भागसूचना
एकाधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्राह्मणोंके धनका अपहरण करनेसे प्राप्त होनेवाले दोषके विषयमें क्षत्रिय और चाण्डालका संवाद तथा ब्रह्मस्वकी रक्षामें प्राणोत्सर्ग करनेसे चाण्डालको मोक्षकी प्राप्ति
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणस्वानि ये मंदा हरन्ति भरतर्षभ।
नृशंसकारिणो मूढाः क्व ते गच्छन्ति मानवाः ॥ १ ॥
मूलम्
ब्राह्मणस्वानि ये मंदा हरन्ति भरतर्षभ।
नृशंसकारिणो मूढाः क्व ते गच्छन्ति मानवाः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ! जो मूर्ख और मंदबुद्धि मानव क्रूरतापूर्ण कर्ममें संलग्न रहकर ब्राह्मणोंके धनका अपहरण करते हैं, वे किस लोकमें जाते हैं?॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(पातकानां परं ह्येतद् ब्रह्मस्वहरणं बलात्।
सान्वयास्ते विनश्यन्ति चण्डालाः प्रेत्य चेह च॥)
मूलम्
(पातकानां परं ह्येतद् ब्रह्मस्वहरणं बलात्।
सान्वयास्ते विनश्यन्ति चण्डालाः प्रेत्य चेह च॥)
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! ब्राह्मणोंके धनका बलपूर्वक अपहरण—यह सबसे बड़ा पातक है। ब्राह्मणोंका धन लूटनेवाले चाण्डाल-स्वभावयुक्त मनुष्य अपने कुल-परिवारसहित नष्ट हो जाते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
चाण्डालस्य च संवादं क्षत्रबंधोश्च भारत ॥ २ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
चाण्डालस्य च संवादं क्षत्रबंधोश्च भारत ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इस विषयमें जानकार मनुष्य एक चाण्डाल और क्षत्रियबंधुका संवादविषयक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥२॥
मूलम् (वचनम्)
राजन्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृद्धरूपोऽसि चाण्डाल बालवच्च विचेष्टसे।
श्वखराणां रजःसेवी कस्मादुद्विजसे गवाम् ॥ ३ ॥
मूलम्
वृद्धरूपोऽसि चाण्डाल बालवच्च विचेष्टसे।
श्वखराणां रजःसेवी कस्मादुद्विजसे गवाम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियने पूछा— चाण्डाल! तू बूढ़ा हो गया है तो भी बालकों-जैसी चेष्टा करता है। कुत्तों और गधोंकी धूलिका सेवन करनेवाला होकर भी तू इन गौओंकी धूलिसे क्यों इतना उद्विग्न हो रहा है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधुभिर्गर्हितं कर्म चाण्डालस्य विधीयते।
कस्माद् गोरजसा ध्वस्तमपां कुण्डे निषिञ्चसि ॥ ४ ॥
मूलम्
साधुभिर्गर्हितं कर्म चाण्डालस्य विधीयते।
कस्माद् गोरजसा ध्वस्तमपां कुण्डे निषिञ्चसि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डालके लिये विहित कर्मकी श्रेष्ठ पुरुष निंदा करते हैं। तू गोधूलिसे ध्वस्त हुए अपने शरीरको क्यों जलके कुण्डमें डालकर धो रहा है?॥४॥
मूलम् (वचनम्)
चाण्डाल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणस्य गवां राजन् ह्रियतीनां रजः पुरा।
सोममुध्वंसयामास तं सोमं येऽपिबन् द्विजाः ॥ ५ ॥
दीक्षितश्च स राजापि क्षिप्रं नरकमाविशत्।
सह तैर्याजकैः सर्वैर्ब्रह्मस्वमुपजीव्य तत् ॥ ६ ॥
मूलम्
ब्राह्मणस्य गवां राजन् ह्रियतीनां रजः पुरा।
सोममुध्वंसयामास तं सोमं येऽपिबन् द्विजाः ॥ ५ ॥
दीक्षितश्च स राजापि क्षिप्रं नरकमाविशत्।
सह तैर्याजकैः सर्वैर्ब्रह्मस्वमुपजीव्य तत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डालने कहा— राजन्! पहलेकी बात है—एक ब्राह्मणकी कुछ गौओंका अपहरण किया गया था। जिस समय वे गौएँ हरकर ले जायी जा रही थीं, उस समय उनकी दुग्धकणमिश्रित चरणधूलिने सोमरसपर पड़कर उसे दूषित कर दिया। उस सोमरसको जिन ब्राह्मणोंने पीया, वे तथा उस यज्ञकी दीक्षा लेनेवाले राजा भी शीघ्र ही नरकमें जा गिरे। उन यज्ञ करानेवाले समस्त ब्राह्मणोंसहित राजा ब्राह्मणके अपहृत धनका उपयोग करके नरकगामी हुए॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येऽपि तत्रापिबन् क्षीरं घृतं दधि च मानवाः।
ब्राह्मणाः सहराजन्याः सर्वे नरकमाविशन् ॥ ७ ॥
मूलम्
येऽपि तत्रापिबन् क्षीरं घृतं दधि च मानवाः।
ब्राह्मणाः सहराजन्याः सर्वे नरकमाविशन् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ वे गौएँ हरकर लायी गयी थीं, वहाँ जिन मनुष्योंने उनके दूध, दही और घीका उपभोग किया, वे सभी ब्राह्मण और क्षत्रिय आदि नरकमें पड़े॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जघ्नुस्ताः पयसा पुत्रांस्तथा पौत्रान् विधुन्वतीः।
पशूनवेक्षमाणाश्च साधुवृत्तेन दम्पती ॥ ८ ॥
मूलम्
जघ्नुस्ताः पयसा पुत्रांस्तथा पौत्रान् विधुन्वतीः।
पशूनवेक्षमाणाश्च साधुवृत्तेन दम्पती ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपहृत हुई गौएँ जब दूसरे पशुओंको देखतीं और अपने स्वामी तथा बछड़ोंको नहीं देखती थीं, तब पीड़ासे अपने शरीरको कँपाने लगती थीं। उन दिनों सद्भावसे ही दूध देकर उन्होंने अपहरणकारी पति-पत्नीको तथा उनके पुत्रों और पौत्रोंको भी नष्ट कर दिया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं तत्रावसं राजन् ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः।
तासां मे रजसा ध्वस्तं भैक्षमासीन्नराधिप ॥ ९ ॥
मूलम्
अहं तत्रावसं राजन् ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः।
तासां मे रजसा ध्वस्तं भैक्षमासीन्नराधिप ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मैं भी उसी गाँवमें ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक जितेन्द्रियभावसे निवास करता था। नरेश्वर! एक दिन उन्हीं गौओंके दूध एवं धूलके कणसे मेरा भिक्षान्न भी दूषित हो गया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चाण्डालोऽहं ततो राजन् भुक्त्वा तदभवं नृप।
ब्रह्मस्वहारी च नृपः सोऽप्रतिष्ठां गतिं ययौ ॥ १० ॥
मूलम्
चाण्डालोऽहं ततो राजन् भुक्त्वा तदभवं नृप।
ब्रह्मस्वहारी च नृपः सोऽप्रतिष्ठां गतिं ययौ ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस भिक्षान्नको खाकर मैं चाण्डाल हो गया और ब्राह्मणके धनका अपहरण करनेवाले वे राजा भी नरकगामी हो गये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद्धरेन्न विप्रस्वं कदाचिदपि किंचन।
ब्रह्मस्वं रजसा ध्वस्तं भुक्त्वा मां पश्य यादृशम् ॥ ११ ॥
मूलम्
तस्माद्धरेन्न विप्रस्वं कदाचिदपि किंचन।
ब्रह्मस्वं रजसा ध्वस्तं भुक्त्वा मां पश्य यादृशम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये कभी किंचिन्मात्र भी ब्राह्मणके धनका अपहरण न करे। ब्राह्मणके धूल-धूसरित दुग्धरूप धनको खाकर मेरी जो दशा हुई है, उसे आप प्रत्यक्ष देख लें॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् सोमोऽप्यविक्रेयः पुरुषेण विपश्चिता।
विक्रयं त्विह सोमस्य गर्हयन्ति मनीषिणः ॥ १२ ॥
मूलम्
तस्मात् सोमोऽप्यविक्रेयः पुरुषेण विपश्चिता।
विक्रयं त्विह सोमस्य गर्हयन्ति मनीषिणः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसीलिये विद्वान् पुरुषको सोमरसका विक्रय भी नहीं करना चाहिये। मनीषी पुरुष इस जगत्में सोमरसके विक्रयकी बड़ी निंदा करते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चैनं क्रीणते तात ये च विक्रीणते जनाः।
ते तु वैवस्वतं प्राप्य रौरवं यान्ति सर्वशः ॥ १३ ॥
मूलम्
ये चैनं क्रीणते तात ये च विक्रीणते जनाः।
ते तु वैवस्वतं प्राप्य रौरवं यान्ति सर्वशः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! जो लोग सोमरसको खरीदते हैं और जो लोग उसे बेचते हैं, वे सभी यमलोकमें जाकर रौरव नरकमें पड़ते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोमं तु रजसा ध्वस्तं विक्रीणन् विधिपूर्वकम्।
श्रोत्रियो वार्धुषी भूत्वा न चिरं स विनश्यति ॥ १४ ॥
मूलम्
सोमं तु रजसा ध्वस्तं विक्रीणन् विधिपूर्वकम्।
श्रोत्रियो वार्धुषी भूत्वा न चिरं स विनश्यति ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदवेत्ता ब्राह्मण यदि गौओंके चरणोंकी धूलि और दूधसे दूषित सोमको विधिपूर्वक बेचता है अथवा व्याजपर रुपये चलाता है तो वह जल्दी ही नष्ट हो जाता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरकं त्रिंशतं प्राप्य स्वविष्ठामुपजीवति।
श्वचर्यामभिमानं च सखिदारे च विप्लवम् ॥ १५ ॥
तुलया धारयन् धर्ममभिमान्यतिरिच्यते ।
मूलम्
नरकं त्रिंशतं प्राप्य स्वविष्ठामुपजीवति।
श्वचर्यामभिमानं च सखिदारे च विप्लवम् ॥ १५ ॥
तुलया धारयन् धर्ममभिमान्यतिरिच्यते ।
अनुवाद (हिन्दी)
वह तीस नरकोंमें पड़कर अंतमें अपनी ही विष्ठापर जीनेवाला कीड़ा होता है। कुत्तोंको पालना, अभिमान तथा मित्रकी स्त्रीसे व्यभिचार—इन तीनों पापोंको तराजूपर रखकर यदि धर्मतः तौला जाय तो अभिमानका ही पलड़ा भारी होगा॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वानं वै पापिनं पश्य विवर्णं हरिणं कृशम् ॥ १६ ॥
अभिमानेन भूतानामिमां गतिमुपागतम् ।
मूलम्
श्वानं वै पापिनं पश्य विवर्णं हरिणं कृशम् ॥ १६ ॥
अभिमानेन भूतानामिमां गतिमुपागतम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
आप मेरे इस पापी कुत्तेको देखिये, यह कान्तिहीन, सफेद और दुर्बल हो गया है। यह पहले मनुष्य था। परंतु समस्त प्राणियोंके प्रति अभिमान रखनेके कारण इस दुर्गतिको प्राप्त हुआ है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं वै विपुले तात कुले धनसमन्विते ॥ १७ ॥
अन्यस्मिञ्जन्मनि विभो ज्ञानविज्ञानपारगः ।
अभवं तत्र जानानो ह्येतान् दोषान् मदात् सदा ॥ १८ ॥
संरब्ध एव भूतानां पृष्ठमांसमभक्षयम्।
सोऽहं तेन च वृत्तेन भोजनेन च तेन वै॥१९॥
इमामवस्थां सम्प्राप्तः पश्य कालस्य पर्ययम्।
मूलम्
अहं वै विपुले तात कुले धनसमन्विते ॥ १७ ॥
अन्यस्मिञ्जन्मनि विभो ज्ञानविज्ञानपारगः ।
अभवं तत्र जानानो ह्येतान् दोषान् मदात् सदा ॥ १८ ॥
संरब्ध एव भूतानां पृष्ठमांसमभक्षयम्।
सोऽहं तेन च वृत्तेन भोजनेन च तेन वै॥१९॥
इमामवस्थां सम्प्राप्तः पश्य कालस्य पर्ययम्।
अनुवाद (हिन्दी)
तात! प्रभो! मैं भी दूसरे जन्ममें धनसम्पन्न महान् कुलमें उत्पन्न हुआ था। ज्ञान-विज्ञानमें पारंगत था। इन सब दोषोंको जानता था तो भी अभिमानवश सदा सब प्राणियोंपर क्रोध करता और पशुओंके पृष्ठका मांस खाता था; उसी दुराचार और अभक्ष्य-भक्षणसे मैं इस दुरवस्थाको प्राप्त हुआ हूँ। कालके इस उलट-फेरको देखिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदीप्तमिव चैलान्तं भ्रमरैरिव चार्दितम् ॥ २० ॥
धावमानं सुसंरब्धं पश्य मां रजसान्वितम्।
मूलम्
आदीप्तमिव चैलान्तं भ्रमरैरिव चार्दितम् ॥ २० ॥
धावमानं सुसंरब्धं पश्य मां रजसान्वितम्।
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी दशा ऐसी हो रही है, मानो मेरे कपड़ोंके छोरमें आग लग गयी हो अथवा तीखे मुखवाले भ्रमरोंने मुझे डंक मार-मारकर पीड़ित कर दिया हो। मैं रजोगुणसे युक्त हो अत्यंत रोष और आवेशमें भरकर चारों ओर दौड़ रहा हूँ। मेरी दशा तो देखिये॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वाध्यायैस्तु महत्पापं हरन्ति गृहमेधिनः ॥ २१ ॥
दानैः पृथग्विधैश्चापि यथा प्राहुर्मनीषिणः।
मूलम्
स्वाध्यायैस्तु महत्पापं हरन्ति गृहमेधिनः ॥ २१ ॥
दानैः पृथग्विधैश्चापि यथा प्राहुर्मनीषिणः।
अनुवाद (हिन्दी)
गृहस्थ मनुष्य वेद-शास्त्रोंके स्वाध्यायद्वारा तथा नाना प्रकारके दानोंसे अपने महान् पापको दूर कर देते हैं। जैसा कि मनीषी पुरुषोंका कथन है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा पापकृतं विप्रमाश्रमस्थं महीपते ॥ २२ ॥
सर्वसंगविनिर्मुक्तं छन्दांस्युत्तारयन्त्युत ।
मूलम्
तथा पापकृतं विप्रमाश्रमस्थं महीपते ॥ २२ ॥
सर्वसंगविनिर्मुक्तं छन्दांस्युत्तारयन्त्युत ।
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! आश्रममें रहकर सब प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्ता हो वेदपाठ करनेवाले ब्राह्मणको यदि वह पापाचारी हो तो भी उसके द्वारा पढ़े जानेवाले वेद उसका उद्धार कर देते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं हि पापयोन्यां वै प्रसूतः क्षत्रियर्षभ।
निश्चयं नाधिगच्छामि कथं मुच्येयमित्युत ॥ २३ ॥
मूलम्
अहं हि पापयोन्यां वै प्रसूतः क्षत्रियर्षभ।
निश्चयं नाधिगच्छामि कथं मुच्येयमित्युत ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियशिरोमणे! मैं पापयोनिमें उत्पन्न हुआ हूँ। मुझे यह निश्चय नहीं हो पाता कि मैं किस उपायसे मुक्त हो सकूँगा?॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातिस्मरत्वं च मम केनचित् पूर्वकर्मणा।
शुभेन येन मोक्षं वै प्राप्तुमिच्छाम्यहं नृप ॥ २४ ॥
मूलम्
जातिस्मरत्वं च मम केनचित् पूर्वकर्मणा।
शुभेन येन मोक्षं वै प्राप्तुमिच्छाम्यहं नृप ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! पहलेके किसी शुभ कर्मके प्रभावसे मुझे पूर्व-जन्मकी बातोंका स्मरण हो रहा है, जिससे मैं मोक्ष पानेकी इच्छा करता हूँ॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमिमं सम्प्रपन्नाय संशयं ब्रूहि पृच्छते।
चाण्डालत्वात् कथमहं मुच्येयमिति सत्तम ॥ २५ ॥
मूलम्
त्वमिमं सम्प्रपन्नाय संशयं ब्रूहि पृच्छते।
चाण्डालत्वात् कथमहं मुच्येयमिति सत्तम ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ! मैं आपकी शरणमें आकर अपना यह संशय पूछ रहा हूँ। आप मुझे इसका समाधान बताइये। मैं चाण्डाल-योनिसे किस प्रकार मुक्त हो सकता हूँ?॥२५॥
मूलम् (वचनम्)
राजन्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
चाण्डाल प्रतिजानीहि येन मोक्षमवाप्स्ययसि।
ब्राह्मणार्थे त्यजन् प्राणान् गतिमिष्टामवाप्स्यसि ॥ २६ ॥
मूलम्
चाण्डाल प्रतिजानीहि येन मोक्षमवाप्स्ययसि।
ब्राह्मणार्थे त्यजन् प्राणान् गतिमिष्टामवाप्स्यसि ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियने कहा— चाण्डाल! तू उस उपायको समझ ले, जिससे तुझे मोक्ष प्राप्त होगा। यदि तू ब्राह्मणकी रक्षाके लिये अपने प्राणोंका परित्याग करे तो तुझे अभीष्ट गति प्राप्त होगी॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्त्वा शरीरं क्रव्याद्भ्यो रणाग्नौ द्विजहेतुकम्।
हुत्वा प्राणान् प्रमोक्षस्ते नान्यथा मोक्षमर्हसि ॥ २७ ॥
मूलम्
दत्त्वा शरीरं क्रव्याद्भ्यो रणाग्नौ द्विजहेतुकम्।
हुत्वा प्राणान् प्रमोक्षस्ते नान्यथा मोक्षमर्हसि ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि ब्राह्मणकी रक्षाके लिये तू अपना यह शरीर समराग्निमें होमकर कच्चा मांस खानेवाले जीव-जन्तुओंको बाँट दे तो प्राणोंकी आहुति देनेपर तेरा छुटकारा हो सकता है, अन्यथा तू मोक्ष नहीं पा सकेगा॥२७॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः स तदा तेन ब्रह्मस्वार्थे परंतप।
हुत्वा रणमुखे प्राणान् गतिमिष्टामवाप ह ॥ २८ ॥
मूलम्
इत्युक्तः स तदा तेन ब्रह्मस्वार्थे परंतप।
हुत्वा रणमुखे प्राणान् गतिमिष्टामवाप ह ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— परंतप! क्षत्रियके ऐसा कहनेपर उस चाण्डालने ब्राह्मणके धनकी रक्षाके लिये युद्धके मुहानेपर अपने प्राणोंकी आहुति दे अभीष्ट गति प्राप्त कर ली॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् रक्ष्यं त्वया पुत्र ब्रह्मस्वं भरतर्षभ।
यदीच्छसि महाबाहो शाश्वतीं गतिमात्मनः ॥ २९ ॥
मूलम्
तस्माद् रक्ष्यं त्वया पुत्र ब्रह्मस्वं भरतर्षभ।
यदीच्छसि महाबाहो शाश्वतीं गतिमात्मनः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! भरतश्रेष्ठ! महाबाहो! यदि तुम सनातन गति पाना चाहते हो तो तुम्हें ब्राह्मणके धनकी पूरी रक्षा करनी चाहिये॥२९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि राजन्यचाण्डालसंवादो नामैकोत्तरशततमोऽध्यायः ॥ १०१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अंतर्गत दानधर्मपर्वमें क्षत्रिय और चाण्डालका संवादविषयक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०१॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३० श्लोक हैं)