भागसूचना
विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
व्यास और मैत्रेयका संवाद—दानकी प्रशंसा और कर्मका रहस्य
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्या तपश्च दानं च किमेतेषां विशिष्यते।
पृच्छामि त्वां सतां श्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
मूलम्
विद्या तपश्च दानं च किमेतेषां विशिष्यते।
पृच्छामि त्वां सतां श्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ पितामह! विद्या, तप और दान—इनमेंसे कौन-सा श्रेष्ठ है? यह मैं आपसे पूछता हूँ, मुझे बताइये॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
मैत्रेयस्य च संवादं कृष्णद्वैपायनस्य च ॥ २ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
मैत्रेयस्य च संवादं कृष्णद्वैपायनस्य च ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! इस विषयमें श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास और मैत्रेयके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णद्वैपायनो राजन्नज्ञातचरितं चरन् ।
वाराणस्यामुपातिष्ठन्मैत्रेयं स्वैरिणीकुले ॥ ३ ॥
मूलम्
कृष्णद्वैपायनो राजन्नज्ञातचरितं चरन् ।
वाराणस्यामुपातिष्ठन्मैत्रेयं स्वैरिणीकुले ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! एक समयकी बात है—भगवान् श्रीकृष्ण-द्वैपायन व्यासजी गुप्तरूपसे विचरते हुए वाराणसी-पुरीमें जा पहुँचे। वहाँ मुनियोंकी मण्डलीमें बैठे हुए मुनिवर मैत्रेयजीके यहाँ वे उपस्थित हुए॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुपस्थितमासीनं ज्ञात्वा स मुनिसत्तम।
अर्चित्वा भोजयामास मैत्रेयोऽशनमुत्तमम् ॥ ४ ॥
मूलम्
तमुपस्थितमासीनं ज्ञात्वा स मुनिसत्तम।
अर्चित्वा भोजयामास मैत्रेयोऽशनमुत्तमम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पास आकर बैठे हुए मुनिवर व्यासजीको पहचानकर मैत्रेयजीने उनका पूजन किया और उन्हें उत्तम अन्न भोजन कराया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदन्नमुत्तमं भुक्त्वा गुणवत् सार्वकामिकम्।
प्रतिष्ठमानोऽस्मयत प्रीतः कृष्णो महामनाः ॥ ५ ॥
मूलम्
तदन्नमुत्तमं भुक्त्वा गुणवत् सार्वकामिकम्।
प्रतिष्ठमानोऽस्मयत प्रीतः कृष्णो महामनाः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह उत्तम लाभदायक और सबकी रुचिके अनुकूल अन्न भोजन करके महामना व्यासजी बहुत संतुष्ट हुए। फिर जब वे वहाँसे चलने लगे तो मुस्कराये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुत्स्मयन्तं सम्प्रेक्ष्य मैत्रेयः कृष्णमब्रवीत्।
कारणं ब्रूहि धर्मात्मन् व्यस्मयिष्ठाः कुतश्च ते ॥ ६ ॥
तपस्विनो धृतिमतः प्रमोदः समुपागतः।
एतत् पृच्छामि ते विद्वन्नभिवाद्य प्रणम्य च ॥ ७ ॥
मूलम्
तमुत्स्मयन्तं सम्प्रेक्ष्य मैत्रेयः कृष्णमब्रवीत्।
कारणं ब्रूहि धर्मात्मन् व्यस्मयिष्ठाः कुतश्च ते ॥ ६ ॥
तपस्विनो धृतिमतः प्रमोदः समुपागतः।
एतत् पृच्छामि ते विद्वन्नभिवाद्य प्रणम्य च ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें मुस्कराते देख मैत्रेयजीने व्यासजीसे पूछा—‘धर्मात्मन्! विद्वन्! मैं आपको अभिवादन1 एवं प्रणाम करके यह पूछता हूँ कि आप अभी-अभी जो मुस्कराये हैं, उसका क्या कारण है? आपको हँसी कैसे आयी? आप तो तपस्वी और धैर्यवान् हैं। आपको कैसे सहसा उल्लास हो आया? यह मुझे बताइये॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मनश्च तपोभाग्यं महाभाग्यं तवेह च।
पृथगाचरतस्तात पृथगात्मसुखात्मनोः ।
अल्पान्तरमहं मन्ये विशिष्टमपि चान्वयात् ॥ ८ ॥
मूलम्
आत्मनश्च तपोभाग्यं महाभाग्यं तवेह च।
पृथगाचरतस्तात पृथगात्मसुखात्मनोः ।
अल्पान्तरमहं मन्ये विशिष्टमपि चान्वयात् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! मैं अपनेमें तपस्याजनित सौभाग्य देखता हूँ और आपमें यहाँ सहज महाभाग्य प्रतिष्ठित है (क्योंकि आप मेरे गुरुपुत्र हैं)। जीवात्मा और परमात्मामें मैं बहुत थोड़ा अनार मानता हूँ। परमात्माका सभी पदार्थोंके साथ सम्बन्ध है; क्योंकि वह सर्वव्यापी है। इसीलिये मैं उसे जीवात्माकी अपेक्षा श्रेष्ठ भी मानता हूँ, किंतु आप तो जीवात्माको परमात्मासे अभिन्न जाननेवाले हैं, फिर आपका आचरण इस मान्यतासे भिन्न हो रहा है; क्योंकि आपको कुछ विस्मय हुआ है और मुझे नहीं हुआ है’॥८॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिच्छन्दातिवादाभ्यां स्मयोऽयं समुपागतः ।
असत्यं वेदवचनं कस्माद् वेदोऽनृतं वदेत् ॥ ९ ॥
मूलम्
अतिच्छन्दातिवादाभ्यां स्मयोऽयं समुपागतः ।
असत्यं वेदवचनं कस्माद् वेदोऽनृतं वदेत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— ब्रह्मन्! अतिथिको अत्यन्त गौरव प्रदान करते हुए उसकी इच्छाके अनुसार सत्कार करना ‘अतिच्छन्द’ कहलाता है और वाणीद्वारा अतिथिके गौरवका जो प्रकाशन किया जाता है, उसे ‘अतिवाद’ कहते हैं। मुझे यहाँ अतिच्छन्द और अतिवाद दोनों प्राप्त हुए हैं, इसीलिये मेरा यह विस्मय एवं हर्षोल्लास प्रकट हुआ है। (दान और आतिथ्य आदिका महत्त्व वेदोंके द्वारा प्रतिपादित हुआ है।) वेदोंका वचन कभी मिथ्या नहीं हो सकता। भला, वेद क्यों असत्य कहेगा?॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रीण्येव तु पदान्याहुः पुरुषस्योत्तमं व्रतम्।
न द्रुह्येच्चैव दद्याच्च सत्यं चैव परं वदेत् ॥ १० ॥
मूलम्
त्रीण्येव तु पदान्याहुः पुरुषस्योत्तमं व्रतम्।
न द्रुह्येच्चैव दद्याच्च सत्यं चैव परं वदेत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेद मनुष्यके लिये तीन बातोंको उत्तम व्रत बताते हैं—(१) किसीके प्रति द्रोह न करे, (२) दान दे तथा (३) दूसरोंसे सदा सत्य बोले॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति वेदोक्तमृषिभिः पुरस्तात् परिकल्पितम्।
इदानीं चैव नः कृत्यं पुरस्ताच्च परिश्रुतम् ॥ ११ ॥
मूलम्
इति वेदोक्तमृषिभिः पुरस्तात् परिकल्पितम्।
इदानीं चैव नः कृत्यं पुरस्ताच्च परिश्रुतम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदके इस कथनका सबसे पहले ऋषियोंने पालन किया। हमने भी बहुत पहलेसे इसे सुन रखा है और इस समय भी वेदकी इस आज्ञाका पालन करना हमारा कर्तव्य है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अल्पोऽपि तादृशो दायो भवत्युत महाफलः।
तृषिताय च ते दत्तं हृदयेनानसूयता ॥ १२ ॥
मूलम्
अल्पोऽपि तादृशो दायो भवत्युत महाफलः।
तृषिताय च ते दत्तं हृदयेनानसूयता ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शास्त्रविधिके अनुसार दिया हुआ थोड़ा-सा भी दान महान् फल देनेवाला होता है। तुमने ईर्ष्या-रहित हृदयसे भूखे-प्यासे अतिथिको अन्न-जलका दान किया है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तृषितस्तृषिताय त्वं दत्त्वैतद् दर्शनं मम।
अजैषीर्महतो लोकान् महायज्ञैरिव प्रभो ॥ १३ ॥
मूलम्
तृषितस्तृषिताय त्वं दत्त्वैतद् दर्शनं मम।
अजैषीर्महतो लोकान् महायज्ञैरिव प्रभो ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! मैं भूखा और प्यासा था। तुमने मुझ भूखे-प्यासेको अन्न-जल देकर तृप्त किया। इस पुण्यके प्रभावसे महान् यज्ञोंद्वारा प्राप्त होनेवाले बड़े-बड़े लोकोंपर तुमने विजय पायी है—यह मुझे प्रत्यक्ष दिखायी देता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दानपवित्रेण प्रीतोऽस्मि तपसैव च।
पुण्यस्यैव हि ते सत्त्वं पुण्यस्यैव च दर्शनम् ॥ १४ ॥
मूलम्
ततो दानपवित्रेण प्रीतोऽस्मि तपसैव च।
पुण्यस्यैव हि ते सत्त्वं पुण्यस्यैव च दर्शनम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस दानके द्वारा पवित्र हुई तुम्हारी तपस्यासे मैं बहुत संतुष्ट हुआ हूँ। तुम्हारा बल पुण्यका ही बल है और तुम्हारा दर्शन भी पुण्यका ही दर्शन है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्यस्यैवाभिगन्धस्ते मन्ये कर्मविधानजम् ।
अधिकं मार्जनात् तात तथा चैवानुलेपनात् ॥ १५ ॥
मूलम्
पुण्यस्यैवाभिगन्धस्ते मन्ये कर्मविधानजम् ।
अधिकं मार्जनात् तात तथा चैवानुलेपनात् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे शरीरसे जो सदा पुण्यकी ही सुगन्ध फैलती रहती है, इसे मैं इस दानरूप पुण्यकर्मके अनुष्ठानका फल मानता हूँ। तात! दान करना तीर्थ-स्नान तथा वैदिक व्रतकी पूर्तिसे भी बढ़कर है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुभं सर्वपवित्रेभ्यो दानमेव परं द्विज।
नो चेत् सर्वपवित्रेभ्यो दानमेव परं भवेत् ॥ १६ ॥
मूलम्
शुभं सर्वपवित्रेभ्यो दानमेव परं द्विज।
नो चेत् सर्वपवित्रेभ्यो दानमेव परं भवेत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! जितने पवित्र कर्म हैं, उन सबमें दान ही सबसे बढ़कर पवित्र एवं कल्याणकारी है। यदि दान ही समस्त पवित्र वस्तुओंसे श्रेष्ठ न होता तो वेद-शास्त्रोंमें उसकी इतनी प्रशंसा नहीं की जाती॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानीमान्युत्तमानीह वेदोक्तानि प्रशंससि ।
तेषां श्रेष्ठतरं दानमिति मे नात्र संशयः ॥ १७ ॥
मूलम्
यानीमान्युत्तमानीह वेदोक्तानि प्रशंससि ।
तेषां श्रेष्ठतरं दानमिति मे नात्र संशयः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम जिन-जिन वेदोक्त उत्तम कर्मोंकी यहाँ प्रशंसा करते हो, उन सबमें दान ही श्रेष्ठतर है, इस विषयमें मुझे संशय नहीं है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दानकृद्भिः कृतः पन्था येन यान्ति मनीषिणः।
ते हि प्राणस्य दातारस्तेषु धर्मः प्रतिष्ठितः ॥ १८ ॥
मूलम्
दानकृद्भिः कृतः पन्था येन यान्ति मनीषिणः।
ते हि प्राणस्य दातारस्तेषु धर्मः प्रतिष्ठितः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दाताओंने जो मार्ग बना दिया है, उसीसे मनीषी पुरुष चलते हैं। दान करनेवाले प्राणदाता समझे जाते हैं। उन्हींमें धर्म प्रतिष्ठित है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वेदाः स्वधीताश्च यथा चेन्द्रियसंयमः।
सर्वत्यागो यथा चेह तथा दानमनुत्तमम् ॥ १९ ॥
मूलम्
यथा वेदाः स्वधीताश्च यथा चेन्द्रियसंयमः।
सर्वत्यागो यथा चेह तथा दानमनुत्तमम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वेदोंका स्वाध्याय, इन्द्रियोंका संयम और सर्वस्वका त्याग उत्तम है, उसी प्रकार इस संसारमें दान भी अत्यन्त उत्तम माना गया है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं हि तात महाबुद्धे सुखमेष्यसि शोभनम्।
सुखात् सुखतरप्राप्तिमाप्नुते मतिमान्नरः ॥ २० ॥
मूलम्
त्वं हि तात महाबुद्धे सुखमेष्यसि शोभनम्।
सुखात् सुखतरप्राप्तिमाप्नुते मतिमान्नरः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! महाबुद्धे! तुमको इस दानके कारण उत्तम सुखकी प्राप्ति होगी। बुद्धिमान् मनुष्य दान करके उत्तरोत्तर सुख प्राप्त करता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्नः प्रत्यक्षमेवेदमुपलभ्यमसंशयम् ।
श्रीमन्तः प्राप्नुवन्त्यर्थान् दानं यज्ञं तथा सुखम् ॥ २१ ॥
मूलम्
तन्नः प्रत्यक्षमेवेदमुपलभ्यमसंशयम् ।
श्रीमन्तः प्राप्नुवन्त्यर्थान् दानं यज्ञं तथा सुखम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह बात हमलोगोंके सामने प्रत्यक्ष है। हमें निःसंदेह ऐसा ही समझना चाहिये। तुम-जैसे श्रीसम्पन्न पुरुष जब धन पाते हैं, तब उससे दान, यज्ञ और सुख भोग करते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखादेव परं दुःखं दुःखादप्यपरं सुखम्।
दृश्यते हि महाप्राज्ञ नियतं वै स्वभावतः ॥ २२ ॥
मूलम्
सुखादेव परं दुःखं दुःखादप्यपरं सुखम्।
दृश्यते हि महाप्राज्ञ नियतं वै स्वभावतः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाप्राज्ञ! किंतु जो लोग विषयसुखोंमें आसक्त हैं, वे सुखसे ही महान् दुःखमें पड़ते हैं और जो तपस्या आदिके द्वारा दुःख उठाते हैं, उन्हें दुःखसे ही सुखकी प्राप्ति होती देखी जाती है। सुख और दुःख मनुष्यके स्वभावके अनुसार नियत हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिविधानीह वृत्तानि नरस्याहुर्मनीषिणः ।
पुण्यमन्यत् पापमन्यन्न पुण्यं न च पापकम् ॥ २३ ॥
मूलम्
त्रिविधानीह वृत्तानि नरस्याहुर्मनीषिणः ।
पुण्यमन्यत् पापमन्यन्न पुण्यं न च पापकम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जगत्में मनीषी पुरुषोंने मनुष्यके तीन प्रकारके आचरण बतलाये हैं—पुण्यमय, पापमय तथा पुण्य-पाप दोनोंसे रहित॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वृत्तं मन्यते तस्य मन्यते न च पातकम्।
तथा स्वकर्मनिर्वृत्तं न पुण्यं न च पापकम् ॥ २४ ॥
मूलम्
न वृत्तं मन्यते तस्य मन्यते न च पातकम्।
तथा स्वकर्मनिर्वृत्तं न पुण्यं न च पापकम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मनिष्ठ पुरुष कर्तापनके अभिमानसे रहित होता है। अतः उसके किये हुए कर्मको न पुण्य माना जाता है न पाप। उसे अपने कर्मजनित पुण्य और पापकी प्राप्ति होती ही नहीं है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञदानतपःशीला नरा वै पुण्यकर्मिणः।
येऽभिद्रुह्यन्ति भूतानि ते वै पापकृतो जनाः ॥ २५ ॥
मूलम्
यज्ञदानतपःशीला नरा वै पुण्यकर्मिणः।
येऽभिद्रुह्यन्ति भूतानि ते वै पापकृतो जनाः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो यज्ञ, दान और तपस्यामें प्रवीण रहते हैं, वे ही मनुष्य पुण्य कर्म करनेवाले हैं तथा जो प्राणियोंसे द्रोह करते हैं, वे ही पापाचारी समझे जाते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रव्याण्याददते चैव दुःखं यान्ति पतन्ति च।
ततोऽन्यत् कर्म यत्किंचिन्न पुण्यं न च पातकम् ॥ २६ ॥
मूलम्
द्रव्याण्याददते चैव दुःखं यान्ति पतन्ति च।
ततोऽन्यत् कर्म यत्किंचिन्न पुण्यं न च पातकम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य दूसरोंके धन चुराते हैं, वे दुःख पाते और नरकमें पड़ते हैं। इन उपर्युक्त शुभाशुभ कर्मोंसे भिन्न जो साधारण चेष्टा है, वह न तो पुण्य है और न तो पाप ही है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रमस्वैधस्व मोदस्व देहि चैव यजस्व च।
न त्वामभिभविष्यन्ति वैद्या न च तपस्विनः ॥ २७ ॥
मूलम्
रमस्वैधस्व मोदस्व देहि चैव यजस्व च।
न त्वामभिभविष्यन्ति वैद्या न च तपस्विनः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षे! तुम आनन्दपूर्वक स्वधर्म-पालनमें रत रहो, तुम्हारी निरन्तर उन्नति हो, तुम प्रसन्न रहो, दान दो और यज्ञ करो। विद्वान् और तपस्वी तुम्हारा पराभव नहीं कर सकेंगे॥२७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि मैत्रेयभिक्षायां विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें मैत्रेयकी भिक्षाविषयक एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२०॥
-
आदरणीय पुरुषके चरणोंको हाथसे पकड़कर जो नमस्कार किया जाता है, उसे अभिवादन कहते हैं और दोनों हाथोंकी अंजलि बाँधकर उसे अपने ललाटसे लगाकर जो वन्दनीय पुरुषको मस्तक झुकाया जाता है उसका नाम प्रणाम है। ↩︎