१०० अगस्त्यभृगुसंवादः

भागसूचना

शततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नहुषका पतन, शतक्रतुका इन्द्रपदपर पुनः अभिषेक तथा दीपदानकी महिमा

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं वै स विपन्नश्च कथं वै पातितो भुवि।
कथं चानिन्द्रतां प्राप्तस्तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ १ ॥

मूलम्

कथं वै स विपन्नश्च कथं वै पातितो भुवि।
कथं चानिन्द्रतां प्राप्तस्तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! राजा नहुषपर कैसे विपत्ति आयी? वे कैसे पृथ्वीपर गिराये गये और किस तरह वे इन्द्रपदसे वंचित हो गये? इसे आप बतानेकी कृपा करें॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तयोः संवदतोः क्रियास्तस्य महात्मनः।
सर्वा एव प्रवर्तन्ते या दिव्या याश्च मानुषीः ॥ २ ॥

मूलम्

एवं तयोः संवदतोः क्रियास्तस्य महात्मनः।
सर्वा एव प्रवर्तन्ते या दिव्या याश्च मानुषीः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! जब महर्षि भृगु और अगस्त्य उपर्युक्त वार्तालाप कर रहे थे। उस समय महामना नहुषके घरमें दैवी और मानुषी सभी क्रियाएँ चल रही थीं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव दीपदानानि सर्वोपकरणानि वै।
बलिकर्म च यच्चान्यदुत्सेकाश्च पृथग्विधाः ॥ ३ ॥
सर्वे तस्य समुत्पन्ना देवेन्द्रस्य महात्मनः।
देवलोके नृलोके च सदाचारा बुधैः स्मृताः ॥ ४ ॥

मूलम्

तथैव दीपदानानि सर्वोपकरणानि वै।
बलिकर्म च यच्चान्यदुत्सेकाश्च पृथग्विधाः ॥ ३ ॥
सर्वे तस्य समुत्पन्ना देवेन्द्रस्य महात्मनः।
देवलोके नृलोके च सदाचारा बुधैः स्मृताः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दीपदान, समस्त उपकरणोंसहित अन्नदान, बलिकर्म एवं नाना प्रकारके स्नान-अभिषेक आदि पूर्ववत् चालू थे। देवलोक तथा मनुष्यलोकमें विद्वानोंने जो सदाचार बताये हैं, वे सब महामना देवराज नहुषके यहाँ होते रहते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते चेद् भवन्ति राजेन्द्र ऋद्‌ध्यन्ते गृहमेधिनः।
धूपप्रदानैर्दीपैश्च नमस्कारैस्तथैव च ॥ ५ ॥

मूलम्

ते चेद् भवन्ति राजेन्द्र ऋद्‌ध्यन्ते गृहमेधिनः।
धूपप्रदानैर्दीपैश्च नमस्कारैस्तथैव च ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! गृहस्थके घर यदि उन सदाचारोंका पालन हो तो वे गृहस्थ सर्वथा उन्नतिशील होते हैं, धूपदान, दीपदान तथा देवताओंको किये गये नमस्कार आदिसे भी गृहस्थोंकी ऋद्धि-सिद्धि बढ़ती है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा सिद्धस्य चान्नस्य ग्रहायाग्रं प्रदीयते।
बलयश्च गृहोद्देशे अतः प्रीयन्ति देवताः ॥ ६ ॥

मूलम्

यथा सिद्धस्य चान्नस्य ग्रहायाग्रं प्रदीयते।
बलयश्च गृहोद्देशे अतः प्रीयन्ति देवताः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे तैयार हुई रसोईमेंसे पहले अतिथिको भोजन दिया जाता है, उसी प्रकार घरमें देवताओंके लिये अन्नकी बलि दी जाती है। जिससे देवते प्रसन्न होते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा च गृहिणस्तोषो भवेद् वै बलिकर्मणि।
तथा शतगुणा प्रीतिर्देवतानां प्रजायते ॥ ७ ॥

मूलम्

यथा च गृहिणस्तोषो भवेद् वै बलिकर्मणि।
तथा शतगुणा प्रीतिर्देवतानां प्रजायते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलिकर्म करनेपर गृहस्थको जितना संतोष होता है, उससे सौगुनी प्रीति देवताओंको होती है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं धूपप्रदानं च दीपदानं च साधवः।
प्रयच्छन्ति नमस्कारैर्युक्तमात्मगुणावहम् ॥ ८ ॥

मूलम्

एवं धूपप्रदानं च दीपदानं च साधवः।
प्रयच्छन्ति नमस्कारैर्युक्तमात्मगुणावहम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार श्रेष्ठ पुरुष अपने लिये लाभदायक समझकर देवताओंको नमस्कारसहित धूपदान और दीपदान करते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नानेनाद्भिश्च यत् कर्म क्रियते वै विपश्चिता।
नमस्कारप्रयुक्तेन तेन प्रीयन्ति देवताः ॥ ९ ॥
पितरश्च महाभागा ऋषयश्च तपोधनाः।
गृह्याश्च देवताः सर्वाः प्रीयन्ते विधिनार्चिताः ॥ १० ॥

मूलम्

स्नानेनाद्भिश्च यत् कर्म क्रियते वै विपश्चिता।
नमस्कारप्रयुक्तेन तेन प्रीयन्ति देवताः ॥ ९ ॥
पितरश्च महाभागा ऋषयश्च तपोधनाः।
गृह्याश्च देवताः सर्वाः प्रीयन्ते विधिनार्चिताः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् पुरुष जलसे स्नान करके देवता आदिके लिये नमस्कारपूर्वक जो तर्पण आदि कर्म करते हैं, उससे देवता, महाभाग पितर तथा तपोधन ऋषि संतुष्ट होते हैं तथा विधिपूर्वक पूजित होकर घरके सम्पूर्ण देवता प्रसन्न होते हैं॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतां बुद्धिमास्थाय नहुषः स नरेश्वरः।
सुरेन्द्रत्वं महत् प्राप्य कृतवानेतदद्‌भूतम् ॥ ११ ॥

मूलम्

इत्येतां बुद्धिमास्थाय नहुषः स नरेश्वरः।
सुरेन्द्रत्वं महत् प्राप्य कृतवानेतदद्‌भूतम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी विचारधाराका आश्रय लेकर राजा नहुषने महान् देवेन्द्रपद पाकर यह अद्‌भुत पुण्यकर्म सदा चालू रखा था॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कस्यचित् त्वथ कालस्य भाग्यक्षय उपस्थिते।
सर्वमेतदवज्ञाय कृतवानिदमीदृशम् ॥ १२ ॥

मूलम्

कस्यचित् त्वथ कालस्य भाग्यक्षय उपस्थिते।
सर्वमेतदवज्ञाय कृतवानिदमीदृशम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु कुछ कालके पश्चात् जब उनके सौभाग्य-नाशका अवसर उपस्थित हुआ, तब उन्होंने इन सब बातोंकी अवहेलना करके ऐसा पापकर्म आरम्भ कर दिया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स परिहीणोऽभूत् सुरेन्द्रो बलदर्पतः।
धूपदीपोदकविधिं न यथावच्चकार ह ॥ १३ ॥

मूलम्

ततः स परिहीणोऽभूत् सुरेन्द्रो बलदर्पतः।
धूपदीपोदकविधिं न यथावच्चकार ह ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलके घमण्डमें आकर देवराज नहुष उन सत्कर्मोंसे भ्रष्ट हो गये। उन्होंने धूपदान, दीपदान और जलदानकी विधिका यथावत्‌रूपसे पालन करना छोड़ दिया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽस्य यज्ञविषयो रक्षोभिः पर्यबध्यत।
अथागस्त्यमृषिश्रेष्ठं वाहनायाजुहाव ह ॥ १४ ॥
द्रुतं सरस्वतीकूलात् स्मयन्निव महाबलः।
ततो भृगुर्महातेजा मैत्रावरुणिमब्रवीत् ॥ १५ ॥

मूलम्

ततोऽस्य यज्ञविषयो रक्षोभिः पर्यबध्यत।
अथागस्त्यमृषिश्रेष्ठं वाहनायाजुहाव ह ॥ १४ ॥
द्रुतं सरस्वतीकूलात् स्मयन्निव महाबलः।
ततो भृगुर्महातेजा मैत्रावरुणिमब्रवीत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका फल यह हुआ कि उनके यज्ञस्थलमें राक्षसोंने डेरा डाल दिया। उन्हींसे प्रभावित होकर महाबली नहुषने मुसकराते हुए-से मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यको सरस्वतीतटसे तुरंत अपना रथ ढोनेके लिये बुलाया। तब महातेजस्वी भृगुने मित्रावरुणकुमार अगस्त्यजीसे कहा—॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निमीलय स्वनयने जटां यावद् विशामि ते।
स्थाणुभूतस्य तस्याथ जटां प्राविशदच्युतः ॥ १६ ॥
भृगुः स सुमहातेजाः पातनाय नृपस्य च।
ततः स देवराट् प्राप्तस्तमृषिं वाहनाय वै ॥ १७ ॥

मूलम्

निमीलय स्वनयने जटां यावद् विशामि ते।
स्थाणुभूतस्य तस्याथ जटां प्राविशदच्युतः ॥ १६ ॥
भृगुः स सुमहातेजाः पातनाय नृपस्य च।
ततः स देवराट् प्राप्तस्तमृषिं वाहनाय वै ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुने! आप अपनी आँखें मूँद लें, मैं आपकी जटामें प्रवेश करता हूँ।’ महर्षि अगस्त्य आँखें मूँदकर काष्ठकी तरह स्थिर हो गये। अपनी मर्यादासे च्युत न होनेवाले महातेजस्वी भृगुने राजाको स्वर्गसे नीचे गिरानेके लिये अगस्त्यजीकी जटामें प्रवेश किया। इतनेहीमें देवराज नहुष ऋषिको अपना वाहन बनानेके लिये उनके पास पहुँचे॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽगस्त्यः सुरपतिं वाक्यमाह विशाम्पते।
योजयस्वेति मां क्षिप्रं कं च देशं वहामि ते॥१८॥
यत्र वक्ष्यसि तत्र त्वां नयिष्यामि सुराधिप।
इत्युक्तो नहुषस्तेन योजयामास तं मुनिम् ॥ १९ ॥

मूलम्

ततोऽगस्त्यः सुरपतिं वाक्यमाह विशाम्पते।
योजयस्वेति मां क्षिप्रं कं च देशं वहामि ते॥१८॥
यत्र वक्ष्यसि तत्र त्वां नयिष्यामि सुराधिप।
इत्युक्तो नहुषस्तेन योजयामास तं मुनिम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! तब अगस्त्यने देवराजसे कहा—‘राजन्! मुझे शीघ्र रथमें जोतिये और बताइये मैं आपको किस स्थानपर ले चलूँ। देवेश्वर! आप जहाँ कहेंगे, वहीं आपको ले चलूँगा।’ उनके ऐसा कहनेपर नहुषने मुनिको रथमें जोत दिया॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भृगुस्तस्य जटान्तस्थो बभूव हृषितो भृशम्।
न चापि दर्शनं तस्य चकार स भृगुस्तदा ॥ २० ॥

मूलम्

भृगुस्तस्य जटान्तस्थो बभूव हृषितो भृशम्।
न चापि दर्शनं तस्य चकार स भृगुस्तदा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह देख उनकी जटाके भीतर बैठे हुए भृगु बहुत प्रसन्न हुए। उस समय भृगुने नहुषका साक्षात्कार नहीं किया॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वरदानप्रभावज्ञो नहुषस्य महात्मनः ।
न चुकोप तदागस्त्यो युक्तोऽपि नहुषेण वै ॥ २१ ॥

मूलम्

वरदानप्रभावज्ञो नहुषस्य महात्मनः ।
न चुकोप तदागस्त्यो युक्तोऽपि नहुषेण वै ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अगस्त्यमुनि महामना नहुषको मिले हुए वरदानका प्रभाव जानते थे, इसलिये उसके द्वारा रथमें जोते जानेपर भी वे कुपित नहीं हुए॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तु राजा प्रतोदेन चोदयामास भारत।
न चुकोप स धर्मात्मा ततः पादेन देवराट् ॥ २२ ॥
अगस्त्यस्य तदा क्रुद्धो वामेनाभ्यहनच्छिरः।

मूलम्

तं तु राजा प्रतोदेन चोदयामास भारत।
न चुकोप स धर्मात्मा ततः पादेन देवराट् ॥ २२ ॥
अगस्त्यस्य तदा क्रुद्धो वामेनाभ्यहनच्छिरः।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! राजा नहुषने चाबुक मारकर हाँकना आरम्भ किया तो भी उन धर्मात्मा मुनिको क्रोध नहीं आया। तब कुपित हुए देवराजने महात्मा अगस्त्यके सिरपर बायें पैरसे प्रहार किया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् शिरस्यभिहते स जटान्तर्गतो भृगुः ॥ २३ ॥
शशाप बलवत्क्रुद्धो नहुषं पापचेतसम्।
यस्मात् पदाऽऽहतः क्रोधाच्छिरसीमं महामुनिम् ॥ २४ ॥
तस्मादाशु महीं गच्छ सर्पो भूत्वा सुदुर्मते।

मूलम्

तस्मिन् शिरस्यभिहते स जटान्तर्गतो भृगुः ॥ २३ ॥
शशाप बलवत्क्रुद्धो नहुषं पापचेतसम्।
यस्मात् पदाऽऽहतः क्रोधाच्छिरसीमं महामुनिम् ॥ २४ ॥
तस्मादाशु महीं गच्छ सर्पो भूत्वा सुदुर्मते।

अनुवाद (हिन्दी)

उनके मस्तकपर चोट होते ही जटाके भीतर बैठे हुए महर्षि भृगु अत्यन्त कुपित हो उठे और उन्होंने पापात्मा नहुषको इस प्रकार शाप दिया—‘ओ दुर्मते! तुमने इन महामुनिके मस्तकमें क्रोधपूर्वक लात मारी है, इसलिये तू शीघ्र ही सर्प होकर पृथ्वीपर चला जा’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स तदा तेन सर्पो भूत्वा पपात ह॥२५॥
अदृष्टेनाथ भृगुणा भूतले भरतर्षभ।

मूलम्

इत्युक्तः स तदा तेन सर्पो भूत्वा पपात ह॥२५॥
अदृष्टेनाथ भृगुणा भूतले भरतर्षभ।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! भृगु नहुषको दिखायी नहीं दे रहे थे। उनके इस प्रकार शाप देनेपर नहुष सर्प होकर पृथ्वीपर गिरने लगे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भृगुं हि यदि सोऽद्रक्ष्यन्नहुषः पृथिवीपते ॥ २६ ॥
न च शक्तोऽभविष्यद् वै पातने तस्य तेजसा।

मूलम्

भृगुं हि यदि सोऽद्रक्ष्यन्नहुषः पृथिवीपते ॥ २६ ॥
न च शक्तोऽभविष्यद् वै पातने तस्य तेजसा।

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! यदि नहुष भृगुको देख लेते तो उनके तेजसे प्रतिहत होकर वे उन्हें स्वर्गसे नीचे गिरानेमें समर्थ न होते॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु तैस्तैः प्रदानैश्च तपोभिर्नियमैस्तथा ॥ २७ ॥
पतितोऽपि महाराज भूतले स्मृतिमानभूत्।
प्रसादयामास भृगुं शापान्तो मे भवेदिति ॥ २८ ॥

मूलम्

स तु तैस्तैः प्रदानैश्च तपोभिर्नियमैस्तथा ॥ २७ ॥
पतितोऽपि महाराज भूतले स्मृतिमानभूत्।
प्रसादयामास भृगुं शापान्तो मे भवेदिति ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! नहुषने जो भिन्न-भिन्न प्रकारके दान किये थे, तप और नियमोंका अनुष्ठान किया था, उनके प्रभावसे वे पृथ्वीपर गिरकर भी पूर्वजन्मकी स्मृतिसे वंचित नहीं हुए। उन्होंने भृगुको प्रसन्न करते हुए कहा—‘प्रभो! मुझको मिले हुए शापका अंत होना चाहिये’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽगस्त्यः कृपाविष्टः प्रासादयत तं भृगुम्।
शापान्तार्थं महाराज स च प्रादात् कृपान्वितः ॥ २९ ॥

मूलम्

ततोऽगस्त्यः कृपाविष्टः प्रासादयत तं भृगुम्।
शापान्तार्थं महाराज स च प्रादात् कृपान्वितः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तब अगस्त्यने दयासे द्रवित होकर उनके शापका अंत करनेके लिये भृगुको प्रसन्न किया। तब कृपायुक्त हुए भृगुने उस शापका अंत इस प्रकार निश्चित किया॥२९॥

मूलम् (वचनम्)

भृगुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा युधिष्ठिरो नाम भविष्यति कुलोद्वहः।
स त्वां मोक्षयिता शापादित्युक्त्वान्तरधीयत ॥ ३० ॥

मूलम्

राजा युधिष्ठिरो नाम भविष्यति कुलोद्वहः।
स त्वां मोक्षयिता शापादित्युक्त्वान्तरधीयत ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुने कहा— राजन्! तुम्हारे कुलमें सर्वश्रेष्ठ युधिष्ठिर नामसे प्रसिद्ध एक राजा होंगे, जो तुम्हें इस शापसे मुक्त करेंगे—ऐसा कहकर भृगुजी अंतर्धान हो गये॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगस्त्योऽपि महातेजाः कृत्वा कार्यं शतक्रतोः।
स्वमाश्रमपदं प्रायात् पूज्यमानो द्विजातिभिः ॥ ३१ ॥

मूलम्

अगस्त्योऽपि महातेजाः कृत्वा कार्यं शतक्रतोः।
स्वमाश्रमपदं प्रायात् पूज्यमानो द्विजातिभिः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महातेजस्वी अगस्त्य भी शतक्रतु इन्द्रका कार्य सिद्ध करके द्विजातियोंसे पूजित होकर अपने आश्रमको चले गये॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नहुषोऽपि त्वया राजंस्तस्माच्छापात्‌ समुद्‌धृतः।
जगाम ब्रह्मभवनं पश्यतस्ते जनाधिप ॥ ३२ ॥

मूलम्

नहुषोऽपि त्वया राजंस्तस्माच्छापात्‌ समुद्‌धृतः।
जगाम ब्रह्मभवनं पश्यतस्ते जनाधिप ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुमने भी नहुषका उस शापसे उद्धार कर दिया। नरेश्वर! वे तुम्हारे देखते-देखते ब्रह्मलोकको चले गये॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा स पातयित्वा तं नहुषं भूतले भृगुः।
जगाम ब्रह्मभवनं ब्रह्मणे च न्यवेदयत् ॥ ३३ ॥

मूलम्

तदा स पातयित्वा तं नहुषं भूतले भृगुः।
जगाम ब्रह्मभवनं ब्रह्मणे च न्यवेदयत् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगु उस समय नहुषको पृथ्वीपर गिराकर ब्रह्माजीके धाममें गये और उनसे उन्होंने यह सब समाचार निवेदन किया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शक्रं समानाय्य देवानाह पितामहः।
वरदानान्मम सुरा नहुषो राज्यमाप्तवान् ॥ ३४ ॥
स चागस्त्येन क्रुद्धेन भ्रंशितो भूतलं गतः।

मूलम्

ततः शक्रं समानाय्य देवानाह पितामहः।
वरदानान्मम सुरा नहुषो राज्यमाप्तवान् ॥ ३४ ॥
स चागस्त्येन क्रुद्धेन भ्रंशितो भूतलं गतः।

अनुवाद (हिन्दी)

तब पितामह ब्रह्माने इन्द्र तथा अन्य देवताओंको बुलवाकर उनसे कहा—‘देवगण! मेरे वरदानसे नहुषने राज्य प्राप्त किया था। परंतु कुपित हुए अगस्त्यने उन्हें स्वर्गसे नीचे गिरा दिया। अब वे पृथ्वीपर चले गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च शक्यं विना राज्ञा सुरा वर्तयितुं क्वचित्॥३५॥
तस्मादयं पुनः शक्रो देवराज्येऽभिषिच्यताम्।

मूलम्

न च शक्यं विना राज्ञा सुरा वर्तयितुं क्वचित्॥३५॥
तस्मादयं पुनः शक्रो देवराज्येऽभिषिच्यताम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवताओ! बिना राजाके कहीं भी रहना असंभव है। अतः अपने पूर्व इन्द्रको पुनः देवराजके पदपर अभिषिक्त करो’॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सम्भाषमाणं तु देवाः पार्थ पितामहम् ॥ ३६ ॥
एवमस्त्विति संहृष्टाः प्रत्यूचुस्तं नराधिप।

मूलम्

एवं सम्भाषमाणं तु देवाः पार्थ पितामहम् ॥ ३६ ॥
एवमस्त्विति संहृष्टाः प्रत्यूचुस्तं नराधिप।

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनंदन! नरेश्वर! पितामह ब्रह्माका यह कथन सुनकर सब देवता हर्षसे खिल उठे और बोले—‘भगवन्! ऐसा ही हो’॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽभिषिक्तो भगवता देवराज्ये च वासवः ॥ ३७ ॥
ब्रह्मणा राजशार्दूल यथापूर्वं व्यरोचत।

मूलम्

सोऽभिषिक्तो भगवता देवराज्ये च वासवः ॥ ३७ ॥
ब्रह्मणा राजशार्दूल यथापूर्वं व्यरोचत।

अनुवाद (हिन्दी)

राजसिंह! भगवान् ब्रह्माके द्वारा देवराजके पदपर अभिषिक्त हो शतक्रतु इन्द्र फिर पूर्ववत् शोभा पाने लगे॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतत् पुरावृत्तं नहुषस्य व्यतिक्रमात् ॥ ३८ ॥
स च तैरेव संसिद्धो नहुषः कर्मभिः पुनः।

मूलम्

एवमेतत् पुरावृत्तं नहुषस्य व्यतिक्रमात् ॥ ३८ ॥
स च तैरेव संसिद्धो नहुषः कर्मभिः पुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पूर्वकालमें नहुषके अपराधसे ऐसी घटना घटी कि वे नहुष बार-बार दीपदान आदि पुण्यकर्मोंसे सिद्धिको प्राप्त हुए थे॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् दीपाः प्रदातव्याः सायं वै गृहमेधिभिः ॥ ३९ ॥
दिव्यं चक्षुरवाप्नोति प्रेत्य दीपस्य दायकः।

मूलम्

तस्माद् दीपाः प्रदातव्याः सायं वै गृहमेधिभिः ॥ ३९ ॥
दिव्यं चक्षुरवाप्नोति प्रेत्य दीपस्य दायकः।

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये गृहस्थोंको सायंकालमें अवश्य दीपदान करने चाहिये। दीपदान करनेवाला पुरुष परलोकमें दिव्य नेत्र प्राप्त करता है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्णचन्द्रप्रतीकाशा दीपदाश्च भवन्त्युत ॥ ४० ॥
यावदक्षिनिमेषाणि ज्वलन्ते तावतीः समाः।
रूपवान् बलवांश्चापि नरो भवति दीपदः ॥ ४१ ॥

मूलम्

पूर्णचन्द्रप्रतीकाशा दीपदाश्च भवन्त्युत ॥ ४० ॥
यावदक्षिनिमेषाणि ज्वलन्ते तावतीः समाः।
रूपवान् बलवांश्चापि नरो भवति दीपदः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दीपदान करनेवाले मनुष्य निश्चय ही पूर्ण चन्द्रमाके समान कान्तिमान् होते हैं। जितने पलकोंके गिरनेतक दीपक जलते हैं, उतने वर्षोंतक दीपदान करनेवाला मनुष्य रूपवान् और बलवान् होता है॥४०-४१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अगस्त्यभृगुसंवादो नाम शततमोऽध्यायः ॥ १०० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अंतर्गत दानधर्मपर्वमें अगस्त्य और भृगुका संवादनामक सौवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१००॥