०९५ छत्रोपानहोत्पत्तिः

भागसूचना

पञ्चनवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

छत्र और उपानहकी उत्पत्ति एवं दानविषयक युधिष्ठिरका प्रश्न तथा सूर्यकी प्रचण्ड धूपसे रेणुकाका मस्तक और पैरोंके संतप्त होनेपर जमदग्निका सूर्यपर कुपित होना और विप्ररूपधारी सूर्यसे वार्तालाप

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदिदं श्राद्धकृत्येषु दीयते भरतर्षभ।
छत्रं चोपानहौ चैव केनैतत् सम्प्रवर्तितम् ॥ १ ॥

मूलम्

यदिदं श्राद्धकृत्येषु दीयते भरतर्षभ।
छत्रं चोपानहौ चैव केनैतत् सम्प्रवर्तितम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ! श्राद्धकर्मोंमें जिनका दान दिया जाता है, उन छत्र और उपानहोंके दानकी प्रथा किसने चलायी है?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं चैतत् समुत्पन्नं किमर्थं चैव दीयते।
न केवलं श्राद्धकृत्ये पुण्यकेष्वपि दीयते ॥ २ ॥

मूलम्

कथं चैतत् समुत्पन्नं किमर्थं चैव दीयते।
न केवलं श्राद्धकृत्ये पुण्यकेष्वपि दीयते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनकी उत्पत्ति कैसे हुई और किसलिये इनका दान किया जाता है? केवल श्राद्धकर्ममें ही नहीं, अनेक पुण्यके अवसरोंपर भी इनका दान होता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुष्वपि निमित्तेषु पुण्यमाश्रित्य दीयते।
एतद् विस्तरशो राजन् श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ ३ ॥

मूलम्

बहुष्वपि निमित्तेषु पुण्यमाश्रित्य दीयते।
एतद् विस्तरशो राजन् श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-से निमित्त उपस्थित होनेपर पुण्यके उद्देश्यसे इन वस्तुओंके दानकी प्रथा देखी जाती है। अतः राजन्! मैं इस विषयको विस्तारके साथ यथावत् रूपसे सुनना चाहता हूँ॥३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन्नवहितश्छत्रोपानहविस्तरम् ।
यथैतत् प्रथितं लोके यथा चैतत् प्रवर्तितम् ॥ ४ ॥

मूलम्

शृणु राजन्नवहितश्छत्रोपानहविस्तरम् ।
यथैतत् प्रथितं लोके यथा चैतत् प्रवर्तितम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! छाते और जूतेकी उत्पत्तिकी वार्ता मैं विस्तारके साथ बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो। संसारमें किस प्रकार इनके दानका आरम्भ हुआ और कैसे उस दानका प्रचार हुआ, यह सब श्रवण करो॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा चाक्षय्यतां प्राप्तं पुण्यतां च यथा गतम्।
सर्वमेतदशेषेण प्रवक्ष्यामि नराधिप ॥ ५ ॥

मूलम्

यथा चाक्षय्यतां प्राप्तं पुण्यतां च यथा गतम्।
सर्वमेतदशेषेण प्रवक्ष्यामि नराधिप ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! इन दोनों वस्तुओंका दान किस तरह अक्षय होता है, तथा ये किस प्रकार पुण्यकी प्राप्ति करानेवाली मानी गयी हैं। इन सब बातोंका मैं पूर्णरूपसे वर्णन करूँगा॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जमदग्नेश्च संवादं सूर्यस्य च महात्मनः।
पुरा स भगवान् साक्षाद्धनुषाक्रीडयत् प्रभो ॥ ६ ॥
संधाय संधाय शरांश्चिक्षेप किल भार्गवः।
तान् क्षिप्तान् रेणुका सर्वांस्तस्येषून्दीप्ततेजसः ॥ ७ ॥
आनीय सा तदा तस्मै प्रादादसकृदच्युत।

मूलम्

जमदग्नेश्च संवादं सूर्यस्य च महात्मनः।
पुरा स भगवान् साक्षाद्धनुषाक्रीडयत् प्रभो ॥ ६ ॥
संधाय संधाय शरांश्चिक्षेप किल भार्गवः।
तान् क्षिप्तान् रेणुका सर्वांस्तस्येषून्दीप्ततेजसः ॥ ७ ॥
आनीय सा तदा तस्मै प्रादादसकृदच्युत।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! इस विषयमें महर्षि जमदग्नि और महात्मा भगवान् सूर्यके संवादका वर्णन किया जाता है। पूर्वकालकी बात है, एक दिन भृगुनन्दन भगवान् जमदग्निजी धनुष चलानेकी क्रीड़ा कर रहे थे। धर्मसे च्युत न होनेवाले युधिष्ठिर! वे बारंबार धनुषपर बाण रखकर उन्हें चलाते और उन चलाये हुए सम्पूर्ण तेजस्वी बाणोंको उनकी पत्नी रेणुका ला-लाकर दिया करती थीं॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तेन स शब्देन ज्यायाश्चैव शरस्य च ॥ ८ ॥
प्रहृष्टः सम्प्रचिक्षेप सा च प्रत्याजहार तान्।

मूलम्

अथ तेन स शब्देन ज्यायाश्चैव शरस्य च ॥ ८ ॥
प्रहृष्टः सम्प्रचिक्षेप सा च प्रत्याजहार तान्।

अनुवाद (हिन्दी)

धनुषकी प्रत्यंचाकी टंकारध्वनि और बाणके छूटनेकी सनसनाहटसे जमदग्नि मुनि बहुत प्रसन्न होते थे। अतः वे बार-बार बाण चलाते और रेणुका उन्हें दूरसे उठा-उठाकर लाया करती थीं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मध्याह्नमारूढे ज्येष्ठामूले दिवाकरे ॥ ९ ॥
स सायकान् द्विजो मुक्त्वा रेणुकामिदमब्रवीत्।
गच्छानय विशालाक्षि शरानेतान् धनुश्च्युतान् ॥ १० ॥
यावदेतान् पुनः सुभ्रु क्षिपामीति जनाधिप।

मूलम्

ततो मध्याह्नमारूढे ज्येष्ठामूले दिवाकरे ॥ ९ ॥
स सायकान् द्विजो मुक्त्वा रेणुकामिदमब्रवीत्।
गच्छानय विशालाक्षि शरानेतान् धनुश्च्युतान् ॥ १० ॥
यावदेतान् पुनः सुभ्रु क्षिपामीति जनाधिप।

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! इस प्रकार बाण चलानेकी क्रीड़ा करते-करते ज्येष्ठ मासके सूर्य दिनके मध्यभागमें आ पहुँचे। विप्रवर जमदग्निने पुनः बाण छोड़कर रेणुकासे कहा—‘सुभ्रु! विशाललोचने! जाओ, मेरे धनुषसे छूटे हुए इन बाणोंको ले आओ, जिससे मैं पुनः इन सबको धनुषपर रखकर छोड़ूँ’॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा गच्छन्त्यन्तरा छायां वृक्षमाश्रित्य भामिनी ॥ ११ ॥
तस्थौ तस्या हि सन्तप्तं शिरः पादौ तथैव च।

मूलम्

सा गच्छन्त्यन्तरा छायां वृक्षमाश्रित्य भामिनी ॥ ११ ॥
तस्थौ तस्या हि सन्तप्तं शिरः पादौ तथैव च।

अनुवाद (हिन्दी)

मानिनी रेणुका वृक्षोंके बीचसे होकर उनकी छायाका आश्रय ले जाती हुई बीच-बीचमें ठहर जाती थी; क्योंकि उसके सिर और पैर तप गये थे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थिता सा तु मुहूर्तं वै भर्तुः शापभयाच्छुभा ॥ १२ ॥
ययावानयितुं भूयः सायकानसितेक्षणा ।

मूलम्

स्थिता सा तु मुहूर्तं वै भर्तुः शापभयाच्छुभा ॥ १२ ॥
ययावानयितुं भूयः सायकानसितेक्षणा ।

अनुवाद (हिन्दी)

कजरारे नेत्रोंवाली वह कल्याणमयी देवी एक जगह दो ही घड़ी ठहरकर पतिके शापके भयसे पुनः उन बाणोंको लानेके लिये चल दी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्याजगाम च शरांस्तानादाय यशस्विनी ॥ १३ ॥
सा वै खिन्ना सुचार्वंगी पद्‌भ्यां दुःखं नियच्छती।
उपाजगाम भर्तारं भयाद् भर्तुः प्रवेपती ॥ १४ ॥

मूलम्

प्रत्याजगाम च शरांस्तानादाय यशस्विनी ॥ १३ ॥
सा वै खिन्ना सुचार्वंगी पद्‌भ्यां दुःखं नियच्छती।
उपाजगाम भर्तारं भयाद् भर्तुः प्रवेपती ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन बाणोंको लेकर सुन्दर अंगोंवाली यशस्विनी रेणुका जब लौटी; उस समय वह बहुत खिन्न हो गयी थी। पैरोंके जलनेसे जो दुःख होता था, उसको किसी तरह सहती और पतिके भयसे थर-थर काँपती हुई उनके पास आयी॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तामृषिस्तदा क्रुद्धो वाक्यमाह शुभाननाम्।
रेणुके किं चिरेण त्वमागतेति पुनः पुनः ॥ १५ ॥

मूलम्

स तामृषिस्तदा क्रुद्धो वाक्यमाह शुभाननाम्।
रेणुके किं चिरेण त्वमागतेति पुनः पुनः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय महर्षि कुपित होकर सुन्दर मुखवाली अपनी पत्नीसे बारंबार पूछने लगे—‘रेणुके! तुम्हारे आनेमें इतनी देर क्यों हुई?’॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

रेणुकोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिरस्तावत् प्रदीप्तं मे पादौ चैव तपोधन।
सूर्यतेजोनिरुद्धाहं वृक्षच्छायां समाश्रिता ॥ १६ ॥

मूलम्

शिरस्तावत् प्रदीप्तं मे पादौ चैव तपोधन।
सूर्यतेजोनिरुद्धाहं वृक्षच्छायां समाश्रिता ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रेणुका बोली— तपोधन! मेरा सिर तप गया, दोनों पैर जलने लगे और सूर्यके प्रचण्ड तेजने मुझे आगे बढ़नेसे रोक दिया। इसलिये थोड़ी देरतक वृक्षकी छायामें खड़ी होकर विश्राम लेने लगी थी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मात्‌ कारणाद् ब्रह्मंश्चितयैतत्‌ कृतं मया।
एतच्छ्रुत्वा मम विभो मा क्रुधस्त्वं तपोधन ॥ १७ ॥

मूलम्

एतस्मात्‌ कारणाद् ब्रह्मंश्चितयैतत्‌ कृतं मया।
एतच्छ्रुत्वा मम विभो मा क्रुधस्त्वं तपोधन ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! इसी कारणसे मैंने आपका यह कार्य कुछ विलम्बसे पूरा किया है। तपोधन! प्रभो! मेरे इस बातपर ध्यान देकर आप क्रोध न करें॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

जमदग्निरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्यैनं दीप्तकिरणं रेणुके तव दुःखदम्।
शरैर्निपातयिष्यामि सूर्यमस्त्राग्नितेजसा ॥ १८ ॥

मूलम्

अद्यैनं दीप्तकिरणं रेणुके तव दुःखदम्।
शरैर्निपातयिष्यामि सूर्यमस्त्राग्नितेजसा ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जमदग्निने कहा— रेणुके! जिसने तुझे कष्ट पहुँचाया है, उस उद्दीप्त किरणोंवाले सूर्यको आज मैं अपने बाणोंसे, अपनी अस्त्राग्निके तेजसे गिरा दूँगा॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विस्फार्य धनुर्दिव्यं गृहीत्वा च शरान् बहून्।
अतिष्ठत् सूर्यमभितो या तो याति ततो मुखः ॥ १९ ॥

मूलम्

स विस्फार्य धनुर्दिव्यं गृहीत्वा च शरान् बहून्।
अतिष्ठत् सूर्यमभितो या तो याति ततो मुखः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! ऐसा कहकर महर्षि जमदग्निने अपने दिव्य धनुषकी प्रत्यंचा खींची और बहुत-से बाण हाथमें लेकर सूर्यकी ओर मुँह करके वे खड़े हो गये। जिस दिशाकी ओर सूर्य जा रहे थे, उसी ओर उन्होंने भी अपना मुँह कर लिया था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तं प्रेक्ष्य सन्नद्धं सूर्योऽभ्येत्य तथाब्रवीत्।
द्विजरूपेण कौन्तेय किं ते सूर्योऽपराध्यते ॥ २० ॥

मूलम्

अथ तं प्रेक्ष्य सन्नद्धं सूर्योऽभ्येत्य तथाब्रवीत्।
द्विजरूपेण कौन्तेय किं ते सूर्योऽपराध्यते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! उन्हें युद्धके लिये तैयार देख सूर्यदेव ब्राह्मणका रूप धारण करके उनके पास आये और बोले—‘ब्रह्मन्! सूर्यने आपका क्या अपराध किया है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदत्ते रश्मिभिः सूर्यो दिवि तिष्ठंस्ततस्ततः।
रसं हृतं वै वर्षासु प्रवर्षति दिवाकरः ॥ २१ ॥

मूलम्

आदत्ते रश्मिभिः सूर्यो दिवि तिष्ठंस्ततस्ततः।
रसं हृतं वै वर्षासु प्रवर्षति दिवाकरः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सूर्यदेव तो आकाशमें स्थित होकर अपनी किरणों-द्वारा वसुधाका रस खींचते हैं और बरसातमें पुनः उसे बरसा देते हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽन्नं जायते विप्र मनुष्याणां सुखावहम्।
अन्नं प्राणा इति यथा वेदेषु परिपठ्‌यते ॥ २२ ॥

मूलम्

ततोऽन्नं जायते विप्र मनुष्याणां सुखावहम्।
अन्नं प्राणा इति यथा वेदेषु परिपठ्‌यते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विप्रवर! उसी वर्षासे अन्न उत्पन्न होता है, जो मनुष्योंके लिये सुखदायक है। अन्न ही प्राण है, यह बात वेदमें भी बतायी गयी है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाम्रेषु निगूढश्च रश्मिभिः परिवारितः।
सप्तद्वीपानिमान् ब्रह्मन् वर्षेणाभिप्रवर्षति ॥ २३ ॥

मूलम्

अथाम्रेषु निगूढश्च रश्मिभिः परिवारितः।
सप्तद्वीपानिमान् ब्रह्मन् वर्षेणाभिप्रवर्षति ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! अपने किरणसमूहसे घिरे हुए भगवान् सूर्य बादलोंमें छिपकर सातों द्वीपोंकी पृथ्वीको वर्षाके जलसे आप्लावित करते हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तदौषधीनां च वीरुधां पुष्पपत्रजम्।
सर्वं वर्षाभिनिर्वृत्तमन्नं सम्भवति प्रभो ॥ २४ ॥

मूलम्

ततस्तदौषधीनां च वीरुधां पुष्पपत्रजम्।
सर्वं वर्षाभिनिर्वृत्तमन्नं सम्भवति प्रभो ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसीसे नाना प्रकारकी ओषधियाँ, लताएँ, पत्र-पुष्प, घास-पात आदि उत्पन्न होते हैं। प्रभो! प्रायः सभी प्रकारके अन्न वर्षाके जलसे उत्पन्न होते हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातकर्माणि सर्वाणि व्रतोपनयनानि च।
गोदानानि विवाहाश्च तथा यज्ञसमृद्धयः ॥ २५ ॥
शास्त्राणि दानानि तथा संयोगा वित्तसंचयाः।
अन्नतः सम्प्रवर्तन्ते तथा त्वं वेत्थ भार्गव ॥ २६ ॥

मूलम्

जातकर्माणि सर्वाणि व्रतोपनयनानि च।
गोदानानि विवाहाश्च तथा यज्ञसमृद्धयः ॥ २५ ॥
शास्त्राणि दानानि तथा संयोगा वित्तसंचयाः।
अन्नतः सम्प्रवर्तन्ते तथा त्वं वेत्थ भार्गव ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जातकर्म, व्रत, उपनयन, विवाह, गोदान, यज्ञ सम्पत्ति, शास्त्रीय दान, संयोग और धनसंग्रह आदि सारे कार्य अन्नसे ही सम्पादित होते हैं। भृगुनन्दन! इस बातको आप भी अच्छी तरह जानते हैं॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रमणीयानि यावन्ति यावदारम्भकाणि च।
सर्वमन्नात् प्रभवति विदितं कीर्तयामि ते ॥ २७ ॥

मूलम्

रमणीयानि यावन्ति यावदारम्भकाणि च।
सर्वमन्नात् प्रभवति विदितं कीर्तयामि ते ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जितने सुन्दर पदार्थ हैं, अथवा जो भी उत्पादक पदार्थ हैं, वे सब अन्नसे ही प्रकट होते हैं। यह सब मैं ऐसी बात बता रहा हूँ जो आपको पहलेसे ही विदित हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वं हि वेत्थ विप्र त्वं यदेतत् कीर्तितं मया।
प्रसादये त्वां विप्रर्षे किं ते सूर्यं निपात्य वै॥२८॥

मूलम्

सर्वं हि वेत्थ विप्र त्वं यदेतत् कीर्तितं मया।
प्रसादये त्वां विप्रर्षे किं ते सूर्यं निपात्य वै॥२८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विप्रवर! ब्रह्मर्षे! मैंने जो कुछ भी कहा है, वह सब आप भी जानते हैं। भला, सूर्यको गिरानेसे आपको क्या लाभ होगा? अतः मैं प्रार्थनापूर्वक आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ (कृपया सूर्यको नष्ट करनेका संकल्प छोड़ दीजिये)’॥२८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि छत्रोपानहोत्पत्तिर्नाम पञ्चनवतितमोऽध्यायः ॥ ९५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें छत्र और उपानहकी उत्पत्तिनामक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९५॥