०९६ छत्रोपानहदानप्रशंसा

भागसूचना

षण्णवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

छत्र और उपानहकी उत्पत्ति एवं दानकी प्रशंसा

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं प्रयाचति तथा भास्करे मुनिसत्तमः।
जमदग्निर्महातेजाः किं कार्यं प्रत्यपद्यत ॥ १ ॥

मूलम्

एवं प्रयाचति तथा भास्करे मुनिसत्तमः।
जमदग्निर्महातेजाः किं कार्यं प्रत्यपद्यत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! जब सूर्यदेव इस प्रकार याचना कर रहे थे, उस समय महातेजस्वी मुनिश्रेष्ठ जमदग्निने कौन-सा कार्य किया?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तथा याचमानस्य मुनिरग्निसमप्रभः।
जमदग्निः शमं नैव जगाम कुरुनन्दन ॥ २ ॥

मूलम्

स तथा याचमानस्य मुनिरग्निसमप्रभः।
जमदग्निः शमं नैव जगाम कुरुनन्दन ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— कुरुनन्दन! सूर्यदेवके इस तरह प्रार्थना करनेपर भी अग्निके समान तेजस्वी जमदग्नि मुनिका क्रोध शान्त नहीं हुआ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सूर्यो मधुरया वाचा तमिदमब्रवीत्।
कृताञ्जलिर्विप्ररूपी प्रणम्यैनं विशाम्पते ॥ ३ ॥

मूलम्

ततः सूर्यो मधुरया वाचा तमिदमब्रवीत्।
कृताञ्जलिर्विप्ररूपी प्रणम्यैनं विशाम्पते ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! तब विप्ररूपधारी सूर्यने हाथ जोड़ प्रणाम करके मधुर वाणीद्वारा यों कहा—॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चलं निमित्तं विप्रर्षे सदा सूर्यस्य गच्छतः।
कथं चलं भेत्स्यसि त्वं सदा यान्तं दिवाकरम् ॥ ४ ॥

मूलम्

चलं निमित्तं विप्रर्षे सदा सूर्यस्य गच्छतः।
कथं चलं भेत्स्यसि त्वं सदा यान्तं दिवाकरम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विप्रर्षे! आपका लक्ष्य तो चल है, सूर्य भी सदा चलते रहते हैं। अतः निरन्तर यात्रा करते हुए सूर्यरूपी चंचल लक्ष्यका आप किस प्रकार भेदन करेंगे?’॥४॥

मूलम् (वचनम्)

जमदग्निरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थिरं चापि चलं चापि जाने त्वां ज्ञानचक्षुषा।
अवश्यं विनयाधानं कार्यमद्य मया तव ॥ ५ ॥

मूलम्

स्थिरं चापि चलं चापि जाने त्वां ज्ञानचक्षुषा।
अवश्यं विनयाधानं कार्यमद्य मया तव ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जमदग्नि बोले— हमारा लक्ष्य चंचल हो या स्थिर, हम ज्ञानदृष्टिसे पहचान गये हैं कि तुम्हीं सूर्य हो। अतः आज दण्ड देकर तुम्हें अवश्य ही विनययुक्त बनायेंगे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मध्याह्ने वै निमेषार्धं तिष्ठसि त्वं दिवाकर।
तत्र भेत्स्यामि सूर्य त्वां न मेऽत्रास्ति विचारणा ॥ ६ ॥

मूलम्

मध्याह्ने वै निमेषार्धं तिष्ठसि त्वं दिवाकर।
तत्र भेत्स्यामि सूर्य त्वां न मेऽत्रास्ति विचारणा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दिवाकर! तुम दोपहरके समय आधे निमेषके लिये ठहर जाते हो! सूर्य! उसी समय तुम्हें स्थिर पाकर हम अपने बाणोंद्वारा तुम्हारे शरीरका भेदन कर डालेंगे। इस विषयमें मुझे कोई (अन्यथा) विचार नहीं करना है॥

मूलम् (वचनम्)

सूर्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंशयं मां विप्रर्षे भेत्स्यसे धन्विनां वर।
अपकारिणं मां विद्धि भगवन् शरणागतम् ॥ ७ ॥

मूलम्

असंशयं मां विप्रर्षे भेत्स्यसे धन्विनां वर।
अपकारिणं मां विद्धि भगवन् शरणागतम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्य बोले— धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ विप्रर्षे! निस्संदेह आप मेरे शरीरका भेदन कर सकते हैं। भगवन्! यद्यपि मैं आपका अपराधी हूँ तो भी आप मुझे अपना शरणागत समझिये॥७॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रहस्य भगवान् जमदग्निरुवाच तम्।
न भीः सूर्य त्वया कार्या प्रणिपातगतो ह्यसि ॥ ८ ॥

मूलम्

ततः प्रहस्य भगवान् जमदग्निरुवाच तम्।
न भीः सूर्य त्वया कार्या प्रणिपातगतो ह्यसि ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! सूर्यदेवकी यह बात सुनकर भगवान् जमदग्नि हँस पड़े और उनसे बोले—‘सूर्यदेव! अब तुम्हें भय नहीं मानना चाहिये; क्योंकि तुम मेरे शरणागत हो गये हो॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणेष्वार्जवं यच्च स्थैर्यं च धरणीतले।
सौम्यतां चैव सोमस्य गाम्भीर्यं वरुणस्य च ॥ ९ ॥
दीप्तिमग्नेः प्रभां मेरोः प्रतापं तपनस्य च।
एतान्यतिक्रमेद् यो वै स हन्याच्छरणागतम् ॥ १० ॥

मूलम्

ब्राह्मणेष्वार्जवं यच्च स्थैर्यं च धरणीतले।
सौम्यतां चैव सोमस्य गाम्भीर्यं वरुणस्य च ॥ ९ ॥
दीप्तिमग्नेः प्रभां मेरोः प्रतापं तपनस्य च।
एतान्यतिक्रमेद् यो वै स हन्याच्छरणागतम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्राह्मणोंमें जो सरलता है, पृथ्वीमें जो स्थिरता है, सोमका जो सौम्यभाव, सागरकी जो गम्भीरता, अग्निकी जो दीप्ति, मेरुकी जो चमक और सूर्यका जो प्रताप है—इन सबका वह पुरुष उल्लंघन कर जाता है, इन सबकी मर्यादाका नाश करनेवाला समझा जाता है जो शरणागतका वध करता है॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवेत् स गुरुतल्पी च ब्रह्महा च स वै भवेत्।
सुरापानं स कुर्याच्च यो हन्याच्छरणागतम् ॥ ११ ॥

मूलम्

भवेत् स गुरुतल्पी च ब्रह्महा च स वै भवेत्।
सुरापानं स कुर्याच्च यो हन्याच्छरणागतम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शरणागतकी हत्या करता है, उसे गुरुपत्नीगमन, ब्रह्महत्या और मदिरापानका पाप लगता है’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्य त्वपनीतस्य समाधिं तात चिन्तय।
यथा सुखगमः पन्था भवेत् त्वद्रश्मिभावितः ॥ १२ ॥

मूलम्

एतस्य त्वपनीतस्य समाधिं तात चिन्तय।
यथा सुखगमः पन्था भवेत् त्वद्रश्मिभावितः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! इस समय तुम्हारे द्वारा जो यह अपराध हुआ है, उसका कोई समाधान—उपाय सोचो। जिससे तुम्हारी किरणोंद्वारा तपा हुआ मार्ग सुगमतापूर्वक चलने योग्य हो सके’॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावदुक्त्वा स तदा तूष्णीमासीद् भृगूत्तमः।
अथ सूर्योऽददत् तस्मै छत्रोपानहमाशु वै ॥ १३ ॥

मूलम्

एतावदुक्त्वा स तदा तूष्णीमासीद् भृगूत्तमः।
अथ सूर्योऽददत् तस्मै छत्रोपानहमाशु वै ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! इतना कहकर भृगुश्रेष्ठ जमदग्नि मुनि चुप हो गये। तब भगवान् सूर्यने उन्हें शीघ्र ही छत्र और उपानह दोनों वस्तुएँ प्रदान कीं॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

सूर्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

महर्षे शिरसस्त्राणं छत्रं मद्रश्मिवारणम्।
प्रतिगृह्णीष्व पद्भ्यां च त्राणार्थं चर्मपादुके ॥ १४ ॥

मूलम्

महर्षे शिरसस्त्राणं छत्रं मद्रश्मिवारणम्।
प्रतिगृह्णीष्व पद्भ्यां च त्राणार्थं चर्मपादुके ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यदेवने कहा— महर्षे! यह छत्र मेरी किरणोंका निवारण करके मस्तककी रक्षा करेगा तथा चमड़ेके बने ये एक जोड़े जूते हैं, जो पैरोंको जलनेसे बचानेके लिये प्रस्तुत किये गये हैं। आप इन्हें ग्रहण कीजिये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्यप्रभृति चैवेह लोके सम्प्रचरिष्यति।
पुण्यकेषु च सर्वेषु परमक्षय्यमेव च ॥ १५ ॥

मूलम्

अद्यप्रभृति चैवेह लोके सम्प्रचरिष्यति।
पुण्यकेषु च सर्वेषु परमक्षय्यमेव च ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आजसे इस जगत्‌में इन दोनों वस्तुओंका प्रचार होगा और पुण्यके सभी अवसरोंपर इनका दान उत्तम एवं अक्षय फल देनेवाला होगा॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

छत्रोपानहमेतत् तु सूर्येणैतत् प्रवर्तितम्।
पुण्यमेतदभिख्यातं त्रिषु लोकेषु भारत ॥ १६ ॥

मूलम्

छत्रोपानहमेतत् तु सूर्येणैतत् प्रवर्तितम्।
पुण्यमेतदभिख्यातं त्रिषु लोकेषु भारत ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— भारत! छाता और जूता—इन दोनों वस्तुओंका प्राकट्‌य—छाता लगाने और जूता पहननेकी प्रथा सूर्यने ही जारी की है। इन वस्तुओंका दान तीनों लोकोंमें पवित्र बताया गया है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् प्रयच्छ विप्रेषु छत्रोपानहमुत्तमम्।
धर्मस्तेषु महान् भावी न मेऽत्रास्ति विचारणा ॥ १७ ॥

मूलम्

तस्मात् प्रयच्छ विप्रेषु छत्रोपानहमुत्तमम्।
धर्मस्तेषु महान् भावी न मेऽत्रास्ति विचारणा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये तुम ब्राह्मणोंको उत्तम छाते और जूते दिया करो। उनके दानसे महान् धर्म होगा। इस विषयमें मुझे भी संदेह नहीं है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छत्रं हि भरतश्रेष्ठ यः प्रदद्याद् द्विजातये।
शुभ्रं शतशलाकं वै स प्रेत्य सुखमेधते ॥ १८ ॥

मूलम्

छत्रं हि भरतश्रेष्ठ यः प्रदद्याद् द्विजातये।
शुभ्रं शतशलाकं वै स प्रेत्य सुखमेधते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! जो ब्राह्मणको सौ शलाकाओंसे युक्त सुन्दर छाता दान करता है, वह परलोकमें सुखी होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स शक्रलोके वसति पूज्यमानो द्विजातिभिः।
अप्सरोभिश्च सततं देवैश्च भरतर्षभ ॥ १९ ॥

मूलम्

स शक्रलोके वसति पूज्यमानो द्विजातिभिः।
अप्सरोभिश्च सततं देवैश्च भरतर्षभ ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतभूषण! वह देवताओं, ब्राह्मणों और अप्सराओंद्वारा सतत सम्मानित होता हुआ इन्द्रलोकमें निवास करता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दह्यमानाय विप्राय यः प्रयच्छत्युपानहौ।
स्नातकाय महाबाहो संशिताय द्विजातये ॥ २० ॥
सोऽपि लोकानवाप्नोति दैवतैरभिपूजितान् ।
गोलोके स मुदा युक्तो वसति प्रेत्य भारत ॥ २१ ॥

मूलम्

दह्यमानाय विप्राय यः प्रयच्छत्युपानहौ।
स्नातकाय महाबाहो संशिताय द्विजातये ॥ २० ॥
सोऽपि लोकानवाप्नोति दैवतैरभिपूजितान् ।
गोलोके स मुदा युक्तो वसति प्रेत्य भारत ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! भरतनन्दन! जिसके पैर जल रहे हों ऐसे कठोर व्रतधारी स्नातक द्विजको जो जूते दान करता है, वह शरीर-त्यागके पश्चात् देववन्दित लोकोंमें जाता है और बड़ी प्रसन्नताके साथ गोलोकमें निवास करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् ते भरतश्रेष्ठ मया कार्त्स्न्येन कीर्तितम्।
छत्रोपानहदानस्य फलं भरतसत्तम ॥ २२ ॥

मूलम्

एतत् ते भरतश्रेष्ठ मया कार्त्स्न्येन कीर्तितम्।
छत्रोपानहदानस्य फलं भरतसत्तम ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! भरतसत्तम! यह मैंने तुमसे छातों और जूतोंके दानका सम्पूर्ण फल बताया है॥२२॥

सूचना (हिन्दी)

[सेवासे शूद्रोंकी परम गति, शौचाचार, सदाचार तथा वर्णधर्मका कथन एवं संन्यासियोंके धर्मोंका वर्णन और उससे उनको परम गतिकी प्राप्ति]

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूद्राणामिह शुश्रूषा नित्यमेवानुवर्णिता ।
कैः कारणैः कतिविधा शुश्रूषा समुदाहृता॥

मूलम्

शूद्राणामिह शुश्रूषा नित्यमेवानुवर्णिता ।
कैः कारणैः कतिविधा शुश्रूषा समुदाहृता॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! इस जगत्‌में शूद्रोंके लिये सदा द्विजातियोंकी सेवाको ही परम धर्म बताया गया है। वह सेवा किन कारणोंसे कितने प्रकारकी कही गयी है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

के च शुश्रूषया लोका विहिता भरतर्षभ।
शूद्राणां भरतश्रेष्ठ ब्रूहि मे धर्मलक्षणम्॥

मूलम्

के च शुश्रूषया लोका विहिता भरतर्षभ।
शूद्राणां भरतश्रेष्ठ ब्रूहि मे धर्मलक्षणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतभूषण! भरतरत्न! शूद्रोंको द्विजोंकी सेवासे किन लोकोंकी प्राप्ति बतायी गयी है? मुझे धर्मका लक्षण बताइये॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
शूद्राणामनुकम्पार्थं यदुक्तं ब्रह्मवादिना ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
शूद्राणामनुकम्पार्थं यदुक्तं ब्रह्मवादिना ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! इस विषयमें ब्रह्मवादी पराशरने शूद्रोंपर कृपा करनेके लिये जो कुछ कहा है, उसी इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृद्धः पराशरः प्राह धर्मं शुभ्रमनामयम्।
अनुग्रहार्थं वर्णानां शौचाचारसमन्वितम् ॥

मूलम्

वृद्धः पराशरः प्राह धर्मं शुभ्रमनामयम्।
अनुग्रहार्थं वर्णानां शौचाचारसमन्वितम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े-बूढ़े पराशर मुनिने सब वर्णोंपर कृपा करनेके लिये शौचाचारसे सम्पन्न निर्मल एवं अनामय धर्मका प्रतिपादन किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मोपदेशमखिलं यथावदनुपूर्वशः ।
शिष्यानध्यापयामास शास्त्रमर्थवदर्थवित् ॥

मूलम्

धर्मोपदेशमखिलं यथावदनुपूर्वशः ।
शिष्यानध्यापयामास शास्त्रमर्थवदर्थवित् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्त्वज्ञ पराशर मुनिने अपने सारे धर्मोपदेशको ठीक-ठीक आनुपूर्वीसहित अपने शिष्योंको पढ़ाया। वह एक सार्थक धर्मशास्त्र था॥

मूलम् (वचनम्)

पराशर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षान्तेन्द्रियेण दान्तेन शुचिनाचापलेन वै।
अदुर्बलेन धीरेण नोत्तरोत्तरवादिना ॥
अलुब्धेनानृशंसेन ऋजुना ब्रह्मवादिना ।
चारित्रतत्परेणैव सर्वभूतहितात्मना ॥
अरयः षड् विजेतव्या नित्यं स्वं देहमाश्रिताः।
कामक्रोधौ च लोभश्च मानमोहौ मदस्तथा॥

मूलम्

क्षान्तेन्द्रियेण दान्तेन शुचिनाचापलेन वै।
अदुर्बलेन धीरेण नोत्तरोत्तरवादिना ॥
अलुब्धेनानृशंसेन ऋजुना ब्रह्मवादिना ।
चारित्रतत्परेणैव सर्वभूतहितात्मना ॥
अरयः षड् विजेतव्या नित्यं स्वं देहमाश्रिताः।
कामक्रोधौ च लोभश्च मानमोहौ मदस्तथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

पराशरने कहा— मनुष्यको चाहिये कि वह जितेन्द्रिय, मनोनिग्रही, पवित्र, चंचलतारहित, सबल, धैर्यशील, उत्तरोत्तर वाद-विवाद न करनेवाला, लोभहीन, दयालु, सरल, ब्रह्मवादी, सदाचारपरायण और सर्वभूतहितैषी होकर सदा अपने ही देहमें रहनेवाले काम, क्रोध, लोभ, मान, मोह और मद—इन छः शत्रुओंको अवश्य जीते॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधिना धृतिमास्थाय शुश्रूषुरनहंकृतः ।
वर्णत्रयस्यानुमतो यथाशक्ति यथाबलम् ॥
कर्मणा मनसा वाचा चक्षुषा च चतुर्विधम्।
आस्थाय नियमं धीमान् शान्तो दान्तो जितेन्द्रियः॥

मूलम्

विधिना धृतिमास्थाय शुश्रूषुरनहंकृतः ।
वर्णत्रयस्यानुमतो यथाशक्ति यथाबलम् ॥
कर्मणा मनसा वाचा चक्षुषा च चतुर्विधम्।
आस्थाय नियमं धीमान् शान्तो दान्तो जितेन्द्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् मनुष्य विधिपूर्वक धैर्यका आश्रय ले गुरुजनोंकी सेवामें तत्पर, अहंकारशून्य तथा तीनों वर्णोंकी सहानुभूतिका पात्र होकर अपनी शक्ति और बलके अनुसार कर्म, मन, वाणी और नेत्र—इन चारोंके द्वारा चार प्रकारके संयमका अवलम्बन ले शान्तचित्त, दमनशील एवं जितेन्द्रिय हो जाय॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यं दक्षजनान्वेषी शेषान्नकृतभोजनः ।
वर्णत्रयान्मधु यथा भ्रमरो धर्ममाचरन्॥

मूलम्

नित्यं दक्षजनान्वेषी शेषान्नकृतभोजनः ।
वर्णत्रयान्मधु यथा भ्रमरो धर्ममाचरन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

दक्ष—ज्ञानीजनोंका नित्य अन्वेषण करनेवाला यज्ञशेष अमृतरूप अन्नका भोजन करे। जैसे भौंरा फूलोंसे मधुका संचय करता है, उसी प्रकार तीनों वर्णोंसे मधुकरी भिक्षाका संचय करते हुए ब्राह्मण भिक्षुको धर्मका आचरण करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाध्यायधनिनो विप्राः क्षत्रियाणां बलं धनम्।
वणिक्कृषिश्च वैश्यानां शूद्राणां परिचारिका॥
व्युच्छेदात् तस्य धर्मस्य निरयायोपपद्यते।

मूलम्

स्वाध्यायधनिनो विप्राः क्षत्रियाणां बलं धनम्।
वणिक्कृषिश्च वैश्यानां शूद्राणां परिचारिका॥
व्युच्छेदात् तस्य धर्मस्य निरयायोपपद्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंका धन है वेद-शास्त्रोंका स्वाध्याय, क्षत्रियोंका धन है बल, वैश्योंका धन है व्यापार और खेती, तथा शूद्रोंका धन है तीनों वर्णोंकी सेवा। इस धर्मरूपी धनका उच्छेद करनेसे मनुष्य नरकमें पड़ता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो म्लेच्छा भवन्त्येते निर्घृणा धर्मवर्जिताः॥
पुनश्च निरयं तेषां तिर्यग्योनिश्च शाश्वती।

मूलम्

ततो म्लेच्छा भवन्त्येते निर्घृणा धर्मवर्जिताः॥
पुनश्च निरयं तेषां तिर्यग्योनिश्च शाश्वती।

अनुवाद (हिन्दी)

नरकसे निकलनेपर ये धर्मरहित निर्दय मनुष्य म्लेच्छ होते हैं और म्लेच्छ होनेके बाद फिर पापकर्म करनेसे उन्हें सदाके लिये नरक और पशु-पक्षी आदि तिर्यक् योनिकी प्राप्ति होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये तु सत्पथमास्थाय वर्णाश्रमकृतं पुरा॥
सर्वान् विमार्गानुत्सृज्य स्वधर्मपथमाश्रिताः ।
सर्वभूतदयावन्तो दैवतद्विजपूजकाः ॥
शास्त्रदृष्टेन विधिना श्रद्धया जितमन्यवः।
तेषां विधिं प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः॥
उपादानविधिं कृत्स्नं शुश्रूषाधिगमं तथा।

मूलम्

ये तु सत्पथमास्थाय वर्णाश्रमकृतं पुरा॥
सर्वान् विमार्गानुत्सृज्य स्वधर्मपथमाश्रिताः ।
सर्वभूतदयावन्तो दैवतद्विजपूजकाः ॥
शास्त्रदृष्टेन विधिना श्रद्धया जितमन्यवः।
तेषां विधिं प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः॥
उपादानविधिं कृत्स्नं शुश्रूषाधिगमं तथा।

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग प्राचीन वर्णाश्रमोचित सन्मार्गका आश्रय ले सारे विपरीत मार्गोंका परित्याग करके स्वधर्मके मार्गपर चलते हैं, समस्त प्राणियोंके प्रति दया रखते हैं और क्रोधको जीतकर शास्त्रोक्त विधिसे श्रद्धापूर्वक देवताओं तथा ब्राह्मणोंकी पूजा करते हैं, उनके लिये यथावत् रूपसे क्रमशः सम्पूर्ण धर्मोंके ग्रहणकी विधि तथा सेवाभावकी प्राप्ति आदिका वर्णन करता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शौचकृत्यस्य शौचार्थान् सर्वानेव विशेषतः॥
महाशौचप्रभृतयो दृष्टास्तत्त्वार्थदर्शिभिः ।

मूलम्

शौचकृत्यस्य शौचार्थान् सर्वानेव विशेषतः॥
महाशौचप्रभृतयो दृष्टास्तत्त्वार्थदर्शिभिः ।

अनुवाद (हिन्दी)

जो विशेषरूपसे शौचका सम्पादन करना चाहते हैं, उनके लिये सभी शौचविषयक प्रयोजनोंका वर्णन करता हूँ। तत्त्वदर्शी विद्वानोंने शास्त्रमें महाशौच आदि विधानोंको प्रत्यक्ष देखा है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रापि शूद्रो भिक्षूणां मृदं शेषं च कल्पयेत्॥

मूलम्

तत्रापि शूद्रो भिक्षूणां मृदं शेषं च कल्पयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ शूद्र भी भिक्षुओंके शौचाचारके लिये मिट्‌टी तथा अन्य आवश्यक पदार्थोंका प्रबन्ध करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भिक्षुभिः सुकृतप्रज्ञैः केवलं धर्ममाश्रितैः।
सम्यग्दर्शनसम्पन्नैर्गताध्वनि हितार्थिभिः ॥
अवकाशमिदं मेध्यं निर्मितं कामवीरुधम्।

मूलम्

भिक्षुभिः सुकृतप्रज्ञैः केवलं धर्ममाश्रितैः।
सम्यग्दर्शनसम्पन्नैर्गताध्वनि हितार्थिभिः ॥
अवकाशमिदं मेध्यं निर्मितं कामवीरुधम्।

अनुवाद (हिन्दी)

जो धर्मके ज्ञाता, केवल धर्मके ही आश्रित तथा सम्यक् ज्ञानसे सम्पन्न हैं, उन सर्वहितैषी संन्यासियोंको चाहिये कि वे सज्जनाचरित मार्गपर स्थित हो इस पवित्र कामलतास्वरूप स्थान (मलत्यागके योग्य क्षेत्र आदि) का निश्चय करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्जनं संवृतं बुद्ध्वा नियतात्मा जितेन्द्रियः॥
सजलं भाजनं स्थाप्यं मृत्तिकां च परीक्षिताम्।
परीक्ष्य भूमिं मूत्रार्थी तत आसीत वाग्यतः॥

मूलम्

निर्जनं संवृतं बुद्ध्वा नियतात्मा जितेन्द्रियः॥
सजलं भाजनं स्थाप्यं मृत्तिकां च परीक्षिताम्।
परीक्ष्य भूमिं मूत्रार्थी तत आसीत वाग्यतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन और इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले पुरुषको चाहिये कि वह निर्जन एवं घिरे हुए स्थानको देखकर वहाँ सजल पात्र और देख-भाल कर ली हुई मृत्तिका रखे। फिर उस भूमिका भलीभाँति निरीक्षण करके मौन होकर मूत्र-त्यागके लिये बैठे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदङ्‌मुखो दिवा कुर्याद् रात्रौ चेद् दक्षिणामुखः।
अन्तर्हितायां भूमौ तु अन्तर्हितशिरास्तथा॥

मूलम्

उदङ्‌मुखो दिवा कुर्याद् रात्रौ चेद् दक्षिणामुखः।
अन्तर्हितायां भूमौ तु अन्तर्हितशिरास्तथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि दिन हो तो उत्तरकी ओर मुँह करके और रात हो तो दक्षिणाभिमुख होकर मल या मूत्रका त्याग करे। मल त्याग करनेके पूर्व उस समय भूमिको तिनके आदिसे ढके रखना चाहिये तथा अपने मस्तकको भी वस्त्रसे आच्छादित किये रहना उचित है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असमाप्ते तथा शौचे न वाचं किंचिदीरयेत्।
कृतकृत्यस्तथाऽऽचम्य गच्छन्नोदीरयेद् वचः ॥

मूलम्

असमाप्ते तथा शौचे न वाचं किंचिदीरयेत्।
कृतकृत्यस्तथाऽऽचम्य गच्छन्नोदीरयेद् वचः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक शौच-कर्म समाप्त न हो जाय तबतक मुँहसे कुछ न बोले, अर्थात् मौन रहे। शौच-कर्म पूरा करके भी आचमनके अनन्तर जाते समय मौन ही रहे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शौचार्थमुपतिष्ठंस्तु मृद्‌भाजनपुरस्कृतः ।
स्थाप्यं कमण्डलुं गृह्य पार्श्वोरुभ्यामथान्तरे॥
शौचं कुर्याच्छनैर्धीरो बुद्धिपूर्वमसंकरम् ।

मूलम्

शौचार्थमुपतिष्ठंस्तु मृद्‌भाजनपुरस्कृतः ।
स्थाप्यं कमण्डलुं गृह्य पार्श्वोरुभ्यामथान्तरे॥
शौचं कुर्याच्छनैर्धीरो बुद्धिपूर्वमसंकरम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

शौचके लिये बैठा हुआ पुरुष अपने सामने मृत्तिका और जलपात्र रखे। धीर पुरुष कमण्डलुको हाथमें लिये हुए दाहिने पार्श्व और ऊरुके मध्यदेशमें रखे और सावधानीके साथ धीरे-धीरे मूत्र-त्याग करे, जिससे अपने किसी अंगपर उसका छींटा न पड़े॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाणिना शुद्धमुदकं संगृह्य विधिपूर्वकम्॥
विप्रुषश्च यथा न स्युर्यथा चोरू न संस्पृशेत्।

मूलम्

पाणिना शुद्धमुदकं संगृह्य विधिपूर्वकम्॥
विप्रुषश्च यथा न स्युर्यथा चोरू न संस्पृशेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् हाथसे विधिपूर्वक शुद्ध जल लेकर मूत्रस्थान (उपस्थ) को ऐसी सावधानीके साथ धोये, जिससे उसमें मूत्रकी बूँदें न लगी रह जायँ तथा अशुद्ध हाथसे दोनों जाँघोंका भी स्पर्श न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपाने मृत्तिकास्तिस्रः प्रदेयास्त्वनुपूर्वशः ॥
यथा घातो हि न भवेत् क्लेदजः परिधानके।

मूलम्

अपाने मृत्तिकास्तिस्रः प्रदेयास्त्वनुपूर्वशः ॥
यथा घातो हि न भवेत् क्लेदजः परिधानके।

अनुवाद (हिन्दी)

यदि मल त्याग किया गया हो तो गुदाभागको धोते समय उसमें क्रमशः तीन बार मिट्‌टी लगाये। गुदाको शुद्ध करनेके लिये बारंबार इस प्रकार धोना चाहिये कि जलका आघात कपड़ेमें न लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सव्ये द्वादश देयाः स्युस्तिस्रस्तिस्रः पुनः पुनः।

मूलम्

सव्ये द्वादश देयाः स्युस्तिस्रस्तिस्रः पुनः पुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् बायें हाथमें बारह बार और दाहिनेमें कई बार तीन-तीन बार मिट्‌टी लगावे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मलोपहतचैलस्य द्विगुणं तु विधीयते॥
सहपादमथोरुभ्यां हस्तशौचमसंशयम् ।

मूलम्

मलोपहतचैलस्य द्विगुणं तु विधीयते॥
सहपादमथोरुभ्यां हस्तशौचमसंशयम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका कपड़ा मलसे दूषित हो गया है ऐसे पुरुषके लिये द्विगुण शौचका विधान है। उसे दोनों पैरों, दोनों जाँघों और दोनों हाथोंकी विशेष शुद्धि अवश्य करनी चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवधीरयमाणस्य संदेह उपजायते ।
यथा यथा विशुद्‌ध्येत तत् तथा तदुपक्रमेत्॥

मूलम्

अवधीरयमाणस्य संदेह उपजायते ।
यथा यथा विशुद्‌ध्येत तत् तथा तदुपक्रमेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौचका पालन न करनेसे शरीर-शुद्धिके विषयमें संदेह बना रहता है। अतः जिस-जिस प्रकारसे शरीर-शुद्धि हो वैसे-ही-वैसे कार्य करनेकी चेष्टा करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षारौषराभ्यां वस्त्रस्य कुर्याच्छौचं मृदा सह॥
लेपगन्धापनयनममेध्यस्य विधीयते ।

मूलम्

क्षारौषराभ्यां वस्त्रस्य कुर्याच्छौचं मृदा सह॥
लेपगन्धापनयनममेध्यस्य विधीयते ।

अनुवाद (हिन्दी)

मिट्‌टीके साथ क्षार और रेह मिलाकर उसके द्वारा वस्त्रकी शुद्धि करनी चाहिये। जिसमें कोई अपवित्र वस्तु लग गयी हो उस वस्त्रसे उस वस्तुका लेप मिट जाय और उसकी दुर्गन्ध दूर हो जाय, ऐसी शुद्धिका सम्पादन आवश्यक होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देयाश्चतस्रस्तिस्रो वा द्वे वाप्येकां तथाऽऽपदि॥
कालमासाद्य देशं च शौचस्य गुरुलाघवम्।

मूलम्

देयाश्चतस्रस्तिस्रो वा द्वे वाप्येकां तथाऽऽपदि॥
कालमासाद्य देशं च शौचस्य गुरुलाघवम्।

अनुवाद (हिन्दी)

आपत्तिकालमें चार, तीन, दो अथवा एक बार मृत्तिका लगानी चाहिये। देश और कालके अनुसार शौचाचारमें गौरव अथवा लाघव किया जा सकता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधिनानेन शौचं तु नित्यं कुर्यादतन्द्रितः॥
अविप्रेक्षन्नसम्भ्रान्तः पादौ प्रक्षाल्य तत्परः।

मूलम्

विधिनानेन शौचं तु नित्यं कुर्यादतन्द्रितः॥
अविप्रेक्षन्नसम्भ्रान्तः पादौ प्रक्षाल्य तत्परः।

अनुवाद (हिन्दी)

इस विधिसे प्रतिदिन आलस्यका परित्याग करके शौच (शुद्धि) का सम्पादन करे तथा शुद्धिका सम्पादन करनेवाला पुरुष दोनों पैरोंको धोकर इधर-उधर दृष्टि न डालता हुआ बिना किसी घबराहटके चला जाय॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुप्रक्षालितपादस्तु पाणिमामणिबन्धनात् ॥
अधस्तादुपरिष्टाच्च ततः पाणिमुपस्पृशेत् ।

मूलम्

सुप्रक्षालितपादस्तु पाणिमामणिबन्धनात् ॥
अधस्तादुपरिष्टाच्च ततः पाणिमुपस्पृशेत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

पहले पैरोंको भलीभाँति धोकर फिर कलाईसे लेकर समूचे हाथको ऊपरसे नीचेतक धो डाले। इसके बाद हाथमें जल लेकर आचमन करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनोगतास्तु निश्शब्दा निश्शब्दं त्रिरपः पिबेत्॥
द्विर्मुखं परिमृज्याच्च खानि चोपस्पृशेद् बुधः।

मूलम्

मनोगतास्तु निश्शब्दा निश्शब्दं त्रिरपः पिबेत्॥
द्विर्मुखं परिमृज्याच्च खानि चोपस्पृशेद् बुधः।

अनुवाद (हिन्दी)

आचमनके समय मौन होकर तीन बार जल पीये। उस जलमें किसी प्रकारकी आवाज न हो तथा आचमनके पश्चात् वह जल हृदयतक पहुँचे। विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह अंगूठेके मूलभागसे दो बार मुँह पोंछे। इसके बाद इन्द्रियोंके छिद्रोंका स्पर्श करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋग्वेदं तेन प्रीणाति प्रथमं यः पिबेदपः।
द्वितीयं च यजुर्वेदं तृतीयं साम एव च॥

मूलम्

ऋग्वेदं तेन प्रीणाति प्रथमं यः पिबेदपः।
द्वितीयं च यजुर्वेदं तृतीयं साम एव च॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह प्रथम बार जो जल पीता है, उससे ऋग्वेदको तृप्त करता है, द्वितीय बारका जल यजुर्वेदको और तृतीय बारका जल सामवेदको तृप्त करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृज्यते प्रथमं तेन अथर्वा प्रीतिमाप्नुयात्॥
द्वितीयेनेतिहासं च पुराणस्मृतिदेवताः ।

मूलम्

मृज्यते प्रथमं तेन अथर्वा प्रीतिमाप्नुयात्॥
द्वितीयेनेतिहासं च पुराणस्मृतिदेवताः ।

अनुवाद (हिन्दी)

पहली बार जो मुखका मार्जन किया जाता है, उससे अथर्ववेद तृप्त होता है और द्वितीय बारके मार्जनसे इतिहास-पुराण एवं स्मृतियोंके अधिष्ठाता देवता सन्तुष्ट होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्चक्षुषि समाधत्ते तेनादित्यं तु प्रीणयेत्॥
प्रीणाति वायुं घ्राणं च दिशश्चाप्यथ श्रोत्रयोः।

मूलम्

यच्चक्षुषि समाधत्ते तेनादित्यं तु प्रीणयेत्॥
प्रीणाति वायुं घ्राणं च दिशश्चाप्यथ श्रोत्रयोः।

अनुवाद (हिन्दी)

मुखमार्जनके पश्चात् द्विज जो अंगुलियोंसे नेत्रोंका स्पर्श करता है, उसके द्वारा वह सूर्यदेवको तृप्त करता है। नासिकाके स्पर्शसे वायुको और दोनों कानोंके स्पर्शसे वह दिशाओंको संतुष्ट करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्माणं तेन प्रीणाति यन्मूर्धनि समालभेत्॥
समुत्क्षिपति चापोर्ध्वमाकाशं तेन प्रीणयेत्।

मूलम्

ब्रह्माणं तेन प्रीणाति यन्मूर्धनि समालभेत्॥
समुत्क्षिपति चापोर्ध्वमाकाशं तेन प्रीणयेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

आचमन करनेवाला पुरुष अपने मस्तकपर जो हाथ रखता है, उसके द्वारा वह ब्रह्माजीको तृप्त करता है और ऊपरकी ओर जो जल फेंकता है, उसके द्वारा वह आकाशके अधिष्ठाता देवताको संतुष्ट करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीणाति विष्णुः पद्‌भ्यां तु सलिलं वै समादधत्॥
प्राङ्‌मुखोदङ्‌मुखो वापि अन्तर्जानुरुपस्मृशेत् ।
सर्वत्र विधिरित्येष भोजनादिषु नित्यशः॥

मूलम्

प्रीणाति विष्णुः पद्‌भ्यां तु सलिलं वै समादधत्॥
प्राङ्‌मुखोदङ्‌मुखो वापि अन्तर्जानुरुपस्मृशेत् ।
सर्वत्र विधिरित्येष भोजनादिषु नित्यशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह अपने दोनों पैरोंपर जो जल डालता है, इससे भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं। आचमन करनेवाला पुरुष पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके अपने हाथको घुटनेके भीतर रखकर जलका स्पर्श करे। भोजन आदि सभी अवसरोंपर सदा आचमन करनेकी यही विधि है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्नेषु दन्तलग्नेषु उच्छिष्टः पुनराचमेत्।
विधिरेष समुद्दिष्टः शौचे चाभ्युक्षणं स्मृतम्॥

मूलम्

अन्नेषु दन्तलग्नेषु उच्छिष्टः पुनराचमेत्।
विधिरेष समुद्दिष्टः शौचे चाभ्युक्षणं स्मृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि दाँतोंमें अन्न लगा हो तो अपनेको जूठा मानकर पुनः आचमन करे, यह शौचाचारकी विधि बतायी गयी। किसी वस्तुकी शुद्धिके लिये उसपर जल छिड़कना भी कर्तव्य माना गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

‌शूद्रस्यैष विधिर्दृष्टो गृहान्निष्क्रमतः सतः।
नित्यं चालुप्तशौचेन वर्तितव्यं कृतात्मना॥
यशस्कामेन भिक्षुभ्यः शूद्रेणात्महितार्थिना ॥

मूलम्

‌शूद्रस्यैष विधिर्दृष्टो गृहान्निष्क्रमतः सतः।
नित्यं चालुप्तशौचेन वर्तितव्यं कृतात्मना॥
यशस्कामेन भिक्षुभ्यः शूद्रेणात्महितार्थिना ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(साधु-सेवाके उद्देश्यसे) घरसे निकलते समय शूद्रके लिये भी यह शौचाचारकी विधि देखी गयी है। जिसने मनको वशमें किया है तथा जो अपने हितकी इच्छा रखता है, ऐसे सुयशकामी शूद्रको चाहिये कि वह सदा शौचाचारसे सम्पन्न होकर ही संन्यासियोंके निकट जाय और उनकी सेवा आदिका कार्य करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रा आरम्भयज्ञास्तु हविर्यज्ञा विशः स्मृताः।
शूद्राः परिचारयज्ञा जपयज्ञास्तु ब्राह्मणाः॥

मूलम्

क्षत्रा आरम्भयज्ञास्तु हविर्यज्ञा विशः स्मृताः।
शूद्राः परिचारयज्ञा जपयज्ञास्तु ब्राह्मणाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रिय आस्मभ (उत्साह) रूप यज्ञ करनेवाले होते हैं। वैश्योंके यज्ञमें हविष्य (हवनीय पदार्थ) की प्रधानता होती है, शूद्रोंका यज्ञ सेवा ही है, तथा ब्राह्मण जपरूपी यज्ञ करनेवाले होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुश्रूषाजीविनः शूद्रा वैश्या विपणजीविनः।
अनिष्टनिग्रहाः क्षत्रा विप्राः स्वाध्यायजीविनः॥

मूलम्

शुश्रूषाजीविनः शूद्रा वैश्या विपणजीविनः।
अनिष्टनिग्रहाः क्षत्रा विप्राः स्वाध्यायजीविनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूद्र सेवासे जीवननिर्वाह करनेवाले होते हैं, वैश्य व्यापारजीवी हैं, दुष्टोंका दमन करना क्षत्रियोंकी जीवनवृत्ति है और ब्राह्मण वेदोंके स्वाध्यायसे जीवन-निर्वाह करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपसा शोभते विप्रो राजन्यः पालनादिभिः।
आतिथ्येन तथा वैश्यः शूद्रो दास्येन शोभते॥

मूलम्

तपसा शोभते विप्रो राजन्यः पालनादिभिः।
आतिथ्येन तथा वैश्यः शूद्रो दास्येन शोभते॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि ब्राह्मण तपस्यासे, क्षत्रिय पालन आदिसे, वैश्य अतिथि-सत्कारसे और शूद्र सेवावृतिसे शोभा पाते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतात्मना तु शूद्रेण शुश्रूषा नित्यमेव तु।
कर्तव्या त्रिषु वर्णेषु प्रायेणाश्रमवासिषु॥

मूलम्

यतात्मना तु शूद्रेण शुश्रूषा नित्यमेव तु।
कर्तव्या त्रिषु वर्णेषु प्रायेणाश्रमवासिषु॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने मनको वशमें रखनेवाले शूद्रको सदा ही तीनों वर्णोंकी विशेषतः आश्रमवासियोंकी सेवा करनी चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशक्तेन त्रिवर्णस्य सेव्या ह्याश्रमवासिनः।
यथाशक्ति यथाप्रज्ञं यथाधर्मं यथाश्रुतम्॥
विशेषेणैव कर्तव्या शुश्रूषा भिक्षुकाश्रमे॥

मूलम्

अशक्तेन त्रिवर्णस्य सेव्या ह्याश्रमवासिनः।
यथाशक्ति यथाप्रज्ञं यथाधर्मं यथाश्रुतम्॥
विशेषेणैव कर्तव्या शुश्रूषा भिक्षुकाश्रमे॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रिवर्णकी सेवामें अशक्त हुए शूद्रको अपनी शक्ति, बुद्धि, धर्म तथा शास्त्रज्ञानके अनुसार आश्रमवासियोंकी सेवा करनी चाहिये। विशेषतः संन्यास-आश्रममें रहनेवाले भिक्षुकी सेवा उसके लिये परम कर्तव्य है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्रमाणां तु सर्वेषां चतुर्णां भिक्षुकाश्रमम्।
प्रधानमिति मन्यन्ते शिष्टाः शास्त्रविनिश्चये॥

मूलम्

आश्रमाणां तु सर्वेषां चतुर्णां भिक्षुकाश्रमम्।
प्रधानमिति मन्यन्ते शिष्टाः शास्त्रविनिश्चये॥

अनुवाद (हिन्दी)

शास्त्रोंके सिद्धान्त-ज्ञानमें निपुण शिष्ट पुरुष चारों आश्रमोंमें संन्यासको ही प्रधान मानते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्चोपदिश्यते शिष्टैः श्रुतिस्मृतिविधानतः ।
तथाऽऽस्थेयमशक्तेन स धर्म इति निश्चितः॥

मूलम्

यच्चोपदिश्यते शिष्टैः श्रुतिस्मृतिविधानतः ।
तथाऽऽस्थेयमशक्तेन स धर्म इति निश्चितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिष्ट पुरुष वेदों और स्मृतियोंके विधानके अनुसार जिस कर्तव्यका उपदेश करें असमर्थ पुरुषको उसीका अनुष्ठान करना चाहिये। उसके लिये वही धर्म निश्चित किया गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतोऽन्यथा तु कुर्वाणः श्रेयो नाप्नोति मानवः।
तस्माद् भिक्षुषु शूद्रेण कार्यमात्महितं सदा॥

मूलम्

अतोऽन्यथा तु कुर्वाणः श्रेयो नाप्नोति मानवः।
तस्माद् भिक्षुषु शूद्रेण कार्यमात्महितं सदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके विपरीत करनेवाला मानव कल्याणका भागी नहीं होता है, अतः शूद्रको संन्यासियोंकी सेवा करके सदा अपना कल्याण करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इह यत् कुरुते श्रेयस्तत् प्रेत्य समुपाश्नुते।
तच्चानसूयता कार्यं कर्तव्यं यद्धि मन्यते॥
असूयता कृतस्येह फलं दुःखादवाप्यते॥

मूलम्

इह यत् कुरुते श्रेयस्तत् प्रेत्य समुपाश्नुते।
तच्चानसूयता कार्यं कर्तव्यं यद्धि मन्यते॥
असूयता कृतस्येह फलं दुःखादवाप्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य इस लोकमें जो कल्याणकारी कार्य करता है, उसका फल मुत्युके पश्चात् उसे प्राप्त होता है। जिसे वह अपना कर्तव्य समझता है, उस कार्यको वह दोषदृष्टि न रखते हुए करे। दोषदृष्टि रखते हुए जो कार्य किया जाता है, उसका फल इस जगत्‌में बड़े दुःखसे प्राप्त होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियवादी जितक्रोधो वीततन्द्रिरमत्सरः ।
क्षमावान् शीलसम्पन्नः सत्यधर्मपरायणः ॥
आपद्‌भावेन कुर्याद्धि शुश्रूषां भिक्षुकाश्रमे॥

मूलम्

प्रियवादी जितक्रोधो वीततन्द्रिरमत्सरः ।
क्षमावान् शीलसम्पन्नः सत्यधर्मपरायणः ॥
आपद्‌भावेन कुर्याद्धि शुश्रूषां भिक्षुकाश्रमे॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूद्रको चाहिये कि वह प्रिय वचन बोले, क्रोधको जीते, आलस्य दूर भगा दे, ईर्ष्या-द्वेषसे रहित हो जाय, क्षमाशील, शीलवान् तथा सत्यधर्ममें तत्पर रहे। आपत्तिकालमें वह संन्यासियोंके आश्रममें (जाकर) उनकी सेवा करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं मे परमो धर्मस्त्वनेनेदं सुदुस्तरम्।
संसारसागरं घोरं तरिष्यामि न संशयः॥
निर्भयो देहमुत्सृज्य यास्यामि परमां गतिम्।
नातः परं ममास्त्यन्य एष धर्मः सनातनः॥
एवं संचिन्त्य मनसा शूद्रो बुद्धिसमाधिना।
कुर्यादविमना नित्यं शुश्रूषाधर्ममुत्तमम् ॥

मूलम्

अयं मे परमो धर्मस्त्वनेनेदं सुदुस्तरम्।
संसारसागरं घोरं तरिष्यामि न संशयः॥
निर्भयो देहमुत्सृज्य यास्यामि परमां गतिम्।
नातः परं ममास्त्यन्य एष धर्मः सनातनः॥
एवं संचिन्त्य मनसा शूद्रो बुद्धिसमाधिना।
कुर्यादविमना नित्यं शुश्रूषाधर्ममुत्तमम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यही मेरा परम धर्म है, इसीके द्वारा मैं इस अत्यन्त दुस्तर घोर संसार-सागरसे पार हो जाऊँगा। इसमें संशय नहीं है। मैं निर्भय होकर इस देहका त्याग करके परमगतिको प्राप्त हो जाऊँगा। इससे बढ़कर मेरे लिये दूसरा कोई कर्तव्य नहीं है। यही सनातन धर्म है।’ मन-ही-मन ऐसा विचार करके प्रसन्नचित्त हुआ शूद्र बुद्धिको एकाग्र करके सदा उत्तम शुश्रूषा-धर्मका पालन करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुश्रूषानियमेनेह भाव्यं शिष्टाशिना सदा।
शमान्वितेन दान्तेन कार्याकार्यविदा सदा॥

मूलम्

शुश्रूषानियमेनेह भाव्यं शिष्टाशिना सदा।
शमान्वितेन दान्तेन कार्याकार्यविदा सदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूद्रको चाहिये कि वह नियमपूर्वक सेवामें तत्पर रहे, सदा यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करे। मन और इन्द्रियोंको वशमें रखे और सदा कर्तव्याकर्तव्यको जाने॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वकार्येषु कृत्यानि कृतान्येव च दर्शयेत्।
यथा प्रीतो भवेद् भिक्षुस्तथा कार्यं प्रसाधयेत्॥
यदकल्पं भवेद् भिक्षोर्न तत् कार्यं समाचरेत्।

मूलम्

सर्वकार्येषु कृत्यानि कृतान्येव च दर्शयेत्।
यथा प्रीतो भवेद् भिक्षुस्तथा कार्यं प्रसाधयेत्॥
यदकल्पं भवेद् भिक्षोर्न तत् कार्यं समाचरेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

सभी कार्योंमें जो आवश्यक कृत्य हों, उन्हें करके ही दिखावे। जैसे-जैसे संन्यासीको प्रसन्नता हो, उसी प्रकार उसका कार्य साधन करे। जो कार्य संन्यासीके लिये हितकर न हो, उसे कदापि न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदाश्रमस्याविरुद्धं धर्ममात्राभिसंहितम् ॥
तत् कार्यमविचारेण नित्यमेव शुभार्थिना।

मूलम्

यदाश्रमस्याविरुद्धं धर्ममात्राभिसंहितम् ॥
तत् कार्यमविचारेण नित्यमेव शुभार्थिना।

अनुवाद (हिन्दी)

जो कार्य संन्यास-आश्रमके विरुद्ध न हो तथा जो धर्मके अनुकूल हो, शुभकी इच्छा रखनेवाले शूद्रको वह कार्य सदा बिना विचारे ही करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसा कर्मणा वाचा नित्यमेव प्रसादयेत्॥
स्थातव्यं तिष्ठमानेषु गच्छमानाननुव्रजेत् ।
आसीनेष्वासितव्यं च नित्यमेवानुवर्तिना ॥

मूलम्

मनसा कर्मणा वाचा नित्यमेव प्रसादयेत्॥
स्थातव्यं तिष्ठमानेषु गच्छमानाननुव्रजेत् ।
आसीनेष्वासितव्यं च नित्यमेवानुवर्तिना ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन, वाणी और क्रियाद्वारा सदा ही उन्हें संतुष्ट रखे। जब वे संन्यासी खड़े हों, तब सेवा करनेवाले शूद्रको स्वयं भी खड़ा रहना चाहिये तथा जब वे कहीं जा रहे हों, तब उसे स्वयं भी उनके पीछे-पीछे जाना चाहिये। यदि वे आसनपर बैठे हों तब वह स्वयं भी भूमिपर बैठे। तात्पर्य यह कि सदा ही उनका अनुसरण करता रहे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैशकार्याणि कृत्वा तु नित्यं चैवानुचोदितः।
यथाविधिरुपस्पृश्य संन्यस्य जलभाजनम् ॥
भिक्षूणां निलयं गत्वा प्रणम्य विधिपूर्वकम्।
ब्रह्मपूर्वान् गुरूंस्तत्र प्रणम्य नियतेन्द्रियः॥
तथाऽऽचार्यपुरोगाणामनुकुर्यान्नमस्क्रियाम् ।
स्वधर्मचारिणां चापि सुखं पृष्ट्‌वाभिवाद्य च॥
यो भवेत् पूर्वसंसिद्धस्तुल्यधर्मा भवेत् सदा।
तस्मै प्रणामः कर्तव्यो नेतरेषां कदाचन॥

मूलम्

नैशकार्याणि कृत्वा तु नित्यं चैवानुचोदितः।
यथाविधिरुपस्पृश्य संन्यस्य जलभाजनम् ॥
भिक्षूणां निलयं गत्वा प्रणम्य विधिपूर्वकम्।
ब्रह्मपूर्वान् गुरूंस्तत्र प्रणम्य नियतेन्द्रियः॥
तथाऽऽचार्यपुरोगाणामनुकुर्यान्नमस्क्रियाम् ।
स्वधर्मचारिणां चापि सुखं पृष्ट्‌वाभिवाद्य च॥
यो भवेत् पूर्वसंसिद्धस्तुल्यधर्मा भवेत् सदा।
तस्मै प्रणामः कर्तव्यो नेतरेषां कदाचन॥

अनुवाद (हिन्दी)

रात्रिके कार्य पूरे करके प्रतिदिन उनसे आज्ञा लेकर विधिपूर्वक स्नान करके उनके लिये जलसे भरा हुआ कलश ले आकर रखे। फिर संन्यासियोंके स्थानपर जाकर उन्हें विधिपूर्वक प्रणाम करके इन्द्रियोंको संयममें रखकर ब्राह्मण आदि गुरुजनोंको प्रणाम करे। इसी प्रकार स्वधर्मका अनुष्ठान करनेवाले आचार्य आदिको नमस्कार एवं अभिवादन करे। उनका कुशल-समाचार पूछे। पहलेके जो शूद्र आश्रमके कार्यमें सिद्धहस्त हों, उनका स्वयं भी सदा अनुकरण करे, उनके समान कार्यपरायण हो। अपने समानधर्मा शूद्रको प्रणाम करे, दूसरे शूद्रोंको कदापि नहीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुक्त्वा तेषु चोत्थाय नित्यमेव यतव्रतः।
सम्मार्जनमथो कृत्वा कृत्वा चाप्युपलेपनम्॥

मूलम्

अनुक्त्वा तेषु चोत्थाय नित्यमेव यतव्रतः।
सम्मार्जनमथो कृत्वा कृत्वा चाप्युपलेपनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

संन्यासियों अथवा आश्रमके दूसरे व्यक्तियोंको कहे बिना ही प्रतिदिन नियमपूर्वक उठे और झाड़ू देकर आश्रमकी भूमिको लीप-पोत दे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पुष्पबलिं दद्यात् पुष्पाण्यादाय धर्मतः।
निष्क्रम्यावसथात् तूर्णमन्यत् कर्म समाचरेत्॥

मूलम्

ततः पुष्पबलिं दद्यात् पुष्पाण्यादाय धर्मतः।
निष्क्रम्यावसथात् तूर्णमन्यत् कर्म समाचरेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् धर्मके अनुसार फूलोंका संग्रह करके पूजनीय देवताओंकी उन फूलोंद्वारा पूजा करे। इसके बाद आश्रमसे निकलकर तुरंत ही दूसरे कार्यमें लग जाय॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोपघातो न भवेत् स्वाध्यायेऽऽश्रमिणां तथा।
उपघातं तु कुर्वाण एनसा सम्प्रयुज्यते॥

मूलम्

यथोपघातो न भवेत् स्वाध्यायेऽऽश्रमिणां तथा।
उपघातं तु कुर्वाण एनसा सम्प्रयुज्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

आश्रमवासियोंके स्वाध्यायमें विघ्न न पड़े, इसके लिये सदा सचेष्ट रहे। जो स्वाध्यायमें विघ्न डालता है, वह पापका भागी होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथाऽऽत्मा प्रणिधातव्यो यथा ते प्रीतिमाप्नुयुः।
परिचारिकोऽहं वर्णानां त्रयाणां धर्मतः स्मृतः॥
किमुताश्रमवृद्धानां यथालब्धोपजीविनाम् ॥

मूलम्

तथाऽऽत्मा प्रणिधातव्यो यथा ते प्रीतिमाप्नुयुः।
परिचारिकोऽहं वर्णानां त्रयाणां धर्मतः स्मृतः॥
किमुताश्रमवृद्धानां यथालब्धोपजीविनाम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने-आपको इस प्रकार सावधानीके साथ सेवामें लगाये रखना चाहिये, जिससे वे साधु पुरुष प्रसन्न हों। शूद्रको सदा इस प्रकार विचार करना चाहिये कि ‘मैं तो शास्त्रोंमें धर्मतः तीनों वर्णोंका सेवक बताया गया हूँ। फिर जो संन्यास-आश्रममें रहकर जो कुछ मिल जाय, उसीसे निर्वाह करनेवाले बड़े-बूढ़े संन्यासी हैं, उनकी सेवाके विषयमें तो कहना ही क्या है? (उनकी सेवा करना तो मेरा परम धर्म है ही)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भिक्षूणां गतरागाणां केवलं ज्ञानदर्शिनाम्।
विशेषेण मया कार्या शुश्रूषा नियतात्मना॥

मूलम्

भिक्षूणां गतरागाणां केवलं ज्ञानदर्शिनाम्।
विशेषेण मया कार्या शुश्रूषा नियतात्मना॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो केवल ज्ञानदर्शी, वीतराग संन्यासी हैं, उनकी सेवा मुझे विशेषरूपसे मनको वशमें रखते हुए करनी चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां प्रसादात् तपसा प्राप्स्यामीष्टां शुभां गतिम्॥
एवमेतद् विनिश्चित्य यदि सेवेत भिक्षुकान्।
विधिना यथोपदिष्टेन प्राप्नोति परमां गतिम्॥

मूलम्

तेषां प्रसादात् तपसा प्राप्स्यामीष्टां शुभां गतिम्॥
एवमेतद् विनिश्चित्य यदि सेवेत भिक्षुकान्।
विधिना यथोपदिष्टेन प्राप्नोति परमां गतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उनकी कृपा और तपस्यासे मैं मनोवांछित शुभगति प्राप्त कर लूँगा।’ ऐसा निश्चय करके यदि शूद्र पूर्वोक्त विधिसे संन्यासियोंका सेवन करे तो परम गतिको प्राप्त होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तथा सम्प्रदानेन नोपवासादिभिस्तथा।
इष्टां गतिमवाप्नोति यथा शुश्रूषकर्मणा॥

मूलम्

न तथा सम्प्रदानेन नोपवासादिभिस्तथा।
इष्टां गतिमवाप्नोति यथा शुश्रूषकर्मणा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूद्र सेवाकर्मसे जिस मनोवांछित गतिको प्राप्त कर लेता है, वैसी गति दान तथा उपवास आदिके द्वारा भी नहीं प्राप्त कर सकता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यादृशेन तु तोयेन शुद्धिं प्रकुरुते नरः।
तादृग् भवति तद्धौतमुदकस्य स्वभावतः॥

मूलम्

यादृशेन तु तोयेन शुद्धिं प्रकुरुते नरः।
तादृग् भवति तद्धौतमुदकस्य स्वभावतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य जैसे जलसे कपड़ा धोता है, उस जलकी स्वच्छताके अनुसार ही वह वस्त्र स्वच्छ होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूद्रोऽप्येतेन मार्गेण यादृशं सेवते जनम्।
तादृग् भवति संसर्गादचिरेण न संशयः॥

मूलम्

शूद्रोऽप्येतेन मार्गेण यादृशं सेवते जनम्।
तादृग् भवति संसर्गादचिरेण न संशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूद्र भी इसी मार्गसे चलकर जैसे पुरुषका सेवन करता है, संसर्गवश वह शीघ्र वैसा हो जाता है, इसमें संशय नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् प्रयत्नतः सेव्या भिक्षवो नियतात्मना।

मूलम्

तस्मात् प्रयत्नतः सेव्या भिक्षवो नियतात्मना।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः शूद्रको चाहिये कि अपने मनको वशमें करके प्रयत्नपूर्वक संन्यासियोंकी सेवा करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्वना कर्शितानां च व्याधितानां तथैव च॥
शुश्रूषां नियतः कुर्यात् तेषामापदि यत्नतः।

मूलम्

अध्वना कर्शितानां च व्याधितानां तथैव च॥
शुश्रूषां नियतः कुर्यात् तेषामापदि यत्नतः।

अनुवाद (हिन्दी)

जो राह चलनेसे थके-माँदे कष्ट पा रहे हों तथा रोगसे पीड़ित हों, उन संन्यासियोंकी उस आपत्तिके समय यत्न और नियमके साथ विशेष सेवा करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दर्भाजिनान्यवेक्षेत भैक्षभाजनमेव च ॥
यथाकामं च कार्याणि सर्वाण्येवोपसाधयेत्।

मूलम्

दर्भाजिनान्यवेक्षेत भैक्षभाजनमेव च ॥
यथाकामं च कार्याणि सर्वाण्येवोपसाधयेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

उनके कुशासन, मृगचर्म और भिक्षापात्रकी भी देखभाल करे तथा उनकी रुचिके अनुसार सारा कार्य करता रहे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रायश्चित्तं यथा न स्यात् तथा सर्वं समाचरेत्॥
व्याधितानां तु प्रयतः चैलप्रक्षालनादिभिः।
प्रतिकर्मक्रिया कार्या भेषजानयनैस्तथा ।

मूलम्

प्रायश्चित्तं यथा न स्यात् तथा सर्वं समाचरेत्॥
व्याधितानां तु प्रयतः चैलप्रक्षालनादिभिः।
प्रतिकर्मक्रिया कार्या भेषजानयनैस्तथा ।

अनुवाद (हिन्दी)

सब कार्य इस प्रकार सावधानीसे करे, जिससे कोई अपराध न बनने पावे। संन्यासी यदि रोगग्रस्त हो जायँ तो सदा उद्यत रहकर उनके कपड़े धोवे। उनके लिये ओषधि ले आवे तथा उनकी चिकित्साके लिये प्रयत्न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भिक्षाटनोऽभिगच्छेत भिषजश्च विपश्चितः ।
ततो विनिष्क्रियार्थानि द्रव्याणि समुपार्जयेत्॥

मूलम्

भिक्षाटनोऽभिगच्छेत भिषजश्च विपश्चितः ।
ततो विनिष्क्रियार्थानि द्रव्याणि समुपार्जयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भिक्षुक बीमार होनेपर भी भिक्षाटनके लिये जाय। विद्वान् चिकित्सकोंके यहाँ उपस्थित हो तथा रोग-निवारणके लिये उपयुक्त विशुद्ध ओषधियोंका संग्रह करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्च प्रीतमना दद्यादादद्याद् भेषजं नरः।
अश्रद्धया हि दत्तानि तान्यभोज्याणि भिक्षुभिः॥

मूलम्

यश्च प्रीतमना दद्यादादद्याद् भेषजं नरः।
अश्रद्धया हि दत्तानि तान्यभोज्याणि भिक्षुभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो चिकित्सक प्रसन्नतापूर्वक ओषधि दे, उसीसे संन्यासीको औषध लेना चाहिये। अश्रद्धापूर्वक दी हुई ओषधियोंको संन्यासी अपने उपयोगमें न ले॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रद्धया यदुपादत्तं श्रद्धया चोपपादितम्।
तस्योपभोगाद् धर्मः स्याद् व्याधिभिश्च निवर्त्यते॥

मूलम्

श्रद्धया यदुपादत्तं श्रद्धया चोपपादितम्।
तस्योपभोगाद् धर्मः स्याद् व्याधिभिश्च निवर्त्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो श्रद्धापूर्वक दी गयी और श्रद्धासे ही ग्रहण की गयी हो, उसी ओषधिके सेवनसे धर्म होता है और रोगोंसे छुटकारा भी मिलता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदेहपतनादेवं शुश्रूषेद् विधिपूर्वकम् ।
न त्वेव धर्ममुत्सृज्य कुर्यात् तेषां प्रतिक्रियाम्॥

मूलम्

आदेहपतनादेवं शुश्रूषेद् विधिपूर्वकम् ।
न त्वेव धर्ममुत्सृज्य कुर्यात् तेषां प्रतिक्रियाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूद्रको चाहिये कि जबतक यह शरीर छूट न जाय तबतक इसी प्रकार विधिपूर्वक सेवा करता रहे। धर्मका उल्लंघन करके उन साधु-संन्यासियोंके प्रति विपरीत आचरण न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वभावतो हि द्वन्द्वानि विप्रयान्त्युपयान्ति च।
स्वभावतः सर्वभावा भवन्ति न भवन्ति च॥
सागरस्योर्मिसदृशा विज्ञातव्या गुणात्मकाः ।

मूलम्

स्वभावतो हि द्वन्द्वानि विप्रयान्त्युपयान्ति च।
स्वभावतः सर्वभावा भवन्ति न भवन्ति च॥
सागरस्योर्मिसदृशा विज्ञातव्या गुणात्मकाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

शीत-उष्ण आदि सारे द्वन्द्व स्वभावसे ही आते-जाते रहते हैं, समस्त पदार्थ स्वभावसे ही उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं। सारे त्रिगुणमय पदार्थ समुद्रकी लहरोंके समान उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्यादेवं हि यो धीमांस्तत्त्ववित् तत्त्वदर्शनः॥
न स लिप्येत पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।

मूलम्

विद्यादेवं हि यो धीमांस्तत्त्ववित् तत्त्वदर्शनः॥
न स लिप्येत पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।

अनुवाद (हिन्दी)

जो बुद्धिमान् एवं तत्त्वज्ञ पुरुष ऐसा जानता है, वह जलसे निर्लिप्त रहनेवाले पद्मपत्रके समान पापसे लिप्त नहीं होता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं प्रयतितव्यं हि शुश्रूषार्थमतन्द्रितैः॥
सर्वाभिरुपसेवाभिस्तुष्यन्ति यतयो यथा ।

मूलम्

एवं प्रयतितव्यं हि शुश्रूषार्थमतन्द्रितैः॥
सर्वाभिरुपसेवाभिस्तुष्यन्ति यतयो यथा ।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार शूद्रोंको आलस्यशून्य होकर संन्यासियोंकी सेवाके लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये। वह सब प्रकारकी छोटी-बड़ी सेवाओंद्वारा ऐसी चेष्टा करे, जिससे वे संन्यासी सदा संतुष्ट रहें॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नापराध्येत भिक्षोस्तु न चैवमवधीरयेत्॥
उत्तरं च न संदद्यात् क्रुद्धं चैव प्रसादयेत्।

मूलम्

नापराध्येत भिक्षोस्तु न चैवमवधीरयेत्॥
उत्तरं च न संदद्यात् क्रुद्धं चैव प्रसादयेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

भिक्षुका अपराध कभी न करे, उसकी अवहेलना भी न करे, उसकी कड़ी बातका कभी उत्तर न दे और यदि वह कुपित हो तो उसे प्रसन्न करनेकी चेष्टा करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रेय एवाभिधातव्यं कर्तव्यं च प्रहृष्टवत्॥
तूष्णीम्भावेन वै तत्र न क्रुद्धमभिसंवदेत्।

मूलम्

श्रेय एवाभिधातव्यं कर्तव्यं च प्रहृष्टवत्॥
तूष्णीम्भावेन वै तत्र न क्रुद्धमभिसंवदेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

सदा कल्याणकारी बात ही बोले और प्रसन्नतापूर्वक कल्याणकारी कर्म ही करे। संन्यासी कुपित हो तो उसके सामने चुप ही रहे, बातचीत न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब्धालब्धेन जीवेत तथैव परिपोषयेत्।

मूलम्

लब्धालब्धेन जीवेत तथैव परिपोषयेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

संन्यासीको चाहिये कि भाग्यसे कोई वस्तु मिले या न मिले, जो कुछ प्राप्त हो उसीसे जीवन-निर्वाह एवं शरीरका पोषण करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोपिनं तु न याचेत ज्ञानविद्वेषकारितः॥
स्थावरेषु दयां कुर्याज्जंगमेषु च प्राणिषु।
यथाऽऽत्मनि तथान्येषु समां दृष्टिं निपातयेत्॥

मूलम्

कोपिनं तु न याचेत ज्ञानविद्वेषकारितः॥
स्थावरेषु दयां कुर्याज्जंगमेषु च प्राणिषु।
यथाऽऽत्मनि तथान्येषु समां दृष्टिं निपातयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो क्रोधी हो, उससे किसी वस्तुकी याचना न करे। जो ज्ञानसे द्वेष रखता हो, उससे भी कोई वस्तु न माँगे। स्थावर और जंगम सभी प्राणियोंपर दया करे। जैसे अपने ऊपर उसी प्रकार दूसरोंपर समतापूर्ण दृष्टि डाले॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्यतीर्थानुसेवी च नदीनां पुलिनाश्रयः।
शून्यागारनिकेतश्च वनवृक्षगुहाशयः ॥
अरण्यानुचरो नित्यं वेदारण्यनिकेतनः ।
एकरात्रं द्विरात्रं वा न क्वचित् सज्जते द्विजः॥

मूलम्

पुण्यतीर्थानुसेवी च नदीनां पुलिनाश्रयः।
शून्यागारनिकेतश्च वनवृक्षगुहाशयः ॥
अरण्यानुचरो नित्यं वेदारण्यनिकेतनः ।
एकरात्रं द्विरात्रं वा न क्वचित् सज्जते द्विजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

संन्यासी पुण्यतीर्थोंका निरन्तर सेवन करे, नदियोंके तटपर कुटी बनाकर रहे। अथवा सूने घरमें डेरा डाले। वनमें वृक्षोंके नीचे अथवा पर्वतोंकी गुफाओंमें निवास करे। सदा वनमें विचरण करे। वेदरूपी वनका आश्रय ले, किसी भी स्थानमें एक रात या दो रातसे अधिक न रहे। कहीं भी आसक्त न हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीर्णपर्णपुटे वापि वन्ये चरति भिक्षुकः।
न भोगार्थमनुप्रेत्य यात्रामात्रं समश्नुते॥

मूलम्

शीर्णपर्णपुटे वापि वन्ये चरति भिक्षुकः।
न भोगार्थमनुप्रेत्य यात्रामात्रं समश्नुते॥

अनुवाद (हिन्दी)

संन्यासी जंगली फल-मूल अथवा सूखे पत्तेका आहार करे। वह भोगके लिये नहीं, शरीरयात्राके निर्वाहके लिये भोजन करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मलब्धं समश्नाति न कामान् किंचिदश्नुते।
युगमात्रदृगध्वानं क्रोशादूर्ध्वं न गच्छति॥

मूलम्

धर्मलब्धं समश्नाति न कामान् किंचिदश्नुते।
युगमात्रदृगध्वानं क्रोशादूर्ध्वं न गच्छति॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह धर्मतः प्राप्त अन्नका ही भोजन करे। कामना-पूर्वक कुछ भी न खाय। रास्ता चलते समय वह दो हाथ आगेतककी भूमिपर ही दृष्टि रखे और एक दिनमें एक कोससे अधिक न चले॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समो मानापमानाभ्यां समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
सर्वभूताभयकरस्तथैवाभयदक्षिणः ॥

मूलम्

समो मानापमानाभ्यां समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
सर्वभूताभयकरस्तथैवाभयदक्षिणः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मान हो या अपमान—वह दोनों अवस्थाओंमें समान भावसे रहे। मिट्‌टीके ढेले, पत्थर और सुवर्णको एक समान समझे। समस्त प्राणियोंको निर्भय करे और सबको अभयकी दक्षिणा दे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्द्वन्द्वो निर्नमस्कारो निरानन्दपरिग्रहः ।
निर्ममो निरहंकारः सर्वभूतनिराश्रयः ॥

मूलम्

निर्द्वन्द्वो निर्नमस्कारो निरानन्दपरिग्रहः ।
निर्ममो निरहंकारः सर्वभूतनिराश्रयः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे निर्विकार रहे, किसीको नमस्कार न करे। सांसारिक सुख और परिग्रहसे दूर रहे। ममता और अहंकारको त्याग दे। समस्त प्राणियोंमेंसे किसीके भी आश्रित न रहे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिसंख्यानतत्त्वज्ञस्तथा सत्यरतिः सदा ।
ऊर्ध्वं नाधो न तिर्यक् च न किंचिदभिकामयेत्॥

मूलम्

परिसंख्यानतत्त्वज्ञस्तथा सत्यरतिः सदा ।
ऊर्ध्वं नाधो न तिर्यक् च न किंचिदभिकामयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वस्तुओंके स्वरूपके विषयमें विचार करके उनके तत्त्वको जाने। सदा सत्यमें अनुरक्त रहे। ऊपर, नीचे या अगल-बगलमें कहीं किसी वस्तुकी कामना न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संचरमाणस्तु यतिधर्मं यथाविधि।
कालस्य परिणामात् तु यथा पक्वफलं तथा॥
स विसृज्य स्वकं देहं प्रविशेद् ब्रह्म शाश्वतम्।

मूलम्

एवं संचरमाणस्तु यतिधर्मं यथाविधि।
कालस्य परिणामात् तु यथा पक्वफलं तथा॥
स विसृज्य स्वकं देहं प्रविशेद् ब्रह्म शाश्वतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार विधिपूर्वक यतिधर्मका पालन करनेवाला संन्यासी कालके परिणामवश अपने शरीरको पके हुए फलकी भाँति त्यागकर सनातन ब्रह्ममें प्रविष्ट हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरामयमनाद्यन्तं गुणसौम्यमचेतनम् ॥
निरक्षरमबीजं च निरिन्द्रियमजं तथा।
अजय्यमक्षरं यत् तदभेद्यं सूक्ष्ममेव च॥
निर्गुणं च प्रकृतिमन्निर्विकारं च सर्वशः।
भूतभव्यभविष्यस्य कालस्य परमेश्वरम् ॥
अव्यक्तं पुरुषं क्षेत्रमानन्त्याय प्रपद्यते।

मूलम्

निरामयमनाद्यन्तं गुणसौम्यमचेतनम् ॥
निरक्षरमबीजं च निरिन्द्रियमजं तथा।
अजय्यमक्षरं यत् तदभेद्यं सूक्ष्ममेव च॥
निर्गुणं च प्रकृतिमन्निर्विकारं च सर्वशः।
भूतभव्यभविष्यस्य कालस्य परमेश्वरम् ॥
अव्यक्तं पुरुषं क्षेत्रमानन्त्याय प्रपद्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

वह ब्रह्म निरामय, अनादि, अनन्त, सौम्यगुणसे युक्त, चेतनासे ऊपर उठा हुआ, अनिर्वचनीय, बीजहीन, इन्द्रियातीत, अजन्मा, अजेय, अविनाशी, अभेद्य, सूक्ष्म, निर्गुण, सर्वशक्तिमान्, निर्विकार, भूत, वर्तमान और भविष्य कालका स्वामी तथा परमेश्वर है। वही अव्यक्त, अन्तर्यामी पुरुष और क्षेत्र भी है। जो उसे जान लेता है, वह मोक्षको प्राप्त कर लेता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स भिक्षुर्निर्वाणं प्राप्नुयाद् दग्धकिल्बिषः॥
इहस्थो देहमुत्सृज्य नीडं शकुनिवद् यथा।

मूलम्

एवं स भिक्षुर्निर्वाणं प्राप्नुयाद् दग्धकिल्बिषः॥
इहस्थो देहमुत्सृज्य नीडं शकुनिवद् यथा।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वह भिक्षु घोंसला छोड़कर उड़ जानेवाले पक्षीकी भाँति यहीं इस शरीरको त्यागकर समस्त पापोंको ज्ञानाग्निसे दग्ध कर देनेके कारण निर्वाण—मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् करोति यदश्नाति शुभं वा यदि वाशुभम्॥
नाकृतं भुज्यते कर्म न कृतं नश्यते फलम्।

मूलम्

यत् करोति यदश्नाति शुभं वा यदि वाशुभम्॥
नाकृतं भुज्यते कर्म न कृतं नश्यते फलम्।

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसका वैसा ही फल भोगता है। बिना किये हुए कर्मका फल किसीको नहीं भोगना पड़ता है तथा किये हुए कर्मका फल भोगके बिना नष्ट नहीं होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुभकर्मसमाचारः शुभमेवाप्नुते फलम् ॥
तथाशुभसमाचारो ह्यशुभं समवाप्नुते ।

मूलम्

शुभकर्मसमाचारः शुभमेवाप्नुते फलम् ॥
तथाशुभसमाचारो ह्यशुभं समवाप्नुते ।

अनुवाद (हिन्दी)

जो शुभ कर्मका आचरण करता है, उसे शुभ फलकी ही प्राप्ति होती है और जो अशुभ कर्म करता है, वह अशुभ फलका ही भागी होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा शुभसमाचारो ह्यशुभानि विवर्जयेत्॥
शुभान्येव समादद्याद् य इच्छेद् भूतिमात्मनः।

मूलम्

तथा शुभसमाचारो ह्यशुभानि विवर्जयेत्॥
शुभान्येव समादद्याद् य इच्छेद् भूतिमात्मनः।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः जो अपना कल्याण चाहता हो, वह शुभ-कर्मोंका ही आचरण करे। अशुभ कर्मोंको त्याग दे। ऐसा करनेसे वह शुभ फलोंको ही प्राप्त करेगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादागमसम्पन्नो भवेत् सुनियतेन्द्रियः ॥
शक्यते ह्यागमादेव गतिं प्राप्तुमनामयाम्।

मूलम्

तस्मादागमसम्पन्नो भवेत् सुनियतेन्द्रियः ॥
शक्यते ह्यागमादेव गतिं प्राप्तुमनामयाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यको चाहिये कि वह अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके शास्त्रोंके ज्ञानसे सम्पन्न हो। शास्त्रके ज्ञानसे ही मनुष्यको अनामय गतिकी प्राप्ति हो सकती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परा चैषा गतिर्दृष्टा यामन्वेषन्ति साधवः॥
यत्रामृतत्वं लभते त्यक्त्वा दुःखमनन्तकम्।

मूलम्

परा चैषा गतिर्दृष्टा यामन्वेषन्ति साधवः॥
यत्रामृतत्वं लभते त्यक्त्वा दुःखमनन्तकम्।

अनुवाद (हिन्दी)

साधु पुरुष जिसका अन्वेषण करते हैं, वह परमगति शास्त्रोंमें देखी गयी है। जहाँ पहुँचकर मनुष्य अनन्त दुःखका परित्याग करके अमृतत्वको प्राप्त कर लेता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमं हि धर्ममास्थाय येऽपि स्युः पापयोनयः॥
स्त्रियो वैश्याश्च शूद्राश्च प्राप्नुयुः परमां गतिम्।

मूलम्

इमं हि धर्ममास्थाय येऽपि स्युः पापयोनयः॥
स्त्रियो वैश्याश्च शूद्राश्च प्राप्नुयुः परमां गतिम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इस धर्मका आश्रय लेकर पापयोनिमें उत्पन्न हुए पुरुष तथा स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र भी परमगतिको प्राप्त कर लेते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं पुनर्ब्राह्मणो विद्वान् क्षत्रियो वा बहुश्रुतः॥
न चाप्यक्षीणपापस्य ज्ञानं भवति देहिनः।
ज्ञानोपलब्धिर्भवति कृतकृत्यो यदा भवेत्॥

मूलम्

किं पुनर्ब्राह्मणो विद्वान् क्षत्रियो वा बहुश्रुतः॥
न चाप्यक्षीणपापस्य ज्ञानं भवति देहिनः।
ज्ञानोपलब्धिर्भवति कृतकृत्यो यदा भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर जो विद्वान् ब्राह्मण अथवा बहुश्रुत क्षत्रिय है, उसकी सद्‌गतिके विषयमें क्या कहना है। जिस देहधारीके पाप क्षीण नहीं हुए हैं, उसे ज्ञान नहीं होता। जब मनुष्यको ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है, तब वह कृतकृत्य हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपलभ्य तु विज्ञानं ज्ञानं वाप्यनसूयकः।
तथैव वर्तेद् गुरुषु भूयांसं वा समाहितः॥

मूलम्

उपलभ्य तु विज्ञानं ज्ञानं वाप्यनसूयकः।
तथैव वर्तेद् गुरुषु भूयांसं वा समाहितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञान या विज्ञानको प्राप्त कर लेनेपर भी दोषदृष्टिसे रहित हो गुरुजनोंके प्रति पहले ही-जैसा सद्‌भाव रखे। अथवा एकाग्रचित्त होकर पहलेसे भी अधिक श्रद्धाभाव रखे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथावमन्येत गुरुं तथा तेषु प्रवर्तते।
व्यर्थमस्य श्रुतं भवति ज्ञानमज्ञानतां व्रजेत्॥

मूलम्

यथावमन्येत गुरुं तथा तेषु प्रवर्तते।
व्यर्थमस्य श्रुतं भवति ज्ञानमज्ञानतां व्रजेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिष्य जिस तरह गुरुका अपमान करता है, उसी प्रकार गुरु भी शिष्योंके प्रति बर्ताव करता है। अर्थात् शिष्यको अपने कर्मके अनुसार फल मिलता है। गुरुका अपमान करनेवाले शिष्यका किया हुआ वेद-शास्त्रोंका अध्ययन व्यर्थ हो जाता है। उसका सारा ज्ञान अज्ञानरूपमें परिणत हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतिं चाप्यशुभां गच्छेन्निरयाय न संशयः।
प्रक्षीयते तस्य पुण्यं ज्ञानमस्य विरुध्यते॥

मूलम्

गतिं चाप्यशुभां गच्छेन्निरयाय न संशयः।
प्रक्षीयते तस्य पुण्यं ज्ञानमस्य विरुध्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह नरकमें जानेके लिये अशुभ मार्गको ही प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है। उसका पुण्य नष्ट हो जाता है और ज्ञान अज्ञान हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदृष्टपूर्वकल्याणो यथादृष्टविधिर्नरः ॥
उत्सेकान्मोहमापद्य तत्त्वज्ञानं न चाप्नुयात्।

मूलम्

अदृष्टपूर्वकल्याणो यथादृष्टविधिर्नरः ॥
उत्सेकान्मोहमापद्य तत्त्वज्ञानं न चाप्नुयात्।

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने पहले कभी कल्याणका दर्शन नहीं किया है ऐसा मनुष्य शास्त्रोक्त विधिको न देखनेके कारण अभिमानवश मोहको प्राप्त हो जाता है। अतः उसे तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेव हि नोत्सेकः कर्तव्यो ज्ञानसम्भवः॥
फलं ज्ञानस्य हि शमः प्रशमाय यतेत् सदा।

मूलम्

एवमेव हि नोत्सेकः कर्तव्यो ज्ञानसम्भवः॥
फलं ज्ञानस्य हि शमः प्रशमाय यतेत् सदा।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः किसीको भी ज्ञानका अभिमान नहीं करना चाहिये। ज्ञानका फल है शान्ति, इसलिये सदा शान्तिके लिये ही प्रयत्न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपशान्तेन दान्तेन क्षमायुक्तेन सर्वदा॥
शुश्रूषा प्रतिपत्तव्या नित्यमेवानसूयता ।

मूलम्

उपशान्तेन दान्तेन क्षमायुक्तेन सर्वदा॥
शुश्रूषा प्रतिपत्तव्या नित्यमेवानसूयता ।

अनुवाद (हिन्दी)

मनका निग्रह और इन्द्रियोंका संयम करके सदा क्षमाशील तथा अदोषदर्शी होकर गुरुजनोंकी सेवा करनी चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृत्या शिश्नोदरं रक्षेत् पाणिपादं च चक्षुषा॥
इन्द्रियार्थांश्च मनसा मनो बुद्धौ समादधेत्।

मूलम्

धृत्या शिश्नोदरं रक्षेत् पाणिपादं च चक्षुषा॥
इन्द्रियार्थांश्च मनसा मनो बुद्धौ समादधेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

धैर्यके द्वारा उपस्थ और उदरकी रक्षा करे। नेत्रोंके द्वारा हाथ और पैरोंकी रक्षा करे। मनसे इन्द्रियोंके विषयोंको बचावे और मनको बुद्धिमें स्थापित करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृत्याऽऽसीत ततो गत्वा शुद्धदेशं सुसंवृतम्॥
लब्ध्वाऽऽसनं यथादृष्टं विधिपूर्वं समाचरेत्।

मूलम्

धृत्याऽऽसीत ततो गत्वा शुद्धदेशं सुसंवृतम्॥
लब्ध्वाऽऽसनं यथादृष्टं विधिपूर्वं समाचरेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

पहले शुद्ध एवं घिरे हुए स्थानमें जाकर आसन ले, उसके ऊपर धैर्यपूर्वक बैठे और शास्त्रोक्त विधिके अनुसार ध्यानके लिये प्रयत्न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानयुक्तस्तथा देवं हृदिस्थमुपलक्षयेत् ॥
आदीप्यमानं वपुषा विधूममनलं यथा।
रश्मिमन्तमिवादित्यं वैद्युताग्निमिवाम्बरे ॥
संस्थितं हृदये पश्येदीशं शाश्वतमव्ययम्।

मूलम्

ज्ञानयुक्तस्तथा देवं हृदिस्थमुपलक्षयेत् ॥
आदीप्यमानं वपुषा विधूममनलं यथा।
रश्मिमन्तमिवादित्यं वैद्युताग्निमिवाम्बरे ॥
संस्थितं हृदये पश्येदीशं शाश्वतमव्ययम्।

अनुवाद (हिन्दी)

विवेकयुक्त साधक अपने हृदयमें विराजमान परमात्मदेवका साक्षात्कार करे। जैसे आकाशमें विद्युत्‌का प्रकाश देखा जाता है तथा जिस प्रकार किरणोंवाले सूर्य प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार उस परमात्मदेवको धूमरहित अग्निकी भाँति तेजस्वी स्वरूपसे प्रकाशित देखे। हृदयदेशमें विराजमान उन अविनाशी सनातन परमेश्वरका बुद्धिरूपी नेत्रोंके द्वारा दर्शन करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चायुक्तेन शक्योऽयं द्रष्टुं देहे महेश्वरः॥
युक्तस्तु पश्यते बुद्‌ध्या संनिवेश्य मनो हृदि।

मूलम्

न चायुक्तेन शक्योऽयं द्रष्टुं देहे महेश्वरः॥
युक्तस्तु पश्यते बुद्‌ध्या संनिवेश्य मनो हृदि।

अनुवाद (हिन्दी)

जो योगयुक्त नहीं है ऐसा पुरुष अपने हृदयमें विराजमान उस महेश्वरका साक्षात्कार नहीं कर सकता। योगयुक्त पुरुष ही मनको हृदयमें स्थापित करके बुद्धिके द्वारा उस अन्तर्यामी परमात्माका दर्शन करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ त्वेवं न शक्नोति कर्तुं हृदयधारणम्॥
यथासांख्यमुपासीत यथावद् योगमास्थितः ।

मूलम्

अथ त्वेवं न शक्नोति कर्तुं हृदयधारणम्॥
यथासांख्यमुपासीत यथावद् योगमास्थितः ।

अनुवाद (हिन्दी)

यदि इस प्रकार हृदयदेशमें ध्यान-धारणा न कर सके तो यथावत्‌रूपसे योगका आश्रय ले सांख्यशास्त्रके अनुसार उपासना करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्च बुद्धीन्द्रियाणीह पञ्च कर्मेन्द्रियाण्यपि॥
पञ्च भूतविशेषाश्च मनश्चैव तु षोडश।

मूलम्

पञ्च बुद्धीन्द्रियाणीह पञ्च कर्मेन्द्रियाण्यपि॥
पञ्च भूतविशेषाश्च मनश्चैव तु षोडश।

अनुवाद (हिन्दी)

इस शरीरमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच भूत और सोलहवाँ मन—ये सोलह विकार हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्मात्राण्यपि पञ्चैव मनोऽहंकार एव च॥
अष्टमं चाप्यथाव्यक्तमेताः प्रकृतिसंज्ञिताः ।

मूलम्

तन्मात्राण्यपि पञ्चैव मनोऽहंकार एव च॥
अष्टमं चाप्यथाव्यक्तमेताः प्रकृतिसंज्ञिताः ।

अनुवाद (हिन्दी)

पाँच तन्मात्राएँ, मन, अहंकार और अव्यक्त—ये आठ प्रकृतियाँ हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एताः प्रकृतयश्चाष्टौ विकाराश्चापि षोडश॥
एवमेतदिहस्थेन विज्ञेयं तत्त्वबुद्धिना ।
एवं वर्ष्म समुत्तीर्य तीर्णो भवति नान्यथा॥

मूलम्

एताः प्रकृतयश्चाष्टौ विकाराश्चापि षोडश॥
एवमेतदिहस्थेन विज्ञेयं तत्त्वबुद्धिना ।
एवं वर्ष्म समुत्तीर्य तीर्णो भवति नान्यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये आठ प्रकृतियाँ और पूर्वोक्त सोलह विकार—इन चौबीस तत्त्वोंको यहाँ रहनेवाले तत्त्वज्ञ पुरुषको जानना चाहिये। इस प्रकार प्रकृति-पुरुषका विवेक हो जानेसे मनुष्य शरीरके बन्धनसे ऊपर उठकर भवसागरसे पार हो जाता है, अन्यथा नहीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिसंख्यानमेवैतन्मन्तव्यं ज्ञानबुद्धिना ।
अहन्यहनि शान्तात्मा पावनाय हिताय च॥
एवमेव प्रसंख्याय तत्त्वबुद्धिर्विमुच्यते ।

मूलम्

परिसंख्यानमेवैतन्मन्तव्यं ज्ञानबुद्धिना ।
अहन्यहनि शान्तात्मा पावनाय हिताय च॥
एवमेव प्रसंख्याय तत्त्वबुद्धिर्विमुच्यते ।

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञानयुक्त बुद्धिवाले पुरुषको यही सांख्ययोग मानना चाहिये। प्रतिदिन शान्तचित्त हो अपने अन्तःकरणको पवित्र बनाने और अपना हित-साधन करनेके लिये इसी प्रकार उपर्युक्त तत्त्वोंका विचार करनेसे मनुष्यको यथार्थ तत्त्वका बोध हो जाता है और वह बन्धनसे छूट जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्कलं केवलं भवति शुद्धतत्त्वार्थतत्त्ववित्॥

मूलम्

निष्कलं केवलं भवति शुद्धतत्त्वार्थतत्त्ववित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुद्ध तत्त्वार्थको तत्त्वसे जाननेवाला पुरुष अवयवरहित अद्वितीय ब्रह्म हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्संनिकर्षे परिवर्तितव्यं
विद्याधिकाश्चापि निषेवितव्याः ।
सवर्णतां गच्छति संनिकर्षा-
न्नीलः खगो मेरुमिवाश्रयन् वै॥

मूलम्

सत्संनिकर्षे परिवर्तितव्यं
विद्याधिकाश्चापि निषेवितव्याः ।
सवर्णतां गच्छति संनिकर्षा-
न्नीलः खगो मेरुमिवाश्रयन् वै॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यको सेदा सत्पुरुषोंके समीप रहना चाहिये। विद्यामें बड़े-चढ़े पुरुषोंका सेवन करना चाहिये। जो जिसके निकट रहता है, उसके समान वर्णका हो जाता है। जैसे नील पक्षी मेरु पर्वतका आश्रय लेनेसे सुवर्णके समान रंगका हो जाता है॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवमाख्याय महामुनिस्तदा
चतुर्षु वर्णेषु विधानमर्थवित् ।
शुश्रूषया वृत्तगतिं समाधिना
समाधियुक्तः प्रययौ स्वमाश्रमम् ॥

मूलम्

इत्येवमाख्याय महामुनिस्तदा
चतुर्षु वर्णेषु विधानमर्थवित् ।
शुश्रूषया वृत्तगतिं समाधिना
समाधियुक्तः प्रययौ स्वमाश्रमम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! शास्त्रोंके तात्पर्यको जाननेवाले महामुनि पराशर इस प्रकार चारों वर्णोंके लिये कर्तव्यका विधान बताकर तथा शुश्रूषा और समाधिसे प्राप्त होनेवाली गतिका निरूपण करके एकाग्रचित्त हो अपने आश्रमको चले गये॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य प्रतिमें अध्याय समाप्त)
[सबके पूजनीय और वन्दनीय कौन हैं—इस विषयमें इन्द्र और मातलिका संवाद]

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

केषां देवा महाभागाः संनमन्ते महात्मनाम्।
लोकेऽस्मिंस्तानृषीन् सर्वान् श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः॥

मूलम्

केषां देवा महाभागाः संनमन्ते महात्मनाम्।
लोकेऽस्मिंस्तानृषीन् सर्वान् श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! इस लोकमें महाभाग देवता किन महात्माओंको मस्तक झुकाते हैं? मैं उन समस्त ऋषियोंका यथार्थ परिचय सुनना चाहता हूँ॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतिहासमिमं विप्राः कीर्तयन्ति पुराविदः।
अस्मिन्नर्थे महाप्राज्ञास्तं निबोध युधिष्ठिर॥

मूलम्

इतिहासमिमं विप्राः कीर्तयन्ति पुराविदः।
अस्मिन्नर्थे महाप्राज्ञास्तं निबोध युधिष्ठिर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें प्राचीन बातोंको जाननेवाले महाज्ञानी ब्राह्मण इस इतिहासका वर्णन करते हैं। तुम उस इतिहासको सुनो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्रं हत्वाप्युपावृत्तं त्रिदशानां पुरस्कृतम्।
महेन्द्रमनुसम्प्राप्तं स्तूयमानं महर्षिभिः ॥
श्रिया परमया युक्तं रथस्थं हरिवाहनम्।
मातलिः प्राञ्जलिर्भूत्वा देवमिन्द्रमुवाच ह॥

मूलम्

वृत्रं हत्वाप्युपावृत्तं त्रिदशानां पुरस्कृतम्।
महेन्द्रमनुसम्प्राप्तं स्तूयमानं महर्षिभिः ॥
श्रिया परमया युक्तं रथस्थं हरिवाहनम्।
मातलिः प्राञ्जलिर्भूत्वा देवमिन्द्रमुवाच ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब इन्द्र वृत्रासुरको मारकर लौटे, उस समय देवता उन्हें आगे करके खड़े थे। महर्षिगण महेन्द्रकी स्तुति करते थे। हरित वाहनोंवाले देवराज इन्द्र रथपर बैठकर उत्तम शोभासे सम्पन्न हो रहे थे। उसी समय मातलिने हाथ जोड़कर देवराज इन्द्रसे कहा॥

मूलम् (वचनम्)

मातलिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्कृतानां सर्वेषां भगवंस्त्वं पुरस्कृतः।
येषां लोके नमस्कुर्यात्‌ तान् ब्रवीतु भवान् मम॥

मूलम्

नमस्कृतानां सर्वेषां भगवंस्त्वं पुरस्कृतः।
येषां लोके नमस्कुर्यात्‌ तान् ब्रवीतु भवान् मम॥

अनुवाद (हिन्दी)

मातलि बोले— भगवन्! जो सबके द्वारा वन्दित होते हैं, उन समस्त देवताओंके आप अगुआ हैं; परन्तु आप भी इस जगत्‌में जिनको मस्तक झुकाते हैं, उन महात्माओंका मुझे परिचय दीजिये॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा देवराजः शचीपतिः।
यन्तारं परिपृच्छन्तं तमिन्द्रः प्रत्युवाच ह॥

मूलम्

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा देवराजः शचीपतिः।
यन्तारं परिपृच्छन्तं तमिन्द्रः प्रत्युवाच ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! मातलिकी वह बात सुनकर शचीपति देवराज इन्द्रने उपर्युक्त प्रश्न पूछनेवाले अपने सारथिसे इस प्रकार कहा॥

मूलम् (वचनम्)

इन्द्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मं चार्थं च कामं च येषां चिन्तयतां मतिः।
नाधर्मे वर्तते नित्यं तान् नमस्यामि मातले॥

मूलम्

धर्मं चार्थं च कामं च येषां चिन्तयतां मतिः।
नाधर्मे वर्तते नित्यं तान् नमस्यामि मातले॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बोले— मातले! धर्म, अर्थ और कामका चिन्तन करते हुए भी जिनकी बुद्धि कभी अधर्ममें नहीं लगती, मैं प्रतिदिन उन्हींको नमस्कार करता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये रूपगुणसम्पन्नाः प्रमदाहृदयंगमाः ।
निवृत्ताः कामभोगेषु तान् नमस्यामि मातले॥

मूलम्

ये रूपगुणसम्पन्नाः प्रमदाहृदयंगमाः ।
निवृत्ताः कामभोगेषु तान् नमस्यामि मातले॥

अनुवाद (हिन्दी)

मातले! जो रूप और गुणसे सम्पन्न हैं तथा युवतियोंके हृदय-मन्दिरमें हठात् प्रवेश कर जाते हैं—अर्थात् जिन्हें देखते ही युवतियाँ मोहित हो जाती हैं, ऐसे पुरुष यदि काम-भोगसे दूर रहते हैं तो मैं उनके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वेषु भोगेषु संतुष्टाः सुवाचो वचनक्षमाः।
अमानकामाश्चार्घ्यार्हास्तान् नमस्यामि मातले ॥

मूलम्

स्वेषु भोगेषु संतुष्टाः सुवाचो वचनक्षमाः।
अमानकामाश्चार्घ्यार्हास्तान् नमस्यामि मातले ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मातले! जो अपनेको प्राप्त हुए भोगोंमें ही संतुष्ट हैं—दूसरोंसे अधिककी इच्छा नहीं रखते। जो सुन्दर वाणी बोलते हैं और प्रवचन करनेमें कुशल हैं, जिनमें अहंकार और कामनाका सर्वथा अभाव है तथा जो सबसे अर्घ्य पानेके योग्य हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनं विद्यास्तथैश्वर्यं येषां न चलयेन्मतिम्।
चलितां ये निगृह्णन्ति तान्‌ नित्यं पूजयाम्यहम्॥

मूलम्

धनं विद्यास्तथैश्वर्यं येषां न चलयेन्मतिम्।
चलितां ये निगृह्णन्ति तान्‌ नित्यं पूजयाम्यहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

धन, विद्या और ऐश्वर्य जिनकी बुद्धिको विचलित नहीं कर सकते तथा जो चंचल हुई बुद्धिको भी विवेकसे काबूमें कर लेते हैं, उनकी मैं नित्य पूजा करता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टैर्दारैरुपेतानां शुचीनामाग्निहोत्रिणाम् ।
चतुष्पादकुटुम्बानां मातले प्रणमाम्यहम् ॥

मूलम्

इष्टैर्दारैरुपेतानां शुचीनामाग्निहोत्रिणाम् ।
चतुष्पादकुटुम्बानां मातले प्रणमाम्यहम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मातले! जो प्रिय पत्नीसे युक्त हैं, पवित्र आचार-विचारसे रहते हैं, नित्य अग्निहोत्र करते हैं और जिनके कुटुम्बमें चौपायों (गौ आदि पशुओं) का भी पालन होता है, उनको मैं नमस्कार करता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येषामर्थस्तथा कामो धर्ममूलविवर्धितः ।
धर्मार्थौ यस्य नियतौ तान् नमस्यामि मातले॥

मूलम्

येषामर्थस्तथा कामो धर्ममूलविवर्धितः ।
धर्मार्थौ यस्य नियतौ तान् नमस्यामि मातले॥

अनुवाद (हिन्दी)

मातले! जिनका अर्थ और काम धर्ममूलक होकर वृद्धिको प्राप्त हुआ है तथा जिसके धर्म और अर्थ नियत हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्ममूलार्थकामानां ब्राह्मणानां गवामपि ।
पतिव्रतानां नारीणां प्रणामं प्रकरोम्यहम्॥

मूलम्

धर्ममूलार्थकामानां ब्राह्मणानां गवामपि ।
पतिव्रतानां नारीणां प्रणामं प्रकरोम्यहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्ममूलक धनकी कामना रखनेवाले ब्राह्मणोंको तथा गौओं और पतिव्रता नारियोंको मैं नित्य प्रणाम करता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये भुक्त्वा मानुषान् भोगान् पूर्वे वयसि मातले।
तपसा स्वर्गमायान्ति शश्वत्‌ तान् पूजयाम्यहम्॥

मूलम्

ये भुक्त्वा मानुषान् भोगान् पूर्वे वयसि मातले।
तपसा स्वर्गमायान्ति शश्वत्‌ तान् पूजयाम्यहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मातले! जो जीवनकी पूर्व अवस्थामें मानवभोगोंका उपभोग करके तपस्याद्वारा स्वर्गमें आते हैं, उनका मैं सदा ही पूजन करता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असम्भोगान्न चासक्तान्‌ धर्मनित्याञ्जितेन्द्रियान् ।
संन्यस्तानचलप्रख्यान् मनसा पूजयामि तान्॥

मूलम्

असम्भोगान्न चासक्तान्‌ धर्मनित्याञ्जितेन्द्रियान् ।
संन्यस्तानचलप्रख्यान् मनसा पूजयामि तान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो भोगोंसे दूर रहते हैं, जिनकी कहीं भी आसक्ति नहीं है, जो सदा धर्ममें तत्पर रहते हैं, इन्द्रियोंको काबूमें रखते हैं, जो सच्चे संन्यासी हैं और पर्वतोंके समान कभी विचलित नहीं होते हैं, उन श्रेष्ठ पुरुषोंकी मैं मनसे पूजा करता हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानप्रसन्नविद्यानां निरूढं धर्ममिच्छताम् ।
परैः कीर्तितशौचानां मातले तान् नमाम्यहम्॥

मूलम्

ज्ञानप्रसन्नविद्यानां निरूढं धर्ममिच्छताम् ।
परैः कीर्तितशौचानां मातले तान् नमाम्यहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मातले! जिनकी विद्या ज्ञानके कारण स्वच्छ है, जो सुप्रसिद्ध धर्मके पालनकी इच्छा रखते हैं तथा जिनके शौचाचारकी प्रशंसा दूसरे लोग करते हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य प्रतिमें अध्याय समाप्त)
[सरोवर खोदाने और वृक्ष लगानेका माहात्म्य]

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संस्कृतानां तटाकानां यत् फल कुरुपुंगव।
तदहं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तोऽद्य भरतर्षभ॥

मूलम्

संस्कृतानां तटाकानां यत् फल कुरुपुंगव।
तदहं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तोऽद्य भरतर्षभ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— कुरुपुंगव! भरतश्रेष्ठ! सरोवरोंके बनानेका जो फल है, उसे आज मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुप्रदर्शो धनपतिश्चित्रधातुविभूषितः ।
त्रिषु लोकेषु सर्वत्र पूजितो यस्तटाकवान्॥

मूलम्

सुप्रदर्शो धनपतिश्चित्रधातुविभूषितः ।
त्रिषु लोकेषु सर्वत्र पूजितो यस्तटाकवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! जो तालाब बनवाता है वह पुरुष विचित्र धातुओंसे विभूषित धनाध्यक्ष कुबेरके समान दर्शनीय है। वह तीनों लोकोंमें सर्वत्र पूजित होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इह चामुत्र सदनं पुत्रीयं वित्तवर्धनम्।
कीर्तिसंजननं श्रेष्ठं तटाकानां निवेशनम्॥

मूलम्

इह चामुत्र सदनं पुत्रीयं वित्तवर्धनम्।
कीर्तिसंजननं श्रेष्ठं तटाकानां निवेशनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तालाबका संस्थापन श्रेष्ठ एवं कीर्तिजनक है। वह इस लोक और परलोकमें भी उत्तम निवासस्थान है। वह पुत्रका घर तथा धनकी वृद्धि करनेवाला है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मस्यार्थस्य कामस्य फलमाहुर्मनीषिणः ।
तटाकं सुकृतं देशे क्षेत्रे देशसमाश्रयम्॥

मूलम्

धर्मस्यार्थस्य कामस्य फलमाहुर्मनीषिणः ।
तटाकं सुकृतं देशे क्षेत्रे देशसमाश्रयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनीषी पुरुषोंने सरोवरोंको धर्म, अर्थ और काम तीनोंका फल देनेवाला बताया है। तालाब देशमें मूर्तिमान् पुण्यस्वरूप है और क्षेत्रमें देशका भारी आश्रय है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्विधानां भूतानां तटाकमुपलक्षये ।
तटाकानि च सर्वाणि दिशन्ति श्रियमुत्तमाम्॥

मूलम्

चतुर्विधानां भूतानां तटाकमुपलक्षये ।
तटाकानि च सर्वाणि दिशन्ति श्रियमुत्तमाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तालाबको चारों (स्वेदज, अण्डज, उद्‌भिज्ज, जरायुज) प्रकारके प्राणियोंके लिये उपयोगी देखता हूँ। जगत्‌में जितने भी सरोवर हैं, वे सभी उत्तम सम्पत्ति प्रदान करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवा मनुष्या गन्धर्वाः पितरोरगराक्षसाः।
स्थावराणि च भूतानि संश्रयन्ति जलाशयम्॥

मूलम्

देवा मनुष्या गन्धर्वाः पितरोरगराक्षसाः।
स्थावराणि च भूतानि संश्रयन्ति जलाशयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता, मनुष्य, गन्धर्व, पितर, नाग, राक्षस तथा स्थावर भूत—ये सभी जलाशयका आश्रय लेते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्तांस्ते प्रवक्ष्यामि तटाके ये गुणाः स्मृताः।
या च तत्र फलप्राप्ती ऋषिभिः समुदाहृता॥

मूलम्

तस्मात्तांस्ते प्रवक्ष्यामि तटाके ये गुणाः स्मृताः।
या च तत्र फलप्राप्ती ऋषिभिः समुदाहृता॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः सरोवर खोदवानेमें जो गुण हैं, उन सबका मैं तुमसे वर्णन करूँगा तथा ऋषियोंने तालाब खोदानेसे जिन फलोंकी प्राप्ति बतायी है, उनका भी परिचय दे रहा हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्षमात्रं तटाके तु सलिलं यत्र तिष्ठति।
अग्निहोत्रफलं तस्य फलमाहुर्मनीषिणः ॥

मूलम्

वर्षमात्रं तटाके तु सलिलं यत्र तिष्ठति।
अग्निहोत्रफलं तस्य फलमाहुर्मनीषिणः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस सरोवरमें एक वर्षतक पानी ठहरता है, उसका फल मनीषी पुरुषोंने अग्निहोत्र बताया है अर्थात् उसे खोदानेवालेको प्रतिदिन अग्निहोत्र करनेका पुण्य प्राप्त होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निदाघकाले सलिलं तटाके यस्य तिष्ठति।
वाजपेयफलं तस्य फलं वै ऋषयोऽब्रुवन्॥

मूलम्

निदाघकाले सलिलं तटाके यस्य तिष्ठति।
वाजपेयफलं तस्य फलं वै ऋषयोऽब्रुवन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके तालाबमें गर्मीभर जल रहता है, उसके लिये ऋषियोंने वाजपेय यज्ञके फलकी प्राप्ति बतायी है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकुलं तारयेद् वंशं यस्य खाते जलाशये।
गावः पिबन्ति पानीयं साधवश्च नसः सदा॥

मूलम्

सकुलं तारयेद् वंशं यस्य खाते जलाशये।
गावः पिबन्ति पानीयं साधवश्च नसः सदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके खोदवाये हुए सरोवरमें सदा साधुपुरुष तथा गौएँ पानी पीती हैं, वह अपने कुलको तार देता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तटाके यस्य गावस्तु पिबन्ति तृषिता जलम्।
मृगपक्षिमनुष्याश्च सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥

मूलम्

तटाके यस्य गावस्तु पिबन्ति तृषिता जलम्।
मृगपक्षिमनुष्याश्च सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके जलाशयमें प्यासी गौएँ पानी पीती हैं तथा तृषित मृग, पक्षी एवं मनुष्य अपनी प्यास बुझाते हैं, वह अश्वमेध यज्ञका फल पाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् पिबन्ति जलं तत्र स्नायन्ते विश्रमन्ति च।
तटाककर्तुस्तत् सर्वं प्रेत्यानन्त्याय कल्पते॥

मूलम्

यत् पिबन्ति जलं तत्र स्नायन्ते विश्रमन्ति च।
तटाककर्तुस्तत् सर्वं प्रेत्यानन्त्याय कल्पते॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य उस तालाबमें जो जल पीते, स्नान करते और तटपर विश्राम लेते हैं, वह सारा पुण्य सरोवर बनवानेवालेको परलोकमें अक्षय होकर मिलता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्लभं सलिलं तात विशेषेण परंतप।
पानीयस्य प्रदानेन सिद्धिर्भवति शाश्वती॥

मूलम्

दुर्लभं सलिलं तात विशेषेण परंतप।
पानीयस्य प्रदानेन सिद्धिर्भवति शाश्वती॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले तात! जल विशेषरूपसे दुर्लभ वस्तु है; अतः जलदान करनेसे शाश्वत सिद्धि प्राप्त होती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिलान् ददत पानीयं दीपमन्नं प्रतिश्रयम्।
बान्धवैः सह मोदध्वमेतत् प्रेतेषु दुर्लभम्॥

मूलम्

तिलान् ददत पानीयं दीपमन्नं प्रतिश्रयम्।
बान्धवैः सह मोदध्वमेतत् प्रेतेषु दुर्लभम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तिल, जल, दीप, अन्न और रहनेके लिये घर दान करो, तथा बन्धु-बान्धवोंके साथ सदा आनन्दित रहो, क्योंकि ये सब वस्तुएँ मरे हुओंके लिये दुर्लभ हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वदानैर्गुरुतरं सर्वदानैर्विशिष्यते ।
पानीयं नरशार्दूल तस्माद् दातव्यमेव हि॥

मूलम्

सर्वदानैर्गुरुतरं सर्वदानैर्विशिष्यते ।
पानीयं नरशार्दूल तस्माद् दातव्यमेव हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! जलका दान सभी दानोंसे गुरुतर है। वह समस्त दानोंसे बढ़कर है; अतः उसका दान अवश्य ही करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतत् तटाकेषु कीर्तितं फलमुत्तमम्।
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि वृक्षाणामपि रोपणे॥

मूलम्

एवमेतत् तटाकेषु कीर्तितं फलमुत्तमम्।
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि वृक्षाणामपि रोपणे॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार यह सरोवर खोदानेका उत्तम फल बताया गया है। इसके बाद वृक्ष लगानेका फल भली प्रकार बताऊँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थावराणां तु भूतानां जातयः षट् प्रकीर्तिताः।
वृक्षगुल्मलतावल्ल्यस्त्वक्सारतृणवीरुधः ॥
एता जात्यस्तु वृक्षाणामेषां रोपगुणास्त्विमे।

मूलम्

स्थावराणां तु भूतानां जातयः षट् प्रकीर्तिताः।
वृक्षगुल्मलतावल्ल्यस्त्वक्सारतृणवीरुधः ॥
एता जात्यस्तु वृक्षाणामेषां रोपगुणास्त्विमे।

अनुवाद (हिन्दी)

स्थावर भूतोंकी छः जातियाँ बतायी गयी हैं—वृक्ष, गुल्म, लता, वल्ली, त्वक्सार तथा तृण, वीरुध—ये वृक्षोंकी जातियाँ हैं। इनके लगानेसे ये-ये गुण बताये गये हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पनसाम्रादयो वृक्षा गुल्मा मन्दारपूर्वकाः॥
नागिकामलियावल्ल्यो मालतीत्यादिका लताः ।
वेणुक्रमुकत्वक्साराः सस्यानि तृणजातयः ॥

मूलम्

पनसाम्रादयो वृक्षा गुल्मा मन्दारपूर्वकाः॥
नागिकामलियावल्ल्यो मालतीत्यादिका लताः ।
वेणुक्रमुकत्वक्साराः सस्यानि तृणजातयः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कटहल और आम आदि वृक्ष जातिके अन्तर्गत हैं। मन्दार आदि गुल्म कोटिमें माने गये हैं। नागिका, मलिया आदि वल्लीके अन्तर्गत हैं। मालती आदि लताएँ हैं। बाँस और सुपारी आदिके पेड़ त्वक्सार जातिके अन्तर्गत हैं। खेतमें जो घास और अनाज उगते हैं, वे सब तृण जातिमें अन्तर्भूत हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीर्तिश्च मानुषे लोके प्रेत्य चैव शुभं फलम्।
लभ्यते नाकपृष्ठे च पितृभिश्च महीयते॥
देवलोकगतस्यापि नाम तस्य न नश्यति।
अतीतानागतांश्चैव पितृवंशांश्च भारत ॥
तारयेद् वृक्षरोपी तु तस्माद् वृक्षान् प्ररोपयेत्।

मूलम्

कीर्तिश्च मानुषे लोके प्रेत्य चैव शुभं फलम्।
लभ्यते नाकपृष्ठे च पितृभिश्च महीयते॥
देवलोकगतस्यापि नाम तस्य न नश्यति।
अतीतानागतांश्चैव पितृवंशांश्च भारत ॥
तारयेद् वृक्षरोपी तु तस्माद् वृक्षान् प्ररोपयेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! वृक्ष लगानेसे मनुष्यलोकमें कीर्ति बनी रहती है और मृत्युके पश्चात् स्वर्गलोकमें शुभ फलकी प्राप्ति होती है। वृक्ष लगानेवाला पुरुष पितरोंद्वारा भी सम्मानित होता है। देवलोकमें जानेपर भी उसका नाम नहीं नष्ट होता। वह अपने बीते हुए पूर्वजों और आनेवाली संतानोंको भी तार देता है। अतः वृक्ष अवश्य लगाने चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य पुत्रा भवन्त्येव पादपा नात्र संशयः॥
परलोकगतः स्वर्गे लोकांश्चाप्नोति सोऽव्ययान्।

मूलम्

तस्य पुत्रा भवन्त्येव पादपा नात्र संशयः॥
परलोकगतः स्वर्गे लोकांश्चाप्नोति सोऽव्ययान्।

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके कोई पुत्र नहीं हैं, उसके भी वृक्ष ही पुत्र होते हैं; इसमें संशय नहीं है। वृक्ष लगानेवाला पुरुष परलोकमें जानेपर स्वर्गमें अक्षय लोकोंको प्राप्त होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पैः सुरगणान् वृक्षाः फलैश्चापि तथा पितॄन्॥
छायया चातिथींस्तात पूजयन्ति महीरुहाः।

मूलम्

पुष्पैः सुरगणान् वृक्षाः फलैश्चापि तथा पितॄन्॥
छायया चातिथींस्तात पूजयन्ति महीरुहाः।

अनुवाद (हिन्दी)

तात! वृक्ष अपने फूलोंसे देवताओंका, फलोंसे पितरोंका तथा छायासे अतिथियोंका सदा पूजन करते रहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किन्नरोरगरक्षांसि देवगन्धर्वमानवाः ॥
तथा ऋषिगणाश्चैव संश्रयन्ते महीरुहान्।

मूलम्

किन्नरोरगरक्षांसि देवगन्धर्वमानवाः ॥
तथा ऋषिगणाश्चैव संश्रयन्ते महीरुहान्।

अनुवाद (हिन्दी)

किन्नर, नाग, राक्षस, देव, गन्धर्व, मनुष्य तथा ऋषिगण भी वृक्षोंका आश्रय लेते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पिताः फलवन्तश्च तर्पयन्तीह मानवान्॥
वृक्षदान् पुत्रवद् वृक्षाः तारयन्ति परत्र च।
तस्मात् तटाके वृक्षा वै रोप्याः श्रेयोऽर्थिना सदा॥

मूलम्

पुष्पिताः फलवन्तश्च तर्पयन्तीह मानवान्॥
वृक्षदान् पुत्रवद् वृक्षाः तारयन्ति परत्र च।
तस्मात् तटाके वृक्षा वै रोप्याः श्रेयोऽर्थिना सदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

फल और फूलोंसे भरे हुए वृक्ष इस जगत्‌में मनुष्योंको तृप्त करते हैं। जो वृक्ष दान करते हैं, उनके वे वृक्ष परलोकमें पुत्रकी भाँति पार उतारते हैं। अतः कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको सदा ही सरोवरके किनारे वृक्ष लगाना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रवत् परिरक्ष्याश्च पुत्रास्ते धर्मतः स्मृताः।
तटाककृद् वृक्षरोपी इष्टयज्ञश्च यो द्विजः॥
एते स्वर्गे महीयन्ते ये चान्ये सत्यवादिनः।

मूलम्

पुत्रवत् परिरक्ष्याश्च पुत्रास्ते धर्मतः स्मृताः।
तटाककृद् वृक्षरोपी इष्टयज्ञश्च यो द्विजः॥
एते स्वर्गे महीयन्ते ये चान्ये सत्यवादिनः।

अनुवाद (हिन्दी)

वृक्ष लगाकर उनकी पुत्रोंकी भाँति रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि वे धर्मतः पुत्र माने गये हैं। जो तालाब बनवाता है और जो उसके किनारे वृक्ष लगाता है, जो द्विज यज्ञका अनुष्ठान करता है तथा दूसरे जो लोग सत्यभाषण करनेवाले हैं—वे सब-के-सब स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्‌ तटाकं कुर्वीत आरामांश्चापि योजयेत्॥
यजेच्च विविधैर्यज्ञैः सत्यं च विधिवद् वदेत्।

मूलम्

तस्मात्‌ तटाकं कुर्वीत आरामांश्चापि योजयेत्॥
यजेच्च विविधैर्यज्ञैः सत्यं च विधिवद् वदेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये सरोवर खोदावे और उसके तटपर बगीचे भी लगावे। सदा नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करे और विधिपूर्वक सत्य बोले॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य प्रतिमें अध्याय समाप्त)

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि छत्रोपानहदानप्रशंसा नाम षण्णवतितमोऽध्यायः ॥ ९६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें छत्रदान और उपानहदानकी प्रशंसानामक छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९६॥

Misc Detail

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १७५ श्लोक मिलाकर कुल १९७ श्लोक हैं)