१०४ आयुष्याख्याने

भागसूचना

चतुरधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

आयुकी वृद्धि और क्षय करनेवाले शुभाशुभ कर्मोंके वर्णनसे गृहस्थाश्रमके कर्तव्योंका विस्तारपूर्वक निरूपण

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतायुरुक्तः पुरुषः शतवीर्यश्च जायते।
कस्मान्म्रियन्ते पुरुषा बाला अपि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

शतायुरुक्तः पुरुषः शतवीर्यश्च जायते।
कस्मान्म्रियन्ते पुरुषा बाला अपि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— पितामह! शास्त्रोंमें कहा गया है कि ‘मनुष्यकी आयु सौ वर्षोंकी होती है। वह सैकड़ों प्रकारकी शक्ति लेकर जन्म धारण करता है।’ किंतु देखता हूँ कि कितने ही मनुष्य बचपनमें ही मर जाते हैं। ऐसा क्यों होता है?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आयुष्मान् केन भवति अल्पायुर्वापि मानवः।
केन वा लभते कीर्तिं केन वा लभते श्रियम्॥२॥

मूलम्

आयुष्मान् केन भवति अल्पायुर्वापि मानवः।
केन वा लभते कीर्तिं केन वा लभते श्रियम्॥२॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य किस उपायसे दीर्घायु होता है अथवा किस कारणसे उसकी आयु कम हो जाती है? क्या करनेसे वह कीर्ति पाता है या क्या करनेसे उसे सम्पत्तिकी प्राप्ति होती है?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपसा ब्रह्मचर्येण जपहोमैस्तथौषधैः ।
कर्मणा मनसा वाचा तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ३ ॥

मूलम्

तपसा ब्रह्मचर्येण जपहोमैस्तथौषधैः ।
कर्मणा मनसा वाचा तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितामह! मनुष्य मन, वाणी अथवा शरीरके द्वारा तप, ब्रह्मचर्य, जप, होम तथा औषध आदिमेंसे किसका आश्रय ले, जिससे वह श्रेयका भागी हो, वह मुझे बताइये॥३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र तेऽहं प्रवक्ष्यामि यन्मां त्वमनुपृच्छसि।
अल्पायुर्येन भवति दीर्घायुर्वापि मानवः ॥ ४ ॥
येन वा लभते कीर्तिं येन वा लभते श्रियम्।
यथा वर्तयन् पुरुषः श्रेयसा सम्प्रयुज्यते ॥ ५ ॥

मूलम्

अत्र तेऽहं प्रवक्ष्यामि यन्मां त्वमनुपृच्छसि।
अल्पायुर्येन भवति दीर्घायुर्वापि मानवः ॥ ४ ॥
येन वा लभते कीर्तिं येन वा लभते श्रियम्।
यथा वर्तयन् पुरुषः श्रेयसा सम्प्रयुज्यते ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! तुम मुझसे जो पूछ रहे हो, इसका उत्तर देता हूँ। मनुष्य जिस कारणसे अल्पायु होता है, जिस उपायसे दीर्घायु होता है, जिससे वह कीर्ति और सम्पत्तिका भागी होता है तथा जिस बर्तावसे पुरुषको श्रेयका संयोग प्राप्त होता है, वह सब बताता हूँ, सुनो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचाराल्लभते ह्यायुराचाराल्लभते श्रियम् ।
आचारात् कीर्तिमाप्नोति पुरुषः प्रेत्य चेह च ॥ ६ ॥

मूलम्

आचाराल्लभते ह्यायुराचाराल्लभते श्रियम् ।
आचारात् कीर्तिमाप्नोति पुरुषः प्रेत्य चेह च ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सदाचारसे ही मनुष्यको आयुकी प्राप्ति होती है, सदाचारसे ही वह सम्पत्ति पाता है तथा सदाचारसे ही उसे इहलोक और परलोकमें भी कीर्तिकी प्राप्ति होती है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुराचारो हि पुरुषो नेहायुर्विन्दते महत्।
त्रसन्ति यस्माद् भूतानि तथा परिभवन्ति च ॥ ७ ॥

मूलम्

दुराचारो हि पुरुषो नेहायुर्विन्दते महत्।
त्रसन्ति यस्माद् भूतानि तथा परिभवन्ति च ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुराचारी पुरुष, जिससे समस्त प्राणी डरते और तिरस्कृत होते हैं, इस संसारमें बड़ी आयु नहीं पाता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् कुर्यादिहाचारं यदीच्छेद् भूतिमात्मनः।
अपि पापशरीरस्य आचारो हन्त्यलक्षणम् ॥ ८ ॥

मूलम्

तस्मात् कुर्यादिहाचारं यदीच्छेद् भूतिमात्मनः।
अपि पापशरीरस्य आचारो हन्त्यलक्षणम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः यदि मनुष्य अपना कल्याण करना चाहता हो तो उसे इस जगत्‌में सदाचारका पालन करना चाहिये। जिसका सारा शरीर ही पापमय है, वह भी यदि सदाचारका पालन करे तो वह उसके शरीर और मनके बुरे लक्षणोंको दबा देता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचारलक्षणो धर्मः संतश्चारित्रलक्षणाः ।
साधूनां च यथावृत्तमेतदाचारलक्षणम् ॥ ९ ॥

मूलम्

आचारलक्षणो धर्मः संतश्चारित्रलक्षणाः ।
साधूनां च यथावृत्तमेतदाचारलक्षणम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सदाचार ही धर्मका लक्षण है। सच्चरित्रता ही श्रेष्ठ पुरुषोंकी पहचान है। श्रेष्ठ पुरुष जैसा बर्ताव करते हैं; वही सदाचारका स्वरूप अथवा लक्षण है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्यदृष्टं श्रवादेव पुरुषं धर्मचारिणम्।
भूतिकर्माणि कुर्वाणं तं जनाः कुर्वते प्रियम् ॥ १० ॥

मूलम्

अप्यदृष्टं श्रवादेव पुरुषं धर्मचारिणम्।
भूतिकर्माणि कुर्वाणं तं जनाः कुर्वते प्रियम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य धर्मका आचरण करता और लोक-कल्याणके कार्यमें लगा रहता है, उसका दर्शन न हुआ हो तो भी मनुष्य केवल नाम सुनकर उससे प्रेम करने लगते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये नास्तिका निष्क्रियाश्च गुरुशास्त्राभिलङ्घिनः।
अधर्मज्ञा दुराचारास्ते भवन्ति गतायुषः ॥ ११ ॥

मूलम्

ये नास्तिका निष्क्रियाश्च गुरुशास्त्राभिलङ्घिनः।
अधर्मज्ञा दुराचारास्ते भवन्ति गतायुषः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो नास्तिक, क्रियाहीन, गुरु और शास्त्रकी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाले, धर्मको न जाननेवाले और दुराचारी हैं, उन मनुष्योंकी आयु क्षीण हो जाती है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशीला भिन्नमर्यादा नित्यं संकीर्णमैथुनाः।
अल्पायुषो भवन्तीह नरा निरयगामिनः ॥ १२ ॥

मूलम्

विशीला भिन्नमर्यादा नित्यं संकीर्णमैथुनाः।
अल्पायुषो भवन्तीह नरा निरयगामिनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य शीलहीन, सदा धर्मकी मर्यादा भंग करनेवाले तथा दूसरे वर्णकी स्त्रियोंके साथ सम्पर्क रखनेवाले हैं; वे इस लोकमें अल्पायु होते और मरनेके बाद नरकमें पड़ते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वलक्षणहीनोऽपि समुदाचारवान् नरः ।
श्रद्‌दधानोऽनसूयुश्च शतं वर्षाणि जीवति ॥ १३ ॥

मूलम्

सर्वलक्षणहीनोऽपि समुदाचारवान् नरः ।
श्रद्‌दधानोऽनसूयुश्च शतं वर्षाणि जीवति ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे हीन होनेपर भी जो मनुष्य सदाचारी, श्रद्धालु और दोषदृष्टिसे रहित होता है, वह सौ वर्षोंतक जीवित रहता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्रोधनः सत्यवादी भूतानामविहिंसकः ।
अनसूयुरजिह्मश्च शतं वर्षाणि जीवति ॥ १४ ॥

मूलम्

अक्रोधनः सत्यवादी भूतानामविहिंसकः ।
अनसूयुरजिह्मश्च शतं वर्षाणि जीवति ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो क्रोधहीन, सत्यवादी, किसी भी प्राणीकी हिंसा न करनेवाला, अदोषदर्शी और कपटशून्य है, वह सौ वर्षोंतक जीवित रहता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोष्ठमर्दी तृणच्छेदी नखखादी च यो नरः।
नित्योच्छिष्टः संकुसुको नेहायुर्विन्दते महत् ॥ १५ ॥

मूलम्

लोष्ठमर्दी तृणच्छेदी नखखादी च यो नरः।
नित्योच्छिष्टः संकुसुको नेहायुर्विन्दते महत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ढेले फोड़ता, तिनके तोड़ता, नख चबाता तथा सदा ही उच्छिष्ट (अशुद्ध) एवं चंचल रहता है, ऐसे कुलक्षणयुक्त मनुष्यको दीर्घायु नहीं प्राप्त होती॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिंतयेत्।
उत्थायाचम्य तिष्ठेत पूर्वां संध्यां कृताञ्जलिः ॥ १६ ॥

मूलम्

ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिंतयेत्।
उत्थायाचम्य तिष्ठेत पूर्वां संध्यां कृताञ्जलिः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्तमें (अर्थात् सूर्योदयसे दो घड़ी पहले) जागे तथा धर्म और अर्थके विषयमें विचार करे। फिर शय्यासे उठकर शौच-स्नानके पश्चात् आचमन करके हाथ जोड़े हुए प्रातःकालकी संध्या करे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेवापरां संध्यां समुपासीत वाग्यतः।
नेक्षेतादित्यमुद्यन्तं नास्तं यान्तं कदाचन ॥ १७ ॥

मूलम्

एवमेवापरां संध्यां समुपासीत वाग्यतः।
नेक्षेतादित्यमुद्यन्तं नास्तं यान्तं कदाचन ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार सायंकालमें भी मौन रहकर संध्योपासना करे। उदय और अस्तके समय सूर्यकी ओर कदापि न देखे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नोपसृष्टं न वारिस्थं न मध्यं नभसो गतम्।
ऋषयो नित्यसंध्यत्वाद् दीर्घमायुरवाप्नुवन् ॥ १८ ॥
तस्मात्‌ तिष्ठेत्‌ सदा पूर्वां पश्चिमां चैव वाग्यतः।

मूलम्

नोपसृष्टं न वारिस्थं न मध्यं नभसो गतम्।
ऋषयो नित्यसंध्यत्वाद् दीर्घमायुरवाप्नुवन् ॥ १८ ॥
तस्मात्‌ तिष्ठेत्‌ सदा पूर्वां पश्चिमां चैव वाग्यतः।

अनुवाद (हिन्दी)

ग्रहण और मध्याह्नके समय भी सूर्यकी ओर दृष्टिपात न करे तथा जलमें स्थित सूर्यके प्रतिबिम्बकी ओर भी न देखे। ऋषियोंने प्रतिदिन संध्योपासन करनेसे ही दीर्घ आयु प्राप्त की थी। इसलिये सदा मौन रहकर द्विजमात्रको प्रातःकाल और सायंकालकी संध्या अवश्य करनी चाहिये॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये न पूर्वामुपासन्ते द्विजाः संध्यां न पश्चिमाम् ॥ १९ ॥
सर्वांस्तान् धार्मिको राजा शूद्रकर्माणि कारयेत्।

मूलम्

ये न पूर्वामुपासन्ते द्विजाः संध्यां न पश्चिमाम् ॥ १९ ॥
सर्वांस्तान् धार्मिको राजा शूद्रकर्माणि कारयेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

जो द्विज न तो प्रातःकालकी संध्या करते हैं और न सायंकालकी ही, उन सबसे धार्मिक राजा शूद्रोचित कर्म करावे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परदारा न गन्तव्या सर्ववर्णेषु कर्हिचित् ॥ २० ॥
न हीदृशमनायुष्यं लोके किंचन विद्यते।
यादृशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम् ॥ २१ ॥

मूलम्

परदारा न गन्तव्या सर्ववर्णेषु कर्हिचित् ॥ २० ॥
न हीदृशमनायुष्यं लोके किंचन विद्यते।
यादृशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी भी वर्णके पुरुषको कभी भी परायी स्त्रियोंसे संसर्ग नहीं करना चाहिये। परस्त्री-सेवनसे मनुष्यकी आयु जल्दी ही समाप्त हो जाती है। संसारमें परस्त्री-समागमके समान पुरुषकी आयुको नष्ट करनेवाला दूसरा कोई कार्य नहीं है॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावन्तो रोमकूपाः स्युः स्त्रीणां गात्रेषु निर्मिताः।
तावद् वर्षसहस्राणि नरकं पर्युपासते ॥ २२ ॥

मूलम्

यावन्तो रोमकूपाः स्युः स्त्रीणां गात्रेषु निर्मिताः।
तावद् वर्षसहस्राणि नरकं पर्युपासते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियोंके शरीरमें जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही हजार वर्षोंतक व्यभिचारी पुरुषोंको नरकमें रहना पड़ता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसाधनं च केशानामञ्जनं दन्तधावनम्।
पूर्वाह्ण एव कार्याणि देवतानां च पूजनम् ॥ २३ ॥

मूलम्

प्रसाधनं च केशानामञ्जनं दन्तधावनम्।
पूर्वाह्ण एव कार्याणि देवतानां च पूजनम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केशोंको सँवारना, आँखोंमें अंजन लगाना, दाँत-मुँह धोना और देवताओंकी पूजा करना—ये सब कार्य दिनके पहले प्रहरमें ही करने चाहिये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरीषमूत्रे नोदीक्षेन्नाधितिष्ठेत् कदाचन ।
नातिकल्यं नातिसायं न च मध्यन्दिने स्थिते ॥ २४ ॥
नाज्ञातैः सह गच्छेत नैको न वृषलैः सह।

मूलम्

पुरीषमूत्रे नोदीक्षेन्नाधितिष्ठेत् कदाचन ।
नातिकल्यं नातिसायं न च मध्यन्दिने स्थिते ॥ २४ ॥
नाज्ञातैः सह गच्छेत नैको न वृषलैः सह।

अनुवाद (हिन्दी)

मल-मूत्रकी ओर न देखे, उसपर कभी पैर न रखे। अत्यन्त सबेरे, अधिक साँझ हो जानेपर और ठीक दोपहरके समय कहीं बाहर न जाय। न तो अपरिचित पुरुषोंके साथ यात्रा करे, न शूद्रोंके साथ और न अकेला ही॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पन्था देयो ब्राह्मणाय गोभ्यो राजभ्य एव च ॥ २५ ॥
वृद्धाय भारतप्ताय गर्भिण्यै दुर्बलाय च।

मूलम्

पन्था देयो ब्राह्मणाय गोभ्यो राजभ्य एव च ॥ २५ ॥
वृद्धाय भारतप्ताय गर्भिण्यै दुर्बलाय च।

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण, गाय, राजा, वृद्ध पुरुष, गर्भिणी स्त्री, दुर्बल और भारपीड़ित मनुष्य यदि सामनेसे आते हों तो स्वयं किनारे हटकर उन्हें जानेका मार्ग देना चाहिये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रदक्षिणं च कुर्वीत परिज्ञातान् वनस्पतीन् ॥ २६ ॥
चतुष्पथान् प्रकुर्वीत सर्वानेव प्रदक्षिणान्।

मूलम्

प्रदक्षिणं च कुर्वीत परिज्ञातान् वनस्पतीन् ॥ २६ ॥
चतुष्पथान् प्रकुर्वीत सर्वानेव प्रदक्षिणान्।

अनुवाद (हिन्दी)

मार्गमें चलते समय अश्वत्थ आदि परिचित वृक्षों तथा समस्त चौराहोंको दाहिने करके जाना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मध्यन्दिने निशाकाले अर्धरात्रे च सर्वदा ॥ २७ ॥
चतुष्पथं न सेवेत उभे संध्ये तथैव च।

मूलम्

मध्यन्दिने निशाकाले अर्धरात्रे च सर्वदा ॥ २७ ॥
चतुष्पथं न सेवेत उभे संध्ये तथैव च।

अनुवाद (हिन्दी)

दोपहरमें, रातमें, विशेषतः आधी रातके समय और दोनों संध्याओंके समय कभी चौराहोंपर न रहे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपानहौ च वस्त्रं च धृतमन्यैर्न धारयेत् ॥ २८ ॥
ब्रह्मचारी च नित्यं स्यात् पादं पादेन नाक्रमेत्।
अमावास्यां पौर्णमास्यां चतुर्दश्यां च सर्वशः ॥ २९ ॥
अष्टम्यां सर्वपक्षाणां ब्रह्मचारी सदा भवेत्।
आक्रोशं परिवादं च पैशुन्यं च विवर्जयेत् ॥ ३० ॥

मूलम्

उपानहौ च वस्त्रं च धृतमन्यैर्न धारयेत् ॥ २८ ॥
ब्रह्मचारी च नित्यं स्यात् पादं पादेन नाक्रमेत्।
अमावास्यां पौर्णमास्यां चतुर्दश्यां च सर्वशः ॥ २९ ॥
अष्टम्यां सर्वपक्षाणां ब्रह्मचारी सदा भवेत्।
आक्रोशं परिवादं च पैशुन्यं च विवर्जयेत् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरोंके पहने हुए वस्त्र और जूते न पहने। सदा ब्रह्मचर्यका पालन करे। पैरसे पैरको न दबावे। सभी पक्षोंकी अमावास्या, पौर्णमासी, चतुर्दशी और अष्टमी तिथिको सदा ब्रह्मचारी रहे—स्त्री-समागम न करे। किसीकी निंदा, बदनामी और चुगली न करे॥२८—३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी
न हीनतः परमभ्याददीत ।
ययास्य वाचा पर उद्विजेत
न तां वदेद् रुशतीं पापलोक्याम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी
न हीनतः परमभ्याददीत ।
ययास्य वाचा पर उद्विजेत
न तां वदेद् रुशतीं पापलोक्याम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरोंके मर्मपर आघात न करे। क्रूरतापूर्ण बात न बोले, औरोंको नीचा न दिखावे। जिसके कहनेसे दूसरोंको उद्वेग होता हो वह रुखाईसे भरी हुई बात पापियोंके लोकमें ले जानेवाली होती है। अतः वैसी बात कभी न बोले॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति
यैराहतः शोचति रात्र्यहानि ।
परस्य वा मर्मसु ये पतन्ति
तान् पण्डितो नावसृजेत् परेषु ॥ ३२ ॥

मूलम्

वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति
यैराहतः शोचति रात्र्यहानि ।
परस्य वा मर्मसु ये पतन्ति
तान् पण्डितो नावसृजेत् परेषु ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वचनरूपी बाण मुँहसे निकलते हैं, जिनसे आहत होकर मनुष्य रात-दिन शोकमें पड़ा रहता है। अतः जो दूसरोंके मर्मस्थानोंपर चोट करते हैं, ऐसे वचन विद्वान् पुरुष दूसरोंके प्रति कभी न कहे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोहते सायकैर्विद्धं वनं परशुना हतम्।
वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

रोहते सायकैर्विद्धं वनं परशुना हतम्।
वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाणोंसे बिंधा और फरसेसे कटा हुआ वन पुनः अंकुरित हो जाता है, किंतु दुर्वचनरूपी शस्त्रसे किया हुआ भयंकर घाव कभी नहीं भरता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णिनालीकनाराचान् निर्हरन्ति शरीरतः ।
वाक्‌शल्यस्तु न निर्हर्तुं शक्यो हृदिशयो हि सः ॥ ३४ ॥

मूलम्

कर्णिनालीकनाराचान् निर्हरन्ति शरीरतः ।
वाक्‌शल्यस्तु न निर्हर्तुं शक्यो हृदिशयो हि सः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णि, नालीक और नाराच—ये शरीरमें यदि गड़ जायँ तो चिकित्सक मनुष्य इन्हें शरीरसे निकाल देते हैं, किंतु वचनरूपी बाणको निकालना असंभव होता है; क्योंकि वह हृदयके भीतर चुभा होता है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हीनांगानतिरिक्तांगान् विद्याहीनान् विगर्हितान् ।
रूपद्रविणहीनांश्च सत्त्वहीनांश्च नाक्षिपेत् ॥ ३५ ॥

मूलम्

हीनांगानतिरिक्तांगान् विद्याहीनान् विगर्हितान् ।
रूपद्रविणहीनांश्च सत्त्वहीनांश्च नाक्षिपेत् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हीनांग (अंधे-काने आदि), अधिकांग (छांगुर आदि), विद्याहीन, निन्दित, कुरूप, निर्धन और निर्बल मनुष्योंपर आक्षेप करना उचित नहीं है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्तिक्यं वेदनिन्दां च देवतानां च कुत्सनम्।
द्वेषस्तम्भोऽभिमानं च तैक्ष्ण्यं च परिवर्जयेत् ॥ ३६ ॥

मूलम्

नास्तिक्यं वेदनिन्दां च देवतानां च कुत्सनम्।
द्वेषस्तम्भोऽभिमानं च तैक्ष्ण्यं च परिवर्जयेत् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नास्तिकता, वेदोंकी निंदा, देवताओंको कोसना, द्वेष, उद्दण्डता, अभिमान और कठोरता—इन दुर्गुणोंका त्याग कर देना चाहिये॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परस्य दण्डं नोद्यच्छेत् क्रुद्धो नैनं निपातयेत्।
अन्यत्र पुत्राच्छिष्याच्च शिक्षार्थं ताडनं स्मृतम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

परस्य दण्डं नोद्यच्छेत् क्रुद्धो नैनं निपातयेत्।
अन्यत्र पुत्राच्छिष्याच्च शिक्षार्थं ताडनं स्मृतम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधमें आकर पुत्र या शिष्यके सिवा दूसरे किसीको न तो डंडा मारे, न उसे पृथ्वीपर ही गिरावे। हाँ, शिक्षाके लिये पुत्र या शिष्यको ताड़ना देना उचित माना गया है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ब्राह्मणान् परिवदेन्नक्षत्राणि न निर्दिशेत्।
तिथिं पक्षस्य न ब्रूयात् तथास्यायुर्न रिष्यते ॥ ३८ ॥

मूलम्

न ब्राह्मणान् परिवदेन्नक्षत्राणि न निर्दिशेत्।
तिथिं पक्षस्य न ब्रूयात् तथास्यायुर्न रिष्यते ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंकी निंदा न करे, घर-घर घूम-घूमकर नक्षत्र और किसी पक्षकी तिथि न बताया करे। ऐसा करनेसे मनुष्यकी आयु क्षीण नहीं होती है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(अमावास्यामृते नित्यं दंतधावनमाचरेत् ।
इतिहासपुराणानि दानं वेदं च नित्यशः॥
गायत्रीमननं नित्यं कुर्यात् संध्यां समाहितः।)

मूलम्

(अमावास्यामृते नित्यं दंतधावनमाचरेत् ।
इतिहासपुराणानि दानं वेदं च नित्यशः॥
गायत्रीमननं नित्यं कुर्यात् संध्यां समाहितः।)

अनुवाद (हिन्दी)

अमावास्याके सिवा प्रतिदिन दन्तधावन करना चाहिये। इतिहास, पुराणोंका पाठ, वेदोंका स्वाध्याय, दान, एकाग्रचित्त होकर संध्योपासना और गायत्रीमंत्रका जप—ये सब कर्म नित्य करने चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्वा मूत्रपुरीषे तु रथ्यामाक्रम्य वा पुनः।
पादप्रक्षालनं कुर्यात् स्वाध्याये भोजने तथा ॥ ३९ ॥

मूलम्

कृत्वा मूत्रपुरीषे तु रथ्यामाक्रम्य वा पुनः।
पादप्रक्षालनं कुर्यात् स्वाध्याये भोजने तथा ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मल-मूत्र त्यागने और रास्ता चलनेके बाद तथा स्वाध्याय और भोजन करनेके पहले पैर धो लेने चाहिये॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रीणि देवाः पवित्राणि ब्राह्मणानामकल्पयन्।
अदृष्टमद्भिर्निर्णिक्तं यच्च वाचा प्रशस्यते ॥ ४० ॥

मूलम्

त्रीणि देवाः पवित्राणि ब्राह्मणानामकल्पयन्।
अदृष्टमद्भिर्निर्णिक्तं यच्च वाचा प्रशस्यते ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसपर किसीकी दूषित दृष्टि न पड़ी हो, जो जलसे धोया गया हो तथा जिसकी ब्राह्मणलोग वाणीद्वारा प्रशंसा करते हों—ये ही तीन वस्तुएँ देवताओंने ब्राह्मणोंके उपयोगमें लाने योग्य और पवित्र बतायी हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संयावं कृसरं मांसं शष्कुलीं पायसं तथा।
आत्मार्थं न प्रकर्तव्यं देवार्थं तु प्रकल्पयेत् ॥ ४१ ॥

मूलम्

संयावं कृसरं मांसं शष्कुलीं पायसं तथा।
आत्मार्थं न प्रकर्तव्यं देवार्थं तु प्रकल्पयेत् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जौके आटेका हलवा, खिचड़ी, फलका गूदा, पूड़ी और खीर—ये सब वस्तुएँ अपने लिये नहीं बनानी चाहिये। देवताओंको अर्पण करनेके लिये ही इनको तैयार करना चाहिये॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यमग्निं परिचरेद् भिक्षां दद्याच्च नित्यदा।
वाग्यतो दन्तकाष्ठं च नित्यमेव समाचरेत् ॥ ४२ ॥

मूलम्

नित्यमग्निं परिचरेद् भिक्षां दद्याच्च नित्यदा।
वाग्यतो दन्तकाष्ठं च नित्यमेव समाचरेत् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतिदिन अग्निकी सेवा करे, नित्यप्रति भिक्षुको भिक्षा दे और मौन होकर प्रतिदिन दन्तधावन किया करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(न संध्यायां स्वपेन्नित्यं स्नायाच्छुद्धः सदा भवेत्।)
न चाभ्युदितशायी स्यात् प्रायश्चित्ती तथा भवेत्।
मातापितरमुत्थाय पूर्वमेवाभिवादयेत् ॥ ४३ ॥
आचार्यमथवाप्यन्यं तथायुर्विन्दते महत् ।

मूलम्

(न संध्यायां स्वपेन्नित्यं स्नायाच्छुद्धः सदा भवेत्।)
न चाभ्युदितशायी स्यात् प्रायश्चित्ती तथा भवेत्।
मातापितरमुत्थाय पूर्वमेवाभिवादयेत् ॥ ४३ ॥
आचार्यमथवाप्यन्यं तथायुर्विन्दते महत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

सायंकालमें न सोये, नित्य स्नान करे और सदा पवित्रतापूर्वक रहे। सूर्योदय होनेतक कभी न सोये। यदि किसी दिन ऐसा हो जाय तो प्रायश्चित्त करे। प्रतिदिन प्रातःकाल सोकर उठनेके बाद पहले माता-पिताको प्रणाम करे। फिर आचार्य तथा अन्य गुरुजनोंका अभिवादन करे। इससे दीर्घायु प्राप्त होती है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्जयेद् दन्तकाष्ठानि वर्जनीयानि नित्यशः ॥ ४४ ॥
भक्षयेच्छास्त्रदृष्टानि पर्वस्वपि विवर्जयेत् ।

मूलम्

वर्जयेद् दन्तकाष्ठानि वर्जनीयानि नित्यशः ॥ ४४ ॥
भक्षयेच्छास्त्रदृष्टानि पर्वस्वपि विवर्जयेत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

शास्त्रोंमें जिन काष्ठोंका दाँतन निषिद्ध माना गया है, उन्हें सदा ही त्याग दे—कभी काममें न ले। शास्त्रविहित काष्ठका ही दन्तधावन करे; परंतु पर्वके दिन उसका भी परित्याग कर दे॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदङ्‌मुखश्च सततं शौचं कुर्यात् समाहितः ॥ ४५ ॥
अकृत्वा देवपूजां च नाचरेद् दन्तधावनम्।

मूलम्

उदङ्‌मुखश्च सततं शौचं कुर्यात् समाहितः ॥ ४५ ॥
अकृत्वा देवपूजां च नाचरेद् दन्तधावनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

सदा एकाग्रचित्त हो दिनमें उत्तरकी ओर मुँह करके ही मल-मूत्रका त्याग करे। दन्तधावन किये बिना देवताओंकी पूजा न करे॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकृत्वा देवपूजां च नाभिगच्छेत् कदाचन।
अन्यत्र तु गुरुं वृद्धं धार्मिकं वा विचक्षणम् ॥ ४६ ॥

मूलम्

अकृत्वा देवपूजां च नाभिगच्छेत् कदाचन।
अन्यत्र तु गुरुं वृद्धं धार्मिकं वा विचक्षणम् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवपूजा किये बिना गुरु, वृद्ध, धार्मिक तथा विद्वान् पुरुषको छोड़कर दूसरे किसीके पास न जाय॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवलोक्यो न चादर्शो मलिनो बुद्धिमत्तरैः।
न चाज्ञातां स्त्रियं गच्छेद् गर्भिणीं वा कदाचन ॥ ४७ ॥

मूलम्

अवलोक्यो न चादर्शो मलिनो बुद्धिमत्तरैः।
न चाज्ञातां स्त्रियं गच्छेद् गर्भिणीं वा कदाचन ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त बुद्धिमान् पुरुषोंको मलिन दर्पणमें कभी अपना मुँह नहीं देखना चाहिये। अपरिचित तथा गर्भिणी स्त्रीके पास भी न जाय॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(दारसंग्रहणात् पूर्वं नाचरेन्मैथुनं बुधः।
अन्यथा त्ववकीर्णः स्यात् प्रायश्चित्तं समाचरेत्॥
नोदीक्षेत् परदारांश्च रहस्येकासनो भवेत्।
इन्द्रियाणि सदा यच्छेत् स्वप्ने शुद्धमना भवेत्॥)

मूलम्

(दारसंग्रहणात् पूर्वं नाचरेन्मैथुनं बुधः।
अन्यथा त्ववकीर्णः स्यात् प्रायश्चित्तं समाचरेत्॥
नोदीक्षेत् परदारांश्च रहस्येकासनो भवेत्।
इन्द्रियाणि सदा यच्छेत् स्वप्ने शुद्धमना भवेत्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् पुरुष विवाहसे पहले मैथुन न करे, अन्यथा वह ब्रह्मचर्य-व्रतको भंग करनेका अपराधी माना जाता है। ऐसी दशामें उसे प्रायश्चित्त करना चाहिये। वह परायी स्त्रीकी ओर न तो देखे और न एकान्तमें उसके साथ एक आसनपर बैठे ही। इन्द्रियोंको सदा अपने वशमें रखे। स्वप्नमें भी शुद्ध मनवाला होकर रहे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदक्‌शिरा न स्वपेत तथा प्रत्यक्‌शिरा न च।
प्राकृशिरास्तु स्वपेद् विद्वानथवा दक्षिणाशिराः ॥ ४८ ॥

मूलम्

उदक्‌शिरा न स्वपेत तथा प्रत्यक्‌शिरा न च।
प्राकृशिरास्तु स्वपेद् विद्वानथवा दक्षिणाशिराः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तर तथा पश्चिमकी ओर सिर करके न सोये। विद्वान् पुरुषको पूर्व अथवा दक्षिणकी ओर सिर करके ही सोना चाहिये॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भग्ने नावशीर्णे च शयने प्रस्वपीत च।
नान्तर्धाने न संयुक्ते न च तिर्यक् कदाचन ॥ ४९ ॥

मूलम्

न भग्ने नावशीर्णे च शयने प्रस्वपीत च।
नान्तर्धाने न संयुक्ते न च तिर्यक् कदाचन ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

टूटी और ढीली खाटपर नहीं सोना चाहिये। अँधेरेमें पड़ी हुई शय्यापर भी सहसा शयन करना उचित नहीं है (उजाला करके उसे अच्छी तरह देख लेना चाहिये)। किसी दूसरेके साथ एक खाटपर न सोये। इसी तरह पलंगपर कभी तिरछा होकर नहीं, सदा सीधे ही सोना चाहिये॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चापि गच्छेत्‌ कार्येण समयाद् वापि नास्तिकैः।
आसनं तु पदाऽऽकृष्य न प्रसज्जेत् तथा नरः ॥ ५० ॥

मूलम्

न चापि गच्छेत्‌ कार्येण समयाद् वापि नास्तिकैः।
आसनं तु पदाऽऽकृष्य न प्रसज्जेत् तथा नरः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नास्तिकोंके साथ काम पड़नेपर भी न जाय। उनके शपथ खाने या प्रतिज्ञा करनेपर भी उनके साथ यात्रा न करे। आसनको पैरसे खींचकर मनुष्य उसपर न बैठे॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न नग्नः कर्हिचित् स्नायान्न निशायां कदाचन।
स्नात्वा च नावमृज्येत गात्राणि सुविचक्षणः ॥ ५१ ॥

मूलम्

न नग्नः कर्हिचित् स्नायान्न निशायां कदाचन।
स्नात्वा च नावमृज्येत गात्राणि सुविचक्षणः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् पुरुष कभी नग्न होकर स्नान न करे। रातमें भी कभी न नहाय। स्नानके पश्चात् अपने अंगोंमें तैल आदिकी मालिश न करावे॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चानुलिम्पेदस्नात्वा स्नात्वा वासो न निर्धुनेत्।
न चैवार्द्राणि वासांसि नित्यं सेवेत मानवः ॥ ५२ ॥

मूलम्

न चानुलिम्पेदस्नात्वा स्नात्वा वासो न निर्धुनेत्।
न चैवार्द्राणि वासांसि नित्यं सेवेत मानवः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्नान किये बिना अपने अंगोंमें चन्दन या अंगराग न लगावे। स्नान कर लेनेपर गीले वस्त्र न झटकारे। मनुष्य भीगे वस्त्र कभी न पहने॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रजश्च नावकृष्येत न बहिर्धारयीत च।
उदक्यया च सम्भाषां न कुर्वीत कदाचन ॥ ५३ ॥

मूलम्

स्रजश्च नावकृष्येत न बहिर्धारयीत च।
उदक्यया च सम्भाषां न कुर्वीत कदाचन ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गलेमें पड़ी हुई मालाको कभी न खींचे। उसे कपड़ेके ऊपर न धारण करे। रजस्वला स्त्रीके साथ कभी बातचीत न करे॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नोत्सृजेत पुरीषं च क्षेत्रे ग्रामस्य चान्तिके।
उभे मूत्रपुरीषे तु नाप्सु कुर्यात् कदाचन ॥ ५४ ॥

मूलम्

नोत्सृजेत पुरीषं च क्षेत्रे ग्रामस्य चान्तिके।
उभे मूत्रपुरीषे तु नाप्सु कुर्यात् कदाचन ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बोये हुए खेतमें, गाँवके आस-पास तथा पानीमें कभी मल-मूत्रका त्याग न करे॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(देवालयेऽथ गोवृन्दे चैत्ये सस्येषु विश्रमे।
भक्ष्यान् भूक्त्वा क्षुतेऽध्वानं गत्वा मूत्रपुरीषयोः॥
द्विराचामेद् यथान्यायं हृद्‌गतं तु पिबन्नपः।)

मूलम्

(देवालयेऽथ गोवृन्दे चैत्ये सस्येषु विश्रमे।
भक्ष्यान् भूक्त्वा क्षुतेऽध्वानं गत्वा मूत्रपुरीषयोः॥
द्विराचामेद् यथान्यायं हृद्‌गतं तु पिबन्नपः।)

अनुवाद (हिन्दी)

देवमन्दिर, गौओंके समुदाय, देवसम्बन्धी वृक्ष और विश्रामस्थानके निकट तथा बढ़ी हुई खेतीमें भी मल-मूत्रका त्याग नहीं करना चाहिये। भोजन कर लेनेपर, छींक आनेपर, रास्ता चलनेपर तथा मल-मूत्रका त्याग करनेपर यथोचित शुद्धि करके दो बार आचमन करे। आचमनमें इतना जल पीये कि वह हृदयतक पहुँच जाय॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्नं बुभुक्षमाणस्तु त्रिर्मुखेन स्पृशेदपः।
भुक्त्वा चान्नं तथैव त्रिर्द्विः पुनः परिमार्जयेत् ॥ ५५ ॥

मूलम्

अन्नं बुभुक्षमाणस्तु त्रिर्मुखेन स्पृशेदपः।
भुक्त्वा चान्नं तथैव त्रिर्द्विः पुनः परिमार्जयेत् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भोजन करनेकी इच्छावाला पुरुष पहले तीन बार मुखसे झलका स्पर्श (आचमन) करे। फिर भोजनके पश्चात् भी तीन आचमन करे। फिर अंगुष्ठके मूलभागसे दो बार मुँहको पोंछे॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राङ्‌मुखो नित्यमश्नीयाद् वाग्यतोऽन्नमकुत्सयन् ।
प्रस्कन्दयेच्च मनसा भुक्त्वा चाग्निमुपस्पृशेत् ॥ ५६ ॥

मूलम्

प्राङ्‌मुखो नित्यमश्नीयाद् वाग्यतोऽन्नमकुत्सयन् ।
प्रस्कन्दयेच्च मनसा भुक्त्वा चाग्निमुपस्पृशेत् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भोजन करनेवाला पुरुष प्रतिदिन पूर्वकी ओर मुँह करके मौन भावसे भोजन करे। भोजन करते समय परोसे हुए अन्नकी निन्दा न करे। किंचिन्मात्र अन्न थालीमें छोड़ दे और भोजन करके मन-ही-मन अग्निका स्मरण करे॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आयुष्यं प्राङ्‌मुखो भुङ्क्ते यशस्यं दक्षिणामुखः।
धन्यं पश्चान्मुखो भुङ्क्ते ऋतं भुङ्क्ते उदङ्‌मुखः ॥ ५७ ॥

मूलम्

आयुष्यं प्राङ्‌मुखो भुङ्क्ते यशस्यं दक्षिणामुखः।
धन्यं पश्चान्मुखो भुङ्क्ते ऋतं भुङ्क्ते उदङ्‌मुखः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य पूर्व दिशाकी ओर मुँह करके भोजन करता है, उसे दीर्घायु, जो दक्षिणकी ओर मुँह करके भोजन करता है उसे यश, जो पश्चिमकी ओर मुख करके भोजन करता है उसे धन और जो उत्तराभिमुख होकर भोजन करता है उसे सत्यकी प्राप्ति होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निमालभ्य तोयेन सर्वान् प्राणानुपस्पृशेत्।
गात्राणि चैव सर्वाणि नाभिं पाणितले तथा ॥ ५८ ॥

मूलम्

अग्निमालभ्य तोयेन सर्वान् प्राणानुपस्पृशेत्।
गात्राणि चैव सर्वाणि नाभिं पाणितले तथा ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(मनसे) अग्निका स्पर्श करके जलसे सम्पूर्ण इन्द्रियोंका, सब अंगोंका, नाभिका और दोनों हथेलियोंका स्पर्श करे॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाधितिष्ठेत् तुषं जातु केशभस्मकपालिकाः।
अन्यस्य चाप्यवस्नातं दूरतः परिवर्जयेत् ॥ ५९ ॥

मूलम्

नाधितिष्ठेत् तुषं जातु केशभस्मकपालिकाः।
अन्यस्य चाप्यवस्नातं दूरतः परिवर्जयेत् ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूसी, भस्म, बाल और मुर्देकी खोपड़ी आदिपर कभी न बैठे। दूसरेके नहाये हुए जलका दूरसे ही त्याग कर दे॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शान्तिहोमांश्च कुर्वीत सावित्राणि च धारयेत्।
निषण्णश्चापि खादेत न तु गच्छन् कदाचन ॥ ६० ॥

मूलम्

शान्तिहोमांश्च कुर्वीत सावित्राणि च धारयेत्।
निषण्णश्चापि खादेत न तु गच्छन् कदाचन ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शान्ति-होम करे, सावित्रसंज्ञक मन्त्रोंका जप और स्वाध्याय करे। बैठकर ही भोजन करे, चलते-फिरते कदापि भोजन नहीं करना चाहिये॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूत्रं नोत्तिष्ठता कार्यं न भस्मनि न गोव्रजे।
आर्द्रपादस्तु भुंजीत नार्द्रपादस्तु संविशेत् ॥ ६१ ॥

मूलम्

मूत्रं नोत्तिष्ठता कार्यं न भस्मनि न गोव्रजे।
आर्द्रपादस्तु भुंजीत नार्द्रपादस्तु संविशेत् ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

खड़ा होकर पेशाब न करे। राखमें और गोशालामें भी मूत्र त्याग न करे, भीगे पैर भोजन तो करे, परंतु शयन न करे॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्द्रपादस्तु भुंजानो वर्षाणां जीवते शतम्।
त्रीणि तेजांसि नोच्छिष्ट आलभेत कदाचन ॥ ६२ ॥
अग्निं गां ब्राह्मणं चैव तथा ह्यायुर्न रिष्यते।

मूलम्

आर्द्रपादस्तु भुंजानो वर्षाणां जीवते शतम्।
त्रीणि तेजांसि नोच्छिष्ट आलभेत कदाचन ॥ ६२ ॥
अग्निं गां ब्राह्मणं चैव तथा ह्यायुर्न रिष्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

भीगे पैर भोजन करनेवाला मनुष्य सौ वर्षोंतक जीवन धारण करता है। भोजन करके हाथ-मुँह धोये बिना मनुष्य उच्छिष्ट (अपवित्र) रहता है। ऐसी अवस्थामें उसे अग्नि, गौ तथा ब्राह्मण—इन तीन तेजस्वियोंका स्पर्श नहीं करना चाहिये। इस प्रकार आचरण करनेसे आयुका नाश नहीं होता॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रीणि तेजांसि नोच्छिष्ट उदीक्षेत कदाचन ॥ ६३ ॥
सूर्याचन्द्रमसौ चैव नक्षत्राणि च सर्वशः।

मूलम्

त्रीणि तेजांसि नोच्छिष्ट उदीक्षेत कदाचन ॥ ६३ ॥
सूर्याचन्द्रमसौ चैव नक्षत्राणि च सर्वशः।

अनुवाद (हिन्दी)

उच्छिष्ट मनुष्यको सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र—इन त्रिविध तेजोंकी ओर कभी दृष्टि नहीं डालनी चाहिये॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊर्ध्वं प्राणा ह्युत्क्रामन्ति यूनः स्थविर आयति ॥ ६४ ॥
प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान् प्रतिपद्यते ।

मूलम्

ऊर्ध्वं प्राणा ह्युत्क्रामन्ति यूनः स्थविर आयति ॥ ६४ ॥
प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान् प्रतिपद्यते ।

अनुवाद (हिन्दी)

वृद्ध पुरुषके आनेपर तरुण पुरुषके प्राण ऊपरकी ओर उठने लगते हैं। ऐसी दशामें जब वह खड़ा होकर वृद्ध पुरुषोंका स्वागत और उन्हें प्रणाम करता है, तब वे प्राण पुनः पूर्वावस्थामें आ जाते हैं॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिवादयीत वृद्धांश्च दद्याच्चैवासनं स्वयम् ॥ ६५ ॥
कृतांजलिरुपासीत गच्छन्तं पृष्ठतोऽन्वियात् ।

मूलम्

अभिवादयीत वृद्धांश्च दद्याच्चैवासनं स्वयम् ॥ ६५ ॥
कृतांजलिरुपासीत गच्छन्तं पृष्ठतोऽन्वियात् ।

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये जब कोई वृद्ध पुरुष अपने पास आवे, तब उसे प्रणाम करके बैठनेको आसन दे और स्वयं हाथ जोड़कर उसकी सेवामें उपस्थित रहे। फिर जब वह जाने लगे, तब उसके पीछे-पीछे कुछ दूरतक जाय॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चासीतासने भिन्ने भिन्नकांस्यं च वर्जयेत् ॥ ६६ ॥
नैकवस्त्रेण भोक्तव्यं न नग्नः स्नातुमर्हति।

मूलम्

न चासीतासने भिन्ने भिन्नकांस्यं च वर्जयेत् ॥ ६६ ॥
नैकवस्त्रेण भोक्तव्यं न नग्नः स्नातुमर्हति।

अनुवाद (हिन्दी)

फटे हुए आसनपर न बैठे। फूटी हुई काँसीकी थालीको काममें न ले। एक ही वस्त्र (केवल धोती) पहनकर भोजन न करे (साथमें गमछा भी लिये रहे)। नग्न होकर स्नान न करे॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वप्तव्यं नैव नग्नेन न चोच्छिष्टोऽपि संविशेत् ॥ ६७ ॥
उच्छिष्टो न स्पृशेच्छीर्षं सर्वे प्राणास्तदाश्रयाः।

मूलम्

स्वप्तव्यं नैव नग्नेन न चोच्छिष्टोऽपि संविशेत् ॥ ६७ ॥
उच्छिष्टो न स्पृशेच्छीर्षं सर्वे प्राणास्तदाश्रयाः।

अनुवाद (हिन्दी)

नंगे होकर न सोये। उच्छिष्ट अवस्थामें भी शयन न करे। जूठे हाथसे मस्तकका स्पर्श न करे; क्योंकि समस्त प्राण मस्तकके ही आश्रित हैं॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केशग्रहं प्रहारांश्च शिरस्येतान् विवर्जयेत् ॥ ६८ ॥
न संहताभ्यां पाणिभ्यां कण्डूयेदात्मनः शिरः।
न चाभीक्ष्णं शिरः स्नायात्‌ तथास्यायुर्न रिष्यते ॥ ६९ ॥

मूलम्

केशग्रहं प्रहारांश्च शिरस्येतान् विवर्जयेत् ॥ ६८ ॥
न संहताभ्यां पाणिभ्यां कण्डूयेदात्मनः शिरः।
न चाभीक्ष्णं शिरः स्नायात्‌ तथास्यायुर्न रिष्यते ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिरके बाल पकड़कर खींचना और मस्तकपर प्रहार करना वर्जित है। दोनों हाथ सटाकर उनसे अपना सिर न खुजलावे। बारंबार मस्तकपर पानी न डाले। इन सब बातोंके पालनसे मनुष्यकी आयु क्षीण नहीं होती है॥६८-६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिरःस्नातस्तु तैलैश्च नांगं किंचिदपि स्पृशेत्।
तिलसृष्टं न चाश्नीयात् तथास्यायुर्न रिष्यते ॥ ७० ॥

मूलम्

शिरःस्नातस्तु तैलैश्च नांगं किंचिदपि स्पृशेत्।
तिलसृष्टं न चाश्नीयात् तथास्यायुर्न रिष्यते ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिरपर तेल लगानेके बाद उसी हाथसे दूसरे अंगोंका स्पर्श नहीं करना चाहिये और तिलके बने हुए पदार्थ नहीं खाने चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्यकी आयु क्षीण नहीं होती है॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाध्यापयेत् तथोच्छिष्टो नाधीयीत कदाचन।
वाते च पूतिगन्धे च मनसापि न चिन्तयेत् ॥ ७१ ॥

मूलम्

नाध्यापयेत् तथोच्छिष्टो नाधीयीत कदाचन।
वाते च पूतिगन्धे च मनसापि न चिन्तयेत् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जूठे मुँह न पढ़ाये तथा उच्छिष्ट अवस्थामें स्वयं भी कभी स्वाध्याय न करे। यदि दुर्गन्धयुक्त वायु चले, तब तो मनसे स्वाध्यायका चिन्तन भी नहीं करना चाहिये॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र गाथा यमोद्‌गीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
आयुरस्य निकृन्तामि प्रजास्तस्याददे तथा ॥ ७२ ॥
उच्छिष्टो यः प्राद्रवति स्वाध्यायं चाधिगच्छति।
यश्चानध्यायकालेऽपि मोहादभ्यस्यति द्विजः ॥ ७३ ॥
तस्य वेदः प्रणश्येत आयुश्च परिहीयते।
तस्माद् युक्तो ह्यनध्याये नाधीयीत कदाचन ॥ ७४ ॥

मूलम्

अत्र गाथा यमोद्‌गीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
आयुरस्य निकृन्तामि प्रजास्तस्याददे तथा ॥ ७२ ॥
उच्छिष्टो यः प्राद्रवति स्वाध्यायं चाधिगच्छति।
यश्चानध्यायकालेऽपि मोहादभ्यस्यति द्विजः ॥ ७३ ॥
तस्य वेदः प्रणश्येत आयुश्च परिहीयते।
तस्माद् युक्तो ह्यनध्याये नाधीयीत कदाचन ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राचीन इतिहासके जानकार लोग इस विषयमें यमराजकी गायी हुई गाथा सुनाया करते हैं। (यमराज कहते हैं—) ‘जो मनुष्य जूठे मुँह उठकर दौड़ता और स्वाध्याय करता है, मैं उसकी आयु नष्ट कर देता हूँ और उसकी संतानोंको भी उससे छीन लेता हूँ। जो द्विज मोहवश अनध्यायके समय भी अध्ययन करता है, उसके वैदिक ज्ञान और आयुका भी नाश हो जाता है।’ अतः सावधान पुरुषको निषिद्ध समयमें कभी वेदोंका अध्ययन नहीं करना चाहिये॥७२—७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यादित्यं प्रत्यनलं प्रति गां च प्रति द्विजान्।
ये मेहन्ति च पन्थानं ते भवन्ति गतायुषः ॥ ७५ ॥

मूलम्

प्रत्यादित्यं प्रत्यनलं प्रति गां च प्रति द्विजान्।
ये मेहन्ति च पन्थानं ते भवन्ति गतायुषः ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सूर्य, अग्नि, गौ तथा ब्राह्मणोंकी ओर मुँह करके पेशाब करते हैं और जो बीच रास्तेमें मूतते हैं, वे सब गतायु हो जाते हैं॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभे मूत्रपुरीषे तु दिवा कुर्यादुदङ्‌मुखः।
दक्षिणाभिमुखो रात्रौ तथा ह्यायुर्न रिष्यते ॥ ७६ ॥

मूलम्

उभे मूत्रपुरीषे तु दिवा कुर्यादुदङ्‌मुखः।
दक्षिणाभिमुखो रात्रौ तथा ह्यायुर्न रिष्यते ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मल और मूत्र दोनोंका त्याग दिनमें उत्तराभिमुख होकर करे और रातमें दक्षिणाभिमुख। ऐसा करनेसे आयुका नाश नहीं होता॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रीन् कृशान् नावजानीयाद् दीर्घमायुर्जिजीविषुः।
ब्राह्मणं क्षत्रियं सर्पं सर्वे ह्याशीविषास्त्रयः ॥ ७७ ॥

मूलम्

त्रीन् कृशान् नावजानीयाद् दीर्घमायुर्जिजीविषुः।
ब्राह्मणं क्षत्रियं सर्पं सर्वे ह्याशीविषास्त्रयः ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे दीर्घ कालतक जीवित रहनेकी इच्छा हो, वह ब्राह्मण, क्षत्रिय और सर्प—इन तीनोंके दुर्बल होनेपर भी इनको न छेड़े; क्योंकि ये सभी बड़े जहरीले होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दहत्याशीविषः क्रुद्धो यावत् पश्यति चक्षुषा।
क्षत्रियोऽपि दहेत्‌ क्रुद्धो यावत् स्पृशति तेजसा ॥ ७८ ॥
ब्राह्मणस्तु कुलं हन्याद् ध्यानेनावेक्षितेन च।
तस्मादेतत् त्रयं यत्नादुपसेवेत पण्डितः ॥ ७९ ॥

मूलम्

दहत्याशीविषः क्रुद्धो यावत् पश्यति चक्षुषा।
क्षत्रियोऽपि दहेत्‌ क्रुद्धो यावत् स्पृशति तेजसा ॥ ७८ ॥
ब्राह्मणस्तु कुलं हन्याद् ध्यानेनावेक्षितेन च।
तस्मादेतत् त्रयं यत्नादुपसेवेत पण्डितः ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधमें भरा हुआ साँप जहाँतक आँखोंसे देख पाता है, वहाँतक धावा करके काटता है। क्षत्रिय भी कुपित होनेपर अपनी शक्तिभर शत्रुको भस्म करनेकी चेष्टा करता है; परंतु ब्राह्मण जब कुपित होता है, तब वह अपनी दृष्टि और संकल्पसे अपमान करनेवाले पुरुषके सम्पूर्ण कुलको दग्ध कर डालता है; इसलिये समझदार मनुष्यको यत्नपूर्वक इन तीनोंकी सेवा करनी चाहिये॥७८-७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुणा चैव निर्बन्धो न कर्तव्यः कदाचन।
अनुमान्यः प्रसाद्यश्च गुरुः क्रुद्धो युधिष्ठिर ॥ ८० ॥

मूलम्

गुरुणा चैव निर्बन्धो न कर्तव्यः कदाचन।
अनुमान्यः प्रसाद्यश्च गुरुः क्रुद्धो युधिष्ठिर ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुके साथ कभी हठ नहीं ठानना चाहिये। युधिष्ठिर! यदि गुरु अप्रसन्न हों तो उन्हें हर तरहसे मान देकर मनाकर प्रसन्न करनेकी चेष्टा करनी चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्यङ्‌मिथ्याप्रवृत्तेऽपि वर्तितव्यं गुराविह ।
गुरुनिन्दा दहत्यायुर्मनुष्याणां न संशयः ॥ ८१ ॥

मूलम्

सम्यङ्‌मिथ्याप्रवृत्तेऽपि वर्तितव्यं गुराविह ।
गुरुनिन्दा दहत्यायुर्मनुष्याणां न संशयः ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरु प्रतिकूल बर्ताव करते हों तो भी उनके प्रति अच्छा ही बर्ताव करना उचित है; क्योंकि गुरुनिन्दा मनुष्योंकी आयुको दग्ध कर देती है, इसमें संशय नहीं है॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूरादावसथान्मूत्रं दूरात् पादावसेचनम् ।
उच्छिष्टोत्सर्जनं चैव दूरे कार्यं हितैषिणा ॥ ८२ ॥

मूलम्

दूरादावसथान्मूत्रं दूरात् पादावसेचनम् ।
उच्छिष्टोत्सर्जनं चैव दूरे कार्यं हितैषिणा ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपना हित चाहनेवाला मनुष्य घरसे दूर जाकर पेशाब करे, दूर ही पैर धोवे और दूरपर ही जूठे फेंके॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्तमाल्यं न धार्यं स्याच्छुक्लं धार्यं तु पण्डितैः।
वर्जयित्वा तु कमलं तथा कुवलयं प्रभो ॥ ८३ ॥

मूलम्

रक्तमाल्यं न धार्यं स्याच्छुक्लं धार्यं तु पण्डितैः।
वर्जयित्वा तु कमलं तथा कुवलयं प्रभो ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! विद्वान् पुरुषको लाल फूलोंकी नहीं, श्वेत पुष्पोंकी माला धारण करनी चाहिये; परंतु कमल और कुवलयको छोड़कर ही यह नियम लागू होता है। अर्थात् कमल और कुवलय लाल हों तो भी उन्हें धारण करनेमें कोई हर्ज नहीं है॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्तं शिरसि धार्यं तु तथा वानेयमित्यपि।
कांचनीयापि माला या न सा दुष्यति कर्हिचित् ॥ ८४ ॥

मूलम्

रक्तं शिरसि धार्यं तु तथा वानेयमित्यपि।
कांचनीयापि माला या न सा दुष्यति कर्हिचित् ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लाल रंगके फूल तथा वन्य पुष्पको मस्तकपर धारण करना चाहिये। सोनेकी माला पहननेसे कभी अशुद्ध नहीं होती॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नातस्य वर्णकं नित्यमार्द्रं दद्याद् विशाम्पते।
विपर्ययं न कुर्वीत वाससो बुद्धिमान् नरः ॥ ८५ ॥

मूलम्

स्नातस्य वर्णकं नित्यमार्द्रं दद्याद् विशाम्पते।
विपर्ययं न कुर्वीत वाससो बुद्धिमान् नरः ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! स्नानके पश्चात् मनुष्यको अपने ललाटपर गीला चन्दन लगाना चाहिये। बुद्धिमान् पुरुषको कपड़ोंमें कभी उलट-फेर नहीं करना चाहिये अर्थात् उत्तरीय वस्त्रको अधोवस्त्रके स्थानमें और अधोवस्त्रको उत्तरीयके स्थानमें न पहने॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा नान्यधृतं धार्यं न चापदशमेव च।
अन्यदेव भवेद् वासः शयनीये नरोत्तम ॥ ८६ ॥
अन्यद् रथ्यासु देवानामर्चायामन्यदेव हि।

मूलम्

तथा नान्यधृतं धार्यं न चापदशमेव च।
अन्यदेव भवेद् वासः शयनीये नरोत्तम ॥ ८६ ॥
अन्यद् रथ्यासु देवानामर्चायामन्यदेव हि।

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! दूसरेके पहने हुए कपड़े नहीं पहनने चाहिये। जिसकी कोर फट गयी हो, उसको भी नहीं धारण करना चाहिये। सोनेके लिये दूसरा वस्त्र होना चाहिये। सड़कोंपर घूमनेके लिये दूसरा और देवताओंकी पूजाके लिये दूसरा ही वस्त्र रखना चाहिये॥८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियंगुचन्दनाभ्यां च बिल्वेन तगरेण च ॥ ८७ ॥
पृथगेवानुलिम्पेत केसरेण च बुद्धिमान्।

मूलम्

प्रियंगुचन्दनाभ्यां च बिल्वेन तगरेण च ॥ ८७ ॥
पृथगेवानुलिम्पेत केसरेण च बुद्धिमान्।

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुष राई, चन्दन, बिल्व, तगर तथा केसरके द्वारा पृथक्-पृथक् अपने शरीरमें उबटन लगावे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपवासं च कुर्वीत स्नातः शुचिरलंकृतः ॥ ८८ ॥
पर्वकालेषु सर्वेषु ब्रह्मचारी सदा भवेत्।

मूलम्

उपवासं च कुर्वीत स्नातः शुचिरलंकृतः ॥ ८८ ॥
पर्वकालेषु सर्वेषु ब्रह्मचारी सदा भवेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य सभी पर्वोंके समय स्नान करके पवित्र हो वस्त्र एवं आभूषणोंसे विभूषित होकर उपवास करे तथा पर्वकालमें सदा ही ब्रह्मचर्यका पालन करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समानमेकपात्रे तु भुञ्जेन्नान्नं जनेश्वर ॥ ८९ ॥
नालीढया परिहतं भक्षयीत कदाचन।
तथा नोद्‌धृतसाराणि प्रेक्ष्यते नाप्रदाय च ॥ ९० ॥

मूलम्

समानमेकपात्रे तु भुञ्जेन्नान्नं जनेश्वर ॥ ८९ ॥
नालीढया परिहतं भक्षयीत कदाचन।
तथा नोद्‌धृतसाराणि प्रेक्ष्यते नाप्रदाय च ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! किसीके साथ एक पात्रमें भोजन न करे। जिसे रजस्वला स्त्रीने अपने स्पर्शसे दूषित कर दिया हो, ऐसे अन्नका भोजन न करे एवं जिसमेंसे सार निकाल लिया गया हो ऐसे पदार्थको कदापि भक्षण न करे तथा जो तरसती हुई दृष्टिसे अन्नकी ओर देख रहा हो, उसे दिये बिना भोजन न करे॥८९-९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न संनिकृष्टे मेधावी नाशुचेर्न च सत्सु च।
प्रतिषिद्धान् नधर्मेषु भक्ष्यान् भुञ्जीत पृष्ठतः ॥ ९१ ॥

मूलम्

न संनिकृष्टे मेधावी नाशुचेर्न च सत्सु च।
प्रतिषिद्धान् नधर्मेषु भक्ष्यान् भुञ्जीत पृष्ठतः ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह किसी अपवित्र मनुष्यके निकट अथवा सत्पुरुषोंके सामने बैठकर भोजन न करे। धर्मशास्त्रोंमें जिनका निषेध किया गया हो, ऐसे भोजनको पीठ पीछे छिपाकर भी न खाय॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिप्पलं च वटं चैव शणशाकं तथैव च।
उदुम्बरं न खादेच्च भवार्थी पुरुषोत्तमः ॥ ९२ ॥

मूलम्

पिप्पलं च वटं चैव शणशाकं तथैव च।
उदुम्बरं न खादेच्च भवार्थी पुरुषोत्तमः ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपना कल्याण चाहनेवाले श्रेष्ठ पुरुषको पीपल, बड़ और गूलरके फलका तथा सनके सागका सेवन नहीं करना चाहिये॥९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न पाणौ लवणं विद्वान् प्राश्नीयान्न च रात्रिषु।
दधिसक्तून् न भुञ्जीत वृथा मांसं च वर्जयेत् ॥ ९३ ॥

मूलम्

न पाणौ लवणं विद्वान् प्राश्नीयान्न च रात्रिषु।
दधिसक्तून् न भुञ्जीत वृथा मांसं च वर्जयेत् ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् पुरुष हाथमें नमक लेकर न चाटे। रातमें दही और सत्तू न खाय। मांस अखाद्य वस्तु है, उसका सर्वथा त्याग कर दे॥९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सायंप्रातश्च भूञ्जीत नान्तराले समाहितः।
वालेन तु न भुञ्जीत परश्राद्धं तथैव च ॥ १४ ॥

मूलम्

सायंप्रातश्च भूञ्जीत नान्तराले समाहितः।
वालेन तु न भुञ्जीत परश्राद्धं तथैव च ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतिदिन सबेरे और शामको ही एकाग्रचित्त होकर भोजन करे। बीचमें कुछ भी खाना उचित नहीं है। जिस भोजनमें बाल पड़ गया हो, उसे न खाय तथा शत्रुके श्राद्धमें कभी अन्न न ग्रहण करे॥९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाग्यतो नैकवस्त्रश्च नासंविष्टः कदाचन।
भूमौ सदैव नाश्नीयान्नानासीनो न शब्दवत् ॥ ९५ ॥

मूलम्

वाग्यतो नैकवस्त्रश्च नासंविष्टः कदाचन।
भूमौ सदैव नाश्नीयान्नानासीनो न शब्दवत् ॥ ९५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भोजनके समय मौन रहना चाहिये। एक ही वस्त्र धारण करके अथवा सोये-सोये कदापि भोजन न करे। भोजनके पदार्थको भूमिपर रखकर कदापि न खाय। खड़ा होकर या बातचीत करते हुए कभी भोजन नहीं करना चाहिये॥९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तोयपूर्वं प्रदायान्नमतिथिभ्यो विशाम्पते ।
पश्चाद् भुञ्जीत मेधावी न चाप्यन्यमना नरः ॥ ९६ ॥

मूलम्

तोयपूर्वं प्रदायान्नमतिथिभ्यो विशाम्पते ।
पश्चाद् भुञ्जीत मेधावी न चाप्यन्यमना नरः ॥ ९६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! बुद्धिमान् पुरुष पहले अतिथिको अन्न और जल देकर पीछे स्वयं एकाग्रचित्त हो भोजन करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समानमेकपङ्क्त्यां तु भोज्यमन्नं नरेश्वर।
विषं हालाहलं भुङ्क्ते योऽप्रदाय सुहृज्जने ॥ ९७ ॥

मूलम्

समानमेकपङ्क्त्यां तु भोज्यमन्नं नरेश्वर।
विषं हालाहलं भुङ्क्ते योऽप्रदाय सुहृज्जने ॥ ९७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! एक पंक्तिमें बैठनेपर सबको एक समान भोजन करना चाहिये। जो अपने सुहृद्जनोंको न देकर अकेला ही भोजन करता है, वह हालाहल विष ही खाता है॥९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पानीयं पायसं सक्तून् दधिसर्पिर्मधून्यपि।
निरस्य शेषमन्येषां न प्रदेयं तु कस्यचित् ॥ ९८ ॥

मूलम्

पानीयं पायसं सक्तून् दधिसर्पिर्मधून्यपि।
निरस्य शेषमन्येषां न प्रदेयं तु कस्यचित् ॥ ९८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पानी, खीर, सत्तू, दही, घी और मधु—इन सबको छोड़कर अन्य भक्ष्य पदार्थोंका अवशिष्ट भाग दूसरे किसीको नहीं देना चाहिये॥९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुञ्जानो मनुजव्याघ्र नैव शंकां समाचरेत्।
दधि चाप्यनुपानं वै न कर्तव्यं भवार्थिना ॥ ९९ ॥

मूलम्

भुञ्जानो मनुजव्याघ्र नैव शंकां समाचरेत्।
दधि चाप्यनुपानं वै न कर्तव्यं भवार्थिना ॥ ९९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! भोजन करते समय भोजनके विषयमें शंका नहीं करनी चाहिये तथा अपना भला चाहनेवाले पुरुषको भोजनके अन्तमें दही नहीं पीना चाहिये॥९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचम्य चैकहस्तेन परिप्लाव्यं तथोदकम्।
अंगुष्ठं चरणस्याथ दक्षिणस्यावसेचयेत् ॥ १०० ॥

मूलम्

आचम्य चैकहस्तेन परिप्लाव्यं तथोदकम्।
अंगुष्ठं चरणस्याथ दक्षिणस्यावसेचयेत् ॥ १०० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भोजन करनेके पश्चात् कुल्ला करके मुँह धो ले और एक हाथसे दाहिने पैरके अँगूठेपर पानी डाले॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाणिं मूर्ध्नि समाधाय स्पृष्ट्वा चाग्निं समाहितः।
ज्ञातिश्रैष्ठ्‌यमवाप्नोति प्रयोगकुशलो नरः ॥ १०१ ॥

मूलम्

पाणिं मूर्ध्नि समाधाय स्पृष्ट्वा चाग्निं समाहितः।
ज्ञातिश्रैष्ठ्‌यमवाप्नोति प्रयोगकुशलो नरः ॥ १०१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर प्रयोगकुशल मनुष्य एकाग्रचित्त हो अपने हाथको सिरपर रखे। उसके बाद अग्निका मनसे स्पर्श करे। ऐसा करनेसे वह कुटुम्बीजनोंमें श्रेष्ठता प्राप्त कर लेता है॥१०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्भिः प्राणान् समालभ्य नाभिं पाणितले तथा।
स्पृशंश्चैव प्रतिष्ठेत न चाप्यार्द्रेण पाणिना ॥ १०२ ॥

मूलम्

अद्भिः प्राणान् समालभ्य नाभिं पाणितले तथा।
स्पृशंश्चैव प्रतिष्ठेत न चाप्यार्द्रेण पाणिना ॥ १०२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद जलसे आँख, नाक आदि इन्द्रियों और नाभिका स्पर्श करके दोनों हाथोंकी हथेलियोंको धो डाले। धोनेके पश्चात् गीले हाथ लेकर ही न बैठ जाय (उन्हें कपड़ोंसे पोंछकर सुखा दे)॥१०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंगुष्ठस्यान्तराले च ब्राह्मं तीर्थमुदाहृतम्।
कनिष्ठिकायाः पश्चात् तु देवतीर्थमिहोच्यते ॥ १०३ ॥

मूलम्

अंगुष्ठस्यान्तराले च ब्राह्मं तीर्थमुदाहृतम्।
कनिष्ठिकायाः पश्चात् तु देवतीर्थमिहोच्यते ॥ १०३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अँगूठेका अन्तराल (मूलस्थान) ब्राह्मतीर्थ कहलाता है, कनिष्ठा आदि अँगुलियोंका पश्चाद्‌भाग (अग्रभाग) देवतीर्थ कहा जाता है॥१०३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्‌गुष्ठस्य च यन्मध्यं प्रदेशिन्याश्च भारत।
तेन पित्र्याणि कुर्वीत स्पृष्ट्वापो न्यायतः सदा ॥ १०४ ॥

मूलम्

अङ्‌गुष्ठस्य च यन्मध्यं प्रदेशिन्याश्च भारत।
तेन पित्र्याणि कुर्वीत स्पृष्ट्वापो न्यायतः सदा ॥ १०४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! अंगुष्ठ और तर्जनीके मध्यभागको पितृतीर्थ कहते हैं। उसके द्वारा शास्त्रविधिसे जल लेकर सदा पितृकार्य करना चाहिये॥१०४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परापवादं न ब्रूयान्नाप्रियं च कदाचन।
न मन्युः कश्चिदुत्पाद्यः पुरुषेण भवार्थिना ॥ १०५ ॥

मूलम्

परापवादं न ब्रूयान्नाप्रियं च कदाचन।
न मन्युः कश्चिदुत्पाद्यः पुरुषेण भवार्थिना ॥ १०५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी भलाई चाहनेवाले पुरुषको दूसरोंकी निन्दा तथा अप्रिय वचन मुँहसे नहीं निकालने चाहिये और किसीको क्रोध भी नहीं दिलाना चाहिये॥१०५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतितैस्तु कथां नेच्छेद् दर्शनं च विवर्जयेत्।
संसर्गं च न गच्छेत तथाऽऽयुर्विन्दते महत् ॥ १०६ ॥

मूलम्

पतितैस्तु कथां नेच्छेद् दर्शनं च विवर्जयेत्।
संसर्गं च न गच्छेत तथाऽऽयुर्विन्दते महत् ॥ १०६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पतित मनुष्योंके साथ वार्तालापकी इच्छा न करे। उनका दर्शन भी त्याग दे और उनके सम्पर्कमें कभी न जाय। ऐसा करनेसे मनुष्य बड़ी आयु पाता है॥१०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न दिवा मैथुनं गच्छेन्न कन्यां न च बन्धकीम्।
न चास्नातां स्त्रियं गच्छेत् तथायुर्विन्दते महत् ॥ १०७ ॥

मूलम्

न दिवा मैथुनं गच्छेन्न कन्यां न च बन्धकीम्।
न चास्नातां स्त्रियं गच्छेत् तथायुर्विन्दते महत् ॥ १०७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दिनमें कभी मैथुन न करे। कुमारी कन्या और कुलटाके साथ कभी समागम न करे। अपनी पत्नी भी जबतक ऋतुस्नाता न हो तबतक उसके साथ समागम न करे। इससे मनुष्यको बड़ी आयु प्राप्त होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वे स्वे तीर्थे समाचम्य कार्ये समुपकल्पिते।
त्रिःपीत्वाऽऽपो द्विः प्रमृज्य कृतशौचो भवेन्नरः ॥ १०८ ॥

मूलम्

स्वे स्वे तीर्थे समाचम्य कार्ये समुपकल्पिते।
त्रिःपीत्वाऽऽपो द्विः प्रमृज्य कृतशौचो भवेन्नरः ॥ १०८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कार्य उपस्थित होनेपर अपने-अपने तीर्थमें आचमन करके तीन बार जल पीये और दो बार ओठोंको पोंछ ले—ऐसा करनेसे मनुष्य शुद्ध हो जाता है॥१०८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियाणि सकृत्स्पृश्य त्रिरभ्युक्ष्य च मानवः।
कुर्वीत पित्र्यं दैवं च वेददृष्टेन कर्मणा ॥ १०९ ॥

मूलम्

इन्द्रियाणि सकृत्स्पृश्य त्रिरभ्युक्ष्य च मानवः।
कुर्वीत पित्र्यं दैवं च वेददृष्टेन कर्मणा ॥ १०९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले नेत्र आदि इन्द्रियोंका एक बार स्पर्श करके तीन बार अपने ऊपर जल छिड़के, इसके बाद वेदोक्त विधिके अनुसार देवयज्ञ और पितृयज्ञ करे॥१०९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणार्थे च यच्छौचं तच्च मे शृणु कौरव।
पवित्रं च हितं चैव भोजनाद्यन्तयोस्तथा ॥ ११० ॥

मूलम्

ब्राह्मणार्थे च यच्छौचं तच्च मे शृणु कौरव।
पवित्रं च हितं चैव भोजनाद्यन्तयोस्तथा ॥ ११० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! अब ब्राह्मणके लिये भोजनके आदि और अन्तमें जो पवित्र एवं हितकारक शुद्धिका विधान है, उसे बता रहा हूँ, सुनो॥११०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वशौचेषु ब्राह्मेण तीर्थेन समुपस्पृशेत्।
निष्ठीव्य तु तथा क्षुत्त्वा स्पृश्यापो हि शुचिर्भवेत् ॥ १११ ॥

मूलम्

सर्वशौचेषु ब्राह्मेण तीर्थेन समुपस्पृशेत्।
निष्ठीव्य तु तथा क्षुत्त्वा स्पृश्यापो हि शुचिर्भवेत् ॥ १११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणको प्रत्येक शुद्धिके कार्यमें ब्राह्मतीर्थसे आचमन करना चाहिये। थूकने और छींकनेके बाद झलका स्पर्श (आचमन) करनेसे वह शुद्ध होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृद्धो ज्ञातिस्तथा मित्रं दरिद्रो यो भवेदपि।
(कुलीनः पण्डित इति रक्ष्या निःस्वाः स्वशक्तितः।)
गृहे वासयितव्यास्ते धन्यमायुष्यमेव च ॥ ११२ ॥

मूलम्

वृद्धो ज्ञातिस्तथा मित्रं दरिद्रो यो भवेदपि।
(कुलीनः पण्डित इति रक्ष्या निःस्वाः स्वशक्तितः।)
गृहे वासयितव्यास्ते धन्यमायुष्यमेव च ॥ ११२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बूढ़े कुटुम्बी, दरिद्र मित्र और कुलीन पण्डित यदि निर्धन हों तो उनकी यथाशक्ति रक्षा करनी चाहिये। उन्हें अपने घरपर ठहराना चाहिये। इससे धन और आयुकी वृद्धि होती है॥११२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहे पारावता धन्याः शुकाश्च सहसारिकाः।
गृहेष्वेते न पापाय तथा वै तैलपायिकाः ॥ ११३ ॥
(देवता प्रतिमाऽऽदर्शाश्चन्दनाः पुष्पवल्लिकाः ।
शुद्धं जलं सुवर्णं च रजतं गृहमंगलम्॥)

मूलम्

गृहे पारावता धन्याः शुकाश्च सहसारिकाः।
गृहेष्वेते न पापाय तथा वै तैलपायिकाः ॥ ११३ ॥
(देवता प्रतिमाऽऽदर्शाश्चन्दनाः पुष्पवल्लिकाः ।
शुद्धं जलं सुवर्णं च रजतं गृहमंगलम्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

परेवा, तोता और मैना आदि पक्षियोंका घरमें रहना अभ्युदयकारी एवं मंगलमय है। ये तैलपायिक पक्षियोंकी भाँति अमंगल करनेवाले नहीं होते। देवताकी प्रतिमा, दर्पण, चन्दन, फूलकी लता, शुद्ध जल, सोना और चाँदी—इन सब वस्तुओंका घरमें रहना मंगल-कारक है॥११३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्दीपकाश्च गृध्राश्च कपोता भ्रमरास्तथा।
निविशेयुर्यदा तत्र शान्तिमेव तदाऽऽचरेत्।
अमंगल्यानि चैतानि तथाक्रोशो महात्मनाम् ॥ ११४ ॥

मूलम्

उद्दीपकाश्च गृध्राश्च कपोता भ्रमरास्तथा।
निविशेयुर्यदा तत्र शान्तिमेव तदाऽऽचरेत्।
अमंगल्यानि चैतानि तथाक्रोशो महात्मनाम् ॥ ११४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्दीपक, गीध, कपोत (जंगली कबूतर) और भ्रमर नामक पक्षी यदि कभी घरमें आ जायँ तो सदा उसकी शान्ति ही करानी चाहिये; क्योंकि ये अमंगलकारी होते हैं। महात्माओंकी निन्दा भी मनुष्यका अकल्याण करनेवाली है॥११४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महात्मनोऽतिगुह्यानि न वक्तव्यानि कर्हिचित्।
अगम्याश्च न गच्छेत राज्ञः पत्नीं सखीस्तथा ॥ ११५ ॥

मूलम्

महात्मनोऽतिगुह्यानि न वक्तव्यानि कर्हिचित्।
अगम्याश्च न गच्छेत राज्ञः पत्नीं सखीस्तथा ॥ ११५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा पुरुषोंके गुप्त कर्म कहीं किसीपर प्रकट नहीं करने चाहिये। परायी स्त्रियाँ सदा अगम्य होती हैं, उनके साथ कभी समागम न करे। राजाकी पत्नी और सखियोंके पास भी कभी न जाय॥११५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैद्यानां बालवृद्धानां भृत्यानां च युधिष्ठिर।
बन्धूनां ब्राह्मणानां च तथा शारणिकस्य च ॥ ११६ ॥
सम्बन्धिनां च राजेन्द्र तथाऽऽयुर्विन्दते महत्।

मूलम्

वैद्यानां बालवृद्धानां भृत्यानां च युधिष्ठिर।
बन्धूनां ब्राह्मणानां च तथा शारणिकस्य च ॥ ११६ ॥
सम्बन्धिनां च राजेन्द्र तथाऽऽयुर्विन्दते महत्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र युधिष्ठिर! वैद्यों, बालकों, वृद्धों, भृत्यों, बन्धुओं, ब्राह्मणों, शरणार्थियों तथा सम्बन्धियोंकी स्त्रियोंके पास कभी न जाय। ऐसा करनेसे दीर्घायु प्राप्त होती है॥११६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणस्थपतिभ्यां च निर्मितं यन्निवेशनम् ॥ ११७ ॥
तदावसेत् सदा प्राज्ञो भवार्थी मनुजेश्वर।

मूलम्

ब्राह्मणस्थपतिभ्यां च निर्मितं यन्निवेशनम् ॥ ११७ ॥
तदावसेत् सदा प्राज्ञो भवार्थी मनुजेश्वर।

अनुवाद (हिन्दी)

मनुजेश्वर! अपनी उन्नति चाहनेवाले विद्वान् पुरुषको उचित है कि ब्राह्मणके द्वारा वास्तुपूजनपूर्वक आरम्भ कराये और अच्छे कारीगरके द्वारा बनाये हुए घरमें सदा निवास करे॥११७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संध्यायां न स्वपेद् राजन् विद्यां न च समाचरेत्॥११८॥
न भूञ्जीत च मेधावी तथायुर्विन्दते महत्।

मूलम्

संध्यायां न स्वपेद् राजन् विद्यां न च समाचरेत्॥११८॥
न भूञ्जीत च मेधावी तथायुर्विन्दते महत्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! बुद्धिमान् पुरुष सायंकालमें गोधूलिकी वेलामें न तो सोये, न विद्या पढ़े और न भोजन ही करे। ऐसा करनेसे वह बड़ी आयुको प्राप्त होता है॥११८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नक्तं न कुर्यात्‌ पित्र्याणि भुक्त्वा चैव प्रसाधनम् ॥ ११९ ॥
पानीयस्य क्रिया नक्तं न कार्या भूतिमिच्छता।

मूलम्

नक्तं न कुर्यात्‌ पित्र्याणि भुक्त्वा चैव प्रसाधनम् ॥ ११९ ॥
पानीयस्य क्रिया नक्तं न कार्या भूतिमिच्छता।

अनुवाद (हिन्दी)

अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषको रातमें श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिये। भोजन करके केशोंका संस्कार (क्षौरकर्म) भी नहीं करना चाहिये तथा रातमें जलसे स्नान करना भी उचित नहीं है॥११९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्जनीयाश्चैव नित्यं सक्तवो निशि भारत ॥ १२० ॥
शेषाणि चैव पानानि पानीयं चापि भोजने।

मूलम्

वर्जनीयाश्चैव नित्यं सक्तवो निशि भारत ॥ १२० ॥
शेषाणि चैव पानानि पानीयं चापि भोजने।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! रातमें सत्तू खाना सर्वथा वर्जित है। अन्न-भोजनके पश्चात् जो पीनेयोग्य पदार्थ और जल शेष रह जाते हैं, उनका भी त्याग कर देना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौहित्यं न च कर्तव्यं रात्रौ न च समाचरेत्॥१२१॥
द्विजच्छेदं न कुर्वीत भुक्त्वा न च समाचरेत्।

मूलम्

सौहित्यं न च कर्तव्यं रात्रौ न च समाचरेत्॥१२१॥
द्विजच्छेदं न कुर्वीत भुक्त्वा न च समाचरेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

रातमें न स्वयं डटकर भोजन करे और न दूसरेको ही डटकर भोजन करावे। भोजन करके दौड़े नहीं। ब्राह्मणोंका वध कभी न करे॥१२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाकुले प्रसूतां च प्रशस्तां लक्षणैस्तथा ॥ १२२ ॥
वयःस्थां च महाप्राज्ञः कन्यामावोढुमर्हति।

मूलम्

महाकुले प्रसूतां च प्रशस्तां लक्षणैस्तथा ॥ १२२ ॥
वयःस्थां च महाप्राज्ञः कन्यामावोढुमर्हति।

अनुवाद (हिन्दी)

जो श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न हुई हो, उत्तम लक्षणोंसे प्रशंसित हो तथा विवाहके योग्य अवस्थाको प्राप्त हो गयी हो, ऐसी सुलक्षणा कन्याके साथ श्रेष्ठ बुद्धिमान् पुरुष विवाह करे॥१२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपत्यमुत्पाद्य ततः प्रतिष्ठाप्य कुलं तथा ॥ १२३ ॥
पुत्राः प्रदेया ज्ञानेषु कुलधर्मेषु भारत।

मूलम्

अपत्यमुत्पाद्य ततः प्रतिष्ठाप्य कुलं तथा ॥ १२३ ॥
पुत्राः प्रदेया ज्ञानेषु कुलधर्मेषु भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उसके गर्भसे संतान उत्पन्न करके वंश-परम्पराको प्रतिष्ठित करे और ज्ञान तथा कुलधर्मकी शिक्षा पानेके लिये पुत्रोंको गुरुके आश्रममें भेज दे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कन्या चोत्पाद्य दातव्या कुलपुत्राय धीमते ॥ १२४ ॥
पुत्रा निवेश्याश्च कुलाद् भृत्या लभ्याश्च भारत।

मूलम्

कन्या चोत्पाद्य दातव्या कुलपुत्राय धीमते ॥ १२४ ॥
पुत्रा निवेश्याश्च कुलाद् भृत्या लभ्याश्च भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! यदि कन्या उत्पन्न करे तो बुद्धिमान् एवं कुलीन वरके साथ उसका ब्याह कर दे। पुत्रका विवाह भी उत्तम कुलकी कन्याके साथ करे और भृत्य भी उत्तम कुलके मनुष्योंको ही बनावे॥१२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिरःस्नातोऽथ कुर्वीत दैवं पित्र्यमथापि च ॥ १२५ ॥
नक्षत्रे न च कुर्वीत यस्मिन् जातो भवेन्नरः।
न प्रोष्ठपदयोः कार्यं तथाग्नेये च भारत ॥ १२६ ॥

मूलम्

शिरःस्नातोऽथ कुर्वीत दैवं पित्र्यमथापि च ॥ १२५ ॥
नक्षत्रे न च कुर्वीत यस्मिन् जातो भवेन्नरः।
न प्रोष्ठपदयोः कार्यं तथाग्नेये च भारत ॥ १२६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! मस्तकपरसे स्नान करके देवकार्य तथा पितृकार्य करे। जिस नक्षत्रमें अपना जन्म हुआ हो उसमें एवं पूर्वा और उत्तरा दोनों भाद्रपदाओंमें तथा कृत्तिका नक्षत्रमें भी श्राद्धका निषेध है॥१२५-१२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दारुणेषु च सर्वेषु प्रत्यरिं च विवर्जयेत्।
ज्योतिषे यानि चोक्तानि तानि सर्वाणि वर्जयेत् ॥ १२७ ॥

मूलम्

दारुणेषु च सर्वेषु प्रत्यरिं च विवर्जयेत्।
ज्योतिषे यानि चोक्तानि तानि सर्वाणि वर्जयेत् ॥ १२७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(आश्लेषा, आर्द्रा, ज्येष्ठा और मूल आदि) सम्पूर्ण दारुण नक्षत्रों और प्रत्यरिताराका1 भी परित्याग कर देना चाहिये। सारांश यह है कि ज्योतिष-शास्त्रके भीतर जिन-जिन नक्षत्रोंमें श्राद्धका निषेध किया गया है, उन सबमें देवकार्य और पितृकार्य नहीं करना चाहिये॥१२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राङ्‌मुखः श्मश्रुकर्माणि कारयेत्‌ सुसमाहितः।
उदङ्‌मुखो वा राजेन्द्र तथायुर्विन्दते महत् ॥ १२८ ॥

मूलम्

प्राङ्‌मुखः श्मश्रुकर्माणि कारयेत्‌ सुसमाहितः।
उदङ्‌मुखो वा राजेन्द्र तथायुर्विन्दते महत् ॥ १२८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! मनुष्य एकाग्रचित्त होकर पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके हजामत बनवाये, ऐसा करनेसे बड़ी आयु प्राप्त होती है॥१२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(सतां गुरूणां वृद्धानां कुलस्त्रीणां विशेषतः।)
परिवादं न च ब्रूयात् परेषामात्मनस्तथा।
परिवादो ह्यधर्माय प्रोच्यते भरतर्षभ ॥ १२९ ॥

मूलम्

(सतां गुरूणां वृद्धानां कुलस्त्रीणां विशेषतः।)
परिवादं न च ब्रूयात् परेषामात्मनस्तथा।
परिवादो ह्यधर्माय प्रोच्यते भरतर्षभ ॥ १२९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! सत्पुरुषों, गुरुजनों, वृद्धों और विशेषतः कुलांगनाओंकी, दूसरे लोगोंकी और अपनी भी निन्दा न करे; क्योंकि निन्दा करना अधर्मका हेतु बताया गया है॥१२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्जयेद् व्यंगिनीं नारीं तथा कन्यां नरोत्तम।
समार्षां व्यङ्गितां चैव मातुः स्वकुलजां तथा ॥ १३० ॥

मूलम्

वर्जयेद् व्यंगिनीं नारीं तथा कन्यां नरोत्तम।
समार्षां व्यङ्गितां चैव मातुः स्वकुलजां तथा ॥ १३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! जो कन्या किसी अंगसे हीन हो अथवा जो अधिक अंगवाली हो, जिसके गोत्र और प्रवर अपने ही समान हो तथा जो माताके कुलमें (नानाके वंशमें) उत्पन्न हुई हो, उसके साथ विवाह नहीं करना चाहिये॥१३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृद्धां प्रवजितां चैव तथैव च पतिव्रताम्।
तथा निकृष्टवर्णां च वर्णोत्कृष्टां च वर्जयेत् ॥ १३१ ॥

मूलम्

वृद्धां प्रवजितां चैव तथैव च पतिव्रताम्।
तथा निकृष्टवर्णां च वर्णोत्कृष्टां च वर्जयेत् ॥ १३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो बूढ़ी, संन्यासिनी, पतिव्रता, नीच वर्णकी तथा ऊँचे वर्णकी स्त्री हो, उसके सम्पर्कसे दूर रहना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयोनिं च वियोनिं च न गच्छेत विचक्षणः।
पिंगलां कुष्ठिनीं नारीं न त्वमुद्वोढुमर्हसि ॥ १३२ ॥

मूलम्

अयोनिं च वियोनिं च न गच्छेत विचक्षणः।
पिंगलां कुष्ठिनीं नारीं न त्वमुद्वोढुमर्हसि ॥ १३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी योनि अर्थात् कुलका पता न हो तथा जो नीच कुलमें पैदा हुई हो, उसके साथ विद्वान् पुरुष समागम न करे। युधिष्ठिर! जिसके शरीरका रंग पीला हो तथा जो कुष्ठ रोगवाली हो, उसके साथ तुम्हें विवाह नहीं करना चाहिये॥१३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपस्मारिकुले जातां निहीनां चापि वर्जयेत्।
श्वित्रिणां च कुले जातां क्षयिणां मनुजेश्वर ॥ १३३ ॥

मूलम्

अपस्मारिकुले जातां निहीनां चापि वर्जयेत्।
श्वित्रिणां च कुले जातां क्षयिणां मनुजेश्वर ॥ १३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जो मृगीरोगसे दूषित कुलमें उत्पन्न हुई हो, नीच हो, सफेद कोढ़वाले और राजयक्ष्माके रोगी मनुष्यके कुलमें पैदा हुई हो, उसको भी त्याग देना चाहिये॥१३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्षणैरन्विता या च प्रशस्ता या च लक्षणैः।
मनोज्ञां दर्शनीयां च तां भवान् वोढुमर्हति ॥ १३४ ॥

मूलम्

लक्षणैरन्विता या च प्रशस्ता या च लक्षणैः।
मनोज्ञां दर्शनीयां च तां भवान् वोढुमर्हति ॥ १३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न, श्रेष्ठ आचरणोंद्वारा प्रशंसित, मनोहारिणी तथा दर्शनीय हो, उसीके साथ तुम्हें विवाह करना चाहिये॥१३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाकुले निवेष्टव्यं सदृशे वा युधिष्ठिर।
अवरा पतिता चैव न ग्राह्या भूतिमिच्छता ॥ १३५ ॥

मूलम्

महाकुले निवेष्टव्यं सदृशे वा युधिष्ठिर।
अवरा पतिता चैव न ग्राह्या भूतिमिच्छता ॥ १३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषको अपनी अपेक्षा महान् या समान कुलमें विवाह करना चाहिये। नीच जातिवाली तथा पतिता कन्याका पाणिग्रहण कदापि नहीं करना चाहिये॥१३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्नीनुत्पाद्य यत्नेन क्रियाः सुविहिताश्च याः।
वेदे च ब्राह्मणैः प्रोक्तास्ताश्च सर्वाः समाचरेत् ॥ १३६ ॥

मूलम्

अग्नीनुत्पाद्य यत्नेन क्रियाः सुविहिताश्च याः।
वेदे च ब्राह्मणैः प्रोक्तास्ताश्च सर्वाः समाचरेत् ॥ १३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अरणी-मन्थनद्वारा) अग्निका उत्पादन एवं स्थापन करके ब्राह्मणोंद्वारा बतायी हुई सम्पूर्ण वेदविहित क्रियाओंका यत्नपूर्वक अनुष्ठान करना चाहिये॥१३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चेर्ष्या स्त्रीषु कर्तव्या रक्ष्या दाराश्च सर्वशः।
अनायुष्या भवेदीर्ष्या तस्मादीर्ष्यां विवर्जयेत् ॥ १३७ ॥

मूलम्

न चेर्ष्या स्त्रीषु कर्तव्या रक्ष्या दाराश्च सर्वशः।
अनायुष्या भवेदीर्ष्या तस्मादीर्ष्यां विवर्जयेत् ॥ १३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी उपायोंसे अपनी स्त्रीकी रक्षा करनी चाहिये। स्त्रियोंसे ईर्ष्या रखना उचित नहीं है। ईर्ष्या करनेसे आयु क्षीण होती है। इसलिये उसे त्याग देना ही उचित है॥१३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनायुष्यं दिवा स्वप्नं तथाभ्युदितशायिता।
प्रगे निशामाशु तथा नैवोच्छिष्टाः स्वपन्ति वै ॥ १३८ ॥

मूलम्

अनायुष्यं दिवा स्वप्नं तथाभ्युदितशायिता।
प्रगे निशामाशु तथा नैवोच्छिष्टाः स्वपन्ति वै ॥ १३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दिनमें एवं सूर्योदयके पश्चात् शयन आयुको क्षीण करनेवाला है। प्रातःकाल एवं रात्रिके आरम्भमें नहीं सोना चाहिये। अच्छे लोग रातमें अपवित्र होकर नहीं सोते हैं॥१३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारदार्यमनायुष्यं नापितोच्छिष्टता तथा ।
यत्नतो वै न कर्तव्यमभ्यासश्चैव भारत ॥ १३९ ॥

मूलम्

पारदार्यमनायुष्यं नापितोच्छिष्टता तथा ।
यत्नतो वै न कर्तव्यमभ्यासश्चैव भारत ॥ १३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परस्त्रीसे व्यभिचार करना और हजामत बनवाकर बिना नहाये रह जाना भी आयुका नाश करनेवाला है। भारत! अपवित्रावस्थामें वेदोंका अध्ययन यत्नपूर्वक त्याग देना चाहिये॥१३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संध्यायां च न भुञ्जीत न स्नायेन्न तथा पठेत्।
प्रयतश्च भवेत्‌ तस्यां न च किंचित्‌ समाचरेत् ॥ १४० ॥

मूलम्

संध्यायां च न भुञ्जीत न स्नायेन्न तथा पठेत्।
प्रयतश्च भवेत्‌ तस्यां न च किंचित्‌ समाचरेत् ॥ १४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संध्याकालमें स्नान, भोजन और स्वाध्याय कुछ भी न करे। उस बेलामें शुद्ध चित्त होकर ध्यान एवं उपासना करनी चाहिये। दूसरा कोई कार्य नहीं करना चाहिये॥१४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणान् पूजयेच्चापि तथा स्नात्वा नराधिप।
देवांश्च प्रणमेत् स्नातो गुरूंश्चाप्यभिवादयेत् ॥ १४१ ॥

मूलम्

ब्राह्मणान् पूजयेच्चापि तथा स्नात्वा नराधिप।
देवांश्च प्रणमेत् स्नातो गुरूंश्चाप्यभिवादयेत् ॥ १४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! ब्राह्मणोंकी पूजा, देवताओंको नमस्कार और गुरुजनोंको प्रणाम स्नानके बाद ही करने चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिमन्त्रितो न गच्छेत यज्ञं गच्छेत दर्शकः।

मूलम्

अनिमन्त्रितो न गच्छेत यज्ञं गच्छेत दर्शकः।

Misc Detail

अनर्चिते ह्यनायुष्यं गमनं तत्र भारत ॥ १४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिना बुलाये कहीं भी न जाय, परंतु यज्ञ देखनेके लिये मनुष्य बिना बुलाये भी जा सकता है। भारत! जहाँ अपना आदर न होता हो, वहाँ जानेसे आयुका नाश होता है॥१४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैकेन परिव्रज्यं न गन्तव्यं तथा निशि।
अनागतायां संध्यायां पश्चिमायां गृहे वसेत् ॥ १४३ ॥

मूलम्

न चैकेन परिव्रज्यं न गन्तव्यं तथा निशि।
अनागतायां संध्यायां पश्चिमायां गृहे वसेत् ॥ १४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अकेले परदेश जाना और रातमें यात्रा करना मना है। यदि किसी कामके लिये बाहर जाय तो संध्या होनेके पहले ही घर लौट आना चाहिये॥१४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातुः पितुर्गुरूणां च कार्यमेवानुशासनम्।
हितं चाप्यहितं चापि न विचार्यं नरर्षभ ॥ १४४ ॥

मूलम्

मातुः पितुर्गुरूणां च कार्यमेवानुशासनम्।
हितं चाप्यहितं चापि न विचार्यं नरर्षभ ॥ १४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! माता-पिता और गुरुजनोंकी आज्ञाका अविलम्ब पालन करना चाहिये। इनकी आज्ञा हितकर है या अहितकर, इसका विचार नहीं करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनुर्वेदे च वेदे च यत्नः कार्यो नराधिप।
हस्तिपृष्ठेऽश्वपृष्ठे च रथचर्यासु चैव ह ॥ १४५ ॥
यत्नवान् भव राजेन्द्र यत्नवान् सुखमेधते।
अप्रधृष्यश्च शत्रूणां भृत्यानां स्वजनस्य च ॥ १४६ ॥

मूलम्

धनुर्वेदे च वेदे च यत्नः कार्यो नराधिप।
हस्तिपृष्ठेऽश्वपृष्ठे च रथचर्यासु चैव ह ॥ १४५ ॥
यत्नवान् भव राजेन्द्र यत्नवान् सुखमेधते।
अप्रधृष्यश्च शत्रूणां भृत्यानां स्वजनस्य च ॥ १४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! क्षत्रियको धनुर्वेद और वेदाध्ययनके लिये यत्न करना चाहिये। राजेन्द्र! तुम हाथी-घोड़ेकी सवारी और रथ हाँकनेकी कलामें निपुणता प्राप्त करनेके लिये प्रयत्नशील बनो, क्योंकि यत्न करनेवाला पुरुष सुखपूर्वक उन्नतिशील होता है। वह शत्रुओं, स्वजनों और भृत्योंके लिये दुर्धर्ष हो जाता है॥१४५-१४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजापालनयुक्तश्च न क्षतिं लभते क्वचित्।
युक्तिशास्त्रं च ते ज्ञेयं शब्दशास्त्रं च भारत ॥ १४७ ॥

मूलम्

प्रजापालनयुक्तश्च न क्षतिं लभते क्वचित्।
युक्तिशास्त्रं च ते ज्ञेयं शब्दशास्त्रं च भारत ॥ १४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा सदा प्रजाके पालनमें तत्पर रहता है, उसे कभी हानि नहीं उठानी पड़ती। भरतनन्दन! तुम्हें तर्कशास्त्र और शब्दशास्त्र दोनोंका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये॥१४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गान्धर्वशास्त्रं च कलाः परिज्ञेया नराधिप।
पुराणमितिहासाश्च तथाख्यानानि यानि च ॥ १४८ ॥
महात्मनां च चरितं श्रोतव्यं नित्यमेव ते।

मूलम्

गान्धर्वशास्त्रं च कलाः परिज्ञेया नराधिप।
पुराणमितिहासाश्च तथाख्यानानि यानि च ॥ १४८ ॥
महात्मनां च चरितं श्रोतव्यं नित्यमेव ते।

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! गान्धर्वशास्त्र (संगीत) और समस्त कलाओंका ज्ञान प्राप्त करना भी तुम्हारे लिये आवश्यक है। तुम्हें प्रतिदिन पुराण, इतिहास, उपाख्यान तथा महात्माओंके चरित्रका श्रवण करना चाहिये॥१४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(मान्यानां माननं कुर्यान्निन्द्यानां निन्दनं तथा।
गोब्राह्मणार्थे युध्येत प्राणानपि परित्यजेत्॥)

मूलम्

(मान्यानां माननं कुर्यान्निन्द्यानां निन्दनं तथा।
गोब्राह्मणार्थे युध्येत प्राणानपि परित्यजेत्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

राजा माननीय पुरुषोंका सम्मान और निन्दनीय मनुष्योंकी निन्दा करे। वह गौओं तथा ब्राह्मणोंके लिये युद्ध करे। उनकी रक्षाके लिये आवश्यकता हो तो प्राणोंको भी निछावर कर दे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्नी रजस्वला या च नाभिगच्छेन्न चाह्वयेत् ॥ १४९ ॥
स्नातां चतुर्थे दिवसे रात्रौ गच्छेद् विचक्षणः।
पञ्चमे दिवसे नारी षष्ठेऽहनि पुमान् भवेत् ॥ १५० ॥

मूलम्

पत्नी रजस्वला या च नाभिगच्छेन्न चाह्वयेत् ॥ १४९ ॥
स्नातां चतुर्थे दिवसे रात्रौ गच्छेद् विचक्षणः।
पञ्चमे दिवसे नारी षष्ठेऽहनि पुमान् भवेत् ॥ १५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी पत्नी भी रजस्वला हो तो उसके पास न जाय और न उसे ही अपने पास बुलाये। जब चौथे दिन वह स्नान कर ले, तब रातमें बुद्धिमान् पुरुष उसके पास जाय। पाँचवें दिन गर्भाधान करनेसे कन्याकी उत्पत्ति होती है और छठे दिन पुत्रकी अर्थात् समरात्रिमें गर्भाधानसे पुत्रका और विषमरात्रिमें गर्भाधान होनेसे कन्याका जन्म होता है॥१४९-१५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेन विधिना पत्नीमुपगच्छेत पण्डितः।
ज्ञातिसम्बन्धिमित्राणि पूजनीयानि सर्वशः ॥ १५१ ॥

मूलम्

एतेन विधिना पत्नीमुपगच्छेत पण्डितः।
ज्ञातिसम्बन्धिमित्राणि पूजनीयानि सर्वशः ॥ १५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी विधिसे विद्वान् पुरुष पत्नीके साथ समागम करे। भाई-बन्धु, सम्बन्धी और मित्र—इन सबका सब प्रकारसे आदर करना चाहिये॥१५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यष्टव्यं च यथाशक्ति यज्ञैर्विविधदक्षिणैः।
अत ऊर्ध्वमरण्यं च सेवितव्यं नराधिप ॥ १५२ ॥

मूलम्

यष्टव्यं च यथाशक्ति यज्ञैर्विविधदक्षिणैः।
अत ऊर्ध्वमरण्यं च सेवितव्यं नराधिप ॥ १५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी शक्तिके अनुसार भाँति-भाँतिकी दक्षिणावाले यज्ञोंका अनुष्ठान करना चाहिये। नरेश्वर! तदनन्तर गार्हस्थ्यकी अवधि समाप्त हो जानेपर वानप्रस्थके नियमोंका पालन करते हुए वनमें निवास करना चाहिये॥१५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष ते लक्षणोद्‌देश आयुष्याणां प्रकीर्तितः।
शेषस्त्रैविद्यवृद्धेभ्यः प्रत्याहार्यो युधिष्ठिर ॥ १५३ ॥

मूलम्

एष ते लक्षणोद्‌देश आयुष्याणां प्रकीर्तितः।
शेषस्त्रैविद्यवृद्धेभ्यः प्रत्याहार्यो युधिष्ठिर ॥ १५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! इस प्रकार मैंने तुमसे आयुकी वृद्धि करनेवाले नियमोंका संक्षेपसे वर्णन किया है। जो नियम बाकी रह गये हैं, उन्हें तुम तीनों वेदोंके ज्ञानमें बढ़े-चढ़े ब्राह्मणोंसे पूछकर जान लेना॥१५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचारो भूतिजनन आचारः कीर्तिवर्धनः।
आचाराद् वर्धते ह्यायुराचारो हन्त्यलक्षणम् ॥ १५४ ॥

मूलम्

आचारो भूतिजनन आचारः कीर्तिवर्धनः।
आचाराद् वर्धते ह्यायुराचारो हन्त्यलक्षणम् ॥ १५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सदाचार ही कल्याणका जनक और सदाचार ही कीर्तिको बढ़ानेवाला है। सदाचारसे आयुकी वृद्धि होती है और सदाचार ही बुरे लक्षणोंका नाश करता है॥१५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगमानां हि सर्वेषामाचारः श्रेष्ठ उच्यते।
आचारप्रभवो धर्मो धर्मादायुर्विवर्धते ॥ १५५ ॥

मूलम्

आगमानां हि सर्वेषामाचारः श्रेष्ठ उच्यते।
आचारप्रभवो धर्मो धर्मादायुर्विवर्धते ॥ १५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण आगमोंमें सदाचार ही श्रेष्ठ बतलाया जाता है। सदाचारसे धर्मकी उत्पत्ति होती है और धर्मसे आयु बढ़ती है॥१५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं स्वस्त्ययनं महत्।
अनुकम्प्य सर्ववर्णान् ब्रह्मणा समुदाहृतम् ॥ १५६ ॥

मूलम्

एतद् यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं स्वस्त्ययनं महत्।
अनुकम्प्य सर्ववर्णान् ब्रह्मणा समुदाहृतम् ॥ १५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें सब वर्णोंके लोगोंपर दया करके ब्रह्माजीने यह सदाचार धर्मका उपदेश दिया था। यह यश, आयु और स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला तथा कल्याणका परम आधार है॥१५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(य इमं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत्।
स शुभान् प्राप्नुते लोकान् सदाचारव्रतान्नृप॥)

मूलम्

(य इमं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत्।
स शुभान् प्राप्नुते लोकान् सदाचारव्रतान्नृप॥)

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जो प्रतिदिन इस प्रसंगको सुनता और कहता है, वह सदाचार-व्रतके प्रभावसे शुभ लोकोंमें जाता है॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि आयुष्याख्याने चतुरधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें आयु बढ़ानेवाले साधनोंका वर्णनविषयक एक सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०४॥

Misc Detail

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ९ श्लोक मिलाकर कुल १६५ श्लोक हैं)


  1. अपने जन्मनक्षत्रसे वर्तमान नक्षत्रतक गिने, गिननेपर जितनी संख्या हो उसमें नौका भाग दे। यदि पाँच शेष रहे तो उस दिनके नक्षत्रको प्रत्यरि तारा समझे। ↩︎