भागसूचना
अष्टनवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
तपस्वी सुवर्ण और मनुका संवाद—पुष्प, धूप, दीप और उपहारके दानका माहात्म्य
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आलोकदानं नामैतत् कीदृशं भरतर्षभ।
कथमेतत् समुत्पन्नं फलं वा तद् ब्रवीहि मे ॥ १ ॥
मूलम्
आलोकदानं नामैतत् कीदृशं भरतर्षभ।
कथमेतत् समुत्पन्नं फलं वा तद् ब्रवीहि मे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ! यह जो दीपदान नामक कर्म है, यह कैसे किया जाता है? इसकी उत्पत्ति कैसे हुई? अथवा इसका फल क्या है? यह मुझे बताइये॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
मनोः प्रजापतेर्वादं सुवर्णस्य च भारत ॥ २ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
मनोः प्रजापतेर्वादं सुवर्णस्य च भारत ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— भारत! इस विषयमें प्रजापति मनु और सुवर्णके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपस्वी कश्चिदभवत् सुवर्णो नाम भारत।
वर्णतो हेमवर्णः स सुवर्ण इति पप्रथे ॥ ३ ॥
मूलम्
तपस्वी कश्चिदभवत् सुवर्णो नाम भारत।
वर्णतो हेमवर्णः स सुवर्ण इति पप्रथे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! सुवर्णनामसे प्रसिद्ध एक तपस्वी ब्राह्मण थे। उनके शरीरकी कान्ति सुवर्णके समान थी। इसीलिये वे सुवर्णनामसे विख्यात हुए थे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुलशीलगुणोपेतः स्वाध्याये च परंगतः।
बहून् सुवंशप्रभवान् समतीतः स्वकैर्गुणैः ॥ ४ ॥
मूलम्
कुलशीलगुणोपेतः स्वाध्याये च परंगतः।
बहून् सुवंशप्रभवान् समतीतः स्वकैर्गुणैः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे उत्तम कुल, शील और गुणसे सम्पन्न थे। स्वाध्यायमें भी उनकी बड़ी ख्याति थी। वे अपने गुणोंद्वारा उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए बहुत-से श्रेष्ठ पुरुषोंकी अपेक्षा आगे बढ़े हुए थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कदाचिन्मनुं विप्रो ददर्शोपससर्प च।
कुशलप्रश्नमन्योन्यं तौ चोभौ तत्र चक्रतुः ॥ ५ ॥
मूलम्
स कदाचिन्मनुं विप्रो ददर्शोपससर्प च।
कुशलप्रश्नमन्योन्यं तौ चोभौ तत्र चक्रतुः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन उन ब्राह्मणदेवताने प्रजापति मनुको देखा। देखकर वे उनके पास चले गये। फिर तो वे दोनों एक-दूसरेसे कुशल-समाचार पूछने लगे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तौ सत्यसंकल्पौ मेरौ काञ्चनपर्वते।
रमणीये शिलापृष्ठे सहितौ संन्यषीदताम् ॥ ६ ॥
मूलम्
ततस्तौ सत्यसंकल्पौ मेरौ काञ्चनपर्वते।
रमणीये शिलापृष्ठे सहितौ संन्यषीदताम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे दोनों सत्यसंकल्प महात्मा सुवर्णमय पर्वत मेरुके एक रमणीय शिलापृष्ठपर एक साथ बैठ गये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र तौ कथयन्तौ स्तां कथा नानाविधाश्रयाः।
ब्रह्मर्षिदेवदैत्यानां पुराणानां महात्मनाम् ॥ ७ ॥
मूलम्
तत्र तौ कथयन्तौ स्तां कथा नानाविधाश्रयाः।
ब्रह्मर्षिदेवदैत्यानां पुराणानां महात्मनाम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ वे दोनों ब्रह्मर्षियों, देवताओं, दैत्यों तथा प्राचीन महात्माओंके सम्बन्धमें नाना प्रकारकी कथा-वार्ता करने लगे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुवर्णस्त्वब्रवीद् वाक्यं मनुं स्वायम्भुवं प्रति।
हितार्थं सर्वभूतानां प्रश्नं मे वक्तुमर्हसि ॥ ८ ॥
सुमनोभिर्यदिज्यन्ते दैवतानि प्रजेश्वर ।
किमेतत् कथमुत्पन्नं फलं योगं च शंस मे ॥ ९ ॥
मूलम्
सुवर्णस्त्वब्रवीद् वाक्यं मनुं स्वायम्भुवं प्रति।
हितार्थं सर्वभूतानां प्रश्नं मे वक्तुमर्हसि ॥ ८ ॥
सुमनोभिर्यदिज्यन्ते दैवतानि प्रजेश्वर ।
किमेतत् कथमुत्पन्नं फलं योगं च शंस मे ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सुवर्णने स्वायम्भुव मनुसे कहा—‘प्रजापते! मैं एक प्रश्न करता हूँ, आप समस्त प्राणियोंके हितके लिये मुझे उसका उत्तर दीजिये। फूलोंसे जो देवताओंकी पूजा की जाती है, यह क्या है? इसका प्रचलन कैसे हुआ है? इसका फल क्या है और इसका उपयोग क्या है? यह सब मुझे बताइये’॥८-९॥
मूलम् (वचनम्)
मनुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
शुक्रस्य च बलेश्चैव संवादं वै महात्मनोः ॥ १० ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
शुक्रस्य च बलेश्चैव संवादं वै महात्मनोः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुजीने कहा— मुने! इस विषयमें विज्ञजन शुक्राचार्य और बलि—इन दोनों महात्माओंके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलेर्वैरोचनस्येह त्रैलोक्यमनुशासतः ।
समीपमाजगामाशु शुक्रो भृगुकुलोद्वहः ॥ ११ ॥
मूलम्
बलेर्वैरोचनस्येह त्रैलोक्यमनुशासतः ।
समीपमाजगामाशु शुक्रो भृगुकुलोद्वहः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहलेकी बात है, विरोचनकुमार बलि तीनों लोकोंका शासन करते थे। उन दिनों भृगुकुलभूषण शुक्र शीघ्रतापूर्वक उनके पास आये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमर्घ्यादिभिरभ्यर्च्य भार्गवं सोऽसुराधिपः ।
निषसादासने पश्चाद् विधिवद् भूरिदक्षिणः ॥ १२ ॥
मूलम्
तमर्घ्यादिभिरभ्यर्च्य भार्गवं सोऽसुराधिपः ।
निषसादासने पश्चाद् विधिवद् भूरिदक्षिणः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पर्याप्त दक्षिणा देनेवाले असुरराज बलिने भृगुपुत्र शुक्राचार्यको अर्घ्य आदि देकर उनकी विधिवत् पूजा की और जब वे आसनपर बैठ गये, तब बलि भी अपने सिंहासनपर आसीन हुए॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथेयमभवत् तत्र त्वया या परिकीर्तिता।
सुमनोधूपदीपानां सम्प्रदाने फलं प्रति ॥ १३ ॥
ततः पप्रच्छ दैत्येन्द्रः कवीन्द्रं प्रश्नमुत्तमम् ॥ १४ ॥
मूलम्
कथेयमभवत् तत्र त्वया या परिकीर्तिता।
सुमनोधूपदीपानां सम्प्रदाने फलं प्रति ॥ १३ ॥
ततः पप्रच्छ दैत्येन्द्रः कवीन्द्रं प्रश्नमुत्तमम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ उन दोनोंमें यही बातचीत हुई, जिसे तुमने प्रस्तुत किया है। देवताओंको फूल, धूप और दीप देनेसे क्या फल मिलता है, यही उनकी वार्ताका विषय था। उस समय दैत्यराज बलिने कविवर शुक्रके सामने यह उत्तम प्रश्न उपस्थित किया॥१३-१४॥
मूलम् (वचनम्)
बलिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुमनोधूपदीपानां किं फलं ब्रह्मवित्तम।
प्रदानस्य द्विजश्रेष्ठ तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ १५ ॥
मूलम्
सुमनोधूपदीपानां किं फलं ब्रह्मवित्तम।
प्रदानस्य द्विजश्रेष्ठ तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलिने पूछा— ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ! द्विजशिरोमणे! फूल, धूप और दीपदान करनेका क्या फल है? यह बतानेकी कृपा करें॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
शुक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपः पूर्वं समुत्पन्नं धर्मस्तस्मादनन्तरम्।
एतस्मिन्नन्तरे चैव वीरुदोषध्य एव च ॥ १६ ॥
मूलम्
तपः पूर्वं समुत्पन्नं धर्मस्तस्मादनन्तरम्।
एतस्मिन्नन्तरे चैव वीरुदोषध्य एव च ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुक्राचार्यने कहा— राजन्! पहले तपस्याकी उत्पत्ति हुई है, तदनन्तर धर्मकी। इसी बीचमें लता और ओषधियोंका प्रादुर्भाव हुआ है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोमस्यात्मा च बहुधा सम्भूतः पृथिवीतले।
अमृतं च विषं चैव ये चान्ये तृणजातयः ॥ १७ ॥
मूलम्
सोमस्यात्मा च बहुधा सम्भूतः पृथिवीतले।
अमृतं च विषं चैव ये चान्ये तृणजातयः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस भूतलपर अनेक प्रकारकी सोमलता प्रकट हुई। अमृत, विष तथा दूसरी-दूसरी जातिके तृणोंका प्रादुर्भाव हुआ॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमृतं मनसः प्रीतिं सद्यस्तृप्तिं ददाति च।
मनो ग्लपयते तीव्रं विषं गन्धेन सर्वशः ॥ १८ ॥
मूलम्
अमृतं मनसः प्रीतिं सद्यस्तृप्तिं ददाति च।
मनो ग्लपयते तीव्रं विषं गन्धेन सर्वशः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अमृत वह है, जिसे देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है। जो तत्काल तृप्ति प्रदान करता है और विष वह है जो अपनी गन्धसे चित्तमें सर्वथा तीव्र ग्लानि पैदा करता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमृतं मंगलं विद्धि महद्विषममंगलम्।
ओषध्यो ह्यमृतं सर्वा विषं तेजोऽग्निसम्भवम् ॥ १९ ॥
मूलम्
अमृतं मंगलं विद्धि महद्विषममंगलम्।
ओषध्यो ह्यमृतं सर्वा विषं तेजोऽग्निसम्भवम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अमृतको मंगलकारी जानो और विष महान् अमंगल करनेवाला है। जितनी ओषधियाँ हैं, वे सब-की-सब अमृत मानी गयी हैं और विष अग्निजनित तेज है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनो ह्लादयते यस्माच्छ्रियं चापि दधाति च।
तस्मात् सुमनसः प्रोक्ता नरैः सुकृतकर्मभिः ॥ २० ॥
मूलम्
मनो ह्लादयते यस्माच्छ्रियं चापि दधाति च।
तस्मात् सुमनसः प्रोक्ता नरैः सुकृतकर्मभिः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फूल मनको आह्लाद प्रदान करता है और शोभा एवं सम्पत्तिका आधान करता है, इसलिये पुण्यात्मा मनुष्योंने उसे सुमन कहा है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवताभ्यः सुमनसो यो ददाति नरः शुचिः।
तस्य तुष्यन्ति वै देवास्तुष्टाः पुष्टिं ददत्यपि ॥ २१ ॥
मूलम्
देवताभ्यः सुमनसो यो ददाति नरः शुचिः।
तस्य तुष्यन्ति वै देवास्तुष्टाः पुष्टिं ददत्यपि ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य पवित्र होकर देवताओंको फूल चढ़ाता है, उसके ऊपर सब देवता संतुष्ट होते और उसके लिये पुष्टि प्रदान करते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं यमुद्दिश्य दीयेरन् देवं सुमनसः प्रभो।
मंगलार्थं स तेनास्य प्रीतो भवति दैत्यप ॥ २२ ॥
मूलम्
यं यमुद्दिश्य दीयेरन् देवं सुमनसः प्रभो।
मंगलार्थं स तेनास्य प्रीतो भवति दैत्यप ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! दैत्यराज! जिस-जिस देवताके उद्देश्यसे फूल दिये जाते हैं, वह उस पुष्पदानसे दातापर बहुत प्रसन्न होता और उसके मंगलके लिये सचेष्ट रहता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञेयास्तूग्राश्च सौम्याश्च तेजस्विन्यश्च ताः पृथक्।
ओषध्यो बहुवीर्या हि बहुरूपास्तथैव च ॥ २३ ॥
मूलम्
ज्ञेयास्तूग्राश्च सौम्याश्च तेजस्विन्यश्च ताः पृथक्।
ओषध्यो बहुवीर्या हि बहुरूपास्तथैव च ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्रा, सौम्या, तेजस्विनी, बहुवीर्या और बहुरूपा—अनेक प्रकारकी ओषधियाँ होती हैं। उन सबको जानना चाहिये॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञियानां च वृक्षाणामयज्ञीयान् निबोध मे।
आसुराणि च माल्यानि दैवतेभ्यो हितानि च ॥ २४ ॥
मूलम्
यज्ञियानां च वृक्षाणामयज्ञीयान् निबोध मे।
आसुराणि च माल्यानि दैवतेभ्यो हितानि च ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब यज्ञसम्बन्धी तथा अयज्ञोपयोगी वृक्षोंका वर्णन सुनो। असुरोंके लिये हितकर तथा देवताओंके लिये प्रिय जो पुष्पमालाएँ होती हैं, उनका परिचय सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्षसामुरगाणां च यक्षाणां च तथा प्रियाः।
मनुष्याणां पितॄणां च कान्तायास्त्वनुपूर्वशः ॥ २५ ॥
मूलम्
रक्षसामुरगाणां च यक्षाणां च तथा प्रियाः।
मनुष्याणां पितॄणां च कान्तायास्त्वनुपूर्वशः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षस, नाग, यक्ष, मनुष्य और पितरोंको प्रिय एवं मनोरम लगनेवाली ओषधियोंका भी वर्णन करता हूँ, सुनो॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वन्या ग्राम्याश्चेह तथा कृष्टोप्ताः पर्वताश्रयाः।
अकण्टकाः कण्टकिनो गन्धरूपरसान्विताः ॥ २६ ॥
मूलम्
वन्या ग्राम्याश्चेह तथा कृष्टोप्ताः पर्वताश्रयाः।
अकण्टकाः कण्टकिनो गन्धरूपरसान्विताः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फूलोंके बहुत-से वृक्ष गाँवोंमें होते हैं और बहुत-से जंगलोंमें। बहुतेरे वृक्ष जमीनको जोतकर क्यारियोंमें लगाये जाते हैं और बहुत-से पर्वत आदिपर अपने-आप पैदा होते हैं। इन वृक्षोंमें कुछ तो काँटेदार होते हैं और कुछ बिना काँटोंके। इन सबमें रूप, रस और गन्ध विद्यमान रहते हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विविधो हि स्मृतो गन्ध इष्टोऽनिष्टश्च पुष्पजः।
इष्टगन्धानि देवानां पुष्पाणीति विभावय ॥ २७ ॥
मूलम्
द्विविधो हि स्मृतो गन्ध इष्टोऽनिष्टश्च पुष्पजः।
इष्टगन्धानि देवानां पुष्पाणीति विभावय ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फूलोंकी गन्ध दो प्रकारकी होती है—अच्छी और बुरी। अच्छी गन्धवाले फूल देवताओंको प्रिय होते हैं। इस बातको ध्यानमें रखो॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकण्टकानां वृक्षाणां श्वेतप्रायाश्च वर्णतः।
तेषां पुष्पाणि देवानामिष्टानि सततं प्रभो ॥ २८ ॥
(पद्मं च तुलसी जातिरपि सर्वेषु पूजिता।)
मूलम्
अकण्टकानां वृक्षाणां श्वेतप्रायाश्च वर्णतः।
तेषां पुष्पाणि देवानामिष्टानि सततं प्रभो ॥ २८ ॥
(पद्मं च तुलसी जातिरपि सर्वेषु पूजिता।)
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! जिन वृक्षोंमें काँटे नहीं होते हैं, उनमें जो अधिकांश श्वेतवर्णवाले हैं, उन्हींके फूल देवताओंको सदैव प्रिय हैं। कमल, तुलसी और चमेली—ये सब फूलोंमें अधिक प्रशंसित हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलजानि च माल्यानि पद्मादीनि च यानि वै।
गन्धर्वनागयक्षेभ्यस्तानि दद्याद् विचक्षणः ॥ २९ ॥
मूलम्
जलजानि च माल्यानि पद्मादीनि च यानि वै।
गन्धर्वनागयक्षेभ्यस्तानि दद्याद् विचक्षणः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जलसे उत्पन्न होनेवाले जो कमल-उत्पल आदि पुष्प हैं, उन्हें विद्वान् पुरुष गन्धर्वों, नागों और यक्षोंको समर्पित करे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओषध्यो रक्तपुष्पाश्च कटुकाः कण्टकान्विताः।
शत्रूणामभिचारार्थमाथर्वेषु निदर्शिताः ॥ ३० ॥
मूलम्
ओषध्यो रक्तपुष्पाश्च कटुकाः कण्टकान्विताः।
शत्रूणामभिचारार्थमाथर्वेषु निदर्शिताः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथर्ववेदमें बतलाया गया है कि शत्रुओंका अनिष्ट करनेके लिये किये जानेवाले अभिचार कर्ममें लाल फूलोंवाली कड़वी और कण्टकाकीर्ण ओषधियोंका उपयोग करना चाहिये॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीक्ष्णवीर्यास्तु भूतानां दुरालम्भाः सकण्टकाः।
रक्तभूयिष्ठवर्णाश्च कृष्णाश्चैवोपहारयेत् ॥ ३१ ॥
मूलम्
तीक्ष्णवीर्यास्तु भूतानां दुरालम्भाः सकण्टकाः।
रक्तभूयिष्ठवर्णाश्च कृष्णाश्चैवोपहारयेत् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन फूलोंमें काँटे अधिक हों, जिनका हाथसे स्पर्श करना कठिन जान पड़े, जिनका रंग अधिकतर लाल या काला हो तथा जिनकी गन्धका प्रभाव तीव्र हो, ऐसे फूल भूत-प्रेतोंके काम आते हैं। अतः उनको वैसे ही फूल भेंट करने चाहिये॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनोहृदयनन्दिन्यो विशेषमधुराश्च याः ।
चारुरूपाः सुमनसो मानुषाणां स्मृता विभो ॥ ३२ ॥
मूलम्
मनोहृदयनन्दिन्यो विशेषमधुराश्च याः ।
चारुरूपाः सुमनसो मानुषाणां स्मृता विभो ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! मनुष्योंको तो वे ही फूल प्रिय लगते हैं, जिनका रूप-रंग सुन्दर और रस विशेष मधुर हो, तथा जो देखनेपर हृदयको आनन्ददायी जान पड़ें॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तु श्मशानसम्भूता देवतायतनोद्भवाः।
संनयेत् पुष्टियुक्तेषु विवाहेषु रहःसु च ॥ ३३ ॥
मूलम्
न तु श्मशानसम्भूता देवतायतनोद्भवाः।
संनयेत् पुष्टियुक्तेषु विवाहेषु रहःसु च ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्मशान तथा जीर्ण-शीर्ण देवालयोंमें पैदा हुए फूलोंका पौष्टिक कर्म, विवाह तथा एकान्त विहारमें उपयोग नहीं करना चाहिये॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरिसानुरुहाः सौम्या देवानामुपपादयेत् ।
प्रोक्षिताऽभ्युक्षिताः सौम्या यथायोग्यं यथास्मृति ॥ ३४ ॥
मूलम्
गिरिसानुरुहाः सौम्या देवानामुपपादयेत् ।
प्रोक्षिताऽभ्युक्षिताः सौम्या यथायोग्यं यथास्मृति ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पर्वतोंके शिखरपर उत्पन्न हुए सुन्दर और सुगन्धित पुष्पोंको धोकर अथवा उनपर जलके छींटे देकर धर्मशास्त्रोंमें बताये अनुसार उन्हें यथायोग्य देवताओंपर चढ़ाना चाहिये॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धेन देवास्तुष्यन्ति दर्शनाद् यक्षराक्षसाः।
नागाः समुपभोगेन त्रिभिरेतैस्तु मानुषाः ॥ ३५ ॥
मूलम्
गन्धेन देवास्तुष्यन्ति दर्शनाद् यक्षराक्षसाः।
नागाः समुपभोगेन त्रिभिरेतैस्तु मानुषाः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता फूलोंकी सुगन्धसे, यक्ष और राक्षस उनके दर्शनसे, नागगण उनका भलीभाँति उपभोग करनेसे और मनुष्य उनके दर्शन, गन्ध एवं उपभोग तीनोंसे ही संतुष्ट होते हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद्यः प्रीणाति देवान् वै ते प्रीता भावयन्त्युत।
संकल्पसिद्धा मर्त्यानामीप्सितैश्च मनोरमैः ॥ ३६ ॥
मूलम्
सद्यः प्रीणाति देवान् वै ते प्रीता भावयन्त्युत।
संकल्पसिद्धा मर्त्यानामीप्सितैश्च मनोरमैः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फूल चढ़ानेसे मनुष्य देवताओंको तत्काल संतुष्ट करता है और संतुष्ट होकर वे सिद्धसंकल्प देवता मनुष्योंको मनोवांछित एवं मनोरम भोग देकर उनकी भलाई करते हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीताः प्रीणन्ति सततं मानिता मानयन्ति च।
अवज्ञातावधूताश्च निर्दहन्त्यधमान् नरान् ॥ ३७ ॥
मूलम्
प्रीताः प्रीणन्ति सततं मानिता मानयन्ति च।
अवज्ञातावधूताश्च निर्दहन्त्यधमान् नरान् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंको यदि सदा संतुष्ट और सम्मानित किया जाता है तो वे भी मनुष्योंको संतोष एवं सम्मान देते हैं तथा यदि उनकी अवज्ञा एवं अवहेलना की गयी तो वे अवज्ञा करनेवाले नीच मनुष्यको अपनी क्रोधाग्निसे भस्म कर डालते हैं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि धूपदानविधेः फलम्।
धूपांश्च विविधान् साधूनसाधूंश्च निबोध मे ॥ ३८ ॥
मूलम्
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि धूपदानविधेः फलम्।
धूपांश्च विविधान् साधूनसाधूंश्च निबोध मे ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद अब मैं धूपदानकी विधिका फल बताऊँगा। धूप भी अच्छे और बुरे कई तरहके होते हैं। उनका वर्णन मुझसे सुनो॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्यासाः सारिणश्चैव कृत्रिमाश्चैव ते त्रयः।
इष्टोऽनिष्टो भवेद् गंधस्तन्मे विस्तरशः शृणु ॥ ३९ ॥
मूलम्
निर्यासाः सारिणश्चैव कृत्रिमाश्चैव ते त्रयः।
इष्टोऽनिष्टो भवेद् गंधस्तन्मे विस्तरशः शृणु ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धूपके मुख्यतः तीन भेद हैं—निर्यास, सारी और कृत्रिम। इन धूपोंकी गंध भी अच्छी और बुरी दो प्रकारकी होती है। ये सब बातें मुझसे विस्तारपूर्वक सुनो॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्यासाः सल्लकीवर्ज्या देवानां दयिताऽस्तु ते।
गुग्गुलुः प्रवरस्तेषां सर्वेषामिति निश्चयः ॥ ४० ॥
मूलम्
निर्यासाः सल्लकीवर्ज्या देवानां दयिताऽस्तु ते।
गुग्गुलुः प्रवरस्तेषां सर्वेषामिति निश्चयः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृक्षोंके रस (गोंद) को निर्यास कहते हैं, सल्लकीनामक वृक्षके सिवा अन्य वृक्षोंसे प्रकट हुए निर्यासमय धूप देवताओंको बहुत प्रिय होते हैं। उनमें भी गुग्गुल सबसे श्रेष्ठ है। ऐसा मनीषी पुरुषोंका निश्चय है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगुरुः सारिणां श्रेष्ठो यक्षराक्षसभोगिनाम्।
दैत्यानां सल्लकीयश्च काङ्क्षतो यश्च तद्विधः ॥ ४१ ॥
मूलम्
अगुरुः सारिणां श्रेष्ठो यक्षराक्षसभोगिनाम्।
दैत्यानां सल्लकीयश्च काङ्क्षतो यश्च तद्विधः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन काष्ठोंको आगमें जलानेपर सुगंध प्रकट होती है, उन्हें सारी धूप कहते हैं। इनमें अगुरुकी प्रधानता है। सारी धूप विशेषतः यक्ष, राक्षस और नागोंको प्रिय होते हैं। दैत्य लोग सल्लकी तथा उसी तरह अन्य वृक्षोंकी गोंदका बना हुआ धूप पसंद करते हैं॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ सर्जरसादीनां गंधैः पार्थिव दारवैः।
फाणितासवसंयुक्तैर्मनुष्याणां विधीयते ॥ ४२ ॥
मूलम्
अथ सर्जरसादीनां गंधैः पार्थिव दारवैः।
फाणितासवसंयुक्तैर्मनुष्याणां विधीयते ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! राल आदिके सुगन्धित चूर्ण तथा सुगन्धित काष्ठौषधियोंके चूर्णको घी और शक्करसे मिश्रित करके जो अष्टगंध आदि धूप तैयार किया जाता है, वही कृत्रिम है। विशेषतः वही मनुष्योंके उपयोगमें आता है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदानवभूतानां सद्यस्तुष्टिकरः स्मृतः ।
येऽन्ये वैहारिकास्तत्र मानुषाणामिति स्मृताः ॥ ४३ ॥
मूलम्
देवदानवभूतानां सद्यस्तुष्टिकरः स्मृतः ।
येऽन्ये वैहारिकास्तत्र मानुषाणामिति स्मृताः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैसा धूप देवताओं, दानवों और भूतोंके लिये भी तत्काल संतोष प्रदान करनेवाला माना गया है। इनके सिवा विहार (भोग-विलास) के उपयोगमें आनेवाले और भी अनेक प्रकारके धूप हैं, जो केवल मनुष्योंके व्यवहारमें आते हैं॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एवोक्ताः सुमनसां प्रदाने गुणहेतवः।
धूपेष्वपि परिज्ञेयास्त एव प्रीतिवर्धनाः ॥ ४४ ॥
मूलम्
य एवोक्ताः सुमनसां प्रदाने गुणहेतवः।
धूपेष्वपि परिज्ञेयास्त एव प्रीतिवर्धनाः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंको पुष्पदान करनेसे जो गुण या लाभ बताये गये हैं, वे ही धूप निवेदन करनेसे भी प्राप्त होते हैं। ऐसा जानना चाहिये। धूप भी देवताओंकी प्रसन्नता बढ़ानेवाले हैं॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीपदाने प्रवक्ष्यामि फलयोगमनुत्तमम् ।
यथा येन यदा चैव प्रदेया यादृशाश्च ते ॥ ४५ ॥
मूलम्
दीपदाने प्रवक्ष्यामि फलयोगमनुत्तमम् ।
यथा येन यदा चैव प्रदेया यादृशाश्च ते ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं दीप-दानका परम उत्तम फल बताऊँगा। कब किस प्रकार किसके द्वारा किसके दीप दिये जाने चाहिये, यह सब बताता हूँ, सुनो॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्योतिस्तेजः प्रकाशं वाप्यूर्ध्वगं चापि वर्ण्यते।
प्रदानं तेजसां तस्मात् तेजो वर्धयते नृणाम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
ज्योतिस्तेजः प्रकाशं वाप्यूर्ध्वगं चापि वर्ण्यते।
प्रदानं तेजसां तस्मात् तेजो वर्धयते नृणाम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दीपक ऊर्ध्वगामी तेज है, वह कान्ति और कीर्तिका विस्तार करनेवाला बताया जाता है। अतः दीप या तेजका दान मनुष्योंके तेजकी वृद्धि करता है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्धन्तमस्तमिस्रं च दक्षिणायनमेव च।
उत्तरायणमेतस्माज्ज्योतिर्दानं प्रशस्यते ॥ ४७ ॥
मूलम्
अन्धन्तमस्तमिस्रं च दक्षिणायनमेव च।
उत्तरायणमेतस्माज्ज्योतिर्दानं प्रशस्यते ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अंधकार अंधतामिस्र नामक नरक है। दक्षिणायन भी अंधकारसे ही आच्छन्न रहता है। इसके विपरीत उत्तरायण प्रकाशमय है। इसलिये वह श्रेष्ठ माना गया है। अतः अन्धकारमय नरककी निवृत्तिके लिये दीपदानकी प्रशंसा की गयी है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मादूर्ध्वगमेतत् तु तमसश्चैव भेषजम्।
तस्मादूर्ध्वगतेर्दाता भवेदत्रेति निश्चयः ॥ ४८ ॥
मूलम्
यस्मादूर्ध्वगमेतत् तु तमसश्चैव भेषजम्।
तस्मादूर्ध्वगतेर्दाता भवेदत्रेति निश्चयः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दीपककी शिखा ऊर्ध्वगामिनी होती है। वह अंधकाररूपी रोगको दूर करनेकी दवा है। इसलिये जो दीपदान करता है, उसे निश्चय ही ऊर्ध्वगतिकी प्राप्ति होती है॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवास्तेजस्विनो ह्यस्मात् प्रभावन्तः प्रकाशकाः।
तामसा राक्षसाश्चैव तस्माद् दीपः प्रदीयते ॥ ४९ ॥
मूलम्
देवास्तेजस्विनो ह्यस्मात् प्रभावन्तः प्रकाशकाः।
तामसा राक्षसाश्चैव तस्माद् दीपः प्रदीयते ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता तेजस्वी, कांतिमान् और प्रकाश फैलानेवाले होते हैं और राक्षस अंधकारप्रिय होते हैं; इसलिये देवताओंकी प्रसन्नताके लिये दीपदान किया जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आलोकदानाच्चक्षुष्मान् प्रभायुक्तो भवेन्नरः ।
तान् दत्त्वा नोपहिंसेत न हरेन्नोपनाशयेत् ॥ ५० ॥
मूलम्
आलोकदानाच्चक्षुष्मान् प्रभायुक्तो भवेन्नरः ।
तान् दत्त्वा नोपहिंसेत न हरेन्नोपनाशयेत् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दीपदान करनेसे मनुष्यके नेत्रोंका तेज बढ़ता है और वह स्वयं भी तेजस्वी होता है। दान करनेके पश्चात् उन दीपकोंको न तो बुझावे, न उठाकर अन्यत्र ले जाय और न नष्ट ही करे॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीपहर्ता भवेदन्धस्तमोगतिरसुप्रभः ।
दीपप्रदः स्वर्गलोके दीपमालेव राजते ॥ ५१ ॥
मूलम्
दीपहर्ता भवेदन्धस्तमोगतिरसुप्रभः ।
दीपप्रदः स्वर्गलोके दीपमालेव राजते ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दीपक चुरानेवाला मनुष्य अंधा और श्रीहीन होता है तथा मरनेके बाद नरकमें पड़ता है, किंतु जो दीपदान करता है, वह स्वर्गलोकमें दीपमालाकी भाँति प्रकाशित होता है॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हविषा प्रथमः कल्पो द्वितीयश्चौषधीरसैः।
वसामेदोऽस्थिनिर्यासैर्न कार्यः पुष्टिमिच्छता ॥ ५२ ॥
मूलम्
हविषा प्रथमः कल्पो द्वितीयश्चौषधीरसैः।
वसामेदोऽस्थिनिर्यासैर्न कार्यः पुष्टिमिच्छता ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घीका दीपक जलाकर दान करना प्रथम श्रेणीका दीप-दान है। ओषधियोंके रस अर्थात् तिल-सरसों आदिके तेलसे जलाकर किया हुआ दीपदान दूसरी श्रेणीका है। जो अपने शरीरकी पुष्टि चाहता हो—उसे चर्बी, मेदा और हड्डियोंसे निकाले हुए तेलके द्वारा कदापि दीपक नहीं जलाना चाहिये॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरिप्रपाते गहने चैत्यस्थाने चतुष्पथे।
(गोब्राह्मणालये दुर्गे दीपो भूतिप्रदः शुचिः।)
दीपदानं भवेन्नित्यं य इच्छेद् भूतिमात्मनः ॥ ५३ ॥
मूलम्
गिरिप्रपाते गहने चैत्यस्थाने चतुष्पथे।
(गोब्राह्मणालये दुर्गे दीपो भूतिप्रदः शुचिः।)
दीपदानं भवेन्नित्यं य इच्छेद् भूतिमात्मनः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपने कल्याणकी इच्छा रखता हो, उसे प्रतिदिन पर्वतीय झरनेके पास, वनमें, देवमंदिरमें, चौराहोंपर, गोशालामें, ब्राह्मणके घरमें तथा दुर्गम स्थानमें प्रतिदिन दीप-दान करना चाहिये। उक्त स्थानोंमें दिया हुआ पवित्र दीप ऐश्वर्य प्रदान करनेवाला होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुलोद्योतो विशुद्धात्मा प्रकाशत्वं च गच्छति।
ज्योतिषां चैव सालोक्यं दीपदाता नरः सदा ॥ ५४ ॥
मूलम्
कुलोद्योतो विशुद्धात्मा प्रकाशत्वं च गच्छति।
ज्योतिषां चैव सालोक्यं दीपदाता नरः सदा ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दीप-दान करनेवाला पुरुष अपने कुलको उद्दीप्त करनेवाला, शुद्धचित्त तथा श्रीसम्पन्न होता है और अंतमें वह प्रकाशमय लोकोंमें जाता है॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलिकर्मसु वक्ष्यामि गुणान् कर्मफलोदयान्।
देवयक्षोरगनृणां भूतानामथ रक्षसाम् ॥ ५५ ॥
मूलम्
बलिकर्मसु वक्ष्यामि गुणान् कर्मफलोदयान्।
देवयक्षोरगनृणां भूतानामथ रक्षसाम् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं देवताओं, यक्षों, नागों, मनुष्यों, भूतों तथा राक्षसोंको बलि समर्पण करनेसे जो लाभ होता है, जिन फलोंका उदय होता है, उनका वर्णन करूँगा॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषां नाग्रभुजो विप्रा देवतातिथिबालकाः।
राक्षसानेव तान् विद्धि निर्विशङ्कानमङ्गलान् ॥ ५६ ॥
मूलम्
येषां नाग्रभुजो विप्रा देवतातिथिबालकाः।
राक्षसानेव तान् विद्धि निर्विशङ्कानमङ्गलान् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग अपने भोजन करनेसे पहले देवताओं, ब्राह्मणों, अतिथियों और बालकोंको भोजन नहीं कराते, उन्हें भयरहित अमंगलकारी राक्षस ही समझो॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादग्रं प्रयच्छेत देवेभ्यः प्रतिपूजितम्।
शिरसा प्रयतश्चापि हरेद् बलिमतन्द्रितः ॥ ५७ ॥
मूलम्
तस्मादग्रं प्रयच्छेत देवेभ्यः प्रतिपूजितम्।
शिरसा प्रयतश्चापि हरेद् बलिमतन्द्रितः ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः गृहस्थ मनुष्यका यह कर्तव्य है कि वह आलस्य छोड़कर देवताओंकी पूजा करके उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम करे और शुद्धचित्त हो सर्वप्रथम उन्हींको आदरपूर्वक अन्नका भाग अर्पण करे॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृह्णन्ति देवता नित्यमाशंसन्ति सदा गृहान्।
बाह्याश्चागन्तवो येऽन्ये यक्षराक्षसपन्नगाः ॥ ५८ ॥
इतो दत्तेन जीवन्ति देवताः पितरस्तथा।
ते प्रीताः प्रीणयन्तेनमायुषा यशसा धनैः ॥ ५९ ॥
मूलम्
गृह्णन्ति देवता नित्यमाशंसन्ति सदा गृहान्।
बाह्याश्चागन्तवो येऽन्ये यक्षराक्षसपन्नगाः ॥ ५८ ॥
इतो दत्तेन जीवन्ति देवताः पितरस्तथा।
ते प्रीताः प्रीणयन्तेनमायुषा यशसा धनैः ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि देवतालोग सदा गृहस्थ मनुष्योंकी दी हुई बलिको स्वीकार करते और उन्हें आशीर्वाद देते हैं। देवता, पितर, यक्ष, राक्षस, सर्प तथा बाहरसे आये हुए अन्य अतिथि आदि गृहस्थके दिये हुए अन्नसे ही जीविका चलाते हैं और प्रसन्न होकर उस गृहस्थको आयु, यश तथा धनके द्वारा संतुष्ट करते हैं॥५८-५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलयः सह पुष्पैस्तु देवानामुपहारयेत्।
दधिदुग्धमयाः पुण्याः सुगंधाः प्रियदर्शनाः ॥ ६० ॥
मूलम्
बलयः सह पुष्पैस्तु देवानामुपहारयेत्।
दधिदुग्धमयाः पुण्याः सुगंधाः प्रियदर्शनाः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंको जो बलि दी जाय, वह दही-दूधकी बनी हुई, परम पवित्र, सुगंधित, दर्शनीय और फूलोंसे सुशोभित होनी चाहिये॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्या रुधिरमांसाढ्या बलयो यक्षरक्षसाम्।
सुरासवपुरस्कारा लाजोल्लापिकभूषिताः ॥ ६१ ॥
मूलम्
कार्या रुधिरमांसाढ्या बलयो यक्षरक्षसाम्।
सुरासवपुरस्कारा लाजोल्लापिकभूषिताः ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आसुर स्वभावके लोग यक्ष और राक्षसोंको रुधिर और मांससे युक्त बलि अर्पित करते हैं। जिसके साथ सुरा और आसव भी रहता है तथा ऊपरसे धानका लावा छींटकर उस बलिको विभूषित किया जाता है॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नागानां दयिता नित्यं पद्मोत्पलविमिश्रिताः।
तिलान् गुडसुसम्पन्नान् भूतानामुपहारयेत् ॥ ६२ ॥
मूलम्
नागानां दयिता नित्यं पद्मोत्पलविमिश्रिताः।
तिलान् गुडसुसम्पन्नान् भूतानामुपहारयेत् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नागोंको पद्म और उत्पलयुक्त बलि प्रिय होती है। गुड़मिश्रित तिल भूतोंको भेंट करे॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्रदाताग्रभोगी स्याद् बलवीर्यसमन्वितः ।
तस्मादग्रं प्रयच्छेत देवेभ्यः प्रतिपूजितम् ॥ ६३ ॥
मूलम्
अग्रदाताग्रभोगी स्याद् बलवीर्यसमन्वितः ।
तस्मादग्रं प्रयच्छेत देवेभ्यः प्रतिपूजितम् ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य देवता आदिको पहले बलि प्रदान करके भोजन करता है, वह उत्तम भोगसे सम्पन्न, बलवान् और वीर्यवान् होता है। इसलिये देवताओंको सम्मानपूर्वक अन्न पहले अर्पण करना चाहिये॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्वलन्त्यहरहो वेश्म याश्चास्य गृहदेवताः।
ताः पूज्या भूतिकामेन प्रसृताग्रप्रदायिना ॥ ६४ ॥
मूलम्
ज्वलन्त्यहरहो वेश्म याश्चास्य गृहदेवताः।
ताः पूज्या भूतिकामेन प्रसृताग्रप्रदायिना ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गृहस्थके घरकी अधिष्ठातृ देवियाँ उसके घरको सदा प्रकाशित किये रहती हैं, अतः कल्याणकामी मनुष्यको चाहिये कि भोजनका प्रथम भाग देकर सदा ही उनकी पूजा किया करे॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येतदसुरेन्द्राय काव्यः प्रोवाच भार्गवः।
सुवर्णाय मनुः प्राह सुवर्णो नारदाय च ॥ ६५ ॥
नारदोऽपि मयि प्राह गुणानेतान् महाद्युते।
त्वमप्येतद् विदित्वेह सर्वमाचर पुत्रक ॥ ६६ ॥
मूलम्
इत्येतदसुरेन्द्राय काव्यः प्रोवाच भार्गवः।
सुवर्णाय मनुः प्राह सुवर्णो नारदाय च ॥ ६५ ॥
नारदोऽपि मयि प्राह गुणानेतान् महाद्युते।
त्वमप्येतद् विदित्वेह सर्वमाचर पुत्रक ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार शुक्राचार्यने असुरराज बलिको यह प्रसंग सुनाया और मनुने तपस्वी सुवर्णको इसका उपदेश किया। तत्पश्चात् तपस्वी सुवर्णने नारदजीको और नारदजीने मुझे धूप, दीप आदिके दानके गुण बताये। महातेजस्वी पुत्र! तुम भी इस विधिको जानकर इसीके अनुसार सब काम करो॥६५-६६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सुवर्णमनुसंवादो नामाष्टनवतितमोऽध्यायः ॥ ९८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अंतर्गत दानधर्मपर्वमें सुवर्ण और मनुका संवादविषयक अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९८॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ६७ श्लोक हैं)