भागसूचना
षोडशाधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
मांस न खानेसे लाभ और अहिंसाधर्मकी प्रशंसा
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमे वै मानवा लोके नृशंसा मांसगृद्धिनः।
विसृज्य विविधान् भक्ष्यान् महारक्षोगणा इव ॥ १ ॥
मूलम्
इमे वै मानवा लोके नृशंसा मांसगृद्धिनः।
विसृज्य विविधान् भक्ष्यान् महारक्षोगणा इव ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर कहते हैं— पितामह! बड़े खेदकी बात है कि संसारके ये निर्दयी मनुष्य अच्छे-अच्छे खाद्य पदार्थोंका परित्याग करके महान् राक्षसोंके समान मांसका स्वाद लेना चाहते हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपूपान् विविधाकाराञ्शाकानि विविधानि च।
खाण्डवान् रसयोगान्न तथेच्छन्ति यथाऽऽमिषम् ॥ २ ॥
मूलम्
अपूपान् विविधाकाराञ्शाकानि विविधानि च।
खाण्डवान् रसयोगान्न तथेच्छन्ति यथाऽऽमिषम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाँति-भाँतिके मालपूओं, नाना प्रकारके शाकों तथा रसीली मिठाइयोंकी भी वैसी इच्छा नहीं रखते, जैसी रुचि मांसके लिये रखते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिच्छामि गुणान् श्रोतुं मांसस्याभक्षणे प्रभो।
भक्षणे चैव ये दोषास्तांश्चैव पुरुषर्षभ ॥ ३ ॥
मूलम्
तदिच्छामि गुणान् श्रोतुं मांसस्याभक्षणे प्रभो।
भक्षणे चैव ये दोषास्तांश्चैव पुरुषर्षभ ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! पुरुषप्रवर! अतः मैं मांस न खानेसे होनेवाले लाभ और उसे खानेसे होनेवाली हानियोंको पुनः सुनना चाहता हूँ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं तत्त्वेन धर्मज्ञ यथावदिह धर्मतः।
किं च भक्ष्यमभक्ष्यं वा सर्वमेतद् वदस्व मे ॥ ४ ॥
मूलम्
सर्वं तत्त्वेन धर्मज्ञ यथावदिह धर्मतः।
किं च भक्ष्यमभक्ष्यं वा सर्वमेतद् वदस्व मे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञ पितामह! इस समय धर्मके अनुसार यथावत्रूपसे यहाँ सब बातें ठीक-ठीक बताइये। इसके सिवा यह भी कहिये कि भोजन करने योग्य क्या वस्तु है और भोजन न करने योग्य क्या वस्तु है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथैतद् यादृशं चैव गुणा ये चास्य वर्जने।
दोषा भक्षयतो येऽपि तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ५ ॥
मूलम्
यथैतद् यादृशं चैव गुणा ये चास्य वर्जने।
दोषा भक्षयतो येऽपि तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितामह! मांसका जो स्वरूप है, यह जैसा है, इसका त्याग कर देनेमें जो लाभ है और इसे खानेवाले पुरुषको जो दोष प्राप्त होते हैं—ये सब बातें मुझे बताइये॥५॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत।
विवर्जिते तु बहवो गुणाः कौरवनन्दन।
ये भवन्ति मनुष्याणां तान् मे निगदतः शृणु ॥ ६ ॥
मूलम्
एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत।
विवर्जिते तु बहवो गुणाः कौरवनन्दन।
ये भवन्ति मनुष्याणां तान् मे निगदतः शृणु ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— महाबाहो! भरतनन्दन! तुम जैसा कहते हो ठीक वैसी ही बात है। कौरवनन्दन! मांस न खानेमें बहुत-से लाभ हैं, जो वैसे मनुष्योंको सुलभ होते हैं; मैं बता रहा हूँ; सुनो॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति।
नास्ति क्षुद्रतरस्तस्मात् स नृशंसतरो नरः ॥ ७ ॥
मूलम्
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति।
नास्ति क्षुद्रतरस्तस्मात् स नृशंसतरो नरः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दूसरेके मांससे अपना मांस बढ़ाना चाहता है, उससे बढ़कर नीच और निर्दयी मनुष्य दूसरा कोई नहीं है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि प्राणात् प्रियतरं लोके किंचन विद्यते।
तस्माद् दयां नरः कुर्याद् यथाऽऽत्मनि तथा परे ॥ ८ ॥
मूलम्
न हि प्राणात् प्रियतरं लोके किंचन विद्यते।
तस्माद् दयां नरः कुर्याद् यथाऽऽत्मनि तथा परे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जगत्में अपने प्राणोंसे अधिक प्रिय दूसरी कोई वस्तु नहीं है। इसलिये मनुष्य जैसे अपने ऊपर दया चाहता है, उसी तरह दूसरोंपर भी दया करे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुक्राच्च तात सम्भूतिर्मांसस्येह न संशयः।
भक्षणे तु महान् दोषो निवृत्त्या पुण्यमुच्यते ॥ ९ ॥
मूलम्
शुक्राच्च तात सम्भूतिर्मांसस्येह न संशयः।
भक्षणे तु महान् दोषो निवृत्त्या पुण्यमुच्यते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! मांस-भक्षण करनेमें महान् दोष है; क्योंकि मांसकी उत्पत्ति वीर्यसे होती है, इसमें संशय नहीं है। अतः उससे निवृत्त होनेमें ही पुण्य बताया गया है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यतः सदृशं किंचिदिह लोके परत्र च।
यत् सर्वेष्विह भूतेषु दया कौरवनन्दन ॥ १० ॥
मूलम्
न ह्यतः सदृशं किंचिदिह लोके परत्र च।
यत् सर्वेष्विह भूतेषु दया कौरवनन्दन ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवनन्दन! इस लोक और परलोकमें इसके समान दूसरा कोई पुण्यकार्य नहीं है कि इस जगत्में समस्त प्राणियोंपर दया की जाय॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न भयं विद्यते जातु नरस्येह दयावतः।
दयावतामिमे लोकाः परे चापि तपस्विनाम् ॥ ११ ॥
मूलम्
न भयं विद्यते जातु नरस्येह दयावतः।
दयावतामिमे लोकाः परे चापि तपस्विनाम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जगत्में दयालु मनुष्यको कभी भयका सामना नहीं करना पड़ता। दयालु और तपस्वी पुरुषोंके लिये इहलोक और परलोक दोनों ही सुखद होते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसालक्षणो धर्म इति धर्मविदो विदुः।
यदहिंसात्मकं कर्म तत् कुर्यादात्मवान् नरः ॥ १२ ॥
मूलम्
अहिंसालक्षणो धर्म इति धर्मविदो विदुः।
यदहिंसात्मकं कर्म तत् कुर्यादात्मवान् नरः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञ पुरुष यह जानते हैं कि अहिंसा ही धर्मका लक्षण है। मनस्वी पुरुष वही कर्म करे, जो अहिंसात्मक हो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभयं सर्वभूतेभ्यो यो ददाति दयापरः।
अभयं तस्य भूतानि ददतीत्यनुशुश्रुम ॥ १३ ॥
मूलम्
अभयं सर्वभूतेभ्यो यो ददाति दयापरः।
अभयं तस्य भूतानि ददतीत्यनुशुश्रुम ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दयापरायण पुरुष सम्पूर्ण भूतोंको अभयदान देता है, उसे भी सब प्राणी अभयदान देते हैं। ऐसा हमने सुन रखा है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षतं च स्खलितं चैव पतितं कृष्टमाहतम्।
सर्वभूतानि रक्षन्ति समेषु विषमेषु च ॥ १४ ॥
मूलम्
क्षतं च स्खलितं चैव पतितं कृष्टमाहतम्।
सर्वभूतानि रक्षन्ति समेषु विषमेषु च ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह घायल हो, लड़खड़ाता हो, गिर पड़ा हो, पानीके बहावमें खिंचकर बहा जाता हो, आहत हो अथवा किसी भी सम-विषम अवस्थामें पड़ा हो, सब प्राणी उसकी रक्षा करते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैनं ब्यालमृगा घ्नन्ति न पिशाचा न राक्षसाः।
मुच्यते भयकालेषु मोक्षयेद् यो भये परान् ॥ १५ ॥
मूलम्
नैनं ब्यालमृगा घ्नन्ति न पिशाचा न राक्षसाः।
मुच्यते भयकालेषु मोक्षयेद् यो भये परान् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दूसरोंको भयसे छुड़ाता है, उसे न हिंसक पशु मारते हैं और न पिशाच तथा राक्षस ही उसपर प्रहार करते हैं। वह भयका अवसर आनेपर उससे मुक्त हो जाता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणदानात् परं दानं न भूतं न भविष्यति।
न ह्यात्मनः प्रियतरं किंचिदस्तीह निश्चितम् ॥ १६ ॥
मूलम्
प्राणदानात् परं दानं न भूतं न भविष्यति।
न ह्यात्मनः प्रियतरं किंचिदस्तीह निश्चितम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राणदानसे बढ़कर दूसरा कोई दान न हुआ है और न होगा। अपने आत्मासे बढ़कर प्रियतर वस्तु दूसरी कोई नहीं है। यह निश्चित बात है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिष्टं सर्वभूतानां मरणं नाम भारत।
मृत्युकाले हि भूतानां सद्यो जायति वेपथुः ॥ १७ ॥
मूलम्
अनिष्टं सर्वभूतानां मरणं नाम भारत।
मृत्युकाले हि भूतानां सद्यो जायति वेपथुः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! किसी भी प्राणीको मृत्यु अभीष्ट नहीं है; क्योंकि मृत्युकालमें सभी प्राणियोंका शरीर तुरंत काँप उठता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातिजन्मजरादुःखैर्नित्यं संसारसागरे ।
जन्तवः परिवर्तन्ते मरणादुद्विजन्ति च ॥ १८ ॥
मूलम्
जातिजन्मजरादुःखैर्नित्यं संसारसागरे ।
जन्तवः परिवर्तन्ते मरणादुद्विजन्ति च ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस संसार-समुद्रमें समस्त प्राणी सदा गर्भवास, जन्म और बुढ़ापा आदिके दुःखोंसे दुःखी होकर चारों ओर भटकते रहते हैं। साथ ही मृत्युके भयसे उद्विग्न रहा करते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गर्भवासेषु पच्यन्ते क्षाराम्लकटुकै रसैः।
मूत्रस्वेदपुरीषाणां परुषैर्भृशदारुणैः ॥ १९ ॥
मूलम्
गर्भवासेषु पच्यन्ते क्षाराम्लकटुकै रसैः।
मूत्रस्वेदपुरीषाणां परुषैर्भृशदारुणैः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गर्भमें आये हुए प्राणी मल-मूत्र और पसीनोंके बीचमें रहकर खारे, खट्टे और कड़वे आदि रसोंसे, जिनका स्पर्श अत्यन्त कठोर और दुःखदायी होता है, पकते रहते हैं, जिससे उन्हें बड़ा भारी कष्ट होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाताश्चाप्यवशास्तत्र च्छिद्यमानाः पुनः पुनः।
पाच्यमानाश्च दृश्यन्ते विवशा मांसगृद्धिनः ॥ २० ॥
मूलम्
जाताश्चाप्यवशास्तत्र च्छिद्यमानाः पुनः पुनः।
पाच्यमानाश्च दृश्यन्ते विवशा मांसगृद्धिनः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मांसलोलुप जीव जन्म लेनेपर भी परवश होते हैं। वे बार-बार शस्त्रोंसे काटे और पकाये जाते हैं। उनकी यह बेवशी प्रत्यक्ष देखी जाती है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुम्भीपाके च पच्यन्ते तां तां योनिमुपागताः।
आक्रम्य मार्यमाणाश्च भ्राम्यन्ते वै पुनः पुनः ॥ २१ ॥
मूलम्
कुम्भीपाके च पच्यन्ते तां तां योनिमुपागताः।
आक्रम्य मार्यमाणाश्च भ्राम्यन्ते वै पुनः पुनः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने पापोंके कारण कुम्भीपाक नरकमें राँधे जाते और भिन्न-भिन्न योनियोंमें जन्म लेकर गला घोंट-घोंटकर मारे जाते हैं। इस प्रकार उन्हें बारंबार संसार-चक्रमें भटकना पड़ता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नात्मनोऽस्ति प्रियतरः पृथिवीमनुसृत्य ह।
तस्मात् प्राणिषु सर्वेषु दयावानात्मवान् भवेत् ॥ २२ ॥
मूलम्
नात्मनोऽस्ति प्रियतरः पृथिवीमनुसृत्य ह।
तस्मात् प्राणिषु सर्वेषु दयावानात्मवान् भवेत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस भूमण्डलपर अपने आत्मासे बढ़कर कोई प्रिय वस्तु नहीं है। इसलिये सब प्राणियोंपर दया करे और सबको अपना आत्मा ही समझे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वमांसानि यो राजन् यावज्जीवं न भक्षयेत्।
स्वर्गे स विपुलं स्थानं प्राप्नुयान्नात्र संशयः ॥ २३ ॥
मूलम्
सर्वमांसानि यो राजन् यावज्जीवं न भक्षयेत्।
स्वर्गे स विपुलं स्थानं प्राप्नुयान्नात्र संशयः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो जीवनभर किसी भी प्राणीका मांस नहीं खाता, वह स्वर्गमें श्रेष्ठ एवं विशाल स्थान पाता है, इसमें संशय नहीं है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये भक्षयन्ति मांसानि भूतानां जीवितैषिणाम्।
भक्ष्यन्ते तेऽपि भूतैस्तैरिति मे नास्ति संशयः ॥ २४ ॥
मूलम्
ये भक्षयन्ति मांसानि भूतानां जीवितैषिणाम्।
भक्ष्यन्ते तेऽपि भूतैस्तैरिति मे नास्ति संशयः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो जीवित रहनेकी इच्छावाले प्राणियोंके मांसको खाते हैं, वे दूसरे जन्ममें उन्हीं प्राणियोंद्वारा भक्षण किये जाते हैं। इस विषयमें मुझे संशय नहीं है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां स भक्षयते यस्माद् भक्षयिष्ये तमप्यहम्।
एतन्मांसस्य मांसत्वमनुबुद्ध्यस्व भारत ॥ २५ ॥
मूलम्
मां स भक्षयते यस्माद् भक्षयिष्ये तमप्यहम्।
एतन्मांसस्य मांसत्वमनुबुद्ध्यस्व भारत ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! (जिसका वध किया जाता है, वह प्राणी कहता है—) ‘मां स भक्षयते यस्माद् भक्षयिष्ये तमप्यहम्।’ अर्थात् ‘आज मुझे वह खाता है तो कभी मैं भी उसे खाऊँगा।’ यही मांसका मांसत्व है—इसे ही मांस शब्दका तात्पर्य समझो॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घातको वध्यते नित्यं तथा वध्यति भक्षिता।
आक्रोष्टा क्रुध्यते राजंस्तथा द्वेष्यत्वमाप्नुते ॥ २६ ॥
मूलम्
घातको वध्यते नित्यं तथा वध्यति भक्षिता।
आक्रोष्टा क्रुध्यते राजंस्तथा द्वेष्यत्वमाप्नुते ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस जन्ममें जिस जीवकी हिंसा होती है, वह दूसरे जन्ममें सदा ही अपने घातकका वध करता है। फिर भक्षण करनेवालेको भी मार डालता है। जो दूसरोंकी निन्दा करता है, वह स्वयं भी दूसरोंके क्रोध और द्वेषका पात्र होता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन येन शरीरेण यद् यत् कर्म करोति यः।
तेन तेन शरीरेण तत्तत् फलमुपाश्नुते ॥ २७ ॥
मूलम्
येन येन शरीरेण यद् यत् कर्म करोति यः।
तेन तेन शरीरेण तत्तत् फलमुपाश्नुते ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो जिस-जिस शरीरसे जो-जो कर्म करता है, वह उस-उस शरीरसे भी उस-उस कर्मका फल भोगता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दमः।
अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ॥ २८ ॥
मूलम्
अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दमः।
अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है, अहिंसा परम दान है और अहिंसा परम तपस्या है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसा परमो यज्ञस्तथाहिंसा परं फलम्।
अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् ॥ २९ ॥
मूलम्
अहिंसा परमो यज्ञस्तथाहिंसा परं फलम्।
अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा परम फल है, अहिंसा परम मित्र है और अहिंसा परम सुख है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वाऽऽप्लुतम्।
सर्वदानफलं वापि नैतत्तुल्यमहिंसया ॥ ३० ॥
मूलम्
सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वाऽऽप्लुतम्।
सर्वदानफलं वापि नैतत्तुल्यमहिंसया ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण यज्ञोंमें जो दान किया जाता है, समस्त तीर्थोंमें जो गोता लगाया जाता है तथा सम्पूर्ण दानोंका जो फल है—यह सब मिलकर भी अहिंसाके बराबर नहीं हो सकता॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंस्रस्य तपोऽक्षय्यमहिंस्रो यजते सदा।
अहिंस्रः सर्वभूतानां यथा माता यथा पिता ॥ ३१ ॥
मूलम्
अहिंस्रस्य तपोऽक्षय्यमहिंस्रो यजते सदा।
अहिंस्रः सर्वभूतानां यथा माता यथा पिता ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो हिंसा नहीं करता, उसकी तपस्या अक्षय होती है। वह सदा यज्ञ करनेका फल पाता है। हिंसा न करनेवाला मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियोंके माता-पिताके समान है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् फलमहिंसाया भूयश्च कुरुपुंगव।
न हि शक्या गुणा वक्तुमपि वर्षशतैरपि ॥ ३२ ॥
मूलम्
एतत् फलमहिंसाया भूयश्च कुरुपुंगव।
न हि शक्या गुणा वक्तुमपि वर्षशतैरपि ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! यह अहिंसाका फल है। यही क्या, अहिंसाका तो इससे भी अधिक फल है। अहिंसासे होनेवाले लाभोंका सौ वर्षोंमें भी वर्णन नहीं किया जा सकता॥३२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अहिंसाफलकथने षोडशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्म पर्वमें अहिंसाके फलका वर्णनविषयक एक सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११६॥