भागसूचना
चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
हिंसा और मांसभक्षणकी घोर निन्दा
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरो राजा शरतल्पे पितामहम्।
पुनरेव महातेजाः पप्रच्छ वदतां वरः ॥ १ ॥
मूलम्
ततो युधिष्ठिरो राजा शरतल्पे पितामहम्।
पुनरेव महातेजाः पप्रच्छ वदतां वरः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर महातेजस्वी और वक्ताओंमें श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरने बाणशय्यापर पड़े हुए पितामह भीष्मसे पुनः प्रश्न किया॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयो ब्राह्मणा देवाः प्रशंसन्ति महामते।
अहिंसालक्षणं धर्मं वेदप्रामाण्यदर्शनात् ॥ २ ॥
कर्मणा मनुजः कुर्वन् हिंसां पार्थिवसत्तम।
वाचा च मनसा चैव कथं दुःखात् प्रमुच्यते ॥ ३ ॥
मूलम्
ऋषयो ब्राह्मणा देवाः प्रशंसन्ति महामते।
अहिंसालक्षणं धर्मं वेदप्रामाण्यदर्शनात् ॥ २ ॥
कर्मणा मनुजः कुर्वन् हिंसां पार्थिवसत्तम।
वाचा च मनसा चैव कथं दुःखात् प्रमुच्यते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— महामते! देवता, ऋषि और ब्राह्मण वैदिक प्रमाणके अनुसार सदा अहिंसा-धर्मकी प्रशंसा किया करते हैं। अतः नृपश्रेष्ठ! मैं पूछता हूँ कि मन, वाणी और क्रियासे भी हिंसाका ही आचरण करनेवाला मनुष्य किस प्रकार उसके दुःखसे छुटकारा पा सकता है?॥२-३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्विधेयं निर्दिष्टा ह्यहिंसा ब्रह्मवादिभिः।
एकैकतोऽपि विभ्रष्टा न भवत्यरिसूदन ॥ ४ ॥
मूलम्
चतुर्विधेयं निर्दिष्टा ह्यहिंसा ब्रह्मवादिभिः।
एकैकतोऽपि विभ्रष्टा न भवत्यरिसूदन ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— शत्रुसूदन! ब्रह्मवादी पुरुषोंने (मनसे, वाणीसे तथा कर्मसे हिंसा न करना एवं मांस न खाना—इन) चार उपायोंसे अहिंसाधर्मका पालन बतलाया है। इनमेंसे किसी एक अंशकी भी कमी रह गयी तो अहिंसा-धर्मका पूर्णतः पालन नहीं होता॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा सर्वश्चतुष्पाद् वै त्रिभिः पादैर्न तिष्ठति।
तथैवेयं महीपाल कारणैः प्रोच्यते त्रिभिः ॥ ५ ॥
मूलम्
यथा सर्वश्चतुष्पाद् वै त्रिभिः पादैर्न तिष्ठति।
तथैवेयं महीपाल कारणैः प्रोच्यते त्रिभिः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महीपाल! जैसे चार पैरोंवाला पशु तीन पैरोंसे नहीं खड़ा रह सकता, उसी प्रकार केवल तीन ही कारणोंसे पालित हुई अहिंसा पूर्णतः अहिंसा नहीं कही जा सकती॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा नागपदेऽन्यानि पदानि पदगामिनाम्।
सर्वाण्येवापिधीयन्ते पदजातानि कौञ्जरे ॥ ६ ॥
एवं लोकेष्वहिंसा तु निर्दिष्टा धर्मतः पुरा।
मूलम्
यथा नागपदेऽन्यानि पदानि पदगामिनाम्।
सर्वाण्येवापिधीयन्ते पदजातानि कौञ्जरे ॥ ६ ॥
एवं लोकेष्वहिंसा तु निर्दिष्टा धर्मतः पुरा।
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे हाथीके पैरके चिह्नमें सभी पदगामी प्राणियोंके पदचिह्न समा जाते हैं, उसी प्रकार पूर्वकालमें इस जगत्के भीतर धर्मतः अहिंसाका निर्देश किया गया है अर्थात् अहिंसाधर्ममें सभी धर्मोंका समावेश हो जाता है। ऐसा माना गया है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणा लिप्यते जन्तुर्वाचा च मनसापि च ॥ ७ ॥
पूर्वं तु मनसा त्यक्त्वा तथा वाचाथ कर्मणा।
न भक्षयति यो मांसं त्रिविधं स विमुच्यते ॥ ८ ॥
मूलम्
कर्मणा लिप्यते जन्तुर्वाचा च मनसापि च ॥ ७ ॥
पूर्वं तु मनसा त्यक्त्वा तथा वाचाथ कर्मणा।
न भक्षयति यो मांसं त्रिविधं स विमुच्यते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीव मन, वाणी और क्रियाके द्वारा हिंसाके दोषसे लिप्त होता है, किंतु जो क्रमशः पहले मनसे, फिर वाणीसे और फिर क्रियाद्वारा हिंसाका त्याग करके कभी मांस नहीं खाता, वह पूर्वोक्त तीनों प्रकारकी हिंसाके दोषसे भी मुक्त हो जाता है॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिकारणं तु निर्दिष्टं श्रूयते ब्रह्मवादिभिः।
मनो वाचि तथाऽऽस्वादे दोषा ह्येषु प्रतिष्ठिताः ॥ ९ ॥
मूलम्
त्रिकारणं तु निर्दिष्टं श्रूयते ब्रह्मवादिभिः।
मनो वाचि तथाऽऽस्वादे दोषा ह्येषु प्रतिष्ठिताः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मवादी महात्माओंने हिंसादोषके प्रधान तीन कारण बतलाये हैं—मन (मांस खानेकी इच्छा), वाणी (मांस खानेका उपदेश) और आस्वाद (प्रत्यक्षरूपमें मांसका स्वाद लेना)। ये तीनों ही हिंसा-दोषके आधार हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न भक्षयन्त्यतो मांसं तपोयुक्ता मनीषिणः।
दोषांस्तु भक्षणे राजन् मांसस्येह निबोध मे ॥ १० ॥
मूलम्
न भक्षयन्त्यतो मांसं तपोयुक्ता मनीषिणः।
दोषांस्तु भक्षणे राजन् मांसस्येह निबोध मे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये तपस्यामें लगे हुए मनीषी पुरुष कभी मांस नहीं खाते हैं। राजन्! अब मैं मांसभक्षणमें जो दोष है, उनको यहाँ बता रहा हूँ, सुनो॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रमांसोपमं जानन् खादते योऽविचक्षणः।
मांसं मोहसमायुक्तः पुरुषः सोऽधमः स्मृतः ॥ ११ ॥
मूलम्
पुत्रमांसोपमं जानन् खादते योऽविचक्षणः।
मांसं मोहसमायुक्तः पुरुषः सोऽधमः स्मृतः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मूर्ख यह जानते हुए भी कि पुत्रके मांसमें और दूसरे साधारण मांसोंमें कोई अन्तर नहीं है, मोहवश मांस खाता है, वह नराधम है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितृमातृसमायोगे पुत्रत्वं जायते यथा।
हिंसां कृत्वावशः पापो भूयिष्ठं जायते तथा ॥ १२ ॥
मूलम्
पितृमातृसमायोगे पुत्रत्वं जायते यथा।
हिंसां कृत्वावशः पापो भूयिष्ठं जायते तथा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पिता और माताके संयोगसे पुत्रकी उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार हिंसा करनेसे पापी पुरुषको विवश होकर बारंबार पापयोनिमें जन्म लेना पड़ता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रसं च प्रतिजिह्वाया ज्ञानं प्रज्ञायते यथा।
तथा शास्त्रेषु नियतं रागो ह्यास्वादिताद् भवेत् ॥ १३ ॥
मूलम्
रसं च प्रतिजिह्वाया ज्ञानं प्रज्ञायते यथा।
तथा शास्त्रेषु नियतं रागो ह्यास्वादिताद् भवेत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे जीभसे जब रसका ज्ञान होता है, तब उसके प्रति वह आकृष्ट होने लगती है, उसी प्रकार मांसका आस्वादन करनेपर उसके प्रति आसक्ति बढ़ती है। शास्त्रोंमें भी कहा है कि विषयोंके आस्वादनसे उनके प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्कृतासंस्कृताः पक्वा लवणालवणास्तथा ।
प्रजायन्ते यथा भावास्तथा चित्तं निरुध्यते ॥ १४ ॥
मूलम्
संस्कृतासंस्कृताः पक्वा लवणालवणास्तथा ।
प्रजायन्ते यथा भावास्तथा चित्तं निरुध्यते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संस्कृत (मसाले आदि डालकर संस्कृत किया हुआ) असंस्कृत (मसाला आदिके संस्कारसे रहित), पक्व, केवल नमक मिला हुआ और अलोना—ये मांसकी जो-जो अवस्थाएँ होती हैं, उन्हीं-उन्हींमें रुचिभेदसे मांसाहारी मनुष्यका चित्त आसक्त होता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भेरीमृदंगशब्दांश्च तन्त्रीशब्दांश्च पुष्कलान् ।
निषेविष्यन्ति वै मन्दा मांसभक्षाः कथं नराः ॥ १५ ॥
मूलम्
भेरीमृदंगशब्दांश्च तन्त्रीशब्दांश्च पुष्कलान् ।
निषेविष्यन्ति वै मन्दा मांसभक्षाः कथं नराः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मांसभक्षी मूर्ख मनुष्य स्वर्गमें पूर्णतः सुलभ होनेवाले भेरी, मृदंग और वीणाके दिव्य मधुर शब्दोंका सेवन कैसे कर सकेंगे; क्योंकि वे स्वर्गमें नहीं जा सकते॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(परेषां धनधान्यानां हिंसकास्तावकास्तथा ।
प्रशंसकाश्च मांसस्य नित्यं स्वर्गे बहिष्कृताः॥)
मूलम्
(परेषां धनधान्यानां हिंसकास्तावकास्तथा ।
प्रशंसकाश्च मांसस्य नित्यं स्वर्गे बहिष्कृताः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरोंके धन-धान्यको नष्ट करनेवाले तथा मांस-भक्षणकी स्तुति-प्रशंसा करनेवाले मनुष्य सदा ही स्वर्गसे बहिष्कृत होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचिन्तितमनिर्दिष्टमसंकल्पितमेव च ।
रसगृद्ध्याभिभूता ये प्रशंसन्ति फलार्थिनः ॥ १६ ॥
मूलम्
अचिन्तितमनिर्दिष्टमसंकल्पितमेव च ।
रसगृद्ध्याभिभूता ये प्रशंसन्ति फलार्थिनः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मांसके रसमें होनेवाली आसक्तिसे अभिभूत होकर उसी अभीष्ट फल मांसकी अभिलाषा रखते हैं तथा उसके बारंबार गुण गाते हैं, उन्हें ऐसी दुर्गति प्राप्त होती है, जो कभी चिन्तनमें नहीं आयी है। जिसका वाणीद्वारा कहीं निर्देश नहीं किया गया है तथा जो कभी मनकी कल्पनामें भी नहीं आयी है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(भस्म विष्ठा कृमिर्वापि निष्ठा यस्येदृशी ध्रुवा।
स कायः परपीडाभिः कथं धार्यो विपश्चिता॥)
प्रशंसा ह्येव मांसस्य दोषकर्मफलान्विता ॥ १७ ॥
मूलम्
(भस्म विष्ठा कृमिर्वापि निष्ठा यस्येदृशी ध्रुवा।
स कायः परपीडाभिः कथं धार्यो विपश्चिता॥)
प्रशंसा ह्येव मांसस्य दोषकर्मफलान्विता ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मृत्युके पश्चात् चितापर जला देनेसे भस्म हो जाता है अथवा किसी हिंसक प्राणीका खाद्य बनकर उसकी विष्ठाके रूपमें परिणत हो जाता है, या यों ही फेंक देनेसे जिसमें कीड़े पड़ जाते हैं—इन तीनोंमेंसे यह एक-न-एक परिणाम जिसके लिये सुनिश्चित है, उस शरीरको विद्वान् पुरुष दूसरोंको पीड़ा देकर उसके मांससे कैसे पोषण कर सकता है? मांसकी प्रशंसा भी पापमय कर्मफलसे सम्बन्ध कर देती है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवितं हि परित्यज्य बहवः साधवो जनाः।
स्वमांसैः परमांसानि परिपाल्य दिवं गताः ॥ १८ ॥
मूलम्
जीवितं हि परित्यज्य बहवः साधवो जनाः।
स्वमांसैः परमांसानि परिपाल्य दिवं गताः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उशीनर शिबि आदि बहुत-से श्रेष्ठ पुरुष दूसरोंकी रक्षाके लिये अपने प्राण देकर, अपने मांससे दूसरोंके मांसकी रक्षा करके स्वर्गलोकमें गये हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेषा महाराज चतुर्भिः कारणैर्वृता।
अहिंसा तव निर्दिष्टा सर्वधर्मानुसंहिता ॥ १९ ॥
मूलम्
एवमेषा महाराज चतुर्भिः कारणैर्वृता।
अहिंसा तव निर्दिष्टा सर्वधर्मानुसंहिता ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! इस प्रकार चार उपायोंसे जिसका पालन होता है, उस अहिंसा-धर्मका तुम्हारे लिये प्रतिपादन किया गया। यह सम्पूर्ण धर्मोंमें ओतप्रोत है॥१९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि मांसवर्जनकथने चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें मांसके परित्यागका उपदेशविषयक एक सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११४॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल २१ श्लोक हैं)