भागसूचना
चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
नारदका पुण्डरीकको भगवान् नारायणकी आराधनाका उपदेश तथा उन्हें भगवद्धामकी प्राप्ति, सामगुणकी प्रशंसा, ब्राह्मणका राक्षसके सफेद और दुर्बल होनेका कारण बताना
मूलम् (वचनम्)
(युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ज्ञेयं परमं कृत्यमनुष्ठेयं महात्मभिः।
सारं मे सर्वशास्त्राणां वक्तुमर्हस्यनुग्रहात्॥
मूलम्
यज्ज्ञेयं परमं कृत्यमनुष्ठेयं महात्मभिः।
सारं मे सर्वशास्त्राणां वक्तुमर्हस्यनुग्रहात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— पितामह! जो सर्वोत्तम कर्तव्य-रूपसे जानने योग्य है, महात्मा पुरुष जिसका अनुष्ठान करना अपना धर्म समझते हैं तथा जो सम्पूर्ण शास्त्रोंका सार है, उस श्रेयका कृपापूर्वक वर्णन कीजिये॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयतामिदमत्यन्तं गूढं संसारमोचनम् ।
श्रोतव्यं च त्वया सम्यग् ज्ञातव्यं च विशाम्पते॥
मूलम्
श्रूयतामिदमत्यन्तं गूढं संसारमोचनम् ।
श्रोतव्यं च त्वया सम्यग् ज्ञातव्यं च विशाम्पते॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— प्रजानाथ! जो अत्यन्त गूढ़, संसारबन्धनसे मुक्त करनेवाला और तुम्हारे द्वारा श्रवण करने एवं भलीभाँति जाननेके योग्य है, उस परम श्रेयका वर्णन सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्डरीकः पुरा विप्रः पुण्यतीर्थे जपान्वितः।
नारदं परिपप्रच्छ श्रेयो योगपरं मुनिम्॥
नारदश्चाब्रवीदेनं ब्रह्मणोक्तं महात्मना ॥
मूलम्
पुण्डरीकः पुरा विप्रः पुण्यतीर्थे जपान्वितः।
नारदं परिपप्रच्छ श्रेयो योगपरं मुनिम्॥
नारदश्चाब्रवीदेनं ब्रह्मणोक्तं महात्मना ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राचीन कालकी बात है, पुण्डरीक नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण किसी पुण्यतीर्थमें सदा जप किया करते थे। उन्होंने योगपरायण मुनिवर नारदजीसे श्रेय (कल्याणकारी साधन) के विषयमें पूछा। तब नारदजीने महात्मा ब्रह्माजीके द्वारा बताये हुए श्रेयका उन्हें इस प्रकार उपदेश दिया॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणुष्वावहितस्तात ज्ञानयोगमनुत्तमम् ।
अप्रभूतं प्रभूतार्थं वेदशास्त्रार्थसारकम् ॥
मूलम्
शृणुष्वावहितस्तात ज्ञानयोगमनुत्तमम् ।
अप्रभूतं प्रभूतार्थं वेदशास्त्रार्थसारकम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— तात! तुम सावधान होकर परम उत्तम ज्ञानयोगका वर्णन सुनो। यह किसी व्यक्ति-विशेषसे नहीं प्रकट हुआ है—अनादि है, प्रचुर अर्थका साधक है तथा वेदों और शास्त्रोंके अर्थका सारभूत है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः परः प्रकृतेः प्रोक्तः पुरुषः पञ्चविंशकः।
स एव सर्वभूतात्मा नर इत्यभिधीयते॥
मूलम्
यः परः प्रकृतेः प्रोक्तः पुरुषः पञ्चविंशकः।
स एव सर्वभूतात्मा नर इत्यभिधीयते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो चौबीस तत्त्वमयी प्रकृतिसे उसका साक्षिभूत पचीसवाँ तत्त्व पुरुष कहा गया है तथा जो सम्पूर्ण भूतोंका आत्मा है, उसीको नर कहते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नराज्जातानि तत्त्वानि नाराणीति ततो विदुः।
तान्येव चायनं तस्य तेन नारायणः स्मृतः॥
मूलम्
नराज्जातानि तत्त्वानि नाराणीति ततो विदुः।
तान्येव चायनं तस्य तेन नारायणः स्मृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरसे सम्पूर्ण तत्त्व प्रकट हुए हैं, इसलिये उन्हें नार कहते हैं। नार ही भगवान्का अयन—निवासस्थान है, इसलिये वे नारायण कहलाते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारायणाज्जगत् सर्वं सर्गकाले प्रजायते।
तस्मिन्नेव पुनस्तच्च प्रलये सम्प्रलीयते॥
मूलम्
नारायणाज्जगत् सर्वं सर्गकाले प्रजायते।
तस्मिन्नेव पुनस्तच्च प्रलये सम्प्रलीयते॥
अनुवाद (हिन्दी)
सृष्टिकालमें यह सारा जगत् नारायणसे ही प्रकट होता है और प्रलयकालमें फिर उन्हींमें इसका लय होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारायणः परं ब्रह्म तत्त्वं नारायणः परः।
परादपि परश्चासौ तस्मान्नास्ति परात् परम्॥
मूलम्
नारायणः परं ब्रह्म तत्त्वं नारायणः परः।
परादपि परश्चासौ तस्मान्नास्ति परात् परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारायण ही परब्रह्म हैं, परमपुरुष नारायण ही सम्पूर्ण तत्त्व हैं, वे ही परसे भी परे हैं। उनके सिवा दूसरा कोई परात्पर तत्त्व नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासुदेवं तथा विष्णुमात्मानं च तथा विदुः।
संज्ञाभेदैः स एवैकः सर्वशास्त्राभिसंस्कृतः॥
मूलम्
वासुदेवं तथा विष्णुमात्मानं च तथा विदुः।
संज्ञाभेदैः स एवैकः सर्वशास्त्राभिसंस्कृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हींको वासुदेव, विष्णु तथा आत्मा कहते हैं। संज्ञाभेदसे एकमात्र नारायण ही सम्पूर्ण शास्त्रोंद्वारा वर्णित होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः।
इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणः सदा॥
मूलम्
आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः।
इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणः सदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त शास्त्रोंका आलोडन करके बारंबार विचार करनेपर एकमात्र यही सिद्धान्त स्थिर हुआ है कि सदा भगवान् नारायणका ध्यान करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात्त्वं गहनान् सर्वांस्त्यक्त्वा शास्त्रार्थविस्तरान्।
अनन्यचेता ध्यायस्व नारायणमजं विभुम्॥
मूलम्
तस्मात्त्वं गहनान् सर्वांस्त्यक्त्वा शास्त्रार्थविस्तरान्।
अनन्यचेता ध्यायस्व नारायणमजं विभुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः तुम शास्त्रार्थके सम्पूर्ण गहन विस्तारका त्याग करके अनन्यचित्त होकर सर्वव्यापी अजन्मा भगवान् नारायणका ध्यान करो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुहूर्तमपि यो ध्यायेन्नारायणमतन्द्रितः ।
सोऽपि सद्गतिमाप्नोति किं पुनस्तत्परायणः॥
मूलम्
मुहूर्तमपि यो ध्यायेन्नारायणमतन्द्रितः ।
सोऽपि सद्गतिमाप्नोति किं पुनस्तत्परायणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो आलस्य छोड़कर दो घड़ी भी नारायणका ध्यान करता है, वह भी उत्तम गतिको प्राप्त होता है। फिर जो निरन्तर उन्हींके भजन-ध्यानमें तत्पर रहता है, उसकी तो बात ही क्या है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो नारायणायेति यो वेद ब्रह्म शाश्वतम्।
अन्तकाले जपन्नेति तद्विष्णोः परमं पदम्॥
मूलम्
नमो नारायणायेति यो वेद ब्रह्म शाश्वतम्।
अन्तकाले जपन्नेति तद्विष्णोः परमं पदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्रको सनातन ब्रह्मरूप जानता है और अन्तकालमें इसका जप करता है, वह भगवान् विष्णुके परम पदको प्राप्त कर लेता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रवणान्मननाच्चैव गीतिस्तुत्यर्चनादिभिः ।
आराध्यं सर्वदा ब्रह्म पुरुषेण हितैषिणा॥
मूलम्
श्रवणान्मननाच्चैव गीतिस्तुत्यर्चनादिभिः ।
आराध्यं सर्वदा ब्रह्म पुरुषेण हितैषिणा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य अपना हित चाहता हो, वह सदा श्रवण, मनन, गीत, स्तुति और पूजन आदिके द्वारा सर्वदा ब्रह्मस्वरूप नारायणकी आराधना करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लिप्यते न स पापेन नारायणपरायणः।
पुनाति सकलं लोकं सहस्रांशुरिवोदितः॥
मूलम्
लिप्यते न स पापेन नारायणपरायणः।
पुनाति सकलं लोकं सहस्रांशुरिवोदितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारायणके भजनमें तत्पर रहनेवाला पुरुष पापसे लिप्त नहीं होता। वह उदित हुए सहस्र किरणोंवाले सूर्यकी भाँति समस्त लोकको पवित्र कर देता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचारी गृहस्थो वा वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः।
केशवाराधनं हित्वा नैव यान्ति परां गतिम्॥
मूलम्
ब्रह्मचारी गृहस्थो वा वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः।
केशवाराधनं हित्वा नैव यान्ति परां गतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मचारी हो या गृहस्थ, वानप्रस्थ हो या संन्यासी, भगवान् विष्णुकी आराधना छोड़ देनेपर ये कोई भी परम गतिको नहीं प्राप्त होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्मान्तरसहस्रेषु दुर्लभा तद्गता मतिः।
तद्भक्तवत्सलं देवं समाराधय सुव्रत॥
मूलम्
जन्मान्तरसहस्रेषु दुर्लभा तद्गता मतिः।
तद्भक्तवत्सलं देवं समाराधय सुव्रत॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम व्रतका पालन करनेवाले पुण्डरीक! सहस्रों जन्म धारण करनेपर भी भगवान् विष्णुमें मन और बुद्धिका लगना अत्यन्त दुर्लभ है। अतः तुम उन भक्तवत्सल नारायणदेवकी भलीभाँति आराधना करो॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारदेनैवमुक्तस्तु स विप्रोऽभ्यर्चयद्धरिम् ।
स्वप्नेऽपि पुण्डरीकाक्षं शङ्खचक्रगदाधरम् ॥
किरीटकुण्डलधरं लसच्छ्रीवत्सकौस्तुभम् ।
तं दृष्ट्वा देवदेवेशं प्राणमत् सम्भ्रमान्वितः॥
मूलम्
नारदेनैवमुक्तस्तु स विप्रोऽभ्यर्चयद्धरिम् ।
स्वप्नेऽपि पुण्डरीकाक्षं शङ्खचक्रगदाधरम् ॥
किरीटकुण्डलधरं लसच्छ्रीवत्सकौस्तुभम् ।
तं दृष्ट्वा देवदेवेशं प्राणमत् सम्भ्रमान्वितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! नारदजीके इस प्रकार उपदेश देनेपर विप्रवर पुण्डरीक भगवान् श्रीहरिकी आराधना करने लगे। वे स्वप्नमें भी शंख-चक्र गदाधारी, किरीट और कुण्डलसे सुशोभित, सुन्दर श्रीवत्स-चिह्न एवं कौस्तुभमणि धारण करनेवाले कमलनयन नारायण देवका दर्शन करते थे और उन देवदेवेश्वरको देखते ही बड़े वेगसे उठकर उनके चरणोंमें साष्टांग प्रणाम करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ कालेन महता तथा प्रत्यक्षतां गतः।
संस्तुतः स्तुतिभिर्वेदैर्देवगन्धर्वकिन्नरैः ॥
मूलम्
अथ कालेन महता तथा प्रत्यक्षतां गतः।
संस्तुतः स्तुतिभिर्वेदैर्देवगन्धर्वकिन्नरैः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर दीर्घकालके बाद भगवान्ने उसी रूपमें पुण्डरीकको प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उस समय सम्पूर्ण वेद तथा देवता, गन्धर्व और किन्नर नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तेनैव भगवानात्मलोकमधोक्षजः ।
गतः सम्पूजितः सर्वैः स योगनिलयो हरिः॥
मूलम्
अथ तेनैव भगवानात्मलोकमधोक्षजः ।
गतः सम्पूजितः सर्वैः स योगनिलयो हरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
योग ही जिनका निवासस्थान है, वे भगवान् अधोक्षज श्रीहरि सबके द्वारा पूजित हो उस भक्त पुण्डरीकको साथ लेकर ही पुनः अपने धामको चले गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् त्वमपि राजेन्द्र तद्भक्तस्तत्परायणः।
अर्चयित्वा यथायोगं भजस्व पुरुषोत्तमम्॥
मूलम्
तस्मात् त्वमपि राजेन्द्र तद्भक्तस्तत्परायणः।
अर्चयित्वा यथायोगं भजस्व पुरुषोत्तमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! इसलिये तुम भी भगवान्के भक्त एवं शरणागत होकर उनकी यथायोग्य पूजा करके उन्हीं पुरुषोत्तमके भजनमें लगे रहो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजरममरमेकं ध्येयमाद्यन्तशून्यं
सगुणमगुणमाद्यं स्थूलमत्यन्तसूक्ष्मम् ।
निरुपममुपमेयं योगिविज्ञानगम्यं
त्रिभुवनगुरुमीशं सम्प्रपद्यस्व विष्णुम् ॥)
मूलम्
अजरममरमेकं ध्येयमाद्यन्तशून्यं
सगुणमगुणमाद्यं स्थूलमत्यन्तसूक्ष्मम् ।
निरुपममुपमेयं योगिविज्ञानगम्यं
त्रिभुवनगुरुमीशं सम्प्रपद्यस्व विष्णुम् ॥)
अनुवाद (हिन्दी)
जो अजर, अमर, एक (अद्वितीय), ध्येय, अनादि, अनन्त, सगुण, निर्गुण, सबके आदि कारण, स्थूल, अत्यन्त सूक्ष्म, उपमारहित, उपमाके योग्य तथा योगियोंके लिये ज्ञान-गम्य हैं, उन त्रिभुवनगुरु भगवान् विष्णुकी शरण लो॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
साम्नि चापि प्रदाने च ज्यायः किं भवतो मतम्।
प्रब्रूहि भरतश्रेष्ठ यदत्र व्यतिरिच्यते ॥ १ ॥
मूलम्
साम्नि चापि प्रदाने च ज्यायः किं भवतो मतम्।
प्रब्रूहि भरतश्रेष्ठ यदत्र व्यतिरिच्यते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ! आपके मतमें साम और दानमें कौन-सा श्रेष्ठ है? इनमें जो उत्कृष्ट हो, उसे बताइये॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
साम्ना प्रसाद्यते कश्चिद् दानेन च तथा परः।
पुरुषप्रकृतिं ज्ञात्वा तयोरेकतरं भजेत् ॥ २ ॥
मूलम्
साम्ना प्रसाद्यते कश्चिद् दानेन च तथा परः।
पुरुषप्रकृतिं ज्ञात्वा तयोरेकतरं भजेत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— बेटा! कोई मनुष्य सामसे प्रसन्न होता है और कोई दानसे। अतः पुरुषके स्वभावको समझकर दोनोंमेंसे एकको अपनाना चाहिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणांस्तु शृणु मे राजन् सान्त्वस्य भरतर्षभ।
दारुणान्यपि भूतानि सान्त्वेनाराधयेद् यथा ॥ ३ ॥
मूलम्
गुणांस्तु शृणु मे राजन् सान्त्वस्य भरतर्षभ।
दारुणान्यपि भूतानि सान्त्वेनाराधयेद् यथा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! भरतश्रेष्ठ! अब तुम सामके गुणोंको सुनो। सामके द्वारा मनुष्य भयानक-से-भयानक प्राणीको वशमें कर सकता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गृहीत्वा रक्षसा मुक्तो द्विजातिः कानने यथा ॥ ४ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गृहीत्वा रक्षसा मुक्तो द्विजातिः कानने यथा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है, जिसके अनुसार कोई ब्राह्मण किसी जंगलमें किसी राक्षसके चंगुलमें फँसकर भी सामनीतिके द्वारा उससे मुक्त हो गया था॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कश्चिद् वाग्बुद्धिसम्पन्नो ब्राह्मणो विजने वने।
गृहीतः कृच्छ्रमापन्नो रक्षसा भक्षयिष्यता ॥ ५ ॥
मूलम्
कश्चिद् वाग्बुद्धिसम्पन्नो ब्राह्मणो विजने वने।
गृहीतः कृच्छ्रमापन्नो रक्षसा भक्षयिष्यता ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बुद्धिमान् एवं वाचाल ब्राह्मण किसी निर्जन वनमें घूम रहा था। उसी समय किसी राक्षसने आकर उसे खानेकी इच्छासे पकड़ लिया। बेचारा ब्राह्मण बड़े कष्टमें पड़ गया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स बुद्धिश्रुतिसम्पन्नस्तं दृष्ट्वातीव भीषणम्।
सामैवास्मिन् प्रयुयुजे न मुमोह न विव्यथे ॥ ६ ॥
मूलम्
स बुद्धिश्रुतिसम्पन्नस्तं दृष्ट्वातीव भीषणम्।
सामैवास्मिन् प्रयुयुजे न मुमोह न विव्यथे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणकी बुद्धि तो अच्छी थी ही, वह शास्त्रोंका विद्वान् भी था। इसलिये उस अत्यन्त भयानक राक्षसको देखकर भी वह न तो घबराया और न व्यथित ही हुआ। बल्कि उसके प्रति उसने साम नीतिका ही प्रयोग किया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्षस्तु वाचं सम्पूज्य प्रश्नं पप्रच्छ तं द्विजम्।
मोक्ष्यसे ब्रूहि मे प्रश्नं केनास्मि हरिणः कृशः ॥ ७ ॥
मूलम्
रक्षस्तु वाचं सम्पूज्य प्रश्नं पप्रच्छ तं द्विजम्।
मोक्ष्यसे ब्रूहि मे प्रश्नं केनास्मि हरिणः कृशः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसने ब्राह्मणके शान्तिमय वचनोंकी प्रशंसा करके उनके सामने अपना प्रश्न उपस्थित किया और कहा—‘यदि मेरे प्रश्नका उत्तर दे दोगे तो तुम्हें छोड़ दूँगा! बताओ, मैं किस कारणसे अत्यन्त दुर्बल और सफेद (पाण्डु) हो गया हूँ’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुहूर्तमथ संचिन्त्य ब्राह्मणस्तस्य रक्षसः।
आभिर्गाथाभिरव्यग्रः प्रश्नं प्रतिजगाद ह ॥ ८ ॥
मूलम्
मुहूर्तमथ संचिन्त्य ब्राह्मणस्तस्य रक्षसः।
आभिर्गाथाभिरव्यग्रः प्रश्नं प्रतिजगाद ह ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर ब्राह्मणने दो घड़ीतक विचार करके शान्तभावसे निम्नांकित गाथाओं (वचनोंद्वारा) उस राक्षसके प्रश्नका उत्तर देना आरम्भ किया॥८॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदेशस्थो विलोकस्थो विना नूनं सुहृज्जनैः।
विषयानतुलान् भुङ्क्षे तेनासि हरिणः कृशः ॥ ९ ॥
मूलम्
विदेशस्थो विलोकस्थो विना नूनं सुहृज्जनैः।
विषयानतुलान् भुङ्क्षे तेनासि हरिणः कृशः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण बोला— राक्षस! निश्चय ही तुम सुहृद्जनोंसे अलग होकर परदेशमें दूसरे लोगोंके साथ रहते और अनुपम विषयोंका उपभोग करते हो; इसीलिये चिन्ताके कारण तुम दुबले एवं सफेद होते जा रहे हो॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं मित्राणि ते रक्षः साधूपचरितान्यपि।
स्वदोषादपरज्यन्ते तेनासि हरिणः कृशः ॥ १० ॥
मूलम्
नूनं मित्राणि ते रक्षः साधूपचरितान्यपि।
स्वदोषादपरज्यन्ते तेनासि हरिणः कृशः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निशाचर! तुम्हारे मित्र तुम्हारे द्वारा भलीभाँति सम्मानित होनेपर भी अपने स्वभावदोषके कारण तुमसे विमुख रहते हैं; इसीलिये तुम चिन्तावश दुबले होकर सफेद पड़ते जा रहे हो॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनैश्वर्याधिकाः स्तब्धास्त्वद्गुणैः परमावराः ।
अवजानन्ति नूनं त्वां तेनासि हरिणः कृशः ॥ ११ ॥
मूलम्
धनैश्वर्याधिकाः स्तब्धास्त्वद्गुणैः परमावराः ।
अवजानन्ति नूनं त्वां तेनासि हरिणः कृशः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो गुणोंमें तुम्हारी अपेक्षा निम्नश्रेणीके हैं, वे जड मनुष्य भी धन और ऐश्वर्यमें अधिक होनेके कारण निश्चय ही सदा तुम्हारी अवहेलना किया करते हैं; इसीलिये तुम दुर्बल और सफेद (पीले) होते जा रहे हो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणवान् विगुणानन्यान् नूनं पश्यसि सत्कृतान्।
प्राज्ञोऽप्राज्ञान् विनीतात्मा तेनासि हरिणः कृशः ॥ १२ ॥
मूलम्
गुणवान् विगुणानन्यान् नूनं पश्यसि सत्कृतान्।
प्राज्ञोऽप्राज्ञान् विनीतात्मा तेनासि हरिणः कृशः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम गुणवान्, विद्वान् एवं विनीत होनेपर भी सम्मान नहीं पाते और गुणहीन तथा मूढ़ व्यक्तियोंको सम्मानित होते देखते हो; इसीलिये तुम्हारे शरीरका रंग फीका पड़ गया है और तुम दुर्बल हो गये हो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवृत्त्या क्लिश्यमानोऽपि वृत्त्युपायान् विगर्हयन्।
माहात्म्याद् व्यथसे नूनं तेनासि हरिणः कृशः ॥ १३ ॥
मूलम्
अवृत्त्या क्लिश्यमानोऽपि वृत्त्युपायान् विगर्हयन्।
माहात्म्याद् व्यथसे नूनं तेनासि हरिणः कृशः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीवन-निर्वाहका कोई उपाय न होनेसे तुम क्लेश उठाते होगे, किंतु अपने गौरवके कारण जीविकाके प्रतिग्रह आदि उपायोंकी निन्दा करते हुए उन्हें स्वीकार नहीं करते होगे। यही तुम्हारी उदासी और दुर्बलताका कारण है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्पीड्यात्मानमार्यत्वात् त्वया कश्चिदुपस्कृतः ।
जितं त्वां मन्यते साधो तेनासि हरिणः कृशः ॥ १४ ॥
मूलम्
सम्पीड्यात्मानमार्यत्वात् त्वया कश्चिदुपस्कृतः ।
जितं त्वां मन्यते साधो तेनासि हरिणः कृशः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधो! तुम सज्जनताके कारण अपने शरीरको कष्ट देकर भी जब किसीका उपकार करते हो; तब वह तुम्हें अपनी शक्तिसे पराजित समझता है; इसीलिये तुम कृशकाय और सफेद होते जा रहे हो॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्लिश्यमानान् विमार्गेषु कामक्रोधावृतात्मनः ।
मन्ये त्वं ध्यायसि जनांस्तेनासि हरिणः कृशः ॥ १५ ॥
मूलम्
क्लिश्यमानान् विमार्गेषु कामक्रोधावृतात्मनः ।
मन्ये त्वं ध्यायसि जनांस्तेनासि हरिणः कृशः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका चित्त काम और क्रोधसे आक्रान्त है, अतएव जो कुमार्गपर चलकर कष्ट भोग रहे हैं। सम्भवतः ऐसे ही लोगोंके लिये तुम सदा चिन्तित रहते हो; इसीलिये दुर्बल होकर सफेद (पीले) पड़ते जा रहे हो॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रज्ञासम्भावितो नूनमप्रज्ञैरुपसंहितः ।
हीयमानोऽसि दुर्वृत्तैस्तेनासि हरिणः कृशः ॥ १६ ॥
मूलम्
प्रज्ञासम्भावितो नूनमप्रज्ञैरुपसंहितः ।
हीयमानोऽसि दुर्वृत्तैस्तेनासि हरिणः कृशः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि तुम अपनी उत्तम बुद्धिके द्वारा सम्मानके योग्य हो तो भी अज्ञानी पुरुष तुम्हारी हँसी उड़ाते हैं और दुराचारी मनुष्य तुम्हारा तिरस्कार करते हैं। इसी चिन्तासे तुम्हारा शरीर सूखकर पीला पड़ता जा रहा है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं मित्रमुखः शत्रुः कश्चिदार्यवदाचरन्।
वञ्चयित्वा गतस्त्वां वै तेनासि हरिणः कृशः ॥ १७ ॥
मूलम्
नूनं मित्रमुखः शत्रुः कश्चिदार्यवदाचरन्।
वञ्चयित्वा गतस्त्वां वै तेनासि हरिणः कृशः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निश्चय ही कोई शत्रु मुँहसे मित्रताकी बातें करता हुआ आया, श्रेष्ठ पुरुषके समान बर्ताव करने लगा और तुम्हें ठगकर चला गया; इसीलिये तुम दुर्बल और सफेद होते जा रहे हो॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकाशार्थगतिर्नूनं रहस्यकुशलः कृती ।
तज्ज्ञैर्न पूज्यसे नूनं तेनासि हरिणः कृशः ॥ १८ ॥
मूलम्
प्रकाशार्थगतिर्नूनं रहस्यकुशलः कृती ।
तज्ज्ञैर्न पूज्यसे नूनं तेनासि हरिणः कृशः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारी अर्थगति—कार्यपद्धति सबको विदित है, तुम रहस्यकी बातें समझानेमें कुशल और विद्वान् हो तो भी गुणज्ञ पुरुष तुम्हारा आदर नहीं करते हैं; इसीसे तुम सफेद और दुर्बल हो रहे हो॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असत्स्वपि निविष्टेषु ब्रुवतो मुक्तसंशयम्।
गुणास्ते न विराजन्ते तेनासि हरिणः कृशः ॥ १९ ॥
मूलम्
असत्स्वपि निविष्टेषु ब्रुवतो मुक्तसंशयम्।
गुणास्ते न विराजन्ते तेनासि हरिणः कृशः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम दुराग्रही दुष्ट पुरुषोंके बीचमें ही संशयरहित होकर उत्तम बात कहते हो, तो भी तुम्हारे गुण वहाँ प्रकाशित नहीं होते; इसीलिये तुम दुर्बल होते और फीके पड़ते जा रहे हो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनबुद्धिश्रुतैर्हीनः केवलं तेजसान्वितः ।
महत् प्रार्थयसे नूनं तेनासि हरिणः कृशः ॥ २० ॥
मूलम्
धनबुद्धिश्रुतैर्हीनः केवलं तेजसान्वितः ।
महत् प्रार्थयसे नूनं तेनासि हरिणः कृशः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा यह भी हो सकता है कि तुम धन, बुद्धि और विद्यासे हीन होकर भी केवल शारीरिक शक्तिसे सम्पन्न होकर ऊँचा पद चाहते रहे हो और इसमें तुम्हें सफलता न मिली हो; इसीलिये तुम पाण्डुवर्णके हो गये हो और तुम्हारा शरीर भी सूखता जा रहा है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपःप्रणिहितात्मानं मन्ये त्वारण्यकाङ्क्षिणम् ।
बान्धवा नाभिनन्दन्ति तेनासि हरिणः कृशः ॥ २१ ॥
मूलम्
तपःप्रणिहितात्मानं मन्ये त्वारण्यकाङ्क्षिणम् ।
बान्धवा नाभिनन्दन्ति तेनासि हरिणः कृशः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे यह भी जान पड़ता है कि तुम्हारा मन तपस्यामें लगा है और इसलिये तुम जंगलमें रहना चाहते हो, परंतु तुम्हारे भाई-बन्धु इस बातको पसंद नहीं करते हैं; इसीलिये तुम सफेद और दुर्बल हो गये हो॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(सुदुर्विनीतः पुत्रो वा जामाता वा प्रमार्जकः।
दारा वा प्रतिकूलास्ते तेनासि हरिणः कृशः॥
मूलम्
(सुदुर्विनीतः पुत्रो वा जामाता वा प्रमार्जकः।
दारा वा प्रतिकूलास्ते तेनासि हरिणः कृशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा यह भी सम्भव है कि तुम्हारा पुत्र दुर्विनीत—उद्दण्ड हो, या दामाद घरकी सारी सम्पत्ति झाड़-पोंछकर ले जानेवाला हो या तुम्हारी पत्नी प्रतिकूल स्वभावकी हो; इसीसे तुम कृशकाय और पीले होते जा रहे हो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातरोऽतीव विषमाः पिता वा क्षुत्क्षतो मृतः।
माता ज्येष्ठो गुरुर्वापि तेनासि हरिणः कृशः॥
मूलम्
भ्रातरोऽतीव विषमाः पिता वा क्षुत्क्षतो मृतः।
माता ज्येष्ठो गुरुर्वापि तेनासि हरिणः कृशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे भाई बड़े बेईमान हों अथवा तुम्हारे पिता, माता या ज्येष्ठ भाई एवं गुरुजन भूखसे दुर्बल होकर मर गये हों, इस बातकी भी सम्भावना है। शायद इसीसे तुम्हारे शरीरका रंग सफेद हो गया है और तुम सूखते चले जा रहे हो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणो वा हतो गौर्वा ब्रह्मस्वं वा हृतं पुरा।
देवस्वं वाधिकं काले तेनासि हरिणः कृशः॥
मूलम्
ब्राह्मणो वा हतो गौर्वा ब्रह्मस्वं वा हृतं पुरा।
देवस्वं वाधिकं काले तेनासि हरिणः कृशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा यह भी अनुमान होता है कि पहले तुमने किसी ब्राह्मण या गौकी हत्या की हो, किसी ब्राह्मण या देवताका किसी समय अधिक-से-अधिक धन चुरा लिया हो, इसीलिये तुम कृशकाय और पीले हो रहे हो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हृतदारोऽथ वृद्धो वा लोके द्विष्टोऽथ वा नरैः।
अविज्ञानेन वा वृद्धस्तेनासि हरिणः कृशः॥
मूलम्
हृतदारोऽथ वृद्धो वा लोके द्विष्टोऽथ वा नरैः।
अविज्ञानेन वा वृद्धस्तेनासि हरिणः कृशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह भी सम्भव है कि तुम्हारी स्त्रीका किसीने अपहरण कर लिया हो। अथवा तुम बूढ़े हो चले हो या जगत्के मनुष्य तुमसे द्वेष करने लगे हों। अथवा अज्ञानके द्वारा ही तुम बढ़े-चढ़े हो और इसीलिये चिन्ताके कारण तुम्हारा शरीर सफेद तथा दुर्बल हो गया हो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वार्धक्यार्थं धनं दृष्ट्वा स्वां श्रीर्वापि परैर्हृता।
वृत्तिर्वा दुर्जनापेक्षा तेनासि हरिणः कृशः॥)
मूलम्
वार्धक्यार्थं धनं दृष्ट्वा स्वां श्रीर्वापि परैर्हृता।
वृत्तिर्वा दुर्जनापेक्षा तेनासि हरिणः कृशः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
बुढ़ापेके लिये तुम्हारे पास धनका संग्रह देखकर दूसरोंने तुम्हारी उस निजी सम्पत्तिका अपहरण कर लिया हो अथवा जीविकाके लिये दुष्ट पुरुषोंकी अपेक्षा रखनी पड़ती हो, इसकी भी सम्भावना जान पड़ती है। शायद इसी चिन्तासे तुम्हारा शरीर दुबला होता और पीला पड़ता जा रहा हो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्टभार्यस्य ते नूनं प्रातिवेश्यो महाधनः।
युवा सुललितः कामी तेनासि हरिणः कृशः ॥ २२ ॥
मूलम्
इष्टभार्यस्य ते नूनं प्रातिवेश्यो महाधनः।
युवा सुललितः कामी तेनासि हरिणः कृशः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह भी सम्भव है कि तुम्हारी स्त्री परम सुन्दरी होनेके कारण तुम्हें बहुत प्रिय हो और तुम्हारे पड़ोसमें ही कोई बहुत सुन्दर, महाधनी और कामी नवयुवक निवास करता हो! इसी चिन्तासे तुम दुबले और पीले पड़ते जा रहे हो॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनमर्थवतां मध्ये तव वाक्यमनुत्तमम्।
न भाति कालेऽभिहितं तेनासि हरिणः कृशः ॥ २३ ॥
मूलम्
नूनमर्थवतां मध्ये तव वाक्यमनुत्तमम्।
न भाति कालेऽभिहितं तेनासि हरिणः कृशः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निश्चय ही तुम धनवानोंके बीच परम उत्तम और समयोचित बात कहते होगे, किंतु वह उन्हें पसंद न आती होगी। इसीलिये तुम सफेद और दुर्बल हो रहे हो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृढपूर्वं श्रुतं मूर्खं कुपितं हृदयप्रियम्।
अनुनेतुं न शक्नोषि तेनासि हरिणः कृशः ॥ २४ ॥
मूलम्
दृढपूर्वं श्रुतं मूर्खं कुपितं हृदयप्रियम्।
अनुनेतुं न शक्नोषि तेनासि हरिणः कृशः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारा कोई पहलेका दृढ़ निश्चयवाला प्रिय व्यक्ति मूर्खताके कारण तुमपर कुपित हो गया होगा और तुम उसे किसी तरह समझा-बुझाकर शान्त नहीं कर पाते होगे। इसीलिये तुम दुर्बल और फीके पड़ते जा रहे हो॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनमासंजयित्वा त्वां कृत्ये कस्मिंश्चिदीप्सिते।
कश्चिदर्थयते नित्यं तेनासि हरिणः कृशः ॥ २५ ॥
मूलम्
नूनमासंजयित्वा त्वां कृत्ये कस्मिंश्चिदीप्सिते।
कश्चिदर्थयते नित्यं तेनासि हरिणः कृशः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निश्चय ही कोई मनुष्य अपनी इच्छाके अनुसार किसी अभीष्ट कार्यमें नियुक्त करके सदा अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है; इसीलिये तुम श्वेत (पीत) वर्णके और दुबले हो रहे हो॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं त्वां सुगुणैर्युक्तं पूजयानं सुहृद्ध्रुवम्।
ममार्थ इति जानीते तेनासि हरिणः कृशः ॥ २६ ॥
मूलम्
नूनं त्वां सुगुणैर्युक्तं पूजयानं सुहृद्ध्रुवम्।
ममार्थ इति जानीते तेनासि हरिणः कृशः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अवश्य ही तुम सद्गुणोंसे युक्त होनेके कारण दूसरे लोगोंद्वारा पूजित होते हो; परंतु तुम्हारा मित्र समझता है कि यह मेरे ही प्रभावसे आदर पा रहा है। इसीलिये तुम चिन्तासे दुर्बल एवं पीले होते जा रहे हो॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तर्गतमभिप्रायं नूनं नेच्छसि लज्जया।
विवेक्तुं प्राप्तिशैथिल्यात् तेनासि हरिणः कृशः ॥ २७ ॥
मूलम्
अन्तर्गतमभिप्रायं नूनं नेच्छसि लज्जया।
विवेक्तुं प्राप्तिशैथिल्यात् तेनासि हरिणः कृशः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निश्चय ही तुम लज्जावश किसीपर अपना आन्तरिक अभिप्राय नहीं प्रकट करना चाहते, क्योंकि तुम्हें अपनी अभीष्ट वस्तुकी प्राप्तिके विषयमें संदेह है, इसीलिये चिन्तावश सूखते और पीले पड़ते जा रहे हो॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानाबुद्धिरुचो लोके मनुष्यान् नूनमिच्छसि।
ग्रहीतुं स्वगुणैः सर्वांस्तेनासि हरिणः कृशः ॥ २८ ॥
मूलम्
नानाबुद्धिरुचो लोके मनुष्यान् नूनमिच्छसि।
ग्रहीतुं स्वगुणैः सर्वांस्तेनासि हरिणः कृशः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निश्चय ही संसारमें नाना प्रकारकी बुद्धि और भिन्न-भिन्न रुचि रखनेवाले लोग रहते हैं। उन सबको तुम अपने गुणोंसे वशमें करना चाहते हो। इसीलिये क्षीणकाय और पाण्डुवर्णके हो रहे हो॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविद्वान् भीरुरल्पार्थे विद्याविक्रमदानजम् ।
यशः प्रार्थयसे नूनं तेनासि हरिणः कृशः ॥ २९ ॥
मूलम्
अविद्वान् भीरुरल्पार्थे विद्याविक्रमदानजम् ।
यशः प्रार्थयसे नूनं तेनासि हरिणः कृशः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा यह भी हो सकता है कि तुम विद्वान् न होकर भी विद्यासे मिलनेवाले यशको पाना चाहते हो। डरपोक और कायर होनेपर भी पराक्रमजनित कीर्ति पानेकी अभिलाषा रखते हो और अपने पास बहुत थोड़ा धन होनेपर भी दानवीर होनेका यश पानेके लिये उत्सुक हो। इसीलिये कृशकाय और पीले हो रहे हो॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिराभिलषितं किंचित्फलमप्राप्तमेव ते ।
कृतमन्यैरपहृतं तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३० ॥
मूलम्
चिराभिलषितं किंचित्फलमप्राप्तमेव ते ।
कृतमन्यैरपहृतं तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमने कोई कार्य किया, जिसका चिरकालसे अभिलषित कोई फल तुम्हें प्राप्त होनेवाला था, किंतु तुम्हें तो वह प्राप्त हुआ नहीं और दूसरे लोग उसे हर ले गये। इसीलिये तुम्हारे शरीरकी कान्ति फीकी पड़ गयी है और दिनोंदिन दुबले होते जा रहे हो॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनमात्मकृतं दोषमपश्यन् किंचिदात्मनः ।
अकारणेऽभिशप्तोऽसि तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३१ ॥
मूलम्
नूनमात्मकृतं दोषमपश्यन् किंचिदात्मनः ।
अकारणेऽभिशप्तोऽसि तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बात यह भी ध्यानमें आती है कि तुम्हें तो अपना कोई दोष दिखायी नहीं देता तथापि दूसरे लोग अकारण ही तुम्हें कोसते रहते हैं। शायद इसीलिये तुम कान्तिहीन और दुर्बल होते जा रहे हो॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधून् गृहस्थान् दृष्ट्वा च तथा साधून् वनेचरान्।
मुक्तांश्चावसथे सक्तांस्तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३२ ॥
मूलम्
साधून् गृहस्थान् दृष्ट्वा च तथा साधून् वनेचरान्।
मुक्तांश्चावसथे सक्तांस्तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम विरक्त साधुओंको गृहस्थ, दुर्जनोंको वनवासी तथा संन्यासियोंको मठ-मन्दिरमें आसक्त देखते हो; इसीलिये सफेद और दुर्बल होते जा रहे हो॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुहृदां दुःखमार्तानां न प्रमोक्ष्यसि चार्तिजम्।
अलमर्थगुणैर्हीनं तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३३ ॥
मूलम्
सुहृदां दुःखमार्तानां न प्रमोक्ष्यसि चार्तिजम्।
अलमर्थगुणैर्हीनं तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे स्नेही बन्धु-बान्धव रोग आदिसे पीड़ित होकर महान् दुःख भोगते हैं और तुम उन्हें उस पीड़ाजनित कष्टसे मुक्त नहीं कर पाते हो तथा अपने आपको भी तुम अर्थ-लाभसे हीन पाते हो; शायद इसीलिये तुम सफेद और दुबले-पतले हो गये हो॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्म्यमर्थ्यं च काम्यं च काले चाभिहितं वचः।
न प्रतीयन्ति ते नूनं तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३४ ॥
मूलम्
धर्म्यमर्थ्यं च काम्यं च काले चाभिहितं वचः।
न प्रतीयन्ति ते नूनं तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारी बातें धर्म, अर्थ और कामके अनुकूल एवं सामयिक होती हैं, तो भी दूसरे लोग उनपर ठीक विश्वास नहीं करते हैं। इसलिये तुम कान्तिहीन एवं कृशकाय हो रहे हो॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्तानकुशलैरर्थान् मनीषी संजिजीविषुः ।
प्राप्य वर्तयसे नूनं तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३५ ॥
मूलम्
दत्तानकुशलैरर्थान् मनीषी संजिजीविषुः ।
प्राप्य वर्तयसे नूनं तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनीषी होनेपर भी तुम जीवन-निर्वाहकी इच्छासे ही अज्ञानी पुरुषोंके दिये हुए धनको लेकर उसीपर गुजारा करते हो; इसीलिये तुम कान्तिहीन और दुर्बल हो॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पापात् प्रवर्धतो दृष्ट्वा कल्याणानावसीदतः।
ध्रुवं गर्हयसे नित्यं तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३६ ॥
मूलम्
पापात् प्रवर्धतो दृष्ट्वा कल्याणानावसीदतः।
ध्रुवं गर्हयसे नित्यं तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पापियोंको आगे बढ़ते और कल्याणकारी कर्मोंमें लगे हुए पुण्यात्मा पुरुषोंको दुःख उठाते देखकर अवश्य ही तुम सदा इस परिस्थितिकी निन्दा करते हो; इसीलिये दुर्बल और पाण्डुवर्णके हो गये हो॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परस्परविरुद्धानां प्रियं नूनं चिकीर्षसि।
सुहृदामुपरोधेन तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३७ ॥
मूलम्
परस्परविरुद्धानां प्रियं नूनं चिकीर्षसि।
सुहृदामुपरोधेन तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दूसरेसे विरोध रखनेवाले अपने सुहृदोंको रोककर तुम निश्चय ही उनका प्रिय करना चाहते हो; इसीलिये चिन्ताके कारण श्रीहीन और दुर्बल हो गये हो॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोत्रियांश्च विकर्मस्थान् प्राज्ञांश्चाप्यजितेन्द्रियान् ।
मन्येऽनुध्यायसि जनांस्तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३८ ॥
मूलम्
श्रोत्रियांश्च विकर्मस्थान् प्राज्ञांश्चाप्यजितेन्द्रियान् ।
मन्येऽनुध्यायसि जनांस्तेनासि हरिणः कृशः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदज्ञ ब्राह्मणोंको वेदविरुद्ध कर्ममें तत्पर और विद्वानोंको इन्द्रियोंके अधीन देखकर मेरी समझमें तुम निरन्तर चिन्तित रहते हो। सम्भवतः इसीलिये तुम्हारा शरीर सफेद (पीला) पड़ गया है और तुम दुर्बल हो गये हो॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सम्पूजितं रक्षो विप्रं तं प्रत्यपूजयत्।
सखायमकरोच्चैनं संयोज्यार्थैर्मुमोच ह ॥ ३९ ॥
मूलम्
एवं सम्पूजितं रक्षो विप्रं तं प्रत्यपूजयत्।
सखायमकरोच्चैनं संयोज्यार्थैर्मुमोच ह ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर जब उस ब्राह्मणने राक्षसका समादर किया, तब राक्षसने भी ब्राह्मणका विशेष सत्कार किया। उसने ब्राह्मणको अपना मित्र बना लिया और उसे धन देकर छोड़ दिया॥३९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि हरिणकृशकाख्याने चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें दुर्बल और पाण्डुवर्णके राक्षसका आख्यानविषयक एक सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२४॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २८ श्लोक मिलाकर कुल ६७ श्लोक हैं)