भागसूचना
एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शिव-पार्वतीका धर्मविषयक संवाद—वर्णाश्रमधर्मसम्बन्धी आचार एवं प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्मका निरूपण
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलोत्तमा नाम पुरा ब्रह्मणा योषिदुत्तमा।
तिलं तिलं समुद्धृत्य रत्नानां निर्मिता शुभा ॥ १ ॥
मूलम्
तिलोत्तमा नाम पुरा ब्रह्मणा योषिदुत्तमा।
तिलं तिलं समुद्धृत्य रत्नानां निर्मिता शुभा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् शिवने कहा— प्रिये! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने एक सर्वोत्तम नारीकी सृष्टि की थी। उन्होंने सम्पूर्ण रत्नोंका तिल-तिलभर सार उद्धृत करके उस शुभलक्षणा सुन्दरीके अंगोंका निर्माण किया था; इसलिये वह तिलोत्तमा नामसे प्रसिद्ध हुई॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साभ्यगच्छत मां देवि रूपेणाप्रतिमा भुवि।
प्रदक्षिणं लोभयन्ती मां शुभे रुचिरानना ॥ २ ॥
मूलम्
साभ्यगच्छत मां देवि रूपेणाप्रतिमा भुवि।
प्रदक्षिणं लोभयन्ती मां शुभे रुचिरानना ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! शुभे! इस पृथ्वीपर तिलोत्तमाके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी। वह सुमुखी बाला मुझे लुभाती हुई मेरी परिक्रमा करनेके लिये आयी॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतो यतः सा सुदती मामुपाधावदन्तिके।
ततस्ततो मुखं चारु मम देवि विनिर्गतम् ॥ ३ ॥
मूलम्
यतो यतः सा सुदती मामुपाधावदन्तिके।
ततस्ततो मुखं चारु मम देवि विनिर्गतम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! वह सुन्दर दाँतोंवाली सुन्दरी निकटसे मेरी परिक्रमा करती हुई जिस-जिस दिशाकी ओर गयी, उस-उस दिशाकी ओर मेरा मनोरम मुख प्रकट होता गया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां दिदृक्षुरहं योगाच्चतुर्मूर्तित्वमागतः ।
चतुर्मुखश्च संवृत्तो दर्शयन् योगमुत्तमम् ॥ ४ ॥
मूलम्
तां दिदृक्षुरहं योगाच्चतुर्मूर्तित्वमागतः ।
चतुर्मुखश्च संवृत्तो दर्शयन् योगमुत्तमम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तिलोत्तमाके रूपको देखनेकी इच्छासे मैं योगबलसे चतुर्मूर्ति एवं चतुर्मुख हो गया। इस प्रकार मैंने लोगोंको उत्तम योगशक्तिका दर्शन कराया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वेण वदनेनाहमिन्द्रत्वमनुशास्मि ह ।
उत्तरेण त्वया सार्धं रमाम्यहमनिन्दिते ॥ ५ ॥
मूलम्
पूर्वेण वदनेनाहमिन्द्रत्वमनुशास्मि ह ।
उत्तरेण त्वया सार्धं रमाम्यहमनिन्दिते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं पूर्व दिशावाले मुखके द्वारा इन्द्रपदका अनुशासन करता हूँ। अनिन्दिते! मैं उत्तरवर्ती मुखके द्वारा तुम्हारे साथ वार्तालापके सुखका अनुभव करता हूँ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्चिमं मे मुखं सौम्यं सर्वप्राणिसुखावहम्।
दक्षिणं भीमसंकाशं रौद्रं संहरति प्रजाः ॥ ६ ॥
मूलम्
पश्चिमं मे मुखं सौम्यं सर्वप्राणिसुखावहम्।
दक्षिणं भीमसंकाशं रौद्रं संहरति प्रजाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा पश्चिमवाला मुख सौम्य है और सम्पूर्ण प्राणियोंको सुख देनेवाला है तथा दक्षिण दिशावाला भयानक मुख रौद्र है, जो समस्त प्रजाका संहार करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जटिलो ब्रह्मचारी च लोकानां हितकाम्यया।
देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थं पिनाकं मे करे स्थितम् ॥ ७ ॥
मूलम्
जटिलो ब्रह्मचारी च लोकानां हितकाम्यया।
देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थं पिनाकं मे करे स्थितम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोगोंके हितकी कामनासे ही मैं जटाधारी ब्रह्मचारीके वेषमें रहता हूँ। देवताओंका हित करनेके लिये पिनाक सदा मेरे हाथमें रहता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रेण च पुरा व्रजं क्षिप्तं श्रीकाङ्क्षिणा मम।
दग्ध्वा कण्ठं तु तद् यातं तेन श्रीकण्ठता मम॥८॥
मूलम्
इन्द्रेण च पुरा व्रजं क्षिप्तं श्रीकाङ्क्षिणा मम।
दग्ध्वा कण्ठं तु तद् यातं तेन श्रीकण्ठता मम॥८॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें इन्द्रने मेरी श्री प्राप्त करनेकी इच्छासे मुझपर वज्रका प्रहार किया था। वह वज्र मेरा कण्ठ दग्ध करके चला गया। इससे मेरी श्रीकण्ठ नामसे ख्याति हुई॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(पुरा युगान्तरे यत्नादमृतार्थं सुरासुरैः।
बलवद्भिर्विमथितश्चिरकालं महोदधिः ॥
मूलम्
(पुरा युगान्तरे यत्नादमृतार्थं सुरासुरैः।
बलवद्भिर्विमथितश्चिरकालं महोदधिः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राचीन कालके दूसरे युगकी बात है, बलवान् देवताओं और असुरोंने मिलकर अमृतकी प्राप्तिके लिये महान् प्रयास करते हुए चिरकालतक महासागरका मन्थन किया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रज्जुना नागराजेन मथ्यमाने महोदधौ।
विषं तत्र समुद्भूतं सर्वलोकविनाशनम्॥
मूलम्
रज्जुना नागराजेन मथ्यमाने महोदधौ।
विषं तत्र समुद्भूतं सर्वलोकविनाशनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नागराज वासुकिकी रस्सीसे बँधी हुई मन्दराचलरूपी मथानीद्वारा जब महासागर मथा जाने लगा, तब उससे सम्पूर्ण लोकोंका विनाश करनेवाला विष प्रकट हुआ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् दृष्ट्वा विबुधाः सर्वे तदा विमनसोऽभवन्।
ग्रस्तं हि तन्मया देवि लोकानां हितकारणात्॥
मूलम्
तद् दृष्ट्वा विबुधाः सर्वे तदा विमनसोऽभवन्।
ग्रस्तं हि तन्मया देवि लोकानां हितकारणात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखकर सब देवताओंका मन उदास हो गया। देवि! तब मैंने तीनों लोकोंके हितके लिये उस विषको स्वयं पी लिया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्कृता नीलता चासीत् कण्ठे बर्हिनिभा शुभे।
तदाप्रभृति चैवाहं नीलकण्ठ इति स्मृतः॥
एतत् ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।
मूलम्
तत्कृता नीलता चासीत् कण्ठे बर्हिनिभा शुभे।
तदाप्रभृति चैवाहं नीलकण्ठ इति स्मृतः॥
एतत् ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।
अनुवाद (हिन्दी)
शुभे! उस विषके ही कारण मेरे कण्ठमें मोर-पंखके समान नीले रंगका चिह्न बन गया। तभीसे मैं नीलकण्ठ कहा जाने लगा। ये सारी बातें मैंने तुम्हें बता दी। अब और क्या सुनना चाहती हो?॥
मूलम् (वचनम्)
उमोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीलकण्ठ नमस्तेऽस्तु सर्वलोकसुखावह ॥
बहूनामायुधानां त्वं पिनाकं धर्तुमिच्छसि।
किमर्थं देवदेवेश तन्मे शंसितुमर्हसि॥
मूलम्
नीलकण्ठ नमस्तेऽस्तु सर्वलोकसुखावह ॥
बहूनामायुधानां त्वं पिनाकं धर्तुमिच्छसि।
किमर्थं देवदेवेश तन्मे शंसितुमर्हसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
उमाने पूछा— सम्पूर्ण लोकोंको सुख देनेवाले नीलकण्ठ! आपको नमस्कार है। देवदेवेश्वर! बहुत-से आयुधोंके होते हुए भी आप पिनाकको ही किसलिये धारण करना चाहते हैं? यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शस्त्रागमं ते वक्ष्यामि शृणु धर्म्यं शुचिस्मिते।
युगान्तरे महादेवि कण्वो नाम महामुनिः॥
स हि दिव्यां तपश्चर्यां कर्तुमेवोपचक्रमे।
मूलम्
शस्त्रागमं ते वक्ष्यामि शृणु धर्म्यं शुचिस्मिते।
युगान्तरे महादेवि कण्वो नाम महामुनिः॥
स हि दिव्यां तपश्चर्यां कर्तुमेवोपचक्रमे।
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहेश्वरने कहा— पवित्र मुसकानवाली महादेवि! सुनो। मुझे जिस प्रकार धर्मानुकूल शस्त्रोंकी प्राप्ति हुई है, उसे बता रहा हूँ। युगान्तरमें कण्वनामसे प्रसिद्ध एक महामुनि हो गये हैं। उन्होंने दिव्य तपस्या करनी आरम्भ की॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तस्य तपो घोरं चरतः कालपर्ययात्॥
वल्मीकं पुनरुद्भूतं तस्यैव शिरसि प्रिये।
धरमाणश्च तत् सर्वं तपश्चर्यां तथाकरोत्।
मूलम्
तथा तस्य तपो घोरं चरतः कालपर्ययात्॥
वल्मीकं पुनरुद्भूतं तस्यैव शिरसि प्रिये।
धरमाणश्च तत् सर्वं तपश्चर्यां तथाकरोत्।
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिये! उसके अनुसार घोर तपस्या करते हुए मुनिके मस्तकपर कालक्रमसे बाँबी जम गयी। वह सब अपने मस्तकपर लिये-दिये वे पूर्ववत् तपश्चर्यामें लगे रहे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै ब्रह्मा वरं दातुं जगाम तपसार्चितः॥
दत्त्वा तस्मै वरं देवो वेणुं दृष्ट्वा त्वचिन्तयत्।
मूलम्
तस्मै ब्रह्मा वरं दातुं जगाम तपसार्चितः॥
दत्त्वा तस्मै वरं देवो वेणुं दृष्ट्वा त्वचिन्तयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिकी तपस्यासे पूजित हुए ब्रह्माजी उन्हें वर देनेके लिये गये। वर देकर भगवान् ब्रह्माने वहाँ एक बाँस देखा और उसके उपयोगके लिये कुछ विचार किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोककार्यं समुद्दिश्य वेणुनानेन भामिनि॥
चिन्तयित्वा तमादाय कार्मुकार्थे न्ययोजयत्।
मूलम्
लोककार्यं समुद्दिश्य वेणुनानेन भामिनि॥
चिन्तयित्वा तमादाय कार्मुकार्थे न्ययोजयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
भामिनि! उस बाँसके द्वारा जगत्का उपकार करनेके उद्देश्यसे कुछ सोचकर ब्रह्माजीने उस वेणुको हाथमें ले लिया और उसे धनुषके उपयोगमें लगाया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णोर्मम च सामर्थ्यं ज्ञात्वा लोकपितामहः॥
धनुषी द्वे तदा प्रादाद् विष्णवे मम चैव तु।
मूलम्
विष्णोर्मम च सामर्थ्यं ज्ञात्वा लोकपितामहः॥
धनुषी द्वे तदा प्रादाद् विष्णवे मम चैव तु।
अनुवाद (हिन्दी)
लोकपितामह ब्रह्माने भगवान् विष्णुकी और मेरी शक्ति जानकर उनके और मेरे लिये तत्काल दो धनुष बनाकर दिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिनाकं नाम मे चापं शार्ङ्गं नाम हरेर्धनुः॥
तृतीयमवशेषेण गाण्डीवमभवद् धनुः ।
मूलम्
पिनाकं नाम मे चापं शार्ङ्गं नाम हरेर्धनुः॥
तृतीयमवशेषेण गाण्डीवमभवद् धनुः ।
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे धनुषका नाम पिनाक हुआ और श्रीहरिके धनुषका नाम शार्ङ्ग। उस वेणुके अवशेष भागसे एक तीसरा धनुष बनाया गया, जिसका नाम गाण्डीव हुआ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्च सोमाय निर्दिश्य ब्रह्मा लोकं गतः पुनः॥
एतत् ते सर्वमाख्यातं शस्त्रागममनिन्दिते।)
मूलम्
तच्च सोमाय निर्दिश्य ब्रह्मा लोकं गतः पुनः॥
एतत् ते सर्वमाख्यातं शस्त्रागममनिन्दिते।)
अनुवाद (हिन्दी)
गाण्डीव धनुष सोमको देकर ब्रह्माजी फिर अपने लोकको चले गये। अनिन्दिते! शस्त्रोंकी प्राप्तिका यह सारा वृत्तान्त मैंने तुम्हें कह सुनाया॥
मूलम् (वचनम्)
उमोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाहनेष्वत्र सर्वेषु श्रीमत्स्वन्येषु सत्तम।
कथं च वृषभो देव वाहनत्वमुपागतः ॥ ९ ॥
मूलम्
वाहनेष्वत्र सर्वेषु श्रीमत्स्वन्येषु सत्तम।
कथं च वृषभो देव वाहनत्वमुपागतः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उमाने पूछा— सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ महादेव! इस जगत्में अन्य सब सुन्दर वाहनोंके होते हुए क्यों वृषभ ही आपका वाहन बना है?॥९॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरभीमसृजद् ब्रह्मा देवधेनुं पयोमुचम्।
सा सृष्टा बहुधा जाता क्षरमाणा पयोऽमृतम् ॥ १० ॥
मूलम्
सुरभीमसृजद् ब्रह्मा देवधेनुं पयोमुचम्।
सा सृष्टा बहुधा जाता क्षरमाणा पयोऽमृतम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहेश्वरने कहा— प्रिये! ब्रह्माजीने देवताओंके लिये दूध देनेवाली सुरभि नामक गायकी सृष्टि की, जो मेघके समान दूधरूपी जलकी वर्षा करनेवाली थी। उत्पन्न हुई सुरभि अमृतमय दूध बहाती हुई अनेक रूपोंमें प्रकट हो गयी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्या वत्समुखोत्सृष्टः फेनो मद्गात्रमागतः।
ततो दग्धा मया गावो नानावर्णत्वमागताः ॥ ११ ॥
मूलम्
तस्या वत्समुखोत्सृष्टः फेनो मद्गात्रमागतः।
ततो दग्धा मया गावो नानावर्णत्वमागताः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन उसके बछड़ेके मुखसे निकला हुआ फेन मेरे शरीरपर पड़ गया। इससे मैंने कुपित होकर गौओंको ताप देना आरम्भ किया। मेरे रोषमें दग्ध हुई गौओंके रंग नाना प्रकारके हो गये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं लोकगुरुणा शमं नीतोऽर्थवेदिना।
वृषं चैनं ध्वजार्थं मे ददौ वाहनमेव च ॥ १२ ॥
मूलम्
ततोऽहं लोकगुरुणा शमं नीतोऽर्थवेदिना।
वृषं चैनं ध्वजार्थं मे ददौ वाहनमेव च ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब अर्थनीतिके ज्ञाता लोकगुरु ब्रह्माने मुझे शान्त किया तथा ध्वज-चिह्न और वाहनके रूपमें यह वृषभ मुझे प्रदान किया॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
उमोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवासा बहुरूपास्ते दिवि सर्वगुणान्विताः।
तांश्च संत्यज्य भगवन् श्मशाने रमसे कथम् ॥ १३ ॥
मूलम्
निवासा बहुरूपास्ते दिवि सर्वगुणान्विताः।
तांश्च संत्यज्य भगवन् श्मशाने रमसे कथम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उमाने पूछा— भगवन्! स्वर्गलोकमें अनेक प्रकारके सर्वगुणसम्पन्न निवासस्थान हैं, उन सबको छोड़कर आप श्मशान-भूमिमें कैसे रमते हैं?॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केशास्थिकलिले भीमे कपालघटसंकुले ।
गृध्रगोमायुबहुले चिताग्निशतसंकुले ॥ १४ ॥
अशुचौ मांसकलिले वसाशोणितकर्दमे ।
विकीर्णान्त्रास्थिनिचये शिवानादविनादिते ॥ १५ ॥
मूलम्
केशास्थिकलिले भीमे कपालघटसंकुले ।
गृध्रगोमायुबहुले चिताग्निशतसंकुले ॥ १४ ॥
अशुचौ मांसकलिले वसाशोणितकर्दमे ।
विकीर्णान्त्रास्थिनिचये शिवानादविनादिते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्मशानभूमि तो केशों और हड्डियोंसे भरी होती है। उस भयानक भूमिमें मनुष्योंकी खोपड़ियाँ और घड़ें पड़े रहते हैं। गीधों और गीदड़ोंकी जमातें जुटी रहती हैं। वहाँ सब ओर चिताएँ जला करती हैं। मांस, वसा और रक्तकी कीच-सी मची रहती है। बिखरी हुई आँतोंवाली हड्डियोंके ढेर पड़े रहते हैं और सियारिनोंकी हुआँ-हुआँकी ध्वनि वहाँ गूँजती रहती है, ऐसे अपवित्र स्थानमें आप क्यों रहते हैं?॥१४-१५॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेध्यान्वेषी महीं कृत्स्नां विचराम्यनिशं सदा।
न च मेध्यतरं किंचित् श्मशानादिह लक्ष्यते ॥ १६ ॥
मूलम्
मेध्यान्वेषी महीं कृत्स्नां विचराम्यनिशं सदा।
न च मेध्यतरं किंचित् श्मशानादिह लक्ष्यते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहेश्वरने कहा— प्रिये! मैं पवित्र स्थान ढूँढ़नेके लिये सदा सारी पृथ्वीपर दिन-रात विचरता रहता हूँ, परंतु श्मशानसे[^*] बढ़कर दूसरा कोई पवित्रतर स्थान यहाँ मुझे नहीं दिखायी दे रहा है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन मे सर्ववासानां श्मशाने रमते मनः।
न्यग्रोधशाखासंछन्ने निर्भुग्नस्रग्विभूषिते ॥ १७ ॥
मूलम्
तेन मे सर्ववासानां श्मशाने रमते मनः।
न्यग्रोधशाखासंछन्ने निर्भुग्नस्रग्विभूषिते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये सम्पूर्ण निवासस्थानोंमेंसे श्मशानमें ही मेरा मन अधिक रमता है। वह श्मशानभूमि बरगदकी डालियोंसे आच्छादित और मुर्दोंके शरीरसे टूटकर गिरी हुई पुष्पमालाओंके द्वारा विभूषित होती है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र चैव रमन्तीमे भूतसंघाः शुचिस्मिते।
न च भूतगणैर्देवि विनाहं वस्तुमुत्सहे ॥ १८ ॥
मूलम्
तत्र चैव रमन्तीमे भूतसंघाः शुचिस्मिते।
न च भूतगणैर्देवि विनाहं वस्तुमुत्सहे ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पवित्र मुसकानवाली देवि! ये मेरे भूतगण श्मशानमें ही रमते हैं। इन भूतगणोंके बिना मैं कहीं भी रह नहीं सकता॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष वासो हि मे मेध्यः स्वर्गीयश्च मतः शुभे।
पुण्यः परमकश्चैव मेध्यकामैरुपास्यते ॥ १९ ॥
मूलम्
एष वासो हि मे मेध्यः स्वर्गीयश्च मतः शुभे।
पुण्यः परमकश्चैव मेध्यकामैरुपास्यते ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुभे! यह श्मशानका निवास ही मैंने अपने लिये पवित्र और स्वर्गीय माना है। यही परम पुण्यस्थली है। पवित्र वस्तुकी कामना रखनेवाले उपासक इसीकी उपासना करते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अस्माच्छ्मशानमेध्यं तु नास्ति किंचिदनिन्दिते।
निस्सम्पातान्मनुष्याणां तस्माच्छुचितमं स्मृतम् ॥
मूलम्
(अस्माच्छ्मशानमेध्यं तु नास्ति किंचिदनिन्दिते।
निस्सम्पातान्मनुष्याणां तस्माच्छुचितमं स्मृतम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनिन्दिते! इस श्मशानभूमिसे अधिक पवित्र दूसरा कोई स्थान नहीं है, क्योंकि वहाँ मनुष्योंका अधिक आना-जाना नहीं होता। इसीलिये वह स्थान पवित्रतम माना गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थानं मे तत्र विहितं वीरस्थानमिति प्रिये।
कपालशतसम्पूर्णमभिरूपं भयानकम् ॥
मूलम्
स्थानं मे तत्र विहितं वीरस्थानमिति प्रिये।
कपालशतसम्पूर्णमभिरूपं भयानकम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिये! वह वीरोंका स्थान है, इसलिये मैंने वहाँ अपना निवास बनाया है। वह मृतकोंकी सैकड़ों खोपड़ियोंसे भरा हुआ भयानक स्थान भी मुझे सुन्दर लगता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मध्याह्ने संध्ययोस्तत्र नक्षत्रे रुद्रदैवते।
आयुष्कामैरशुद्धैर्वा न गन्तव्यमिति स्थितिः॥
मूलम्
मध्याह्ने संध्ययोस्तत्र नक्षत्रे रुद्रदैवते।
आयुष्कामैरशुद्धैर्वा न गन्तव्यमिति स्थितिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोपहरके समय, दोनों संध्याओंके समय तथा आर्द्रा नक्षत्रमें दीर्घायुकी कामना रखनेवाले अथवा अशुद्ध पुरुषोंको वहाँ नहीं जाना चाहिये, ऐसी मर्यादा है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदन्येन न शक्यं हि निहन्तुं भूतजं भयम्।
तत्रस्थोऽहं प्रजाः सर्वाः पालयामि दिने दिने॥
मूलम्
मदन्येन न शक्यं हि निहन्तुं भूतजं भयम्।
तत्रस्थोऽहं प्रजाः सर्वाः पालयामि दिने दिने॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे सिवा दूसरा कोई भूतजनित भयका नाश नहीं कर सकता। इसलिये मैं श्मशानमें रहकर समस्त प्रजाओंका प्रतिदिन पालन करता हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्नियोगाद् भूतसंघा न च घ्नन्तीह कंचन।
तांस्तु लोकहितार्थाय श्मशाने रमयाम्यहम्॥
एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।
मूलम्
मन्नियोगाद् भूतसंघा न च घ्नन्तीह कंचन।
तांस्तु लोकहितार्थाय श्मशाने रमयाम्यहम्॥
एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी आज्ञा मानकर ही भूतोंके समुदाय अब इस जगत्में किसीकी हत्या नहीं कर सकते हैं। सम्पूर्ण जगत्के हितके लिये मैं उन भूतोंको श्मशानभूमिमें रमाये रखता हूँ। श्मशानभूमिमें रहनेका सारा रहस्य मैंने तुमको बता दिया। अब और क्या सुनना चाहती हो?॥
मूलम् (वचनम्)
उमोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् देवदेवेश त्रिनेत्र वृषभध्वज।
पिङ्गलं विकृतं भाति रूपं ते तु भयानकम्॥
मूलम्
भगवन् देवदेवेश त्रिनेत्र वृषभध्वज।
पिङ्गलं विकृतं भाति रूपं ते तु भयानकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उमाने पूछा— भगवन्! देवदेवेश्वर! त्रिनेत्र! वृषभध्वज! आपका रूप पिंगल, विकृत और भयानक प्रतीत होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भस्मदिग्धं विरूपाक्षं तीक्ष्णदंष्ट्रं जटाकुलम्।
व्याघ्रोदरत्वक्संवीतं कपिलश्मश्रुसंततम् ॥
मूलम्
भस्मदिग्धं विरूपाक्षं तीक्ष्णदंष्ट्रं जटाकुलम्।
व्याघ्रोदरत्वक्संवीतं कपिलश्मश्रुसंततम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके सारे शरीरमें भभूति पुती हुई है, आपकी आँख विकराल दिखायी देती है, दाढ़ें तीखी हैं और सिरपर जटाओंका भार लदा हुआ है, आप बाघम्बर लपेटे हुए हैं और आपके मुखपर कपिल रंगकी दाढ़ी-मूँछ फैली हुई है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रौद्रं भयानकं घोरं शूलपट्टिशसंयुतम्।
किमर्थं त्वीदृशं रूपं तन्मे शंसितुमर्हसि॥
मूलम्
रौद्रं भयानकं घोरं शूलपट्टिशसंयुतम्।
किमर्थं त्वीदृशं रूपं तन्मे शंसितुमर्हसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपका रूप ऐसा रौद्र, भयानक, घोर तथा शूल और पट्टिश आदिसे युक्त किसलिये है? यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदहं कथयिष्यामि शृणु तत्त्वं समाहिता।
द्विविधो लौकिको भावः शीतमुष्णमिति प्रिये॥
मूलम्
तदहं कथयिष्यामि शृणु तत्त्वं समाहिता।
द्विविधो लौकिको भावः शीतमुष्णमिति प्रिये॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहेश्वरने कहा— प्रिये! मैं इसका भी यथार्थ कारण बताता हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। जगत्के सारे पदार्थ दो भागोंमें विभक्त हैं—शीत और उष्ण (अग्नि और सोम)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोर्हि ग्रथितं सर्वं सौम्याग्नेयमिदं जगत्।
सौम्यत्वं सततं विष्णौ मय्याग्नेयं प्रतिष्ठितम्॥
अनेन वपुषा नित्यं सर्वलोकान् बिभर्म्यहम्।
मूलम्
तयोर्हि ग्रथितं सर्वं सौम्याग्नेयमिदं जगत्।
सौम्यत्वं सततं विष्णौ मय्याग्नेयं प्रतिष्ठितम्॥
अनेन वपुषा नित्यं सर्वलोकान् बिभर्म्यहम्।
अनुवाद (हिन्दी)
अग्नि-सोम-रूप यह सम्पूर्ण जगत् उन शीत और उष्ण तत्त्वोंमें गुँथा हुआ है। सौम्य गुणकी स्थिति सदा भगवान् विष्णुमें है और मुझमें आग्नेय (तैजस) गुण प्रतिष्ठित है। इस प्रकार इस विष्णु और शिवरूप शरीरसे मैं सदा समस्त लोकोंकी रक्षा करता हूँ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रौद्राकृतिं विरूपाक्षं शूलपट्टिशसंयुतम् ।
आग्नेयमिति मे रूपं देवि लोकहिते रतम्॥
मूलम्
रौद्राकृतिं विरूपाक्षं शूलपट्टिशसंयुतम् ।
आग्नेयमिति मे रूपं देवि लोकहिते रतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! यह जो विकराल नेत्रोंसे युक्त और शूल-पट्टिशसे सुशोभित भयानक आकृतिवाला मेरा रूप है, यही आग्नेय है। यह सम्पूर्ण जगत्के हितमें तत्पर रहता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यहं विपरीतः स्यामेतत् त्यक्त्वा शुभानने।
तदैव सर्वलोकानां विपरीतं प्रवर्तते॥
मूलम्
यद्यहं विपरीतः स्यामेतत् त्यक्त्वा शुभानने।
तदैव सर्वलोकानां विपरीतं प्रवर्तते॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुभानने! यदि मैं इस रूपको त्यागकर इसके विपरीत हो जाऊँ तो उसी समय सम्पूर्ण लोकोंकी दशा विपरीत हो जायगी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्मयेदं ध्रियते रूपं लोकहितैषिणा।
इति ते कथितं देवि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥
मूलम्
तस्मान्मयेदं ध्रियते रूपं लोकहितैषिणा।
इति ते कथितं देवि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! इसलिये लोकहितकी इच्छासे ही मैंने यह रूप धारण किया है। अपने रूपका यह सारा रहस्य बता दिया, अब और क्या सुनना चाहती हो?॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवति देवेशे विस्मिता परमर्षयः।
वाग्भिःसाञ्जलिमालाभिरभितुष्टुवुरीश्वरम् ॥
मूलम्
एवं ब्रुवति देवेशे विस्मिता परमर्षयः।
वाग्भिःसाञ्जलिमालाभिरभितुष्टुवुरीश्वरम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— देवेश्वर भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर सभी महर्षि बड़े विस्मित हुए और हाथ जोड़कर अपनी वाणीद्वारा उन महादेवजीकी स्तुति करने लगे॥
मूलम् (वचनम्)
ऋषय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमः शङ्कर सर्वेश नमः सर्वजगद्गुरो।
नमो देवादिदेवाय नमः शशिकलाधर॥
मूलम्
नमः शङ्कर सर्वेश नमः सर्वजगद्गुरो।
नमो देवादिदेवाय नमः शशिकलाधर॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषि बोले— सर्वेश्वर शंकर! आपको नमस्कार है। सम्पूर्ण जगत्के गुरुदेव! आपको नमस्कार है। देवताओंके भी आदि देवता! आपको नमस्कार है। चन्द्रकलाधारी शिव! आपको नमस्कार है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो घोरतराद् घोर नमो रुद्राय शङ्कर।
नमः शान्ततराच्छान्त नमश्चन्द्रस्य पालक॥
मूलम्
नमो घोरतराद् घोर नमो रुद्राय शङ्कर।
नमः शान्ततराच्छान्त नमश्चन्द्रस्य पालक॥
अनुवाद (हिन्दी)
अत्यन्त घोरसे भी घोर रुद्रदेव! शंकर! आपको बार-बार नमस्कार है। अत्यन्त शान्तसे भी शान्त शिव! आपको नमस्कार है। चन्द्रमाके पालक! आपको नमस्कार है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमः सोमाय देवाय नमस्तुभ्यं चतुर्मुख।
नमो भूतपते शम्भो जह्नुकन्याम्बुशेखर॥
मूलम्
नमः सोमाय देवाय नमस्तुभ्यं चतुर्मुख।
नमो भूतपते शम्भो जह्नुकन्याम्बुशेखर॥
अनुवाद (हिन्दी)
उमासहित महादेवजीको नमस्कार है। चतुर्मुख! आपको नमस्कार है। गंगाजीके जलको सिरपर धारण करनेवाले भूतनाथ शम्भो! आपको नमस्कार है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्त्रिशूलहस्ताय पन्नगाभरणाय च ।
नमोऽस्तु विषमाक्षाय दक्षयज्ञप्रदाहक ॥
मूलम्
नमस्त्रिशूलहस्ताय पन्नगाभरणाय च ।
नमोऽस्तु विषमाक्षाय दक्षयज्ञप्रदाहक ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाथोंमें त्रिशूल धारण करनेवाले तथा सर्पमय आभूषणोंसे विभूषित आप महादेवको नमस्कार है। दक्ष-यज्ञको दग्ध करनेवाले त्रिलोचन! आपको नमस्कार है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमोऽस्तु बहुनेत्राय लोकरक्षणतत्पर ।
अहो देवस्य माहात्म्यमहो देवस्य वै कृपा॥
एवं धर्मपरत्वं च देवदेवस्य चार्हति।
मूलम्
नमोऽस्तु बहुनेत्राय लोकरक्षणतत्पर ।
अहो देवस्य माहात्म्यमहो देवस्य वै कृपा॥
एवं धर्मपरत्वं च देवदेवस्य चार्हति।
अनुवाद (हिन्दी)
लोकरक्षामें तत्पर रहनेवाले शंकर! आपके बहुत-से नेत्र हैं, आपको नमस्कार है। अहो! महादेवजीका कैसा माहात्म्य है। अहो! रुद्रदेवकी कैसी कृपा है। ऐसी धर्मपरायणता देवदेव महादेवके ही योग्य है॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवत्सु मुनिषु वचो देव्यब्रवीद्धरम्।
सम्प्रीत्यर्थं मुनीनां सा क्षणज्ञा परमं हितम्॥)
मूलम्
एवं ब्रुवत्सु मुनिषु वचो देव्यब्रवीद्धरम्।
सम्प्रीत्यर्थं मुनीनां सा क्षणज्ञा परमं हितम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— जब मुनि इस प्रकार स्तुति कर रहे थे, उसी समय अवसरको जाननेवाली देवी पार्वती मुनियोंकी प्रसन्नताके लिये भगवान् शंकरसे परम हितकी बात बोलीं॥
मूलम् (वचनम्)
उमोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् सर्वभूतेश सर्वधर्मविदां वर।
पिनाकपाणे वरद संशयो मे महानयम् ॥ २० ॥
मूलम्
भगवन् सर्वभूतेश सर्वधर्मविदां वर।
पिनाकपाणे वरद संशयो मे महानयम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उमाने पूछा— सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाताओंमें श्रेष्ठ! सर्वभूतेश्वर! भगवन्! वरदायक! पिनाकपाणे! मेरे मनमें यह एक और महान् संशय है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं मुनिगणः सर्वस्तपस्तेप इति प्रभो।
तपोवेषकरो लोके भ्रमते विविधाकृतिः ॥ २१ ॥
अस्य चैवर्षिसंघस्य मम च प्रियकाम्यया।
एतं ममेह संदेहं वक्तुमर्हस्यरिंदम ॥ २२ ॥
मूलम्
अयं मुनिगणः सर्वस्तपस्तेप इति प्रभो।
तपोवेषकरो लोके भ्रमते विविधाकृतिः ॥ २१ ॥
अस्य चैवर्षिसंघस्य मम च प्रियकाम्यया।
एतं ममेह संदेहं वक्तुमर्हस्यरिंदम ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! यह जो मुनियोंका सारा समुदाय यहाँ उपस्थित है, सदा तपस्यामें संलग्न रहा है और तपस्वीका वेष धारण किये लोकमें भ्रमण कर रहा है; इन सबकी आकृति भिन्न-भिन्न प्रकारकी है। शत्रुदमन शिव! इस ऋषिसमुदायका तथा मेरा भी प्रिय करनेकी इच्छासे आप मेरे इस संदेहका समाधान करें॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मः किंलक्षणः प्रोक्तः कथं वा चरितुं नरैः।
शक्यो धर्ममविन्दद्भिर्धर्मज्ञ वद मे प्रभो ॥ २३ ॥
मूलम्
धर्मः किंलक्षणः प्रोक्तः कथं वा चरितुं नरैः।
शक्यो धर्ममविन्दद्भिर्धर्मज्ञ वद मे प्रभो ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! धर्मज्ञ! धर्मका क्या लक्षण बताया गया है? तथा जो धर्मको नहीं जानते हैं ऐसे मनुष्य उस धर्मका आचरण कैसे कर सकते हैं? यह मुझे बताइये॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मुनिगणः सर्वस्तां देवीं प्रत्यपूजयत्।
वाग्भिर्ऋग्भूषितार्थाभिः स्तवैश्चार्थविशारदैः ॥ २४ ॥
मूलम्
ततो मुनिगणः सर्वस्तां देवीं प्रत्यपूजयत्।
वाग्भिर्ऋग्भूषितार्थाभिः स्तवैश्चार्थविशारदैः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— तदनन्तर समस्त मुनि-समुदायने देवी पार्वतीकी ऋग्वेदके मन्त्रार्थोंसे सुशोभित वाणी तथा उत्तम अर्थयुक्त स्तोत्रोंद्वारा स्तुति एवं प्रशंसा की॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम् ।
शमो दानं यथाशक्ति गार्हस्थ्यो धर्म उत्तमः ॥ २५ ॥
मूलम्
अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम् ।
शमो दानं यथाशक्ति गार्हस्थ्यो धर्म उत्तमः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! किसी भी जीवकी हिंसा न करना, सत्य बोलना, सब प्राणियोंपर दया करना, मन और इन्द्रियोंपर काबू रखना तथा अपनी शक्तिके अनुसार दान देना गृहस्थ-आश्रमका उत्तम धर्म है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परदारेष्वसंसर्गो न्यासस्त्रीपरिरक्षणम् ।
अदत्तादानविरमो मधुमांसस्य वर्जनम् ॥ २६ ॥
एष पञ्चविधो धर्मो बहुशाखः सुखोदयः।
देहिभिर्धर्मपरमैश्चर्तव्यो धर्मसम्भवः ॥ २७ ॥
मूलम्
परदारेष्वसंसर्गो न्यासस्त्रीपरिरक्षणम् ।
अदत्तादानविरमो मधुमांसस्य वर्जनम् ॥ २६ ॥
एष पञ्चविधो धर्मो बहुशाखः सुखोदयः।
देहिभिर्धर्मपरमैश्चर्तव्यो धर्मसम्भवः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(उक्त गृहस्थ-धर्मका पालन करना,) परायी स्त्रीके संसर्गसे दूर रहना, धरोहर और स्त्रीकी रक्षा करना, बिना दिये किसीकी वस्तु न लेना तथा मांस और मदिराको त्याग देना—से धर्मके पाँच भेद हैं, जो सुखकी प्राप्ति करानेवाले हैं। इनमेंसे एक-एक धर्मकी अनेक शाखाएँ हैं। धर्मको श्रेष्ठ माननेवाले मनुष्योंको चाहिये कि वे पुण्यप्रद धर्मका पालन अवश्य करें॥
मूलम् (वचनम्)
उमोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् संशयः पृष्ठस्तन्मे शंसितुमर्हसि।
चातुर्वर्ण्यस्य यो धर्मः स्वे स्वे वर्णे गुणावहः ॥ २८ ॥
मूलम्
भगवन् संशयः पृष्ठस्तन्मे शंसितुमर्हसि।
चातुर्वर्ण्यस्य यो धर्मः स्वे स्वे वर्णे गुणावहः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उमाने पूछा— भगवन्! मैं एक और संशय उपस्थित करती हूँ; चारों वर्णोंका जो-जो धर्म अपने-अपने वर्णके लिये विशेष लाभकारी हो, वह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणे कीदृशो धर्मः क्षत्रिये कीदृशोऽभवत्।
वैश्ये किंलक्षणो धर्मः शूद्रे किंलक्षणो भवेत् ॥ २९ ॥
मूलम्
ब्राह्मणे कीदृशो धर्मः क्षत्रिये कीदृशोऽभवत्।
वैश्ये किंलक्षणो धर्मः शूद्रे किंलक्षणो भवेत् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणके लिये धर्मका स्वरूप कैसा है, क्षत्रियके लिये कैसा है, वैश्यके लिये उपयोगी धर्मका क्या लक्षण है तथा शूद्रके धर्मका भी क्या लक्षण है?॥२९॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(एतत्ते कथयिष्यामि यत्ते देवि मनःप्रियम्।
शृणु तत् सर्वमखिलं धर्मं वर्णाश्रमाश्रितम्॥
मूलम्
(एतत्ते कथयिष्यामि यत्ते देवि मनःप्रियम्।
शृणु तत् सर्वमखिलं धर्मं वर्णाश्रमाश्रितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! तुम्हारे मनको प्रिय लगनेवाला जो यह धर्मका विषय है, उसे बताऊँगा। तुम वर्णों और आश्रमोंपर अवलम्बित समस्त धर्मका पूर्णरूपसे वर्णन सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चेति चतुर्विधम्।
ब्रह्मणा विहिताः पूर्वं लोकतन्त्रमभीप्सता॥
कर्माणि च तदर्हाणि शास्त्रेषु विहितानि वै।
मूलम्
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चेति चतुर्विधम्।
ब्रह्मणा विहिताः पूर्वं लोकतन्त्रमभीप्सता॥
कर्माणि च तदर्हाणि शास्त्रेषु विहितानि वै।
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—ये वर्णोंके चार भेद हैं। लोकतन्त्रकी इच्छा रखनेवाले विधाताने सबसे पहले ब्राह्मणोंकी सृष्टि की है और शास्त्रोंमें उनके योग्य कर्मोंका विधान किया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदीदमेकवर्णं स्याज्जगत् सर्वं विनश्यति॥
सहैव देवि वर्णानि चत्वारि विहितान्यतः।
मूलम्
यदीदमेकवर्णं स्याज्जगत् सर्वं विनश्यति॥
सहैव देवि वर्णानि चत्वारि विहितान्यतः।
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! यदि यह सारा जगत् एक ही वर्णका होता तो सब साथ ही नष्ट हो जाता। इसलिये विधाताने चार वर्ण बनाये हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुखतो ब्राह्मणाः सृष्टास्तस्मात् ते वाग्विशारदाः॥
बाहुभ्यां क्षत्रियाः सृष्टास्तस्मात् ते बाहुगर्विताः।
मूलम्
मुखतो ब्राह्मणाः सृष्टास्तस्मात् ते वाग्विशारदाः॥
बाहुभ्यां क्षत्रियाः सृष्टास्तस्मात् ते बाहुगर्विताः।
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणोंकी सृष्टि विधाताके मुखसे हुई है, इसीलिये वे वाणीविशारद होते हैं। क्षत्रियोंकी सृष्टि दोनों भुजाओंसे हुई है, इसीलिये उन्हें अपने बाहुबलपर गर्व होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदरादुद्गता वैश्यास्तस्माद् वार्तोपजीविनः ॥
शूद्राश्च पादतः सृष्टास्तस्मात् ते परिचारकाः।
तेषां धर्मांश्च कर्माणि शृणु देवि समाहिता॥
मूलम्
उदरादुद्गता वैश्यास्तस्माद् वार्तोपजीविनः ॥
शूद्राश्च पादतः सृष्टास्तस्मात् ते परिचारकाः।
तेषां धर्मांश्च कर्माणि शृणु देवि समाहिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैश्योंकी उत्पत्ति उदरसे हुई है, इसीलिये वे उदर-पोषणके निमित्त कृषि, वाणिज्यादि वार्तावृत्तिका आश्रय ले जीवन-निर्वाह करते हैं। शूद्रोंकी सृष्टि पैरसे हुई है, इसलिये वे परिचारक होते हैं। देवि! अब तुम एकाग्रचित्त होकर चारों वर्णोंके धर्म और कर्मोंका वर्णन सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विप्राः कृता भूमिदेवा लोकानां धारणे कृताः।
ते कैश्चिन्नावमन्तव्या ब्राह्मणा हितमिच्छुभिः॥
मूलम्
विप्राः कृता भूमिदेवा लोकानां धारणे कृताः।
ते कैश्चिन्नावमन्तव्या ब्राह्मणा हितमिच्छुभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणको इस भूमिका देवता बनाया गया है। वे सब लोकोंकी रक्षाके लिये उत्पन्न किये गये हैं। अतः अपने हितकी इच्छा रखनेवाले किसी भी मनुष्यको ब्राह्मणोंका अपमान नहीं करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि ते ब्राह्मणा न स्युर्दानयोगवहाः सदा।
उभयोर्लोकयोर्देवि स्थितिर्न स्यात् समासतः॥
मूलम्
यदि ते ब्राह्मणा न स्युर्दानयोगवहाः सदा।
उभयोर्लोकयोर्देवि स्थितिर्न स्यात् समासतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! यदि दान और योगका वहन करनेवाले वे ब्राह्मण न हों तो लोक और परलोक दोनोंकी स्थिति कदापि नहीं रह सकती॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणान् योऽवमन्येत निन्देच्च क्रोधयेच्च वा।
प्रहरेत हरेद् वापि धनं तेषां नराधमः॥
कारयेद्धीनकर्माणि कामलोभविमोहनात् ।
स च मामवमन्येत मां क्रोधयति निन्दति॥
मामेव प्रहरेन्मूढो मद्धनस्यापहारकः ।
मामेव प्रेषणं कृत्वा निन्दते मूढचेतनः॥
मूलम्
ब्राह्मणान् योऽवमन्येत निन्देच्च क्रोधयेच्च वा।
प्रहरेत हरेद् वापि धनं तेषां नराधमः॥
कारयेद्धीनकर्माणि कामलोभविमोहनात् ।
स च मामवमन्येत मां क्रोधयति निन्दति॥
मामेव प्रहरेन्मूढो मद्धनस्यापहारकः ।
मामेव प्रेषणं कृत्वा निन्दते मूढचेतनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मणोंका अपमान और निन्दा करता अथवा उन्हें क्रोध दिलाता या उनपर प्रहार करता अथवा उनका धन हर लेता है या काम, लोभ एवं मोहके वशीभूत होकर उनसे नीच कर्म कराता है, वह नराधम मेरा ही अपमान या निन्दा करता है। मुझे ही क्रोध दिलाता है, मुझपर ही प्रहार करता है, वह मूढ़ मेरे ही धनका अपहरण करता है तथा वह मूढ़चित्त मानव मुझे ही इधर-उधर भेजकर नीच कर्म कराता और निन्दा करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वाध्यायो यजनं दानं तस्य धर्म इति स्थितिः।
कर्माण्यध्यापनं चैव याजनं च प्रतिग्रहः॥
सत्यं शान्तिस्तपः शौचं तस्य धर्मः सनातनः।
मूलम्
स्वाध्यायो यजनं दानं तस्य धर्म इति स्थितिः।
कर्माण्यध्यापनं चैव याजनं च प्रतिग्रहः॥
सत्यं शान्तिस्तपः शौचं तस्य धर्मः सनातनः।
अनुवाद (हिन्दी)
वेदोंका स्वाध्याय, यज्ञ और दान ब्राह्मणका धर्म है, यह शास्त्रका निर्णय है। वेदोंको पढ़ाना, यजमानका यज्ञ कराना और दान लेना—ये उसकी जीविकाके साधनभूत कर्म हैं। सत्य, मनोनिग्रह, तप और शौचाचारका पालन—यह उनका सनातन धर्म है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्रयो रसधान्यानां ब्राह्मणस्य विगर्हितः॥
मूलम्
विक्रयो रसधान्यानां ब्राह्मणस्य विगर्हितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
रस और धान्य (अनाज) का विक्रय करना ब्राह्मणके लिये निन्दित है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तप एव सदा धर्मो ब्राह्मणस्य न संशयः।
स तु धर्मार्थमुत्पन्नः पूर्वं धात्रा तपोबलात्॥)
मूलम्
तप एव सदा धर्मो ब्राह्मणस्य न संशयः।
स तु धर्मार्थमुत्पन्नः पूर्वं धात्रा तपोबलात्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
सदा तप करना ही ब्राह्मणका धर्म है, इसमें संशय नहीं है। विधाताने पूर्वकालमें धर्मका अनुष्ठान करनेके लिये ही अपने तपोबलसे ब्राह्मणको उत्पन्न किया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न्यायतस्ते महाभागे सर्वशः समुदीरितः।
भूमिदेवा महाभागाः सदा लोके द्विजातयः ॥ ३० ॥
मूलम्
न्यायतस्ते महाभागे सर्वशः समुदीरितः।
भूमिदेवा महाभागाः सदा लोके द्विजातयः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाभागे! मैंने तुम्हारे निकट सब प्रकारसे धर्मका निर्णय किया है। महाभाग ब्राह्मण इस लोकमें सदा भूमिदेव माने गये हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपवासः सदा धर्मो ब्राह्मणस्य न संशयः।
स हि धर्मार्थसम्पन्नो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ३१ ॥
मूलम्
उपवासः सदा धर्मो ब्राह्मणस्य न संशयः।
स हि धर्मार्थसम्पन्नो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें संशय नहीं कि उपवास (इन्द्रियसंयम) व्रतका आचरण करना ब्राह्मणके लिये सदा धर्म बतलाया गया है। धर्मार्थसम्पन्न ब्राह्मण ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य धर्मक्रिया देवि ब्रह्मचर्या च न्यायतः।
व्रतोपनयनं चैव द्विजो येनोपपद्यते ॥ ३२ ॥
मूलम्
तस्य धर्मक्रिया देवि ब्रह्मचर्या च न्यायतः।
व्रतोपनयनं चैव द्विजो येनोपपद्यते ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! उसे धर्मका अनुष्ठान और न्यायतः ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिये। व्रतके पालनपूर्वक उपनयन-संस्कारका होना उसके लिये परम आवश्यक है, क्योंकि उसीसे वह द्विज होता है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुदैवतपूजार्थं स्वाध्यायाभ्यसनात्मकः ।
देहिभिर्धर्मपरमैश्चर्तव्यो धर्मसम्भवः ॥ ३३ ॥
मूलम्
गुरुदैवतपूजार्थं स्वाध्यायाभ्यसनात्मकः ।
देहिभिर्धर्मपरमैश्चर्तव्यो धर्मसम्भवः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरु और देवताओंकी पूजा तथा स्वाध्याय और अभ्यासरूप धर्मका पालन ब्राह्मणको अवश्य करना चाहिये। धर्मपरायण देहधारियोंको उचित है कि वे पुण्यप्रद धर्मका आचरण अवश्य करें॥३३॥
मूलम् (वचनम्)
उमोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् संशयो मेऽस्ति तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।
चातुर्वर्ण्यस्य धर्मं वै नैपुण्येन प्रकीर्तय ॥ ३४ ॥
मूलम्
भगवन् संशयो मेऽस्ति तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।
चातुर्वर्ण्यस्य धर्मं वै नैपुण्येन प्रकीर्तय ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उमाने कहा— भगवन्! मेरे मनमें अभी संशय रह गया है। अतः उसकी व्याख्या करके मुझे समझाइये। चारों वर्णोंका जो धर्म है, उसका पूर्णरूपसे प्रतिपादन कीजिये॥३४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
रहस्यश्रवणं धर्मो वेदव्रतनिषेवणम् ।
अग्निकार्यं तथा धर्मो गुरुकार्यप्रसाधनम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
रहस्यश्रवणं धर्मो वेदव्रतनिषेवणम् ।
अग्निकार्यं तथा धर्मो गुरुकार्यप्रसाधनम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहेश्वरने कहा— धर्मका रहस्य सुनना, वेदोक्त व्रतका पालन करना, होम और गुरुसेवा करना—यह ब्रह्मचर्य-आश्रमका धर्म है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भैक्षचर्या परो धर्मो नित्ययज्ञोपवीतिता।
नित्यं स्वाध्यायिता धर्मो ब्रह्मचर्याश्रमस्तथा ॥ ३६ ॥
मूलम्
भैक्षचर्या परो धर्मो नित्ययज्ञोपवीतिता।
नित्यं स्वाध्यायिता धर्मो ब्रह्मचर्याश्रमस्तथा ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मचारीके लिये भैक्षचर्या (गाँवोंमेंसे भिक्षा माँगकर लाना और गुरुको समर्पित करना) परम धर्म है। नित्य यज्ञोपवीत धारण किये रहना, प्रतिदिन वेदका स्वाध्याय करना और ब्रह्मचर्याश्रमके नियमोंके पालनमें लगे रहना, ब्रह्मचारीका प्रधान कर्म है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुणा चाभ्यनुज्ञातः समावर्तेत वै द्विजः।
विन्देतानन्तरं भार्यामनुरूपां यथाविधि ॥ ३७ ॥
मूलम्
गुरुणा चाभ्यनुज्ञातः समावर्तेत वै द्विजः।
विन्देतानन्तरं भार्यामनुरूपां यथाविधि ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मचर्यकी अवधि समाप्त होनेपर द्विज अपने गुरुकी आज्ञा लेकर समावर्तन करे और घर आकर अनुरूप स्त्रीसे विधिपूर्वक विवाह करे॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रान्नवर्जनं धर्मस्तथा सत्पथसेवनम् ।
धर्मो नित्योपवासित्वं ब्रह्मचर्यं तथैव च ॥ ३८ ॥
मूलम्
शूद्रान्नवर्जनं धर्मस्तथा सत्पथसेवनम् ।
धर्मो नित्योपवासित्वं ब्रह्मचर्यं तथैव च ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणको शूद्रका अन्न नहीं खाना चाहिये, यह उसका धर्म है। सन्मार्गका सेवन, नित्य उपवास-व्रत और ब्रह्मचर्यका पालन भी धर्म है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहिताग्निरधीयानो जुह्वानः संयतेन्द्रियः ।
विघसाशी यताहारो गृहस्थः सत्यवाक् शुचिः ॥ ३९ ॥
मूलम्
आहिताग्निरधीयानो जुह्वानः संयतेन्द्रियः ।
विघसाशी यताहारो गृहस्थः सत्यवाक् शुचिः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गृहस्थको अग्निस्थापनपूर्वक अग्निहोत्र करनेवाला, स्वाध्यायशील, होमपरायण, जितेन्द्रिय, विघसाशी, मिताहारी, सत्यवादी और पवित्र होना चाहिये॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिथिव्रतता धर्मो धर्मस्त्रेताग्निधारणम् ।
इष्टीश्च पशुबन्धांश्च विधिपूर्वं समाचरेत् ॥ ४० ॥
मूलम्
अतिथिव्रतता धर्मो धर्मस्त्रेताग्निधारणम् ।
इष्टीश्च पशुबन्धांश्च विधिपूर्वं समाचरेत् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतिथि-सत्कार करना और गार्हपत्य आदि त्रिविध अग्नियोंकी रक्षा करना उसके लिये धर्म है। वह नाना प्रकारकी इष्टियों और पशुरक्षाकर्मका भी विधिपूर्वक आचरण करे॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञश्च परमो धर्मस्तथाहिंसा च देहिषु।
अपूर्वभोजनं धर्मो विघसाशित्वमेव च ॥ ४१ ॥
मूलम्
यज्ञश्च परमो धर्मस्तथाहिंसा च देहिषु।
अपूर्वभोजनं धर्मो विघसाशित्वमेव च ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञ करना तथा किसी भी जीवकी हिंसा न करना उसके लिये परम धर्म है। घरमें पहले भोजन न करना तथा विघसाशी होना—कुटुम्बके लोगोंके भोजन करानेके बाद ही अवशिष्ट अन्नका भोजन करना—यह भी उसका धर्म है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुक्ते परिजने पश्चाद् भोजनं धर्म उच्यते।
ब्राह्मणस्य गृहस्थस्य श्रोत्रियस्य विशेषतः ॥ ४२ ॥
मूलम्
भुक्ते परिजने पश्चाद् भोजनं धर्म उच्यते।
ब्राह्मणस्य गृहस्थस्य श्रोत्रियस्य विशेषतः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब कुटुम्बीजन भोजन कर लें उसके पश्चात् स्वयं भोजन करना—यह गृहस्थ ब्राह्मणका विशेषतः श्रोत्रियका मुख्य धर्म बताया गया है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दम्पत्योः समशीलत्वं धर्मः स्याद् गृहमेधिनः।
गृह्याणां चैव देवानां नित्यपुष्पबलिक्रिया ॥ ४३ ॥
नित्योपलेपनं धर्मस्तथा नित्योपवासिता ।
मूलम्
दम्पत्योः समशीलत्वं धर्मः स्याद् गृहमेधिनः।
गृह्याणां चैव देवानां नित्यपुष्पबलिक्रिया ॥ ४३ ॥
नित्योपलेपनं धर्मस्तथा नित्योपवासिता ।
अनुवाद (हिन्दी)
पति और पत्नीका स्वभाव एक-सा होना चाहिये। यह गृहस्थका धर्म है। घरके देवताओंकी प्रतिदिन पुष्पोंद्वारा पूजा करना, उन्हें अन्नकी बलि समर्पित करना, रोज-रोज घर लीपना और प्रतिदिन व्रत रखना भी गृहस्थका धर्म है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुसम्मृष्टोपलिप्ते च साज्यधूमो भवेद् गृहे ॥ ४४ ॥
एष द्विजजने धर्मो गार्हस्थ्यो लोकधारणः।
द्विजानां च सतां नित्यं सदैवैष प्रवर्तते ॥ ४५ ॥
मूलम्
सुसम्मृष्टोपलिप्ते च साज्यधूमो भवेद् गृहे ॥ ४४ ॥
एष द्विजजने धर्मो गार्हस्थ्यो लोकधारणः।
द्विजानां च सतां नित्यं सदैवैष प्रवर्तते ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
झाड़-बुहार, लीप-पोतकर स्वच्छ किये हुए घरमें घृतयुक्त आहुति करके उसका धुआँ फैलाना चाहिये। यह ब्राह्मणोंका गार्हस्थ्य धर्म बतलाया, जो संसारकी रक्षा करनेवाला है। अच्छे ब्राह्मणोंके यहाँ सदा ही इस धर्मका पालन किया जाता है॥४४-४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु क्षत्रगतो देवि मया धर्म उदीरितः।
तमहं ते प्रवक्ष्यामि तन्मे शृणु समाहिता ॥ ४६ ॥
मूलम्
यस्तु क्षत्रगतो देवि मया धर्म उदीरितः।
तमहं ते प्रवक्ष्यामि तन्मे शृणु समाहिता ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! मेरे द्वारा जो क्षत्रिय-धर्म बताया गया है, उसीका अब तुम्हारे समक्ष वर्णन करता हूँ, तुम मुझसे एकाग्रचित्त होकर सुनो॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रियस्य स्मृतो धर्मः प्रजापालनमादितः।
निर्दिष्टफलभोक्ता हि राजा धर्मेण युज्यते ॥ ४७ ॥
मूलम्
क्षत्रियस्य स्मृतो धर्मः प्रजापालनमादितः।
निर्दिष्टफलभोक्ता हि राजा धर्मेण युज्यते ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियका सबसे पहला धर्म है प्रजाका पालन करना। प्रजाकी आयके छठे भागका उपभोग करनेवाला राजा धर्मका फल पाता है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(क्षत्रियास्तु ततो देवि द्विजानां पालने स्मृताः।
यदि न क्षत्रियो लोके जगत् स्यादधरोत्तरम्॥
रक्षणात् क्षत्रियैरेव जगद् भवति शाश्वतम्।
मूलम्
(क्षत्रियास्तु ततो देवि द्विजानां पालने स्मृताः।
यदि न क्षत्रियो लोके जगत् स्यादधरोत्तरम्॥
रक्षणात् क्षत्रियैरेव जगद् भवति शाश्वतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! क्षत्रिय ब्राह्मणोंके पालनमें तत्पर रहते हैं। यदि संसारमें क्षत्रिय न होता तो इस जगत्में भारी उलट-फेर या विप्लव मच जाता। क्षत्रियोंद्वारा रक्षा होनेसे ही यह जगत् सदा टिका रहता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्यग्गुणहितो धर्मो धर्मः पौरहितक्रिया।
व्यवहारस्थितिर्नित्यं गुणयुक्तो महीपतिः ॥)
मूलम्
सम्यग्गुणहितो धर्मो धर्मः पौरहितक्रिया।
व्यवहारस्थितिर्नित्यं गुणयुक्तो महीपतिः ॥)
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम गुणोंका सम्पादन और पुरवासियोंका हितसाधन उसके लिये धर्म है। गुणवान् राजा सदा न्याययुक्त व्यवहारमें स्थित रहे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजाः पालयते यो हि धर्मेण मनुजाधिपः।
तस्य धर्मार्जिता लोकाः प्रजापालनसंचिताः ॥ ४८ ॥
मूलम्
प्रजाः पालयते यो हि धर्मेण मनुजाधिपः।
तस्य धर्मार्जिता लोकाः प्रजापालनसंचिताः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करता है, उसे उसके प्रजापालनरूपी धर्मके प्रभावसे उत्तम लोक प्राप्त होते हैं॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य राज्ञः परो धर्मो दमः स्वाध्याय एव च।
अग्निहोत्रपरिस्पन्दो दानाध्ययनमेव च ॥ ४९ ॥
यज्ञोपवीतधरणं यज्ञो धर्मक्रियास्तथा ।
भृत्यानां भरणं धर्मः कृते कर्मण्यमोघता ॥ ५० ॥
सम्यग्दण्डे स्थितिर्धमो धर्मो वेदक्रतुर्क्रियाः।
व्यवहारस्थितिर्धर्मः सत्यवाक्यरतिस्तथा ॥ ५१ ॥
मूलम्
तस्य राज्ञः परो धर्मो दमः स्वाध्याय एव च।
अग्निहोत्रपरिस्पन्दो दानाध्ययनमेव च ॥ ४९ ॥
यज्ञोपवीतधरणं यज्ञो धर्मक्रियास्तथा ।
भृत्यानां भरणं धर्मः कृते कर्मण्यमोघता ॥ ५० ॥
सम्यग्दण्डे स्थितिर्धमो धर्मो वेदक्रतुर्क्रियाः।
व्यवहारस्थितिर्धर्मः सत्यवाक्यरतिस्तथा ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाका परम धर्म है—इन्द्रियसंयम, स्वाध्याय, अग्निहोत्रकर्म, दान, अध्ययन, यज्ञोपवीत-धारण, यज्ञानुष्ठान, धार्मिक कार्यका सम्पादन, पोष्यवर्गका भरण-पोषण, आरम्भ किये हुए कर्मको सफल बनाना, अपराधके अनुसार उचित दण्ड देना, वैदिक यज्ञादि कर्मोंका अनुष्ठान करना, व्यवहारमें न्यायकी रक्षा करना और सत्यभाषणमें अनुरक्त होना। ये सभी कर्म राजाके लिये धर्म ही हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्तहस्तप्रदो राजा प्रेत्य चेह महीयते।
गोब्राह्मणार्थे विक्रान्तः संग्रामे निधनं गतः ॥ ५२ ॥
अश्वमेधजिताल्ँलोकानाप्नोति त्रिदिवालये ॥ ५३ ॥
मूलम्
आर्तहस्तप्रदो राजा प्रेत्य चेह महीयते।
गोब्राह्मणार्थे विक्रान्तः संग्रामे निधनं गतः ॥ ५२ ॥
अश्वमेधजिताल्ँलोकानाप्नोति त्रिदिवालये ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा दुखी मनुष्योंको हाथका सहारा देता है, वह इस लोक और परलोकमें भी सम्मानित होता है। गौओं और ब्राह्मणोंको संकटसे बचानेके लिये जो पराक्रम दिखाकर संग्राममें मृत्युको प्राप्त होता है, वह स्वर्गमें अश्वमेध यज्ञोंद्वारा जीते हुए लोकोंपर अधिकार जमा लेता है॥५२-५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(तथैव देवि वैश्याश्च लोकयात्राहिताः स्मृताः।
अन्ये तानुपजीवन्ति प्रत्यक्षफलदा हि ते॥
यदि न स्युस्तथा वैश्या न भवेयुस्तथा परे।)
मूलम्
(तथैव देवि वैश्याश्च लोकयात्राहिताः स्मृताः।
अन्ये तानुपजीवन्ति प्रत्यक्षफलदा हि ते॥
यदि न स्युस्तथा वैश्या न भवेयुस्तथा परे।)
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! इसी प्रकार वैश्य भी लोगोंकी जीवन-यात्राके निर्वाहमें सहायक माने गये हैं। दूसरे वर्णोंके लोग उन्हींके सहारे जीवन-निर्वाह करते हैं, क्योंकि वे प्रत्यक्ष फल देनेवाले हैं। यदि वैश्य न हों तो दूसरे वर्णके लोग भी न रहें॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैश्यस्य सततं धर्मः पाशुपाल्यं कृषिस्तथा।
अग्निहोत्रपरिस्पन्दो दानाध्ययनमेव च ॥ ५४ ॥
वाणिज्यं सत्पथस्थानमातिथ्यं प्रशमो दमः।
विप्राणां स्वागतं त्यागो वैश्यधर्मः सनातनः ॥ ५५ ॥
मूलम्
वैश्यस्य सततं धर्मः पाशुपाल्यं कृषिस्तथा।
अग्निहोत्रपरिस्पन्दो दानाध्ययनमेव च ॥ ५४ ॥
वाणिज्यं सत्पथस्थानमातिथ्यं प्रशमो दमः।
विप्राणां स्वागतं त्यागो वैश्यधर्मः सनातनः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पशुओंका पालन, खेती, व्यापार, अग्निहोत्रकर्म, दान, अध्ययन, सन्मार्गका आश्रय लेकर सदाचारका पालन, अतिथि-सत्कार, शम, दम, ब्राह्मणोंका स्वागत और त्याग—ये सब वैश्योंके सनातन धर्म हैं॥५४-५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलान् गन्धान् रसांश्चैव विक्रीणीयान्न चैव हि।
वणिक्पथमुपासीनो वैश्यः सत्पथमाश्रितः ॥ ५६ ॥
सर्वातिथ्यं त्रिवर्गस्य यथाशक्ति यथार्हतः।
मूलम्
तिलान् गन्धान् रसांश्चैव विक्रीणीयान्न चैव हि।
वणिक्पथमुपासीनो वैश्यः सत्पथमाश्रितः ॥ ५६ ॥
सर्वातिथ्यं त्रिवर्गस्य यथाशक्ति यथार्हतः।
अनुवाद (हिन्दी)
व्यापार करनेवाले सदाचारी वैश्यको तिल, चन्दन और रसकी विक्री नहीं करनी चाहिये तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य—इस त्रिवर्गका सब प्रकारसे यथाशक्ति यथायोग्य आतिथ्यसत्कार करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रधर्मः परो नित्यं शुश्रूषा च द्विजातिषु ॥ ५७ ॥
स शूद्रः संशिततपाः सत्यवादी जितेन्द्रियः।
शुश्रूषुरतिथिं प्राप्तं तपः संचिनुते महत् ॥ ५८ ॥
मूलम्
शूद्रधर्मः परो नित्यं शुश्रूषा च द्विजातिषु ॥ ५७ ॥
स शूद्रः संशिततपाः सत्यवादी जितेन्द्रियः।
शुश्रूषुरतिथिं प्राप्तं तपः संचिनुते महत् ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूद्रका परम धर्म है तीनों वर्णोंकी सेवा। जो शूद्र सत्यवादी, जितेन्द्रिय और घरपर आये हुए अतिथिकी सेवा करनेवाला है, वह महान् तपका संचय कर लेता है। उसका सेवारूप धर्म उसके लिये कठोर तप है॥५७-५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यं स हि शुभाचारो देवताद्विजपूजकः।
शूद्रो धर्मफलैरिष्टैः सम्प्रयुज्येत बुद्धिमान् ॥ ५९ ॥
मूलम्
नित्यं स हि शुभाचारो देवताद्विजपूजकः।
शूद्रो धर्मफलैरिष्टैः सम्प्रयुज्येत बुद्धिमान् ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नित्य सदाचारका पालन और देवता तथा ब्राह्मणोंकी पूजा करनेवाले बुद्धिमान् शूद्रको धर्मका मनोवांछित फल प्राप्त होता है॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(तथैव शूद्रा विहिताः सर्वधर्मप्रसाधकाः।
शूद्राश्च यदि ते न स्युः कर्मकर्ता न विद्यते॥
मूलम्
(तथैव शूद्रा विहिताः सर्वधर्मप्रसाधकाः।
शूद्राश्च यदि ते न स्युः कर्मकर्ता न विद्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार शूद्र भी सम्पूर्ण धर्मोंके साधक बताये गये हैं। यदि शूद्र न हों तो सेवाका कार्य करनेवाला कोई नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयः पूर्वे शूद्रमूलाः सर्वे कर्मकराः स्मृताः।
ब्राह्मणादिषु शुश्रूषा दासधर्म इति स्मृतः॥
मूलम्
त्रयः पूर्वे शूद्रमूलाः सर्वे कर्मकराः स्मृताः।
ब्राह्मणादिषु शुश्रूषा दासधर्म इति स्मृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहलेके जो तीन वर्ण हैं, वे सब शूद्रमूलक ही हैं, क्योंकि शूद्र ही सेवाका कर्म करनेवाले माने गये हैं। ब्राह्मण आदिकी सेवा ही दास या शूद्रका धर्म माना गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वार्ता च कारुकर्माणि शिल्पं नाट्यं तथैव च।
अहिंसकः शुभाचारो दैवतद्विजवन्दकः ॥
मूलम्
वार्ता च कारुकर्माणि शिल्पं नाट्यं तथैव च।
अहिंसकः शुभाचारो दैवतद्विजवन्दकः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वाणिज्य, कारीगरके कार्य, शिल्प तथा नाट्य भी शूद्रका धर्म है। उसे अहिंसक, सदाचारी और देवताओं तथा ब्राह्मणोंका पूजक होना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रो धर्मफलैरिष्टैः स्वधर्मेणोपयुज्यते ।
एवमादि तथान्यच्च शूद्रधर्म इति स्मृतः॥)
मूलम्
शूद्रो धर्मफलैरिष्टैः स्वधर्मेणोपयुज्यते ।
एवमादि तथान्यच्च शूद्रधर्म इति स्मृतः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा शूद्र अपने धर्मसे सम्पन्न और उसके अभीष्ट फलोंका भागी होता है। यह तथा और भी शूद्र-धर्म कहा गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् ते सर्वमाख्यातं चातुर्वर्ण्यस्य शोभने।
एकैकस्येह सुभगे किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ ६० ॥
मूलम्
एतत् ते सर्वमाख्यातं चातुर्वर्ण्यस्य शोभने।
एकैकस्येह सुभगे किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शोभने! इस प्रकार मैंने तुम्हें एक-एक करके चारों वर्णोंका सारा धर्म बतलाया। सुभगे! अब और क्या सुनना चाहती हो?॥६०॥
मूलम् (वचनम्)
उमोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(भगवन् देवदेवेश नमस्ते वृषभध्वज।
श्रोतुमिच्छाम्यहं देव धर्ममाश्रमिणां विभो॥
मूलम्
(भगवन् देवदेवेश नमस्ते वृषभध्वज।
श्रोतुमिच्छाम्यहं देव धर्ममाश्रमिणां विभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
उमा बोलीं— भगवन्! देवदेवेश्वर! वृषभध्वज! देव! आपको नमस्कार है। प्रभो! अब मैं आश्रमियोंका धर्म सुनना चाहती हूँ॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथाश्रमगतं धर्मं शृणु देवि समाहिता।
आश्रमाणां तु यो धर्मः क्रियते ब्रह्मवादिभिः॥
मूलम्
तथाश्रमगतं धर्मं शृणु देवि समाहिता।
आश्रमाणां तु यो धर्मः क्रियते ब्रह्मवादिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! एकाग्रचित्त होकर आश्रमधर्मका वर्णन सुनो। ब्रह्मवादी मुनियोंने आश्रमोंका जो धर्म निश्चित किया है, वही यहाँ बताया जा रहा है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहस्थः प्रवरस्तेषां गार्हस्थ्यं धर्ममाश्रितः।
पञ्चयज्ञक्रिया शौचं दारतुष्टिरतन्द्रिता ॥
ऋतुकालाभिगमनं दानयज्ञतपांसि च ।
अविप्रवासस्तस्येष्टः स्वाध्यायश्चाग्निपूर्वकम् ॥
मूलम्
गृहस्थः प्रवरस्तेषां गार्हस्थ्यं धर्ममाश्रितः।
पञ्चयज्ञक्रिया शौचं दारतुष्टिरतन्द्रिता ॥
ऋतुकालाभिगमनं दानयज्ञतपांसि च ।
अविप्रवासस्तस्येष्टः स्वाध्यायश्चाग्निपूर्वकम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आश्रमोंमें गृहस्थ-आश्रम सबसे श्रेष्ठ है, क्योंकि वह गार्हस्थ्य धर्मपर प्रतिष्ठित है। पंच महायज्ञोंका अनुष्ठान, बाहर-भीतरकी पवित्रता, अपनी ही स्त्रीसे संतुष्ट रहना, आलस्यको त्याग देना, ऋतुकालमें ही पत्नीके साथ समागम करना, दान, यज्ञ और तपस्यामें लगे रहना, परदेश न जाना और अग्निहोत्रपूर्वक वेद-शास्त्रोंका स्वाध्याय करना—ये गृहस्थके अभीष्ट धर्म हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव वानप्रस्थस्य धर्माः प्रोक्ताः सनातनाः।
गृहवासं समुत्सृज्य निश्चित्यैकमनाः शुभैः॥
वन्यैरेव सदाहारैर्वर्तयेदिति च स्थितिः।
मूलम्
तथैव वानप्रस्थस्य धर्माः प्रोक्ताः सनातनाः।
गृहवासं समुत्सृज्य निश्चित्यैकमनाः शुभैः॥
वन्यैरेव सदाहारैर्वर्तयेदिति च स्थितिः।
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार वानप्रस्थ आश्रमके सनातन धर्म बताये गये हैं। वानप्रस्थ आश्रममें प्रवेश करनेकी इच्छावाला पुरुष एकचित्त होकर निश्चय करनेके पश्चात् घरका रहना छोड़कर वनमें चला जाय और वनमें प्राप्त होनेवाले उत्तम आहारोंसे ही जीवन-निर्वाह करे। यही उसके लिये शास्त्रविहित मर्यादा है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमिशय्या जटाश्मश्रुचर्मवल्कलधारणम् ॥
देवतातिथिसत्कारो महाकृच्छ्राभिपूजनम् ।
अग्निहोत्रं त्रिषवणं तस्य नित्यं विधीयते॥
ब्रह्मचर्यं क्षमा शौचं तस्य धर्मः सनातनः।
एवं स विगते प्राणे देवलोके महीयते॥
मूलम्
भूमिशय्या जटाश्मश्रुचर्मवल्कलधारणम् ॥
देवतातिथिसत्कारो महाकृच्छ्राभिपूजनम् ।
अग्निहोत्रं त्रिषवणं तस्य नित्यं विधीयते॥
ब्रह्मचर्यं क्षमा शौचं तस्य धर्मः सनातनः।
एवं स विगते प्राणे देवलोके महीयते॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीपर सोना, जटा और दाढ़ी-मूँछ रखना, मृगचर्म और वल्कल वस्त्र धारण करना, देवताओं और अतिथियोंका सत्कार करना, महान् कष्ट सहकर भी देवताओंकी पूजा आदिका निर्वाह करना—यह वानप्रस्थ-का नियम है। उसके लिये प्रतिदिन अग्निहोत्र और त्रिकाल-स्नानका विधान है। ब्रह्मचर्य, क्षमा और शौच आदि उसका सनातन धर्म है। ऐसा करनेवाला वानप्रस्थ प्राणत्यागके पश्चात् देवलोकमें प्रतिष्ठित होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतिधर्मास्तथा देवि गृहांस्त्यक्त्वा यतस्ततः।
आकिञ्चन्यमनारम्भः सर्वतः शौचमार्जवम् ॥
सर्वत्र भैक्षचर्या च सर्वत्रैव विवासनम्।
सदा ध्यानपरत्वं च दोषशुद्धिः क्षमा दया॥
तत्त्वानुगतबुद्धित्वं तस्य धर्मविधिर्भवेत् ।
मूलम्
यतिधर्मास्तथा देवि गृहांस्त्यक्त्वा यतस्ततः।
आकिञ्चन्यमनारम्भः सर्वतः शौचमार्जवम् ॥
सर्वत्र भैक्षचर्या च सर्वत्रैव विवासनम्।
सदा ध्यानपरत्वं च दोषशुद्धिः क्षमा दया॥
तत्त्वानुगतबुद्धित्वं तस्य धर्मविधिर्भवेत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! यतिधर्म इस प्रकार है। संन्यासी घर छोड़कर इधर-उधर विचरता रहे। वह अपने पास किसी वस्तुका संग्रह न करे। कर्मोंके आरम्भ या आयोजनसे दूर रहे। सब ओरसे पवित्रता और सरलताको वह अपने भीतर स्थान दे। सर्वत्र भिक्षासे जीविका चलावे। सभी स्थानोंसे वह विलग रहे। सदा ध्यानमें तत्पर रहना, दोषोंसे शुद्ध होना, सबपर क्षमा और दयाका भाव रखना तथा बुद्धिको तत्त्वके चिन्तनमें लगाये रखना—ये सब संन्यासीके लिये धर्मकार्य हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुभुक्षितं पिपासार्तमतिथिं श्रान्तमागतम् ।
अर्चयन्ति वरारोहे तेषामपि फलं महत्॥
मूलम्
बुभुक्षितं पिपासार्तमतिथिं श्रान्तमागतम् ।
अर्चयन्ति वरारोहे तेषामपि फलं महत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वरारोहे! जो भूख-प्याससे पीड़ित और थके-मादे आये हुए अतिथिकी सेवा-पूजा करते हैं, उन्हें भी महान् फलकी प्राप्ति होती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पात्रमित्येव दातव्यं सर्वस्मै धर्मकाङ्क्षिभिः।
आगमिष्यति यत् पात्रं तत् पात्रं तारयिष्यति॥
मूलम्
पात्रमित्येव दातव्यं सर्वस्मै धर्मकाङ्क्षिभिः।
आगमिष्यति यत् पात्रं तत् पात्रं तारयिष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषोंको चाहिये कि अपने घरपर आये हुए सभी अतिथियोंको दानका उत्तम पात्र समझकर दान दें। उन्हें यह विश्वास रखना चाहिये कि आज जो पात्र आयेगा, वह हमारा उद्धार कर देगा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काले सम्प्राप्तमतिथिं भोक्तुकाममुपस्थितम् ।
यस्तं सम्भावयेत् तत्र व्यासोऽयं समुपस्थितः॥
मूलम्
काले सम्प्राप्तमतिथिं भोक्तुकाममुपस्थितम् ।
यस्तं सम्भावयेत् तत्र व्यासोऽयं समुपस्थितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
समयपर भोजनकी इच्छासे आये अथवा उपस्थित हुए अतिथिका जो समादर करता है, वहाँ ये साक्षात् भगवान् व्यास उपस्थित होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य पूजां यथाशक्त्या सौम्यचित्तः प्रयोजयेत्।
चित्तमूलो भवेद् धर्मो धर्ममूलं भवेद् यशः॥
मूलम्
तस्य पूजां यथाशक्त्या सौम्यचित्तः प्रयोजयेत्।
चित्तमूलो भवेद् धर्मो धर्ममूलं भवेद् यशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः कोमलचित्त होकर उस अतिथिकी यथा-शक्ति पूजा करनी चाहिये; क्योंकि धर्मका मूल है चित्तका विशुद्ध भाव और यशका मूल है धर्म॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् सौम्येन चित्तेन दातव्यं देवि सर्वथा।
सौम्यचित्तस्तु यो दद्यात् तद्धि दानमनुत्तमम्॥
मूलम्
तस्मात् सौम्येन चित्तेन दातव्यं देवि सर्वथा।
सौम्यचित्तस्तु यो दद्यात् तद्धि दानमनुत्तमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः देवि! सर्वथा सौम्यचित्तसे दान देना चाहिये; क्योंकि जो सौम्यचित्त होकर दान देता है, उसका वह दान सर्वोत्तम होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाम्बुबिन्दुभिः सूक्ष्मैः पतद्भिर्मेदिनीतले ।
केदाराश्च तटाकानि सरांसि सरितस्तथा॥
तोयपूर्णानि दृश्यन्ते अप्रतर्क्यानि शोभने।
अल्पमल्पमपि ह्येकं दीयमानं विवर्धते॥
मूलम्
यथाम्बुबिन्दुभिः सूक्ष्मैः पतद्भिर्मेदिनीतले ।
केदाराश्च तटाकानि सरांसि सरितस्तथा॥
तोयपूर्णानि दृश्यन्ते अप्रतर्क्यानि शोभने।
अल्पमल्पमपि ह्येकं दीयमानं विवर्धते॥
अनुवाद (हिन्दी)
शोभने! जैसे भूतलपर वर्षाके समय गिरती हुई जलकी छोटी-छोटी बूँदोंसे ही खेतोंकी क्यारियाँ, तालाब, सरोवर और सरिताएँ अतर्क्य भावसे जलपूर्ण दिखायी देती हैं, उसी प्रकार एक-एक करके थोड़ा-थोड़ा दिया हुआ दान भी बढ़ जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीडयापि च भृत्यानां दानमेव विशिष्यते।
पुत्रदारधनं धान्यं न मृताननुगच्छति॥
मूलम्
पीडयापि च भृत्यानां दानमेव विशिष्यते।
पुत्रदारधनं धान्यं न मृताननुगच्छति॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरण-पोषणके योग्य कुटुम्बीजनोंको थोड़ा-सा कष्ट देकर भी यदि दान किया जा सके तो दान ही श्रेष्ठ माना गया है। स्त्री-पुत्र, धन और धान्य—ये वस्तुएँ मरे हुए पुरुषोंके साथ नहीं जाती हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रेयो दानं च भोगश्च धनं प्राप्य यशस्विनी।
दानेन हि महाभागा भवन्ति मनुजाधिपाः॥
नास्ति भूमौ दानसमं नास्ति दानसमो निधिः।
नास्ति सत्यात् परो धर्मो नानृतात् पातकं परम्॥
मूलम्
श्रेयो दानं च भोगश्च धनं प्राप्य यशस्विनी।
दानेन हि महाभागा भवन्ति मनुजाधिपाः॥
नास्ति भूमौ दानसमं नास्ति दानसमो निधिः।
नास्ति सत्यात् परो धर्मो नानृतात् पातकं परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यशस्विनी! धन पाकर उसका दान और भोग करना भी श्रेष्ठ है; परंतु दान करनेसे मनुष्य महान् सौभाग्यशाली नरेश होते हैं। इस पृथ्वीपर दानके समान कोई दूसरी वस्तु नहीं है। दानके समान कोई निधि नहीं है। सत्यसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है और असत्यसे बढ़कर कोई पातक नही है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमे यस्तु तप्येत तपो मूलफलाशनः।
आदित्याभिमुखो भूत्वा जटावल्कलसंवृतः ॥
मण्डूकशायी हेमन्ते ग्रीष्मे पञ्चतपा भवेत्।
सम्यक् तपश्चरन्तीह श्रद्दधाना वनाश्रमे॥
गृहाश्रमस्य ते देवि कलां नार्हन्ति षोडशीम्।
मूलम्
आश्रमे यस्तु तप्येत तपो मूलफलाशनः।
आदित्याभिमुखो भूत्वा जटावल्कलसंवृतः ॥
मण्डूकशायी हेमन्ते ग्रीष्मे पञ्चतपा भवेत्।
सम्यक् तपश्चरन्तीह श्रद्दधाना वनाश्रमे॥
गृहाश्रमस्य ते देवि कलां नार्हन्ति षोडशीम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जो वानप्रस्थ आश्रममें फल-मूल खाकर जटा बढ़ाये, वल्कल पहने, सूर्यकी ओर मुँह करके तपस्या करता है, हेमन्त-ऋतुमें मेढककी भाँति जलमें सोता है और ग्रीष्म-ऋतुमें पंचाग्निका ताप सहन करता है। इस प्रकार जो लोग वानप्रस्थ आश्रममें रहकर श्रद्धापूर्वक उत्तम तप करते हैं, वे भी गृहस्थाश्रमके पालनसे होनेवाले धर्मकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं हो सकते॥
मूलम् (वचनम्)
उमोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहाश्रमस्य या चर्या व्रतानि नियमाश्च ये॥
यथा च देवताः पूज्याः सततं गृहमेधिना।
यद् यच्च परिहर्तव्यं गृहिणा तिथिपर्वसु॥
तत् सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथ्यमानं त्वया विभो।
मूलम्
गृहाश्रमस्य या चर्या व्रतानि नियमाश्च ये॥
यथा च देवताः पूज्याः सततं गृहमेधिना।
यद् यच्च परिहर्तव्यं गृहिणा तिथिपर्वसु॥
तत् सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथ्यमानं त्वया विभो।
अनुवाद (हिन्दी)
उमाने कहा— प्रभो! गृहस्थाश्रमका जो आचार है, जो व्रत और नियम हैं, गृहस्थको सदा जिस प्रकारसे देवताओंकी पूजा करनी चाहिये तथा तिथि और पर्वोंके दिन उसे जिस-जिस वस्तुका त्याग करना चाहिये, वह सब मैं आपके मुखसे सुनना चाहती हूँ॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहाश्रमस्य यन्मूलं फलं धर्मोऽयमुत्तमः॥
पादैश्चतुर्भिः सततं धर्मो यत्र प्रतिष्ठितः।
सारभूतं वरारोहे दध्नो घृतमिवोद्धृतम्॥
तदहं ते प्रवक्ष्यामि श्रूयतां धर्मचारिणि।
मूलम्
गृहाश्रमस्य यन्मूलं फलं धर्मोऽयमुत्तमः॥
पादैश्चतुर्भिः सततं धर्मो यत्र प्रतिष्ठितः।
सारभूतं वरारोहे दध्नो घृतमिवोद्धृतम्॥
तदहं ते प्रवक्ष्यामि श्रूयतां धर्मचारिणि।
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! गृहस्थ-आश्रमका जो मूल और फल है, यह उत्तम धर्म जहाँ अपने चारों चरणोंसे सदा विराजमान रहता है, वरारोहे! जैसे दहीसे घी निकाला जाता है, उसी प्रकार जो सब धर्मोंका सारभूत है, उसको मैं तुम्हें बता रहा हूँ। धर्मचारिणि! सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुश्रूषन्ते ये पितरं मातरं च गृहाश्रमे॥
भर्तारं चैव या नारी अग्निहोत्रं च ये द्विजाः।
तेषु तेषु च प्रीणन्ति देवा इन्द्रपुरोगमाः॥
पितरः पितृलोकस्थाः स्वधर्मेण स रज्यते।
मूलम्
शुश्रूषन्ते ये पितरं मातरं च गृहाश्रमे॥
भर्तारं चैव या नारी अग्निहोत्रं च ये द्विजाः।
तेषु तेषु च प्रीणन्ति देवा इन्द्रपुरोगमाः॥
पितरः पितृलोकस्थाः स्वधर्मेण स रज्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग गृहस्थ-आश्रममें रहकर माता-पिताकी सेवा करते हैं, जो नारी पतिकी सेवा करती है तथा जो ब्राह्मण नित्य अग्निहोत्र कर्म करते हैं, उन सबपर इन्द्र आदि देवता, पितृलोकनिवासी पितर प्रसन्न होते हैं एवं वह पुरुष अपने धर्मसे आनन्दित होता है॥
मूलम् (वचनम्)
उमोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातापितृवियुक्तानां का चर्या गृहमेधिनाम्॥
विधवानां च नारीणां भवानेतद् ब्रवीतु मे।
मूलम्
मातापितृवियुक्तानां का चर्या गृहमेधिनाम्॥
विधवानां च नारीणां भवानेतद् ब्रवीतु मे।
अनुवाद (हिन्दी)
उमाने पूछा— जिन गृहस्थोंके माता-पिता न हों, उनकी अथवा विधवा स्त्रियोंकी जीवनचर्या क्या होनी चाहिये? यह मुझे बताइये॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतातिथिशुश्रूषा गुरुवृद्धाभिवादनम् ॥
अहिंसा सर्वभूतानामलोभः सत्यसंधता ।
ब्रह्मचर्यं शरण्यत्वं शौचं पूर्वाभिभाषणम्॥
कृतज्ञत्वमपैशुन्यं सततं धर्मशीलता ।
दिने द्विरभिषेकं च पितृदैवतपूजनम्॥
गवाह्निकप्रदानं च संविभागोऽतिथिष्वपि ।
दीपं प्रतिश्रयं चैव दद्यात् पाद्यासनं तथा॥
पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा द्वादशेऽप्यष्टमेऽपि वा।
चतुर्दशे पञ्चदशे ब्रह्मचारी सदा भवेत्॥
श्मश्रुकर्म शिरोऽभ्यङ्गमञ्जनं दन्तधावनम् ।
नैतेष्वहस्सु कुर्वीत तेषु लक्ष्मीः प्रतिष्ठिता॥
मूलम्
देवतातिथिशुश्रूषा गुरुवृद्धाभिवादनम् ॥
अहिंसा सर्वभूतानामलोभः सत्यसंधता ।
ब्रह्मचर्यं शरण्यत्वं शौचं पूर्वाभिभाषणम्॥
कृतज्ञत्वमपैशुन्यं सततं धर्मशीलता ।
दिने द्विरभिषेकं च पितृदैवतपूजनम्॥
गवाह्निकप्रदानं च संविभागोऽतिथिष्वपि ।
दीपं प्रतिश्रयं चैव दद्यात् पाद्यासनं तथा॥
पञ्चमेऽहनि षष्ठे वा द्वादशेऽप्यष्टमेऽपि वा।
चतुर्दशे पञ्चदशे ब्रह्मचारी सदा भवेत्॥
श्मश्रुकर्म शिरोऽभ्यङ्गमञ्जनं दन्तधावनम् ।
नैतेष्वहस्सु कुर्वीत तेषु लक्ष्मीः प्रतिष्ठिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहेश्वरने कहा— देवता और अतिथियोंकी सेवा, गुरुजनों तथा वृद्ध पुरुषोंका अभिवादन, किसी भी प्राणीकी हिंसा न करना, लोभको त्याग देना, सत्यप्रतिज्ञ होना, ब्रह्मचर्य, शरणागतवत्सलता, शौचाचार, पहले बातचीत करना, उपकारीके प्रति कृतज्ञ होना, किसीकी चुगली न खाना, सदा धर्मशील रहना, दिनमें दो बार स्नान करना, देवता और पितरोंका पूजन करना, गौओंको प्रतिदिन अन्नका ग्रास और घास देना, अतिथियोंको विभागपूर्वक भोजन देना, दीप, ठहरनेके लिये स्थान तथा पाद्य और आसन देना, पंचमी, षष्ठी, द्वादशी, अष्टमी, चतुर्दशी एवं पूर्णिमाको सदा ब्रह्मचर्यका पालन करना, इन तिथियोंपर मूँछ मुड़ाने, सिरमें तेल लगाने, आँखमें अंजन करने तथा दाँतुन करने एवं दाँत धोने आदिका कार्य न करे। जो इन विधि-निषेधोंका पालन करते हैं, उनके यहाँ लक्ष्मी प्रतिष्ठित होती हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्रतोपवासनियमस्तपो दानं च शक्तितः।
भरणं भृत्यवर्गस्य दीनानामनुकम्पनम् ॥
परदारनिवृत्तिश्च स्वदारेषु रतिः सदाः।
मूलम्
व्रतोपवासनियमस्तपो दानं च शक्तितः।
भरणं भृत्यवर्गस्य दीनानामनुकम्पनम् ॥
परदारनिवृत्तिश्च स्वदारेषु रतिः सदाः।
अनुवाद (हिन्दी)
व्रत और उपवासका नियम पालना, तपस्या करना, यथाशक्ति दान देना, पोष्यवर्गका पोषण करना, दीनोंपर कृपा रखना, परायी स्त्रीसे दूर रहना तथा सदा ही अपनी स्त्रीसे प्रेम रखना गृहस्थका धर्म है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरमेकं दम्पत्योर्विधात्रा पूर्वनिर्मितम् ॥
तस्मात् स्वदारनिरतो ब्रह्मचारी विधीयते।
मूलम्
शरीरमेकं दम्पत्योर्विधात्रा पूर्वनिर्मितम् ॥
तस्मात् स्वदारनिरतो ब्रह्मचारी विधीयते।
अनुवाद (हिन्दी)
विधाताने पूर्वकालमें पति-पत्नीका एक ही शरीर बनाया था; अतः अपनी ही स्त्रीमें अनुरक्त रहनेवाला पुरुष ब्रह्मचारी माना जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शीलवृत्तविनीतस्य निगृहीतेन्द्रियस्य च ॥
आर्जवे वर्तमानस्य सर्वभूतहितैषिणः ।
प्रियातिथेश्च क्षान्तस्य धर्मार्जितधनस्य च॥
गृहाश्रमपदस्थस्य किमन्यैः कृत्यमाश्रमैः ।
मूलम्
शीलवृत्तविनीतस्य निगृहीतेन्द्रियस्य च ॥
आर्जवे वर्तमानस्य सर्वभूतहितैषिणः ।
प्रियातिथेश्च क्षान्तस्य धर्मार्जितधनस्य च॥
गृहाश्रमपदस्थस्य किमन्यैः कृत्यमाश्रमैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
जो शील और सदाचारसे विनीत है, जिसने अपनी इन्द्रियोंको काबूमें रखा है, जो सरलतापूर्वक बर्ताव करता है और समस्त प्राणियोंका हितैषी है, जिसको अतिथि प्रिय है, जो क्षमाशील है, जिसने धर्मपूर्वक धनका उपार्जन किया है—ऐसे गृहस्थके लिये अन्य आश्रमोंकी क्या आवश्यकता है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः॥
तथा गृहाश्रमं प्राप्य सर्वे जीवन्ति चाश्रमाः।
मूलम्
यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः॥
तथा गृहाश्रमं प्राप्य सर्वे जीवन्ति चाश्रमाः।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सभी जीव माताका सहारा लेकर जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार सभी आश्रम गृहस्थ-आश्रमका आश्रय लेकर ही जीवन-यापन करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजानः सर्वपाषण्डाः सर्वे रङ्गोपजीविनः॥
व्यालग्रहाश्च डम्भाश्च चोरा राजभटास्तथा।
सविद्याः सर्वशीलज्ञाः सर्वे वै विचिकित्सकाः॥
दूराध्वानं प्रपन्नाश्च क्षीणपथ्योदना नराः।
एते चान्ये च बहवः तर्कयन्ति गृहाश्रमम्॥
मूलम्
राजानः सर्वपाषण्डाः सर्वे रङ्गोपजीविनः॥
व्यालग्रहाश्च डम्भाश्च चोरा राजभटास्तथा।
सविद्याः सर्वशीलज्ञाः सर्वे वै विचिकित्सकाः॥
दूराध्वानं प्रपन्नाश्च क्षीणपथ्योदना नराः।
एते चान्ये च बहवः तर्कयन्ति गृहाश्रमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा, पाखण्डी, नट, सपेरा, दम्भ, चोर, राजपुरुष, विद्वान्, सम्पूर्ण शीलोंके जानकार, सभी संशयालु तथा दूरके रास्तेपर आये हुए पाथेयरहित राही—ये तथा और भी बहुत-से मनुष्य गृहस्थ-आश्रमपर ही ताक लगाये रहते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मार्जारा मूषिकाः श्वानः सूकराश्च शुकास्तथा।
कपोतका कर्कटकाः सरीसृपनिषेवणाः ॥
अरण्यवासिनश्चान्ये सङ्घा ये मृगपक्षिणाम्।
एवं बहुविधा देवि लोकेऽस्मिन् सचराचराः॥
गृहे क्षेत्रे बिले चैव शतशोऽथ सहस्रशः।
गृहस्थेन कृतं कर्म सर्वैस्तैरिह भुज्यते॥
मूलम्
मार्जारा मूषिकाः श्वानः सूकराश्च शुकास्तथा।
कपोतका कर्कटकाः सरीसृपनिषेवणाः ॥
अरण्यवासिनश्चान्ये सङ्घा ये मृगपक्षिणाम्।
एवं बहुविधा देवि लोकेऽस्मिन् सचराचराः॥
गृहे क्षेत्रे बिले चैव शतशोऽथ सहस्रशः।
गृहस्थेन कृतं कर्म सर्वैस्तैरिह भुज्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! चूहे, बिल्ली, कुत्ते, सुअर, तोते, कबूतर, कर्कटक (काक आदि), सरीसृपसेवी—ये तथा और भी बहुत-से मृग-पक्षियोंके वनवासी समुदाय हैं तथा इसी तरह इस जगत्में जो नाना प्रकारके सैकड़ों और हजारों चराचर प्राणी घर, क्षेत्र और बिलमें निवास करते हैं, वे सब-के-सब यहाँ गृहस्थके किये हुए कर्मको ही भोगते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपयुक्तं च यत् तेषां मतिमान् नानुशोचति।
धर्म इत्येव संकल्प्य यस्तु तस्य फलं शृणु॥
मूलम्
उपयुक्तं च यत् तेषां मतिमान् नानुशोचति।
धर्म इत्येव संकल्प्य यस्तु तस्य फलं शृणु॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वस्तु उनके उपयोगमें आ गयी, उसके लिये जो बुद्धिमान् पुरुष कभी शोक नहीं करता, इन सबका पालन करना धर्म ही है, ऐसा समझकर संतुष्ट रहता है, उसे मिलनेवाले फलका वर्णन सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वयज्ञप्रणीतस्य हयमेधेन यत् फलम्।
वर्षे स द्वादशे देवि फलेनैतेन युज्यते॥)
मूलम्
सर्वयज्ञप्रणीतस्य हयमेधेन यत् फलम्।
वर्षे स द्वादशे देवि फलेनैतेन युज्यते॥)
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! जो सम्पूर्ण यज्ञोंका सम्पादन कर चुका है, उसे अश्वमेधयज्ञसे जो फल मिलता है, वही फल इस गृहस्थको बारह वर्षोंतक पूर्वाक्त नियमोंका पालन करनेसे प्राप्त हो जाता है॥
मूलम् (वचनम्)
उमोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उक्तस्त्वया पृथग्धर्मश्चातुर्वर्ण्यहितः शुभः ।
सर्वव्यापी तु यो धर्मो भगवंस्तद् ब्रवीहि मे ॥ ६१ ॥
मूलम्
उक्तस्त्वया पृथग्धर्मश्चातुर्वर्ण्यहितः शुभः ।
सर्वव्यापी तु यो धर्मो भगवंस्तद् ब्रवीहि मे ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उमाने कहा— भगवन्! आपने चारों वर्णोंके लिये हितकारी एवं शुभ धर्मका पृथक्-पृथक् वर्णन किया है। अब मुझे वह धर्म बतलाइये, जो सब वर्णोंके लिये समानरूपसे उपयोगी हो॥६१॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहेश्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणा लोकसारेण सृष्टा धात्रा गुणार्थिना।
लोकांस्तारयितुं कृत्स्नान् मर्त्येषु क्षितिदेवताः ॥ ६२ ॥
तेषामपि प्रवक्ष्यामि धर्मकर्मफलोदयम् ।
ब्राह्मणेषु हि यो धर्मः स धर्मः परमो मतः॥६३॥
मूलम्
ब्राह्मणा लोकसारेण सृष्टा धात्रा गुणार्थिना।
लोकांस्तारयितुं कृत्स्नान् मर्त्येषु क्षितिदेवताः ॥ ६२ ॥
तेषामपि प्रवक्ष्यामि धर्मकर्मफलोदयम् ।
ब्राह्मणेषु हि यो धर्मः स धर्मः परमो मतः॥६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहेश्वरने कहा— देवि! गुणोंकी अभिलाषा रखनेवाले जगत्स्रष्टा ब्रह्माजीने समस्त लोकोंका उद्धार करनेके लिये जगत्की सार वस्तुद्वारा मृत्युलोकमें ब्राह्मणोंकी सृष्टि की है। ब्राह्मण इस भूमण्डलके देवता हैं, अतः पहले उनके ही धर्म-कर्म और उनके फलोंका वर्णन करता हूँ, क्योंकि ब्राह्मणोंमें जो धर्म होता है, उसे ही परम धर्म माना जाता है॥६२-६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमे ते लोकधर्मार्थं त्रयः सृष्टाः स्वयम्भुवा।
पृथिव्यां सर्जने नित्यं सृष्टांस्तानपि मे शृणु ॥ ६४ ॥
मूलम्
इमे ते लोकधर्मार्थं त्रयः सृष्टाः स्वयम्भुवा।
पृथिव्यां सर्जने नित्यं सृष्टांस्तानपि मे शृणु ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने सम्पूर्ण जगत्की रक्षाके लिये तीन प्रकारके धर्मका विधान किया है। पृथ्वीकी सृष्टिके साथ ही इन तीनों धर्मोंकी सृष्टि हो गयी है, इनको भी तुम मुझसे सुनो॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदोक्तः परमो धर्मः स्मृतिशास्त्रगतोऽपरः।
शिष्टाचीर्णोऽपरः प्रोक्तस्त्रयो धर्माः सनातनाः ॥ ६५ ॥
मूलम्
वेदोक्तः परमो धर्मः स्मृतिशास्त्रगतोऽपरः।
शिष्टाचीर्णोऽपरः प्रोक्तस्त्रयो धर्माः सनातनाः ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहला है वेदोक्त धर्म, जो सबसे उत्कृष्ट धर्म है। दूसरा है वेदानुकूल स्मृति-शास्त्रमें वर्णित—स्मार्तधर्म और तीसरा है शिष्ट पुरुषोंद्वारा आचरित धर्म (शिष्टाचार)। ये तीनों धर्म सनातन हैं॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रैविद्यो ब्राह्मणो विद्वान् न चाध्ययनजीवकः।
त्रिकर्मा त्रिपरिक्रान्तो मैत्र एष स्मृतो द्विजः ॥ ६६ ॥
मूलम्
त्रैविद्यो ब्राह्मणो विद्वान् न चाध्ययनजीवकः।
त्रिकर्मा त्रिपरिक्रान्तो मैत्र एष स्मृतो द्विजः ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो तीनों वेदोंका ज्ञाता और विद्वान् हो; पढ़ने-पढ़ानेका काम करके जीविका न चलाता हो; दान, धर्म और यज्ञ—इन तीन कर्मोंका सदा अनुष्ठान करता हो; काम, क्रोध और लोभ—इन तीनों दोषोंका त्याग कर चुका हो और सब प्राणियोंके प्रति मैत्रीभाव रखता हो—ऐसा पुरुष ही वास्तवमें ब्राह्मण माना गया है॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षडिमानि तु कर्माणि प्रोवाच भुवनेश्वरः।
वृत्त्यर्थं ब्राह्मणानां वै शृणु धर्मान् सनातनान् ॥ ६७ ॥
मूलम्
षडिमानि तु कर्माणि प्रोवाच भुवनेश्वरः।
वृत्त्यर्थं ब्राह्मणानां वै शृणु धर्मान् सनातनान् ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण भुवनोंके स्वामी ब्रह्माजीने ब्राह्मणोंकी जीविकाके लिये ये छः कर्म बताये हैं; जो उनके लिये सनातन धर्म हैं। इनके नाम सुनो॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यजनं याजनं चैव तथा दानप्रतिग्रहौ।
अध्यापनं चाध्ययनं षट्कर्मा धर्मभाग् द्विजः ॥ ६८ ॥
मूलम्
यजनं याजनं चैव तथा दानप्रतिग्रहौ।
अध्यापनं चाध्ययनं षट्कर्मा धर्मभाग् द्विजः ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यजन-याजन (यज्ञ करना-कराना), दान देना, दान लेना, वेद पढ़ना और वेद पढ़ाना। इन छः कर्मोंका आश्रय लेनेवाला ब्राह्मण धर्मका भागी होता है॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यः स्वाध्यायिता धर्मो धर्मो यज्ञः सनातनः।
दानं प्रशस्यते चास्य यथाशक्ति यथाविधि ॥ ६९ ॥
मूलम्
नित्यः स्वाध्यायिता धर्मो धर्मो यज्ञः सनातनः।
दानं प्रशस्यते चास्य यथाशक्ति यथाविधि ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनमें भी सदा स्वाध्यायशील होना ब्राह्मणका मुख्य धर्म है, यज्ञ करना सनातन धर्म है और अपनी शक्तिके अनुसार विधिपूर्वक दान देना उसके लिये प्रशस्त धर्म है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शमस्तूपरमो धर्मः प्रवृत्तः सत्सु नित्यशः।
गृहस्थानां विशुद्धानां धर्मस्य निचयो महान् ॥ ७० ॥
मूलम्
शमस्तूपरमो धर्मः प्रवृत्तः सत्सु नित्यशः।
गृहस्थानां विशुद्धानां धर्मस्य निचयो महान् ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब प्रकारके विषयोंसे उपरत होना शम कहलाता है। यह सत्पुरुषोंमें सदा दृष्टिगोचर होता है। इसका पालन करनेसे शुद्ध चित्तवाले गृहस्थोंको महान् धर्म-राशिकी प्राप्ति होती है॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चयज्ञविशुद्धात्मा सत्यवागनसूयकः ।
दाता ब्राह्मणसत्कर्ता सुसंसृष्टनिवेशनः ॥ ७१ ॥
अमानी च सदाजिह्मः स्निग्धवाणीप्रदस्तथा।
अतिथ्यभ्यागतरतिः शेषान्नकृतभोजनः ॥७२ ॥
पाद्यमर्घ्यं यथान्यायमासनं शयनं तथा।
दीपं प्रतिश्रयं चैव यो ददाति स धार्मिकः ॥ ७३ ॥
मूलम्
पञ्चयज्ञविशुद्धात्मा सत्यवागनसूयकः ।
दाता ब्राह्मणसत्कर्ता सुसंसृष्टनिवेशनः ॥ ७१ ॥
अमानी च सदाजिह्मः स्निग्धवाणीप्रदस्तथा।
अतिथ्यभ्यागतरतिः शेषान्नकृतभोजनः ॥७२ ॥
पाद्यमर्घ्यं यथान्यायमासनं शयनं तथा।
दीपं प्रतिश्रयं चैव यो ददाति स धार्मिकः ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गृहस्थ पुरुषको पंचमहायज्ञोंका अनुष्ठान करके अपने मनको शुद्ध बनाना चाहिये। जो गृहस्थ सदा सत्य बोलता, किसीके दोष नहीं देखता, दान देता, ब्राह्मणोंका सत्कार करता, अपने घरको झाड़-बुहारकर साफ रखता, अभिमानको त्याग देता, सदा सरल भावसे रहता, स्नेहयुक्त वचन बोलता, अतिथि और अभ्यागतोंकी सेवामें मन लगाता, यज्ञशिष्ट अन्नका भोजन करता और अतिथिको शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार पाद्य, अर्घ्य, आसन, शय्या, दीपक तथा ठहरनेके लिये गृह प्रदान करता है, उसे धार्मिक समझना चाहिये॥७१—७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रातरुत्थाय चाचम्य भोजनेनोपमन्त्र्य च।
सत्कृत्यानुव्रजेद् यस्तु तस्य धर्मः सनातनः ॥ ७४ ॥
मूलम्
प्रातरुत्थाय चाचम्य भोजनेनोपमन्त्र्य च।
सत्कृत्यानुव्रजेद् यस्तु तस्य धर्मः सनातनः ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्रातःकाल उठकर आचमन करके ब्राह्मणोंको भोजनके लिये निमन्त्रण देता और उसे ठीक समयपर सत्कारपूर्वक भोजन करानेके बाद कुछ दूरतक उसके पीछे-पीछे जाता है, उसके द्वारा सनातन धर्मका पालन होता है॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वातिथ्यं त्रिवर्गस्य यथाशक्ति निशानिशम्।
शूद्रधर्मः समाख्यातस्त्रिवर्गपरिचारणम् ॥ ७५ ॥
मूलम्
सर्वातिथ्यं त्रिवर्गस्य यथाशक्ति निशानिशम्।
शूद्रधर्मः समाख्यातस्त्रिवर्गपरिचारणम् ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूद्र गृहस्थको अपनी शक्तिके अनुसार तीनों वर्णोंका निरन्तर सब प्रकारसे आतिथ्य-सत्कार करना चाहिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य—इन तीन वर्णोंकी परिचर्यामें रहना उसके लिये प्रधान धर्म बतलाया गया है॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवृत्तिलक्षणो धर्मो गृहस्थेषु विधीयते।
तमहं वर्तयिष्यामि सर्वभूतहितं शुभम् ॥ ७६ ॥
मूलम्
प्रवृत्तिलक्षणो धर्मो गृहस्थेषु विधीयते।
तमहं वर्तयिष्यामि सर्वभूतहितं शुभम् ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रवृत्तिरूप धर्मका विधान गृहस्थोंके लिये किया गया है। वह सब प्राणियोंका हितकारी और शुभ है। अब मैं उसीका वर्णन करता हूँ॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दातव्यमसकृच्छक्त्या यष्टव्यमसकृत् तथा ।
पुष्टिकर्मविधानं च कर्तव्यं भूतिमिच्छता ॥ ७७ ॥
मूलम्
दातव्यमसकृच्छक्त्या यष्टव्यमसकृत् तथा ।
पुष्टिकर्मविधानं च कर्तव्यं भूतिमिच्छता ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषको सदा अपनी शक्तिके अनुसार दान करना चाहिये। सदा यज्ञ करना चाहिये और सदा ही पुष्टिजनक कर्म करते रहना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मेणार्थः समाहार्यो धर्मलब्धं त्रिधा धनम्।
कर्तव्यं धर्मपरमं मानवेन प्रयत्नतः ॥ ७८ ॥
मूलम्
धर्मेणार्थः समाहार्यो धर्मलब्धं त्रिधा धनम्।
कर्तव्यं धर्मपरमं मानवेन प्रयत्नतः ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यको धर्मके द्वारा धनका उपार्जन करना चाहिये। धर्मसे उपार्जित हुए धनके तीन भाग करने चाहिये और प्रयत्नपूर्वक धर्मप्रधान कर्मका अनुष्ठान करना चाहिये॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकेनांशेन धर्मार्थौ कर्तव्यौ भूतिमिच्छता।
एकेनांशेन कामार्थ एकमंशं विवर्धयेत् ॥ ७९ ॥
मूलम्
एकेनांशेन धर्मार्थौ कर्तव्यौ भूतिमिच्छता।
एकेनांशेन कामार्थ एकमंशं विवर्धयेत् ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी उन्नति चाहनेवाले पुरुषको धनके उपर्युक्त तीन भागोंमेंसे एक भागके द्वारा धर्म और अर्थकी सिद्धि करनी चाहिये। दूसरे भागको उपभोगमें लगाना चाहिये और तीसरे अंशको बढ़ाना चाहिये (प्रवृत्तिधर्मका वर्णन किया गया है)॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवृत्तिलक्षणस्त्वन्यो धर्मो मोक्षाय तिष्ठति।
तस्य वृत्तिं प्रवक्ष्यामि शृणु मे देवि तत्त्वतः ॥ ८० ॥
मूलम्
निवृत्तिलक्षणस्त्वन्यो धर्मो मोक्षाय तिष्ठति।
तस्य वृत्तिं प्रवक्ष्यामि शृणु मे देवि तत्त्वतः ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे भिन्न निवृत्तिरूप धर्म है। वह मोक्षका साधन है। देवि! मैं यथार्थरूपसे उसका स्वरूप बताता हूँ, उसे सुनो॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतदया धर्मो न चैकग्रामवासिता।
आशापाशविमोक्षश्च शस्यते मोक्षकाङ्क्षिणाम् ॥ ८१ ॥
मूलम्
सर्वभूतदया धर्मो न चैकग्रामवासिता।
आशापाशविमोक्षश्च शस्यते मोक्षकाङ्क्षिणाम् ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषोंको सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करनी चाहिये। यही उनका धर्म है। उन्हें सदा एक ही गाँवमें नहीं रहना चाहिये और अपने आशारूपी बन्धनोंको तोड़नेका प्रयत्न करना चाहिये। यही मुमुक्षुके लिये प्रशंसाकी बात है॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कुट्यां नोदके सङ्गो न वाससि न चासने।
न त्रिदण्डे न शयने नाग्नौ न शरणालये ॥ ८२ ॥
मूलम्
न कुट्यां नोदके सङ्गो न वाससि न चासने।
न त्रिदण्डे न शयने नाग्नौ न शरणालये ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मोक्षाभिलाषी पुरुषको न तो कुटीमें आसक्ति रखनी चाहिये न जलमें, न वस्त्रमें, न आसनमें; न त्रिदण्डमें, न शय्यामें, न अग्निमें और न किसी निवासस्थानमें ही आसक्त होना चाहिये॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यात्मगतिचित्तो यस्तन्मनास्तत्परायणः ।
युक्तो योगं प्रति सदा प्रतिसंख्यानमेव च ॥ ८३ ॥
मूलम्
अध्यात्मगतिचित्तो यस्तन्मनास्तत्परायणः ।
युक्तो योगं प्रति सदा प्रतिसंख्यानमेव च ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुमुक्षुको अध्यात्मज्ञानका ही चिन्तन, मनन और निदिध्यासन करना चाहिये। उसे उसीमें सदा स्थित रहना चाहिये। निरन्तर योगाभ्यासमें प्रवृत्त होकर तत्त्वका विचार करते रहना चाहिये॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृक्षमूलपरो नित्यं शून्यागारनिवेशनः ।
नदीपुलिनशायी च नदीतीररतिश्च यः ॥ ८४ ॥
विमुक्तः सर्वसङ्गेषु स्नेहबन्धेषु च द्विजः।
आत्मन्येवात्मनो भावं समासज्जेत वै द्विजः ॥ ८५ ॥
मूलम्
वृक्षमूलपरो नित्यं शून्यागारनिवेशनः ।
नदीपुलिनशायी च नदीतीररतिश्च यः ॥ ८४ ॥
विमुक्तः सर्वसङ्गेषु स्नेहबन्धेषु च द्विजः।
आत्मन्येवात्मनो भावं समासज्जेत वै द्विजः ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संन्यासी द्विजको उचित है कि वह सब प्रकारकी आसक्तियों और स्नेहबन्धनोंसे मुक्त होकर सर्वदा वृक्षके नीचे, सूने घरमें अथवा नदीके किनारे रहता हुआ अपने अन्तःकरणमें ही परमात्माका ध्यान करे॥८४-८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थाणुभूतो निराहारो मोक्षदृष्टेन कर्मणा।
परिव्रजेति यो युक्तस्तस्य धर्मः सनातनः ॥ ८६ ॥
मूलम्
स्थाणुभूतो निराहारो मोक्षदृष्टेन कर्मणा।
परिव्रजेति यो युक्तस्तस्य धर्मः सनातनः ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो युक्तचित्त होकर संन्यासी होता है और मोक्षोपयोगी कर्म श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदिके द्वारा समय व्यतीत करता हुआ निराहार (विषयसेवनसे रहित) और ठूठे काठकी भाँति स्थिर रहता है, उसको सनातन धर्मका मोक्षरूप धर्म प्राप्त होता है॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चैकत्र समासक्तो न चैकग्रामगोचरः।
मुक्तो ह्यटति निर्मुक्तो न चैकपुलिनेशयः ॥ ८७ ॥
मूलम्
न चैकत्र समासक्तो न चैकग्रामगोचरः।
मुक्तो ह्यटति निर्मुक्तो न चैकपुलिनेशयः ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संन्यासी किसी एक स्थानमें आसक्ति न रखे, एक ही ग्राममें न रहे तथा किसी एक ही किनारेपर सर्वदा शयन न करे। उसे सब प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त होकर स्वच्छन्द विचरना चाहिये॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष मोक्षविदां धर्मो वेदोक्तः सत्पथः सताम्।
यो मार्गमनुयातीमं पदं तस्य च विद्यते ॥ ८८ ॥
मूलम्
एष मोक्षविदां धर्मो वेदोक्तः सत्पथः सताम्।
यो मार्गमनुयातीमं पदं तस्य च विद्यते ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह मोक्षधर्मके ज्ञाता सत्पुरुषोंका वेदप्रतिपादित धर्म एवं सन्मार्ग है। जो इस मार्गपर चलता है, उसको ब्रह्मपदकी प्राप्ति होती है॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्विधा भिक्षवस्ते कुटीचकबहूदकौ ।
हंसः परमहंसश्च यो यः पश्चात् स उत्तमः ॥ ८९ ॥
मूलम्
चतुर्विधा भिक्षवस्ते कुटीचकबहूदकौ ।
हंसः परमहंसश्च यो यः पश्चात् स उत्तमः ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संन्यासी चार प्रकारके होते हैं—कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस। इनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः परतरं नास्ति नावरं न तिरोग्रतः।
अदुःखमसुखं सौम्यमजरामरमव्ययम् ॥ ९० ॥
मूलम्
अतः परतरं नास्ति नावरं न तिरोग्रतः।
अदुःखमसुखं सौम्यमजरामरमव्ययम् ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस परमहंस धर्मके द्वारा प्राप्त होनेवाले आत्म-ज्ञानसे बढ़कर दूसरा कुछ भी नहीं है। यह परमहंस-ज्ञान किसीसे निष्कृष्ट नहीं है। परमहंस-ज्ञानके सम्मुख परमात्मा तिरोहित नहीं है। यह दुःख-सुखसे रहित सौम्य अजर-अमर और अविनाशी पद है॥९०॥
मूलम् (वचनम्)
उमोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गार्हस्थ्यो मोक्षधर्मश्च सज्जनाचरितस्त्वया ।
भाषितो जीवलोकस्य मार्गः श्रेयस्करो महान् ॥ ९१ ॥
मूलम्
गार्हस्थ्यो मोक्षधर्मश्च सज्जनाचरितस्त्वया ।
भाषितो जीवलोकस्य मार्गः श्रेयस्करो महान् ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उमा बोलीं— भगवन्! आपने सत्पुरुषोंद्वारा आचरणमें लाये हुए गार्हस्थ्यधर्म और मोक्षधर्मका वर्णन किया। ये दोनों ही मार्ग जीवजगत्का महान् कल्याण करनेवाले हैं॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषिधर्मं तु धर्मज्ञ श्रोतुमिच्छाम्यतः परम्।
स्पृहा भवति मे नित्यं तपोवननिवासिषु ॥ ९२ ॥
मूलम्
ऋषिधर्मं तु धर्मज्ञ श्रोतुमिच्छाम्यतः परम्।
स्पृहा भवति मे नित्यं तपोवननिवासिषु ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञ! अब मैं ऋषिधर्म सुनना चाहती हूँ। तपोवननिवासी मुनियोंके प्रति सदा ही मेरे मनमें स्नेह बना रहता है॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आज्यधूमोद्भवो गन्धो रुणद्धीव तपोवनम्।
तं दृष्ट्वा मे मनः प्रीतं महेश्वर सदा भवेत्॥९३॥
मूलम्
आज्यधूमोद्भवो गन्धो रुणद्धीव तपोवनम्।
तं दृष्ट्वा मे मनः प्रीतं महेश्वर सदा भवेत्॥९३॥
अनुवाद (हिन्दी)
महेश्वर! ये ऋषिलोग जब अग्निमें घीकी आहुति देते हैं, उस समय उसके धूमसे प्रकट हुई सुगन्ध मानो सारे तपोवनमें छा जाती है। उसे देखकर मेरा चित्त सदा प्रसन्न रहता है॥९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतन्मे संशयं देव मुनिधर्मकृतं विभो।
सर्वधर्मार्थतत्त्वज्ञ देवदेव वदस्व मे।
निखिलेन मया पृष्टं महादेव यथातथम् ॥ ९४ ॥
मूलम्
एतन्मे संशयं देव मुनिधर्मकृतं विभो।
सर्वधर्मार्थतत्त्वज्ञ देवदेव वदस्व मे।
निखिलेन मया पृष्टं महादेव यथातथम् ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विभो! देव! यह मैंने मुनिधर्मके सम्बन्धमें जिज्ञासा प्रकट की है। देवदेव! आप सम्पूर्ण धर्मोंका तत्त्व जाननेवाले हैं, अतः महादेव! मैंने जो कुछ पूछा है, उसका पूर्णरूपसे यथावत् वर्णन कीजिये॥९४॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्त तेऽहं प्रवक्ष्यामि मुनिधर्ममनुत्तमम्।
यं कृत्वा मुनयो यान्ति सिद्धिं स्वतपसा शुभे ॥ ९५ ॥
मूलम्
हन्त तेऽहं प्रवक्ष्यामि मुनिधर्ममनुत्तमम्।
यं कृत्वा मुनयो यान्ति सिद्धिं स्वतपसा शुभे ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान् शिव बोले— शुभे! तुम्हारे इस प्रश्नसे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। अब मैं मुनियोंके सर्वोत्तम धर्मका वर्णन करता हूँ, जिसका पालन करके वे अपनी तपस्याके द्वारा परम सिद्धिको प्राप्त होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फेनपानामृषीणां यो धर्मो धर्मविदां सताम्।
तन्मे शृणु महाभागे धर्मज्ञे धर्ममादितः ॥ ९६ ॥
मूलम्
फेनपानामृषीणां यो धर्मो धर्मविदां सताम्।
तन्मे शृणु महाभागे धर्मज्ञे धर्ममादितः ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाभागे! धर्मज्ञे! सबसे पहले धर्मवेत्ता साधुपुरुष फेनप ऋषियोंका जो धर्म है, उसीका मुझसे वर्णन सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उञ्छन्ति सततं ये ते ब्राह्म्यं फेनोत्करं शुभम्।
अमृतं ब्रह्मणा पीतमध्वरे प्रसृतं दिवि ॥ ९७ ॥
मूलम्
उञ्छन्ति सततं ये ते ब्राह्म्यं फेनोत्करं शुभम्।
अमृतं ब्रह्मणा पीतमध्वरे प्रसृतं दिवि ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें ब्रह्माजीने यज्ञ करते समय जिसका पान किया तथा जो स्वर्गमें फैला हुआ है, वह अमृत (ब्रह्माजीके द्वारा पीया गया इसलिये) ब्राह्म कहलाता है। उसके फेनको जो थोड़ा-थोड़ा संग्रह करके सदा पान करते हैं (और उसीके आधारपर जीवन-निर्वाह करके तपस्यामें लगे रहते हैं,) वे फेनप[^*] कहलाते हैं॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष तेषां विशुद्धानां फेनपानां तपोधने।
धर्मचर्याकृतो मार्गो बालखिल्यगणैः शृणु ॥ ९८ ॥
मूलम्
एष तेषां विशुद्धानां फेनपानां तपोधने।
धर्मचर्याकृतो मार्गो बालखिल्यगणैः शृणु ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तपोधने! यह धर्माचरणका मार्ग उन विशुद्ध फेनप महात्माओंका ही मार्ग है। अब बालखिल्य नामवाले ऋषिगणोंद्वारा जो धर्मका मार्ग बताया गया है, उसको सुनो॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वालखिल्यास्तपःसिद्धा मुनयः सूर्यमण्डले ।
उञ्छे तिष्ठन्ति धर्मज्ञाः शाकुनीं वृत्तिमास्थिताः ॥ ९९ ॥
मूलम्
वालखिल्यास्तपःसिद्धा मुनयः सूर्यमण्डले ।
उञ्छे तिष्ठन्ति धर्मज्ञाः शाकुनीं वृत्तिमास्थिताः ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वालखिल्यगण तपस्यासे सिद्ध हुए मुनि हैं। वे सब धर्मोंके ज्ञाता हैं और सूर्यमण्डलमें निवास करते हैं। वहाँ वे उञ्छवृत्तिका आश्रय ले पक्षियोंकी भाँति एक-एक दाना बीनकर उसीसे जीवन-निर्वाह करते हैं॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगनिर्मोकवसनाश्चीरवल्कलवाससः ।
निर्द्वन्द्वाःसत्पथं प्राप्ता वालखिल्यास्तपोधनाः ॥ १०० ॥
मूलम्
मृगनिर्मोकवसनाश्चीरवल्कलवाससः ।
निर्द्वन्द्वाःसत्पथं प्राप्ता वालखिल्यास्तपोधनाः ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृगछाला, चीर और वल्कल—ये ही उनके वस्त्र हैं। वे बालखिल्य शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे रहित, सन्मार्गपर चलनेवाले और तपस्याके धनी हैं॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गुष्ठपर्वमात्रा ये भूत्वा स्वे स्वे व्यवस्थिताः।
तपश्चरणमीहन्ते तेषां धर्मफलं महत् ॥ १०१ ॥
मूलम्
अङ्गुष्ठपर्वमात्रा ये भूत्वा स्वे स्वे व्यवस्थिताः।
तपश्चरणमीहन्ते तेषां धर्मफलं महत् ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमेंसे प्रत्येकका शरीर अंगूठेके सिरेके बराबर है। इतने लघुकाय होनेपर भी वे अपने-अपने कर्तव्यमें स्थित हो सदा तपस्यामें संलग्न रहते हैं। उनके धर्मका फल महान् है॥१०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते सुरैः समतां यान्ति सुरकार्यार्थसिद्धये।
द्योतयन्ति दिशः सर्वास्तपसा दग्धकिल्बिषाः ॥ १०२ ॥
मूलम्
ते सुरैः समतां यान्ति सुरकार्यार्थसिद्धये।
द्योतयन्ति दिशः सर्वास्तपसा दग्धकिल्बिषाः ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये उनके समान रूप धारण करते हैं। वे तपस्यासे सम्पूर्ण पापोंको दग्ध करके अपने तेजसे समस्त दिशाओंको प्रकाशित करते हैं॥१०२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये त्वन्ये शुद्धमनसो दयाधर्मपरायणाः।
सन्तश्चक्रचराः पुण्याः सोमलोकचराश्च ये ॥ १०३ ॥
पितृलोकसमीपस्थास्त उञ्छन्ति यथाविधि ।
मूलम्
ये त्वन्ये शुद्धमनसो दयाधर्मपरायणाः।
सन्तश्चक्रचराः पुण्याः सोमलोकचराश्च ये ॥ १०३ ॥
पितृलोकसमीपस्थास्त उञ्छन्ति यथाविधि ।
अनुवाद (हिन्दी)
इनके अतिरिक्त दूसरे भी बहुत-से शुद्धचित्त, दयाधर्मपरायण एवं पुण्यात्मा संत हैं, जिनमें कुछ चक्रचर (चक्रके समान विचरनेवाले), कुछ सोमलोकमें रहनेवाले तथा कुछ पितृलोकके निकट निवास करनेवाले हैं। ये सब शास्त्रीय विधिके अनुसार उञ्छवृत्तिसे जीविका चलाते हैं॥१०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्प्रक्षालाश्मकुट्टाश्च दन्तोलूखलिकाश्च ते ॥ १०४ ॥
सोमपानां च देवानामूष्मपाणां तथैव च।
उञ्छन्ति ये समीपस्थाः सदारा नियतेन्द्रियाः ॥ १०५ ॥
मूलम्
सम्प्रक्षालाश्मकुट्टाश्च दन्तोलूखलिकाश्च ते ॥ १०४ ॥
सोमपानां च देवानामूष्मपाणां तथैव च।
उञ्छन्ति ये समीपस्थाः सदारा नियतेन्द्रियाः ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई ऋषि सम्प्रक्षाल1, कोई अश्मकुट्ट2 और कोई दन्तोलूखलिक3 हैं। ये लोग सोमप (चन्द्रमाकी किरणोंका पान करनेवाले) और उष्णप (सूर्यकी किरणोंका पान करनेवाले) देवताओंके निकट रहकर अपनी स्त्रियों-सहित उञ्छवृत्तिसे जीवन-निर्वाह करते और इन्द्रियोंको काबूमें रखते हैं॥१०४-१०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामग्निपरिस्पन्दः पितॄणां चार्चनं तथा।
यज्ञानां चैव पञ्चानां यजनं धर्म उच्यते ॥ १०६ ॥
मूलम्
तेषामग्निपरिस्पन्दः पितॄणां चार्चनं तथा।
यज्ञानां चैव पञ्चानां यजनं धर्म उच्यते ॥ १०६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निहोत्र, पितरोंका पूजन (श्राद्ध) और पंचमहा-यज्ञोंका अनुष्ठान यह उनका मुख्य धर्म कहा जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष चक्रचरैर्देवि देवलोकचरैर्द्विजैः ।
ऋषिधर्मः सदा चीर्णो योऽन्यस्तमपि मे शृणु ॥ १०७ ॥
मूलम्
एष चक्रचरैर्देवि देवलोकचरैर्द्विजैः ।
ऋषिधर्मः सदा चीर्णो योऽन्यस्तमपि मे शृणु ॥ १०७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! चक्रकी तरह विचरनेवाले और देवलोकमें निवास करनेवाले पूर्वोक्त ब्राह्मणोंने इस ऋषिधर्मका सदा ही अनुष्ठान किया है। इसके अतिरिक्त दूसरा भी जो ऋषियोंका धर्म है, उसे मुझसे सुनो॥१०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेष्वेवर्षिधर्मेषु ज्ञेयोऽऽत्मा संयतेन्द्रियैः ।
कामक्रोधौ ततः पश्चाज्जेतव्याविति मे मतिः ॥ १०८ ॥
मूलम्
सर्वेष्वेवर्षिधर्मेषु ज्ञेयोऽऽत्मा संयतेन्द्रियैः ।
कामक्रोधौ ततः पश्चाज्जेतव्याविति मे मतिः ॥ १०८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी आर्षधर्मोंमें इन्द्रियसंयमपूर्वक आत्मज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। फिर काम और क्रोधको भी जीतना चाहिये। ऐसा मेरा मत है॥१०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्निहोत्रपरिस्पन्दो धर्मरात्रिसमासनम् ।
सोमयज्ञाभ्यनुज्ञानं पञ्चमी यज्ञदक्षिणा ॥ १०९ ॥
मूलम्
अग्निहोत्रपरिस्पन्दो धर्मरात्रिसमासनम् ।
सोमयज्ञाभ्यनुज्ञानं पञ्चमी यज्ञदक्षिणा ॥ १०९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रत्येक ऋषिके लिये अग्निहोत्रका सम्पादन, धर्मसत्रमें स्थिति, सोमयज्ञका अनुष्ठान, यज्ञविधिका ज्ञान और यज्ञमें दक्षिणा देना—इन पाँच कर्मोंका विधान आवश्यक है॥१०९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यं यज्ञक्रिया धर्मः पितृदेवार्चने रतिः।
सर्वातिथ्यं च कर्तव्यमन्नेनोञ्छार्जितेन वै ॥ ११० ॥
मूलम्
नित्यं यज्ञक्रिया धर्मः पितृदेवार्चने रतिः।
सर्वातिथ्यं च कर्तव्यमन्नेनोञ्छार्जितेन वै ॥ ११० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नित्य यज्ञका अनुष्ठान और धर्मका पालन करना चाहिये। देवपूजा और श्राद्धमें प्रीति रखना चाहिये। उञ्छवृत्तिसे उपार्जित किये हुए अन्नके द्वारा सबका आतिथ्य-सत्कार करना ऋषियोंका परम कर्तव्य है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवृत्तिरुपभोगेषु गोरसानां शमे रतिः।
स्थण्डिले शयने योगः शाकपर्णनिषेवणम् ॥ १११ ॥
फलमूलाशनं वायुरापः शैवलभक्षणम् ।
ऋषीणां नियमा ह्येते यैर्जयन्त्यजितां गतिम् ॥ ११२ ॥
मूलम्
निवृत्तिरुपभोगेषु गोरसानां शमे रतिः।
स्थण्डिले शयने योगः शाकपर्णनिषेवणम् ॥ १११ ॥
फलमूलाशनं वायुरापः शैवलभक्षणम् ।
ऋषीणां नियमा ह्येते यैर्जयन्त्यजितां गतिम् ॥ ११२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विषयभोगोंसे निवृत्त रहना, गोरसका आहार करना, शमके साधनमें प्रेम रखना, खुले मैदान चबूतरेपर सोना, योगका अभ्यास करना, साग-पातका सेवन करना, फल-मूल खाकर रहना, वायु, जल और सेवारका आहार करना—ये ऋषियोंके नियम हैं। इनका पालन करनेसे वे अजित—सर्वश्रेष्ठ गतिको प्राप्त करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विधूमे सन्नमुसले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने।
अतीतपात्रसंचारे काले विगतभिक्षुके ॥ ११३ ॥
अतिथिं काङ्क्षमाणो वै शेषान्नकृतभोजनः।
सत्यधर्मरतः शान्तो मुनिधर्मेण युज्यते ॥ ११४ ॥
न स्तम्भी न च मानी स्यान्नाप्रसन्नो न विस्मितः।
मित्रामित्रसमो मैत्रो यः स धर्मविदुत्तमः ॥ ११५ ॥
मूलम्
विधूमे सन्नमुसले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने।
अतीतपात्रसंचारे काले विगतभिक्षुके ॥ ११३ ॥
अतिथिं काङ्क्षमाणो वै शेषान्नकृतभोजनः।
सत्यधर्मरतः शान्तो मुनिधर्मेण युज्यते ॥ ११४ ॥
न स्तम्भी न च मानी स्यान्नाप्रसन्नो न विस्मितः।
मित्रामित्रसमो मैत्रो यः स धर्मविदुत्तमः ॥ ११५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब गृहस्थोंके यहाँ रसोईघरका धुआँ निकलना बंद हो जाय, मूसलसे धान कूटनेकी आवाज न आये—सन्नाटा छाया रहे, चूल्हेकी आग बुझ जाय, घरके सब लोग भोजन कर चुकें, बर्तनोंका इधर-उधर ले जाया जाना रुक जाय और भिक्षुक भीख माँगकर लौट गये हों, ऐसे समयतक ऋषिको अतिथियोंकी बाट जोहनी चाहिये और उसके बचे-खुचे अन्नको स्वयं ग्रहण करना चाहिये। ऐसा करनेसे सत्यधर्ममें अनुराग रखनेवाला शान्त पुरुष मुनिधर्मसे युक्त होता है अर्थात् उसे मुनिधर्मके पालनका फल मिलता है। जिसे गर्व और अभिमान नहीं है, जो अप्रसन्न और विस्मित नहीं होता, शत्रु और मित्रको समान समझता तथा सबके प्रति मैत्रीका भाव रखता है, वही धर्मवेत्ताओंमें उत्तम ऋषि है॥११३—११५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४१॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १०६ श्लोक मिलाकर कुल २२१ श्लोक हैं)
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यहाँ आचार्य नीलकण्ठके मतमें श्मशान शब्दसे काशीका महाश्मशान ही गृहीत होता है। इसीलिये वहाँ शवके दर्शनसे शिवके दर्शनका फल माना जाता है।
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कुछ लोग दूध पीनेके समय बछड़ोंके मुँहमें लगे हुए फेनको ही वह अमृत मानते हैं, उसीका पान करनेवाले उनके मतमें फेनप हैं। आचार्य नीलकण्ठ अन्नके अग्रभाग (रसोईसे निकाले गये अग्राशन) को फेन और उसका उपयोग करनेवालेको फेनप कहते हैं।