब्राह्मण वेदवेत्ता होनेपर भी ब्रह्मयोनिसे नीचे गिर जाता है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एभिस्तु कर्मभिर्देवि शुभैराचरितैस्तथा ।
शूद्रो ब्राह्मणतां याति वैश्यः क्षत्रियतां व्रजेत् ॥ २६ ॥
मूलम्
एभिस्तु कर्मभिर्देवि शुभैराचरितैस्तथा ।
शूद्रो ब्राह्मणतां याति वैश्यः क्षत्रियतां व्रजेत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! इन्हीं शुभ कर्मों और आचरणोंसे शूद्र ब्राह्मणत्वको प्राप्त होता है और वैश्य क्षत्रियत्वको॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रकर्माणि सर्वाणि यथान्यायं यथाविधि।
शुश्रूषां परिचर्यां च ज्येष्ठे वर्णे प्रयत्नतः ॥ २७ ॥
कुर्यादविमनाः शूद्रः सततं सत्पथे स्थितः।
देवद्विजातिसत्कर्ता सर्वातिथ्यकृतव्रतः ॥ २८ ॥
ऋतुकालाभिगामी च नियतो नियताशनः।
चोक्षश्चोक्षजनान्वेषी शेषान्नकृतभोजनः ॥ २९ ॥
वृथामांसं न भुञ्जीत शूद्रो वैश्यत्वमृच्छति।
मूलम्
शूद्रकर्माणि सर्वाणि यथान्यायं यथाविधि।
शुश्रूषां परिचर्यां च ज्येष्ठे वर्णे प्रयत्नतः ॥ २७ ॥
कुर्यादविमनाः शूद्रः सततं सत्पथे स्थितः।
देवद्विजातिसत्कर्ता सर्वातिथ्यकृतव्रतः ॥ २८ ॥
ऋतुकालाभिगामी च नियतो नियताशनः।
चोक्षश्चोक्षजनान्वेषी शेषान्नकृतभोजनः ॥ २९ ॥
वृथामांसं न भुञ्जीत शूद्रो वैश्यत्वमृच्छति।
अनुवाद (हिन्दी)
शूद्र अपने सभी कर्मोंको न्यायानुसार विधिपूर्वक सम्पन्न करे। अपनेसे ज्येष्ठ वर्णकी सेवा और परिचर्यामें प्रयत्नपूर्वक लगा रहे। अपने कर्तव्यपालनसे कभी ऊबे नहीं। सदा सन्मार्गपर स्थित रहे। देवताओं और द्विजोंका सत्कार करे। सबके आतिथ्यका व्रत लिये रहे। ऋतुकालमें ही स्त्रीके साथ समागम करे। नियमपूर्वक रहकर नियमित भोजन करे। स्वयं शुद्ध रहकर शुद्ध पुरुषोंका ही अन्वेषण करे। अतिथि-सत्कार और कुटुम्बीजनोंके भोजनसे बचे हुए अन्नका ही आहार करे और मांस न खाय। इस नियमसे रहनेवाला शूद्र (मृत्युके पश्चात् पुण्यकर्मोंका फल भोगकर) वैश्ययोनिमें जन्म लेता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋतवागनहंवादी निर्द्वन्द्वः शमकोविदः ॥ ३० ॥
यजते नित्ययज्ञैश्च स्वाध्यायपरमः शुचिः।
दान्तो ब्राह्मणसत्कर्ता सर्ववर्णबुभूषकः ॥ ३१ ॥
गृहस्थव्रतमातिष्ठन् द्विकालकृतभोजनः ।
शेषाशी विजिताहारो निष्कामो निरहंवदः ॥ ३२ ॥
अग्निहोत्रमुपासंश्च जुह्वानश्च यथाविधि ।
सर्वातिथ्यमुपातिष्ठन् शेषान्नकृतभोजनः ॥ ३३ ॥
त्रेताग्निमन्त्रविहितो वैश्यो भवति वै द्विजः।
स वैश्यः क्षत्रियकुले शुचौ महति जायते ॥ ३४ ॥
मूलम्
ऋतवागनहंवादी निर्द्वन्द्वः शमकोविदः ॥ ३० ॥
यजते नित्ययज्ञैश्च स्वाध्यायपरमः शुचिः।
दान्तो ब्राह्मणसत्कर्ता सर्ववर्णबुभूषकः ॥ ३१ ॥
गृहस्थव्रतमातिष्ठन् द्विकालकृतभोजनः ।
शेषाशी विजिताहारो निष्कामो निरहंवदः ॥ ३२ ॥
अग्निहोत्रमुपासंश्च जुह्वानश्च यथाविधि ।
सर्वातिथ्यमुपातिष्ठन् शेषान्नकृतभोजनः ॥ ३३ ॥
त्रेताग्निमन्त्रविहितो वैश्यो भवति वै द्विजः।
स वैश्यः क्षत्रियकुले शुचौ महति जायते ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैश्य सत्यवादी, अहंकारशून्य, निर्द्वन्द्व, शान्तिके साधनोंका ज्ञाता, स्वाध्यायपरायण और पवित्र होकर नित्य यज्ञोंद्वारा यजन करे। जितेन्द्रिय होकर ब्राह्मणोंका सत्कार करते हुए समस्त वर्णोंकी उन्नति चाहे। गृहस्थके व्रतका पालन करते हुए प्रतिदिन दो ही समय भोजन करे। यज्ञशेष अन्नका ही आहार करे। आहारपर काबू रखे। सम्पूर्ण कामनाओंको त्याग दे। अहंकारशून्य होकर विधिपूर्वक आहुति देते हुए अग्निहोत्र कर्मका सम्पादन करे। सबका आतिथ्य-सत्कार करके अवशिष्ट अन्नका स्वयं भोजन करे। त्रिविध अग्नियोंकी मन्त्रोच्चारणपूर्वक परिचर्या करे। ऐसा करनेवाला वैश्य द्विज होता है। वह वैश्य पवित्र एवं महान् क्षत्रियकुलमें जन्म लेता है॥३०—३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वैश्यः क्षत्रियो जातो जन्मप्रभृति संस्कृतः।
उपनीतो व्रतपरो द्विजो भवति सत्कृतः ॥ ३५ ॥
ददाति यजते यज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः।
अधीत्य स्वर्गमन्विच्छंस्त्रेताग्निशरणः सदा ॥ ३६ ॥
आर्तहस्तप्रदो नित्यं प्रजा धर्मेण पालयन्।
सत्यः सत्यानि कुरुते नित्यं यः सुखदर्शनः ॥ ३७ ॥
मूलम्
स वैश्यः क्षत्रियो जातो जन्मप्रभृति संस्कृतः।
उपनीतो व्रतपरो द्विजो भवति सत्कृतः ॥ ३५ ॥
ददाति यजते यज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः।
अधीत्य स्वर्गमन्विच्छंस्त्रेताग्निशरणः सदा ॥ ३६ ॥
आर्तहस्तप्रदो नित्यं प्रजा धर्मेण पालयन्।
सत्यः सत्यानि कुरुते नित्यं यः सुखदर्शनः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियकुलमें उत्पन्न हुआ वह वैश्य जन्मसे ही क्षत्रियोचित संस्कारसे सम्पन्न हो उपनयनके पश्चात् ब्रह्मचर्यव्रतके पालनमें तत्पर हो सर्वसम्मानित द्विज होता है। वह दान देता है, पर्याप्त दक्षिणावाले समृद्धिशाली यज्ञोंद्वारा भगवान्का यजन करता है, वेदोंका अध्ययन करके स्वर्गकी इच्छा रखकर सदा त्रिविध अग्नियोंकी शरण ले उनकी आराधना करता है, दुःखी एवं पीड़ित मनुष्योंको हाथका सहारा देता है, प्रतिदिन प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करता है, स्वयं सत्यपरायण होकर सत्यपूर्ण व्यवहार करता है तथा दर्शनसे ही सबके लिये सुखद होता है, वही श्रेष्ठ क्षत्रिय अथवा राजा है॥३५—३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मदण्डो न निर्दण्डो धर्मकार्यानुशासकः।
यन्त्रितः कार्यकरणैः षड्भागकृतलक्षणः ॥ ३८ ॥
मूलम्
धर्मदण्डो न निर्दण्डो धर्मकार्यानुशासकः।
यन्त्रितः कार्यकरणैः षड्भागकृतलक्षणः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मानुसार अपराधीको दण्ड दे। दण्डका त्याग न करे। प्रजाको धर्मकार्यका उपदेश दे। राजकार्य करनेके लिये नियम और विधानसे बँधा रहे। प्रजासे उसकी आयका छठा भाग करके रूपमें ग्रहण करे॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्राम्यधर्मं न सेवेत स्वच्छन्देनार्थकोविदः।
ऋतुकाले तु धर्मात्मा पत्नीमुपशयेत् सदा ॥ ३९ ॥
मूलम्
ग्राम्यधर्मं न सेवेत स्वच्छन्देनार्थकोविदः।
ऋतुकाले तु धर्मात्मा पत्नीमुपशयेत् सदा ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कार्यकुशल धर्मात्मा क्षत्रिय स्वच्छन्दतापूर्वक ग्राम्य धर्म (मैथुन) का सेवन न करे। केवल ऋतुकालमें ही सदा पत्नीके निकट शयन करे॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदोपवासी नियतः स्वाध्यायनिरतः शुचिः।
बर्हिष्कान्तरिते नित्यं शयानोऽग्निगृहे सदा ॥ ४० ॥
मूलम्
सदोपवासी नियतः स्वाध्यायनिरतः शुचिः।
बर्हिष्कान्तरिते नित्यं शयानोऽग्निगृहे सदा ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सदा उपवास करे अर्थात् एकादशी आदिके दिन उपवास करे और दूसरे दिन भी सदा दो ही समय भोजन करे। बीचमें कुछ न खाय। नियमपूर्वक रहे, वेद-शास्त्रोंके स्वाध्यायमें तत्पर रहे, पवित्र हो प्रतिदिन अग्निशालामें कुशकी चटाईपर शयन करे॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वातिथ्यं त्रिवर्गस्य कुर्वाणः सुमनाः सदा।
शूद्राणां चान्नकामानां नित्यं सिद्धमिति ब्रुवन् ॥ ४१ ॥
मूलम्
सर्वातिथ्यं त्रिवर्गस्य कुर्वाणः सुमनाः सदा।
शूद्राणां चान्नकामानां नित्यं सिद्धमिति ब्रुवन् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रिय सदा प्रसन्नतापूर्वक सबका आतिथ्य-सत्कार करते हुए धर्म, अर्थ और कामका सेवन करें। शूद्र भी यदि अन्नकी इच्छा रखकर उसके लिये प्रार्थना करे तो क्षत्रिय उनके लिये सदा यही उत्तर दे कि तुम्हारे लिये भोजन तैयार है, चलो कर लो॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थाद् वा यदि वा कामान्न किंचिदुपलक्षयेत्।
पितृदेवातिथिकृते साधनं कुरुते च यः ॥ ४२ ॥
मूलम्
अर्थाद् वा यदि वा कामान्न किंचिदुपलक्षयेत्।
पितृदेवातिथिकृते साधनं कुरुते च यः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह स्वार्थ या कामनावश किसी वस्तुका प्रदर्शन न करे। जो पितरों, देवताओं तथा अतिथियोंकी सेवाके लिये चेष्टा करता है, वही श्रेष्ठ क्षत्रिय है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्ववेश्मनि यथान्यायमुपास्ते भैक्ष्यमेव च।
त्रिकालमग्निहोत्रं च जुह्वानो वै यथाविधि ॥ ४३ ॥
मूलम्
स्ववेश्मनि यथान्यायमुपास्ते भैक्ष्यमेव च।
त्रिकालमग्निहोत्रं च जुह्वानो वै यथाविधि ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रिय अपने ही घरमें न्यायपूर्वक भिक्षा (भोजन) करे। तीनों समय विधिवत् अग्निहोत्र करता रहे॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोब्राह्मणहितार्थाय रणे चाभिमुखो हतः।
त्रेताग्निमन्त्रपूतात्मा समाविश्य द्विजो भवेत् ॥ ४४ ॥
मूलम्
गोब्राह्मणहितार्थाय रणे चाभिमुखो हतः।
त्रेताग्निमन्त्रपूतात्मा समाविश्य द्विजो भवेत् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह धर्ममें स्थित हो त्रिविध अग्नियोंकी मन्त्रपूर्वक परिचर्यासे पवित्रचित्त हो यदि गौओं तथा ब्राह्मणोंके हितके लिये समरमें शत्रुका सामना करते हुए मारा जाय तो दूसरे जन्ममें ब्राह्मण होता है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानविज्ञानसम्पन्नः संस्कृतो वेदपारगः ।
विप्रो भवति धर्मात्मा क्षत्रियः स्वेन कर्मणा ॥ ४५ ॥
मूलम्
ज्ञानविज्ञानसम्पन्नः संस्कृतो वेदपारगः ।
विप्रो भवति धर्मात्मा क्षत्रियः स्वेन कर्मणा ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार धर्मात्मा क्षत्रिय अपने कर्मसे जन्मान्तरमें ज्ञानविज्ञानसम्पन्न, संस्कारयुक्त तथा वेदोंका पारंगत विद्वान् ब्राह्मण होता है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतैः कर्मफलैर्देवि न्यूनजातिकुलोद्भवः ।
शूद्रोऽप्यागमसम्पन्नो द्विजो भवति संस्कृतः ॥ ४६ ॥
मूलम्
एतैः कर्मफलैर्देवि न्यूनजातिकुलोद्भवः ।
शूद्रोऽप्यागमसम्पन्नो द्विजो भवति संस्कृतः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! इन कर्मफलोंके प्रभावसे नीच जाति एवं हीन कुलमें उत्पन्न हुआ शूद्र भी जन्मान्तरमें शास्त्रज्ञान-सम्पन्न और संस्कारयुक्त ब्राह्मण होता है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणो वाप्यसद्वृत्तः सर्वसंकरभोजनः ।
ब्राह्मण्यं स समुत्सृज्य शूद्रो भवति तादृशः ॥ ४७ ॥
मूलम्
ब्राह्मणो वाप्यसद्वृत्तः सर्वसंकरभोजनः ।
ब्राह्मण्यं स समुत्सृज्य शूद्रो भवति तादृशः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण भी यदि दुराचारी होकर सम्पूर्ण संकर जातियोंके घर भोजन करने लगे तो वह ब्राह्मणत्वका परित्याग करके वैसा ही शूद्र बन जाता है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मभिः शुचिभिर्देवि शुद्धात्मा विजितेन्द्रियः।
शूद्रोऽपि द्विजवत् सेव्य इति ब्रह्माब्रवीत् स्वयम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
कर्मभिः शुचिभिर्देवि शुद्धात्मा विजितेन्द्रियः।
शूद्रोऽपि द्विजवत् सेव्य इति ब्रह्माब्रवीत् स्वयम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! शूद्र भी यदि जितेन्द्रिय होकर पवित्र कर्मोंके अनुष्ठानसे अपने अन्तःकरणको शुद्ध बना लेता है, वह द्विजकी ही भाँति सेव्य होता है—यह साक्षात् ब्रह्माजीका कथन है॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वभावः कर्म च शुभं यत्र शूद्रेऽपि तिष्ठति।
विशिष्टः स द्विजातेर्वै विज्ञेय इति मे मतिः ॥ ४९ ॥
मूलम्
स्वभावः कर्म च शुभं यत्र शूद्रेऽपि तिष्ठति।
विशिष्टः स द्विजातेर्वै विज्ञेय इति मे मतिः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा तो ऐसा विचार है कि यदि शूद्रके स्वभाव और कर्म दोनों ही उत्तम हों तो वह द्विजातिसे भी बढ़कर माननेयोग्य है॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न योनिर्नापि संस्कारो न श्रुतं न च संततिः।
कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम् ॥ ५० ॥
मूलम्
न योनिर्नापि संस्कारो न श्रुतं न च संततिः।
कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणत्वकी प्राप्तिमें न तो केवल योनि, न संस्कार, न शास्त्रज्ञान और न संतति ही कारण है। ब्राह्मणत्वका प्रधान हेतु तो सदाचार ही है॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वोऽयं ब्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।
वृत्ते स्थितस्तु शूद्रोऽपि ब्राह्मणत्वं नियच्छति ॥ ५१ ॥
मूलम्
सर्वोऽयं ब्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।
वृत्ते स्थितस्तु शूद्रोऽपि ब्राह्मणत्वं नियच्छति ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोकमें यह सारा ब्राह्मणसमुदाय सदाचारसे ही अपने पदपर बना हुआ है। सदाचारमें स्थित रहनेवाला शूद्र भी ब्राह्मणत्वको प्राप्त हो सकता है॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मः स्वभावः सुश्रोणि समः सर्वत्र मे मतिः।
निर्गुणं निर्मलं ब्रह्म यत्र तिष्ठति स द्विजः ॥ ५२ ॥
मूलम्
ब्राह्मः स्वभावः सुश्रोणि समः सर्वत्र मे मतिः।
निर्गुणं निर्मलं ब्रह्म यत्र तिष्ठति स द्विजः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुश्रोणि! ब्रह्मका स्वभाव सर्वत्र समान है। जिसके भीतर उस निर्गुण और निर्मल ब्रह्मका ज्ञान है, वही वास्तवमें ब्राह्मण है, ऐसा मेरा विचार है॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते योनिफला देवि स्थानभागनिदर्शकाः।
स्वयं च वरदेनोक्ता ब्रह्मणा सृजता प्रजाः ॥ ५३ ॥
मूलम्
एते योनिफला देवि स्थानभागनिदर्शकाः।
स्वयं च वरदेनोक्ता ब्रह्मणा सृजता प्रजाः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! ये जो चारों वर्णोंके स्थान और विभाग बतलाये गये हैं, ये उस-उस जातिमें जन्म ग्रहण करनेके फल हैं। प्रजाकी सृष्टि करते समय वरदाता ब्रह्माजीने स्वयं ही यह बात कही है॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणोऽपि महत् क्षेत्रं लोके चरति पादवत्।
यत् तत्र बीजं वपति सा कृषिः प्रेत्य भाविनि॥५४॥
मूलम्
ब्राह्मणोऽपि महत् क्षेत्रं लोके चरति पादवत्।
यत् तत्र बीजं वपति सा कृषिः प्रेत्य भाविनि॥५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
भामिनि! ब्राह्मण संसारमें एक महान् क्षेत्र है। दूसरे क्षेत्रोंकी अपेक्षा इसमें विशेषता इतनी ही है कि यह पैरोंसे युक्त चलता-फिरता खेत है। इस क्षेत्रमें जो बीज डाला जाता है, वह परलोकके लिये जीविकाकी साधनरूप खेतीके रूपमें परिणत हो जाता है॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विघसाशिना सदा भाव्यं सत्पथालम्बिना तथा।
बाह्मं हि मार्गमाक्रम्य वर्तितव्यं बुभूषता ॥ ५५ ॥
मूलम्
विघसाशिना सदा भाव्यं सत्पथालम्बिना तथा।
बाह्मं हि मार्गमाक्रम्य वर्तितव्यं बुभूषता ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपना कल्याण चाहनेवाले ब्राह्मणको उचित है कि वह सज्जनोंके मार्गका अवलम्बन करके सदा अतिथि और पोष्यवर्गको भोजन करानेके बाद अन्न ग्रहण करे, वेदोक्त पथका आश्रय लेकर उत्तम बर्ताव करे॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संहिताध्यायिना भाव्यं गृहे वै गृहमेधिना।
नित्यं स्वाध्यायिना भाव्यं न चाध्ययनजीविना ॥ ५६ ॥
मूलम्
संहिताध्यायिना भाव्यं गृहे वै गृहमेधिना।
नित्यं स्वाध्यायिना भाव्यं न चाध्ययनजीविना ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गृहस्थ ब्राह्मण घरमें रहकर प्रतिदिन संहिताका पाठ और शास्त्रोंका स्वाध्याय करे। अध्ययनको जीविकाका साधन न बनावे॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंभूतो हि यो विप्रः सत्पथं सत्यथे स्थितः।
आहिताग्निरधीयानो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ५७ ॥
मूलम्
एवंभूतो हि यो विप्रः सत्पथं सत्यथे स्थितः।
आहिताग्निरधीयानो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जो ब्राह्मण सन्मार्गपर स्थित हो सत्पथका ही अनुसरण करता है तथा अग्निहोत्र एवं स्वाध्यायपूर्वक जीवन बिताता है, वह ब्रह्मभावको प्राप्त होता है॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मण्यं देवि सम्प्राप्य रक्षितव्यं यतात्मना।
योनिप्रतिग्रहादानैः कर्मभिश्च शुचिस्मिते ॥ ५८ ॥
मूलम्
ब्राह्मण्यं देवि सम्प्राप्य रक्षितव्यं यतात्मना।
योनिप्रतिग्रहादानैः कर्मभिश्च शुचिस्मिते ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! शुचिस्मिते! मनुष्यको चाहिये कि वह ब्राह्मणत्वको पाकर मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए योनि, प्रतिग्रह और दानकी शुद्धि एवं सत्कर्मोंद्वारा उसकी रक्षा करे॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् ते गुह्यमाख्यातं यथा शूद्रो भवेद् द्विजः।
ब्राह्मणो वा च्युतो धर्माद् यथा शूद्रत्वमाप्नुते ॥ ५९ ॥
मूलम्
एतत् ते गुह्यमाख्यातं यथा शूद्रो भवेद् द्विजः।
ब्राह्मणो वा च्युतो धर्माद् यथा शूद्रत्वमाप्नुते ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गिरिराजकुमारी! शूद्र धर्माचरण करनेसे जिस प्रकार ब्राह्मणत्वको प्राप्त करता है तथा ब्राह्मण स्वधर्मका त्याग करके जातिसे भ्रष्ट होकर जिस प्रकार शूद्र हो जाता है, यह गूढ़ रहस्यकी बात मैंने तुम्हें बतला दी॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि उमामहेश्वरसंवादे त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें उमामहेश्वरसंवादविषयक एक सौ तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४३॥