१०८ शौचानुपृच्छा

भागसूचना

अष्टाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

मानस तथा पार्थिव तीर्थकी महत्ता

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् वरं सर्वतीर्थानां तन्मे ब्रूहि पितामह।
यत्र चैव परं शौचं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥

मूलम्

यद् वरं सर्वतीर्थानां तन्मे ब्रूहि पितामह।
यत्र चैव परं शौचं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! जो सब तीर्थोंमें श्रेष्ठ हो तथा जहाँ जानेसे परम शुद्धि हो जाती हो, उस तीर्थको मुझे विस्तारपूर्वक बताइये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वाणि खलु तीर्थानि गुणवन्ति मनीषिणः।
यत्तु तीर्थं च शौचं च तन्मे शृणु समाहितः॥२॥

मूलम्

सर्वाणि खलु तीर्थानि गुणवन्ति मनीषिणः।
यत्तु तीर्थं च शौचं च तन्मे शृणु समाहितः॥२॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस पृथ्वीपर जितने तीर्थ हैं, वे सब मनीषी पुरुषोंके लिए गुणकारी होते हैं; किंतु उन सबमें जो परम पवित्र और प्रधान तीर्थ हैं, उसका वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगाधे विमले शुद्धे सत्यतोये धृतिह्रदे।
स्नातव्यं मानसे तीर्थे सत्त्वमालम्ब्य शाश्वतम् ॥ ३ ॥

मूलम्

अगाधे विमले शुद्धे सत्यतोये धृतिह्रदे।
स्नातव्यं मानसे तीर्थे सत्त्वमालम्ब्य शाश्वतम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसमें धैर्यरूप कुण्ड और सत्यरूप जल भरा हुआ है तथा जो अगाध, निर्मल एवं अत्यन्त शुद्ध है, उस मानस तीर्थमें सदा परमात्माका आश्रय लेकर स्नान करना चाहिये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीर्थशौचमनर्थित्वमार्जवं सत्यमार्दवम् ।
अहिंसा सर्वभूतानामानृशंस्यं दमः शमः ॥ ४ ॥

मूलम्

तीर्थशौचमनर्थित्वमार्जवं सत्यमार्दवम् ।
अहिंसा सर्वभूतानामानृशंस्यं दमः शमः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कामना और याचनाका अभाव, सरलता, सत्य, मृदुता, अहिंसा, समस्त प्राणियोंके प्रति क्रूरताका अभाव—दया, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह—ये ही इस मानस तीर्थके सेवनसे प्राप्त होनेवाली पवित्रताके लक्षण हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्ममा निरहंकारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः।
शुचयस्तीर्थभूतास्ते ये भैक्ष्यमुपभुञ्जते ॥ ५ ॥

मूलम्

निर्ममा निरहंकारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः।
शुचयस्तीर्थभूतास्ते ये भैक्ष्यमुपभुञ्जते ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ममता, अहंकार, राग-द्वेषादि द्वन्द्व और परिग्रहसे रहित एवं भिक्षासे जीवन निर्वाह करते हैं, वे विशुद्ध अन्तःकरणवाले साधु पुरुष तीर्थस्वरूप हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्त्ववित्त्वनहंबुद्धिस्तीर्थप्रवरमुच्यते ।
(नारायणेऽथ रुद्रे वा भक्तिस्तीर्थं परं मता।)
शौचलक्षणमेतत् ते सर्वत्रैवान्ववेक्षतः ॥ ६ ॥

मूलम्

तत्त्ववित्त्वनहंबुद्धिस्तीर्थप्रवरमुच्यते ।
(नारायणेऽथ रुद्रे वा भक्तिस्तीर्थं परं मता।)
शौचलक्षणमेतत् ते सर्वत्रैवान्ववेक्षतः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु जिसकी बुद्धिमें अहंकारका नाम भी नहीं है, वह तत्त्वज्ञानी पुरुष श्रेष्ठ तीर्थ कहलाता है। भगवान् नारायण अथवा भगवान् शिवमें जो भक्ति होती है, वह भी उत्तम तीर्थ मानी गयी है। पवित्रताका यह लक्षण तुम्हें विचार करनेपर सर्वत्र ही दृष्टिगोचर होगा॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजस्तमः सत्त्वमथो येषां निर्धौतमात्मनः।
शौचाशौचसमायुक्ताः स्वकार्यपरिमार्गिणः ॥ ७ ॥
सर्वत्यागेष्वभिरताः सर्वज्ञाः समदर्शिनः ।
शौचेन वृत्तशौचार्थास्ते तीर्थाः शुचयश्च ये ॥ ८ ॥

मूलम्

रजस्तमः सत्त्वमथो येषां निर्धौतमात्मनः।
शौचाशौचसमायुक्ताः स्वकार्यपरिमार्गिणः ॥ ७ ॥
सर्वत्यागेष्वभिरताः सर्वज्ञाः समदर्शिनः ।
शौचेन वृत्तशौचार्थास्ते तीर्थाः शुचयश्च ये ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके अन्तःकरणसे तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुण धुल गये हैं अर्थात् जो तीनों गुणोंसे रहित है, जो बाह्य पवित्रता और अपवित्रतासे युक्त रहकर भी अपने कर्तव्य (तत्त्वविचार, ध्यान, उपासना आदि) का ही अनुसंधान करते हैं। जो सर्वस्वके त्यागमें ही अभिरुचि रखते हैं, सर्वज्ञ और समदर्शी होकर शौचाचारके पालनद्वारा आत्मशुद्धिका सम्पादन करते हैं, वे सत्पुरुष ही परम पवित्र तीर्थस्वरूप हैं॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नोदकक्लिन्नगात्रस्तु स्नात इत्यभिधीयते ।
स स्नातो यो दमस्नातः स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥ ९ ॥

मूलम्

नोदकक्लिन्नगात्रस्तु स्नात इत्यभिधीयते ।
स स्नातो यो दमस्नातः स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरीरको केवल पानीसे भिगो लेना ही स्नान नहीं कहलाता है। सच्चा स्नान तो उसीने किया है, जिसने मन-इन्द्रियके संयमरूपी जलमें गोता लगाया है। वही बाहर और भीतरसे भी पवित्र माना गया है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीतेष्वनपेक्षा ये प्राप्तेष्वर्थेषु निर्ममाः।
शौचमेव परं तेषां येषां नोत्पद्यते स्पृहा ॥ १० ॥

मूलम्

अतीतेष्वनपेक्षा ये प्राप्तेष्वर्थेषु निर्ममाः।
शौचमेव परं तेषां येषां नोत्पद्यते स्पृहा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो बीते या नष्ट हुए विषयोंकी अपेक्षा नहीं रखते, प्राप्त हुए पदार्थोंमें ममताशून्य होते हैं तथा जिनके मनमें कोई इच्छा पैदा ही नहीं होती, उन्हींमें परम पवित्रता होती है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रज्ञानं शौचमेवेह शरीरस्य विशेषतः।
तथा निष्किंचनत्वं च मनसश्च प्रसन्नता ॥ ११ ॥

मूलम्

प्रज्ञानं शौचमेवेह शरीरस्य विशेषतः।
तथा निष्किंचनत्वं च मनसश्च प्रसन्नता ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस जगत्‌में प्रज्ञान ही शरीर-शुद्धिका विशेष साधन है। इसी प्रकार अकिंचनता और मनकी प्रसन्नता भी शरीरको शुद्ध करनेवाले हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्तशौचं मनःशौचं तीर्थशौचमतः परम्।
ज्ञानोत्पन्नं च यच्छौचं तच्छौचं परमं स्मृतम् ॥ १२ ॥

मूलम्

वृत्तशौचं मनःशौचं तीर्थशौचमतः परम्।
ज्ञानोत्पन्नं च यच्छौचं तच्छौचं परमं स्मृतम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुद्धि चार प्रकारकी मानी गयी है—आचारशुद्धि, मनःशुद्धि, तीर्थशुद्धि और ज्ञानशुद्धि; इनमें ज्ञानसे प्राप्त होनेवाली शुद्धि ही सबसे श्रेष्ठ मानी गयी है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसा च प्रदीप्तेन ब्रह्मज्ञानजलेन च।
स्नाति यो मानसे तीर्थे तत्स्नानं तत्त्वदर्शिनः ॥ १३ ॥

मूलम्

मनसा च प्रदीप्तेन ब्रह्मज्ञानजलेन च।
स्नाति यो मानसे तीर्थे तत्स्नानं तत्त्वदर्शिनः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्रसन्न एवं शुद्ध मनसे ब्रह्मज्ञानरूपी जलके द्वारा मानसतीर्थमें स्नान करता है, उसका वह स्नान ही तत्त्वदर्शी ज्ञानीका स्नान माना गया है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समारोपितशौचस्तु नित्यं भावसमाहितः ।
केवलं गुणसम्पन्नः शुचिरेव नरः सदा ॥ १४ ॥

मूलम्

समारोपितशौचस्तु नित्यं भावसमाहितः ।
केवलं गुणसम्पन्नः शुचिरेव नरः सदा ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सदा शौचाचारसे सम्पन्न, विशुद्ध भावसे युक्त और केवल सद्‌गुणोंसे विभूषित है, उस मनुष्यको सदा शुद्ध ही समझना चाहिये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरस्थानि तीर्थानि प्रोक्तान्येतानि भारत।
पृथिव्यां यानि तीर्थानि पुण्यानि शृणु तान्यपि ॥ १५ ॥

मूलम्

शरीरस्थानि तीर्थानि प्रोक्तान्येतानि भारत।
पृथिव्यां यानि तीर्थानि पुण्यानि शृणु तान्यपि ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! यह मैंने शरीरमें स्थित तीर्थोंका वर्णन किया; अब पृथ्वीपर जो पुण्यतीर्थ हैं, उनका महत्त्व भी सुनो॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरस्य यथोद्देशाः शुचयः परिकीर्तिताः।
तथा पृथिव्या भागाश्च पुण्यानि सलिलानि च ॥ १६ ॥

मूलम्

शरीरस्य यथोद्देशाः शुचयः परिकीर्तिताः।
तथा पृथिव्या भागाश्च पुण्यानि सलिलानि च ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे शरीरके विभिन्न स्थान पवित्र बताये गये हैं, उसी प्रकार पृथ्वीके भिन्न-भिन्न भाग भी पवित्र तीर्थ हैं और वहाँका जल पुण्यदायक है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीर्तनाश्चैव तीर्थस्य स्नानाश्च पितृतर्पणात्।
धुनन्ति पापं तीर्थेषु ते प्रयान्ति सुखं दिवम् ॥ १७ ॥

मूलम्

कीर्तनाश्चैव तीर्थस्य स्नानाश्च पितृतर्पणात्।
धुनन्ति पापं तीर्थेषु ते प्रयान्ति सुखं दिवम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग तीर्थोंके नाम लेकर तीर्थोंमें स्नान करके तथा उनमें पितरोंका तर्पण करके अपने पाप धो डालते हैं, वे बड़े सुखसे स्वर्गमें जाते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिग्रहाच्च साधूनां पृथिव्याश्चैव तेजसा।
अतीव पुण्यभागास्ते सलिलस्य च तेजसा ॥ १८ ॥

मूलम्

परिग्रहाच्च साधूनां पृथिव्याश्चैव तेजसा।
अतीव पुण्यभागास्ते सलिलस्य च तेजसा ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीके कुछ भाग साधु पुरुषोंके निवाससे तथा स्वयं पृथ्वी और जलके तेजसे अत्यन्त पवित्र माने गये हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसश्च पृथिव्याश्च पुण्यास्तीर्थास्तथापरे ।
उभयोरेव यः स्नायात् स सिद्धिं शीघ्रमाप्नुयात् ॥ १९ ॥

मूलम्

मनसश्च पृथिव्याश्च पुण्यास्तीर्थास्तथापरे ।
उभयोरेव यः स्नायात् स सिद्धिं शीघ्रमाप्नुयात् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पृथ्वीपर और मनमें भी अनेक पुण्यमय तीर्थ हैं। जो इन दोनों प्रकारके तीर्थोंमें स्नान करता है, वह शीघ्र ही परमात्मप्राप्तिरूप सिद्धि प्राप्त कर लेता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा बलं क्रियाहीनं क्रिया वा बलवर्जिता।
नेह साधयते कार्यं समायुक्ता तु सिध्यति ॥ २० ॥
एवं शरीरशौचेन तीर्थशौचेन चान्वितः।
शुचिः सिद्धिमवाप्नोति द्विविधं शौचमुत्तमम् ॥ २१ ॥

मूलम्

यथा बलं क्रियाहीनं क्रिया वा बलवर्जिता।
नेह साधयते कार्यं समायुक्ता तु सिध्यति ॥ २० ॥
एवं शरीरशौचेन तीर्थशौचेन चान्वितः।
शुचिः सिद्धिमवाप्नोति द्विविधं शौचमुत्तमम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे क्रियाहीन बल अथवा बलरहित क्रिया इस जगत्‌में कार्यका साधन नहीं कर सकती। बल और क्रिया दोनोंके संयुक्त होनेपर ही कार्यकी सिद्धि होती है, इसी प्रकार शरीरशुद्धि और तीर्थशुद्धिसे युक्त पुरुष ही पवित्र होकर परमात्मप्राप्तिरूप सिद्धि प्राप्त करता है। अतः दोनों प्रकारकी शुद्धि ही उत्तम मानी गयी है॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि शौचानुपृच्छा नामाष्टाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें शुद्धिकी जिज्ञासानामक एक सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०८॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पावका श्लोक मिलाकर कुल २१ श्लोक हैं)