०९९ अगस्त्यभृगुसंवादः

भागसूचना

नवनवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नहुषका ऋषियोंपर अत्याचार तथा उसके प्रतीकारके लिये महर्षि भृगु और अगस्त्यकी बातचीत

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतं मे भरतश्रेष्ठ पुष्पधूपप्रदायिनाम्।
फलं बलिविधाने च तद् भूयो वक्तुमर्हसि ॥ १ ॥

मूलम्

श्रुतं मे भरतश्रेष्ठ पुष्पधूपप्रदायिनाम्।
फलं बलिविधाने च तद् भूयो वक्तुमर्हसि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ! फूल और धूप देनेवालोंको जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह मैंने सुन लिया। अब बलि समर्पित करनेका जो फल है, उसे पुनः बतानेकी कृपा करें॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धूपप्रदानस्य फलं प्रदीपस्य तथैव च।
बलयश्च किमर्थं वै क्षिप्यन्ते गृहमेधिभिः ॥ २ ॥

मूलम्

धूपप्रदानस्य फलं प्रदीपस्य तथैव च।
बलयश्च किमर्थं वै क्षिप्यन्ते गृहमेधिभिः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धूपदान और दीपदानका फल तो ज्ञात हो गया! अब यह बताइये कि गृहस्थ पुरुष बलि किसलिये समर्पित करते हैं?॥२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
नहुषस्य च संवादमगस्त्यस्य भृगोस्तथा ॥ ३ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
नहुषस्य च संवादमगस्त्यस्य भृगोस्तथा ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! इस विषयमें भी जानकार मनुष्य राजा नहुष और अगस्त्य एवं भृगुके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नहुषो हि महाराज राजर्षिः सुमहातपाः।
देवराज्यमनुप्राप्तः सुकृतेनेह कर्मणा ॥ ४ ॥

मूलम्

नहुषो हि महाराज राजर्षिः सुमहातपाः।
देवराज्यमनुप्राप्तः सुकृतेनेह कर्मणा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! राजर्षि नहुष बड़े भारी तपस्वी थे। उन्होंने अपने पुण्यकर्मके प्रभावसे देवराज इन्द्रका पद प्राप्त कर लिया था॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रापि प्रयतो राजन् नहुषस्त्रिदिवे वसन्।
मानुषीश्चैव दिव्याश्च कुर्वाणो विविधाः क्रियाः ॥ ५ ॥

मूलम्

तत्रापि प्रयतो राजन् नहुषस्त्रिदिवे वसन्।
मानुषीश्चैव दिव्याश्च कुर्वाणो विविधाः क्रियाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वहाँ स्वर्गमें रहते हुए भी शुद्धचित्त राजा नहुष नाना प्रकारके दिव्य और मानुष कर्मोंका अनुष्ठान किया करते थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानुष्यस्तत्र सर्वाः स्म क्रियास्तस्य महात्मनः।
प्रवृत्तास्त्रिदिवे राजन् दिव्याश्चैव सनातनाः ॥ ६ ॥

मूलम्

मानुष्यस्तत्र सर्वाः स्म क्रियास्तस्य महात्मनः।
प्रवृत्तास्त्रिदिवे राजन् दिव्याश्चैव सनातनाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! स्वर्गमें भी महामना राजा नहुषकी सम्पूर्ण मानुषी क्रियाएँ तथा दिव्य सनातन क्रियाएँ भी सदा चलती रहती थीं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निकार्याणि समिधः कुशाः सुमनसस्तथा।
बलयश्चान्नलाजाभिर्धूपनं दीपकर्म च ॥ ७ ॥
सर्वं तस्य गृहे राज्ञः प्रावर्तत महात्मनः।
जपयज्ञान्मनोयज्ञांस्त्रिदिवेऽपि चकार सः ॥ ८ ॥

मूलम्

अग्निकार्याणि समिधः कुशाः सुमनसस्तथा।
बलयश्चान्नलाजाभिर्धूपनं दीपकर्म च ॥ ७ ॥
सर्वं तस्य गृहे राज्ञः प्रावर्तत महात्मनः।
जपयज्ञान्मनोयज्ञांस्त्रिदिवेऽपि चकार सः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निहोत्र, समिधा, कुशा, फूल, अन्न और लावाकी बलि, धूपदान तथा दीपकर्म—ये सब-के-सब महामना राजा नहुषके घरमें प्रतिदिन होते रहते थे। वे स्वर्गमें रहकर भी जप-यज्ञ एवं मनोयज्ञ (ध्यान) करते रहते थे॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवानभ्यर्चयच्चापि विधिवत् स सुरेश्वरः।
सर्वानेव यथान्यायं यथापूर्वमरिंदम ॥ ९ ॥

मूलम्

देवानभ्यर्चयच्चापि विधिवत् स सुरेश्वरः।
सर्वानेव यथान्यायं यथापूर्वमरिंदम ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन! वे देवेश्वर नहुष विधिपूर्वक सभी देवताओंका पूर्ववत् यथोचितरूपसे पूजन किया करते थे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथेन्द्रोऽहमिति ज्ञात्वा अहंकारं समाविशत्।
सर्वाश्चैव क्रियास्तस्य पर्यहीयन्त भूपतेः ॥ १० ॥

मूलम्

अथेन्द्रोऽहमिति ज्ञात्वा अहंकारं समाविशत्।
सर्वाश्चैव क्रियास्तस्य पर्यहीयन्त भूपतेः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु तदनन्तर ‘मैं इन्द्र हूँ’ ऐसा समझकर वे अहंकारके वशीभूत हो गये। इससे उन भूपालकी सारी क्रियाएँ नष्टप्राय होने लगीं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स ऋषीन् वाहयामास वरदानमदान्वितः।
परिहीणक्रियश्चैव दुर्बलत्वमुपेयिवान् ॥ ११ ॥

मूलम्

स ऋषीन् वाहयामास वरदानमदान्वितः।
परिहीणक्रियश्चैव दुर्बलत्वमुपेयिवान् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे वरदानके मदसे मोहित हो ऋषियोंसे अपनी सवारी खिंचवाने लगे। उनका धर्म-कर्म छूट गया। अतः वे दुर्बल हो गये—उनमें धर्मबलका अभाव हो गया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य वाहयतः कालो मुनिमुख्यांस्तपोधनान्।
अहंकाराभिभूतस्य सुमहानभ्यवर्तत ॥ १२ ॥

मूलम्

तस्य वाहयतः कालो मुनिमुख्यांस्तपोधनान्।
अहंकाराभिभूतस्य सुमहानभ्यवर्तत ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अहंकारसे अभिभूत होकर क्रमशः सभी श्रेष्ठ तपस्वी मुनियोंको अपने रथमें जोतने लगे। ऐसा करते हुए राजाका दीर्घकाल व्यतीत हो गया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ पर्यायशः सर्वान् वाहनायोपचक्रमे।
पर्यायश्चाप्यगस्त्यस्य समपद्यत भारत ॥ १३ ॥

मूलम्

अथ पर्यायशः सर्वान् वाहनायोपचक्रमे।
पर्यायश्चाप्यगस्त्यस्य समपद्यत भारत ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नहुषने बारी-बारीसे सभी ऋषियोंको अपना वाहन बनानेका उपक्रम किया था। भारत! एक दिन महर्षि अगस्त्यकी बारी आयी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथागत्य महातेजा भृगुर्ब्रह्मविदां वरः।
अगस्त्यमाश्रमस्थं वै समुपेत्येदमब्रवीत् ॥ १४ ॥

मूलम्

अथागत्य महातेजा भृगुर्ब्रह्मविदां वरः।
अगस्त्यमाश्रमस्थं वै समुपेत्येदमब्रवीत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी दिन ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी भृगुजी अपने आश्रमपर बैठे हुए अगस्त्यके निकट आये और इस प्रकार बोले—॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं वयमसत्कारं देवेन्द्रस्यास्य दुर्मतेः।
नहुषस्य किमर्थं वै मर्षयाम महामुने ॥ १५ ॥

मूलम्

एवं वयमसत्कारं देवेन्द्रस्यास्य दुर्मतेः।
नहुषस्य किमर्थं वै मर्षयाम महामुने ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महामुने! देवराज बनकर बैठे हुए इस दुर्बुद्धि नहुषके अत्याचारको हमलोग किसलिये सह रहे हैं’॥

मूलम् (वचनम्)

अगस्त्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथमेष मया शक्यः शप्तुं यस्य महामुने।
वरदेन वरो दत्तो भवतो विदितश्च सः ॥ १६ ॥

मूलम्

कथमेष मया शक्यः शप्तुं यस्य महामुने।
वरदेन वरो दत्तो भवतो विदितश्च सः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अगस्त्यजीने कहा— महामुने! मैं इस नहुषको कैसे शाप दे सकता हूँ, जब कि वरदानी ब्रह्माजीने इसे वर दे रखा है। उसे वर मिला है, यह बात आपको भी विदित ही है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो मे दृष्टिपथं गच्छेत् स मे वश्यो भवेदिति।
इत्यनेन वरं देवो याचितो गच्छता दिवम् ॥ १७ ॥

मूलम्

यो मे दृष्टिपथं गच्छेत् स मे वश्यो भवेदिति।
इत्यनेन वरं देवो याचितो गच्छता दिवम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वर्गलोकमें आते समय इस नहुषने ब्रह्माजीसे यह वर माँगा था कि ‘जो मेरे दृष्टिपथमें आ जाय, वह मेरे अधीन हो जाय’॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं न दग्धः स मया भवता च न संशयः।
अन्येनाप्यृषिमुख्येन न दग्धो न च पातितः ॥ १८ ॥

मूलम्

एवं न दग्धः स मया भवता च न संशयः।
अन्येनाप्यृषिमुख्येन न दग्धो न च पातितः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा वरदान प्राप्त होनेके कारण ही मैंने और आपने भी अबतक इसे दग्ध नहीं किया है। इसमें संशय नहीं है। दूसरे किसी श्रेष्ठ ऋषिने भी उसी वरदानके कारण न तो अबतक उसे जलाकर भस्म किया और न स्वर्गसे नीचे ही गिराया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमृतं चैव पानाय दत्तमस्मै पुरा विभो।
महात्मना तदर्थं च नास्माभिर्विनिपात्यते ॥ १९ ॥

मूलम्

अमृतं चैव पानाय दत्तमस्मै पुरा विभो।
महात्मना तदर्थं च नास्माभिर्विनिपात्यते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! पूर्वकालमें महात्मा ब्रह्माने इसे पीनेके लिये अमृत प्रदान किया था। इसीलिये हमलोग इस नहुषको स्वर्गसे नीचे नहीं गिरा रहे हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रायच्छत वरं देवः प्रजानां दुःखकारणम्।
द्विजेष्वधर्मयुक्तानि स करोति नराधमः ॥ २० ॥

मूलम्

प्रायच्छत वरं देवः प्रजानां दुःखकारणम्।
द्विजेष्वधर्मयुक्तानि स करोति नराधमः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् ब्रह्माजीने जो इसे वर दिया था, वह प्रजाजनोंके लिये दुःखका कारण बन गया। वह नराधम ब्राह्मणोंके साथ अधर्मयुक्त बर्ताव कर रहा है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र यत्प्राप्तकालं नस्तद् ब्रूहि वदतां वर।
भवांश्चापि यथा ब्रूयात् तत्कर्तास्मिन संशयः ॥ २१ ॥

मूलम्

तत्र यत्प्राप्तकालं नस्तद् ब्रूहि वदतां वर।
भवांश्चापि यथा ब्रूयात् तत्कर्तास्मिन संशयः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वक्ताओंमें श्रेष्ठ भृगुजी! इस समय हमारे लिये जो कर्तव्य प्राप्त हो, वह बताइये। आप जैसा कहेंगे वैसा ही मैं करूँगा; इसमें संशय नहीं है॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

भृगुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितामहनियोगेन भवन्तं सोऽहमागतः ।
प्रतिकर्तुं बलवति नहुषे दैवमोहिते ॥ २२ ॥

मूलम्

पितामहनियोगेन भवन्तं सोऽहमागतः ।
प्रतिकर्तुं बलवति नहुषे दैवमोहिते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगु बोले— मुने! ब्रह्माजीकी आज्ञासे मैं आपके पास आया हूँ। बलवान् नहुष दैववश मोहित हो रहा है। आज उससे ऋषियोंपर किये गये अत्याचारका बदला लेना है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य हि त्वां सुदुर्बुद्धी रथे योक्ष्यति देवराट्।
अद्यैनमहमुद्‌वृत्तं करिष्येऽनिन्द्रमोजसा ॥ २३ ॥

मूलम्

अद्य हि त्वां सुदुर्बुद्धी रथे योक्ष्यति देवराट्।
अद्यैनमहमुद्‌वृत्तं करिष्येऽनिन्द्रमोजसा ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज यह महामूर्ख देवराज आपको रथमें जोतेगा। अतः आज ही मैं इस उच्छृंखल नहुषको अपने तेजसे इन्द्रपदसे भ्रष्ट कर दूँगा॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्येन्द्रं स्थापयिष्यामि पश्यतस्ते शतक्रतुम्।
संचाल्य पापकर्माणमैन्द्रात् स्थानात्‌ सुदुर्मतिम् ॥ २४ ॥

मूलम्

अद्येन्द्रं स्थापयिष्यामि पश्यतस्ते शतक्रतुम्।
संचाल्य पापकर्माणमैन्द्रात् स्थानात्‌ सुदुर्मतिम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज इस पापाचारी दुर्बुद्धिको इन्द्रपदसे गिराकर मैं आपके देखते-देखते पुनः शतक्रतुको इन्द्रपदपर बिठाऊँगा॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य चासौ कुदेवेन्द्रस्त्वां पदा धर्षयिष्यति।
दैवोपहतचित्तत्वादात्मनाशाय मन्दधीः ॥ २५ ॥

मूलम्

अद्य चासौ कुदेवेन्द्रस्त्वां पदा धर्षयिष्यति।
दैवोपहतचित्तत्वादात्मनाशाय मन्दधीः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दैवने इसकी बुद्धिको नष्ट कर दिया है। अतः यह देवराज बना हुआ मन्दबुद्धि नीच नहुष अपने ही विनाशके लिये आज आपको लातसे मारेगा॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्युत्क्रान्तधर्मं तमहं धर्षणामर्षितो भृशम्।
अहिर्भवस्वेति रुषा शप्स्ये पापं द्विजद्रुहम् ॥ २६ ॥

मूलम्

व्युत्क्रान्तधर्मं तमहं धर्षणामर्षितो भृशम्।
अहिर्भवस्वेति रुषा शप्स्ये पापं द्विजद्रुहम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके प्रति किये गये इस अत्याचारसे अत्यंत अमर्षमें भरकर मैं धर्मका उल्लंघन करनेवाले उस द्विजद्रोही पापीको रोषपूर्वक यह शाप दे दूँगा कि ‘तू सर्प हो जा’॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत एनं सुदुर्बुद्धिं धिक्शब्दाभिहतत्विषम्।
धरण्यां पातयिष्यामि पश्यतस्ते महामुने ॥ २७ ॥
नहुषं पापकर्माणमैश्वर्यबलमोहितम् ।
यथा च रोचते तुभ्यं तथा कर्तास्म्यहं मुने ॥ २८ ॥

मूलम्

तत एनं सुदुर्बुद्धिं धिक्शब्दाभिहतत्विषम्।
धरण्यां पातयिष्यामि पश्यतस्ते महामुने ॥ २७ ॥
नहुषं पापकर्माणमैश्वर्यबलमोहितम् ।
यथा च रोचते तुभ्यं तथा कर्तास्म्यहं मुने ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामुने! तदनन्तर चारों ओरसे धिक्कारके शब्द सुनकर यह दुर्बुद्धि देवेन्द्र श्रीहीन हो जायगा और मैं ऐश्वर्यबलसे मोहित हुए इस पापाचारी नहुषको आपके देखते-देखते पृथ्वीपर गिरा दूँगा। अथवा मुने! आपको जैसा जँचे वैसा ही करूँगा॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु भृगुणा मैत्रावरुणिरव्ययः ।
अगस्त्यः परमप्रीतो बभूव विगतज्वरः ॥ २९ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु भृगुणा मैत्रावरुणिरव्ययः ।
अगस्त्यः परमप्रीतो बभूव विगतज्वरः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुके ऐसा कहनेपर अविनाशी मित्रावरुणकुमार अगस्त्यजी अत्यंत प्रसन्न और निश्चिन्त हो गये॥२९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अगस्त्यभृगुसंवादो नाम नवनवतितमोऽध्यायः ॥ ९९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अंतर्गत दानधर्मपर्वमें अगस्त्य और भृगुका संवादनामक निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९९॥