भागसूचना
पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
मद्य और मांसके भक्षणमें महान् दोष, उनके त्यागकी महिमा एवं त्यागमें परम लाभका प्रतिपादन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसा परमो धर्म इत्युक्तं बहुशस्त्वया।
जातो नः संशयो धर्मे मांसस्य परिवर्जने।
दोषो भक्षयतः कः स्यात् कश्चाभक्षयतो गुणः ॥ १ ॥
मूलम्
अहिंसा परमो धर्म इत्युक्तं बहुशस्त्वया।
जातो नः संशयो धर्मे मांसस्य परिवर्जने।
दोषो भक्षयतः कः स्यात् कश्चाभक्षयतो गुणः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! आपने बहुत बार यह बात कही है कि अहिंसा परम धर्म है; अतः मांसके परित्यागरूप धर्मके विषयमें मुझे संदेह हो गया है। इसलिये मैं यह जानना चाहता हूँ कि मांस खानेवालेकी क्या हानि होती है और जो मांस नहीं खाता उसे कौन-सा लाभ मिलता है?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वा भक्षयतो वापि परेणोपहृतस्य वा।
हन्याद् वा यः परस्यार्थे क्रीत्वा वा भक्षयेन्नरः ॥ २ ॥
मूलम्
हत्वा भक्षयतो वापि परेणोपहृतस्य वा।
हन्याद् वा यः परस्यार्थे क्रीत्वा वा भक्षयेन्नरः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो स्वयं पशुका वध करके उसका मांस खाता है या दूसरेके दिये हुए मांसका भक्षण करता है या जो दूसरेके खानेके लिये पशुका वध करता है अथवा जो खरीदकर मांस खाता है, उसको क्या दण्ड मिलता है?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदिच्छामि तत्त्वेन कथ्यमानं त्वयानघ।
निश्चयेन चिकीर्षामि धर्ममेतं सनातनम् ॥ ३ ॥
मूलम्
एतदिच्छामि तत्त्वेन कथ्यमानं त्वयानघ।
निश्चयेन चिकीर्षामि धर्ममेतं सनातनम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप पितामह! मैं चाहता हूँ कि आप इस विषयका यथार्थरूपसे विवेचन करें। मैं निश्चितरूपसे इस सनातन धर्मके पालनकी इच्छा रखता हूँ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथमायुरवाप्नोति कथं भवति सत्त्ववान्।
कथमव्यंगतामेति लक्षण्यो जायते कथम् ॥ ४ ॥
मूलम्
कथमायुरवाप्नोति कथं भवति सत्त्ववान्।
कथमव्यंगतामेति लक्षण्यो जायते कथम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य किस प्रकार आयु प्राप्त करता है, कैसे बलवान् होता है, किस तरह उसे पूर्णांगता प्राप्त होती है और कैसे वह शुभलक्षणोंसे संयुक्त होता है?॥४॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मांसस्याभक्षणाद् राजन् यो धर्मः कुरुनन्दन।
तन्मे शृणु यथातत्त्वं यथास्य विधिरुत्तमः ॥ ५ ॥
मूलम्
मांसस्याभक्षणाद् राजन् यो धर्मः कुरुनन्दन।
तन्मे शृणु यथातत्त्वं यथास्य विधिरुत्तमः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! कुरुनन्दन! मांस न खानेसे जो धर्म होता है, उसका मुझसे यथार्थ वर्णन सुनो तथा उस धर्मकी जो उत्तम विधि है, वह भी जान लो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपमव्यंगतामायुर्बुद्धिं सत्त्वं बलं स्मृतिम्।
प्राप्तुकामैर्नरैर्हिंसा वर्जिता वै महात्मभिः ॥ ६ ॥
मूलम्
रूपमव्यंगतामायुर्बुद्धिं सत्त्वं बलं स्मृतिम्।
प्राप्तुकामैर्नरैर्हिंसा वर्जिता वै महात्मभिः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सुन्दर रूप, पूर्णांगता, पूर्ण आयु, उत्तम बुद्धि, सत्त्व, बल और स्मरणशक्ति प्राप्त करना चाहते थे, उन महात्मा पुरुषोंने हिंसाका सर्वथा त्याग कर दिया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषीणामत्र संवादो बहुशः कुरुनन्दन।
बभूव तेषां तु मतं यत् तच्छृणु युधिष्ठिर ॥ ७ ॥
मूलम्
ऋषीणामत्र संवादो बहुशः कुरुनन्दन।
बभूव तेषां तु मतं यत् तच्छृणु युधिष्ठिर ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन युधिष्ठिर! इस विषयको लेकर ऋषियोंमें अनेक बार प्रश्नोत्तर हो चुका है। अन्तमें उन सबकी रायसे जो सिद्धान्त निश्चित हुआ है, उसे बता रहा हूँ, सुनो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो यजेताश्वमेधेन मासि मासि यतव्रतः।
वर्जयेन्मधु मांसं च सममेतद् युधिष्ठिर ॥ ८ ॥
मूलम्
यो यजेताश्वमेधेन मासि मासि यतव्रतः।
वर्जयेन्मधु मांसं च सममेतद् युधिष्ठिर ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! जो पुरुष नियमपूर्वक व्रतका पालन करता हुआ प्रतिमास अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करता है तथा जो केवल मद्य और मांसका परित्याग करता है, उन दोनोंको एक-सा ही फल मिलता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्तर्षयो वालखिल्यास्तथैव च मरीचिपाः।
अमांसभक्षणं राजन् प्रशंसन्ति मनीषिणः ॥ ९ ॥
मूलम्
सप्तर्षयो वालखिल्यास्तथैव च मरीचिपाः।
अमांसभक्षणं राजन् प्रशंसन्ति मनीषिणः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सप्तर्षि, वालखिल्य तथा सूर्यकी किरणोंका पान करनेवाले अन्यान्य मनीषी महर्षि मांस न खानेकी ही प्रशंसा करते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न भक्षयति यो मांसं न च हन्यान्न घातयेत्।
तन्मित्रं सर्वभूतानां मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ १० ॥
मूलम्
न भक्षयति यो मांसं न च हन्यान्न घातयेत्।
तन्मित्रं सर्वभूतानां मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वायम्भुव मनुका कथन है कि जो मनुष्य न मांस खाता और न पशुकी हिंसा करता और न दूसरेसे ही हिंसा कराता है, वह सम्पूर्ण प्राणियोंका मित्र है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधृष्यः सर्वभूतानां विश्वास्यः सर्वजन्तुषु।
साधूनां सम्मतो नित्यं भवेन्मांसं विवर्जयन् ॥ ११ ॥
मूलम्
अधृष्यः सर्वभूतानां विश्वास्यः सर्वजन्तुषु।
साधूनां सम्मतो नित्यं भवेन्मांसं विवर्जयन् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष मांसका परित्याग कर देता है, उसका कोई भी प्राणी तिरस्कार नहीं करता है, वह सब प्राणियोंका विश्वासपात्र हो जाता है तथा श्रेष्ठ पुरुष उसका सदा सम्मान करते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति।
नारदः प्राह धर्मात्मा नियतं सोऽवसीदति ॥ १२ ॥
मूलम्
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति।
नारदः प्राह धर्मात्मा नियतं सोऽवसीदति ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मात्मा नारदजी कहते हैं—जो दूसरेके मांससे अपना मांस बढ़ाना चाहता है, वह निश्चय ही दुःख उठाता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददाति यजते चापि तपस्वी च भवत्यपि।
मधुमांसनिवृत्त्येति प्राह चैवं बृहस्पतिः ॥ १३ ॥
मूलम्
ददाति यजते चापि तपस्वी च भवत्यपि।
मधुमांसनिवृत्त्येति प्राह चैवं बृहस्पतिः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहस्पतिजीका कथन है—जो मद्य और मांस त्याग देता है, वह दान देता, यज्ञ करता और तप करता है अर्थात् उसे दान, यज्ञ और तपस्याका फल प्राप्त होता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मासि मास्यश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः।
न खादति च यो मांसं सममेतन्मतं मम ॥ १४ ॥
मूलम्
मासि मास्यश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः।
न खादति च यो मांसं सममेतन्मतं मम ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सौ वर्षोंतक प्रतिमास अश्वमेध यज्ञ करता है और जो कभी मांस नहीं खाता है—इन दोनोंका समान फल माना गया है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा यजति सत्रेण सदा दानं प्रयच्छति।
सदा तपस्वी भवति मधुमांसविवर्जनात् ॥ १५ ॥
मूलम्
सदा यजति सत्रेण सदा दानं प्रयच्छति।
सदा तपस्वी भवति मधुमांसविवर्जनात् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मद्य और मांसका परित्याग करनेसे मनुष्य सदा यज्ञ करनेवाला, सदा दान देनेवाला और सदा तप करनेवाला होता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे वेदा न तत् कुर्युः सर्वे यज्ञाश्च भारत।
यो भक्षयित्वा मांसानि पश्चादपि निवर्तते ॥ १६ ॥
मूलम्
सर्वे वेदा न तत् कुर्युः सर्वे यज्ञाश्च भारत।
यो भक्षयित्वा मांसानि पश्चादपि निवर्तते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! जो पहले मांस खाता रहा हो और पीछे उसका सर्वथा परित्याग कर दे, उसको जिस पुण्यकी प्राप्ति होती है, उसे सम्पूर्ण वेद और यज्ञ भी नहीं प्राप्त करा सकते॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुष्करं च रसज्ञाने मांसस्य परिवर्जनम्।
चर्तुं व्रतमिदं श्रेष्ठं सर्वप्राण्यभयप्रदम् ॥ १७ ॥
मूलम्
दुष्करं च रसज्ञाने मांसस्य परिवर्जनम्।
चर्तुं व्रतमिदं श्रेष्ठं सर्वप्राण्यभयप्रदम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मांसके रसका आस्वादन एवं अनुभव कर लेनेपर उसे त्यागना और समस्त प्राणियोंको अभय देनेवाले इस सर्वश्रेष्ठ अहिंसाव्रतका आचरण करना अत्यन्त कठिन हो जाता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतेषु यो विद्वान् ददात्यभयदक्षिणाम्।
दाता भवति लोके स प्राणानां नात्र संशयः ॥ १८ ॥
मूलम्
सर्वभूतेषु यो विद्वान् ददात्यभयदक्षिणाम्।
दाता भवति लोके स प्राणानां नात्र संशयः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो विद्वान् सब जीवोंको अभयदान कर देता है, वह इस संसारमें निःसंदेह प्राणदाता माना जाता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं वै परमं धर्मं प्रशंसन्ति मनीषिणः।
प्राणा यथाऽऽत्मनोऽभीष्टा भूतानामपि वै तथा ॥ १९ ॥
मूलम्
एवं वै परमं धर्मं प्रशंसन्ति मनीषिणः।
प्राणा यथाऽऽत्मनोऽभीष्टा भूतानामपि वै तथा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मनीषी पुरुष अहिंसारूप परमधर्मकी प्रशंसा करते हैं। जैसे मनुष्यको अपने प्राण प्रिय होते हैं, उसी प्रकार समस्त प्राणियोंको अपने-अपने प्राण प्रिय जान पड़ते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मौपम्येन मन्तव्यं बुद्धिमद्भिः कृतात्मभिः।
मृत्युतो भयमस्तीति विदुषां भूतिमिच्छताम् ॥ २० ॥
किं पुनर्हन्यमानानां तरसा जीवितार्थिनाम्।
अरोगाणामपापानां पापैर्मांसोपजीविभिः ॥ २१ ॥
मूलम्
आत्मौपम्येन मन्तव्यं बुद्धिमद्भिः कृतात्मभिः।
मृत्युतो भयमस्तीति विदुषां भूतिमिच्छताम् ॥ २० ॥
किं पुनर्हन्यमानानां तरसा जीवितार्थिनाम्।
अरोगाणामपापानां पापैर्मांसोपजीविभिः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः जो बुद्धिमान् और पुण्यात्मा है, उन्हें चाहिये कि सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने समान समझें। जब अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले विद्वानोंको भी मृत्युका भय बना रहता है, तब जीवित रहनेकी इच्छावाले नीरोग और निरपराध प्राणियोंको, जो मांसपर जीविका चलानेवाले पापी पुरुषोंद्वारा बलपूर्वक मारे जाते हैं, क्यों न भय प्राप्त होगा॥२०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् विद्धि महाराज मांसस्य परिवर्जनम्।
धर्मस्यायतनं श्रेष्ठं स्वर्गस्य च सुखस्य च ॥ २२ ॥
मूलम्
तस्माद् विद्धि महाराज मांसस्य परिवर्जनम्।
धर्मस्यायतनं श्रेष्ठं स्वर्गस्य च सुखस्य च ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये महाराज! तुम्हें यह विदित होना चाहिये कि मांसका परित्याग ही धर्म, स्वर्ग और सुखका सर्वोत्तम आधार है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः।
अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ॥ २३ ॥
मूलम्
अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः।
अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है और अहिंसा परम सत्य है; क्योंकि उसीसे धर्मकी प्रवृत्ति होती है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि मांसं तृणात् काष्ठादुपलाद् वापि जायते।
हत्वा जन्तुं ततो मांसं तस्माद् दोषस्तु भक्षणे ॥ २४ ॥
मूलम्
न हि मांसं तृणात् काष्ठादुपलाद् वापि जायते।
हत्वा जन्तुं ततो मांसं तस्माद् दोषस्तु भक्षणे ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तृणसे, काठसे अथवा पत्थरसे मांस नहीं पैदा होता है, वह जीवकी हत्या करनेपर ही उपलब्ध होता है; अतः उसके खानेमें महान् दोष है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वाहास्वधामृतभुजो देवाः सत्यार्जवप्रियाः ।
क्रव्यादान् राक्षसान् विद्धि जिह्मानृतपरायणान् ॥ २५ ॥
मूलम्
स्वाहास्वधामृतभुजो देवाः सत्यार्जवप्रियाः ।
क्रव्यादान् राक्षसान् विद्धि जिह्मानृतपरायणान् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग स्वाहा (देवयज्ञ) और स्वधा (पितृयज्ञ) का अनुष्ठान करके यज्ञशिष्ट अमृतका भोजन करनेवाले तथा सत्य और सरलताके प्रेमी है, वे देवता हैं, किंतु जो कुटिलता और असत्य भाषणमें प्रवृत्त होकर सदा मांसभक्षण किया करते हैं, उन्हें राक्षस समझो॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कान्तारेष्वथ घोरेषु दुर्गेषु गहनेषु च।
रात्रावहनि संध्यासु चत्वरेषु सभासु च ॥ २६ ॥
उद्यतेषु च शस्त्रेषु मृगव्यालभयेषु च।
अमांसभक्षणे राजन् भयमन्यैर्न गच्छति ॥ २७ ॥
मूलम्
कान्तारेष्वथ घोरेषु दुर्गेषु गहनेषु च।
रात्रावहनि संध्यासु चत्वरेषु सभासु च ॥ २६ ॥
उद्यतेषु च शस्त्रेषु मृगव्यालभयेषु च।
अमांसभक्षणे राजन् भयमन्यैर्न गच्छति ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो मनुष्य मांस नहीं खाता, उसे संकटपूर्ण स्थानों, भयंकर दुर्गों एवं गहन वनोंमें, रात-दिन और दोनों संध्याओंमें, चौराहोंपर तथा सभाओंमें भी दूसरोंसे भय नहीं प्राप्त होता तथा यदि अपने विरुद्ध हथियार उठाये गये हों अथवा हिंसक पशु एवं सर्पोंके भय सामने हों तो भी वह दूसरोंसे नहीं डरता है॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरण्यः सर्वभूतानां विश्वास्यः सर्वजन्तुषु।
अनुद्वेगकरो लोके न चाप्युद्विजते सदा ॥ २८ ॥
मूलम्
शरण्यः सर्वभूतानां विश्वास्यः सर्वजन्तुषु।
अनुद्वेगकरो लोके न चाप्युद्विजते सदा ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना ही नहीं, वह समस्त प्राणियोंको शरण देनेवाला और उन सबका विश्वासपात्र होता है। संसारमें न तो वह दूसरेको उद्वेगमें डालता है और न स्वयं ही कभी किसीसे उद्विग्न होता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि चेत् खादको न स्यान्न तदा घातको भवेत्।
घातकः खादकार्थाय तद् घातयति वै नरः ॥ २९ ॥
मूलम्
यदि चेत् खादको न स्यान्न तदा घातको भवेत्।
घातकः खादकार्थाय तद् घातयति वै नरः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कोई भी मांस खानेवाला न रह जाय तो पशुओंकी हिंसा करनेवाला भी कोई न रहे; क्योंकि हत्यारा मनुष्य मांस खानेवालोंके लिये ही पशुओंकी हिंसा करता है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभक्ष्यमेतदिति वै इति हिंसा निवर्तते।
खादकार्थमतो हिंसा मृगादीनां प्रवर्तते ॥ ३० ॥
मूलम्
अभक्ष्यमेतदिति वै इति हिंसा निवर्तते।
खादकार्थमतो हिंसा मृगादीनां प्रवर्तते ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मांसको अभक्ष्य समझकर सब लोग उसे खाना छोड़ दें तो पशुओंकी हत्या स्वतः ही बंद हो जाय; क्योंकि मांस खानेवालोंके लिये ही मृग आदि पशुओंकी हत्या होती है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्माद् ग्रसति चैवायुर्हिंसकानां महाद्युते।
तस्माद् विवर्जयेन्मांसं य इच्छेद् भूतिमात्मनः ॥ ३१ ॥
मूलम्
यस्माद् ग्रसति चैवायुर्हिंसकानां महाद्युते।
तस्माद् विवर्जयेन्मांसं य इच्छेद् भूतिमात्मनः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातेजस्वी नरेश! हिंसकोंकी आयुको उनका पाप ग्रस लेता है। इसलिये जो अपना कल्याण चाहता हो, वह मनुष्य मांसका सर्वथा परित्याग कर दे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रातारं नाधिगच्छन्ति रौद्राः प्राणिविहिंसकाः।
उद्वेजनीया भूतानां यथा व्यालमृगास्तथा ॥ ३२ ॥
मूलम्
त्रातारं नाधिगच्छन्ति रौद्राः प्राणिविहिंसकाः।
उद्वेजनीया भूतानां यथा व्यालमृगास्तथा ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे यहाँ हिंसक पशुओंका लोग शिकार खेलते हैं और वे पशु अपने लिये कहीं कोई रक्षक नहीं पाते, उसी प्रकार प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले भयंकर मनुष्य दूसरे जन्ममें सभी प्राणियोंके उद्वेगपात्र होते हैं और अपने लिये कोई संरक्षक नहीं पाते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोभाद् वा बुद्धिमोहाद् वा बलवीर्यार्थमेव च।
संसर्गादथ पापानामधर्मरुचिता नृणाम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
लोभाद् वा बुद्धिमोहाद् वा बलवीर्यार्थमेव च।
संसर्गादथ पापानामधर्मरुचिता नृणाम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोभसे, बुद्धिके मोहसे, बल-वीर्यकी प्राप्तिके लिये अथवा पापियोंके संसर्गमें आनेसे मनुष्योंकी अधर्ममें रुचि हो जाती है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति।
उद्विग्नवासो वसति यत्र यत्राभिजायते ॥ ३४ ॥
मूलम्
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति।
उद्विग्नवासो वसति यत्र यत्राभिजायते ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दूसरोंके मांससे अपना मांस बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ कहीं भी जन्म लेता है, चैनसे नहीं रहने पाता है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं स्वस्त्ययनं महत्।
मांसस्याभक्षणं प्राहुर्नियताः परमर्षयः ॥ ३५ ॥
मूलम्
धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं स्वस्त्ययनं महत्।
मांसस्याभक्षणं प्राहुर्नियताः परमर्षयः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नियमपरायण महर्षियोंने मांस-भक्षणके त्यागको ही धन, यश, आयु तथा स्वर्गकी प्राप्तिका प्रधान उपाय और परमकल्याणका साधन बतलाया है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं तु खलु कौन्तेय श्रुतमासीत् पुरा मया।
मार्कण्डेयस्य वदतो ये दोषा मांसभक्षणे ॥ ३६ ॥
मूलम्
इदं तु खलु कौन्तेय श्रुतमासीत् पुरा मया।
मार्कण्डेयस्य वदतो ये दोषा मांसभक्षणे ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! मांसभक्षणमें जो दोष हैं, उन्हें बतलाते हुए मार्कण्डेयजीके मुखसे मैंने पूर्वकालमें ऐसा सुन रखा है—॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो हि खादति मांसानि प्राणिनां जीवितैषिणाम्।
हतानां वा मृतानां वा यथा हन्ता तथैव सः॥३७॥
मूलम्
यो हि खादति मांसानि प्राणिनां जीवितैषिणाम्।
हतानां वा मृतानां वा यथा हन्ता तथैव सः॥३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो जीवित रहनेकी इच्छावाले प्राणियोंको मारकर अथवा उनके स्वयं मर जानेपर उनका मांस खाता है, वह न मारनेपर भी उन प्राणियोंका हत्यारा ही समझा जाता है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनेन क्रयिको हन्ति खादकश्चोपभोगतः।
घातको वधबन्धाभ्यामित्येष त्रिविधो वधः ॥ ३८ ॥
मूलम्
धनेन क्रयिको हन्ति खादकश्चोपभोगतः।
घातको वधबन्धाभ्यामित्येष त्रिविधो वधः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
खरीदनेवाला धनके द्वारा, खानेवाला उपभोगके द्वारा और घातक वध एवं बन्धनके द्वारा पशुओंकी हिंसा करता है। इस प्रकार यह तीन तरहसे प्राणियोंका वध होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अखादन्ननुमोदंश्च भावदोषेण मानवः ।
योऽनुमोदति हन्यन्तं सोऽपि दोषेण लिप्यते ॥ ३९ ॥
मूलम्
अखादन्ननुमोदंश्च भावदोषेण मानवः ।
योऽनुमोदति हन्यन्तं सोऽपि दोषेण लिप्यते ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मांसको स्वयं नहीं खाता पर खानेवालेका अनुमोदन करता है, वह मनुष्य भी भावदोषके कारण मांसभक्षणके पापका भागी होता है। इसी प्रकार जो मारनेवालेका अनुमोदन करता है, वह भी हिंसाके दोषसे लिप्त होता है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधृष्यः सर्वभूतानामायुष्मान् नीरुजः सदा।
भवत्यभक्षयन् मांसं दयावान् प्राणिनामिह ॥ ४० ॥
मूलम्
अधृष्यः सर्वभूतानामायुष्मान् नीरुजः सदा।
भवत्यभक्षयन् मांसं दयावान् प्राणिनामिह ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मनुष्य मांस नहीं खाता और इस जगत्में सब जीवोंपर दया करता है, उसका कोई भी प्राणी तिरस्कार नहीं करते और वह सदा दीर्घायु एवं नीरोग होता है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यदानैर्गोदानैर्भूमिदानैश्च सर्वशः ।
मांसस्याभक्षणे धर्मो विशिष्ट इति नः श्रुतिः ॥ ४१ ॥
मूलम्
हिरण्यदानैर्गोदानैर्भूमिदानैश्च सर्वशः ।
मांसस्याभक्षणे धर्मो विशिष्ट इति नः श्रुतिः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुवर्णदान, गोदान और भूमिदान करनेसे जो धर्म प्राप्त होता है, मांसका भक्षण न करनेसे उसकी अपेक्षा भी विशिष्ट धर्मकी प्राप्ति होती है। यह हमारे सुननेमें आया है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खादकस्य कृते जन्तून् यो हन्यात् पुरुषाधमः।
महादोषतरस्तत्र घातको न तु खादकः ॥ ४२ ॥
मूलम्
खादकस्य कृते जन्तून् यो हन्यात् पुरुषाधमः।
महादोषतरस्तत्र घातको न तु खादकः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मांस खानेवालोंके लिये पशुओंकी हत्या करता है, वह मनुष्योंमें अधम है। घातकको बहुत भारी दोष लगता है। मांस खानेवालेको उतना दोष नहीं लगता॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इज्यायज्ञश्रुतिकृतैर्यो मार्गैरबुधोऽधमः ।
हन्याज्जन्तून् मांसगृध्नुः स वै नरकभाङ्नरः ॥ ४३ ॥
मूलम्
इज्यायज्ञश्रुतिकृतैर्यो मार्गैरबुधोऽधमः ।
हन्याज्जन्तून् मांसगृध्नुः स वै नरकभाङ्नरः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मांसलोभी मूर्ख एवं अधम मनुष्य यज्ञ-याग आदि वैदिक मार्गोंके नामपर प्राणियोंकी हिंसा करता है, वह नरकगामी होता है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्षयित्वापि यो मांसं पश्चादपि निवर्तते।
तस्यापि सुमहान् धर्मो यः पापाद् विनिवर्तते ॥ ४४ ॥
मूलम्
भक्षयित्वापि यो मांसं पश्चादपि निवर्तते।
तस्यापि सुमहान् धर्मो यः पापाद् विनिवर्तते ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो पहले मांस खानेके बाद फिर उससे निवृत्त हो जाता है, उसको भी अत्यन्त महान् धर्मकी प्राप्ति होती है, क्योंकि वह पापसे निवृत्त हो गया है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहर्ता चानुमन्ता च विशस्ता क्रयविक्रयी।
संस्कर्ता चोपभोक्ता च खादकाः सर्व एव ते ॥ ४५ ॥
मूलम्
आहर्ता चानुमन्ता च विशस्ता क्रयविक्रयी।
संस्कर्ता चोपभोक्ता च खादकाः सर्व एव ते ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मनुष्य हत्याके लिये पशु लाता है, जो उसे मारनेकी अनुमति देता है, जो उसका वध करता है तथा जो खरीदता, बेचता, पकाता और खाता है, वे सब-के-सब खानेवाले ही माने जाते हैं। अर्थात् वे सब खानेवालेके समान ही पापके भागी होते हैं’॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदमन्यत्तु वक्ष्यामि प्रमाणं विधिनिर्मितम्।
पुराणमृषिभिर्जुष्टं वेदेषु परिनिष्ठितम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
इदमन्यत्तु वक्ष्यामि प्रमाणं विधिनिर्मितम्।
पुराणमृषिभिर्जुष्टं वेदेषु परिनिष्ठितम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं इस विषयमें एक दूसरा प्रमाण बता रहा हूँ, जो साक्षात् ब्रह्माजीके द्वारा प्रतिपादित, पुरातन, ऋषियोंद्वारा सेवित तथा वेदोंमें प्रतिष्ठित है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवृत्तिलक्षणो धर्मः प्रजार्थिभिरुदाहृतः ।
यथोक्तं राजशार्दूल न तु तन्मोक्षकाङ्क्षिणाम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
प्रवृत्तिलक्षणो धर्मः प्रजार्थिभिरुदाहृतः ।
यथोक्तं राजशार्दूल न तु तन्मोक्षकाङ्क्षिणाम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! प्रजार्थी पुरुषोंने प्रवृत्तिरूप धर्मका प्रतिपादन किया है, परन्तु वह मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले विरक्त पुरुषोंके लिये अभीष्ट नहीं है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य इच्छेत् पुरुषोऽत्यन्तमात्मानं निरुपद्रवम्।
स वर्जयेत मांसानि प्राणिनामिह सर्वशः ॥ ४८ ॥
मूलम्
य इच्छेत् पुरुषोऽत्यन्तमात्मानं निरुपद्रवम्।
स वर्जयेत मांसानि प्राणिनामिह सर्वशः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य अपने आपको अत्यन्त उपद्रवरहित बनाये रखना चाहता हो, वह इस जगत्में प्राणियोंके मांसका सर्वथा परित्याग कर दे॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयते हि पुरा कल्पे नृणां व्रीहिमयः पशुः।
येनायजन्त यज्वानः पुण्यलोकपरायणाः ॥ ४९ ॥
मूलम्
श्रूयते हि पुरा कल्पे नृणां व्रीहिमयः पशुः।
येनायजन्त यज्वानः पुण्यलोकपरायणाः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुना है, पूर्वकल्पमें मनुष्योंके यज्ञमें पुरोडाश आदिके रूपमें अन्नमय पशुका ही उपयोग होता था। पुण्यलोककी प्राप्तिके साधनोंमें लगे रहनेवाले याज्ञिक पुरुष उस अन्नके द्वारा ही यज्ञ करते थे॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषिभिः संशयं पृष्टो वसुश्चेदिपतिः पुरा।
अभक्ष्यमपि मांसं यः प्राह भक्ष्यमिति प्रभो ॥ ५० ॥
मूलम्
ऋषिभिः संशयं पृष्टो वसुश्चेदिपतिः पुरा।
अभक्ष्यमपि मांसं यः प्राह भक्ष्यमिति प्रभो ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! प्राचीन कालमें ऋषियोंने चेदिराज वसुसे अपना संदेह पूछा था। उस समय वसुने मांसको भी जो सर्वथा अभक्ष्य है, भक्ष्य बता दिया॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकाशादवनिं प्राप्तस्ततः स पृथिवीपतिः।
एतदेव पुनश्चोक्त्वा विवेश धरणीतलम् ॥ ५१ ॥
मूलम्
आकाशादवनिं प्राप्तस्ततः स पृथिवीपतिः।
एतदेव पुनश्चोक्त्वा विवेश धरणीतलम् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय आकाशचारी राजा वसु अनुचित निर्णय देनेके कारण आकाशसे पृथ्वीपर गिर पड़े। तदनन्तर पृथ्वीपर भी फिर यही निर्णय देनेके कारण वे पातालमें समा गये॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं तु शृणु राजेन्द्र कीर्त्यमानं मयानघ।
अभक्षणे सर्वसुखं मांसस्य मनुजाधिप ॥ ५२ ॥
मूलम्
इदं तु शृणु राजेन्द्र कीर्त्यमानं मयानघ।
अभक्षणे सर्वसुखं मांसस्य मनुजाधिप ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप राजेन्द्र! मनुजेश्वर! मेरी कही हुई यह बात भी सुनो—मांस-भक्षण न करनेसे सब प्रकारका सुख मिलता है॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु वर्षशतं पूर्णं तपस्तप्येत् सुदारुणम्।
यश्चैव वर्जयेन्मांसं सममेतन्मतं मम ॥ ५३ ॥
मूलम्
यस्तु वर्षशतं पूर्णं तपस्तप्येत् सुदारुणम्।
यश्चैव वर्जयेन्मांसं सममेतन्मतं मम ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य सौ वर्षोंतक कठोर तपस्या करता है तथा जो केवल मांसका परित्याग कर देता है—ये दोनों मेरी दृष्टिमें एक समान हैं॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौमुदे तु विशेषेण शुक्लपक्षे नराधिप।
वर्जयेन्मधुमांसानि धर्मो ह्यत्र विधीयते ॥ ५४ ॥
मूलम्
कौमुदे तु विशेषेण शुक्लपक्षे नराधिप।
वर्जयेन्मधुमांसानि धर्मो ह्यत्र विधीयते ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! विशेषतः शरद्ऋतु, शुक्लपक्षमें मद्य और मांसका सर्वथा त्याग कर दे; क्योंकि ऐसा करनेमें धर्म होता है॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुरो वार्षिकान् मासान् यो मांसं परिवर्जयेत्।
चत्वारि भद्राण्यवाप्नोति कीर्तिमायुर्यशोबलम् ॥ ५५ ॥
मूलम्
चतुरो वार्षिकान् मासान् यो मांसं परिवर्जयेत्।
चत्वारि भद्राण्यवाप्नोति कीर्तिमायुर्यशोबलम् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य वर्षाके चार महीनोंमें मांसका परित्याग कर देता है, वह चार कल्याणमयी वस्तुओं—कीर्ति, आयु, यश और बलको प्राप्त कर लेता है॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा मासमेकं वै सर्वमांसान्यभक्षयन्।
अतीत्य सर्वदुःखानि सुखं जीवेन्निरामयः ॥ ५६ ॥
मूलम्
अथवा मासमेकं वै सर्वमांसान्यभक्षयन्।
अतीत्य सर्वदुःखानि सुखं जीवेन्निरामयः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा एक महीनेतक सब प्रकारके मांसोंका त्याग करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण दुःखोंसे पार हो सुखी एवं नीरोग जीवन व्यतीत करता है॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्जयन्ति हि मांसानि मासशः पक्षशोऽपि वा।
तेषां हिंसानिवृत्तानां ब्रह्मलोको विधीयते ॥ ५७ ॥
मूलम्
वर्जयन्ति हि मांसानि मासशः पक्षशोऽपि वा।
तेषां हिंसानिवृत्तानां ब्रह्मलोको विधीयते ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो एक-एक मास अथवा एक-एक पक्षतक मांस खाना छोड़ देते हैं, हिंसासे दूर हटे हुए उन मनुष्योंको ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती है (फिर जो कभी भी मांस नहीं खाते, उनके लाभकी तो कोई सीमा ही नहीं है)॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मांसं तु कौमुदं पक्षं वर्जितं पार्थ राजभिः।
सर्वभूतात्मभूतस्थैर्विदितार्थपरावरैः ॥ ५८ ॥
नाभागेनाम्बरीषेण गयेन च महात्मना।
आयुनाथानरण्येन दिलीपरघुपूरुभिः ॥ ५९ ॥
कार्तवीर्यानिरुद्धाभ्यां नहुषेण यतातिना ।
नृगेण विष्वगश्वेन तथैव शशबिन्दुना ॥ ६० ॥
युवनाश्वेन च तथा शिबिनौशीनरेण च।
मुचुकुन्देन मान्धात्रा हरिश्चन्द्रेण वा विभो ॥ ६१ ॥
मूलम्
मांसं तु कौमुदं पक्षं वर्जितं पार्थ राजभिः।
सर्वभूतात्मभूतस्थैर्विदितार्थपरावरैः ॥ ५८ ॥
नाभागेनाम्बरीषेण गयेन च महात्मना।
आयुनाथानरण्येन दिलीपरघुपूरुभिः ॥ ५९ ॥
कार्तवीर्यानिरुद्धाभ्यां नहुषेण यतातिना ।
नृगेण विष्वगश्वेन तथैव शशबिन्दुना ॥ ६० ॥
युवनाश्वेन च तथा शिबिनौशीनरेण च।
मुचुकुन्देन मान्धात्रा हरिश्चन्द्रेण वा विभो ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! जिन राजाओंने आश्विन मासके दोनों पक्ष अथवा एक पक्षमें मांस भक्षणका निषेध किया था, वे सम्पूर्ण भूतोंके आत्मरूप हो गये थे और उन्हें परावर तत्त्वका ज्ञान हो गया था। उनके नाम इस प्रकार हैं—नाभाग, अम्बरीष, महात्मा गय, आयु, अनरण्य, दिलीप, रघु, पूरु, कार्तवीर्य, अनिरुद्ध, नहुष, ययाति, नृग, विश्वगश्व, शशविन्दु, युवनाश्व, उशीनरपुत्र शिबि, मुचुकुन्द, मान्धाता अथवा हरिश्चन्द्र॥५८—६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यं वदत मासत्यं सत्यं धर्मः सनातनः।
हरिश्चन्द्रश्चरति वै दिवि सत्येन चन्द्रवत् ॥ ६२ ॥
मूलम्
सत्यं वदत मासत्यं सत्यं धर्मः सनातनः।
हरिश्चन्द्रश्चरति वै दिवि सत्येन चन्द्रवत् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्य बोलो, असत्य न बोलो, सत्य ही सनातन धर्म है। राजा हरिश्चन्द्र सत्यके प्रभावसे आकाशमें चन्द्रमाके समान विचरते हैं॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्येनचित्रेण राजेन्द्र सोमकेन वृकेण च।
रैवते रन्तिदेवेन वसुना सृञ्जयेन च ॥ ६३ ॥
एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्र कृपेण भरतेन च।
दुष्यन्तेन करूषेण रामालर्कनरैस्तथा ॥ ६४ ॥
विरूपाश्वेन निमिना जनकेन च धीमता।
ऐलेन पृथुना चैव वीरसेनेन चैव ह ॥ ६५ ॥
इक्ष्वाकुणा शम्भुना च श्वेतेन सगरेण च।
अजेन धुन्धुना चैव तथैव च सुबाहुना ॥ ६६ ॥
हर्यश्वेन च राजेन्द्र क्षुपेण भरतेन च।
एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्र पुरा मांसं न भक्षितम् ॥ ६७ ॥
मूलम्
श्येनचित्रेण राजेन्द्र सोमकेन वृकेण च।
रैवते रन्तिदेवेन वसुना सृञ्जयेन च ॥ ६३ ॥
एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्र कृपेण भरतेन च।
दुष्यन्तेन करूषेण रामालर्कनरैस्तथा ॥ ६४ ॥
विरूपाश्वेन निमिना जनकेन च धीमता।
ऐलेन पृथुना चैव वीरसेनेन चैव ह ॥ ६५ ॥
इक्ष्वाकुणा शम्भुना च श्वेतेन सगरेण च।
अजेन धुन्धुना चैव तथैव च सुबाहुना ॥ ६६ ॥
हर्यश्वेन च राजेन्द्र क्षुपेण भरतेन च।
एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्र पुरा मांसं न भक्षितम् ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! श्येनचित्र, सोमक, वृक, रैवत, रन्तिदेव, वसु, सृंजय, अन्यान्य नरेश, कृप, भरत, दुष्यन्त, करूष, राम, अलर्क, नर, विरूपाश्व, निमि, बुद्धिमान् जनक, पुरूरवा, पृथु, वीरसेन, इक्ष्वाकु, शम्भु, श्वेतसागर, अज, धुन्धु, सुबाहु, हर्यश्व, क्षुप, भरत—इन सबने तथा अन्यान्य राजाओंने भी कभी मांस नहीं खाया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मलोके च तिष्ठन्ति ज्वलमानाः श्रियान्विताः।
उपास्यमाना गन्धर्वैः स्त्रीसहस्रसमन्विताः ॥ ६८ ॥
मूलम्
ब्रह्मलोके च तिष्ठन्ति ज्वलमानाः श्रियान्विताः।
उपास्यमाना गन्धर्वैः स्त्रीसहस्रसमन्विताः ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब नरेश अपनी कान्तिसे प्रज्वलित होते हुए वहाँ ब्रह्मलोकमें विराज रहे हैं, गन्धर्व उनकी उपासना करते हैं और सहस्रों दिव्यांगनाएँ उन्हें घेरे रहती हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेतदुत्तमं धर्ममहिंसाधर्मलक्षणम् ।
ये चरन्ति महात्मानो नाकपृष्ठे वसन्ति ते ॥ ६९ ॥
मूलम्
तदेतदुत्तमं धर्ममहिंसाधर्मलक्षणम् ।
ये चरन्ति महात्मानो नाकपृष्ठे वसन्ति ते ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः यह अहिंसारूप धर्म सब धर्मोंसे उत्तम है। जो महात्मा इसका आचरण करते हैं, वे स्वर्गलोकमें निवास करते हैं॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मधु मांसं च ये नित्यं वर्जयन्तीह धार्मिकाः।
जन्मप्रभृति मद्यं च सर्वे ते मुनयः स्मृताः ॥ ७० ॥
मूलम्
मधु मांसं च ये नित्यं वर्जयन्तीह धार्मिकाः।
जन्मप्रभृति मद्यं च सर्वे ते मुनयः स्मृताः ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो धर्मात्मा पुरुष जन्मसे ही इस जगत्में शहद, मद्य और मांसका सदाके लिये परित्याग कर देते हैं, वे सब-के-सब मुनि माने गये हैं॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमं धर्मममांसादं यश्चरेच्छ्रावयीत वा।
अपि चेत् सुदुराचारो न जातु निरयं व्रजेत् ॥ ७१ ॥
मूलम्
इमं धर्मममांसादं यश्चरेच्छ्रावयीत वा।
अपि चेत् सुदुराचारो न जातु निरयं व्रजेत् ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मांस-भक्षणके परित्यागरूप इस धर्मका आचरण करता अथवा इसे दूसरोंको सुनाता है, वह कितना ही दुराचारी क्यों न रहा हो, नरकमें नहीं पड़ता॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पठेद् वा य इदं राजन् शृणुयाद् वाप्यभीक्ष्णशः।
अमांसभक्षणविधिं पवित्रमृषिपूजितम् ॥ ७२ ॥
विमुक्तः सर्वपापेभ्यः सर्वकामैर्महीयते ।
विशिष्टतां ज्ञातिषु च लभते नात्र संशयः ॥ ७३ ॥
मूलम्
पठेद् वा य इदं राजन् शृणुयाद् वाप्यभीक्ष्णशः।
अमांसभक्षणविधिं पवित्रमृषिपूजितम् ॥ ७२ ॥
विमुक्तः सर्वपापेभ्यः सर्वकामैर्महीयते ।
विशिष्टतां ज्ञातिषु च लभते नात्र संशयः ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो ऋषियोंद्वारा सम्मानित एवं पवित्र इस मांस-भक्षणके त्यागके प्रकरणको पढ़ता अथवा बारंबार सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो सम्पूर्ण मनोवांछित भोगोंद्वारा सम्मानित होता है और अपने सजातीय बन्धुओंमें विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है॥७२-७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपन्नश्चापदो मुच्येद् बद्धो मुच्येत बन्धनात्।
मुच्येत्तथाऽऽतुरो रोगाद् दुःखान्मुच्येत दुःखितः ॥ ७४ ॥
मूलम्
आपन्नश्चापदो मुच्येद् बद्धो मुच्येत बन्धनात्।
मुच्येत्तथाऽऽतुरो रोगाद् दुःखान्मुच्येत दुःखितः ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना ही नहीं, इसके श्रवण अथवा पठनसे आपत्तिमें पड़ा हुआ आपत्तिसे, बन्धनमें बँधा हुआ बन्धनसे, रोगी रोगसे और दुःखी दुःखसे छुटकारा पा जाता है॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिर्यग्योनिं न गच्छेत रूपवांश्च भवेन्नरः।
ऋद्धिमान् वै कुरुश्रेष्ठ प्राप्नुयाच्च महद् यशः ॥ ७५ ॥
मूलम्
तिर्यग्योनिं न गच्छेत रूपवांश्च भवेन्नरः।
ऋद्धिमान् वै कुरुश्रेष्ठ प्राप्नुयाच्च महद् यशः ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! इसके प्रभावसे मनुष्य तिर्यग्योनिमें नहीं पड़ता तथा उसे सुन्दर रूप, सम्पत्ति और महान् यशकी प्राप्ति होती है॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत्ते कथितं राजन् मांसस्य परिवर्जने।
प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च विधानमृषिनिर्मितम् ॥ ७६ ॥
मूलम्
एतत्ते कथितं राजन् मांसस्य परिवर्जने।
प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च विधानमृषिनिर्मितम् ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यह मैंने तुम्हें ऋषियोंद्वारा निर्मित मांस-त्यागका विधान तथा प्रवृत्तिविषयक धर्म भी बताया है॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि मांसभक्षणनिषेधे पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें मांसभक्षणका निषेधविषयक एक सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११५॥