भागसूचना
एकादशाधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
बृहस्पतिका युधिष्ठिरसे प्राणियोंके जन्मके प्रकारका और नानाविध पापोंके फलस्वरूप नरकादिकी प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियोंमें जन्म लेनेका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
श्रोतुमिच्छामि मर्त्यानां संसारविधिमुत्तमम् ॥ १ ॥
मूलम्
पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
श्रोतुमिच्छामि मर्त्यानां संसारविधिमुत्तमम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण महाप्राज्ञ पितामह! अब मैं मनुष्योंकी संसारयात्राके निर्वाहकी उत्तम विधि सुनना चाहता हूँ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन वृत्तेन राजेन्द्र वर्तमाना नरा भुवि।
प्राप्नुवन्त्युत्तमं स्वर्गं कथं च नरकं नृप ॥ २ ॥
मूलम्
केन वृत्तेन राजेन्द्र वर्तमाना नरा भुवि।
प्राप्नुवन्त्युत्तमं स्वर्गं कथं च नरकं नृप ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! पृथ्वीपर रहनेवाले मनुष्य किस बर्तावसे उत्तम स्वर्गलोक पाते हैं? और नरेश्वर! कैसा बर्ताव करनेसे वे नरकमें पड़ते हैं?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं जनाः।
प्रयान्त्यमुं लोकमितः को वै ताननुगच्छति ॥ ३ ॥
मूलम्
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं जनाः।
प्रयान्त्यमुं लोकमितः को वै ताननुगच्छति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोग अपने मृत शरीरको काठ और मिट्टीके ढेलेके समान छोड़कर जब यहाँसे परलोककी राह लेते हैं, उस समय उनके पीछे कौन जाता है?॥३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयमायाति भगवान् बृहस्पतिरुदारधीः ।
पृच्छैनं सुमहाभागमेतद् गुह्यं सनातनम् ॥ ४ ॥
मूलम्
अयमायाति भगवान् बृहस्पतिरुदारधीः ।
पृच्छैनं सुमहाभागमेतद् गुह्यं सनातनम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— वत्स! ये उदारबुद्धि भगवान् बृहस्पतिजी यहाँ पधार रहे हैं। इन्हीं महाभागसे इस सनातन गूढ़ विषयको पूछो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतदन्येन शक्यं हि वक्तुं केनचिदद्य वै।
वक्ता बृहस्पतिसमो न ह्यन्यो विद्यते क्वचित् ॥ ५ ॥
मूलम्
नैतदन्येन शक्यं हि वक्तुं केनचिदद्य वै।
वक्ता बृहस्पतिसमो न ह्यन्यो विद्यते क्वचित् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज दूसरा कोई इस विषयका प्रतिपादन नहीं कर सकता। बृहस्पतिजीके समान वक्ता दूसरा कोई कहीं भी नहीं है॥५॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोः संवदतोरेवं पार्थगांगेययोस्तदा ।
आजगाम विशुद्धात्मा नाकपृष्ठाद् बृहस्पतिः ॥ ६ ॥
मूलम्
तयोः संवदतोरेवं पार्थगांगेययोस्तदा ।
आजगाम विशुद्धात्मा नाकपृष्ठाद् बृहस्पतिः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर और गंगानन्दन भीष्म, इन दोनोंमें इस प्रकार बात हो ही रही थी कि विशुद्ध अन्तःकरणवाले बृहस्पतिजी स्वर्गलोकसे वहाँ आ पहुँचे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो राजा समुत्थाय धृतराष्ट्रपुरोगमः।
पूजामनुपमां चक्रे सर्वे ते च सभासदः ॥ ७ ॥
मूलम्
ततो राजा समुत्थाय धृतराष्ट्रपुरोगमः।
पूजामनुपमां चक्रे सर्वे ते च सभासदः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें देखते ही राजा युधिष्ठिर धृतराष्ट्रको आगे करके खड़े हो गये। फिर उन्होंने तथा उन सभी सभासदोंने बृहस्पतिजीकी अनुपम पूजा की॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो धर्मसुतो राजा भगवन्तं बृहस्पतिम्।
उपगम्य यथान्यायं प्रश्नं पप्रच्छ तत्त्वतः ॥ ८ ॥
मूलम्
ततो धर्मसुतो राजा भगवन्तं बृहस्पतिम्।
उपगम्य यथान्यायं प्रश्नं पप्रच्छ तत्त्वतः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरने भगवान् बृहस्पतिजीके समीप जाकर यथोचित रीतिसे यह तात्त्विक प्रश्न उपस्थित किया॥८॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
मर्त्यस्य कः सहायो वै पिता माता सुतो गुरुः॥९॥
ज्ञातिसम्बन्धिवर्गश्च मित्रवर्गस्तथैव च ।
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं जनाः ॥ १० ॥
गच्छन्त्यमुत्र लोकं वै क एनमनुगच्छति।
मूलम्
भगवन् सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
मर्त्यस्य कः सहायो वै पिता माता सुतो गुरुः॥९॥
ज्ञातिसम्बन्धिवर्गश्च मित्रवर्गस्तथैव च ।
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं जनाः ॥ १० ॥
गच्छन्त्यमुत्र लोकं वै क एनमनुगच्छति।
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भगवन्! आप सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता और सब शास्त्रोंके विद्वान् हैं; अतः बताइये, पिता, माता, पुत्र, गुरु, सजातीय सम्बन्धी और मित्र आदिमेंसे मनुष्यका सच्चा सहायक कौन है? जब सब लोग अपने मरे हुए शरीरको काठ और ढेलेके समान त्यागकर चले जाते हैं, तब इस जीवके साथ परलोकमें कौन जाता है?॥
मूलम् (वचनम्)
बृहस्पतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकः प्रसूयते राजन्नेक एव विनश्यति ॥ ११ ॥
एकस्तरति दुर्गाणि गच्छत्येकस्तु दुर्गतिम्।
मूलम्
एकः प्रसूयते राजन्नेक एव विनश्यति ॥ ११ ॥
एकस्तरति दुर्गाणि गच्छत्येकस्तु दुर्गतिम्।
अनुवाद (हिन्दी)
बृहस्पतिजीने कहा— राजन्! प्राणी अकेला ही जन्म लेता, अकेला ही मरता, अकेला ही दुःखसे पार होता तथा अकेला ही दुर्गति भोगता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असहायः पिता माता तथा भ्राता सुतो गुरुः ॥ १२ ॥
ज्ञातिसम्बन्धिवर्गश्च मित्रवर्गस्तथैव च ।
मूलम्
असहायः पिता माता तथा भ्राता सुतो गुरुः ॥ १२ ॥
ज्ञातिसम्बन्धिवर्गश्च मित्रवर्गस्तथैव च ।
अनुवाद (हिन्दी)
पिता, माता, भाई, पुत्र, गुरु, जाति, सम्बन्धी तथा मित्रवर्ग—ये कोई भी उसके सहायक नहीं होते॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं जनाः ॥ १३ ॥
मुहूर्तमिव रोदित्वा ततो यान्ति पराङ्मुखाः।
मूलम्
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं जनाः ॥ १३ ॥
मुहूर्तमिव रोदित्वा ततो यान्ति पराङ्मुखाः।
अनुवाद (हिन्दी)
लोग उसके मरे हुए शरीरको काठ और मिट्टीके ढेलेकी तरह फेंककर दो घड़ी रोते हैं और फिर उसकी ओरसे मुँह फेरकर चल देते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैस्तच्छरीरमुत्सृष्टं धर्म एकोऽनुगच्छति ॥ १४ ॥
तस्माद् धर्मः सहायश्च सेवितव्यः सदा नृभिः।
मूलम्
तैस्तच्छरीरमुत्सृष्टं धर्म एकोऽनुगच्छति ॥ १४ ॥
तस्माद् धर्मः सहायश्च सेवितव्यः सदा नृभिः।
अनुवाद (हिन्दी)
वे कुटुम्बीजन तो उसके शरीरका परित्याग करके चले जाते हैं, किंतु एकमात्र धर्म ही उस जीवात्माका अनुसरण करता है; इसलिये धर्म ही सच्चा सहायक है। अतः मनुष्योंको सदा धर्मका ही सेवन करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणी धर्मसमायुक्तो गच्छेत् स्वर्गगतिं पराम् ॥ १५ ॥
तथैवाधर्मसंयुक्तो नरकं चोपपद्यते ।
मूलम्
प्राणी धर्मसमायुक्तो गच्छेत् स्वर्गगतिं पराम् ॥ १५ ॥
तथैवाधर्मसंयुक्तो नरकं चोपपद्यते ।
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मयुक्त प्राणी ही उत्तम स्वर्गमें जाता है और अधर्मपरायण जीव नरकमें पड़ता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्न्यायागतैरर्थैर्धर्मं सेवेत पण्डितः ॥ १६ ॥
धर्म एको मनुष्याणां सहायः पारलौकिकः।
मूलम्
तस्मान्न्यायागतैरर्थैर्धर्मं सेवेत पण्डितः ॥ १६ ॥
धर्म एको मनुष्याणां सहायः पारलौकिकः।
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये विद्वान् पुरुषको चाहिये कि न्यायसे प्राप्त हुए धनके द्वारा धर्मका अनुष्ठान करे। एकमात्र धर्म ही परलोकमें मनुष्योंका सहायक है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोभान्मोहादनुक्रोशाद् भयाद् वाप्यबहुश्रुतः ॥ १७ ॥
नरः करोत्यकार्याणि परार्थे लोभमोहितः।
मूलम्
लोभान्मोहादनुक्रोशाद् भयाद् वाप्यबहुश्रुतः ॥ १७ ॥
नरः करोत्यकार्याणि परार्थे लोभमोहितः।
अनुवाद (हिन्दी)
जो बहुश्रुत नहीं है, वही मनुष्य लोभ और मोहके वशीभूत हो दूसरेके लिये लोभ, मोह, दया अथवा भयसे न करने योग्य पापकर्म कर बैठता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मश्चार्थश्च कामश्च त्रितयं जीविते फलम् ॥ १८ ॥
एतत् त्रयमवाप्तव्यमधर्मपरिवर्जितम् ।
मूलम्
धर्मश्चार्थश्च कामश्च त्रितयं जीविते फलम् ॥ १८ ॥
एतत् त्रयमवाप्तव्यमधर्मपरिवर्जितम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
धर्म, अर्थ और काम—ये तीन जीवनके फल हैं, अतः मनुष्यको अधर्मके त्यागपूर्वक इन तीनोंको उपलब्ध करना चाहिये॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतं भगवतो वाक्यं धर्मयुक्तं परं हितम् ॥ १९ ॥
शरीरनिचयं ज्ञातुं बुद्धिस्तु मम जायते।
मूलम्
श्रुतं भगवतो वाक्यं धर्मयुक्तं परं हितम् ॥ १९ ॥
शरीरनिचयं ज्ञातुं बुद्धिस्तु मम जायते।
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भगवन्! आपके मुँहसे मैंने धर्मयुक्त परम हितकर बात सुनी। अब शरीरकी स्थिति जाननेके लिये मेरा विचार हो रहा है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृतं शरीरं हि नृणां सूक्ष्ममव्यक्ततां गतम् ॥ २० ॥
अचक्षुर्विषयं प्राप्तं कथं धर्मोऽनुगच्छति।
मूलम्
मृतं शरीरं हि नृणां सूक्ष्ममव्यक्ततां गतम् ॥ २० ॥
अचक्षुर्विषयं प्राप्तं कथं धर्मोऽनुगच्छति।
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यका स्थूल शरीर तो मरकर यहीं पड़ा रह जाता है और उसका सूक्ष्म शरीर अव्यक्तभावको प्राप्त हो जाता है—नेत्रोंकी पहुँचसे परे है। ऐसी दशामें धर्म किस प्रकार उसका अनुसरण करता है?॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
बृहस्पतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिर्मनोऽन्तकः ॥ २१ ॥
बुद्धिरात्मा च सहिता धर्मं पश्यन्ति नित्यदा।
मूलम्
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिर्मनोऽन्तकः ॥ २१ ॥
बुद्धिरात्मा च सहिता धर्मं पश्यन्ति नित्यदा।
अनुवाद (हिन्दी)
बृहस्पतिजीने कहा— धर्मराज! पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, यम, बुद्धि और आत्मा—ये सब सदा एक साथ मनुष्यके धर्मपर दृष्टि रखते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणिनामिह सर्वेषां साक्षिभूता निशानिशम् ॥ २२ ॥
एतैश्च सह धर्मोऽपि तं जीवमनुगच्छति।
मूलम्
प्राणिनामिह सर्वेषां साक्षिभूता निशानिशम् ॥ २२ ॥
एतैश्च सह धर्मोऽपि तं जीवमनुगच्छति।
अनुवाद (हिन्दी)
दिन और रात भी इस जगत्के सम्पूर्ण प्राणियोंके कर्मोंके साक्षी हैं। इन सबके साथ धर्म भी जीवका अनुसरण करता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वगस्थिमांसं शुक्रं च शोणितं च महामते ॥ २३ ॥
शरीरं वर्जयन्त्येते जीवितेन विवर्जितम्।
मूलम्
त्वगस्थिमांसं शुक्रं च शोणितं च महामते ॥ २३ ॥
शरीरं वर्जयन्त्येते जीवितेन विवर्जितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
महामते! त्वचा, अस्थि, मांस, शुक्र और शोणित—ये सब धातु निष्प्राण शरीरका परित्याग कर देते हैं अर्थात् ये उस शरीरधारी जीवात्माका साथ छोड़ देते हैं, एक धर्म ही उसके साथ जाता है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो धर्मसमायुक्तः प्राप्नुते जीव एव हि ॥ २४ ॥
ततोऽस्य कर्म पश्यन्ति शुभं वा यदि वाशुभम्।
देवताः पञ्चभूतस्थाः किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ २५ ॥
मूलम्
ततो धर्मसमायुक्तः प्राप्नुते जीव एव हि ॥ २४ ॥
ततोऽस्य कर्म पश्यन्ति शुभं वा यदि वाशुभम्।
देवताः पञ्चभूतस्थाः किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये धर्मयुक्त जीव ही परमगति प्राप्त करता है। फिर परलोकमें अपने कर्मोंका भोग समाप्त करके प्राणी जब दूसरा शरीर धारण करता है, उस समय उसके शरीरके पाँचों भूतोंमें स्थित अधिष्ठाता देवता उस जीवके शुभ और अशुभ कर्मोंको देखते हैं। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो धर्मसमायुक्तः स जीवः सुखमेधते।
इहलोके परे चैव किं भूयः कथयामि ते ॥ २६ ॥
मूलम्
ततो धर्मसमायुक्तः स जीवः सुखमेधते।
इहलोके परे चैव किं भूयः कथयामि ते ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर धर्मयुक्त वह जीव इहलोक और परलोकमें सुखका अनुभव करता है। अब तुम्हें और क्या बताऊँ?॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् दर्शितं भगवता यथा धर्मोऽनुगच्छति।
एतत् तु ज्ञातुमिच्छामि कथं रेतः प्रवर्तते ॥ २७ ॥
मूलम्
तद् दर्शितं भगवता यथा धर्मोऽनुगच्छति।
एतत् तु ज्ञातुमिच्छामि कथं रेतः प्रवर्तते ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भगवन्! धर्म जिस प्रकार जीवका अनुसरण करता है, वह तो आपने समझा दिया। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि इस शरीरमें वीर्यकी उत्पत्ति कैसे होती है?॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
बृहस्पतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नमश्नन्ति यद् देवाः शरीरस्था नरेश्वर।
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिर्मनस्तथा ॥ २८ ॥
ततस्तृप्तेषु राजेन्द्र तेषु भूतेषु पञ्चसु।
मनःषष्ठेषु शुद्धात्मन् रेतः सम्पद्यते महत् ॥ २९ ॥
मूलम्
अन्नमश्नन्ति यद् देवाः शरीरस्था नरेश्वर।
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिर्मनस्तथा ॥ २८ ॥
ततस्तृप्तेषु राजेन्द्र तेषु भूतेषु पञ्चसु।
मनःषष्ठेषु शुद्धात्मन् रेतः सम्पद्यते महत् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहस्पतिजीने कहा— शुद्धात्मन्! नरेश्वर! राजेन्द्र! इस शरीरमें स्थित पृथ्वी, जल, अन्न, वायु, आकाश और मनके अधिष्ठाता देवता जो अन्न भक्षण करते हैं और उस अन्नसे मनसहित वे पाँचों भूत जब पूर्ण तृप्त होते हैं, तब महान् रेतस् (वीर्य) की उत्पत्ति होती है॥२८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गर्भः सम्भवति श्लेषात् स्त्रीपुंसयोर्नृप।
एतत् ते सर्वमाख्यातं भूयः किं श्रोतुमिच्छसि ॥ ३० ॥
मूलम्
ततो गर्भः सम्भवति श्लेषात् स्त्रीपुंसयोर्नृप।
एतत् ते सर्वमाख्यातं भूयः किं श्रोतुमिच्छसि ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! फिर स्त्री-पुरुषका संयोग होनेपर वही वीर्य गर्भका रूप धारण करता है। ये सब बातें मैंने तुम्हें बता दी। अब और क्या सुनना चाहते हो?॥३०॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आख्यातं मे भगवता गर्भः संजायते यथा।
यथा जातस्तु पुरुषः प्रपद्यति तदुच्यताम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
आख्यातं मे भगवता गर्भः संजायते यथा।
यथा जातस्तु पुरुषः प्रपद्यति तदुच्यताम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— भगवन्! गर्भ जिस प्रकार उत्पन्न होता है, वह आपने बताया। अब यह बताइये कि उत्पन्न हुआ पुरुष पुनः किस प्रकार बन्धनमें पड़ता है॥३१॥
मूलम् (वचनम्)
बृहस्पतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसन्नमात्रः पुरुषस्तैर्भूतैरभिभूयते ।
विप्रयुक्तश्च तैर्भूतैः पुनर्यात्यपरां गतिम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
आसन्नमात्रः पुरुषस्तैर्भूतैरभिभूयते ।
विप्रयुक्तश्च तैर्भूतैः पुनर्यात्यपरां गतिम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहस्पतिजीने कहा— राजन्! जीव उस वीर्यमें प्रविष्ट होकर जब गर्भमें संनिहित होता है, तब वे पाँचों भूत शरीररूपमें परिणत हो उसे बाँध लेते हैं, फिर उन्हीं भूतोंसे विलग होनेपर वह दूसरी गतिको प्राप्त होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतसमायुक्तः प्राप्नुते जीव एव हि।
ततोऽस्य कर्म पश्यन्ति शुभं वा यदि वाशुभम्।
देवताः पञ्चभूतस्थाः किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ३३ ॥
मूलम्
सर्वभूतसमायुक्तः प्राप्नुते जीव एव हि।
ततोऽस्य कर्म पश्यन्ति शुभं वा यदि वाशुभम्।
देवताः पञ्चभूतस्थाः किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीरमें सम्पूर्ण भूतोंसे युक्त हुआ वह जीव ही सुख या दुःख पाता है। उस समय पाँचों भूतोंमें स्थित उनके अधिष्ठाता देवता जीवके शुभ या अशुभ कर्मको देखते हैं। अब और क्या सुनना चाहते हो?॥३३॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वगस्थिमांसमुत्सृज्य तैश्च भूतैर्विवर्जितः ।
जीवः स भगवन् क्वस्थः सुखदुःखे समश्नुते ॥ ३४ ॥
मूलम्
त्वगस्थिमांसमुत्सृज्य तैश्च भूतैर्विवर्जितः ।
जीवः स भगवन् क्वस्थः सुखदुःखे समश्नुते ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भगवन्! जीव त्वचा, अस्थि और मांसमय शरीरका त्याग करके जब पाँचों भूतोंके सम्बन्धसे पृथक् हो जाता है, तब कहाँ रहकर वह सुख-दुःखका उपभोग करता है?॥३४॥
मूलम् (वचनम्)
बृहस्पतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवः कर्मसमायुक्तः शीघ्रं रेतस्त्वमागतः।
स्त्रीणां पुष्पं समासाद्य सूते कालेन भारत ॥ ३५ ॥
मूलम्
जीवः कर्मसमायुक्तः शीघ्रं रेतस्त्वमागतः।
स्त्रीणां पुष्पं समासाद्य सूते कालेन भारत ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहस्पतिजीने कहा— भारत! जीव अपने कर्मोंसे प्रेरित होकर शीघ्र ही वीर्यभावको प्राप्त होता है और स्त्रीके रजमें प्रविष्ट होकर समयानुसार जन्म धारण करता है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमस्य पुरुषैः क्लेशं यमस्य पुरुषैर्वधम्।
दुःखं संसारचक्रं च नरः क्लेशं स विन्दति ॥ ३६ ॥
मूलम्
यमस्य पुरुषैः क्लेशं यमस्य पुरुषैर्वधम्।
दुःखं संसारचक्रं च नरः क्लेशं स विन्दति ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(गर्भमें आनेके पहले सूक्ष्मशरीरमें स्थित होकर अपने दुष्कर्मोंके कारण) वह यमदूतोंद्वारा नाना प्रकारके क्लेश पाता, उनके प्रहार सहता और दुःखमय संसारचक्रमें भाँति-भाँतिके कष्ट भोगता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहलोके च स प्राणी जन्मप्रभृति पार्थिव।
सुकृतं कर्म वै भुङ्क्ते धर्मस्य फलमाश्रितः ॥ ३७ ॥
यदि धर्मं यथाशक्ति जन्मप्रभृति सेवते।
ततः स पुरुषो भूत्वा सेवते नित्यदा सुखम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
इहलोके च स प्राणी जन्मप्रभृति पार्थिव।
सुकृतं कर्म वै भुङ्क्ते धर्मस्य फलमाश्रितः ॥ ३७ ॥
यदि धर्मं यथाशक्ति जन्मप्रभृति सेवते।
ततः स पुरुषो भूत्वा सेवते नित्यदा सुखम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! यदि प्राणी इस लोकमें जन्मसे ही पुण्यकर्ममें लगा रहता है तो वह धर्मके फलका आश्रय लेकर उसके अनुसार सुख भोगता है। यदि अपनी शक्तिके अनुसार बाल्यकालसे ही धर्मका सेवन करता है तो वह मनुष्य होकर सदा सुखका अनुभव करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्तरा तु धर्मस्याप्यधर्ममुपसेवते ।
सुखस्यानन्तरं दुःखं स जीवोऽप्यधिगच्छति ॥ ३९ ॥
मूलम्
अथान्तरा तु धर्मस्याप्यधर्ममुपसेवते ।
सुखस्यानन्तरं दुःखं स जीवोऽप्यधिगच्छति ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु धर्मके बीचमें यदि कभी-कभी वह अधर्मका भी आचरण कर बैठता है तो उसे सुखके बाद दुःख भी भोगना पड़ता है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मेण समायुक्तो यमस्य विषयं गतः।
महद् दुःखं समासाद्य तिर्यग्योनौ प्रजायते ॥ ४० ॥
मूलम्
अधर्मेण समायुक्तो यमस्य विषयं गतः।
महद् दुःखं समासाद्य तिर्यग्योनौ प्रजायते ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अधर्मपरायण मनुष्य यमलोकमें जाता है और वहाँ महान् दुःख भोगकर यहाँ पशु-पक्षियोंकी योनिमें जन्म लेता है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणा येन येनेह यस्यां योनौ प्रजायते।
जीवो मोहसमायुक्तस्तन्मे निगदतः शृणु ॥ ४१ ॥
मूलम्
कर्मणा येन येनेह यस्यां योनौ प्रजायते।
जीवो मोहसमायुक्तस्तन्मे निगदतः शृणु ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीव मोहके वशीभूत होकर जिस-जिस कर्मका अनुष्ठान करनेसे जैसी-जैसी योनिमें जन्म धारण करता है, उसे बता रहा हूँ, सुनो॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेतदुच्यते शास्त्रे सेतिहासे च च्छन्दसि।
यमस्य विषयं घोरं मर्त्यो लोकः प्रपद्यते ॥ ४२ ॥
मूलम्
यदेतदुच्यते शास्त्रे सेतिहासे च च्छन्दसि।
यमस्य विषयं घोरं मर्त्यो लोकः प्रपद्यते ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शास्त्र, इतिहास और वेदमें जो यह बात बतायी गयी है कि मनुष्य इस लोकमें पाप करनेपर मृत्युके पश्चात् यमराजके भयंकर लोकमें जाता है, यह सत्य ही है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह स्थानानि पुण्यानि देवतुल्यानि भूपते।
तिर्यग्योन्यतिरिक्तानि गतिमन्ति च सर्वशः ॥ ४३ ॥
मूलम्
इह स्थानानि पुण्यानि देवतुल्यानि भूपते।
तिर्यग्योन्यतिरिक्तानि गतिमन्ति च सर्वशः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूपाल! इस यमलोकमें देवलोकके समान पुण्यमय स्थान भी हैं, जिनमें तिर्यक् (तथा कीट-पतंग आदि) योनिके प्राणियोंको छोड़कर समस्त पुण्यात्मा जंगम जीव जाते हैं॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमस्य भवने दिव्ये ब्रह्यलोकसमे गुणैः।
कर्मभिर्नियतैर्बद्धो जन्तुर्दुःखान्युपाश्नुते ॥ ४४ ॥
मूलम्
यमस्य भवने दिव्ये ब्रह्यलोकसमे गुणैः।
कर्मभिर्नियतैर्बद्धो जन्तुर्दुःखान्युपाश्नुते ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यमराजका भवन सौन्दर्य आदि गुणोंके कारण ब्रह्मलोकके समान दिव्य भी है। परंतु अपने नियत पापकर्मोंसे बँधा हुआ जीव वहाँ भी नरकमें पड़कर दुःख भोगता है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन येन तु भावेन कर्मणा पुरुषो गतिम्।
प्रयाति परुषां घोरां तत्ते वक्ष्याम्यतः परम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
येन येन तु भावेन कर्मणा पुरुषो गतिम्।
प्रयाति परुषां घोरां तत्ते वक्ष्याम्यतः परम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य जिस-जिस भाव और जिस-जिस कर्मसे निष्ठुरतापूर्ण भयंकर गतिको प्राप्त होता है, अब उसीको बता रहा हूँ॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधीत्य चतुरो वेदान् द्विजो मोहसमन्वितः।
पतितात् प्रतिगृह्याथ खरयोनौ प्रजायते ॥ ४६ ॥
मूलम्
अधीत्य चतुरो वेदान् द्विजो मोहसमन्वितः।
पतितात् प्रतिगृह्याथ खरयोनौ प्रजायते ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो द्विज चारों वेदोंका अध्ययन करनेके बाद भी मोहवश पतित मनुष्योंसे दान लेता है, उसका गदहेकी योनिमें जन्म होता है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खरो जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत।
खरो मृतो बलीवर्दः सप्त वर्षाणि जीवति ॥ ४७ ॥
मूलम्
खरो जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत।
खरो मृतो बलीवर्दः सप्त वर्षाणि जीवति ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! गदहेकी योनिमें वह पंद्रह वर्षोंतक जीवित रहता है। उसके बाद मरकर बैल होता है। उस योनिमें वह सात वर्षोंतक जीवित रहता है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलीवर्दो मृतश्चापि जायते ब्रह्मराक्षसः।
ब्रह्मरक्षश्च मासांस्त्रींस्ततो जायति ब्राह्मणः ॥ ४८ ॥
मूलम्
बलीवर्दो मृतश्चापि जायते ब्रह्मराक्षसः।
ब्रह्मरक्षश्च मासांस्त्रींस्ततो जायति ब्राह्मणः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब बैलका शरीर छूट जाता है, तब वह ब्रह्मराक्षस होता है। तीन मासतक ब्रह्मराक्षस रहनेके बाद फिर वह ब्राह्मणका जन्म पाता है॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतितं याजयित्वा तु कृमियोनौ प्रजायते।
तत्र जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत ॥ ४९ ॥
मूलम्
पतितं याजयित्वा तु कृमियोनौ प्रजायते।
तत्र जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! जो ब्राह्मण पतित पुरुषका यज्ञ कराता है, वह मरनेके बाद कीड़ेकी योनिमें जन्म लेता है और उस योनिमें पंद्रह वर्षोंतक जीवित रहता है॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृमिभावाद् विमुक्तस्तु ततो जायति गर्दभः।
गर्दभः पञ्च वर्षाणि पञ्च वर्षाणि सूकरः ॥ ५० ॥
कुक्कुटः पञ्च वर्षाणि पञ्च वर्षाणि जम्बुकः।
श्वा वर्षमेकं भवति ततो जायति मानवः ॥ ५१ ॥
मूलम्
कृमिभावाद् विमुक्तस्तु ततो जायति गर्दभः।
गर्दभः पञ्च वर्षाणि पञ्च वर्षाणि सूकरः ॥ ५० ॥
कुक्कुटः पञ्च वर्षाणि पञ्च वर्षाणि जम्बुकः।
श्वा वर्षमेकं भवति ततो जायति मानवः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कीड़ेकी योनिसे छूटनेपर वह गदहेका जन्म पाता है। पाँच वर्षतक गदहा रहकर पाँच वर्ष सूअर, पाँच वर्ष मुर्गा, पाँच वर्ष सियार और एक वर्ष कुत्ता होता है। उसके बाद वह मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपाध्यायस्य यः पापं शिष्यः कुर्यादबुद्धिमान्।
स जीव इह संसारांस्त्रीनाप्नोति न संशयः ॥ ५२ ॥
प्राक् श्वा भवति राजेन्द्र ततः क्रव्यात्ततः खरः।
ततः प्रेतः परिक्लिष्टः पश्चाज्जायति ब्राह्मणः ॥ ५३ ॥
मूलम्
उपाध्यायस्य यः पापं शिष्यः कुर्यादबुद्धिमान्।
स जीव इह संसारांस्त्रीनाप्नोति न संशयः ॥ ५२ ॥
प्राक् श्वा भवति राजेन्द्र ततः क्रव्यात्ततः खरः।
ततः प्रेतः परिक्लिष्टः पश्चाज्जायति ब्राह्मणः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मूर्ख शिष्य अपने अध्यापकका अपराध करता है, वह यहाँ निम्नांकित तीन योनियोंमें जन्म ग्रहण करता है, इसमें संशय नहीं है। राजेन्द्र! पहले तो वह कुत्ता होता है, फिर राक्षस और गदहा होता है। उसके बाद मरकर प्रेतावस्थामें अनेक कष्ट भोगनेके पश्चात् ब्राह्मणका जन्म पाता है॥५२-५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसापि गुरोर्भार्यां यः शिष्यो याति पापकृत्।
स उग्रान् प्रैति संसारानधर्मेणेह चेतसा ॥ ५४ ॥
मूलम्
मनसापि गुरोर्भार्यां यः शिष्यो याति पापकृत्।
स उग्रान् प्रैति संसारानधर्मेणेह चेतसा ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पापाचारी शिष्य गुरुपत्नीके साथ समागमका विचार भी मनमें लाता है, वह अपने मानसिक पापके कारण भयंकर योनियोंमें जन्म लेता है॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वयोनौ तु स सम्भूतस्त्रीणि वर्षाणि जीवति।
तत्रापि निधनं प्राप्तः कृमियोनौ प्रजायते ॥ ५५ ॥
कृमिभावमनुप्राप्तो वर्षमेकं तु जीवति।
ततस्तु निधनं प्राप्तो ब्रह्मयोनौ प्रजायते ॥ ५६ ॥
मूलम्
श्वयोनौ तु स सम्भूतस्त्रीणि वर्षाणि जीवति।
तत्रापि निधनं प्राप्तः कृमियोनौ प्रजायते ॥ ५५ ॥
कृमिभावमनुप्राप्तो वर्षमेकं तु जीवति।
ततस्तु निधनं प्राप्तो ब्रह्मयोनौ प्रजायते ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले कुत्तेकी योनिमें जन्म लेकर वह तीन वर्षतक जीवन धारण करता है। उस योनिमें मृत्युको प्राप्त होकर वह कीड़ेकी योनिमें उत्पन्न होता है। कीटयोनिमें जन्म लेकर वह एक वर्षतक जीवित रहता है। फिर मरनेके बाद उसका ब्राह्मण-योनिमें जन्म होता है॥५५-५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि पुत्रसमं शिष्यं गुरुर्हन्यादकारणे।
आत्मनः कामकारेण सोऽपि हिंस्रः प्रजायते ॥ ५७ ॥
मूलम्
यदि पुत्रसमं शिष्यं गुरुर्हन्यादकारणे।
आत्मनः कामकारेण सोऽपि हिंस्रः प्रजायते ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि गुरु अपने पुत्रके समान शिष्यको बिना कारणके ही मारता-पीटता है तो वह अपनी स्वेच्छा-चारिताके कारण हिंसक पशुकी योनिमें जन्म लेता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितरं मातरं चैव यस्तु पुत्रोऽवमन्यते।
सोऽपि राजन् मृतो जन्तुः पूर्वं जायेत गर्दभः ॥ ५८ ॥
मूलम्
पितरं मातरं चैव यस्तु पुत्रोऽवमन्यते।
सोऽपि राजन् मृतो जन्तुः पूर्वं जायेत गर्दभः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो पुत्र अपने माता-पिताका अनादर करता है, वह भी मरनेके बाद पहले गदहा नामक प्राणी होता॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गर्दभत्वं तु सम्प्राप्य दश वर्षाणि जीवति।
संवत्सरं तु कुम्भीरस्ततो जायेत मानवः ॥ ५९ ॥
मूलम्
गर्दभत्वं तु सम्प्राप्य दश वर्षाणि जीवति।
संवत्सरं तु कुम्भीरस्ततो जायेत मानवः ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गदहेका शरीर पाकर वह दस वर्षोंतक जीवित रहता है। फिर एक सालतक घड़ियाल रहनेके बाद मानवयोनिमें उत्पन्न होता है॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रस्य मातापितरौ यस्य रुष्टात्रुभावपि।
गुर्वपध्यानतः सोऽपि मृतो जायति गर्दभः ॥ ६० ॥
मूलम्
पुत्रस्य मातापितरौ यस्य रुष्टात्रुभावपि।
गुर्वपध्यानतः सोऽपि मृतो जायति गर्दभः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस पुत्रके ऊपर माता और पिता दोनों ही रुष्ट होते हैं, वह गुरुजनोंके अनिष्टचिन्तनके कारण मृत्युके बाद गदहा होता है॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खरो जीवति मासांस्तु दश श्वा च चतुर्दश।
बिडालः सप्तमासांस्तु ततो जायति मानवः ॥ ६१ ॥
मूलम्
खरो जीवति मासांस्तु दश श्वा च चतुर्दश।
बिडालः सप्तमासांस्तु ततो जायति मानवः ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गदहेकी योनिमें वह दस मासतक जीवित रहता है। उसके बाद चौदह महीनोंतक कुत्ता और सात मासतक बिलाव होकर अन्तमें वह मनुष्यकी योनिमें जन्म ग्रहण करता है॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातापितरावाक्रुश्य सारिकः सम्प्रजायते ।
ताडयित्वा तु तावेव जायते कच्छपो नृप ॥ ६२ ॥
मूलम्
मातापितरावाक्रुश्य सारिकः सम्प्रजायते ।
ताडयित्वा तु तावेव जायते कच्छपो नृप ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माता-पिताकी निन्दा करके अथवा उन्हें गाली देकर मनुष्य दूसरे जन्ममें मैना होता है। नरेश्वर! जो माता-पिताको मारता है, वह कछुआ होता है॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्छपो दश वर्षाणि त्रीणि वर्षाणि शल्यकः।
व्यालो भूत्वा च षण्मासांस्ततो जायति मानुषः ॥ ६३ ॥
मूलम्
कच्छपो दश वर्षाणि त्रीणि वर्षाणि शल्यकः।
व्यालो भूत्वा च षण्मासांस्ततो जायति मानुषः ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दस वर्षतक कछुआ रहनेके पश्चात् तीन वर्ष साही और छः महीनेतक सर्प होता है। उसके अनन्तर वह मनुष्यकी योनिमें जन्म लेता है॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भर्तृपिण्डमुपाश्नन् यो राजद्विष्टानि सेवते।
सोऽपि मोहसमापन्नो मृतो जायति वानरः ॥ ६४ ॥
मूलम्
भर्तृपिण्डमुपाश्नन् यो राजद्विष्टानि सेवते।
सोऽपि मोहसमापन्नो मृतो जायति वानरः ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष राजाके टुकड़े खाकर पलता हुआ भी मोहवश उसके शत्रुओंकी सेवा करता है, वह मरनेके बाद वानर होता है॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वानरो दश वर्षाणि पञ्च वर्षाणि मूषिकः।
श्वाथ भूत्वा तु षण्मासांस्ततो जायति मानुषः ॥ ६५ ॥
मूलम्
वानरो दश वर्षाणि पञ्च वर्षाणि मूषिकः।
श्वाथ भूत्वा तु षण्मासांस्ततो जायति मानुषः ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दस वर्षोंतक वानर, पाँच वर्षोंतक चूहा और छः महीनोंतक कुत्ता होकर वह मनुष्यका जन्म पाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न्यासापहर्ता तु नरो यमस्य विषयं गतः।
संसाराणां शतं गत्वा कृमियोनौ प्रजायते ॥ ६६ ॥
मूलम्
न्यासापहर्ता तु नरो यमस्य विषयं गतः।
संसाराणां शतं गत्वा कृमियोनौ प्रजायते ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरोंकी धरोहर हड़प लेनेवाला मनुष्य यमलोकमें जाता और क्रमशः सौ योनियोंमें भ्रमण करके अन्तमें कीड़ा होता है॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत।
दुष्कृतस्य क्षयं कृत्वा ततो जायति मानुषः ॥ ६७ ॥
मूलम्
तत्र जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत।
दुष्कृतस्य क्षयं कृत्वा ततो जायति मानुषः ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! कीड़ेकी योनिमें वह पंद्रह वर्षोंतक जीवित रहता है और अपने पापोंका क्षय करके अन्तमें मनुष्य-योनिमें जन्म लेता है॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असूयको नरश्चापि मृतो जायति शार्ङ्गकः।
विश्वासहर्ता तु नरो मीनो जायति दुर्मतिः ॥ ६८ ॥
मूलम्
असूयको नरश्चापि मृतो जायति शार्ङ्गकः।
विश्वासहर्ता तु नरो मीनो जायति दुर्मतिः ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरोंके दोष ढूँढ़नेवाला मनुष्य हरिणकी योनिमें जन्म लेता है तथा जो अपनी खोटी बुद्धिके कारण किसीके साथ विश्वासघात करता है, वह मनुष्य मछली होता है॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूत्वा मीनोऽष्ट वर्षाणि मृतो जायति भारत।
मृगस्तु चतुरो मासांस्ततश्छागः प्रजायते ॥ ६९ ॥
मूलम्
भूत्वा मीनोऽष्ट वर्षाणि मृतो जायति भारत।
मृगस्तु चतुरो मासांस्ततश्छागः प्रजायते ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! आठ वर्षोंतक मछली रहकर मरनेके बाद वह चार मासतक मृग होता है। उसके बाद बकरेकी योनिमें जन्म लेता है॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छागस्तु निधनं प्राप्य पूर्णे संवत्सरे ततः।
कीटः संजायते जन्तुस्ततो जायति मानुषः ॥ ७० ॥
मूलम्
छागस्तु निधनं प्राप्य पूर्णे संवत्सरे ततः।
कीटः संजायते जन्तुस्ततो जायति मानुषः ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बकरा पूरे एक वर्षपर मृत्युको प्राप्त होनेके पश्चात् कीड़ा होता है। उसके बाद उस जीवको मनुष्यका जन्म मिलता है॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धान्यान् यवांस्तिलान् माषान् कुलत्थान् सर्षपांश्चणान्।
कलापानथ मुद्गांश्च गोधूमानतसींस्तथा ॥ ७१ ॥
सस्यस्यान्यस्य हर्ता च मोहाज्जन्तुरचेतनः।
स जायते महाराज मूषिको निरपत्रपः ॥ ७२ ॥
मूलम्
धान्यान् यवांस्तिलान् माषान् कुलत्थान् सर्षपांश्चणान्।
कलापानथ मुद्गांश्च गोधूमानतसींस्तथा ॥ ७१ ॥
सस्यस्यान्यस्य हर्ता च मोहाज्जन्तुरचेतनः।
स जायते महाराज मूषिको निरपत्रपः ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! जो पुरुष लज्जाका परित्याग करके अज्ञान और मोहके वशीभूत होकर धान, जौ, तिल, उड़द, कुलथी, सरसों, चना, मटर, मूँग, गेहूँ और तीसी तथा दूसरे-दूसरे अनाजोंकी चोरी करता है, वह मरनेके बाद पहले चूहा होता है॥७१-७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रेत्य महाराज मृतो जायति सूकरः।
सूकरो जातमात्रस्तु रोगेण म्रियते नृप ॥ ७३ ॥
मूलम्
ततः प्रेत्य महाराज मृतो जायति सूकरः।
सूकरो जातमात्रस्तु रोगेण म्रियते नृप ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! फिर वह चूहा मृत्युके पश्चात् सूअर होता है। नरेश्वर! वह सूअर जन्म लेते ही रोगसे मर जाता है॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वा ततो जायते मूढः कर्मणा तेन पार्थिव।
भूत्वा श्वा पञ्च वर्षाणि ततो जायति मानवः ॥ ७४ ॥
मूलम्
श्वा ततो जायते मूढः कर्मणा तेन पार्थिव।
भूत्वा श्वा पञ्च वर्षाणि ततो जायति मानवः ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! फिर उसी कर्मसे वह मूढ़ जीव कुत्ता होता है और पाँच वर्षतक कुत्ता रहकर अन्तमें मनुष्यका जन्म पाता है॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परदाराभिमर्शं तु कृत्वा जायति वै वृकः।
श्वा शृगालस्ततो गृध्रो व्यालः कङ्को बकस्तथा ॥ ७५ ॥
मूलम्
परदाराभिमर्शं तु कृत्वा जायति वै वृकः।
श्वा शृगालस्ततो गृध्रो व्यालः कङ्को बकस्तथा ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परस्त्रीगमनका पाप करके मनुष्य क्रमशः भेड़िया, कुत्ता, सियार, गीध, साँप, कंक और बगुला होता है॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातुर्भार्यां तु पापात्मा यो धर्षयति मोहितः।
पुंस्कोकिलत्वमाप्नोति सोऽपि संवत्सरं नृप ॥ ७६ ॥
मूलम्
भ्रातुर्भार्यां तु पापात्मा यो धर्षयति मोहितः।
पुंस्कोकिलत्वमाप्नोति सोऽपि संवत्सरं नृप ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जो पापात्मा मोहवश भाईकी स्त्रीके साथ बलात्कार करता है, वह एक वर्षतक कोयलकी योनिमें पड़ा रहता है॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखिभार्यां गुरोर्भार्यां राजभार्यां तथैव च।
प्रधर्षयित्वा कामाय मृतो जायति सूकरः ॥ ७७ ॥
मूलम्
सखिभार्यां गुरोर्भार्यां राजभार्यां तथैव च।
प्रधर्षयित्वा कामाय मृतो जायति सूकरः ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कामनाकी पूर्तिके लिये मित्र, गुरु और राजाकी स्त्रीका सतीत्व भंग करता है, वह मरनेके बाद सूअर होता है॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूकरः पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि श्वाविधः।
बिडालः पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि कुक्कुटः ॥ ७८ ॥
पिपीलिकस्तु मासांस्त्रीन् कीटः स्यान्मासमेव तु।
एतानासाद्य संसारान् कृमियोनौ प्रजायते ॥ ७९ ॥
मूलम्
सूकरः पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि श्वाविधः।
बिडालः पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि कुक्कुटः ॥ ७८ ॥
पिपीलिकस्तु मासांस्त्रीन् कीटः स्यान्मासमेव तु।
एतानासाद्य संसारान् कृमियोनौ प्रजायते ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँच वर्षतक सूअर रहकर दस वर्ष भेड़िया, पाँच वर्ष बिलाव, दस वर्ष मुर्गा, तीन महीने चींटी और एक महीने कीड़ेकी योनिमें रहता है। इन सभी योनियोंमें चक्कर लगानेके बाद वह पुनः कीड़ेकी योनिमें जन्म लेता है॥७८-७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र जीवति मासांस्तु कृमियोनौ चतुर्दश।
ततोऽधर्मक्षयं कृत्वा पुनर्जायति मानवः ॥ ८० ॥
मूलम्
तत्र जीवति मासांस्तु कृमियोनौ चतुर्दश।
ततोऽधर्मक्षयं कृत्वा पुनर्जायति मानवः ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस कीट-योनिमें वह चौदह महीनोंतक जीवन धारण करता है। तदनन्तर पापक्षय करके वह पुनः मनुष्य-योनिमें जन्म लेता है॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपस्थिते विवाहे तु यज्ञे दानेऽपि वा विभो।
मोहात् करोति यो विघ्नं स मृतो जायते कृमिः॥८१॥
मूलम्
उपस्थिते विवाहे तु यज्ञे दानेऽपि वा विभो।
मोहात् करोति यो विघ्नं स मृतो जायते कृमिः॥८१॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! जो विवाह, यज्ञ अथवा दानका अवसर आनेपर मोहवश उसमें विघ्न डालता है, वह भी मरनेके बाद कीड़ा ही होता है॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृमिर्जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत।
अधर्मस्य क्षयं कृत्वा ततो जायति मानवः ॥ ८२ ॥
मूलम्
कृमिर्जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत।
अधर्मस्य क्षयं कृत्वा ततो जायति मानवः ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! वह कीट पंद्रह वर्षोंतक जीवित रहता है। फिर पापोंका क्षय करके वह मनुष्ययोनिमें जन्म लेता है॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं दत्त्वा तु यः कन्यां द्वितीये दातुमिच्छति।
सोऽपि राजन् मृतो जन्तुः कृमियोनौ प्रजायते ॥ ८३ ॥
मूलम्
पूर्वं दत्त्वा तु यः कन्यां द्वितीये दातुमिच्छति।
सोऽपि राजन् मृतो जन्तुः कृमियोनौ प्रजायते ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो पहले एक व्यक्तिको कन्यादान करके फिर दूसरेको उसी कन्याका दान करना चाहता है, वह भी मरनेके बाद कीड़ेकी योनिमें जन्म लेता है॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र जीवति वर्षाणि त्रयोदश युधिष्ठिर।
अधर्मसंक्षये युक्तस्ततो जायति मानवः ॥ ८४ ॥
मूलम्
तत्र जीवति वर्षाणि त्रयोदश युधिष्ठिर।
अधर्मसंक्षये युक्तस्ततो जायति मानवः ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! उस योनिमें वह तेरह वर्षोंतक जीवन धारण करता है। तदनन्तर पापक्षयके पश्चात् वह पुनः मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होता है॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवकार्यमकृत्वा तु पितृकार्यमथापि वा।
अनिर्वाप्य समश्नन् वै मृतो जायति वायसः ॥ ८५ ॥
मूलम्
देवकार्यमकृत्वा तु पितृकार्यमथापि वा।
अनिर्वाप्य समश्नन् वै मृतो जायति वायसः ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो देवकार्य अथवा पितृकार्य न करके बलि-वैश्वदेव किये बिना ही अन्न ग्रहण करता है, वह मरनेके बाद कौएकी योनिमें जन्म लेता है॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वायसः शतवर्षाणि ततो जायति कुक्कुटः।
जायते व्यालकश्चापि मासं तस्मात् तु मानुषः ॥ ८६ ॥
मूलम्
वायसः शतवर्षाणि ततो जायति कुक्कुटः।
जायते व्यालकश्चापि मासं तस्मात् तु मानुषः ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सौ वर्षोंतक कौएके शरीरमें रहकर वह मुर्गा होता है। उसके बाद एक मासतक सर्प रहता है। तत्पश्चात् मनुष्यका जन्म पाता है॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्येष्ठं पितृसमं चापि भ्रातरं योऽवमन्यते।
सोऽपि मृत्युमुपागम्य क्रौञ्चयोनौ प्रजायते ॥ ८७ ॥
मूलम्
ज्येष्ठं पितृसमं चापि भ्रातरं योऽवमन्यते।
सोऽपि मृत्युमुपागम्य क्रौञ्चयोनौ प्रजायते ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़ा भाई पिताके समान आदरणीय है, जो उसका अपमान करता है, उसे मृत्युके बाद क्रौंच पक्षीकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रौञ्चो जीवति वर्षं तु ततो जायति चीरकः।
ततो निधनमापन्नो मानुषत्वमुपाश्नुते ॥ ८८ ॥
मूलम्
क्रौञ्चो जीवति वर्षं तु ततो जायति चीरकः।
ततो निधनमापन्नो मानुषत्वमुपाश्नुते ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रौंच होकर वह एक वर्षतक जीवित रहता है। उसके बाद चीरक जातिका पक्षी होता है और फिर मरनेके बाद मनुष्य-योनिमें जन्म पाता है॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृषलो ब्राह्मणीं गत्वा कृमियोनौ प्रजायते।
ततः सम्प्राप्य निधनं जायते सूकरः पुनः ॥ ८९ ॥
मूलम्
वृषलो ब्राह्मणीं गत्वा कृमियोनौ प्रजायते।
ततः सम्प्राप्य निधनं जायते सूकरः पुनः ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूद्र-जातिका पुरुष ब्राह्मणजातिकी स्त्रीके साथ समागम करके देहत्यागके पश्चात् पहले कीड़ेकी योनिमें जन्म लेता है। फिर मरनेके बाद सूअर होता है॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूकरो जातमात्रस्तु रोगेण म्रियते नृप।
श्वा ततो जायते मूढः कर्मणा तेन पार्थिव ॥ ९० ॥
मूलम्
सूकरो जातमात्रस्तु रोगेण म्रियते नृप।
श्वा ततो जायते मूढः कर्मणा तेन पार्थिव ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! सूअरकी योनिमें जन्म लेते ही वह रोगसे मर जाता है। पृथ्वीनाथ! तत्पश्चात् वह मूढ़ जीव उसी पाप-कर्मके कारण कुत्ता होता है॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वा भूत्वा कृतकर्मासौ जायते मानुषस्ततः।
तत्रापत्यं समुत्पाद्य मृतो जायति मूषिकः ॥ ९१ ॥
मूलम्
श्वा भूत्वा कृतकर्मासौ जायते मानुषस्ततः।
तत्रापत्यं समुत्पाद्य मृतो जायति मूषिकः ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुत्ता होनेपर पापकर्मका भोग समाप्त करके वह मनुष्ययोनिमें जन्म लेता है। मनुष्ययोनिमें भी वह एक ही संतान पैदा करके मर जाता है और शेष पापका फल भोगनेके लिये चूहा होता है॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतघ्नस्तु मृतो राजन् यमस्य विषयं गतः।
यमस्य पुरुषैः क्रुद्धैर्वधं प्राप्नोति दारुणम् ॥ ९२ ॥
मूलम्
कृतघ्नस्तु मृतो राजन् यमस्य विषयं गतः।
यमस्य पुरुषैः क्रुद्धैर्वधं प्राप्नोति दारुणम् ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कृतघ्न मनुष्य मरनेके बाद यमराजके लोकमें जाता है। वहाँ क्रोधमें भरे हुए यमदूत उसके ऊपर बड़ी निर्दयताके साथ प्रहार करते हैं॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डं समुद्गरं शूलमग्निकुम्भं च दारुणम्।
असिपत्रवनं घोरवालुकं कूटशाल्मलीम् ॥ ९३ ॥
एताश्चान्याश्च बह्वीश्च यमस्य विषयं गतः।
यातनाः प्राप्य तत्रोग्रास्ततो वध्यति भारत ॥ ९४ ॥
मूलम्
दण्डं समुद्गरं शूलमग्निकुम्भं च दारुणम्।
असिपत्रवनं घोरवालुकं कूटशाल्मलीम् ॥ ९३ ॥
एताश्चान्याश्च बह्वीश्च यमस्य विषयं गतः।
यातनाः प्राप्य तत्रोग्रास्ततो वध्यति भारत ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! वह दण्ड, मुद्गर और शूलकी चोट खाकर दारुण अग्निकुम्भ (कुम्भीपाक), असिपत्रवन, तपी हुई भयंकर बालू, काँटोंसे भरी हुई शाल्मली आदि नरकोंमें कष्ट भोगता है। यमलोकमें पहुँचकर इन ऊपर बताये हुए तथा और भी बहुत-से नरकोंकी भयंकर यातनाएँ भोगकर वह वहाँ यमदूतोंद्वारा पीटा जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो हतः कृतघ्नः स तत्रोग्रैर्भरतर्षभ।
संसारचक्रमासाद्य कृमियोनौ प्रजायते ॥ ९५ ॥
मूलम्
ततो हतः कृतघ्नः स तत्रोग्रैर्भरतर्षभ।
संसारचक्रमासाद्य कृमियोनौ प्रजायते ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार निर्दयी यमदूतोंसे पीड़ित हुआ कृतघ्न पुरुष पुनः संसारचक्रमें आता और कीड़ेकी योनिमें जन्म लेता है॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृमिर्भवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत।
ततो गर्भं समासाद्य तत्रैव म्रियते शिशुः ॥ ९६ ॥
मूलम्
कृमिर्भवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत।
ततो गर्भं समासाद्य तत्रैव म्रियते शिशुः ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! पंद्रह वर्षोंतक वह कीड़ेकी योनिमें रहता है। फिर गर्भमें आकर वहीं गर्भस्थ शिशुकी दशामें ही मर जाता है॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गर्भशतैर्जन्तुर्बहुभिः सम्प्रपद्यते ।
संसारांश्च बहून् गत्वा ततस्तिर्यक्षु जायते ॥ ९७ ॥
मूलम्
ततो गर्भशतैर्जन्तुर्बहुभिः सम्प्रपद्यते ।
संसारांश्च बहून् गत्वा ततस्तिर्यक्षु जायते ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह कई सौ बार वह जीव गर्भकी यन्त्रणा भोगता है। तदनन्तर बहुत बार जन्म लेनेके पश्चात् वह तिर्यग्योनिमें उत्पन्न होता है॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुःखमनुप्राप्य बहु वर्षगणानिह।
अपुनर्भवसंयुक्तस्ततः कूर्मः प्रजायते ॥ ९८ ॥
मूलम्
ततो दुःखमनुप्राप्य बहु वर्षगणानिह।
अपुनर्भवसंयुक्तस्ततः कूर्मः प्रजायते ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन योनियोंमें बहुत वर्षोंतक दुःख भोगनेके पश्चात् वह फिर मनुष्ययोनिमें न आकर दीर्घकालके लिये कछुआ हो जाता है॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दधि हृत्वा बकश्चापि प्लवो मत्स्यानसंस्कृतान्।
चोरयित्वा तु दुर्बुद्धिर्मधु दंशः प्रजायते ॥ ९९ ॥
मूलम्
दधि हृत्वा बकश्चापि प्लवो मत्स्यानसंस्कृतान्।
चोरयित्वा तु दुर्बुद्धिर्मधु दंशः प्रजायते ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्बुद्धि मनुष्य दहीकी चोरी करके बगला होता है, कच्ची मछलियोंकी चोरी करके वह कारण्डव नामक जलपक्षी होता है और मधुका अपहरण करके वह डाँस (मच्छर) की योनिमें जन्म लेता है॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलं वा मूलकं हृत्वा अपूपं वा पिपीलिकाः।
चोरयित्वा च निष्पावं जायते हलगोलकः ॥ १०० ॥
मूलम्
फलं वा मूलकं हृत्वा अपूपं वा पिपीलिकाः।
चोरयित्वा च निष्पावं जायते हलगोलकः ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फल, मूल अथवा पूएकी चोरी करनेपर मनुष्यको चींटीकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है। निष्पाव (मटर या उड़द) की चोरी करनेवाला हलगोलक नामवाला कीड़ा होता है॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पायसं चोरयित्वा तु तित्तिरित्वमवाप्नुते।
हृत्वा पिष्टमयं पूपं कुम्भोलूकः प्रजायते ॥ १०१ ॥
मूलम्
पायसं चोरयित्वा तु तित्तिरित्वमवाप्नुते।
हृत्वा पिष्टमयं पूपं कुम्भोलूकः प्रजायते ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
खीरकी चोरी करनेवाला तीतरकी योनिमें जन्म लेता है। आटेका पूआ चुराकर मनुष्य मरनेके बाद उल्लू होता है॥१०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयो हृत्वा तु दुर्बुद्धिर्वायसो जायते नरः।
कांस्यं हृत्वा तु दुर्बुद्धिर्हारितो जायते नरः ॥ १०२ ॥
मूलम्
अयो हृत्वा तु दुर्बुद्धिर्वायसो जायते नरः।
कांस्यं हृत्वा तु दुर्बुद्धिर्हारितो जायते नरः ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोहेकी चोरी करनेवाला मूर्ख मानव कौवा होता है। काँसकी चोरी करके खोटी बुद्धिवाला मनुष्य हारीत नामक पक्षी होता है॥१०२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजतं भाजनं हृत्वा कपोतः सम्प्रजायते।
हृत्वा तु काञ्चनं भाण्डं कृमियोनौ प्रजायते ॥ १०३ ॥
मूलम्
राजतं भाजनं हृत्वा कपोतः सम्प्रजायते।
हृत्वा तु काञ्चनं भाण्डं कृमियोनौ प्रजायते ॥ १०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाँदीका बर्तन चुरानेवाला कबूतर होता है और सुवर्णमय भाण्डकी चोरी करके मनुष्यको कीड़ेकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है॥१०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पत्रोर्णं चोरयित्वा तु कृकलत्वं निगच्छति।
कौशिकं तु ततो हृत्वा नरो जायति वर्तकः ॥ १०४ ॥
मूलम्
पत्रोर्णं चोरयित्वा तु कृकलत्वं निगच्छति।
कौशिकं तु ततो हृत्वा नरो जायति वर्तकः ॥ १०४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऊनी वस्त्र चुरानेवाला कृकल (गिरगिट) की योनिमें जन्म लेता है। कौशेय (रेशमी) वस्त्रकी चोरी करनेपर मनुष्य बत्तक होता है॥१०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंशुकं चोरयित्वा तु शुको जायति मानवः।
चोरयित्वा दुकूलं तु मृतो हंसः प्रजायते ॥ १०५ ॥
मूलम्
अंशुकं चोरयित्वा तु शुको जायति मानवः।
चोरयित्वा दुकूलं तु मृतो हंसः प्रजायते ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अंशुक (महीन कपड़े) की चोरी करके मनुष्य तोतेका जन्म पाता है तथा दुकूल (उत्तरीय वस्त्र) की चोरी करके मृत्युको प्राप्त हुआ मानव हंसकी योनिमें जन्म लेता है॥१०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रौञ्चः कार्पासिकं हृत्वा मृतो जायति मानवः।
चोरयित्वा नरः पट्टं त्वाविकं चैव भारत ॥ १०६ ॥
क्षौमं च वस्त्रमादाय शशो जन्तुः प्रजायते।
मूलम्
क्रौञ्चः कार्पासिकं हृत्वा मृतो जायति मानवः।
चोरयित्वा नरः पट्टं त्वाविकं चैव भारत ॥ १०६ ॥
क्षौमं च वस्त्रमादाय शशो जन्तुः प्रजायते।
अनुवाद (हिन्दी)
सूती वस्त्रकी चोरी करके मरा हुआ मनुष्य क्रौंच पक्षीकी योनिमें जन्म लेता है। भारत! पाटम्बर, भेड़के ऊनका बना हुआ तथा क्षौम (रेशमी) वस्त्र चुरानेवाला मनुष्य खरगोश नामक जन्तु होता है॥१०६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्णान् हृत्वा तु पुरुषो मृतो जायति बर्हिणः ॥ १०७ ॥
हृत्वा रक्तानि वस्त्राणि जायते जीवजीवकः।
मूलम्
वर्णान् हृत्वा तु पुरुषो मृतो जायति बर्हिणः ॥ १०७ ॥
हृत्वा रक्तानि वस्त्राणि जायते जीवजीवकः।
अनुवाद (हिन्दी)
अनेक प्रकारके रंगोंकी चोरी करके मृत्युको प्राप्त हुआ पुरुष मोर होता है। लाल कपड़े चुरानेवाला मनुष्य चकोरकी योनिमें जन्म लेता है॥१०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्णकादींस्तथा गन्धांश्चोरयित्वेह मानवः ॥ १०८ ॥
छुच्छुन्दरित्वमाप्नोति राजल्लोँभपरायणः ।
तत्र जीवति वर्षाणि ततो दश च पञ्च च॥१०९॥
मूलम्
वर्णकादींस्तथा गन्धांश्चोरयित्वेह मानवः ॥ १०८ ॥
छुच्छुन्दरित्वमाप्नोति राजल्लोँभपरायणः ।
तत्र जीवति वर्षाणि ततो दश च पञ्च च॥१०९॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो मनुष्य लोभके वशीभूत होकर वर्णक (अनुलेपन) आदि तथा चन्दनकी चोरी करता है, वह छछूँदर होता है। उस योनिमें वह पंद्रह वर्षतक जीवित रहता है॥१०८-१०९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मस्य क्षयं गत्वा ततो जायति मानुषः।
चोरयित्वा पयश्चापि बलाका सम्प्रजायते ॥ ११० ॥
मूलम्
अधर्मस्य क्षयं गत्वा ततो जायति मानुषः।
चोरयित्वा पयश्चापि बलाका सम्प्रजायते ॥ ११० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर अधर्मका क्षय हो जानेपर वह मनुष्यका जन्म पाता है। दूध चुरानेवाली स्त्री बगुली होती है॥११०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु चोरयते तैलं नरो मोहसमन्वितः।
सोऽपि राजन् मृतो जन्तुस्तैलपायी प्रजायते ॥ १११ ॥
मूलम्
यस्तु चोरयते तैलं नरो मोहसमन्वितः।
सोऽपि राजन् मृतो जन्तुस्तैलपायी प्रजायते ॥ १११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो मनुष्य मोहयुक्त होकर तेल चुराता है, वह मरनेपर तेलपायी नामक कीड़ा होता है॥१११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशस्त्रं पुरुषं हत्वा सशस्त्रः पुरुषाधमः।
अर्थार्थी यदि वा वैरी स मृतो जायते खरः॥११२॥
मूलम्
अशस्त्रं पुरुषं हत्वा सशस्त्रः पुरुषाधमः।
अर्थार्थी यदि वा वैरी स मृतो जायते खरः॥११२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो नीच मनुष्य धनके लोभसे अथवा शत्रुताके कारण हथियार लेकर निहत्थे पुरुषको मार डालता है, वह अपनी मृत्युके बाद गदहेकी योनिमें जन्म पाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खरो जीवति वर्षे द्वे ततः शस्त्रेण वध्यते।
स मृतो मृगयोनौ तु नित्योद्विग्नोऽभिजायते ॥ ११३ ॥
मूलम्
खरो जीवति वर्षे द्वे ततः शस्त्रेण वध्यते।
स मृतो मृगयोनौ तु नित्योद्विग्नोऽभिजायते ॥ ११३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गदहा होकर वह दो वर्षोंतक जीवित रहता है। फिर शस्त्रसे उसका वध होता है। इस प्रकार मरकर वह मृगकी योनिमें जन्म लेता और हिंसकोंके भयसे सदा उद्विग्न रहता है॥११३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगो वध्यति शस्त्रेण गते संवत्सरे तु सः।
हतो मृगस्ततो मीनः सोऽपि जालेन बध्यते ॥ ११४ ॥
मूलम्
मृगो वध्यति शस्त्रेण गते संवत्सरे तु सः।
हतो मृगस्ततो मीनः सोऽपि जालेन बध्यते ॥ ११४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृग होकर वह सालभरमें ही शस्त्रद्वारा मारा जाता है। मरनेपर मत्स्य होता है, फिर वह भी जालसे बँधता है॥११४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मासे चतुर्थे सम्प्राप्ते श्वापदः सम्प्रजायते।
श्वापदो दश वर्षाणि द्वीपी वर्षाणि पञ्च च ॥ ११५ ॥
मूलम्
मासे चतुर्थे सम्प्राप्ते श्वापदः सम्प्रजायते।
श्वापदो दश वर्षाणि द्वीपी वर्षाणि पञ्च च ॥ ११५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह किसी प्रकार जालसे छूटा हुआ भी चौथे महीनेमें मृत्युको प्राप्त हो हिंसक जन्तु भेड़िया आदि होता है। उस योनिमें दस वर्षोंतक रहकर वह पाँच वर्षोंतक व्याघ्र या चीतेकी योनिमें पड़ा रहता है॥११५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु निधनं प्राप्तः कालपर्यायचोदितः।
अधर्मस्य क्षयं कृत्वा ततो जायति मानुषः ॥ ११६ ॥
मूलम्
ततस्तु निधनं प्राप्तः कालपर्यायचोदितः।
अधर्मस्य क्षयं कृत्वा ततो जायति मानुषः ॥ ११६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पापका क्षय होनेपर कालकी प्रेरणासे मृत्युको प्राप्त हो वह पुनः मनुष्य होता है॥११६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रियं हत्वा तु दुर्बुद्धिर्यमस्य विषयं गतः।
बहून् क्लेशान् समासाद्य संसारांश्चैव विंशतिम् ॥ ११७ ॥
मूलम्
स्त्रियं हत्वा तु दुर्बुद्धिर्यमस्य विषयं गतः।
बहून् क्लेशान् समासाद्य संसारांश्चैव विंशतिम् ॥ ११७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो खोटी बुद्धिवाला पुरुष स्त्रीकी हत्या कर डालता है, वह यमराजके लोकमें जाकर नाना प्रकारके क्लेश भोगनेके पश्चात् बीस बार दुःखद योनियोंमें जन्म लेता है॥११७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पश्चान्महाराज कृमियोनौ प्रजायते।
कृमिर्विंशतिवर्षाणि भूत्वा जायति मानुषः ॥ ११८ ॥
मूलम्
ततः पश्चान्महाराज कृमियोनौ प्रजायते।
कृमिर्विंशतिवर्षाणि भूत्वा जायति मानुषः ॥ ११८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तदनन्तर वह कीड़ेकी योनिमें जन्म लेता है और बीस वर्षोंतक कीट-योनिमें रहकर अन्तमें मनुष्य होता है॥११८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोजनं चोरयित्वा तु मक्षिका जायते नरः।
मक्षिकासंघवशगो बहून् मासान् भवत्युत ॥ ११९ ॥
ततः पापक्षयं कृत्वा मानुषत्वमवाप्नुते।
मूलम्
भोजनं चोरयित्वा तु मक्षिका जायते नरः।
मक्षिकासंघवशगो बहून् मासान् भवत्युत ॥ ११९ ॥
ततः पापक्षयं कृत्वा मानुषत्वमवाप्नुते।
अनुवाद (हिन्दी)
भोजनकी चोरी करके मनुष्य मक्खी होता है और कई महीनोंतक मक्खियोंके समुदायके अधीन रहता है। तत्पश्चात् पापोंका भोग समाप्त करके वह पुनः मनुष्य-योनिमें जन्म लेता है॥११९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धान्यं हृत्वा तु पुरुषो लोमशः सम्प्रजायते ॥ १२० ॥
तथा पिण्याकसम्मिश्रमशनं चोरयेन्नरः ।
स जायते बभ्रुसमो दारुणो मूषिको नरः ॥ १२१ ॥
दशन् वै मानुषान्नित्यं पापात्मा स विशाम्पते।
मूलम्
धान्यं हृत्वा तु पुरुषो लोमशः सम्प्रजायते ॥ १२० ॥
तथा पिण्याकसम्मिश्रमशनं चोरयेन्नरः ।
स जायते बभ्रुसमो दारुणो मूषिको नरः ॥ १२१ ॥
दशन् वै मानुषान्नित्यं पापात्मा स विशाम्पते।
अनुवाद (हिन्दी)
धान्यकी चोरी करनेवाले मनुष्यके शरीरमें दूसरे जन्ममें बहुत-से रोएँ पैदा होते हैं। प्रजानाथ! जो मानव तिलके चूर्णसे मिश्रित भोजनकी चोरी करता है, वह नेवलेके समान आकारवाला भयानक चूहा होता है तथा वह पापी सदा मनुष्योंको काटा करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घृतं हृत्वा तु दुर्बुद्धिः काकमद्गुः प्रजायते ॥ १२२ ॥
मत्स्यमांसमथो हृत्वा काको जायति दुर्मतिः।
लवणं चोरयित्वा तु चिरिकाकः प्रजायते ॥ १२३ ॥
मूलम्
घृतं हृत्वा तु दुर्बुद्धिः काकमद्गुः प्रजायते ॥ १२२ ॥
मत्स्यमांसमथो हृत्वा काको जायति दुर्मतिः।
लवणं चोरयित्वा तु चिरिकाकः प्रजायते ॥ १२३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दुर्बुद्धि मनुष्य घी चुराता है, वह काकमद्गु (सींगवाला जल-पक्षी) होता है। जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य मत्स्य और मांसकी चोरी करता है, वह कौवा होता है। नमककी चोरी करनेसे मनुष्यको चिरिकाक-योनिमें जन्म लेना पड़ता है॥१२२-१२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वासेन तु निक्षिप्तं यो विनिह्नोति मानवः।
स गतायुर्नरस्तात मत्स्ययोनौ प्रजायते ॥ १२४ ॥
मूलम्
विश्वासेन तु निक्षिप्तं यो विनिह्नोति मानवः।
स गतायुर्नरस्तात मत्स्ययोनौ प्रजायते ॥ १२४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! जो मानव विश्वासपूर्वक रखी हुई दूसरेकी धरोहरको हड़प लेता है, वह गतायु होनेपर मत्स्यकी योनिमें जन्म लेता है॥१२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्स्ययोनिमनुप्राप्य मृतो जायति मानुषः।
मानुषत्वमनुप्राप्य क्षीणायुरुपपद्यते ॥ १२५ ॥
मूलम्
मत्स्ययोनिमनुप्राप्य मृतो जायति मानुषः।
मानुषत्वमनुप्राप्य क्षीणायुरुपपद्यते ॥ १२५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मत्स्ययोनिमें जन्म लेनेके बाद जब मरता है, तब पुनः मनुष्यका जन्म पाता है। मानव-योनिमें आकर उसकी आयु बहुत कम होती है॥१२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पापानि तु नराः कृत्वा तिर्यग् जायन्ति भारत।
न चात्मनः प्रमाणं ते धर्मं जानन्ति किंचन ॥ १२६ ॥
मूलम्
पापानि तु नराः कृत्वा तिर्यग् जायन्ति भारत।
न चात्मनः प्रमाणं ते धर्मं जानन्ति किंचन ॥ १२६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! पाप करके मनुष्य पशु-पक्षियोंकी योनिमें जन्म लेते हैं। वहाँ उन्हें अपने उद्धार करनेवाले धर्मका कुछ भी ज्ञान नहीं रहता॥१२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये पापानि नराः कृत्वा निरस्यन्ति व्रतैः सदा।
सुखदुःखसमायुक्ता व्यथितास्ते भवन्त्युत ॥ १२७ ॥
असंवासाः प्रजायन्ते म्लेच्छाश्चापि न संशयः।
नराः पापसमाचारा लोभमोहसमन्विताः ॥ १२८ ॥
मूलम्
ये पापानि नराः कृत्वा निरस्यन्ति व्रतैः सदा।
सुखदुःखसमायुक्ता व्यथितास्ते भवन्त्युत ॥ १२७ ॥
असंवासाः प्रजायन्ते म्लेच्छाश्चापि न संशयः।
नराः पापसमाचारा लोभमोहसमन्विताः ॥ १२८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पापाचारी पुरुष लोभ और मोहके वशीभूत हो पाप करके उसे व्रत आदिके द्वारा दूर करनेका प्रयत्न करते हैं, वे सदा सुख-दुःख भोगते हुए व्यथित रहते हैं। उन्हें कहीं रहनेको ठौर नहीं मिलता तथा वे म्लेच्छ होकर सदा मारे-मारे फिरते हैं। इसमें संशय नहीं है॥१२७-१२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्जयन्ति च पापानि जन्मप्रभृति ये नराः।
अरोगा रूपवन्तस्ते धनिनश्च भवन्त्युत ॥ १२९ ॥
मूलम्
वर्जयन्ति च पापानि जन्मप्रभृति ये नराः।
अरोगा रूपवन्तस्ते धनिनश्च भवन्त्युत ॥ १२९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य जन्मसे ही पापका परित्याग कर देते हैं, वे नीरोग, रूपवान् और धनी होते हैं॥१२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रियोऽप्येतेन कल्पेन कृत्वा पापमवाप्नुयुः।
एतेषामेव जन्तूनां भार्यात्वमुपयान्ति ताः ॥ १३० ॥
मूलम्
स्त्रियोऽप्येतेन कल्पेन कृत्वा पापमवाप्नुयुः।
एतेषामेव जन्तूनां भार्यात्वमुपयान्ति ताः ॥ १३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्रियाँ भी यदि पूर्वोक्त पापकर्म करती हैं तो पापकी भागिनी होती हैं और वे उन पापभोगी प्राणियोंकी ही पत्नी होती हैं॥१३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परस्वहरणे दोषाः सर्व एव प्रकीर्तिताः।
एतद्धि लेशमात्रेण कथितं ते मयानघ ॥ १३१ ॥
मूलम्
परस्वहरणे दोषाः सर्व एव प्रकीर्तिताः।
एतद्धि लेशमात्रेण कथितं ते मयानघ ॥ १३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप नरेश! पराये धनका अपहरण करनेसे जो दोष होते हैं, वे सब बताये गये। यहाँ मेरे द्वारा संक्षेपसे ही इस विषयका दिग्दर्शन कराया गया है॥१३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरस्मिन् कथायोगे भूयः श्रोष्यसि भारत।
एतन्मया महाराज ब्रह्मणो वदतः पुरा ॥ १३२ ॥
सुरर्षीणां श्रुतं मध्ये पृष्टश्चापि यथातथम्।
मयापि तच्च कार्त्स्न्येन यथावदनुवर्णितम्।
एतच्छ्रुत्वा महाराज धर्मे कुरु मनः सदा ॥ १३३ ॥
मूलम्
अपरस्मिन् कथायोगे भूयः श्रोष्यसि भारत।
एतन्मया महाराज ब्रह्मणो वदतः पुरा ॥ १३२ ॥
सुरर्षीणां श्रुतं मध्ये पृष्टश्चापि यथातथम्।
मयापि तच्च कार्त्स्न्येन यथावदनुवर्णितम्।
एतच्छ्रुत्वा महाराज धर्मे कुरु मनः सदा ॥ १३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! अब दूसरी बार बातचीतके प्रसंगमें फिर कभी इस विषयको सुनना। महाराज! पूर्वकालमें ब्रह्माजी देवर्षियोंके बीच यह प्रसंग सुना रहे थे। वहाँ उन्हींके मुँहसे मैंने ये सारी बातें सुनी थीं और तुम्हारे पूछनेपर उन्हीं सब बातोंका मैंने भी यथार्थरूपसे वर्णन किया है। राजन्! यह सुनकर तुम सदा धर्ममें मन लगाओ॥१३२-१३३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि संसारचक्रं नाम एकादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १११ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें संसारचक्र नामक एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१११॥