भागसूचना
दशाधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
रूप-सौन्दर्य और लोकप्रियताकी प्राप्तिके लिये मार्गशीर्षमासमें चन्द्र-व्रत करनेका प्रतिपादन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरतल्पगतं भीष्मं वृद्धं कुरुपितामहम्।
उपगम्य महाप्राज्ञः पर्यमृच्छद् युधिष्ठिरः ॥ १ ॥
मूलम्
शरतल्पगतं भीष्मं वृद्धं कुरुपितामहम्।
उपगम्य महाप्राज्ञः पर्यमृच्छद् युधिष्ठिरः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! महाज्ञानी युधिष्ठिरने बाणशय्यापर सोये हुए कुरुकुलके वृद्ध पितामह भीष्मजीके निकट जाकर इस प्रकार प्रश्न किया॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गानां रूपसौभाग्यं प्रियं चैव कथं भवेत्।
धर्मार्थकामसंयुक्तः सुखभागी कथं भवेत् ॥ २ ॥
मूलम्
अङ्गानां रूपसौभाग्यं प्रियं चैव कथं भवेत्।
धर्मार्थकामसंयुक्तः सुखभागी कथं भवेत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— पितामह! मनुष्यके अंगोंको सुन्दर रूपका सौभाग्य कैसे प्राप्त होता है? मनुष्यमें लोकप्रियता कैसे आती है? धर्म, अर्थ और कामसे युक्त पुरुष किस प्रकार सुखका भागी हो सकता है?॥२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मार्गशीर्षस्य मासस्य चन्द्रे मूलेन संयुते।
पादौ मूलेन राजेन्द्र जङ्घायामथ रोहिणीम् ॥ ३ ॥
मूलम्
मार्गशीर्षस्य मासस्य चन्द्रे मूलेन संयुते।
पादौ मूलेन राजेन्द्र जङ्घायामथ रोहिणीम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजेन्द्र! मार्गशीर्षमासके शुक्लपक्षकी प्रतिपदाको मूल नक्षत्रसे चन्द्रमाका योग होनेपर चन्द्रसम्बन्धी व्रत आरम्भ करे। चन्द्रमाके स्वरूपका इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये। देवता-सहित मूलनक्षत्रके द्वारा उनके दोनों चरणोंकी भावना करे और पिण्डलियोंमें रोहिणीको स्थापित करे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्विन्यां सक्थिनी चैव ऊरू चाषाढयोस्तथा।
गुह्यं तु फाल्गुनी विद्यात् कृत्तिका कटिकास्तथा ॥ ४ ॥
मूलम्
अश्विन्यां सक्थिनी चैव ऊरू चाषाढयोस्तथा।
गुह्यं तु फाल्गुनी विद्यात् कृत्तिका कटिकास्तथा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाँघोंमें अश्विनी नक्षत्र, ऊरुओंमें पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र, गुह्य भागमें पूर्वाफाल्गुनी और उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र तथा कटिभागमें कृत्तिकाकी स्थिति समझे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभिं भाद्रपदे विद्याद् रेवत्यामक्षिमण्डलम्।
पृष्ठमेव धनिष्ठासु अनुराधोत्तरास्तथा ॥ ५ ॥
मूलम्
नाभिं भाद्रपदे विद्याद् रेवत्यामक्षिमण्डलम्।
पृष्ठमेव धनिष्ठासु अनुराधोत्तरास्तथा ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाभिमें पूर्वाभाद्रपदा और उत्तराभाद्रपदाको जाने, नेत्रमण्डलमें रेवती, पृष्ठभागमें धनिष्ठा, अनुराधा तथा उत्तराको स्थापित समझे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाहुभ्यां तु विशाखासु हस्तौ हस्तेन निर्दिशेत्।
पुनर्वस्वङ्गुली राजन्नाश्लेषासु नखास्तथा ॥ ६ ॥
मूलम्
बाहुभ्यां तु विशाखासु हस्तौ हस्तेन निर्दिशेत्।
पुनर्वस्वङ्गुली राजन्नाश्लेषासु नखास्तथा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! दोनों भुजाओंमें विशाखाका, हाथोंमें हस्तका, अंगुलियोंमें पुनर्वसुका तथा नखोंमें आश्लेषाकी स्थापना करे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रीवां ज्येष्ठा च राजेन्द्र श्रवणेन तु कर्णयोः।
मुखं पुष्येण दानेन दन्तोष्ठौ स्वातिरुच्यते ॥ ७ ॥
मूलम्
ग्रीवां ज्येष्ठा च राजेन्द्र श्रवणेन तु कर्णयोः।
मुखं पुष्येण दानेन दन्तोष्ठौ स्वातिरुच्यते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! ज्येष्ठा नक्षत्रसे ग्रीवाकी, श्रवणसे दोनों कानोंकी, पुष्य नक्षत्रकी स्थापनासे मुखकी तथा स्वाती नक्षत्रसे दाँतों और ओठोंकी भावना बतायी जाती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हासं शतभिषां चैव मघां चैवाथ नासिकाम्।
नेत्रे मृगशिरो विद्याल्ललाटे मित्रमेव तु ॥ ८ ॥
मूलम्
हासं शतभिषां चैव मघां चैवाथ नासिकाम्।
नेत्रे मृगशिरो विद्याल्ललाटे मित्रमेव तु ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शतभिषाको हास, मघाको नासिका, मृगशिराको नेत्र और मित्र (अनुराधा) को ललाट समझे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरण्यां तु शिरो विद्यात् केशानार्द्रां नराधिप।
समाप्ते तु घृतं दद्याद् ब्राह्मणे वेदपारगे ॥ ९ ॥
मूलम्
भरण्यां तु शिरो विद्यात् केशानार्द्रां नराधिप।
समाप्ते तु घृतं दद्याद् ब्राह्मणे वेदपारगे ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! भरणीको सिर और आर्द्राको चन्द्रमाके केश समझे। (इस प्रकार विभिन्न अंगोंमें नक्षत्रोंकी स्थापना करके तत्सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा उन-उन अंगोंकी पूजा एवं जप) होम आदि प्रतिदिन करे। पौर्णमासीको व्रत समाप्त होनेपर वेदोंके पारंगत विद्वान् ब्राह्मणको घृत दान करे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुभगो दर्शनीयश्च ज्ञानभाग्यथ जायते।
जायते परिपूर्णाङ्गः पौर्णमास्येव चन्द्रमाः ॥ १० ॥
मूलम्
सुभगो दर्शनीयश्च ज्ञानभाग्यथ जायते।
जायते परिपूर्णाङ्गः पौर्णमास्येव चन्द्रमाः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा करनेसे मनुष्य पूर्णिमाके चन्द्रमाकी भाँति परिपूर्णांग सौभाग्यशाली, दर्शनीय तथा ज्ञानका भागी होता है॥१०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि दशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें एक सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११०॥