भागसूचना
त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
बृहस्पतिजीका युधिष्ठिरको अहिंसा एवं धर्मकी महिमा बताकर स्वर्गलोकको प्रस्थान
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसा वैदिकं कर्म ध्यानमिन्द्रियसंयमः।
तपोऽथ गुरुशुश्रूषा किं श्रेयः पुरुषं प्रति ॥ १ ॥
मूलम्
अहिंसा वैदिकं कर्म ध्यानमिन्द्रियसंयमः।
तपोऽथ गुरुशुश्रूषा किं श्रेयः पुरुषं प्रति ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भगवन्! अहिंसा, वेदोक्त कर्म, ध्यान, इन्द्रिय-संयम, तपस्या और गुरु-शुश्रूषा—इनमेंसे कौन-सा कर्म मनुष्यका (विशेष) कल्याण कर सकता है॥
मूलम् (वचनम्)
बृहस्पतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वाण्येतानि धर्म्याणि पृथग्द्वाराणि सर्वशः।
शृणु संकीर्त्यमानानि षडेव भरतर्षभ ॥ २ ॥
मूलम्
सर्वाण्येतानि धर्म्याणि पृथग्द्वाराणि सर्वशः।
शृणु संकीर्त्यमानानि षडेव भरतर्षभ ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहस्पतिजीने कहा— भरतश्रेष्ठ! ये छः प्रकारके कर्म ही धर्मजनक हैं तथा सब-के-सब भिन्न-भिन्न कारणोंसे प्रकट हुए हैं। मैं इन छहोंका वर्णन करता हूँ; तुम सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्त निःश्रेयसं जन्तोरहं वक्ष्याम्यनुत्तमम्।
अहिंसापाश्रयं धर्मं यः साधयति वै नरः ॥ ३ ॥
त्रीन् दोषान् सर्वभूतेषु निधाय पुरुषः सदा।
कामक्रोधौ च संयम्य ततः सिद्धिमवाप्नुते ॥ ४ ॥
मूलम्
हन्त निःश्रेयसं जन्तोरहं वक्ष्याम्यनुत्तमम्।
अहिंसापाश्रयं धर्मं यः साधयति वै नरः ॥ ३ ॥
त्रीन् दोषान् सर्वभूतेषु निधाय पुरुषः सदा।
कामक्रोधौ च संयम्य ततः सिद्धिमवाप्नुते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं मनुष्यके लिये कल्याणके सर्वश्रेष्ठ उपायका वर्णन करता हूँ। जो मनुष्य अहिंसायुक्त धर्मका पालन करता है, वह मोह, मद और मत्सरतारूप तीनों दोषोंको अन्य समस्त प्राणियोंमें स्थापित करके एवं सदा काम-क्रोधका संयम करके सिद्धिको प्राप्त हो जाता है॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसकानि भूतानि दण्डेन विनिहन्ति यः।
आत्मनः सुखमन्विच्छन् स प्रेत्य न सुखी भवेत् ॥ ५ ॥
मूलम्
अहिंसकानि भूतानि दण्डेन विनिहन्ति यः।
आत्मनः सुखमन्विच्छन् स प्रेत्य न सुखी भवेत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य अपने सुखकी इच्छा रखकर अहिंसक प्राणियोंको डंडेसे मारता है, वह परलोकमें सुखी नहीं होता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मोपमस्तु भूतेषु यो वै भवति पूरुषः।
न्यस्तदण्डो जितक्रोधः स प्रेत्य सुखमेधते ॥ ६ ॥
मूलम्
आत्मोपमस्तु भूतेषु यो वै भवति पूरुषः।
न्यस्तदण्डो जितक्रोधः स प्रेत्य सुखमेधते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य सब भूतोंको अपने समान समझता, किसीपर प्रहार नहीं करता (दण्डको हमेशाके लिये त्याग देता है) और क्रोधको अपने काबूमें रखता है, वह मृत्युके पश्चात् सुख भोगता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतात्मभूतस्य सर्वभूतानि पश्यतः ।
देवाऽपि मार्गे मुह्यन्ति अपदस्य पदैषिणः ॥ ७ ॥
मूलम्
सर्वभूतात्मभूतस्य सर्वभूतानि पश्यतः ।
देवाऽपि मार्गे मुह्यन्ति अपदस्य पदैषिणः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्पूर्ण भूतोंका आत्मा है, अर्थात् सबकी आत्माको अपनी ही आत्मा समझता है तथा जो सब भूतोंको समान भावसे देखता है, उस गमनागमनसे रहित ज्ञानीकी गतिका पता लगाते समय देवता भी मोहमें पड़ जाते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तत् परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः।
एष संक्षेपतो धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते ॥ ८ ॥
मूलम्
न तत् परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः।
एष संक्षेपतो धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो बात अपनेको अच्छी न लगे, वह दूसरोंके प्रति भी नहीं करनी चाहिये। यही धर्मका संक्षिप्त लक्षण है। इससे भिन्न जो बर्ताव होता है, वह कामनामूलक है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे प्रियाप्रिये।
आत्मौपम्येन पुरुषः प्रमाणमधिगच्छति ॥ ९ ॥
मूलम्
प्रत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे प्रियाप्रिये।
आत्मौपम्येन पुरुषः प्रमाणमधिगच्छति ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माँगनेपर देने और इनकार करनेसे, सुख और दुःख पहुँचानेसे तथा प्रिय और अप्रिय करनेसे पुरुषको स्वयं जैसे हर्ष-शोकका अनुभव होता है, उसी प्रकार दूसरोंके लिये भी समझे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा परः प्रक्रमते परेषु
तथापरे प्रक्रमन्ते परस्मिन् ।
तथैव तेऽस्तूपमा जीवलोके
यथा धर्मो नैपुणेनोपदिष्टः ॥ १० ॥
मूलम्
यथा परः प्रक्रमते परेषु
तथापरे प्रक्रमन्ते परस्मिन् ।
तथैव तेऽस्तूपमा जीवलोके
यथा धर्मो नैपुणेनोपदिष्टः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे एक मनुष्य दूसरोंपर आक्रमण करता है, उसी प्रकार अवसर आनेपर दूसरे भी उसके ऊपर आक्रमण करते हैं। इसीको तुम जगत्में अपने लिये भी दृष्टान्त समझो। अतः किसीपर आक्रमण नहीं करना चाहिये। इस प्रकार यहाँ कौशलपूर्वक धर्मका उपदेश किया है॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा तं सुरगुरुर्धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
दिवमाचक्रमे धीमान् पश्यतामेव नस्तदा ॥ ११ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा तं सुरगुरुर्धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
दिवमाचक्रमे धीमान् पश्यतामेव नस्तदा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिरसे इस प्रकार कहकर परम बुद्धिमान् देवगुरु बृहस्पतिजी उस समय हमलोगोंके देखते-देखते स्वर्ग-लोकको चले गये॥११॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि संसारचक्रसमाप्तौ त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें संसारचक्रकी समाप्तिविषयक एक सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११३॥