१०६ उपवासविधौ

भागसूचना

षडधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

मास, पक्ष एवं तिथिसम्बन्धी विभिन्न व्रतोपवासके फलका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेषामेव वर्णानां म्लेच्छानां च पितामह।
उपवासे मतिरियं कारणं च न विद्महे ॥ १ ॥

मूलम्

सर्वेषामेव वर्णानां म्लेच्छानां च पितामह।
उपवासे मतिरियं कारणं च न विद्महे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! सभी वर्णों और म्लेच्छ जातिके लोग भी उपवासमें मन लगाते हैं, किंतु इसका क्या कारण है? यह समझमें नहीं आता॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मक्षत्रेण नियमाश्चर्तव्या इति नः श्रुतम्।
उपवासे कथं तेषां कृत्यमस्ति पितामह ॥ २ ॥

मूलम्

ब्रह्मक्षत्रेण नियमाश्चर्तव्या इति नः श्रुतम्।
उपवासे कथं तेषां कृत्यमस्ति पितामह ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितामह! सुननेमें आया है कि ब्राह्मण और क्षत्रियोंको नियमोंका पालन करना चाहिये; परंतु उपवास करनेसे किस प्रकार उनके प्रयोजनकी सिद्धि होती है, यह नहीं जान पड़ता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नियमांश्चोपवासांश्च सर्वेषां ब्रूहि पार्थिव।
आप्नोति कां गतिं तात उपवासपरायणः ॥ ३ ॥

मूलम्

नियमांश्चोपवासांश्च सर्वेषां ब्रूहि पार्थिव।
आप्नोति कां गतिं तात उपवासपरायणः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! आप कृपा करके हमें सम्पूर्ण नियमों और उपवासोंकी विधि बताइये। तात! उपवास करनेवाला मनुष्य किस गतिको प्राप्त होता है?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपवासः परं पुण्यमुपवासः परायणम्।
उपोष्येह नरश्रेष्ठ किं फलं प्रतिपद्यते ॥ ४ ॥

मूलम्

उपवासः परं पुण्यमुपवासः परायणम्।
उपोष्येह नरश्रेष्ठ किं फलं प्रतिपद्यते ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! कहते हैं, उपवास बहुत बड़ा पुण्य है और उपवास सबसे बड़ा आश्रय है; परंतु उपवास करके यहाँ मनुष्य कौन-सा फल पाता है?॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मान्मुच्यते केन धर्ममाप्नोति वा कथम्।
स्वर्गं पुण्यं च लभते कथं भरतसत्तम ॥ ५ ॥

मूलम्

अधर्मान्मुच्यते केन धर्ममाप्नोति वा कथम्।
स्वर्गं पुण्यं च लभते कथं भरतसत्तम ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! मनुष्य किस कर्मके द्वारा पापसे छुटकारा पाता है और क्या करनेसे किस प्रकार उसे धर्मकी प्राप्ति होती है? वह पुण्य और स्वर्ग कैसे पाता है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपोष्य चापि किं तेन प्रदेयं स्यान्नराधिप।
धर्मेण च सुखानर्थाल्लँभेद् येन ब्रवीहि तम् ॥ ६ ॥

मूलम्

उपोष्य चापि किं तेन प्रदेयं स्यान्नराधिप।
धर्मेण च सुखानर्थाल्लँभेद् येन ब्रवीहि तम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! उपवास करके मनुष्यको किस वस्तुका दान करना चाहिये? जिस धर्मसे सुख और धनकी प्राप्ति हो सके, वही मुझे बताइये॥६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवाणं कौन्तेयं धर्मज्ञं धर्मतत्त्ववित्।
धर्मपुत्रमिदं वाक्यं भीष्मः शान्तनवोऽब्रवीत् ॥ ७ ॥

मूलम्

एवं ब्रुवाणं कौन्तेयं धर्मज्ञं धर्मतत्त्ववित्।
धर्मपुत्रमिदं वाक्यं भीष्मः शान्तनवोऽब्रवीत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! धर्मज्ञ धर्मपुत्र कुन्तीकुमार युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर धर्मके तत्त्वको जाननेवाले शान्तनुनन्दन भीष्मने उनसे इस प्रकार कहा॥७॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं खलु मया राजन् श्रुतमासीत् पुरातनम्।
उपवासविधौ श्रेष्ठा गुणा ये भरतर्षभ ॥ ८ ॥

मूलम्

इदं खलु मया राजन् श्रुतमासीत् पुरातनम्।
उपवासविधौ श्रेष्ठा गुणा ये भरतर्षभ ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! भरतश्रेष्ठ! उपवास करनेमें जो श्रेष्ठ गुण हैं, उनके विषयमें मैंने प्राचीन कालमें इस तरह सुन रखा है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषिमंगिरसं पूर्वं पृष्टवानस्मि भारत।
यथा मां त्वं तथैवाहं पृष्टवांस्तं तपोधनम् ॥ ९ ॥

मूलम्

ऋषिमंगिरसं पूर्वं पृष्टवानस्मि भारत।
यथा मां त्वं तथैवाहं पृष्टवांस्तं तपोधनम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! जिस तरह आज तुमने मुझसे प्रश्न किया है इसी प्रकार मैंने भी पूर्वकालमें तपोधन अंगिरा मुनिसे प्रश्न किया था॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रश्नमेतं मया पृष्टो भगवानग्निसम्भवः।
उपवासविधिं पुण्यमाचष्ट भरतर्षभ ॥ १० ॥

मूलम्

प्रश्नमेतं मया पृष्टो भगवानग्निसम्भवः।
उपवासविधिं पुण्यमाचष्ट भरतर्षभ ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतभूषण! जब मैंने यह प्रश्न पूछा, तब अग्निनन्दन भगवान् अंगिराने मुझे उपवासकी पवित्र विधि इस प्रकार बतायी॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

अंगिरा उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मक्षत्रे त्रिरात्रं तु विहितं कुरुनन्दन।
द्विस्त्रिरात्रमथैकाहं निर्दिष्टं पुरुषर्षभ ॥ ११ ॥

मूलम्

ब्रह्मक्षत्रे त्रिरात्रं तु विहितं कुरुनन्दन।
द्विस्त्रिरात्रमथैकाहं निर्दिष्टं पुरुषर्षभ ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंगिरा बोले— कुरुनन्दन! ब्राह्मण और क्षत्रियके लिये तीन रात उपवास करनेका विधान है। कहीं-कहीं दो त्रिरात्र और एक दिन अर्थात् कुल सात दिन उपवास करनेका संकेत मिलता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैश्याः शूद्राश्च यन्मोहादुपवासं प्रचक्रिरे।
त्रिरात्रं वा द्विरात्रं वा तयोर्व्युष्टिर्न विद्यते ॥ १२ ॥

मूलम्

वैश्याः शूद्राश्च यन्मोहादुपवासं प्रचक्रिरे।
त्रिरात्रं वा द्विरात्रं वा तयोर्व्युष्टिर्न विद्यते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैश्यों और शूद्रोंने जो मोहवश तीन रात अथवा दो रातका उपवास किया है, उसका उन्हें कोई फल नहीं मिला है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्थभक्तक्षपणं वैश्ये शूद्रे विधीयते।
त्रिरात्रं न तु धर्मज्ञैर्विहितं धर्मदर्शिभिः ॥ १३ ॥

मूलम्

चतुर्थभक्तक्षपणं वैश्ये शूद्रे विधीयते।
त्रिरात्रं न तु धर्मज्ञैर्विहितं धर्मदर्शिभिः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैश्य और शूद्रके लिये चौथे समयतकके भोजनका त्याग करनेका विधान है अर्थात् उन्हें केवल दो दिन एवं दो रात्रितक उपवास करना चाहिये; क्योंकि धर्मशास्त्रके ज्ञाता एवं धर्मदर्शी विद्वानोंने उनके लिये तीन राततक उपवास करनेका विधान नहीं किया है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चम्यां वापि षष्ठ्यां च पौर्णमास्यां च भारत।
उपोष्य एकभक्तेन नियतात्मा जितेन्द्रियः ॥ १४ ॥
क्षमावान् रूपसम्पन्नः श्रुतवांश्चैव जायते।
नानपत्यो भवेत् प्राज्ञो दरिद्रो वा कदाचन ॥ १५ ॥

मूलम्

पञ्चम्यां वापि षष्ठ्यां च पौर्णमास्यां च भारत।
उपोष्य एकभक्तेन नियतात्मा जितेन्द्रियः ॥ १४ ॥
क्षमावान् रूपसम्पन्नः श्रुतवांश्चैव जायते।
नानपत्यो भवेत् प्राज्ञो दरिद्रो वा कदाचन ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! यदि मनुष्य पंचमी, षष्ठी और पूर्णिमाके दिन अपने मन और इन्द्रियोंको काबूमें रखकर एक वक्त भोजन करके दूसरे वक्त उपवास करे तो वह क्षमावान्, रूपवान् और विद्वान् होता है। वह बुद्धिमान् पुरुष कभी संतानहीन या दरिद्र नहीं होता॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजिष्णुः पञ्चमीं षष्ठीं कुले भोजयते द्विजान्।
अष्टमीमथ कौरव्य कृष्णपक्षे चतुर्दशीम् ॥ १६ ॥
उपोष्य व्याधिरहितो वीर्यवानभिजायते ।

मूलम्

यजिष्णुः पञ्चमीं षष्ठीं कुले भोजयते द्विजान्।
अष्टमीमथ कौरव्य कृष्णपक्षे चतुर्दशीम् ॥ १६ ॥
उपोष्य व्याधिरहितो वीर्यवानभिजायते ।

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! जो पुरुष भगवान्‌की आराधनाका इच्छुक होकर पंचमी, षष्ठी, अष्टमी तथा कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको अपने घरपर ब्राह्मणोंको भोजन कराता है और स्वयं उपवास करता है, वह रोगरहित और बलवान् होता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मार्गशीर्षं तु यो मासमेकभक्तेन संक्षिपेत् ॥ १७ ॥
भोजयेच्च द्विजान् शक्त्या स मुच्येद् व्याधिकिल्बिषैः।

मूलम्

मार्गशीर्षं तु यो मासमेकभक्तेन संक्षिपेत् ॥ १७ ॥
भोजयेच्च द्विजान् शक्त्या स मुच्येद् व्याधिकिल्बिषैः।

अनुवाद (हिन्दी)

जो मार्गशीर्ष मासको एक समय भोजन करके बिताता है और अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणोंको भोजन कराता है, वह रोग और पापोंसे मुक्त हो जाता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वकल्याणसम्पूर्णः सर्वौषधिसमन्वितः ॥ १८ ॥
उपोष्य व्याधिरहितो वीर्यवानभिजायते ।
कृषिभागी बहुधनो बहुधान्यश्च जायते ॥ १९ ॥

मूलम्

सर्वकल्याणसम्पूर्णः सर्वौषधिसमन्वितः ॥ १८ ॥
उपोष्य व्याधिरहितो वीर्यवानभिजायते ।
कृषिभागी बहुधनो बहुधान्यश्च जायते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सब प्रकारके कल्याणमय साधनोंसे सम्पन्न तथा सब तरहकी ओषधियों (अन्न-फल आदि) से भरा-पूरा होता है। मार्गशीर्ष मासमें उपवास करनेसे मनुष्य दूसरे जन्ममें रोगरहित और बलवान् होता है। उसके पास खेती-बारीकी सुविधा रहती है तथा वह बहुत धन-धान्यसे सम्पन्न होता है॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पौषमासं तु कौन्तेय भक्तेनैकेन यः क्षिपेत्।
सुभगो दर्शनीयश्च यशोभागी च जायते ॥ २० ॥

मूलम्

पौषमासं तु कौन्तेय भक्तेनैकेन यः क्षिपेत्।
सुभगो दर्शनीयश्च यशोभागी च जायते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! जो पौष मासको एक वक्त भोजन करके बिताता है, वह सौभाग्यशाली, दर्शनीय और यशका भागी होता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माघं तु नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्।
श्रीमत्कुले ज्ञातिमध्ये स महत्त्वं प्रपद्यते ॥ २१ ॥

मूलम्

माघं तु नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्।
श्रीमत्कुले ज्ञातिमध्ये स महत्त्वं प्रपद्यते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो माघमासको नियमपूर्वक एक समयके भोजनसे व्यतीत करता है, वह धनवान् कुलमें जन्म लेकर अपने कुटुम्बीजनोंमें महत्त्वको प्राप्त होता है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगदैवतमासं तु एकभक्तेन यः क्षिपेत्।
स्त्रीषु वल्लभतां याति वश्याश्चास्य भवन्ति ताः ॥ २२ ॥

मूलम्

भगदैवतमासं तु एकभक्तेन यः क्षिपेत्।
स्त्रीषु वल्लभतां याति वश्याश्चास्य भवन्ति ताः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो फाल्गुन मासको एक समय भोजन करके व्यतीत करता है, वह स्त्रियोंको प्रिय होता है और वे उसके अधीन रहती हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चैत्रं तु नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्।
सुवर्णमणिमुक्ताढ्‌ये कुले महति जायते ॥ २३ ॥

मूलम्

चैत्रं तु नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्।
सुवर्णमणिमुक्ताढ्‌ये कुले महति जायते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो नियमपूर्वक रहकर चैत्रमासको एक समय भोजन करके बिताता है, वह सुवर्ण, मणि और मोतियोंसे सम्पन्न महान् कुलमें जन्म लेता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निस्तरेदेकभक्तेन वैशाखं यो जितेन्द्रियः।
नरो वा यदि वा नारी ज्ञातीनां श्रेष्ठतां व्रजेत्॥२४॥

मूलम्

निस्तरेदेकभक्तेन वैशाखं यो जितेन्द्रियः।
नरो वा यदि वा नारी ज्ञातीनां श्रेष्ठतां व्रजेत्॥२४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो स्त्री अथवा पुरुष इन्द्रियसंयमपूर्वक एक समय भोजन करके वैशाख मासको पार करता है, वह सजातीय बन्धु-बान्धवोंमें श्रेष्ठताको प्राप्त होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्येष्ठामूलं तु यो मासमेकभक्तेन संक्षिपेत्।
ऐश्वर्यमतुलं श्रेष्ठं पुमान् स्त्री वा प्रपद्यते ॥ २५ ॥

मूलम्

ज्येष्ठामूलं तु यो मासमेकभक्तेन संक्षिपेत्।
ऐश्वर्यमतुलं श्रेष्ठं पुमान् स्त्री वा प्रपद्यते ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो एक समय ही भोजन करके ज्येष्ठ मासको बिताता है; वह स्त्री हो या पुरुष, अनुपम श्रेष्ठ ऐश्वर्यको प्राप्त होता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आषाढमेकभक्तेन स्थित्वा मासमतन्द्रितः ।
बहुधान्यो बहुधनो बहुपुत्रश्च जायते ॥ २६ ॥

मूलम्

आषाढमेकभक्तेन स्थित्वा मासमतन्द्रितः ।
बहुधान्यो बहुधनो बहुपुत्रश्च जायते ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो आषाढ़ मासमें आलस्य छोड़कर एक समय भोजन करके रहता है, वह बहुत-से धन-धान्य और पुत्रोंसे सम्पन्न होता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रावणं नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्।
यत्र तत्राभिषेकेण युज्यते ज्ञातिवर्धनः ॥ २७ ॥

मूलम्

श्रावणं नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्।
यत्र तत्राभिषेकेण युज्यते ज्ञातिवर्धनः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर एक समय भोजन करते हुए श्रावण मासको बिताता है, वह विभिन्न तीर्थोंमें स्नान करनेके पुण्य-फलसे युक्त होता और अपने कुटुम्बीजनोंकी वृद्धि करता है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रौष्ठपदं तु यो मासमेकाहारो भवेन्नरः।
गवाढ्‌यं स्फीतमचलमैश्वर्यं प्रतिपद्यते ॥ २८ ॥

मूलम्

प्रौष्ठपदं तु यो मासमेकाहारो भवेन्नरः।
गवाढ्‌यं स्फीतमचलमैश्वर्यं प्रतिपद्यते ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य भाद्रपद मासमें एक समय भोजन करके रहता है, वह गोधनसे सम्पन्न, समृद्धिशील तथा अविचल ऐश्वर्यका भागी होता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैवाश्वयुजं मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्।
मृजावान् वाहनाढ्‌यश्च बहुपुत्रश्च जायते ॥ २९ ॥

मूलम्

तथैवाश्वयुजं मासमेकभक्तेन यः क्षिपेत्।
मृजावान् वाहनाढ्‌यश्च बहुपुत्रश्च जायते ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो आश्विन मासको एक समय भोजन करके बिताता है, वह पवित्र, नाना प्रकारके वाहनोंसे सम्पन्न तथा अनेक पुत्रोंसे युक्त होता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्तिकं तु नरो मासं यः कुर्यादेकभोजनम्।
शूरश्च बहुभार्यश्च कीर्तिमांश्चैव जायते ॥ ३० ॥

मूलम्

कार्तिकं तु नरो मासं यः कुर्यादेकभोजनम्।
शूरश्च बहुभार्यश्च कीर्तिमांश्चैव जायते ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य कार्तिक मासमें एक समय भोजन करता है, वह शूरवीर, अनेक भार्याओंसे संयुक्त और कीर्तिमान् होता है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति मासा नरव्याघ्र क्षिपतां परिकीर्तिताः।
तिथीनां नियमा ये तु शृणु तानपि पार्थिव ॥ ३१ ॥

मूलम्

इति मासा नरव्याघ्र क्षिपतां परिकीर्तिताः।
तिथीनां नियमा ये तु शृणु तानपि पार्थिव ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! इस प्रकार मैंने मासपर्यन्त एकभुक्त व्रत करनेवाले मनुष्योंके लिये विभिन्न मासोंके फल बताये हैं। पृथ्वीनाथ! अब तिथियोंके जो नियम हैं, उन्हें भी सुन लो॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पक्षे पक्षे गते यस्तु भक्तमश्नाति भारत।
गवाढ्‌यो बहुपुत्रश्च बहुभार्यः स जायते ॥ ३२ ॥

मूलम्

पक्षे पक्षे गते यस्तु भक्तमश्नाति भारत।
गवाढ्‌यो बहुपुत्रश्च बहुभार्यः स जायते ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! जो पंद्रह-पंद्रह दिनपर भोजन करता है, वह गोधनसे सम्पन्न और बहुत-से पुत्र तथा स्त्रियोंसे युक्त होता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मासि मासि त्रिरात्राणि कृत्वा वर्षाणि द्वादश।
गणाधिपत्यं प्राप्नोति निःसपत्नमनाविलम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

मासि मासि त्रिरात्राणि कृत्वा वर्षाणि द्वादश।
गणाधिपत्यं प्राप्नोति निःसपत्नमनाविलम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो बारह वर्षोंतक प्रतिमास अनेक त्रिरात्रव्रत करता है, वह भगवान् शिवके गणोंका निष्कण्टक एवं निर्मल आधिपत्य प्राप्त करता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते तु नियमाः सर्वे कर्तव्याः शरदो दश।
द्वे चान्ये भरतश्रेष्ठ प्रवृत्तिमनुवर्तता ॥ ३४ ॥

मूलम्

एते तु नियमाः सर्वे कर्तव्याः शरदो दश।
द्वे चान्ये भरतश्रेष्ठ प्रवृत्तिमनुवर्तता ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! प्रवृत्तिमार्गका अनुसरण करनेवाले पुरुषको ये सभी नियम बारह वर्षोंतक पालन करने चाहिये॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु प्रातस्तथा सायं भुञ्जानो नान्तरा पिबेत्।
अहिंसानिरतो नित्यं जुह्वानो जातवेदसम् ॥ ३५ ॥
षड्भिः स वर्षैर्नृपते सिध्यते नात्र संशयः।
अग्निष्टोमस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः ॥ ३६ ॥

मूलम्

यस्तु प्रातस्तथा सायं भुञ्जानो नान्तरा पिबेत्।
अहिंसानिरतो नित्यं जुह्वानो जातवेदसम् ॥ ३५ ॥
षड्भिः स वर्षैर्नृपते सिध्यते नात्र संशयः।
अग्निष्टोमस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य प्रतिदिन सबेरे और शामको भोजन करता है, बीचमें जलतक नहीं पीता तथा सदा अहिंसा-परायण होकर नित्य अग्निहोत्र करता है, उसे छः वर्षोंमें सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इसमें संशय नहीं है तथा नरेश्वर! वह अग्निष्टोम यज्ञका फल पाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधिवासे सोऽप्सरसां नृत्यगीतविनादिते ।
रमते स्त्रीसहस्राढ्‌ये सुकृती विरजो नरः ॥ ३७ ॥

मूलम्

अधिवासे सोऽप्सरसां नृत्यगीतविनादिते ।
रमते स्त्रीसहस्राढ्‌ये सुकृती विरजो नरः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पुण्यात्मा एवं रजोगुणरहित पुरुष सहस्रों दिव्य रमणियोंसे भरे हुए अप्सराओंके महलमें, जहाँ नृत्य और गीतकी ध्वनि गूँजती रहती है, रमण करता है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तप्तकाञ्चनवर्णाभं विमानमधिरोहति ।
पूर्णं वर्षसहस्रं च ब्रह्मलोके महीयते ॥ ३८ ॥
तत्क्षयादिह चागम्य माहात्म्यं प्रतिपद्यते।

मूलम्

तप्तकाञ्चनवर्णाभं विमानमधिरोहति ।
पूर्णं वर्षसहस्रं च ब्रह्मलोके महीयते ॥ ३८ ॥
तत्क्षयादिह चागम्य माहात्म्यं प्रतिपद्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, वह तपाये हुए सुवर्णके समान कान्तिमान् विमानपर आरूढ़ होता है और पूरे एक हजार वर्षोंतक ब्रह्मलोकमें सम्मानपूर्वक रहता है। पुण्यक्षीण होनेपर इस लोकमें आकर महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु संवत्सरं पूर्णमेकाहारो भवेन्नरः ॥ ३९ ॥
अतिरात्रस्य यज्ञस्य स फलं समुपाश्नुते।

मूलम्

यस्तु संवत्सरं पूर्णमेकाहारो भवेन्नरः ॥ ३९ ॥
अतिरात्रस्य यज्ञस्य स फलं समुपाश्नुते।

अनुवाद (हिन्दी)

जो मानव पूरे एक वर्षतक प्रतिदिन एक बार भोजन करके रहता है, वह अतिरात्रयज्ञका फल भोगता है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशवर्षसहस्राणि स्वर्गे च स महीयते ॥ ४० ॥
तत्क्षयादिह चागम्य माहात्म्यं प्रतिपद्यते।

मूलम्

दशवर्षसहस्राणि स्वर्गे च स महीयते ॥ ४० ॥
तत्क्षयादिह चागम्य माहात्म्यं प्रतिपद्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

वह पुरुष दस हजार वर्षोंतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। फिर पुण्यक्षीण होनेपर इस लोकमें आकर महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लेता है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु संवत्सरं पूर्णं चतुर्थं भक्तमश्नुते ॥ ४१ ॥
अहिंसानिरतो नित्यं सत्यवाग् विजितेन्द्रियः।
वाजपेयस्य यज्ञस्य स फलं समुपाश्नुते ॥ ४२ ॥
दशवर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते ।

मूलम्

यस्तु संवत्सरं पूर्णं चतुर्थं भक्तमश्नुते ॥ ४१ ॥
अहिंसानिरतो नित्यं सत्यवाग् विजितेन्द्रियः।
वाजपेयस्य यज्ञस्य स फलं समुपाश्नुते ॥ ४२ ॥
दशवर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते ।

अनुवाद (हिन्दी)

जो पूरे एक वर्षतक दो-दो दिनपर भोजन करके रहता है तथा साथ ही अहिंसा, सत्य और इन्द्रिय-संयमका पालन करता है, वह वाजपेय यज्ञका फल पाता है और दस हजार वर्षोंतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षष्ठे काले तु कौन्तेय नरः संवत्सरं क्षिपन् ॥ ४३ ॥
अश्वमेधस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः।

मूलम्

षष्ठे काले तु कौन्तेय नरः संवत्सरं क्षिपन् ॥ ४३ ॥
अश्वमेधस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः।

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! जो एक सालतक छठे समय अर्थात् तीन-तीन दिनोंपर भोजन करता है, वह मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्रवाकप्रयुक्तेन विमानेन स गच्छति ॥ ४४ ॥
चत्वारिंशत् सहस्राणि वर्षाणां दिवि मोदते।

मूलम्

चक्रवाकप्रयुक्तेन विमानेन स गच्छति ॥ ४४ ॥
चत्वारिंशत् सहस्राणि वर्षाणां दिवि मोदते।

अनुवाद (हिन्दी)

वह चक्रवाकोंद्वारा वहन किये हुए विमानसे स्वर्गलोकमें जाता है और वहाँ चालीस हजार वर्षोंतक आनन्द भोगता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टमेन तु भक्तेन जीवन् संवत्सरं नृप ॥ ४५ ॥
गवामयस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः।

मूलम्

अष्टमेन तु भक्तेन जीवन् संवत्सरं नृप ॥ ४५ ॥
गवामयस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः।

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जो मनुष्य चार दिनोंपर भोजन करता हुआ एक वर्षतक जीवन धारण करता है, उसे गवामय यज्ञका फल प्राप्त होता है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हंससारसयुक्तेन विमानेन स गच्छति ॥ ४६ ॥
पञ्चाशतं सहस्राणि वर्षाणां दिवि मोदते।

मूलम्

हंससारसयुक्तेन विमानेन स गच्छति ॥ ४६ ॥
पञ्चाशतं सहस्राणि वर्षाणां दिवि मोदते।

अनुवाद (हिन्दी)

वह हंस और सारसोंसे जुते हुए विमानद्वारा जाता है और पचास हजार वर्षोंतक स्वर्गलोकमें सुख भोगता है॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पक्षे पक्षे गते राजन् योऽश्नीयाद् वर्षमेव तु ॥ ४७ ॥
षण्मासानशनं तस्य भगवानङ्गिराऽब्रवीत् ।

मूलम्

पक्षे पक्षे गते राजन् योऽश्नीयाद् वर्षमेव तु ॥ ४७ ॥
षण्मासानशनं तस्य भगवानङ्गिराऽब्रवीत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो एक-एक पक्ष बीतनेपर भोजन करता है और इसी तरह एक वर्ष पूरा कर देता है, उसको छः मासतक अनशन करनेका फल मिलता है। ऐसा भगवान् अंगिरा मुनिका कथन है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षष्टिर्वर्षसहस्राणि दिवमावसते च सः ॥ ४८ ॥
वीणानां वल्लकीनां च वेणूनां च विशाम्पते।
सुघोषैर्मधुरैः शब्दैः सुप्तः स प्रतिबोध्यते ॥ ४९ ॥

मूलम्

षष्टिर्वर्षसहस्राणि दिवमावसते च सः ॥ ४८ ॥
वीणानां वल्लकीनां च वेणूनां च विशाम्पते।
सुघोषैर्मधुरैः शब्दैः सुप्तः स प्रतिबोध्यते ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! वह साठ हजार वर्षोंतक स्वर्गमें निवास करता है और वहाँ वीणा, वल्लकी, वेणु आदि वाद्योंके मनोरम घोष तथा सुमधुर शब्दोंद्वारा उसे सोतेसे जगाया जाता है॥४८-४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संवत्सरमिहैकं तु मासि मासि पिबेदपः।
फलं विश्वजितस्तात प्राप्नोति स नरो नृप ॥ ५० ॥

मूलम्

संवत्सरमिहैकं तु मासि मासि पिबेदपः।
फलं विश्वजितस्तात प्राप्नोति स नरो नृप ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! नरेश्वर! जो मनुष्य एक वर्षतक प्रतिमास एक बार जल पीकर रहता है, उसे विश्वजित् यज्ञका फल मिलता है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंहव्याघ्रप्रयुक्तेन विमानेन स गच्छति।
सप्ततिं च सहस्राणि वर्षाणां दिवि मोदते ॥ ५१ ॥

मूलम्

सिंहव्याघ्रप्रयुक्तेन विमानेन स गच्छति।
सप्ततिं च सहस्राणि वर्षाणां दिवि मोदते ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सिंह और व्याघ्र जुते हुए विमानसे यात्रा करता है और सत्तर हजार वर्षोंतक स्वर्गलोकमें सुख भोगता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मासादूर्ध्वं नरव्याघ्र नोपवासो विधीयते।
विधिं त्वनशनस्याहुः पार्थ धर्मविदो जनाः ॥ ५२ ॥

मूलम्

मासादूर्ध्वं नरव्याघ्र नोपवासो विधीयते।
विधिं त्वनशनस्याहुः पार्थ धर्मविदो जनाः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! एक माससे अधिक समयतक उपवास करनेका विधान नहीं है। कुन्तीनन्दन! धर्मज्ञ पुरुषोंने अनशनकी यही विधि बतायी है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनार्तो व्याधिरहितो गच्छेदनशनं तु यः।
पदे पदे यज्ञफलं स प्राप्नोति न संशयः ॥ ५३ ॥

मूलम्

अनार्तो व्याधिरहितो गच्छेदनशनं तु यः।
पदे पदे यज्ञफलं स प्राप्नोति न संशयः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो बिना रोग-व्याधिके अनशन व्रत करता है, उसे पद-पदपर यज्ञका फल मिलता है, इसमें संशय नहीं है॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिवं हंसप्रयुक्तेन विमानेन स गच्छति।
शतं वर्षसहस्राणां मोदते स दिवि प्रभो ॥ ५४ ॥
शतं चाप्सरसः कन्या रमयन्त्यपि तं नरम्।

मूलम्

दिवं हंसप्रयुक्तेन विमानेन स गच्छति।
शतं वर्षसहस्राणां मोदते स दिवि प्रभो ॥ ५४ ॥
शतं चाप्सरसः कन्या रमयन्त्यपि तं नरम्।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! ऐसा पुरुष हंस जुते हुए दिव्य विमानसे यात्रा करता है और एक लाख वर्षोंतक देवलोकमें आनन्द भोगता है, सैकड़ों कुमारी अप्सराएँ उस मनुष्यका मनोरंजन करती हैं॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्तो वा व्याधितो वापि गच्छेदनशनं तु यः ॥ ५५ ॥
शतं वर्षसहस्राणां मोदते स दिवि प्रभो।

मूलम्

आर्तो वा व्याधितो वापि गच्छेदनशनं तु यः ॥ ५५ ॥
शतं वर्षसहस्राणां मोदते स दिवि प्रभो।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! रोगी अथवा पीड़ित मनुष्य भी यदि उपवास करता है तो वह एक लाख वर्षोंतक स्वर्गमें सुखपूर्वक निवास करता है॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काञ्चीनूपुरशब्देन सुप्तश्चैव प्रबोध्यते ॥ ५६ ॥
सहस्रहंसयुक्तेन विमानेन तु गच्छति।

मूलम्

काञ्चीनूपुरशब्देन सुप्तश्चैव प्रबोध्यते ॥ ५६ ॥
सहस्रहंसयुक्तेन विमानेन तु गच्छति।

अनुवाद (हिन्दी)

वह सो जानेपर दिव्य रमणियोंकी कांची और नूपुरोंकी झनकारसे जागता है और ऐसे विमानसे यात्रा करता है, जिसमें एक हजार हंस जुते रहते हैं॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गत्वा स्त्रीशताकीर्णे रमते भरतर्षभ ॥ ५७ ॥
क्षीणस्याप्यायनं दृष्टं क्षतस्य क्षतरोहणम्।
व्याधितस्यौषधग्रामः क्रुद्धस्य च प्रसादनम् ॥ ५८ ॥
दुःखितस्यार्थमानाभ्यां दुःखानां प्रतिषेधनम् ।
न चैते स्वर्गकामस्य रोचन्ते सुखमेधसः ॥ ५९ ॥

मूलम्

स गत्वा स्त्रीशताकीर्णे रमते भरतर्षभ ॥ ५७ ॥
क्षीणस्याप्यायनं दृष्टं क्षतस्य क्षतरोहणम्।
व्याधितस्यौषधग्रामः क्रुद्धस्य च प्रसादनम् ॥ ५८ ॥
दुःखितस्यार्थमानाभ्यां दुःखानां प्रतिषेधनम् ।
न चैते स्वर्गकामस्य रोचन्ते सुखमेधसः ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वह स्वर्गमें जाकर सैकड़ों रमणियोंसे भरे हुए महलमें रमण करता है। इस जगत्‌में दुर्बल मनुष्यको हृष्ट-पुष्ट होते देखा गया है। जिसे घाव हो गया है, उसका घाव भी भर जाता है। रोगीको अपने रोगकी निवृत्तिके लिये औषधसमूह प्राप्त होता है। क्रोधमें भरे हुए पुरुषको प्रसन्न करनेका उपाय भी उपलब्ध होता है। अर्थ और मानके लिये दुःखी हुए पुरुषके दुःखोंका निवारण भी देखा गया है; परन्तु स्वर्गकी इच्छा रखनेवाले और दिव्य सुख चाहनेवाले पुरुषको ये सब इस लोकके सुखोंकी बातें अच्छी नहीं लगतीं॥५७—५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः स कामसंयुक्ते विमाने हेमसंनिभे।
रमते स्त्रीशताकीर्णे पुरुषोऽलंकृत शुचिः ॥ ६० ॥
स्वस्थः सफलसंकल्पः सुखी विगतकल्मषः।

मूलम्

अतः स कामसंयुक्ते विमाने हेमसंनिभे।
रमते स्त्रीशताकीर्णे पुरुषोऽलंकृत शुचिः ॥ ६० ॥
स्वस्थः सफलसंकल्पः सुखी विगतकल्मषः।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः वह पवित्रात्मा पुरुष वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हो सैकड़ों स्त्रियोंसे भरे हुए और इच्छानुसार चलनेवाले सुवर्ण-सदृश विमानपर बैठकर रमण करता है। वह स्वस्थ, सफलमनोरथ, सुखी एवं निष्पाप होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनश्नन् देहमुत्सृज्य फलं प्राप्नोति मानवः ॥ ६१ ॥
बालसूर्यप्रतीकाशे विमाने हेमवर्चसि ।
वैदूर्यमुक्ताखचिते वीणामुरजनादिते ॥ ६२ ॥
पताकादीपिकाकीर्णे दिव्यघण्टानिनादिते ।
स्त्रीसहस्रानुचरिते स नरः सुखमेधते ॥ ६३ ॥

मूलम्

अनश्नन् देहमुत्सृज्य फलं प्राप्नोति मानवः ॥ ६१ ॥
बालसूर्यप्रतीकाशे विमाने हेमवर्चसि ।
वैदूर्यमुक्ताखचिते वीणामुरजनादिते ॥ ६२ ॥
पताकादीपिकाकीर्णे दिव्यघण्टानिनादिते ।
स्त्रीसहस्रानुचरिते स नरः सुखमेधते ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य अनशन-व्रत करके अपने शरीरका त्याग कर देता है, वह निम्नांकित फलका भागी होता है। वह प्रातःकालके सूर्यकी भाँति प्रकाशमान, सुनहरी कान्तिवाले, वैदूर्य और मोतीसे जटित, वीणा और मृदंगकी ध्वनिसे निनादित, पताका और दीपकोंसे आलोकित तथा दिव्य घंटानादसे गूँजते हुए, सहस्रों अप्सराओंसे युक्त विमानपर बैठकर दिव्य सुख भोगता है॥६१—६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावन्ति रोमकूपाणि तस्य गात्रेषु पाण्डव।
तावन्त्येव सहस्राणि वर्षाणां दिवि मोदते ॥ ६४ ॥

मूलम्

यावन्ति रोमकूपाणि तस्य गात्रेषु पाण्डव।
तावन्त्येव सहस्राणि वर्षाणां दिवि मोदते ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! उसके शरीरमें जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही सहस्र वर्षोंतक वह स्वर्गलोकमें सुखपूर्वक निवास करता है॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति वेदात् परं शास्त्रं नास्ति मातृसमो गुरुः।
न धर्मात् परमो लाभस्तपो नानशनात् परम् ॥ ६५ ॥

मूलम्

नास्ति वेदात् परं शास्त्रं नास्ति मातृसमो गुरुः।
न धर्मात् परमो लाभस्तपो नानशनात् परम् ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदसे बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है, माताके समान कोई गुरु नहीं है, धर्मसे बढ़कर कोई उत्कृष्ट लाभ नहीं है तथा उपवाससे बढ़कर कोई तपस्या नहीं है॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणेभ्यः परं नास्ति पावनं दिवि चेह च।
उपवासैस्तथा तुल्यं तपःकर्म न विद्यते ॥ ६६ ॥

मूलम्

ब्राह्मणेभ्यः परं नास्ति पावनं दिवि चेह च।
उपवासैस्तथा तुल्यं तपःकर्म न विद्यते ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे इस लोक और परलोकमें ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणोंसे बढ़कर कोई पावन नहीं है, उसी प्रकार उपवासके समान कोई तप नहीं है॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपोष्य विधिवद् देवास्त्रिदिवं प्रतिपेदिरे।
ऋषयश्च परां सिद्धिमुपवासैरवाप्नुवन् ॥ ६७ ॥

मूलम्

उपोष्य विधिवद् देवास्त्रिदिवं प्रतिपेदिरे।
ऋषयश्च परां सिद्धिमुपवासैरवाप्नुवन् ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंने विधिवत् उपवास करके ही स्वर्ग प्राप्त किया है तथा ऋषियोंको भी उपवाससे ही सिद्धि प्राप्त हुई है॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिव्यवर्षसहस्राणि विश्वामित्रेण धीमता ।
क्षान्तमेकेन भक्तेन तेन विप्रत्वमागतः ॥ ६८ ॥

मूलम्

दिव्यवर्षसहस्राणि विश्वामित्रेण धीमता ।
क्षान्तमेकेन भक्तेन तेन विप्रत्वमागतः ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम बुद्धिमान् विश्वामित्रजी एक हजार दिव्य वर्षोंतक प्रतिदिन एक समय भोजन करके भूखका कष्ट सहते हुए तपमें लगे रहे। उससे उन्हें ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति हुई॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

च्यवनो जमदग्निश्च वसिष्ठो गौतमो भृगुः।
सर्व एव दिवं प्राप्ताः क्षमावन्तो महर्षयः ॥ ६९ ॥

मूलम्

च्यवनो जमदग्निश्च वसिष्ठो गौतमो भृगुः।
सर्व एव दिवं प्राप्ताः क्षमावन्तो महर्षयः ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

च्यवन, जमदग्नि, वसिष्ठ, गौतम, भृगु—ये सभी क्षमावान् महर्षि उपवास करके ही दिव्य लोकोंको प्राप्त हुए हैं॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदमङ्गिरसा पूर्वं महर्षिभ्यः प्रदर्शितम्।
यः प्रदर्शयते नित्यं न स दुःखमवाप्नुते ॥ ७० ॥

मूलम्

इदमङ्गिरसा पूर्वं महर्षिभ्यः प्रदर्शितम्।
यः प्रदर्शयते नित्यं न स दुःखमवाप्नुते ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें अंगिरा मुनिने महर्षियोंको इस अनशन-व्रतकी महिमाका दिग्दर्शन कराया था। जो सदा इसका लोगोंमें प्रचार करता है, वह कभी दुःखी नहीं होता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमं तु कौन्तेय यथाक्रमं विधिं
प्रवर्तितं ह्यङ्गिरसा महर्षिणा ।
पठेच्च यो वै शृणुयाच्च नित्यदा
न विद्यते तस्य नरस्य किल्बिषम् ॥ ७१ ॥

मूलम्

इमं तु कौन्तेय यथाक्रमं विधिं
प्रवर्तितं ह्यङ्गिरसा महर्षिणा ।
पठेच्च यो वै शृणुयाच्च नित्यदा
न विद्यते तस्य नरस्य किल्बिषम् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! महर्षि अंगिराकी बतलायी हुई इस उपवासव्रतकी विधिको जो प्रतिदिन क्रमशः पढ़ता और सुनता है, उस मनुष्यका पाप नष्ट हो जाता है॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमुच्यते चापि स सर्वसंकरै-
र्न चास्य दोषैरभिभूयते मनः।
वियोनिजानां च विजानते रुतं
ध्रुवां च कीर्तिं लभते नरोत्तमः ॥ ७२ ॥

मूलम्

विमुच्यते चापि स सर्वसंकरै-
र्न चास्य दोषैरभिभूयते मनः।
वियोनिजानां च विजानते रुतं
ध्रुवां च कीर्तिं लभते नरोत्तमः ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सब प्रकारके संकीर्ण पापोंसे छुटकारा पा जाता है तथा उसका मन कभी दोषोंसे अभिभूत नहीं होता। इतना ही नहीं, वह श्रेष्ठ मानव दूसरी योनिमें उत्पन्न हुए प्राणियोंकी बोली समझने लगता है और अक्षय कीर्तिका भागी होता है॥७२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि उपवासविधौ षडधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें उपवासविधिविषयक एक सौ छठा अध्याय पूरा हुआ॥१०६॥