१३३ महादेवरहस्ये

भागसूचना

त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

महादेवजीका धर्मसम्बन्धी रहस्य

मूलम् (वचनम्)

महेश्वर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सारमुद्‌धृत्य युष्माभिः साधुधर्म उदाहृतः।
धर्मगुह्यमिदं मत्तः शृणुध्वं सर्व एव ह ॥ १ ॥

मूलम्

सारमुद्‌धृत्य युष्माभिः साधुधर्म उदाहृतः।
धर्मगुह्यमिदं मत्तः शृणुध्वं सर्व एव ह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(ऋषि, मुनि, देवता और पितरोंसे) महेश्वर बोले— तुमलोगोंने धर्मशास्त्रका सार निकालकर उत्तम धर्मका वर्णन किया है। अब सब लोग मुझसे धर्म-सम्बन्धी इस गूढ़ रहस्यका वर्णन सुनो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येषां धर्माश्रिता बुद्धिः श्रद्दधानाश्च ये नराः।
तेषां स्यादुपदेष्टव्यः सरहस्यो महाफलः ॥ २ ॥

मूलम्

येषां धर्माश्रिता बुद्धिः श्रद्दधानाश्च ये नराः।
तेषां स्यादुपदेष्टव्यः सरहस्यो महाफलः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी बुद्धि सदा धर्ममें ही लगी रहती है और जो मनुष्य परम श्रद्धालु हैं, उन्हींको इस महान् फलदायक रहस्ययुक्त धर्मका उपदेश देना चाहिये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरुद्विग्नस्तु यो दद्यान्मासमेकं गवाह्निकम्।
एकभक्तं तथाश्नीयाच्छ्रूयतां तस्य यत् फलम् ॥ ३ ॥

मूलम्

निरुद्विग्नस्तु यो दद्यान्मासमेकं गवाह्निकम्।
एकभक्तं तथाश्नीयाच्छ्रूयतां तस्य यत् फलम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो उद्वेगरहित होकर एक मासतक प्रतिदिन गौको भोजन देता है और स्वयं एक ही समय खाता है, उसे जो फल मिलता है, उसका वर्णन सुनो॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमा गावो महाभागाः पवित्रं परमं स्मृताः।
त्रील्लोँकान् धारयन्ति स्म सदेवासुरमानुषान् ॥ ४ ॥

मूलम्

इमा गावो महाभागाः पवित्रं परमं स्मृताः।
त्रील्लोँकान् धारयन्ति स्म सदेवासुरमानुषान् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये गौएँ परम सौभाग्यशालिनी और अत्यन्त पवित्र मानी गयी हैं। ये देवता, असुर और मनुष्योंसहित तीनों लोकोंको धारण करती हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासु चैव महापुण्यं शुश्रूषा च महाफलम्।
अहन्यहनि धर्मेण युज्यते वै गवाह्निकः ॥ ५ ॥

मूलम्

तासु चैव महापुण्यं शुश्रूषा च महाफलम्।
अहन्यहनि धर्मेण युज्यते वै गवाह्निकः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनकी सेवा करनेसे बहुत बड़ा पुण्य और महान् फल प्राप्त होता है। प्रतिदिन गौओंको भोजन देनेवाला मनुष्य नित्य महान् धर्मका उपार्जन करता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया ह्येता ह्यनुज्ञाताः पूर्वमासन् कृते युगे।
ततोऽहमनुनीतो वै ब्रह्मणा पद्मयोनिना ॥ ६ ॥

मूलम्

मया ह्येता ह्यनुज्ञाताः पूर्वमासन् कृते युगे।
ततोऽहमनुनीतो वै ब्रह्मणा पद्मयोनिना ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने पहले सत्ययुगमें गौओंको अपने पास रहनेकी आज्ञा दी थी। पद्‌मयोनि ब्रह्माजीने इसके लिये मुझसे बहुत अनुनय-विनय की थी॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् व्रजस्थानगतस्तिष्ठत्युपरि मे वृषः।
रमेऽहं सह गोभिश्च तस्मात् पूज्याः सदैव ताः ॥ ७ ॥

मूलम्

तस्माद् व्रजस्थानगतस्तिष्ठत्युपरि मे वृषः।
रमेऽहं सह गोभिश्च तस्मात् पूज्याः सदैव ताः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये मेरी गौओंके झुंडमें रहनेवाला वृषभ मुझसे ऊपर मेरे रथकी ध्वजामें विद्यमान है। मैं सदा गौओंके साथ रहनेमें ही आनन्दका अनुभव करता हूँ। अतः उन गौओंकी सदा ही पूजा करनी चाहिये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाप्रभावा वरदा वरं दद्युरुपासिताः।
ता गावोऽस्यानुमन्यन्ते सर्वकर्मसु यत् फलम् ॥ ८ ॥
तस्य तत्र चतुर्भागो यो ददाति गवाह्निकम् ॥ ९ ॥

मूलम्

महाप्रभावा वरदा वरं दद्युरुपासिताः।
ता गावोऽस्यानुमन्यन्ते सर्वकर्मसु यत् फलम् ॥ ८ ॥
तस्य तत्र चतुर्भागो यो ददाति गवाह्निकम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौओंका प्रभाव बहुत बड़ा है। वे वरदायिनी हैं। इसलिये उपासना करनेपर अभीष्ट वर देती हैं। उसे सम्पूर्ण कर्मोंमें जो फल अभीष्ट होता है। उसके लिये वे गौएँ अनुमोदन करती—उसकी सिद्धिके लिये वरदान देती हैं। जो पूर्वोक्तरूपसे गौको नित्य भोजन देता है, उसे सदाकी जानेवाली गोसेवाके फलका एक चौथाई पुण्य प्राप्त होता है॥८-९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि महादेवरहस्ये त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें महादेवजीका धर्मसम्बन्धी रहस्यविषयक एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३३॥