१३४ स्कन्ददेवरहस्ये

भागसूचना

चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

स्कन्ददेवका धर्मसम्बन्धी रहस्य तथा भगवान् विष्णु और भीष्मजीके द्वारा माहात्म्यका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

स्कन्द उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममाप्यनुमतो धर्मस्तं शृणुध्वं समाहिताः।
नीलषण्डस्य शृंगाभ्यां गृहीत्वा मृत्तिकां तु यः ॥ १ ॥
अभिषेकं त्र्यहं कुर्यात् तस्य धर्मं निबोधत।

मूलम्

ममाप्यनुमतो धर्मस्तं शृणुध्वं समाहिताः।
नीलषण्डस्य शृंगाभ्यां गृहीत्वा मृत्तिकां तु यः ॥ १ ॥
अभिषेकं त्र्यहं कुर्यात् तस्य धर्मं निबोधत।

अनुवाद (हिन्दी)

स्कन्दने कहा— देवताओ! अब एकाग्रचित्त होकर मेरी मान्यताके अनुसार भी धर्मका गोपनीय रहस्य सुनो। जो मनुष्य नीले रंगके साँड़की सींगोंमें लगी हुई मिट्‌टी लेकर इससे तीन दिनोंतक स्नान करता है, उसे प्राप्त होनेवाले पुण्यका वर्णन सुनो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोधयेदशुभं सर्वमाधिपत्यं परत्र च ॥ २ ॥
यावच्च जायते मर्त्यस्तावच्छूरो भविष्यति।

मूलम्

शोधयेदशुभं सर्वमाधिपत्यं परत्र च ॥ २ ॥
यावच्च जायते मर्त्यस्तावच्छूरो भविष्यति।

अनुवाद (हिन्दी)

वह अपने सारे पापोंको धो डालता है और परलोकमें आधिपत्य प्राप्त करता है। फिर जब वह मनुष्ययोनिमें जन्म लेता है, तब शूरवीर होता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं चाप्यपरं गुह्यं सरहस्यं निबोधत ॥ ३ ॥
प्रगृह्यौदुम्बरं पात्रं पक्वान्नं मधुना सह।
सोमस्योत्तिष्ठमानस्य पौर्णमास्यां बलिं हरेत् ॥ ४ ॥
तस्य धर्मफलं नित्यं श्रद्‌दधाना निबोधत।
साध्या रुद्रास्तथादित्या विश्वेदेवास्तथाश्विनौ ॥ ५ ॥
मरुतो वसवश्चैव प्रतिगृह्णन्ति तं बलिम्।
सोमश्च वर्धते तेन समुद्रश्च महोदधिः ॥ ६ ॥
एष धर्मो मयोद्दिष्टः सरहस्यः सुखावहः ॥ ७ ॥

मूलम्

इदं चाप्यपरं गुह्यं सरहस्यं निबोधत ॥ ३ ॥
प्रगृह्यौदुम्बरं पात्रं पक्वान्नं मधुना सह।
सोमस्योत्तिष्ठमानस्य पौर्णमास्यां बलिं हरेत् ॥ ४ ॥
तस्य धर्मफलं नित्यं श्रद्‌दधाना निबोधत।
साध्या रुद्रास्तथादित्या विश्वेदेवास्तथाश्विनौ ॥ ५ ॥
मरुतो वसवश्चैव प्रतिगृह्णन्ति तं बलिम्।
सोमश्च वर्धते तेन समुद्रश्च महोदधिः ॥ ६ ॥
एष धर्मो मयोद्दिष्टः सरहस्यः सुखावहः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब धर्मका यह दूसरा गुप्त रहस्य सुनो। पूर्णमासी तिथिको चन्द्रोदयके समय ताँबेके बर्तनमें मधु मिलाया हुआ पकवान लेकर जो चन्द्रमाके लिये बलि अर्पण करता है, उसे जिस नित्य धर्म-फलकी प्राप्ति होती है, उसका श्रद्धापूर्वक श्रवण करो। उस पुरुषकी दी हुई उस बलिको साध्य, रुद्र, आदित्य, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार, मरुद्‌गण और वसुदेवता भी ग्रहण करते हैं तथा उससे चन्द्रमा और समुद्रकी वृद्धि होती है। इस प्रकार मैंने रहस्यसहित सुखदायक धर्मका वर्णन किया है॥३—७॥

मूलम् (वचनम्)

विष्णुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मगुह्यानि सर्वाणि देवतानां महात्मनाम्।
ऋषीणां चैव गुह्यानि यः पठेदाह्निकं सदा ॥ ८ ॥
शृणुयाद् वानसूयुर्यः श्रद्दधानः समाहितः।
नास्य विघ्नः प्रभवति भयं चास्य न विद्यते ॥ ९ ॥

मूलम्

धर्मगुह्यानि सर्वाणि देवतानां महात्मनाम्।
ऋषीणां चैव गुह्यानि यः पठेदाह्निकं सदा ॥ ८ ॥
शृणुयाद् वानसूयुर्यः श्रद्दधानः समाहितः।
नास्य विघ्नः प्रभवति भयं चास्य न विद्यते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् विष्णु बोले— जो देवताओं तथा महात्मा ऋषियोंके बताये हुए धर्मसम्बन्धी इन सभी गूढ़ रहस्योंका प्रतिदिन पाठ करेगा अथवा दोषदृष्टिसे रहित हो सदा एकाग्रचित्त रहकर श्रद्धापूर्वक श्रवण करेगा, उसपर किसी विघ्नका प्रभाव नहीं पड़ेगा तथा उसे कोई भय भी नहीं प्राप्त होगा॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये च धर्माः शुभाः पुण्याः सरहस्या उदाहृताः।
तेषां धर्मफलं तस्य यः पठेत जितेन्द्रियः ॥ १० ॥

मूलम्

ये च धर्माः शुभाः पुण्याः सरहस्या उदाहृताः।
तेषां धर्मफलं तस्य यः पठेत जितेन्द्रियः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ जिन-जिन पवित्र एवं कल्याणकारी धर्मोंका रहस्योंसहित वर्णन किया गया है, उन सबका जो इन्द्रियसंयमपूर्वक पाठ करेगा, उसे उन धर्मोंका पूरा-पूरा फल प्राप्त होगा॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्य पापं प्रभवति न च पापेन लिप्यते।
पठेद् वा श्रावयेद् वापि श्रुत्वा वा लभते फलम्॥११॥
भुञ्जते पितरो देवा हव्यं कव्यमथाक्षयम्।

मूलम्

नास्य पापं प्रभवति न च पापेन लिप्यते।
पठेद् वा श्रावयेद् वापि श्रुत्वा वा लभते फलम्॥११॥
भुञ्जते पितरो देवा हव्यं कव्यमथाक्षयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उसके ऊपर कभी पापका प्रभाव नहीं पड़ेगा, वह कभी पापसे लिप्त नहीं होगा। जो इस प्रसंगको पढ़ेगा, दूसरोंको सुनायेगा अथवा स्वयं सुनेगा, उसे भी उन धर्मोंके आचरणका फल मिलेगा। उसका दिया हुआ हव्य-कव्य अक्षय होगा तथा उसे देवता और पितर बड़ी प्रसन्नतासे ग्रहण करेंगे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रावयंश्चापि विप्रेन्द्रान् पर्वसु प्रयतो नरः ॥ १२ ॥
ऋषीणां देवतानां च पितॄणां चैव नित्यदा।
भवत्यभिमतः श्रीमान् धर्मेषु प्रयतः सदा ॥ १३ ॥

मूलम्

श्रावयंश्चापि विप्रेन्द्रान् पर्वसु प्रयतो नरः ॥ १२ ॥
ऋषीणां देवतानां च पितॄणां चैव नित्यदा।
भवत्यभिमतः श्रीमान् धर्मेषु प्रयतः सदा ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य पर्वके दिन शुद्धचित्त होकर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको धर्मके इन रहस्योंका श्रवण करायेगा, वह सदा देवता, ऋषि और पितरोंके आदरका पात्र एवं श्रीसम्पन्न होगा। उसकी सदा धर्मोंमें प्रवृत्ति बनी रहेगी॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्वापि पापकं कर्म महापातकवर्जितम्।
रहस्यधर्मं श्रुत्वेमं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १४ ॥

मूलम्

कृत्वापि पापकं कर्म महापातकवर्जितम्।
रहस्यधर्मं श्रुत्वेमं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य महापातकको छोड़कर अन्य पापोंका आचरण करके भी यदि इस रहस्य-धर्मको सुन लेगा तो उन सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जायगा॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् धर्मरहस्यं वै देवतानां नराधिप।
व्यासोद्दिष्टं मया प्रोक्तं सर्वदेवनमस्कृतम् ॥ १५ ॥

मूलम्

एतद् धर्मरहस्यं वै देवतानां नराधिप।
व्यासोद्दिष्टं मया प्रोक्तं सर्वदेवनमस्कृतम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— नरेश्वर! देवताओंके बताये हुए इस धर्मरहस्यको व्यासजीने मुझसे कहा था। उसीको मैंने तुम्हें बताया है। यह सब देवताओंद्वारा समादृत है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथिवी रत्नसम्पूर्णा ज्ञानं चेदमनुत्तमम्।
इदमेव ततः श्राव्यमिति मन्येत धर्मवित् ॥ १६ ॥

मूलम्

पृथिवी रत्नसम्पूर्णा ज्ञानं चेदमनुत्तमम्।
इदमेव ततः श्राव्यमिति मन्येत धर्मवित् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ओर रत्नोंसे भरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वी प्राप्त होती हो और दूसरी ओर यह सर्वोत्तम ज्ञान मिल रहा हो तो उस पृथ्वीको छोड़कर इस सर्वोत्तम ज्ञानको ही श्रवण एवं ग्रहण करना चाहिये। धर्मज्ञ पुरुष ऐसा ही माने॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाश्रद्दधानाय न नास्तिकाय
न नष्टधर्माय न निर्घृणाय।
न हेतुदुष्टाय गुरुद्विषे वा
नानात्मभूताय निवेद्यमेतत् ॥ १७ ॥

मूलम्

नाश्रद्दधानाय न नास्तिकाय
न नष्टधर्माय न निर्घृणाय।
न हेतुदुष्टाय गुरुद्विषे वा
नानात्मभूताय निवेद्यमेतत् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

न श्रद्धाहीनको, न नास्तिकको, न धर्म नष्ट करनेवालेको, न निर्दयीको, न युक्तिवादका सहारा लेकर दुष्टता करनेवालेको, न गुरुद्रोहीको और न देहाभिमानी व्यक्तिको ही इस धर्मका उपदेश देना चाहिये॥१७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि स्कन्ददेवरहस्ये चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें स्कन्ददेवका रहस्यविषयक एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३४॥