१४० उमामहेश्वरसंवादः

भागसूचना

चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नारदजीके द्वारा हिमालय पर्वतपर भूतगणोंके सहित शिवजीकी शोभाका विस्तृत वर्णन, पार्वतीका आगमन, शिवजीकी दोनों आँखोंको अपने हाथोंसे बंद करना और तीसरे नेत्रका प्रकट होना, हिमालयका भस्म होना और पुनः प्राकृत अवस्थामें हो जाना तथा शिव-पार्वतीके धर्मविषयक संवादकी उत्थापना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो नारायणसुहृन्नारदो भगवानृषिः ।
शङ्करस्योमया सार्धं संवादं प्रत्यभाषत ॥ १ ॥

मूलम्

ततो नारायणसुहृन्नारदो भगवानृषिः ।
शङ्करस्योमया सार्धं संवादं प्रत्यभाषत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! तदनन्तर श्रीनारायणके सुहृद् भगवान् नारदमुनिने शंकरजीका पार्वतीके साथ जो संवाद हुआ था, उसे बताना आरम्भ किया॥१॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपश्चचार धर्मात्मा वृषभाङ्कः सुरेश्वरः।
पुण्ये गिरौ हिमवति सिद्धचारणसेविते ॥ २ ॥
नानौषधियुते रम्ये नानापुष्पसमाकुले ।
अप्सरोगणसंकीर्णे भूतसंघनिषेविते ॥ ३ ॥

मूलम्

तपश्चचार धर्मात्मा वृषभाङ्कः सुरेश्वरः।
पुण्ये गिरौ हिमवति सिद्धचारणसेविते ॥ २ ॥
नानौषधियुते रम्ये नानापुष्पसमाकुले ।
अप्सरोगणसंकीर्णे भूतसंघनिषेविते ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने कहा— भगवन्! जहाँ सिद्ध और चारण निवास करते है, जो नाना प्रकारकी ओषधियोंसे सम्पन्न तथा भाँति-भाँतिके फूलोंसे व्याप्त होनेके कारण रमणीय जान पड़ता है, जहाँ झुंड-की-झुंड अप्सराएँ भरी रहती हैं और भूतोंकी टोलियाँ निवास करती हैं; उस परम पवित्र हिमालयपर्वतपर धर्मात्मा देवाधिदेव भगवान् शंकर तपस्या कर रहे थे॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र देवो मुदा युक्तो भूतसंघशतैर्वृतः।
नानारूपैर्विरूपैश्च दिव्यैरद्‌भुतदर्शनैः ॥ ४ ॥

मूलम्

तत्र देवो मुदा युक्तो भूतसंघशतैर्वृतः।
नानारूपैर्विरूपैश्च दिव्यैरद्‌भुतदर्शनैः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस स्थानपर महादेवजी सैकड़ों भूतसमुदायोंसे घिरे रहकर बड़ी प्रसन्नताका अनुभव करते थे। उन भूतोंके रूप नाना प्रकारके एवं विकृत थे, किन्हीं-किन्हींके रूप दिव्य एवं अद्‌भुत दिखायी देते थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंहव्याघ्रगजप्रख्यैः सर्वजातिसमन्वितैः ।
क्रोष्टुकद्वीपिवदनैर्ऋक्षर्षभमुखैस्तथा ॥ ५ ॥

मूलम्

सिंहव्याघ्रगजप्रख्यैः सर्वजातिसमन्वितैः ।
क्रोष्टुकद्वीपिवदनैर्ऋक्षर्षभमुखैस्तथा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ भूतोंकी आकृति सिंहों, व्याघ्रों एवं गजराजोंके समान थी। उनमें सभी जातियोंके प्राणी सम्मिलित थे। कितने ही भूतोंके मुख सियारों, चीतों, रीछों और बैलोंके समान थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उलूकवदनैर्भीमैर्वृकश्येनमुखैस्तथा ।
नानावर्णैर्मृगमुखैः सर्वजातिसमन्वितैः ॥ ६ ॥

मूलम्

उलूकवदनैर्भीमैर्वृकश्येनमुखैस्तथा ।
नानावर्णैर्मृगमुखैः सर्वजातिसमन्वितैः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितने ही उल्लू-जैसे मुखवाले थे। बहुत-से भयंकर भूत भेड़ियों और बाजोंके समान मुख धारण करते थे। और कितनोंके मुख हरिणोंके समान थे। उन सबके वर्ण अनेक प्रकारके थे तथा वे सभी जातियोंसे सम्पन्न थे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंनरैर्यक्षगन्धर्वै रक्षोभूतगणैस्तथा ।
दिव्यपुष्पसमाकीर्णं दिव्यज्वालासमाकुलम् ॥ ७ ॥
दिव्यचन्दनसंयुक्तं दिव्यधूपेन धूपितम् ।
तत् सदो वृषभाङ्कस्य दिव्यवादित्रनादितम् ॥ ८ ॥
मृदङ्गपणवोद्‌घुष्टं शङ्खभेरीनिनादितम् ।
नृत्यद्भिर्भूतसंघैश्च बर्हिणैश्च समन्ततः ॥ ९ ॥

मूलम्

किंनरैर्यक्षगन्धर्वै रक्षोभूतगणैस्तथा ।
दिव्यपुष्पसमाकीर्णं दिव्यज्वालासमाकुलम् ॥ ७ ॥
दिव्यचन्दनसंयुक्तं दिव्यधूपेन धूपितम् ।
तत् सदो वृषभाङ्कस्य दिव्यवादित्रनादितम् ॥ ८ ॥
मृदङ्गपणवोद्‌घुष्टं शङ्खभेरीनिनादितम् ।
नृत्यद्भिर्भूतसंघैश्च बर्हिणैश्च समन्ततः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके सिवा बहुत-से किन्नरों, यक्षों, गन्धर्वों, राक्षसों तथा भूतगणोंने भी महादेवजीको घेर रखा था। भगवान् शंकरकी वह सभा दिव्य पुष्पोंसे आच्छादित, दिव्य तेजसे व्याप्त, दिव्य चन्दनसे चर्चित और दिव्य धूपकी सुगन्धसे सुवासित थी। वहाँ दिव्य वाद्योंकी ध्वनि गूँजती रहती थी। मृदंग और पणवका घोष छाया रहता था। शंख और भेरियोंके नाद सब ओर व्याप्त हो रहे थे। चारों ओर नाचते हुए भूतसमुदाय और मयूर उसकी शोभा बढ़ाते थे॥७—९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रनृत्ताप्सरसं दिव्यं देवर्षिगणसेवितम् ।
दृष्टिकान्तमनिर्देश्यं दिव्यमद्‌भुतदर्शनम् ॥ १० ॥

मूलम्

प्रनृत्ताप्सरसं दिव्यं देवर्षिगणसेवितम् ।
दृष्टिकान्तमनिर्देश्यं दिव्यमद्‌भुतदर्शनम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ अप्सराएँ नृत्य करती थीं, वह दिव्य सभा देवर्षियोंके समुदायोंसे शोभित, देखनेमें मनोहर, अनिर्वचनीय, अलौकिक और अद्‌भुत थी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गिरिस्तपसा तस्य गिरिशस्य व्यरोचत।
स्वाध्यायपरमैर्विप्रैर्ब्रह्मघोषो निनादितः ॥ ११ ॥

मूलम्

स गिरिस्तपसा तस्य गिरिशस्य व्यरोचत।
स्वाध्यायपरमैर्विप्रैर्ब्रह्मघोषो निनादितः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् शंकरकी तपस्यासे उस पर्वतकी बड़ी शोभा हो रही थी। स्वाध्यायपरायण ब्राह्मणोंकी वेद-ध्वनि वहाँ सब ओर गूँज रही थी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षट्‌पदैरुपगीतैश्च माधवाप्रतिमो गिरिः ।
तन्महोत्सवसंकाशं भीमरूपधरं ततः ॥ १२ ॥
दृष्ट्वा मुनिगणस्यासीत् परा प्रीतिर्जनार्दन।

मूलम्

षट्‌पदैरुपगीतैश्च माधवाप्रतिमो गिरिः ।
तन्महोत्सवसंकाशं भीमरूपधरं ततः ॥ १२ ॥
दृष्ट्वा मुनिगणस्यासीत् परा प्रीतिर्जनार्दन।

अनुवाद (हिन्दी)

माधव! वह अनुपम पर्वत भ्रमरोंके गीतोंसे अत्यन्त सुशोभित हो रहा था। जनार्दन! वह स्थान अत्यन्त भयंकर होनेपर भी महान् उत्सवसे सम्पन्न-सा प्रतीत होता था। उसे देखकर मुनियोंके समुदायको बड़ी प्रसन्नता हुई॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनयश्च महाभागाः सिद्धाश्चैवोर्ध्वरेतसः ॥ १३ ॥
मरुतो वसवः साध्या विश्वेदेवाः सवासवाः।
यक्षा नागाः पिशाचाश्च लोकपाला हुताशनाः ॥ १४ ॥
वाताः सर्वे महाभूतास्तत्रैवासन् समागताः।

मूलम्

मुनयश्च महाभागाः सिद्धाश्चैवोर्ध्वरेतसः ॥ १३ ॥
मरुतो वसवः साध्या विश्वेदेवाः सवासवाः।
यक्षा नागाः पिशाचाश्च लोकपाला हुताशनाः ॥ १४ ॥
वाताः सर्वे महाभूतास्तत्रैवासन् समागताः।

अनुवाद (हिन्दी)

महान् सौभाग्यशाली मुनि, ऊर्ध्वरेता सिद्धगण, मरुद्‌गण, वसुगण, साध्यगण, इन्द्रसहित विश्वेदेवगण, यक्ष और नाग, पिशाच, लोकपाल, अग्नि, समस्त वायु और प्रधान भूतगण वहाँ आये हुए थे॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋतवः सर्वपुष्पैश्च व्यकिरन्त महाद्‌भुतैः ॥ १५ ॥
ओषध्यो ज्वलमानाश्च द्योतयन्ति स्म तद् वनम्।

मूलम्

ऋतवः सर्वपुष्पैश्च व्यकिरन्त महाद्‌भुतैः ॥ १५ ॥
ओषध्यो ज्वलमानाश्च द्योतयन्ति स्म तद् वनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

ऋतुएँ वहाँ उपस्थित हो सब प्रकारके अत्यन्त अद्‌भुत पुष्प बिखेर रही थीं। ओषधियाँ प्रज्वलित हो उस वनको प्रकाशित कर रही थीं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विहङ्गाश्च मुदा युक्ताः प्रानृत्यन् व्यनदंश्च ह ॥ १६ ॥
गिरिपृष्ठेषु रम्येषु व्याहरन्तो जनप्रियाः।

मूलम्

विहङ्गाश्च मुदा युक्ताः प्रानृत्यन् व्यनदंश्च ह ॥ १६ ॥
गिरिपृष्ठेषु रम्येषु व्याहरन्तो जनप्रियाः।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँके रमणीय पर्वतशिखरोंपर लोगोंको प्रिय लगनेवाली बोली बोलते हुए पक्षी प्रसन्नतासे युक्त हो नाचते और कलरव करते थे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र देवो गिरितटे दिव्यधातुविभूषिते ॥ १७ ॥
पर्यङ्क इव विभ्राजन्नुपविष्टो महामनाः।

मूलम्

तत्र देवो गिरितटे दिव्यधातुविभूषिते ॥ १७ ॥
पर्यङ्क इव विभ्राजन्नुपविष्टो महामनाः।

अनुवाद (हिन्दी)

दिव्य धातुओंसे विभूषित पर्यंकके समान उस पर्वतशिखरपर बैठे हुए महामना महादेवजी बड़ी शोभा पा रहे थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्याघ्रचर्माम्बरधरः सिंहचर्मोत्तरच्छदः ॥ १८ ॥
व्यालयज्ञोपवीती च लोहिताङ्गदभूषणः ।
हरिश्मश्रुर्जटी भीमो भयकर्ता सुरद्विषाम् ॥ १९ ॥
अभयः सर्वभूतानां भक्तानां वृषभध्वजः।

मूलम्

व्याघ्रचर्माम्बरधरः सिंहचर्मोत्तरच्छदः ॥ १८ ॥
व्यालयज्ञोपवीती च लोहिताङ्गदभूषणः ।
हरिश्मश्रुर्जटी भीमो भयकर्ता सुरद्विषाम् ॥ १९ ॥
अभयः सर्वभूतानां भक्तानां वृषभध्वजः।

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने व्याघ्रचर्मको ही वस्त्रके रूपमें धारण कर रखा था। सिंहका चर्म उनके लिये उत्तरीय वस्त्र (चादर)का काम देता था। उनके गलेमें सर्पमय यज्ञोपवीत शोभा दे रहा था। वे लाल रंगके बाजूबंदसे विभूषित थे। उनकी मूँछ काली थी, मस्तकपर जटाजूट शोभा पाता था। वे भीमस्वरूप रुद्र देवद्रोहियोंके मनमें भय उत्पन्न करते थे। अपनी ध्वजामें वृषभका चिह्न धारण करनेवाले वे भगवान् शिव भक्तों तथा सम्पूर्ण भूतोंके भयका निवारण करते थे॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा महर्षयः सर्वे शिरोभिरवनिं गताः ॥ २० ॥
(गीर्भिः परमशुद्धाभिस्तुष्टुवुश्च मनोहरम् ॥)
विमुक्ताः सर्वपापेभ्यः क्षान्ता विगतकल्मषाः।

मूलम्

दृष्ट्वा महर्षयः सर्वे शिरोभिरवनिं गताः ॥ २० ॥
(गीर्भिः परमशुद्धाभिस्तुष्टुवुश्च मनोहरम् ॥)
विमुक्ताः सर्वपापेभ्यः क्षान्ता विगतकल्मषाः।

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् शंकरका दर्शन करके उन सभी महर्षियोंने पृथ्वीपर सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया और परम शुद्ध वाणीद्वारा उनकी मनोहर स्तुति की। वे सभी ऋषि सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त, क्षमाशील और कल्मषरहित थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य भूतपतेः स्थानं भीमरूपधरं बभौ ॥ २१ ॥
अप्रधृष्यतरं चैव महोरगसमाकुलम् ।

मूलम्

तस्य भूतपतेः स्थानं भीमरूपधरं बभौ ॥ २१ ॥
अप्रधृष्यतरं चैव महोरगसमाकुलम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् भूतनाथका वह भयानक स्थान बड़ी शोभा पा रहा था। वह अत्यन्त दुर्धर्ष और बड़े-बड़े सर्पोंसे भरा हुआ था॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षणेनैवाभवत् सर्वमद्‌भुतं मधुसूदन ॥ २२ ॥
तत् सदो वृषभाङ्कस्य भीमरूपधरं बभौ।

मूलम्

क्षणेनैवाभवत् सर्वमद्‌भुतं मधुसूदन ॥ २२ ॥
तत् सदो वृषभाङ्कस्य भीमरूपधरं बभौ।

अनुवाद (हिन्दी)

मधुसूदन! वृषभध्वजका वह भयानक सभास्थल क्षणभरमें अद्‌भुत शोभा पाने लगा॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमभ्ययाच्छैलसुता भूतस्त्रीगणसंवृता ॥ २३ ॥
हरतुल्याम्बरधरा समानव्रतधारिणी ।
बिभ्रती कलशं रौक्मं सर्वतीर्थजलोद्भवम् ॥ २४ ॥

मूलम्

तमभ्ययाच्छैलसुता भूतस्त्रीगणसंवृता ॥ २३ ॥
हरतुल्याम्बरधरा समानव्रतधारिणी ।
बिभ्रती कलशं रौक्मं सर्वतीर्थजलोद्भवम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भूतोंकी स्त्रियोंसे घिरी हुई गिरिराज-नन्दिनी उमा सम्पूर्ण तीर्थोंके जलसे भरा हुआ सोनेका कलश लिये उनके पास आयीं। उन्होंने भी भगवान् शंकरके समान ही वस्त्र धारण किया था। वे भी उन्हींकी भाँति उत्तम व्रतका पालन करती थीं॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरिस्रवाभिः सर्वाभिः पृष्ठतोऽनुगता शुभा।
पुष्पवृष्ट्‌याभिवर्षन्ती गन्धैर्बहुविधैस्तथा ।
सेवन्ती हिमवत् पार्श्वं हरपार्श्वमुपागमत् ॥ २५ ॥

मूलम्

गिरिस्रवाभिः सर्वाभिः पृष्ठतोऽनुगता शुभा।
पुष्पवृष्ट्‌याभिवर्षन्ती गन्धैर्बहुविधैस्तथा ।
सेवन्ती हिमवत् पार्श्वं हरपार्श्वमुपागमत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके पीछे-पीछे उस पर्वतसे गिरनेवाली सभी नदियाँ चल रही थीं। शुभलक्षणा पार्वती फूलोंकी वर्षा करती और नाना प्रकारकी सुगन्ध बिखेरती हुई भगवान् शिवके पास आयीं। वे भी हिमालयके पार्श्वभागका ही सेवन करती थीं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स्मयन्ती पाणिभ्यां नर्मार्थं चारुहासिनी।
हरनेत्रे शुभे देवी सहसा सा समावृणोत् ॥ २६ ॥

मूलम्

ततः स्मयन्ती पाणिभ्यां नर्मार्थं चारुहासिनी।
हरनेत्रे शुभे देवी सहसा सा समावृणोत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आते ही मनोहर हास्यवाली देवी उमाने मनोरंजन या हास-परिहासके लिये मुसकराकर अपने दोनों हाथोंसे सहसा भगवान् शंकरके दोनों नेत्र बंद कर लिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संवृताभ्यां तु नेत्राभ्यां तमोभूतमचेतनम्।
निर्होमं निर्वषट्‌कारं जगद् वै सहसाभवत् ॥ २७ ॥

मूलम्

संवृताभ्यां तु नेत्राभ्यां तमोभूतमचेतनम्।
निर्होमं निर्वषट्‌कारं जगद् वै सहसाभवत् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके दोनों नेत्रोंके आच्छादित होते ही सारा जगत् सहसा अन्धकारमय, चेतनाशून्य तथा होम और वषट्‌कारसे रहित हो गया॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनश्च विमनाः सर्वोऽभवत् त्राससमन्वितः।
निमीलिते भूतपतौ नष्टसूर्य इवाभवत् ॥ २८ ॥

मूलम्

जनश्च विमनाः सर्वोऽभवत् त्राससमन्वितः।
निमीलिते भूतपतौ नष्टसूर्य इवाभवत् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब लोग अनमने हो गये, सबके ऊपर त्रास छा गया। भूतनाथके नेत्र बंद कर लेनेपर इस संसारकी वैसी ही दशा हो गयी, मानो सूर्यदेव नष्ट हो गये हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वितिमिरो लोकः क्षणेन समपद्यत।
ज्वाला च महती दीप्ता ललाटात् तस्य निःसृता ॥ २९ ॥

मूलम्

ततो वितिमिरो लोकः क्षणेन समपद्यत।
ज्वाला च महती दीप्ता ललाटात् तस्य निःसृता ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर क्षणभरमें सारे जगत्‌का अन्धकार दूर हो गया। भगवान् शिवके ललाटसे अत्यन्त दीप्तिशालिनी महाज्वाला प्रकट हो गयी॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृतीयं चास्य सम्भूतं नेत्रमादित्यसंनिभम्।
युगान्तसदृशं दीप्तं येनासौ मथितो गिरिः ॥ ३० ॥

मूलम्

तृतीयं चास्य सम्भूतं नेत्रमादित्यसंनिभम्।
युगान्तसदृशं दीप्तं येनासौ मथितो गिरिः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके ललाटमें आदित्यके समान तेजस्वी तीसरे नेत्रका आविर्भाव हो गया। वह नेत्र प्रलयाग्निके समान देदीप्यमान हो रहा था। उस नेत्रसे प्रकट हुई ज्वालाने उस पर्वतको जलाकर मथ डाला॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गिरिसुता दृष्ट्वा दीप्ताग्निसदृशेक्षणम्।
हरं प्रणम्य शिरसा ददर्शायतलोचना ॥ ३१ ॥

मूलम्

ततो गिरिसुता दृष्ट्वा दीप्ताग्निसदृशेक्षणम्।
हरं प्रणम्य शिरसा ददर्शायतलोचना ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महादेवजीको प्रज्वलित अग्निके सदृश तीसरे नेत्रसे युक्त हुआ देख गिरिराजनन्दिनी विशाललोचना उमाने सिरसे प्रणाम करके उनकी ओर चकित दृष्टिसे देखा॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दह्यमाने वने तस्मिन् ससालसरलद्रुमे।
सचन्दनवरे रम्ये दिव्यौषधिविदीपिते ॥ ३२ ॥

मूलम्

दह्यमाने वने तस्मिन् ससालसरलद्रुमे।
सचन्दनवरे रम्ये दिव्यौषधिविदीपिते ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साल और सरल आदि वृक्षोंसे युक्त, श्रेष्ठ चन्दन-वृक्षसे सुशोभित तथा दिव्य ओषधियोंसे प्रकाशित उस रमणीय वनमें आग लग गयी थी और वह सब ओरसे जल रहा था॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृगयूथैर्द्रुतैर्भीतैर्हरपार्श्वमुपागतैः ।
शरणं चाप्यविन्दद्भिस्तत् सदः संकुलं बभौ ॥ ३३ ॥

मूलम्

मृगयूथैर्द्रुतैर्भीतैर्हरपार्श्वमुपागतैः ।
शरणं चाप्यविन्दद्भिस्तत् सदः संकुलं बभौ ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भयभीत मृगोंके झुंडोंको जब कहीं भी शरण न मिली, तब वे भागते हुए महादेवजीके पास आ पहुँचे। उनसे वह सारा सभास्थल भर गया और उसकी अपूर्व शोभा होने लगी॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो नभस्पृशज्वालो विद्युल्लोलाग्निरुल्बणः ।
द्वादशादित्यसदृशो युगान्ताग्निरिवापरः ॥ ३४ ॥

मूलम्

ततो नभस्पृशज्वालो विद्युल्लोलाग्निरुल्बणः ।
द्वादशादित्यसदृशो युगान्ताग्निरिवापरः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ लगी हुई आगकी लपटें आकाशको चूम रही थीं। विद्युत्‌के समान चंचल हुई वह आग बड़ी भयानक प्रतीत हो रही थी, वह बारह सूर्योंके समान प्रकाशित होकर दूसरी प्रलयाग्निके समान प्रतीत होती थी॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षणेन तेन निर्दग्धो हिमवानभवन्नगः।
सधातुशिखराभोगो दीप्तदग्धलतौषधिः ॥ ३५ ॥

मूलम्

क्षणेन तेन निर्दग्धो हिमवानभवन्नगः।
सधातुशिखराभोगो दीप्तदग्धलतौषधिः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने क्षणभरमें हिमालय पर्वतको धातु और विशाल शिखरोंसहित दग्ध कर डाला। उसकी लताएँ और ओषधियाँ प्रज्वलित हो जलकर भस्म हो गयीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा मथितं शैलं शैलराजसुता ततः।
भगवन्तं प्रपन्ना वै साञ्जलिप्रग्रहा स्थिता ॥ ३६ ॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा मथितं शैलं शैलराजसुता ततः।
भगवन्तं प्रपन्ना वै साञ्जलिप्रग्रहा स्थिता ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस पर्वतको दग्ध हुआ देख गिरिराजकुमारी उमा दोनों हाथ जोड़कर भगवान् शंकरकी शरणमें गयीं॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उमां शर्वस्तदा दृष्ट्वा स्त्रीभावगतमार्दवाम्।
पितुर्दैन्यमनिच्छन्ती प्रीत्यापश्यत्‌ तदा गिरिम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

उमां शर्वस्तदा दृष्ट्वा स्त्रीभावगतमार्दवाम्।
पितुर्दैन्यमनिच्छन्ती प्रीत्यापश्यत्‌ तदा गिरिम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय उमामें नारी-स्वभाववश मृदुता (कातरता) आ गयी थी। वे पिताकी दयनीय अवस्था नहीं देखना चाहती थीं। उनकी ऐसी दशा देख भगवान् शंकरने हिमवान् पर्वतकी ओर प्रसन्नतापूर्ण दृष्टिसे देखा॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षणेन हिमवान् सर्वः प्रकृतिस्थः सुदर्शनः।
प्रहृष्टविहगश्चैव सुपुष्पितवनद्रुमः ॥ ३८ ॥

मूलम्

क्षणेन हिमवान् सर्वः प्रकृतिस्थः सुदर्शनः।
प्रहृष्टविहगश्चैव सुपुष्पितवनद्रुमः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी दृष्टि पड़नेपर क्षणभरमें सारा हिमालय पर्वत पहली स्थितिमें आ गया। देखनेमें परम सुन्दर हो गया। वहाँ हर्षमें भरे हुए पक्षी कलरव करने लगे। उस वनके वृक्ष सुन्दर पुष्पोंसे सुशोभित हो गये॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृतिस्थं गिरिं दृष्ट्वा प्रीता देवं महेश्वरम्।
उवाच सर्वलोकानां पतिं शिवमनिन्दिता ॥ ३९ ॥

मूलम्

प्रकृतिस्थं गिरिं दृष्ट्वा प्रीता देवं महेश्वरम्।
उवाच सर्वलोकानां पतिं शिवमनिन्दिता ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पर्वतको पूर्वावस्थामें स्थित हुआ देख पतिव्रता पार्वती देवी बहुत प्रसन्न हुईं। फिर उन्होंने सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी कल्याणस्वरूप महेश्वरदेवसे पूछा॥३९॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् सर्वभूतेश शूलपाणे महाव्रत।
संशयो मे महान् जातस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ४० ॥

मूलम्

भगवन् सर्वभूतेश शूलपाणे महाव्रत।
संशयो मे महान् जातस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमा बोलीं— भगवन्! सर्वभूतेश्वर! शूलपाणे! महान् व्रतधारी महेश्वर! मेरे मनमें एक महान् संशय उत्पन्न हुआ है। आप मुझसे उसकी व्याख्या कीजिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमर्थं ते ललाटे वै तृतीयं नेत्रमुत्थितम्।
किमर्थं च गिरिर्दग्धः सपक्षिगणकाननः ॥ ४१ ॥
किमर्थं च पुनर्देव प्रकृतिस्थस्त्वया कृतः।
तथैव द्रुमसंच्छन्नः कृतोऽयं ते पिता मम ॥ ४२ ॥

मूलम्

किमर्थं ते ललाटे वै तृतीयं नेत्रमुत्थितम्।
किमर्थं च गिरिर्दग्धः सपक्षिगणकाननः ॥ ४१ ॥
किमर्थं च पुनर्देव प्रकृतिस्थस्त्वया कृतः।
तथैव द्रुमसंच्छन्नः कृतोऽयं ते पिता मम ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्यों आपके ललाटमें तीसरा नेत्र प्रकट हुआ? किसलिये आपने पक्षियों और वनोंसहित पर्वतको दग्ध किया और देव! फिर किसलिये आपने उसे पूर्वावस्थामें ला दिया। मेरे इन पिताको आपने जो पूर्ववत् वृक्षोंसे आच्छादित कर दिया, इसका क्या कारण है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(एष मे संशयो देव हृदि मे सम्प्रवर्तते।
देवदेव नमस्तुभ्यं तन्मे शंसितुमर्हसि॥

मूलम्

(एष मे संशयो देव हृदि मे सम्प्रवर्तते।
देवदेव नमस्तुभ्यं तन्मे शंसितुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवदेव! मेरे हृदयमें यह संदेह विद्यमान है। आप इसका समाधान करनेकी कृपा करें। आपको मेरा सादर नमस्कार है॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तथा देव्या प्रीयमाणोऽब्रवीद् भवः॥)

मूलम्

एवमुक्तस्तथा देव्या प्रीयमाणोऽब्रवीद् भवः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— देवी पार्वतीके ऐसा कहने-पर भगवान् शंकर प्रसन्न होकर बोले॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(स्थाने संशयितुं देवि धर्मज्ञे प्रियभाषिणी॥
त्वदृते मां हि वै प्रष्टुं न शक्यं केनचित् प्रिये।

मूलम्

(स्थाने संशयितुं देवि धर्मज्ञे प्रियभाषिणी॥
त्वदृते मां हि वै प्रष्टुं न शक्यं केनचित् प्रिये।

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहेश्वरने कहा— धर्मको जानने तथा प्रिय वचन बोलनेवाली देवि! तुमने जो संशय उपस्थित किया है, वह उचित ही है। प्रिये! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मुझसे ऐसा प्रश्न नहीं कर सकता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकाशं यदि वा गुह्यं प्रियार्थं प्रब्रवीम्यहम्॥
शृणु तत् सर्वमखिलमस्यां संसदि भामिनी।

मूलम्

प्रकाशं यदि वा गुह्यं प्रियार्थं प्रब्रवीम्यहम्॥
शृणु तत् सर्वमखिलमस्यां संसदि भामिनी।

अनुवाद (हिन्दी)

भामिनि! प्रकट या गुप्त जो भी बात होगी, तुम्हारा प्रिय करनेके लिये मैं सब कुछ बताऊँगा। तुम इस सभामें मुझसे सारी बातें सुनो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेषामेव लोकानां कूटस्थं विद्धि मां प्रिये॥
मदधीनास्त्रयो लोका यथा विष्णौ तथा मयि।
स्रष्टा विष्णुरहं गोप्ता इत्येतद् विद्धि भामिनि॥

मूलम्

सर्वेषामेव लोकानां कूटस्थं विद्धि मां प्रिये॥
मदधीनास्त्रयो लोका यथा विष्णौ तथा मयि।
स्रष्टा विष्णुरहं गोप्ता इत्येतद् विद्धि भामिनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिये! सभी लोकोंमें मुझे कूटस्थ समझो। तीनों लोक मेरे अधीन हैं। ये जैसे भगवान् विष्णुके अधीन हैं, उसी प्रकार मेरे भी अधीन हैं। भामिनि! तुम यही जान लो कि भगवान् विष्णु जगत्‌के स्रष्टा हैं और मैं इसकी रक्षा करनेवाला हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् यदा मां स्पृशति शुभं वा यदि वेतरत्।
तथैवेदं जगत् सर्वं तत्तद् भवति शोभने॥)

मूलम्

तस्माद् यदा मां स्पृशति शुभं वा यदि वेतरत्।
तथैवेदं जगत् सर्वं तत्तद् भवति शोभने॥)

अनुवाद (हिन्दी)

शोभने! इसीलिये जब मुझसे शुभ या अशुभका स्पर्श होता है, तब यह सारा जगत् वैसा ही शुभ या अशुभ हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेत्रे मे संवृते देवि त्वया बाल्यादनिन्दिते।
नष्टालोकस्तदा लोकः क्षणेन समपद्यत ॥ ४३ ॥

मूलम्

नेत्रे मे संवृते देवि त्वया बाल्यादनिन्दिते।
नष्टालोकस्तदा लोकः क्षणेन समपद्यत ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! अनिन्दिते! तुमने अपने भोलेपनके कारण मेरी दोनों आँखें बंद कर दीं। इससे क्षणभरमें समस्त संसारका प्रकाश तत्काल नष्ट हो गया॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नष्टादित्ये तथा लोके तमोभूते नगात्मजे।
तृतीयं लोचनं दीप्तं सृष्टं मे रक्षता प्रजाः ॥ ४४ ॥

मूलम्

नष्टादित्ये तथा लोके तमोभूते नगात्मजे।
तृतीयं लोचनं दीप्तं सृष्टं मे रक्षता प्रजाः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गिरिराजकुमारी! संसारमें जब सूर्य अदृश्य हो गये और सब ओर अन्धकार-ही-अन्धकार छा गया, तब मैंने प्रजाकी रक्षाके लिये अपने तीसरे तेजस्वी नेत्रकी सृष्टि की है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य चाक्ष्णो महत् तेजो येनायं मथितो गिरिः।
त्वत्प्रियार्थं च मे देवि प्रकृतिस्थः पुनः कृतः ॥ ४५ ॥

मूलम्

तस्य चाक्ष्णो महत् तेजो येनायं मथितो गिरिः।
त्वत्प्रियार्थं च मे देवि प्रकृतिस्थः पुनः कृतः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी तीसरे नेत्रका यह महान् तेज था, जिसने इस पर्वतको मथ डाला। देवि! फिर तुम्हारा प्रिय करनेके लिये मैंने इस गिरिराज हिमवान्‌को पुनः प्रकृतिस्थ कर दिया है॥४५॥

मूलम् (वचनम्)

उमोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् केन ते वक्त्रं चन्द्रवत् प्रियदर्शनम्।
पूर्वं तथैव श्रीकान्तमुत्तरं पश्चिमं तथा ॥ ४६ ॥
दक्षिणं च मुखं रौद्रं केनोर्ध्वं कपिला जटाः।
केन कण्ठश्च ते नीलो बर्हिबर्हनिभः कृतः ॥ ४७ ॥

मूलम्

भगवन् केन ते वक्त्रं चन्द्रवत् प्रियदर्शनम्।
पूर्वं तथैव श्रीकान्तमुत्तरं पश्चिमं तथा ॥ ४६ ॥
दक्षिणं च मुखं रौद्रं केनोर्ध्वं कपिला जटाः।
केन कण्ठश्च ते नीलो बर्हिबर्हनिभः कृतः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उमाने कहा— भगवन्! (आपके चार मुख क्यों हैं।) आपका पूर्व दिशावाला मुख चन्द्रमाके समान कान्तिमान् एवं देखनेमें अत्यन्त प्रिय है। उत्तर और पश्चिम दिशाके मुख भी पूर्वकी ही भाँति कमनीय कान्तिसे युक्त हैं। परंतु दक्षिण दिशावाला मुख बड़ा भयंकर है। यह अन्तर क्यों? तथा आपके सिरपर कपिल वर्णकी जटाएँ कैसे हुईं? क्या कारण है कि आपका कण्ठ मोरकी पाँखके समान नीला हो गया?॥४६-४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हस्ते देव पिनाकं ते सततं केन तिष्ठति।
जटिलो ब्रह्मचारी च किमर्थमसि नित्यदा ॥ ४८ ॥

मूलम्

हस्ते देव पिनाकं ते सततं केन तिष्ठति।
जटिलो ब्रह्मचारी च किमर्थमसि नित्यदा ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव! आपके हाथमें पिनाक क्यों सदा विद्यमान रहता है? आप किसलिये नित्य जटाधारी ब्रह्मचारीके वेशमें रहते हैं?॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतन्मे संशयं सर्वं वक्तुमर्हसि वै प्रभो।
सधर्मचारिणी चाहं भक्ता चेति वृषध्वज ॥ ४९ ॥

मूलम्

एतन्मे संशयं सर्वं वक्तुमर्हसि वै प्रभो।
सधर्मचारिणी चाहं भक्ता चेति वृषध्वज ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! वृषध्वज! मेरे इस सारे संशयका समाधान कीजिये; क्योंकि मैं आपकी सहधर्मिणी और भक्त हूँ॥४९॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः स भगवान् शैलपुत्र्या पिनाकधृत्।
तस्या धृत्या च बुद्‌ध्या च प्रीतिमानभवत् प्रभुः ॥ ५० ॥

मूलम्

एवमुक्तः स भगवान् शैलपुत्र्या पिनाकधृत्।
तस्या धृत्या च बुद्‌ध्या च प्रीतिमानभवत् प्रभुः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! गिरिराजकुमारी उमाके इस प्रकार पूछनेपर पिनाकधारी भगवान् शिव उनके धैर्य और बुद्धिसे बहुत प्रसन्न हुए॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तामब्रवीद् देवः सुभगे श्रूयतामिति।
हेतुभिर्यैर्ममैतानि रूपाणि रुचिरानने ॥ ५१ ॥

मूलम्

ततस्तामब्रवीद् देवः सुभगे श्रूयतामिति।
हेतुभिर्यैर्ममैतानि रूपाणि रुचिरानने ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उन्होंने पार्वतीजीसे कहा—‘सुभगे! रुचिरानने! जिन हेतुओंसे मेरे ये रूप हुए हैं, उन्हें बता रहा हूँ, सुनो॥५१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि उमामहेश्वरसंवादो नाम चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें उमामहेश्वरसंवादनामक एक सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४०॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ६ श्लोक मिलाकर कुल ५७ श्लोक हैं)