भागसूचना
एकोनविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कीड़ेका ब्राह्मणयोनिमें जन्म लेकर ब्रह्मलोकमें जाकर सनातनब्रह्मको प्राप्त करना
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रधर्ममनुप्राप्तः स्मरन्नेव च वीर्यवान्।
त्यक्त्वा स कीटतां राजंश्चचार विपुलं तपः ॥ १ ॥
मूलम्
क्षत्रधर्ममनुप्राप्तः स्मरन्नेव च वीर्यवान्।
त्यक्त्वा स कीटतां राजंश्चचार विपुलं तपः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजा युधिष्ठिर! इस प्रकार कीटयोनिका त्याग करके अपने पूर्वजन्मका स्मरण करनेवाला वह जीव अब क्षत्रिय-धर्मको प्राप्त हो विशेष शक्तिशाली हो गया और बड़ी भारी तपस्या करने लगा॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य धर्मार्थविदुषो दृष्ट्वा तद् विपुलं तपः।
आजगाम द्विजश्रेष्ठः कृष्णद्वैपायनस्तदा ॥ २ ॥
मूलम्
तस्य धर्मार्थविदुषो दृष्ट्वा तद् विपुलं तपः।
आजगाम द्विजश्रेष्ठः कृष्णद्वैपायनस्तदा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले उस राजकुमारकी उग्र तपस्या देखकर विप्रवर श्रीकृष्ण-द्वैपायन व्यासजी उसके पास आये॥२॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षात्रं देवव्रतं कीट भूतानां परिपालनम्।
क्षात्रं देवव्रतं ध्यायंस्ततो विप्रत्वमेष्यसि ॥ ३ ॥
मूलम्
क्षात्रं देवव्रतं कीट भूतानां परिपालनम्।
क्षात्रं देवव्रतं ध्यायंस्ततो विप्रत्वमेष्यसि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— पूर्वजन्मके कीट! प्राणियोंकी रक्षा करना देवताओंका व्रत है और यही क्षात्रधर्म है। इसका चिंतन और पालन करके तुम अगले जन्ममें ब्राह्मण हो जाओगे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाहि सर्वाः प्रजाः सम्यक् शुभाशुभविदात्मवान्।
शुभैः संविभजन् कामैरशुभानां च पावनैः ॥ ४ ॥
आत्मवान् भव सुप्रीतः स्वधर्माचरणे रतः।
क्षात्रीं तनुं समुत्सृज्य ततो विप्रत्वमेष्यसि ॥ ५ ॥
मूलम्
पाहि सर्वाः प्रजाः सम्यक् शुभाशुभविदात्मवान्।
शुभैः संविभजन् कामैरशुभानां च पावनैः ॥ ४ ॥
आत्मवान् भव सुप्रीतः स्वधर्माचरणे रतः।
क्षात्रीं तनुं समुत्सृज्य ततो विप्रत्वमेष्यसि ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम शुभ और अशुभका ज्ञान प्राप्त करो तथा अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें करके भलीभाँति प्रजाका पालन करो। उत्तम भोगोंका दान करते हुए अशुभ दोषोंका मार्जन करके प्रजाको पावन बनाकर आत्मज्ञानी एवं सुप्रसन्न हो जाओ तथा सदा स्वधर्मके आचरणमें तत्पर रहो। तदनन्तर क्षत्रिय-शरीरका त्याग करके ब्राह्मणत्वको प्राप्त करोगे॥४-५॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽप्यरण्यमनुप्राप्य पुनरेव युधिष्ठिर ।
महर्षेर्वचनं श्रुत्वा प्रजा धर्मेण पाल्य च ॥ ६ ॥
अचिरेणैव कालेन कीटः पार्थिवसत्तम।
प्रजापालनधर्मेण प्रेत्य विप्रत्वमागतः ॥ ७ ॥
मूलम्
सोऽप्यरण्यमनुप्राप्य पुनरेव युधिष्ठिर ।
महर्षेर्वचनं श्रुत्वा प्रजा धर्मेण पाल्य च ॥ ६ ॥
अचिरेणैव कालेन कीटः पार्थिवसत्तम।
प्रजापालनधर्मेण प्रेत्य विप्रत्वमागतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिर! वह भूतपूर्व कीट महर्षि वेदव्यासका वचन सुनकर धर्मके अनुसार प्रजाका पालन करने लगा। तत्पश्चात् वह पुनः वनमें जाकर थोड़े ही समयमें परलोकवासी हो प्रजापालनरूप धर्मके प्रभावसे ब्राह्मण-कुलमें जन्म पा गया॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तं ब्राह्मणं दृष्ट्वा पुनरेव महायशाः।
आजगाम महाप्राज्ञः कृष्णद्वैपायनस्तदा ॥ ८ ॥
मूलम्
ततस्तं ब्राह्मणं दृष्ट्वा पुनरेव महायशाः।
आजगाम महाप्राज्ञः कृष्णद्वैपायनस्तदा ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे ब्राह्मण हुआ जान महायशस्वी महाज्ञानी श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास पुनः उसके पास आये॥८॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो भो ब्रह्मर्षभ श्रीमन् मा व्यथिष्ठाः कथंचन।
शुभकृच्छुभयोनीषु पापकृत् पापयोनिषु ॥ ९ ॥
मूलम्
भो भो ब्रह्मर्षभ श्रीमन् मा व्यथिष्ठाः कथंचन।
शुभकृच्छुभयोनीषु पापकृत् पापयोनिषु ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— ब्राह्मणशिरोमणे! अब तुम्हें किसी प्रकार व्यथित नहीं होना चाहिये। उत्तम कर्म करनेवाला उत्तम योनियोंमें और पाप करनेवाला पाप-योनियोंमें जन्म लेता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपपद्यति धर्मज्ञ यथापापफलोपगम् ।
तस्मान्मृत्युभयात् कीट मा व्यथिष्ठाः कथंचन ॥ १० ॥
धर्मलोपभयं ते स्यात् तस्माद् धर्मं चरोत्तमम्।
मूलम्
उपपद्यति धर्मज्ञ यथापापफलोपगम् ।
तस्मान्मृत्युभयात् कीट मा व्यथिष्ठाः कथंचन ॥ १० ॥
धर्मलोपभयं ते स्यात् तस्माद् धर्मं चरोत्तमम्।
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञ! मनुष्य जैसा पाप करता है, उसके अनुसार ही उसे फल भोगना पड़ता है। अतः भूतपूर्व कीट! अब तुम मृत्युके भयसे किसी प्रकार व्यथित न होओ। हाँ, तुम्हें धर्मके लोपका भय अवश्य होना चाहिये, इसलिये उत्तम धर्मका आचरण करते रहो॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
कीट उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखात् सुखतरं प्राप्तो भगवंस्त्वत्कृते ह्यहम् ॥ ११ ॥
धर्ममूलां श्रियं प्राप्य पाप्मा नष्ट इहाद्य मे।
मूलम्
सुखात् सुखतरं प्राप्तो भगवंस्त्वत्कृते ह्यहम् ॥ ११ ॥
धर्ममूलां श्रियं प्राप्य पाप्मा नष्ट इहाद्य मे।
अनुवाद (हिन्दी)
भूतपूर्व कीटने कहा— भगवन्! आपके ही प्रयत्नसे मैं अधिकाधिक सुखकी अवस्थाको प्राप्त होता गया हूँ। अब इस जन्ममें धर्ममूलक सम्पत्ति पाकर मेरा सारा पाप नष्ट हो गया॥११॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवद्वचनात् कीटो ब्राह्मण्यं प्राप्य दुर्लभम् ॥ १२ ॥
अकरोत् पृथिवीं राजन् यज्ञयूपशताङ्किताम्।
ततः सालोक्यमगमद् ब्रह्मणो ब्रह्मवित्तमः ॥ १३ ॥
मूलम्
भगवद्वचनात् कीटो ब्राह्मण्यं प्राप्य दुर्लभम् ॥ १२ ॥
अकरोत् पृथिवीं राजन् यज्ञयूपशताङ्किताम्।
ततः सालोक्यमगमद् ब्रह्मणो ब्रह्मवित्तमः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! भगवान् व्यासके कथनानुसार उस भूतपूर्व कीटने दुर्लभ ब्राह्मणत्वको पाकर पृथ्वीको सैकड़ों यज्ञयूपोंसे अंकित कर दिया। तदनन्तर ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ होकर उसने ब्रह्मसालोक्य प्राप्त किया अर्थात् ब्रह्मलोकमें जाकर सनातन ब्रह्मको प्राप्त किया॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवाप च पदं कीटः पार्थ ब्रह्म सनातनम्।
स्वकर्मफलनिर्वृत्तं व्यासस्य वचनात् तदा ॥ १४ ॥
मूलम्
अवाप च पदं कीटः पार्थ ब्रह्म सनातनम्।
स्वकर्मफलनिर्वृत्तं व्यासस्य वचनात् तदा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! व्यासजीके कथनानुसार उसने स्वधर्मका पालन किया था। उसीका यह फल हुआ कि उस कीटने सनातन ब्रह्मपद प्राप्त कर लिया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽपि यस्मात् प्रभावेण हताः क्षत्रियपुंगवाः।
सम्प्राप्तास्ते गतिं पुण्यां तस्मान्मा शोच पुत्रक ॥ १५ ॥
मूलम्
तेऽपि यस्मात् प्रभावेण हताः क्षत्रियपुंगवाः।
सम्प्राप्तास्ते गतिं पुण्यां तस्मान्मा शोच पुत्रक ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! (क्षत्रिययोनिमें उस कीटने युद्ध करके प्राण त्याग किया था, इसलिये उसे उत्तम गतिकी प्राप्ति हुई।) इसी प्रकार जो प्रधान-प्रधान क्षत्रिय अपनी शक्तिका परिचय देते हुए इस रणभूमिमें मारे गये हैं, वे भी पुण्यमयी गतिको प्राप्त हुए हैं। अतः उसके लिये तुम शोक न करो॥१५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि कीटोपाख्याने एकोनविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें कीड़ेका उपाख्यानविषयक एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११९॥