११७ कीटोपाख्याने

भागसूचना

सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शुभ कर्मसे एक कीड़ेको पूर्व-जन्मकी स्मृति होना और कीट-योनिमें भी मृत्युका भय एवं सुखकी अनुभूति बताकर कीड़ेका अपने कल्याणका उपाय पूछना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकामाश्च सकामाश्च ये हताः स्म महामृधे।
कां गतिं प्रतिपन्नास्ते तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

अकामाश्च सकामाश्च ये हताः स्म महामृधे।
कां गतिं प्रतिपन्नास्ते तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! जो योद्धा महासमरमें इच्छा या अनिच्छासे मारे गये हैं, वे किस गतिको प्राप्त हुए है? यह मुझे बताइये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःखं प्राणपरित्यागः पुरुषाणां महामृधे।
जानासि त्वं महाप्राज्ञ प्राणत्यागं सुदुष्करम् ॥ २ ॥

मूलम्

दुःखं प्राणपरित्यागः पुरुषाणां महामृधे।
जानासि त्वं महाप्राज्ञ प्राणत्यागं सुदुष्करम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाप्राज्ञ! आप तो जानते ही हैं कि महा-संग्राममें मनुष्योंके लिये प्राणोंका परित्याग करना कितना दुःखदायक होता है। प्राणोंका त्याग करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समृद्धौ वासमृद्धौ वा शुभे वा यदि वाशुभे।
कारणं तत्र मे ब्रूहि सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः॥३॥

मूलम्

समृद्धौ वासमृद्धौ वा शुभे वा यदि वाशुभे।
कारणं तत्र मे ब्रूहि सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः॥३॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राणी उन्नति या अवनति, शुभ या अशुभ किसी भी अवस्थामें मरना नहीं चाहते हैं। इसका क्या कारण है? यह मुझे बताइये; क्योंकि मेरी दृष्टिमें आप सर्वज्ञ हैं॥३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

समृद्धौ वासमृद्धौ वा शुभे वा यदि वाशुभे।
संसारेऽस्मिन् समायाताः प्राणिनः पृथिवीपते ॥ ४ ॥
निरता येन भावेन तत्र मे शृणु कारणम्।
सम्यक् चायमनुप्रश्नस्त्वयोक्तस्तु युधिष्ठिर ॥ ५ ॥

मूलम्

समृद्धौ वासमृद्धौ वा शुभे वा यदि वाशुभे।
संसारेऽस्मिन् समायाताः प्राणिनः पृथिवीपते ॥ ४ ॥
निरता येन भावेन तत्र मे शृणु कारणम्।
सम्यक् चायमनुप्रश्नस्त्वयोक्तस्तु युधिष्ठिर ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— पृथ्वीनाथ! इस संसारमें आये हुए प्राणी उन्नतिमें या अवनतिमें तथा शुभ या अशुभ अवस्थामें ही सुख मानते हैं। मरना नहीं चाहते। इसका क्या कारण है, यह बताता हूँ, सुनो। युधिष्ठिर! यह तुमने बहुत अच्छा प्रश्न उपस्थित किया है॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र ते वर्तयिष्यामि पुरावृत्तमिदं नृप।
द्वैपायनस्य संवादं कीटस्य च युधिष्ठिर ॥ ६ ॥

मूलम्

अत्र ते वर्तयिष्यामि पुरावृत्तमिदं नृप।
द्वैपायनस्य संवादं कीटस्य च युधिष्ठिर ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! युधिष्ठिर! इस विषयमें द्वैपायन व्यास और एक कीड़ेका संवादरूप जो यह प्राचीन वृत्तान्त प्रसिद्ध है, वही तुम्हें बता रहा हूँ॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मभूतश्चरन् विप्रः कृष्णद्वैपायनः पुरा।
ददर्श कीटं धावन्तं शीघ्रं शकटवर्त्मनि ॥ ७ ॥

मूलम्

ब्रह्मभूतश्चरन् विप्रः कृष्णद्वैपायनः पुरा।
ददर्श कीटं धावन्तं शीघ्रं शकटवर्त्मनि ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहलेकी बात है, ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्णद्वैपायन विप्रवर व्यासजी कहीं जा रहे थे। उन्होंने एक कीड़ेको गाड़ीकी लीकसे बड़ी तेजीके साथ भागते देखा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतिज्ञः सर्वभूतानां भाषाज्ञश्च शरीरिणाम्।
सर्वज्ञः स तदा दृष्ट्वा कीटं वचनमव्रवीत् ॥ ८ ॥

मूलम्

गतिज्ञः सर्वभूतानां भाषाज्ञश्च शरीरिणाम्।
सर्वज्ञः स तदा दृष्ट्वा कीटं वचनमव्रवीत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वज्ञ व्यासजी सम्पूर्ण प्राणियोंकी गतिके ज्ञाता तथा सभी देहधारियोंकी भाषाको समझनेवाले हैं। उन्होंने उस कीड़ेको देखकर उससे इस प्रकारकी बातचीत की॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीट संत्रस्तरूपोऽसि त्वरितश्चैव लक्ष्यसे।
क्व धावसि तदाचक्ष्व कुतस्ते भयमागतम् ॥ ९ ॥

मूलम्

कीट संत्रस्तरूपोऽसि त्वरितश्चैव लक्ष्यसे।
क्व धावसि तदाचक्ष्व कुतस्ते भयमागतम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीने पूछा— कीट! आज तुम बहुत डरे हुए और उतावले दिखायी दे रहे हो, बताओ तो सही—कहाँ भागे जा रहे हो? कहाँसे तुम्हें भय प्राप्त हुआ है?॥९॥

मूलम् (वचनम्)

कीट उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शकटस्यास्य महतो घोषं श्रुत्वा भयं मम।
आगतं वै महाबुद्धे स्वन एष हि दारुणः ॥ १० ॥

मूलम्

शकटस्यास्य महतो घोषं श्रुत्वा भयं मम।
आगतं वै महाबुद्धे स्वन एष हि दारुणः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कीड़ेने कहा— महामते! यह जो बहुत बड़ी बैलगाड़ी आ रही है, इसीकी घर्घराहट सुनकर मुझे भय हो गया है; क्योंकि उसकी यह आवाज बड़ी भयंकर है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रूयते न च मां हन्यादिति ह्यस्मादपक्रमे।
श्वसतां च शृणोम्येनं गोपुत्राणां प्रतोद्यताम् ॥ ११ ॥
वहतां सुमहाभारं संनिकर्षे स्वनं प्रभो।
नृणां च संवाहयतां श्रूयते विविधः स्वनः ॥ १२ ॥

मूलम्

श्रूयते न च मां हन्यादिति ह्यस्मादपक्रमे।
श्वसतां च शृणोम्येनं गोपुत्राणां प्रतोद्यताम् ॥ ११ ॥
वहतां सुमहाभारं संनिकर्षे स्वनं प्रभो।
नृणां च संवाहयतां श्रूयते विविधः स्वनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह आवाज जब कानोंमें पड़ती है, तब यह संदेह होता है कि कहीं गाड़ी आकर मुझे कुचल न डाले। इसीलिये यहाँसे जल्दी-जल्दी भाग रहा हूँ। यह देखिये बैलोंपर चाबुककी मार पड़ रही है और वे बहुत भारी बोझ लिये हाँफते हुए इधर आ रहे हैं। प्रभो! मुझे उनकी आवाज बहुत निकट सुनायी पड़ती है। गाड़ीपर बैठे हुए मनुष्योंके भी नाना प्रकारके शब्द कानोंमें पड़ रहे हैं॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोतुमस्मद्विधेनैष न शक्यः कीटयोनिना।
तस्मादतिक्रमाम्येष भयादस्मात् सुदारुणात् ॥ १३ ॥

मूलम्

श्रोतुमस्मद्विधेनैष न शक्यः कीटयोनिना।
तस्मादतिक्रमाम्येष भयादस्मात् सुदारुणात् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे-जैसे कीड़ेके लिये इस भयंकर शब्दको धैर्यपूर्वक सुन सकना असम्भव है। अतः इस अत्यन्त दारुण भयसे अपनी रक्षा करनेके लिये मैं यहाँसे भाग रहा हूँ॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःखं हि मृत्युर्थूतानां जीवितं च सुदुर्लभम्।
अतो भीतः पलायामि गच्छेयं ना सुखं सुखात् ॥ १४ ॥

मूलम्

दुःखं हि मृत्युर्थूतानां जीवितं च सुदुर्लभम्।
अतो भीतः पलायामि गच्छेयं ना सुखं सुखात् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राणियोंके लिये मृत्यु बड़ी दुःखदायिनी होती है। अपना जीवन सबको अत्यन्त दुर्लभ जान पड़ता है। अतः डरकर भागा जा रहा हूँ। कहीं ऐसा न हो कि मैं सुखसे दुःखमें पड़ जाऊँ॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स तु तं प्राह कुतः कीट सुखं तव।
मरणं ते सुखं मन्ये तिर्यग्योनौ तु वर्तसे ॥ १५ ॥

मूलम्

इत्युक्तः स तु तं प्राह कुतः कीट सुखं तव।
मरणं ते सुखं मन्ये तिर्यग्योनौ तु वर्तसे ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! कीड़ेके ऐसा कहनेपर व्यासजीने उससे पूछा—‘कीट! तुम्हे सुख कहाँ है?’ मेरी समझमें तो तुम्हारा मर जाना ही तुम्हारे लिये सुखकी बात है; क्योंकि तुम तिर्यक् योनि—अधम कीट-योनिमें पड़े हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दं स्पर्शं रसं गन्धं भोगांश्चोच्चावचान् बहून्।
नाभिजानासि कीट त्वं श्रेयो मरणमेव ते ॥ १६ ॥

मूलम्

शब्दं स्पर्शं रसं गन्धं भोगांश्चोच्चावचान् बहून्।
नाभिजानासि कीट त्वं श्रेयो मरणमेव ते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कीट! तुम्हें शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध तथा बहुत-से छोटे-बड़े भोगोंका अनुभव नहीं होता है। अतः तुम्हारा तो मर जाना ही अच्छा है’॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

कीट उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वत्र निरतो जीव इतश्चापि सुखं मम।
चिन्तयामि महाप्राज्ञ तस्मादिच्छामि जीवितुम् ॥ १७ ॥

मूलम्

सर्वत्र निरतो जीव इतश्चापि सुखं मम।
चिन्तयामि महाप्राज्ञ तस्मादिच्छामि जीवितुम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कीड़ेने कहा— महाप्राज्ञ! जीव सभी योनियोंमें सुखका अनुभव करते हैं। मुझे भी इस योनिमें सुख मिलता है और यही सोचकर जीवित रहना चाहता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहापि विषयः सर्वो यथादेहं प्रवर्तितः।
मानुषाः स्थैर्यजाश्चैव पृथग्भोगा विशेषतः ॥ १८ ॥

मूलम्

इहापि विषयः सर्वो यथादेहं प्रवर्तितः।
मानुषाः स्थैर्यजाश्चैव पृथग्भोगा विशेषतः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ भी इस शरीरके अनुसार सारे विषय उपलब्ध होते हैं। मनुष्यों और स्थावर प्राणियोंके भोग अलग-अलग हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमासं मनुष्यो वै शूद्रो बहुधनः प्रभो।
अब्रह्मण्यो नृशंसश्च कदर्यो वृद्धिजीवनः ॥ १९ ॥

मूलम्

अहमासं मनुष्यो वै शूद्रो बहुधनः प्रभो।
अब्रह्मण्यो नृशंसश्च कदर्यो वृद्धिजीवनः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! पहले जन्ममें मैं एक मनुष्य, उसमें भी बहुत धनी शूद्र हुआ था। ब्राह्मणोंके प्रति मेरे मनमें आदरका भाव न था। मैं कंजूस, क्रूर और व्याजखोर था॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाक्‌तीक्ष्णो निकृतिप्रज्ञो द्वेष्टा विश्वस्य सर्वशः।
मिथ्याकृतोऽपि विधिना परस्वहरणे रतः ॥ २० ॥

मूलम्

वाक्‌तीक्ष्णो निकृतिप्रज्ञो द्वेष्टा विश्वस्य सर्वशः।
मिथ्याकृतोऽपि विधिना परस्वहरणे रतः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबसे तीखे वचन बोलना, बुद्धिमानीके साथ लोगोंको ठगना और संसारके सभी लोगोंसे द्वेष रखना, यह मेरा स्वभाव हो गया था। झूठ बोलकर लोगोंको धोखा देना और दूसरोंके मालको हड़प लेनेमें संलग्न रहना—यही मेरा काम था॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भृत्यातिथिजनश्चापि गृहे पर्यशितो मया।
मात्सर्यात् स्वादुकामेन नृशंसेन बुभुक्षता ॥ २१ ॥

मूलम्

भृत्यातिथिजनश्चापि गृहे पर्यशितो मया।
मात्सर्यात् स्वादुकामेन नृशंसेन बुभुक्षता ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं इतना निर्दयी था कि केवल स्वाद लेनेकी कामनासे अकेला ही भोजनकी इच्छा रखता और ईर्ष्यावश घरपर आये हुए अतिथियों और आश्रितजनोंको भोजन कराये बिना ही भोजन कर लेता था॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवार्थं पितृयज्ञार्थमन्नं श्रद्धाऽऽहृतं मया।
न दत्तमर्थकामेन देयमन्नं पुरा किल ॥ २२ ॥

मूलम्

देवार्थं पितृयज्ञार्थमन्नं श्रद्धाऽऽहृतं मया।
न दत्तमर्थकामेन देयमन्नं पुरा किल ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वजन्ममें मैं देवताओं और पितरोंके यजनके लिये श्रद्धापूर्वक अन्न एकत्र करता; परंतु धन-संग्रहकी कामनासे उस देनेयोग्य अन्नका भी दान नहीं करता था॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुप्तं शरणमाश्रित्य भयेषु शरणागताः।
अकस्मात् ते मया त्यक्ता न त्राता अभयैषिणः ॥ २३ ॥

मूलम्

गुप्तं शरणमाश्रित्य भयेषु शरणागताः।
अकस्मात् ते मया त्यक्ता न त्राता अभयैषिणः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भयके समय अभय पानेकी इच्छासे कितने ही शरणार्थी मेरे पास आते, किन्तु मैं उन्हें शरण लेनेयोग्य सुरक्षित स्थानमें पहुँचाकर भी अकस्मात् वहाँसे निकाल देता। उनकी रक्षा नहीं करता था॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनं धान्यं प्रियान्‌ दारान् यानं वासस्तथाद्‌भुतम्।
श्रियं दृष्ट्वा मनुष्याणामसूयामि निरर्थकम् ॥ २४ ॥

मूलम्

धनं धान्यं प्रियान्‌ दारान् यानं वासस्तथाद्‌भुतम्।
श्रियं दृष्ट्वा मनुष्याणामसूयामि निरर्थकम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे मनुष्योंके पास धन-धान्य, सुन्दरी स्त्री, अच्छी-अच्छी सवारियाँ, अद्‌भुत वस्त्र और उत्तम लक्ष्मी देखकर मैं अकारण ही उनसे कुढ़ता रहता था॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईर्ष्युः परसुखं दृष्ट्वा अन्यस्य न बुभूषकः।
त्रिवर्गहन्ता चान्येषामात्मकामानुवर्तकः ॥ २५ ॥

मूलम्

ईर्ष्युः परसुखं दृष्ट्वा अन्यस्य न बुभूषकः।
त्रिवर्गहन्ता चान्येषामात्मकामानुवर्तकः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरोंका सुख देखकर मुझे ईर्ष्या होती थी, दूसरे किसीकी उन्नति हो यह मैं नहीं चाहता था, औरोंके धर्म, अर्थ और काममें बाधा डालता और अपनी ही इच्छाका अनुसरण करता था॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृशंसगुणभूयिष्ठं पुरा कर्म कृतं मया।
स्मृत्वा तदनुतप्येऽहं हित्वा प्रियमिवात्मजम् ॥ २६ ॥

मूलम्

नृशंसगुणभूयिष्ठं पुरा कर्म कृतं मया।
स्मृत्वा तदनुतप्येऽहं हित्वा प्रियमिवात्मजम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वजन्ममें प्रायः मैंने वे ही कर्म किये हैं, जिनमें निर्दयता अधिक थी। उनकी याद आनेसे मुझे उसी तरह पश्चात्ताप होता है, जैसे कोई अपने प्यारे पुत्रको त्यागकर पछताता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुभानां नाभिजानामि कृतानां कर्मणां फलम्।
माता च पूजिता वृद्धा ब्राह्मणश्चार्चितो मया ॥ २७ ॥
सकृज्जातिगुणोपेतः संगत्या गृहमागतः ।
अतिथिः पूजितो ब्रह्मंस्तेन मां नाजहात् स्मृतिः ॥ २८ ॥

मूलम्

शुभानां नाभिजानामि कृतानां कर्मणां फलम्।
माता च पूजिता वृद्धा ब्राह्मणश्चार्चितो मया ॥ २७ ॥
सकृज्जातिगुणोपेतः संगत्या गृहमागतः ।
अतिथिः पूजितो ब्रह्मंस्तेन मां नाजहात् स्मृतिः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे पहलेके अपने किये हुए शुभकर्मोंके फलका अबतक अनुभव नहीं हुआ है। पूर्वजन्ममें मैंने केवल अपनी बूढ़ी माताकी सेवा की थी तथा एक दिन किसीके साथ हो जानेसे अपने घरपर आये हुए ब्राह्मण अतिथिका जो अपने जातीय गुणोंसे सम्पन्न थे, स्वागत-सत्कार किया था। ब्रह्मन्! उसी पुण्यके प्रभावसे मुझे आजतक पूर्वजन्मकी स्मृति छोड़ न सकी है॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणा पुनरेवाहं सुखमागामि लक्षये।
तच्छ्रोतुमहमिच्छामि त्वत्तः श्रेयस्तपोधन ॥ २९ ॥

मूलम्

कर्मणा पुनरेवाहं सुखमागामि लक्षये।
तच्छ्रोतुमहमिच्छामि त्वत्तः श्रेयस्तपोधन ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपोधन! अब मैं पुनः किसी शुभकर्मके द्वारा भविष्यमें सुख पानेकी आशा रखता हूँ। वह कल्याणकारी कर्म क्या है, इसे मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि कीटोपाख्याने सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें कीटका उपाख्यानविषयक एक सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११७॥