११८ कीटोपाख्याने

भागसूचना

अष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कीड़ेका क्रमशः क्षत्रिययोनिमें जन्म लेकर व्यासजीका दर्शन करना और व्यासजीका उसे ब्राह्मण होने तथा स्वर्गसुख और अक्षय सुखकी प्राप्ति होनेका वरदान देना

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुभेन कर्मणा यद्वै तिर्यग्योनौ न मुह्यसे।
ममैव कीट तत् कर्म येन त्वं न प्रमुह्यसे॥१॥

मूलम्

शुभेन कर्मणा यद्वै तिर्यग्योनौ न मुह्यसे।
ममैव कीट तत् कर्म येन त्वं न प्रमुह्यसे॥१॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीने कहा— कीट! तुम जिस शुभकर्मके प्रभावसे तिर्यग् योनिमें जन्म लेकर भी मोहित नहीं हुए हो, वह मेरा ही कर्म है। मेरे दर्शनके प्रभावसे ही तुम्हें मोह नहीं हो रहा है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं त्वां दर्शनादेव तारयामि तपोबलात्।
तपोबलाद्धि बलवद् बलमन्यन्न विद्यते ॥ २ ॥

मूलम्

अहं त्वां दर्शनादेव तारयामि तपोबलात्।
तपोबलाद्धि बलवद् बलमन्यन्न विद्यते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अपने तपोबलसे केवल दर्शनमात्र देकर तुम्हारा उद्धार कर दूँगा; क्योंकि तपोबलसे बढ़कर दूसरा कोई श्रेष्ठ बल नहीं है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानामि पापैः स्वकृतैर्गतं त्वां कीट कीटताम्।
अवाप्स्यसि पुनर्धर्मं धर्मं तु यदि मन्यसे ॥ ३ ॥

मूलम्

जानामि पापैः स्वकृतैर्गतं त्वां कीट कीटताम्।
अवाप्स्यसि पुनर्धर्मं धर्मं तु यदि मन्यसे ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कीट! मैं जानता हूँ, अपने पूर्वकृत पापोंके कारण तुम्हें कीटयोनिमें आना पड़ा है। यदि इस समय तुम्हारी धर्मके प्रति श्रद्धा है तो तुम्हें धर्म अवश्य प्राप्त होगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्म भूमिकृतं देवा भुञ्जते तिर्यगाश्च ये।
धर्मोऽपि हि मनुष्येषु कामार्थश्च तथा गुणाः ॥ ४ ॥

मूलम्

कर्म भूमिकृतं देवा भुञ्जते तिर्यगाश्च ये।
धर्मोऽपि हि मनुष्येषु कामार्थश्च तथा गुणाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता, मनुष्य और तिर्यग् योनिमें पड़े हुए प्राणी कर्मभूमिमें किये हुए कर्मोंका ही फल भोगते हैं। अज्ञानी मनुष्यका धर्म भी कामनाको लेकर ही होता है तथा वे कामनाकी सिद्धिके लिये ही गुणोंको अपनाते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाग्बुद्धिपाणिपादैश्च व्यपेतस्य विपश्चितः ।
किं हास्यति मनुष्यस्य मन्दस्यापि हि जीवतः ॥ ५ ॥

मूलम्

वाग्बुद्धिपाणिपादैश्च व्यपेतस्य विपश्चितः ।
किं हास्यति मनुष्यस्य मन्दस्यापि हि जीवतः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य मूर्ख हो या विद्वान्, यदि वह वाणी, बुद्धि और हाथ-पैरसे रहित होकर जीवित है तो उसे कौन-सी वस्तु त्यागेगी, वह तो सभी पुरुषार्थोंसे स्वयं ही परित्यक्त है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवन् हि कुरुते पूजां विप्राग्र्यः शशिसूर्ययोः।
ब्रुवन्नपि कथां पुण्यां तत्र कीट त्वमेष्यसि ॥ ६ ॥

मूलम्

जीवन् हि कुरुते पूजां विप्राग्र्यः शशिसूर्ययोः।
ब्रुवन्नपि कथां पुण्यां तत्र कीट त्वमेष्यसि ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कीट! एक जगह एक श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते हैं। वे जीवनमें सदा सूर्य और चन्द्रमाकी पूजा किया करते हैं तथा लोगोंको पवित्र कथाएँ सुनाया करते हैं। उन्हींके यहाँ तुम (क्रमशः) पुत्ररूपसे जन्म लोगे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणभूतानि भूतानि तत्र त्वमुपभोक्ष्यसे।
तत्र तेऽहं विनेष्यामि ब्रह्म त्वं यत्र वैष्यसि ॥ ७ ॥

मूलम्

गुणभूतानि भूतानि तत्र त्वमुपभोक्ष्यसे।
तत्र तेऽहं विनेष्यामि ब्रह्म त्वं यत्र वैष्यसि ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ विषयोंको पंचभूतोंका विकार मानकर अनासक्तभावसे उपभोग करोगे। उस समय मैं तुम्हारे पास आकर ब्रह्मविद्याका उपदेश करूँगा तथा तुम जिस लोकमें जाना चाहोगे, वहीं तुम्हें पहुँचा दूँगा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तथेति प्रतिश्रुत्य कीटो वर्त्मन्यतिष्ठत।
शकटो व्रजंश्च सुमहानागतश्च यदृच्छया ॥ ८ ॥
चक्राक्रमेण भिन्नश्च कीटः प्राणान् मुमोच ह।

मूलम्

स तथेति प्रतिश्रुत्य कीटो वर्त्मन्यतिष्ठत।
शकटो व्रजंश्च सुमहानागतश्च यदृच्छया ॥ ८ ॥
चक्राक्रमेण भिन्नश्च कीटः प्राणान् मुमोच ह।

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीके इस प्रकार कहनेपर उस कीड़ेने बहुत अच्छा कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली और बीच रास्तेमें जाकर वह ठहर गया। इतनेहीमें वह विशाल छकड़ा अकस्मात् वहाँ आ पहुँचा और उसके पहियेसे दबकर चूर-चूर हो कीड़ेने प्राण त्याग दिये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्भूतः क्षत्रियकुले प्रसादादमितौजसः ॥ ९ ॥
तमृषिं द्रष्टुमगमत् सर्वास्वन्यासु योनिषु।
श्वाविद्गोधावराहाणां तथैव मृगपक्षिणाम् ॥ १० ॥
श्वपाकशूद्रवैश्यानां क्षत्रियाणां च योनिषु।

मूलम्

सम्भूतः क्षत्रियकुले प्रसादादमितौजसः ॥ ९ ॥
तमृषिं द्रष्टुमगमत् सर्वास्वन्यासु योनिषु।
श्वाविद्गोधावराहाणां तथैव मृगपक्षिणाम् ॥ १० ॥
श्वपाकशूद्रवैश्यानां क्षत्रियाणां च योनिषु।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् वह क्रमशः शाही, गोधा, सूअर, मृग, पक्षी, चाण्डाल, शूद्र और वैश्यकी योनिमें जन्म लेता हुआ क्षत्रिय-जातिमें उत्पन्न हुआ। अन्य सारी योनियोंमें भ्रमण करनेके बाद अमित तेजस्वी व्यासजीकी कृपासे क्षत्रियकुलमें उत्पन्न होकर वह उन महर्षिका दर्शन करनेके लिये उनके पास गया॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कीट एवमाभाष्य ऋषिणा सत्यवादिना।
प्रतिस्मृत्याथ जग्राह पादौ मूर्ध्नि कृताञ्जलिः ॥ ११ ॥

मूलम्

स कीट एवमाभाष्य ऋषिणा सत्यवादिना।
प्रतिस्मृत्याथ जग्राह पादौ मूर्ध्नि कृताञ्जलिः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह कीट-योनिमें उन सत्यवादी महर्षि वेदव्यासजीके साथ बातचीत करके जो इस प्रकार उन्नतिशील हुआ था, उसकी याद करके उस क्षत्रियने हाथ जोड़कर ऋषिके चरणोंमें अपना मस्तक रख दिया॥११॥

मूलम् (वचनम्)

कीट उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तदतुलं स्थानमीप्सितं दशभिर्गुणैः।
यदहं प्राप्य कीटत्वमागतो राजपुत्रताम् ॥ १२ ॥

मूलम्

इदं तदतुलं स्थानमीप्सितं दशभिर्गुणैः।
यदहं प्राप्य कीटत्वमागतो राजपुत्रताम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कीट (क्षत्रिय) ने कहा— भगवन्! आज मुझे वह स्थान मिला है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। इसे मैं दस जन्मोंसे पाना चाहता था। यह आपहीकी कृपा है कि मैं अपने दोषसे कीड़ा होकर भी आज राजकुमार हो गया हूँ॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वहन्ति मामतिबलाः कुञ्जरा हेममालिनः।
स्यन्दनेषु च काम्बोजा युक्ताः परमवाजिनः ॥ १३ ॥

मूलम्

वहन्ति मामतिबलाः कुञ्जरा हेममालिनः।
स्यन्दनेषु च काम्बोजा युक्ताः परमवाजिनः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब सोनेकी मालाओंसे सुशोभित अत्यन्त बलवान् गजराज मेरी सवारीमें रहते हैं। उत्तम जातिके काबुली घोड़े मेरे रथोंमें जोते जाते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उष्ट्राश्वतरयुक्तानि यानानि च वहन्ति माम्।
सबान्धवः सहामात्यश्चाश्नामि पिशितौदनम् ॥ १४ ॥

मूलम्

उष्ट्राश्वतरयुक्तानि यानानि च वहन्ति माम्।
सबान्धवः सहामात्यश्चाश्नामि पिशितौदनम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऊँटों और खच्चरोंसे जुती हुई गाड़ियाँ मुझे ढोती हैं। मैं भाई-बन्धुओं और मन्त्रियोंके साथ मांस-भात खाता हूँ॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहेषु स्वनिवासेषु सुखेषु शयनेषु च।
वरार्हेषु महाभाग स्वपामि च सुपूजितः ॥ १५ ॥

मूलम्

गृहेषु स्वनिवासेषु सुखेषु शयनेषु च।
वरार्हेषु महाभाग स्वपामि च सुपूजितः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभाग! श्रेष्ठ पुरुषोंमें रहने योग्य अपने निवासभूत सुन्दर महलोंके भीतर सुखद शय्याओंपर मैं बड़े सम्मानके साथ शयन करता हूँ॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेष्वपररात्रेषु सूमागधबन्दिनः ।
स्तुवन्ति मां यथा देवा महेन्द्रं प्रियवादिनः ॥ १६ ॥

मूलम्

सर्वेष्वपररात्रेषु सूमागधबन्दिनः ।
स्तुवन्ति मां यथा देवा महेन्द्रं प्रियवादिनः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतिदिन रातके पिछले पहरोंमें सूत, मागध और वन्दीजन मेरी स्तुति करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे देवता प्रिय वचन बोलकर महेन्द्रके गुण गाते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसादात् सत्यसंधस्य भवतोऽमिततेजसः ।
यदहं कीटतां प्राप्य सम्प्राप्तो राजपुत्रताम् ॥ १७ ॥

मूलम्

प्रसादात् सत्यसंधस्य भवतोऽमिततेजसः ।
यदहं कीटतां प्राप्य सम्प्राप्तो राजपुत्रताम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सत्यप्रतिज्ञ हैं, अमित तेजस्वी हैं, आपके प्रसादसे ही आज मैं कीड़ेसे राजपूत हो गया हूँ॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्तेऽस्तु महाप्राज्ञ किं करोमि प्रशाधि माम्।
त्वत्तपोबलनिर्दिष्टमिदं ह्यधिगतं मया ॥ १८ ॥

मूलम्

नमस्तेऽस्तु महाप्राज्ञ किं करोमि प्रशाधि माम्।
त्वत्तपोबलनिर्दिष्टमिदं ह्यधिगतं मया ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाप्राज्ञ! आपको नमस्कार है, मुझे आज्ञा दीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ; आपके तपोबलसे ही मुझे राजपद प्राप्त हुआ है॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्चितोऽहं त्वया राजन् वाग्भिरद्य यदृच्छया।
अद्य ते कीटतां प्राप्य स्मृतिर्जाता जुगुप्सिता ॥ १९ ॥

मूलम्

अर्चितोऽहं त्वया राजन् वाग्भिरद्य यदृच्छया।
अद्य ते कीटतां प्राप्य स्मृतिर्जाता जुगुप्सिता ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीने कहा— राजन्! आज तुमने अपनी वाणीसे मेरा भलीभाँति स्तवन किया है। अभीतक तुम्हें अपनी कीट-योनिकी घृणित स्मृति अर्थात् मांस खानेकी वृत्ति बनी हुई है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु नाशोऽस्ति पापस्य यस्त्वयोपचितः पुरा।
शूद्रेणार्थप्रधानेन नृशंसेनाततायिना ॥ २० ॥

मूलम्

न तु नाशोऽस्ति पापस्य यस्त्वयोपचितः पुरा।
शूद्रेणार्थप्रधानेन नृशंसेनाततायिना ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने पूर्वजन्ममें अर्थपरायण, नृशंस और आततायी शूद्र होकर जो पाप संचय किया था, उसका सर्वदा नाश नहीं हुआ है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम ते दर्शनं प्राप्तं तच्च वै सुकृतं त्वया।
तिर्यग्योनौ स्म जातेन मम चाभ्यर्चनात् तथा ॥ २१ ॥
इतस्तवं राजपुत्रत्वाद् ब्राह्मण्यं समवाप्स्यसि।

मूलम्

मम ते दर्शनं प्राप्तं तच्च वै सुकृतं त्वया।
तिर्यग्योनौ स्म जातेन मम चाभ्यर्चनात् तथा ॥ २१ ॥
इतस्तवं राजपुत्रत्वाद् ब्राह्मण्यं समवाप्स्यसि।

अनुवाद (हिन्दी)

कीट-योनिमें जन्म लेकर भी जो तुमने मेरा दर्शन किया, उसी पुण्यका यह फल है कि तुम राजपूत हुए और आज जो तुमने मेरी पूजा की, इसके फलस्वरूप तुम इस क्षत्रिय-योनिके पश्चात् ब्राह्मणत्वको प्राप्त करोगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोब्राह्मणकृते प्राणान् हुत्वाऽऽत्मानं रणाजिरे ॥ २२ ॥
राजपुत्र सुखं प्राप्य क्रतूंश्चैवाप्तदक्षिणान्।
अथ मोदिष्यसे स्वर्गे ब्रह्मभूतोऽव्ययः सुखी ॥ २३ ॥

मूलम्

गोब्राह्मणकृते प्राणान् हुत्वाऽऽत्मानं रणाजिरे ॥ २२ ॥
राजपुत्र सुखं प्राप्य क्रतूंश्चैवाप्तदक्षिणान्।
अथ मोदिष्यसे स्वर्गे ब्रह्मभूतोऽव्ययः सुखी ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजकुमार! तुम नाना प्रकारके सुख भोगकर अन्तमें गौ और ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये संग्रामभूमिमें अपने प्राणोंकी आहुति दोगे। तदनन्तर ब्राह्मणरूपमें पर्याप्त दक्षिणावाले यज्ञोंका अनुष्ठान करके स्वर्गसुखका उपभोग करोगे। तत्पश्चात् अविनाशी ब्रह्मस्वरूप होकर अक्षय आनन्दका अनुभव करोगे॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिर्यग्योन्याः शूद्रतामभ्युपैति
शूद्रो वैश्यं क्षत्रियत्वं च वैश्यः।
वृत्तश्लाघी क्षत्रियो ब्राह्मणत्वं
स्वर्गं पुण्यं ब्राह्मणः साधुवृत्तः ॥ २४ ॥

मूलम्

तिर्यग्योन्याः शूद्रतामभ्युपैति
शूद्रो वैश्यं क्षत्रियत्वं च वैश्यः।
वृत्तश्लाघी क्षत्रियो ब्राह्मणत्वं
स्वर्गं पुण्यं ब्राह्मणः साधुवृत्तः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तिर्यग्-योनिमें पड़ा हुआ जीव जब ऊपरकी ओर उठता है, तब वहाँसे पहले शूद्र-भावको प्राप्त होता है। शूद्र वैश्ययोनिको, वैश्य क्षत्रिययोनिको और सदाचारसे सुशोभित क्षत्रिय ब्राह्मणयोनिको प्राप्त होता है। फिर सदाचारी ब्राह्मण पुण्यमय स्वर्गलोकको जाता है॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि कीटोपाख्याने अष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें कीड़ेका उपाख्यानविषयक एक सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११८॥