१२३ शाण्डिलीसुमनासंवादे

भागसूचना

त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शाण्डिली और सुमनाका संवाद—पतिव्रता स्त्रियोंके कर्तव्यका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्स्त्रीणां समुदाचारं सर्वधर्मविदां वर।
श्रोतुमिच्छाम्यहं त्वत्तस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

सत्स्त्रीणां समुदाचारं सर्वधर्मविदां वर।
श्रोतुमिच्छाम्यहं त्वत्तस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ पितामह! साध्वी स्त्रियोंके सदाचारका क्या स्वरूप है? यह मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ। उसे मुझे बताइये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वज्ञां सर्वतत्त्वज्ञां देवलोके मनस्विनीम्।
कैकेयी सुमना नाम शाण्डिलीं पर्यपृच्छत ॥ २ ॥

मूलम्

सर्वज्ञां सर्वतत्त्वज्ञां देवलोके मनस्विनीम्।
कैकेयी सुमना नाम शाण्डिलीं पर्यपृच्छत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! देवलोककी बात है—सम्पूर्ण तत्त्वोंको जाननेवाली सर्वज्ञा एवं मनस्विनी शाण्डिलीदेवीसे केकयराजकी पुत्री सुमनाने इस प्रकार प्रश्न किया—॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केन वृत्तेन कल्याणि समाचारेण केन वा।
विधूय सर्वपापानि देवलोकं त्वमागता ॥ ३ ॥

मूलम्

केन वृत्तेन कल्याणि समाचारेण केन वा।
विधूय सर्वपापानि देवलोकं त्वमागता ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कल्याणि! तुमने किस बर्ताव अथवा किस सदाचारके प्रभावसे समस्त पापोंका नाश करके देवलोकमें पदार्पण किया है?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हुताशनशिखेव त्वं ज्वलमाना स्वतेजसा।
सुता ताराधिपस्येव प्रभया दिवमागता ॥ ४ ॥

मूलम्

हुताशनशिखेव त्वं ज्वलमाना स्वतेजसा।
सुता ताराधिपस्येव प्रभया दिवमागता ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम अपने तेजसे अग्निकी ज्वालाके समान प्रज्वलित हो रही हो और चन्द्रमाकी पुत्रीके समान अपनी उज्ज्वल प्रभासे प्रकाशित होती हुई स्वर्ग-लोकमें आयी हो॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरजांसि च वस्त्राणि धारयन्ती गतक्लमा।
विमानस्था शुभा भासि सहस्रगुणमोजसा ॥ ५ ॥

मूलम्

अरजांसि च वस्त्राणि धारयन्ती गतक्लमा।
विमानस्था शुभा भासि सहस्रगुणमोजसा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निर्मल वस्त्र धारण किये थकावट और परिश्रमसे रहित होकर विमानपर बैठी हो। तुम्हारी मंगलमयी आकृति है, तुम अपने तेजसे सहस्रगुनी शोभा पा रही हो॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वमल्पेन तपसा दानेन नियमेन वा।
इमं लोकमनुप्राप्ता त्वं हि तत्त्वं वदस्व मे ॥ ६ ॥

मूलम्

न त्वमल्पेन तपसा दानेन नियमेन वा।
इमं लोकमनुप्राप्ता त्वं हि तत्त्वं वदस्व मे ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘थोड़ी-सी तपस्या थोड़े-से दान या छोटे-मोटे नियमोंका पालन करके तुम इस लोकमें नहीं आयी हो। अतः अपनी साधनाके सम्बन्धमें सच्ची-सच्ची बात बताओ’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति पृष्टा सुमनया मधुरं चारुहासिनी।
शाण्डिली निभृतं वाक्यं सुमनामिदमब्रवीत् ॥ ७ ॥

मूलम्

इति पृष्टा सुमनया मधुरं चारुहासिनी।
शाण्डिली निभृतं वाक्यं सुमनामिदमब्रवीत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुमनाके इस प्रकार मधुर वाणीमें पूछनेपर मनोहर मुसकानवाली शाण्डिलीने उससे नम्रतापूर्ण शब्दोंमें इस प्रकार कहा—॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं काषायवसना नापि वल्कलधारिणी।
न च मुण्डा च जटिला भूत्वा देवत्वमागता ॥ ८ ॥

मूलम्

नाहं काषायवसना नापि वल्कलधारिणी।
न च मुण्डा च जटिला भूत्वा देवत्वमागता ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवि! मैंने गेरुआ वस्त्र नहीं धारण किया, वल्कलवस्त्र नहीं पहना, मूँड़ नहीं मुड़ाया और बड़ी-बड़ी जटाएँ नहीं रखायीं। वह सब करके मैं देवलोकमें नहीं आयी हूँ॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहितानि च वाक्यानि सर्वाणि परुषाणि च।
अप्रमत्ता च भर्तारं कदाचिन्नाहमब्रुवम् ॥ ९ ॥

मूलम्

अहितानि च वाक्यानि सर्वाणि परुषाणि च।
अप्रमत्ता च भर्तारं कदाचिन्नाहमब्रुवम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने सदा सावधान रहकर अपने पतिदेवके प्रति मुँहसे कभी अहितकर और कठोर वचन नहीं निकाले हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवतानां पितॄणां च ब्राह्मणानां च पूजने।
अप्रमत्ता सदा युक्ता श्वश्रूश्वशुरवर्तिनी ॥ १० ॥

मूलम्

देवतानां पितॄणां च ब्राह्मणानां च पूजने।
अप्रमत्ता सदा युक्ता श्वश्रूश्वशुरवर्तिनी ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं सदा सास-ससुरकी आज्ञामें रहती और देवता, पितर तथा ब्राह्मणोंकी पूजामें सदा सावधान होकर संलग्न रहती थी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पैशुन्ये न प्रवर्तामि न ममैतन्मनोगतम्।
अद्वारि न च तिष्ठामि चिरं न कथयामि च॥११॥

मूलम्

पैशुन्ये न प्रवर्तामि न ममैतन्मनोगतम्।
अद्वारि न च तिष्ठामि चिरं न कथयामि च॥११॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘किसीकी चुगली नहीं खाती थी। चुगली करना मेरे मनको बिलकुल नहीं भाता था। मैं घरका दरवाजा छोड़कर अन्यत्र नहीं खड़ी होती और देरतक किसीसे बात नहीं करती थी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असद् वा हसितं किंचिदहितं वापि कर्मणा।
रहस्यमरहस्यं वा न प्रवर्तामि सर्वथा ॥ १२ ॥

मूलम्

असद् वा हसितं किंचिदहितं वापि कर्मणा।
रहस्यमरहस्यं वा न प्रवर्तामि सर्वथा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने कभी एकान्तमें या सबके सामने किसीके साथ अश्लील परिहास नहीं किया तथा मेरी किसी क्रियाद्वारा किसीका अहित भी नहीं हुआ। मैं ऐसे कार्योंमें कभी प्रवृत्त नहीं होती थी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्यार्थे निर्गतं चापि भर्तारं गृहमागतम्।
आसनेनोपसंयोज्य पूजयामि समाहिता ॥ १३ ॥

मूलम्

कार्यार्थे निर्गतं चापि भर्तारं गृहमागतम्।
आसनेनोपसंयोज्य पूजयामि समाहिता ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि मेरे स्वामी किसी कार्यसे बाहर जाकर फिर घरको लौटते तो मैं उठकर उन्हें बैठनेके लिये आसन देती और एकाग्रचित्त हो उनकी पूजा करती थी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदन्नं नाभिजानाति यद् भोज्यं नाभिनन्दति।
भक्ष्यं वा यदि वा लेह्यं तत्सर्वं वर्जयाम्यहम् ॥ १४ ॥

मूलम्

यदन्नं नाभिजानाति यद् भोज्यं नाभिनन्दति।
भक्ष्यं वा यदि वा लेह्यं तत्सर्वं वर्जयाम्यहम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे स्वामी जिस अन्नको ग्रहण करने योग्य नहीं समझते थे तथा जिस भक्ष्य, भोज्य या लेह्य आदिको वे नहीं पसंद करते थे, उन सबको मैं भी त्याग देती थी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुटुम्बार्थे समानीतं यत्किंचित् कार्यमेव तु।
प्रातरुत्थाय तत्सर्वं कारयामि करोमि च ॥ १५ ॥

मूलम्

कुटुम्बार्थे समानीतं यत्किंचित् कार्यमेव तु।
प्रातरुत्थाय तत्सर्वं कारयामि करोमि च ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सारे कुटुम्बके लिये जो कुछ कार्य आ पड़ता, वह सब मैं सबेरे ही उठकर कर-करा लेती थी॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(अग्निसंरक्षणपरा गृहशुद्धिं च कारये।
कुमारान् पालये नित्यं कुमारीं परिशिक्षये॥
आत्मप्रियाणि हित्वापि गर्भसंरक्षणे रता।
बालानां वर्जये नित्यं शापं कोपं प्रतापनम्॥
अविक्षिप्तानि धान्यानि नान्नविक्षेपणं गृहे।
रत्नवत् स्पृहये गेहे गावः सयवसोदकाः॥
समुद्‌गम्य च शुद्धाहं भिक्षां दद्यां द्विजातिषु।)

मूलम्

(अग्निसंरक्षणपरा गृहशुद्धिं च कारये।
कुमारान् पालये नित्यं कुमारीं परिशिक्षये॥
आत्मप्रियाणि हित्वापि गर्भसंरक्षणे रता।
बालानां वर्जये नित्यं शापं कोपं प्रतापनम्॥
अविक्षिप्तानि धान्यानि नान्नविक्षेपणं गृहे।
रत्नवत् स्पृहये गेहे गावः सयवसोदकाः॥
समुद्‌गम्य च शुद्धाहं भिक्षां दद्यां द्विजातिषु।)

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं अग्निहोत्रकी रक्षा करती और घरको लीप-पोतकर शुद्ध रखती थी। बच्चोंका प्रतिदिन पालन करती और कन्याओंको नारीधर्मकी शिक्षा देती थी। अपनेको प्रिय लगनेवाली खाद्य वस्तुएँ त्यागकर भी गर्भकी रक्षामें ही सदा संलग्न रहती थी। बच्चोंको शाप (गाली) देना, उनपर क्रोध करना अथवा उन्हें सताना आदि मैं सदाके लिये त्याग चुकी थी। मेरे घरमें कभी अनाज छीटे नहीं जाते थे। किसी भी अन्नको बिखेरा नहीं जाता था। मैं अपने घरमें गौओंको घास-भूसा खिलाकर, पानी पिलाकर तृप्त करती थी और रत्नकी भाँति उन्हें सुरक्षित रखनेकी इच्छा करती थी तथा शुद्ध अवस्थामें मैं आगे बढ़कर ब्राह्मणोंको भिक्षा देती थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रवासं यदि मे याति भर्ता कार्येण केनचित्।
मंगलैर्बहुभिर्युक्ता भवामि नियता तदा ॥ १६ ॥

मूलम्

प्रवासं यदि मे याति भर्ता कार्येण केनचित्।
मंगलैर्बहुभिर्युक्ता भवामि नियता तदा ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि मेरे पति किसी आवश्यक कार्यवश कभी परदेश जाते तो मैं नियमसे रहकर उनके कल्याणके लिये नाना प्रकारके मांगलिक कार्य किया करती थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अञ्जनं रोचनां चैव स्नानं माल्यानुलेपनम्।
प्रसाधनं च निष्क्रान्ते नाभिनन्दामि भर्तरि ॥ १७ ॥

मूलम्

अञ्जनं रोचनां चैव स्नानं माल्यानुलेपनम्।
प्रसाधनं च निष्क्रान्ते नाभिनन्दामि भर्तरि ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘स्वामीके बाहर चले जानेपर मैं आँखोंमें आँजन लगाना, ललाटमें गोरोचनका तिलक करना, तैलाभ्यंगपूर्वक स्नान करना, फूलोंकी माला पहनना, अंगोंमें अंगराग लगाना तथा शृंगार करना पसंद नहीं करती थी॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नोत्थापयामि भर्तारं सुखसुप्तमहं सदा।
आन्तरेष्वपि कार्येषु तेन तुष्यति मे मनः ॥ १८ ॥

मूलम्

नोत्थापयामि भर्तारं सुखसुप्तमहं सदा।
आन्तरेष्वपि कार्येषु तेन तुष्यति मे मनः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब स्वामी सुखपूर्वक सो जाते उस समय आवश्यक कार्य आ जानेपर भी मैं उन्हें कभी नहीं जगाती थी। इससे मेरे मनको विशेष संतोष प्राप्त होता था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नायासयामि भर्तारं कुटुम्बार्थेऽपि सर्वदा।
गुप्तगुह्या सदा चास्मि सुसम्मृष्टनिवेशना ॥ १९ ॥

मूलम्

नायासयामि भर्तारं कुटुम्बार्थेऽपि सर्वदा।
गुप्तगुह्या सदा चास्मि सुसम्मृष्टनिवेशना ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परिवारके पालन-पोषणके कार्यके लिये भी मैं उन्हें कभी नहीं तंग करती थी। घरकी गुप्त बातोंको सदा छिपाये रखती और घर-आँगनको सदा झाड़-बुहारकर साफ रखती थी॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमं धर्मपथं नारी पालयन्ती समाहिता।
अरुन्धतीव नारीणां स्वर्गलोके महीयते ॥ २० ॥

मूलम्

इमं धर्मपथं नारी पालयन्ती समाहिता।
अरुन्धतीव नारीणां स्वर्गलोके महीयते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो स्त्री सदा सावधान रहकर इस धर्ममार्गका पालन करती है, वह नारियोंमें अरुन्धतीके समान आदरणीय होती है और स्वर्गलोकमें भी उसकी विशेष प्रतिष्ठा होती है’॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदाख्याय सा देवी सुमनायै तपस्विनी।
पतिधर्मं महाभागा जगामादर्शनं तदा ॥ २१ ॥

मूलम्

एतदाख्याय सा देवी सुमनायै तपस्विनी।
पतिधर्मं महाभागा जगामादर्शनं तदा ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! सुमनाको इस प्रकार पातिव्रत्य धर्मका उपदेश देकर तपस्विनी महाभागा शाण्डिली देवी तत्काल वहाँ अदृश्य हो गयीं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्चेदं पाण्डवाख्यानं पठेत् पर्वणि पर्वणि।
स देवलोकं सम्प्राप्य नन्दने स सुखी वसेत् ॥ २२ ॥

मूलम्

यश्चेदं पाण्डवाख्यानं पठेत् पर्वणि पर्वणि।
स देवलोकं सम्प्राप्य नन्दने स सुखी वसेत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! जो प्रत्येक पर्वके दिन इस आख्यानका पाठ करता है, वह देवलोकमें पहुँचकर नन्दनवनमें सुखपूर्वक निवास करता है॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि शाण्डिलीसुमनासंवादे त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें शाण्डिली और सुमनाका संवादविषयक एक सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२३॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल २५ श्लोक हैं)