भागसूचना
पञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्योंका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
के भोज्या ब्राह्मणस्येह के भोज्याः क्षत्रियस्य ह।
तथा वैश्यस्य के भोज्याः के शूद्रस्य च भारत॥१॥
मूलम्
के भोज्या ब्राह्मणस्येह के भोज्याः क्षत्रियस्य ह।
तथा वैश्यस्य के भोज्याः के शूद्रस्य च भारत॥१॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतनन्दन! इस जगत्में ब्राह्मणको किनके यहाँ भोजन करना चाहिये, क्षत्रियको किनके घरका अन्न ग्रहण करना चाहिये तथा वैश्य और शूद्रको किन-किन लोगोंके घर भोजन करना चाहिये?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणा ब्राह्मणस्येह भोज्या ये चैव क्षत्रियाः।
वैश्याश्चापि तथा भोज्याः शूद्राश्च परिवर्जिताः ॥ २ ॥
मूलम्
ब्राह्मणा ब्राह्मणस्येह भोज्या ये चैव क्षत्रियाः।
वैश्याश्चापि तथा भोज्याः शूद्राश्च परिवर्जिताः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— बेटा! इस लोकमें ब्राह्मणको ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यके घर भोजन करना चाहिये। शूद्रके घर भोजन करना उसके लिये निषिद्ध है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या भोज्या वै क्षत्रियस्य ह।
वर्जनीयास्तु वै शूद्राः सर्वभक्षा विकर्मिणः ॥ ३ ॥
मूलम्
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या भोज्या वै क्षत्रियस्य ह।
वर्जनीयास्तु वै शूद्राः सर्वभक्षा विकर्मिणः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार क्षत्रियको ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यके घर ही भोजन ग्रहण करना चाहिये। भक्ष्य-अभक्ष्यका विचार न करके सब कुछ खानेवाले और शास्त्रके विरुद्ध आचरण करनेवाले शूद्रोंका अन्न उसके लिये भी त्याज्य है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैश्यास्तु भोज्या विप्राणां क्षत्रियाणां तथैव च।
नित्याग्नयो विविक्ताश्च चातुर्मास्यरताश्च ये ॥ ४ ॥
मूलम्
वैश्यास्तु भोज्या विप्राणां क्षत्रियाणां तथैव च।
नित्याग्नयो विविक्ताश्च चातुर्मास्यरताश्च ये ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैश्योंमें भी जो नित्य अग्निहोत्र करनेवाले, पवित्रतासे रहनेवाले और चातुर्मास्य-व्रतका पालन करनेवाले हैं, उन्हींका अन्न ब्राह्मण और क्षत्रियोंके लिये ग्राह्य है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्राणामथ यो भुङ्क्ते स भुङ्क्ते पृथिवीमलम्।
मलं नृणां स पिबति मलं भुङ्क्ते जनस्य च॥५॥
मूलम्
शूद्राणामथ यो भुङ्क्ते स भुङ्क्ते पृथिवीमलम्।
मलं नृणां स पिबति मलं भुङ्क्ते जनस्य च॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो द्विज शूद्रोंके चरका अन्न खाता है, वह समस्त पृथ्वी और सम्पूर्ण मनुष्योंके मलका ही पान और भक्षण करता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्राणां यस्तथा भुङ्क्ते स भुङ्क्ते पृथिवीमलम्।
पृथिवीमलमश्नन्ति ये द्विजाः शूद्रभोजिनः ॥ ६ ॥
मूलम्
शूद्राणां यस्तथा भुङ्क्ते स भुङ्क्ते पृथिवीमलम्।
पृथिवीमलमश्नन्ति ये द्विजाः शूद्रभोजिनः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो शूद्रोंका अन्न खाता है, वह पृथ्वीका मल खाता है। शूद्रान्न भोजन करनेवाले सभी द्विज पृथ्वीका मल ही खाते हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रस्य कर्मनिष्ठायां विकर्मस्थोऽपि पच्यते।
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यो विकर्मस्थश्च पच्यते ॥ ७ ॥
मूलम्
शूद्रस्य कर्मनिष्ठायां विकर्मस्थोऽपि पच्यते।
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यो विकर्मस्थश्च पच्यते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य शूद्रके कर्मोंमें संलग्न रहनेवाला हो, वह यदि विशिष्ट कर्म—संध्या-वन्दन आदिमें संलग्न रहनेवाला हो, तो भी नरकमें पकाया जाता है। यदि शूद्रके कर्म न करके भी वह शास्त्रविरुद्ध कर्ममें संलग्न रहता हो तो भी उसे नरककी यातना भोगनी पड़ती है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वाध्यायनिरता विप्रास्तथा स्वस्त्ययने नृणाम्।
रक्षणे क्षत्रियं प्राहुर्वैश्यं पुष्ट्यर्थमेव च ॥ ८ ॥
मूलम्
स्वाध्यायनिरता विप्रास्तथा स्वस्त्ययने नृणाम्।
रक्षणे क्षत्रियं प्राहुर्वैश्यं पुष्ट्यर्थमेव च ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण वेदोंके स्वाध्यायमें तत्पर और मनुष्योंके लिये मंगलकारी कार्यमें लगे रहनेवाले होते हैं। क्षत्रियको सबकी रक्षामें तत्पर बताया गया है और वैश्यको प्रजाकी पुष्टिके लिये कृषि, गोरक्षा आदि कार्य करने चाहिये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करोति कर्म यद् वैश्यस्तद् गत्वा ह्युपजीवति।
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यमकुत्सा वैश्यकर्मणि ॥ ९ ॥
मूलम्
करोति कर्म यद् वैश्यस्तद् गत्वा ह्युपजीवति।
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यमकुत्सा वैश्यकर्मणि ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैश्य जो कर्म करता है, उसका आश्रय लेकर सब लोग जीविका चलाते हैं। कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य—ये वैश्यके अपने कर्म हैं। इससे उसको घृणा नहीं होनी चाहिये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रकर्म तु यः कुर्यादवहाय स्वकर्म च।
स विज्ञेयो यथा शूद्रो न च भोज्यः कदाचन॥१०॥
मूलम्
शूद्रकर्म तु यः कुर्यादवहाय स्वकर्म च।
स विज्ञेयो यथा शूद्रो न च भोज्यः कदाचन॥१०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वैश्य अपना कर्म छोड़कर शूद्रका कर्म करता है, उसे शूद्रके समान ही जानना चाहिये और उसके यहाँ कभी भोजन नहीं करना चाहिये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिकित्सकः काण्डपृष्ठः पुराध्यक्षः पुरोहितः।
सांवत्सरो वृथाध्यायी सर्वे ते शूद्रसम्मिताः ॥ ११ ॥
मूलम्
चिकित्सकः काण्डपृष्ठः पुराध्यक्षः पुरोहितः।
सांवत्सरो वृथाध्यायी सर्वे ते शूद्रसम्मिताः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो चिकित्सा करनेवाला, शास्त्र बेचकर जीविका चलानेवाला, ग्रामाध्यक्ष, पुरोहित, वर्षफल बतानेवाला ज्योतिषी और वेद-शास्त्रसे भिन्न व्यर्थकी पुस्तकें पढ़नेवाला है, वे सबके सब ब्राह्मण शूद्रके समान हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रकर्मस्वथैतेषु यो भुङ्क्ते निरपत्रपः।
अभोज्यभोजनं भुक्त्वा भयं प्राप्नोति दारुणम् ॥ १२ ॥
मूलम्
शूद्रकर्मस्वथैतेषु यो भुङ्क्ते निरपत्रपः।
अभोज्यभोजनं भुक्त्वा भयं प्राप्नोति दारुणम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो निर्लज्ज मनुष्य शूद्रोचित कर्म करनेवाले इन द्विजोंके घर भोजन करता है, वह अभक्ष्य-भक्षणका पाप करके दारुण भयको प्राप्त होता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुलं वीर्यं च तेजश्च तिर्यग्योनित्वमेव च।
स प्रयाति यथा श्वा वै निष्क्रियो धर्मवर्जितः ॥ १३ ॥
मूलम्
कुलं वीर्यं च तेजश्च तिर्यग्योनित्वमेव च।
स प्रयाति यथा श्वा वै निष्क्रियो धर्मवर्जितः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके कुल, वीर्य और तेज नष्ट हो जाते हैं तथा वह धर्म-कर्मसे हीन होकर कुत्तेकी भाँति तिर्यक्-योनिमें पड़ जाता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुङ्क्ते चिकित्सकस्यान्नं तदन्नं च पुरीषवत्।
पुंश्चल्यन्नं च मूत्रं स्यात् कारुकान्नं च शोणितम् ॥ १४ ॥
मूलम्
भुङ्क्ते चिकित्सकस्यान्नं तदन्नं च पुरीषवत्।
पुंश्चल्यन्नं च मूत्रं स्यात् कारुकान्नं च शोणितम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो चिकित्सा करनेवाले वैद्यका अन्न खाता है, उसका वह अन्न विष्ठाके समान है। व्यभिचारिणी स्त्री या वेश्याका अन्न मूत्रके समान है। कारीगरका अन्न रक्तके तुल्य है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्योपजीविनोऽन्नं च यो भुङ्क्ते साधुसम्मतः।
तदप्यन्नं यथा शौद्रं तत् साधुः परिवर्जयेत् ॥ १५ ॥
मूलम्
विद्योपजीविनोऽन्नं च यो भुङ्क्ते साधुसम्मतः।
तदप्यन्नं यथा शौद्रं तत् साधुः परिवर्जयेत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो साधु पुरुषोंद्वारा सम्मानित पुरुष विद्या बेचकर जीविका चलानेवाले ब्राह्मणका अन्न खाता है, उसका वह अन्न भी शूद्रान्नके ही समान है। अतः साधु पुरुषको उसका परित्याग कर देना चाहिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वचनीयस्य यो भुङ्क्ते तमाहुः शोणितं ह्रदम्।
पिशुनं भोजनं भुङ्क्ते ब्रह्महत्यासमं विदुः ॥ १६ ॥
असत्कृतमवज्ञातं न भोक्तव्यं कदाचन ॥ १७ ॥
मूलम्
वचनीयस्य यो भुङ्क्ते तमाहुः शोणितं ह्रदम्।
पिशुनं भोजनं भुङ्क्ते ब्रह्महत्यासमं विदुः ॥ १६ ॥
असत्कृतमवज्ञातं न भोक्तव्यं कदाचन ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कलंकित मनुष्यका अन्न ग्रहण करता है, उसे रक्तका कुण्ड कहते हैं। जो चुगुलखोरके यहाँ भोजन करता है, उसका वह भोजन करना ब्रह्महत्याके समान माना गया है। असत्कार और अवहेलनापूर्वक मिले हुए भोजनको कभी नहीं ग्रहण करना चाहिये॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्याधिं कुलक्षयं चैव क्षिप्रं प्राप्नोति ब्राह्मणः।
नगरीरक्षिणो भुङ्क्ते श्वपचप्रवणो भवेत् ॥ १८ ॥
मूलम्
व्याधिं कुलक्षयं चैव क्षिप्रं प्राप्नोति ब्राह्मणः।
नगरीरक्षिणो भुङ्क्ते श्वपचप्रवणो भवेत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मण ऐसे अन्नको भोजन करता है, वह रोगी होता है और शीघ्र ही उसके कुलका संहार हो जाता है। जो नगररक्षकका अन्न खाता है, वह चण्डालके समान होता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोघ्ने च ब्राह्मणघ्ने च सुरापे गुरुतल्पगे।
भुक्त्वान्नं जायते विप्रो रक्षसां कुलवर्धनः ॥ १९ ॥
मूलम्
गोघ्ने च ब्राह्मणघ्ने च सुरापे गुरुतल्पगे।
भुक्त्वान्नं जायते विप्रो रक्षसां कुलवर्धनः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोवध, ब्राह्मणवध, सुरापान और गुरुपत्नीगमन करनेवाले मनुष्यके यहाँ भोजन कर लेनेपर ब्राह्मण राक्षसोंके कुलकी वृद्धि करनेवाला होता है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न्यासापहारिणो भुक्त्वा कृतघ्ने क्लीबवर्तिनि।
जायते शबरावासे मध्यदेशबहिष्कृते ॥ २० ॥
मूलम्
न्यासापहारिणो भुक्त्वा कृतघ्ने क्लीबवर्तिनि।
जायते शबरावासे मध्यदेशबहिष्कृते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धरोहर हड़पनेवाले, कृतघ्न तथा नपुंसकका अन्न खा लेनेसे मनुष्य मध्यदेशबहिष्कृत भीलोंके घरमें जन्म लेता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभोज्याश्चैव भोज्याश्च मया प्रोक्ता यथाविधि।
किमन्यदद्य कौन्तेय मत्तस्त्वं श्रोतुमिच्छसि ॥ २१ ॥
मूलम्
अभोज्याश्चैव भोज्याश्च मया प्रोक्ता यथाविधि।
किमन्यदद्य कौन्तेय मत्तस्त्वं श्रोतुमिच्छसि ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! जिनके यहाँ खाना चाहिये और जिनके यहाँ नहीं खाना चाहिये, ऐसे लोगोंका मैंने विधिवत् परिचय दे दिया। अब मुझसे और क्या सुनना चाहते हो॥२१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि भोज्याभोज्यान्नकथनं नाम पञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें भोज्याभोज्यान्नकथन नामक एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३५॥