०९४ शपथविधिः

भागसूचना

चतुर्नवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ब्रह्मसरतीर्थमें अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होनेपर ब्रह्मर्षियों और राजर्षियोंकी धर्मोपदेशपूर्ण शपथ तथा धर्मज्ञानके उद्देश्यसे चुराये हुए कमलोंका वापस देना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यद् वृत्तं तीर्थयात्रायां शपथं प्रति तच्छृणु ॥ १ ॥

मूलम्

अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यद् वृत्तं तीर्थयात्रायां शपथं प्रति तच्छृणु ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इसी विषयमें एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है। तीर्थयात्राके प्रसंगमें इसी तरहकी शपथको लेकर जो एक घटना घटित हुई थी, उसे बताता हूँ, सुनो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्करार्थं कृतं स्तैन्यं पुरा भरतसत्तम।
राजर्षिभिर्महाराज तथैव च द्विजर्षिभिः ॥ २ ॥

मूलम्

पुष्करार्थं कृतं स्तैन्यं पुरा भरतसत्तम।
राजर्षिभिर्महाराज तथैव च द्विजर्षिभिः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशशिरोमणे! महाराज! पूर्वकालमें कुछ राजर्षियों और ब्रह्मर्षियोंने भी इसी प्रकार कमलोंके लिये चोरी की थी॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषयः समेताः पश्चिमे वै प्रभासे
समागता मन्त्रममन्त्रयन्त ।
चराम सर्वां पृथिवीं पुण्यतीर्थां
तन्नः कामं हन्त गच्छाम सर्वे ॥ ३ ॥

मूलम्

ऋषयः समेताः पश्चिमे वै प्रभासे
समागता मन्त्रममन्त्रयन्त ।
चराम सर्वां पृथिवीं पुण्यतीर्थां
तन्नः कामं हन्त गच्छाम सर्वे ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पश्चिम समुद्रके तटपर प्रभास तीर्थमें बहुत-से ऋषि एकत्र हुए थे। उन समागत महर्षियोंने आपसमें यह सलाह की कि हमलोग अनेक पुण्यतीर्थोंसे भरी हुई समूची पृथ्वीकी यात्रा करें। यह हम सभी लोगोंकी अभिलाषा है। अतः सब लोग साथ-ही-साथ यात्रा प्रारम्भ कर दें॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुक्रोऽङ्गिराश्चैव कविश्च विद्वां-
स्तथा ह्यगस्त्यो नारदपर्वतौ च।
भृगुर्वसिष्ठः कश्यपो गौतमश्च
विश्वामित्रो जमदग्निश्च राजन् ॥ ४ ॥
ऋषिस्तथा गालवोऽथाष्टकश्च
भरद्वाजोऽरुन्धती वालखिल्याः ।
शिबिर्दिलीपो नहुषोऽम्बरीषो
राजा ययातिर्धुन्धुमारोऽथ पूरुः ॥ ५ ॥
जग्मुः पुरस्कृत्य महानुभावं
शतक्रतुं वृत्रहणं नरेन्द्राः ।
तीर्थानि सर्वाणि परिभ्रमन्तो
माघ्यां ययुः कौशिकीं पुण्यतीर्थाम् ॥ ६ ॥

मूलम्

शुक्रोऽङ्गिराश्चैव कविश्च विद्वां-
स्तथा ह्यगस्त्यो नारदपर्वतौ च।
भृगुर्वसिष्ठः कश्यपो गौतमश्च
विश्वामित्रो जमदग्निश्च राजन् ॥ ४ ॥
ऋषिस्तथा गालवोऽथाष्टकश्च
भरद्वाजोऽरुन्धती वालखिल्याः ।
शिबिर्दिलीपो नहुषोऽम्बरीषो
राजा ययातिर्धुन्धुमारोऽथ पूरुः ॥ ५ ॥
जग्मुः पुरस्कृत्य महानुभावं
शतक्रतुं वृत्रहणं नरेन्द्राः ।
तीर्थानि सर्वाणि परिभ्रमन्तो
माघ्यां ययुः कौशिकीं पुण्यतीर्थाम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ऐसा निश्चय करके शुक्र, अंगिरा, विद्वान् कवि, अगस्त्य, नारद, पर्वत, भृगु, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, विश्वामित्र, जमदग्नि, गालव मुनि, अष्टक, भरद्वाज, अरुन्धती, वालखिल्यगण, शिबि, दिलीप, नहुष, अम्बरीष, राजा ययाति, धुन्धुमार और पूरु—ये सभी राजर्षि तथा ब्रह्मर्षि वज्रधारी महानुभाव वृत्रहन्ता शतक्रतु इन्द्रको आगे करके यात्राके लिये निकले और सभी तीर्थोंमें घूमते हुए माघ मासकी पूर्णिमा तिथिको पुण्यसलिला कौशिकी नदीके तटपर जा पहुँचे॥४—६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेषु तीर्थेष्ववधूतपापा
जग्मुस्ततो ब्रह्मसरः सुपुण्यम् ।
देवस्य तीर्थे जलमग्निकल्पा
विगाह्य ते भुक्तबिसप्रसूनाः ॥ ७ ॥

मूलम्

सर्वेषु तीर्थेष्ववधूतपापा
जग्मुस्ततो ब्रह्मसरः सुपुण्यम् ।
देवस्य तीर्थे जलमग्निकल्पा
विगाह्य ते भुक्तबिसप्रसूनाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वहाँके तीर्थोंमें स्नानके द्वारा अपने पाप धो करके ऋषिगण उस स्थानसे परम पवित्र ब्रह्मसर तीर्थमें गये। उन अग्निके समान तेजस्वी ऋषियोंने वहाँके जलमें स्नान करके कमलके फूलोंका आहार किया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचिद् बिसान्यखनंस्तत्र राज-
न्नन्ये मृणालान्यखनंस्तत्र विप्राः ।
अथापश्यन् पुष्करं ते ह्रियन्तं
ह्रदादगस्त्येन समुद्धृतं तत् ॥ ८ ॥

मूलम्

केचिद् बिसान्यखनंस्तत्र राज-
न्नन्ये मृणालान्यखनंस्तत्र विप्राः ।
अथापश्यन् पुष्करं ते ह्रियन्तं
ह्रदादगस्त्येन समुद्धृतं तत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! कुछ ऋषि वहाँ कमल खोदने लगे। कुछ ब्राह्मण मृणाल उखाड़ने लगे। इसी बीचमें अगस्त्यजीने उस पोखरेसे जितना कमल उखाड़कर रखा था, वह सब सहसा गायब हो गया। इस बातको सबने देखा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानाह सर्वानृषिमुख्यानगस्त्यः
केनादत्तं पुष्करं मे सुजातम्।
युष्मान् शंके पुष्करं दीयतां मे
न वै भवन्तो हर्तुमर्हन्ति पद्‌मम् ॥ ९ ॥

मूलम्

तानाह सर्वानृषिमुख्यानगस्त्यः
केनादत्तं पुष्करं मे सुजातम्।
युष्मान् शंके पुष्करं दीयतां मे
न वै भवन्तो हर्तुमर्हन्ति पद्‌मम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अगस्त्यजीने उन समस्त ऋषियोंसे पूछा—‘किसने मेरे सुन्दर कमल ले लिये। मैं आप सब लोगोंपर संदेह करता हूँ। मेरे कमल लौटा दीजिये। आप-जैसे साधु पुरुषोंको कमलोंकी चोरी करना कदापि उचित नहीं है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणोमि कालो हिंसते धर्मवीर्यं
सोऽयं प्राप्तो वर्तते धर्मपीडा।
पुराधर्मो वर्तते नेह यावत्
तावद् गच्छामः सुरलोकं चिराय ॥ १० ॥

मूलम्

शृणोमि कालो हिंसते धर्मवीर्यं
सोऽयं प्राप्तो वर्तते धर्मपीडा।
पुराधर्मो वर्तते नेह यावत्
तावद् गच्छामः सुरलोकं चिराय ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुनता हूँ कि काल धर्मकी शक्तिको नष्ट कर देता है। वही काल इस समय प्राप्त हुआ है। तभी तो धर्मको हानि पहुँचायी जा रही है—अस्तेय-धर्मका हनन हो रहा है। अतः इस जगत्‌में अधर्मका विस्तार न हो इसके पहले ही हम चिरकालके लिये स्वर्गलोकमें चले जायँ॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा वेदान् ब्राह्मणा ग्राममध्ये
घुष्टस्वरा वृषलान् श्रावयन्ति ।
पुरा राजा व्यवहारेण धर्मान्
पश्यत्यहं परलोकं व्रजामि ॥ ११ ॥

मूलम्

पुरा वेदान् ब्राह्मणा ग्राममध्ये
घुष्टस्वरा वृषलान् श्रावयन्ति ।
पुरा राजा व्यवहारेण धर्मान्
पश्यत्यहं परलोकं व्रजामि ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्राह्मणलोग गाँवके बीचमें उच्चस्वरसे वेदपाठ करके शूद्रोंको सुनाने लगें तथा राजा व्यावसायिक दृष्टिसे धर्मको देखने लगें, इसके पहले ही मैं परलोकमें चला जाऊँ॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा वरान् प्रत्यवरान् गरीयसो
यावन्नरा नावमंस्यन्ति सर्वे ।
तमोत्तरं यावदिदं न वर्तते
तावद् व्रजामि परलोकं चिराय ॥ १२ ॥

मूलम्

पुरा वरान् प्रत्यवरान् गरीयसो
यावन्नरा नावमंस्यन्ति सर्वे ।
तमोत्तरं यावदिदं न वर्तते
तावद् व्रजामि परलोकं चिराय ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जबतक सभी श्रेष्ठ मनुष्य महान् पुरुषोंकी नीचोंके समान अवहेलना नहीं करते हैं तथा जबतक इस संसारमें अज्ञानजनित तमोगुणका बाहुल्य नहीं हो जाता, इसके पहले ही मैं चिरकालके लिये परलोक चला जाऊँ॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा प्रपश्यामि परेण मर्त्यान्
बलीयसा दुर्बलान् भुज्यमानान् ।
तस्माद् यास्यामि परलोकं चिराय
न ह्युत्सहे द्रष्टुमिह जीवलोकम् ॥ १३ ॥

मूलम्

पुरा प्रपश्यामि परेण मर्त्यान्
बलीयसा दुर्बलान् भुज्यमानान् ।
तस्माद् यास्यामि परलोकं चिराय
न ह्युत्सहे द्रष्टुमिह जीवलोकम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भविष्यकालमें बलवान् मनुष्य दुर्बलोंको अपने उपभोगमें लायेंगे, इस बातको मैं अभीसे देख रहा हूँ। इसलिये मैं दीर्घकालके लिये परलोकमें चला जाऊँ। यहाँ रहकर इस जीवजगत्‌की ऐसी दुरवस्था मैं नहीं देख सकता’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमाहुरार्ता ऋषयो महर्षिं
न ते वयं पुष्करं चोरयामः।
मिथ्याभिषंगो भवता न कार्यः
शपाम तीक्ष्णैः शपथैर्महर्षे ॥ १४ ॥

मूलम्

तमाहुरार्ता ऋषयो महर्षिं
न ते वयं पुष्करं चोरयामः।
मिथ्याभिषंगो भवता न कार्यः
शपाम तीक्ष्णैः शपथैर्महर्षे ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर सभी महर्षि घबरा उठे और अगस्त्यजीसे बोले—‘महर्षे! हमने आपके कमल नहीं चुराये हैं। आपको झूठा कलंक नहीं लगाना चाहिये। हम अपनी सफाई देनेके लिये कठोर-से-कठोर शपथ खा सकते हैं’॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते निश्चितास्तत्र महर्षयस्तु
सम्पश्यन्तो धर्ममेतं नरेन्द्राः ।
ततोऽशपन्त शपथान् पर्ययेण
सहैव ते पार्थिव पुत्रपौत्रैः ॥ १५ ॥

मूलम्

ते निश्चितास्तत्र महर्षयस्तु
सम्पश्यन्तो धर्ममेतं नरेन्द्राः ।
ततोऽशपन्त शपथान् पर्ययेण
सहैव ते पार्थिव पुत्रपौत्रैः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! तदनन्तर वे महर्षि तथा नरेशगण वहाँ कुछ निश्चय करके इस धर्मपर दृष्टि रखते हुए पुत्रों और पौत्रोंसहित बारी-बारीसे शपथ खाने लगे॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

भृगुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्याक्रोशेदिहाक्रुष्टस्ताडितः प्रतिताडयेत् ।
खादेच्च पृष्ठमांसानि यस्ते हरति पुष्करम् ॥ १६ ॥

मूलम्

प्रत्याक्रोशेदिहाक्रुष्टस्ताडितः प्रतिताडयेत् ।
खादेच्च पृष्ठमांसानि यस्ते हरति पुष्करम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगु बोले— मुने! जिसने आपके कमलकी चोरी की है, वह गाली सुनकर बदलेमें गाली दे और मार खाकर बदलेमें स्वयं भी मारे तथा दूसरेकी पीठके मांस खाय अर्थात् उपर्युक्त पापोंका भागी हो॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्वाध्यायपरो लोके श्वानं च परिकर्षतु।
पुरे च भिक्षुर्भवतु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ १७ ॥

मूलम्

अस्वाध्यायपरो लोके श्वानं च परिकर्षतु।
पुरे च भिक्षुर्भवतु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठने कहा— जिसने आपके कमल चुराये हो, वह स्वाध्यायसे विमुख हो जाय। कुत्ता साथ लेकर शिकार खेले और गाँव-गाँव भीख माँगता फिरे॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

कश्यप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वत्र सर्वं पणतु न्यासे लोभं करोतु च।
कूटसाक्षित्वमभ्येतु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ १८ ॥

मूलम्

सर्वत्र सर्वं पणतु न्यासे लोभं करोतु च।
कूटसाक्षित्वमभ्येतु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कश्यपने कहा— जो आपका कमल चुरा ले गया हो, वह सब जगह सब तरहकी वस्तुओंकी खरीद-विक्री करे। किसीकी धरोहरको हड़प लेनेका लोभ करे और झूठी गवाही दे, अर्थात् उपर्युक्त पापोंका भागी हो॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

गौतम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवत्वहंकृतो बुद्‌ध्या विषमेणासमेन सः।
कर्षको मत्सरी चास्तु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ १९ ॥

मूलम्

जीवत्वहंकृतो बुद्‌ध्या विषमेणासमेन सः।
कर्षको मत्सरी चास्तु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौतम बोले— जिसने आपके कमलकी चोरी की हो, वह अहंकारी, बेईमान और अयोग्यका साथ करनेवाला, खेती करनेवाला और ईर्ष्यायुक्त होकर जीवन व्यतीत करे॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

अंगिरा उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशुचिर्ब्रह्मकूटोऽस्तु श्वानं च परिकर्षतु।
ब्रह्महानिकृतिश्चास्तु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २० ॥

मूलम्

अशुचिर्ब्रह्मकूटोऽस्तु श्वानं च परिकर्षतु।
ब्रह्महानिकृतिश्चास्तु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंगिराने कहा— जो आपका कमल ले गया हो, वह अपवित्र, वेदको मिथ्या बतानेवाला, ब्रह्महत्यारा और अपने पापोंका प्रायश्चित्त न करनेवाला हो। इतना ही नहीं, वह कुत्तोंको साथ लेकर शिकार खेलता फिरे, अर्थात् उपर्युक्त पापोंका भागी हो॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

धुन्धुमार उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकृतज्ञस्तु मित्राणां शूद्रायां च प्रजायतु।
एकः सम्पन्नमश्नातु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २१ ॥

मूलम्

अकृतज्ञस्तु मित्राणां शूद्रायां च प्रजायतु।
एकः सम्पन्नमश्नातु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धुन्धुमारने कहा— जिसने आपके कमलोंकी चोरी की हो, वह अपने मित्रोंका उपकार न माने। शूद्र जातिकी स्त्रीसे संतान उत्पन्न करे और अकेला ही स्वादिष्ट अन्न भोजन करे। अर्थात् इन पापोंके फलका भागी बने॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

पूरुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिकित्सायां प्रचरतु भार्यया चैव पुष्यतु।
श्वशुरात्तस्य वृत्तिः स्याद् यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २२ ॥

मूलम्

चिकित्सायां प्रचरतु भार्यया चैव पुष्यतु।
श्वशुरात्तस्य वृत्तिः स्याद् यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूरु बोले— जों आपका कमल चुरा ले गया हो, वह चिकित्साका व्यवसाय (वैद्य या डॉक्टरका पेशा) करे। स्त्रीकी कमाई खाय और ससुरालके धनपर गुजारा करे॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

दिलीप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदपानप्लवे ग्रामे ब्राह्मणो वृषलीपतिः।
तस्य लोकान् स व्रजतु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २३ ॥

मूलम्

उदपानप्लवे ग्रामे ब्राह्मणो वृषलीपतिः।
तस्य लोकान् स व्रजतु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दिलीप बोले— जो आपका कमल चुराकर ले गया हो, वह एक कूएँपर सबके साथ पानी भरनेवाले गाँवमें रहकर शूद्र जातिकी स्त्रीसे सम्बन्ध रखनेवाले ब्राह्मणको मृत्युके पश्चात् जिन दुःखदायी लोकोंमें जाना पड़ता है, उन्हींमें जाय॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

शुक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृथामांसं समश्नातु दिवा गच्छतु मैथुनम्।
प्रेष्यो भवतु राज्ञश्च यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २४ ॥

मूलम्

वृथामांसं समश्नातु दिवा गच्छतु मैथुनम्।
प्रेष्यो भवतु राज्ञश्च यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुक्रने कहा— जो आपका कमल चुराकर ले गया हो, उसे मांस खानेका, दिनमें मैथुन करनेका और राजाकी नौकरी करनेका पाप लगे॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

जमदग्निरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनध्यायेष्वधीयीत मित्रं श्राद्धे च भोजयेत्।
श्राद्धे शूद्रस्य चाश्नीयाद् यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २५ ॥

मूलम्

अनध्यायेष्वधीयीत मित्रं श्राद्धे च भोजयेत्।
श्राद्धे शूद्रस्य चाश्नीयाद् यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जमदग्नि बोले— जिसने आपके कमल लिये हों, वह निषिद्ध कालमें अध्ययन करे। मित्रको ही श्राद्धमें जिमावे तथा स्वयं भी शूद्रके श्राद्धमें भोजन करे॥२५॥

मूलम् (वचनम्)

शिबिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाहिताग्निर्म्रियतां यज्ञे विघ्नं करोतु च।
तपस्विभिर्विरुध्येच्च यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २६ ॥

मूलम्

अनाहिताग्निर्म्रियतां यज्ञे विघ्नं करोतु च।
तपस्विभिर्विरुध्येच्च यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिबिने कहा— जो आपका कमल चुरा ले गया हो; वह अग्निहोत्र किये बिना ही मर जाय, यज्ञमें विघ्न डाले और तपस्वी जनोंके साथ विरोध करे, अर्थात् इन सब पापोंके फलका भागी हो॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनृतौ च व्रती चैव भार्यायां स प्रजायतु।
निराकरोतु वेदांश्च यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २७ ॥

मूलम्

अनृतौ च व्रती चैव भार्यायां स प्रजायतु।
निराकरोतु वेदांश्च यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययातिने कहा— जिसने आपके कमलोंकी चोरी की हो, वह व्रतधारी होकर भी ऋतुकालसे अतिरिक्त समयमें स्त्री-समागम करे और वेदोंका खण्डन करे, अर्थात् इन सब पापोंके फलका भागी हो॥२७॥

मूलम् (वचनम्)

नहुष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिथिर्गृहसंस्थोऽस्तु कामवृत्तस्तु दीक्षितः ।
विद्यां प्रयच्छतु भृतो यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २८ ॥

मूलम्

अतिथिर्गृहसंस्थोऽस्तु कामवृत्तस्तु दीक्षितः ।
विद्यां प्रयच्छतु भृतो यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नहुष बोले— जिसने आपके कमलोंका अपहरण किया हो, वह संन्यासी होकर भी घरमें रहे। यज्ञकी दीक्षा लेकर भी इच्छाचारी हो और वेतन लेकर विद्या पढ़ाये, अर्थात् इन सब पापोंके फलका भागी हो॥२८॥

मूलम् (वचनम्)

अम्बरीष उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृशंसस्त्यक्तधर्मोऽस्तु स्त्रीषु ज्ञातिषु गोषु च।
निहन्तु ब्राह्मणं चापि यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २९ ॥

मूलम्

नृशंसस्त्यक्तधर्मोऽस्तु स्त्रीषु ज्ञातिषु गोषु च।
निहन्तु ब्राह्मणं चापि यस्ते हरति पुष्करम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अम्बरीषने कहा— जो आपका कमल ले गया हो, वह क्रूरस्वभावका हो जाय। स्त्रियों, बन्धु-बान्धवों और गौओंके प्रति अपने धर्मका पालन न करे तथा ब्रह्महत्याके पापका भागी हो॥२९॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहज्ञानी बहिःशास्त्रं पठतां विस्वरं पदम्।
गरीयसोऽवजानातु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३० ॥

मूलम्

गृहज्ञानी बहिःशास्त्रं पठतां विस्वरं पदम्।
गरीयसोऽवजानातु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने कहा— जिसने आपके कमलोंका अपहरण किया हो,
वह देहरूपी घरको ही आत्मा समझे।
मर्यादाका उल्लंघन करके शास्त्र पढ़े।
स्वरहीन पदका उच्चारण करे
और गुरुजनोंका अपमान करता रहे,
अर्थात् उपर्युक्त पापोंका भागी बने॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

नाभाग उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनृतं भाषतु सदा सद्‌भिश्चैव विरुध्यतु।
शुल्केन तु ददत्कन्यां यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

अनृतं भाषतु सदा सद्‌भिश्चैव विरुध्यतु।
शुल्केन तु ददत्कन्यां यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाभाग बोले— जिसने आपके कमल चुराये हों, उसे सदा झूठ बोलनेका, संतोंके साथ विरोध करनेका और कीमत लेकर कन्या बेचनेका पाप लगे॥३१॥

मूलम् (वचनम्)

कविरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पद्‌भ्यां स गां ताडयतु सूर्यं च प्रतिमेहतु।
शरणागतं संत्यजतु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

पद्‌भ्यां स गां ताडयतु सूर्यं च प्रतिमेहतु।
शरणागतं संत्यजतु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कविने कहा— जिसने आपका कमल लिया हो, उसे गौको लात मारनेका, सूर्यकी ओर मुँह करके पेशाब करनेका और शरणागतको त्याग देनेका पाप लगे॥३२॥

मूलम् (वचनम्)

विश्वामित्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

करोतु भृतकोऽवर्षां राज्ञश्चास्तु पुरोहितः।
ऋत्विगस्तु ह्ययाज्यस्य यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

करोतु भृतकोऽवर्षां राज्ञश्चास्तु पुरोहितः।
ऋत्विगस्तु ह्ययाज्यस्य यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वामित्र बोले— जो आपका कमल चुरा ले गया हो, वह वैश्यका भृत्य होकर उसीके खेतमें वर्षा होनेमें बाधा उपस्थित करे। राजाका पुरोहित हो और यज्ञके अनधिकारीका यज्ञ करानेके लिये ऋत्विक् बने, अर्थात् इन पापोंके फलका भागी हो॥३३॥

मूलम् (वचनम्)

पर्वत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्रामे चाधिकृतः सोऽस्तु खरयानेन गच्छतु।
शुनः कर्षतु वृत्त्यर्थे यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

ग्रामे चाधिकृतः सोऽस्तु खरयानेन गच्छतु।
शुनः कर्षतु वृत्त्यर्थे यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पर्वतने कहा— जो आपका कमल ले गया हो, वह गाँवका मुखिया हो जाय, गधेकी सवारीपर चले तथा पेट भरनेके लिये कुत्तोंको साथ लेकर शिकार खेले॥

मूलम् (वचनम्)

भरद्वाज उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वपापसमादानं नृशंसे चानृते च यत्।
तत् तस्यास्तु सदा पापं यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

सर्वपापसमादानं नृशंसे चानृते च यत्।
तत् तस्यास्तु सदा पापं यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरद्वाजने कहा— जिसने आपके कमलोंकी चोरी की हो, उस पापीको निर्दयी और असत्यवादी मनुष्योंमें रहनेवाला सारा-का-सारा पाप सदा ही प्राप्त होता रहे॥३५॥

मूलम् (वचनम्)

अष्टक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजास्त्वकृतप्रज्ञः कामवृत्तश्च पापकृत्।
अधर्मेणाभिशास्तूर्वीं यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

स राजास्त्वकृतप्रज्ञः कामवृत्तश्च पापकृत्।
अधर्मेणाभिशास्तूर्वीं यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अष्टक बोले— जो आपका कमल ले गया हो, वह राजा मन्दबुद्धि, स्वेच्छाचारी और पापात्मा होकर अधर्मपूर्वक इस पृथ्वीका शासन करे॥३६॥

मूलम् (वचनम्)

गालव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापिष्ठेभ्यो ह्यनर्घार्हः स नरोऽस्तु स्वपापकृत्।
दत्त्वा दानं कीर्तयतु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

पापिष्ठेभ्यो ह्यनर्घार्हः स नरोऽस्तु स्वपापकृत्।
दत्त्वा दानं कीर्तयतु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गालव बोले— जो आपका कमल चुरा ले गया हो, वह महापापियोंसे भी बढ़कर अनादरणीय हो, स्वजनोंका भी अपकार करे तथा दान देकर अपने ही मुखसे उसका बखान करे॥३७॥

मूलम् (वचनम्)

अरुन्धत्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वश्र्वापवादं मदतु भर्तुर्भवतु दुर्मनाः।
एका स्वादु समश्नातु या ते हरति पुष्करम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

श्वश्र्वापवादं मदतु भर्तुर्भवतु दुर्मनाः।
एका स्वादु समश्नातु या ते हरति पुष्करम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरुन्धती बोलीं— जिस स्त्रीने आपका कमल लिया हो, वह अपने सासकी निन्दा करे, पतिके लिये अपने मनमें दुर्भावना रखे और अकेली ही स्वादिष्ट भोजन किया करे, अर्थात् इन सब पापोंकी फलभागिनी बने॥३८॥

मूलम् (वचनम्)

वालखिल्या ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकपादेन वृत्त्यर्थं ग्रामद्वारे स तिष्ठतु।
धर्मज्ञस्त्यक्तधर्मास्तु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

एकपादेन वृत्त्यर्थं ग्रामद्वारे स तिष्ठतु।
धर्मज्ञस्त्यक्तधर्मास्तु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बालखिल्य बोले— जो आपका कमल ले गया हो, वह अपनी जीविकाके लिये गाँवके दरवाजेपर एक पैरसे खड़ा रहे और धर्मको जानते हुए भी उसका परित्याग करे॥३९॥

मूलम् (वचनम्)

शुनःसख उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निहोत्रमनादृत्य स सुखं स्वपतु द्विजः।
परिव्राट् कामवृत्तोऽस्तु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ४० ॥

मूलम्

अग्निहोत्रमनादृत्य स सुखं स्वपतु द्विजः।
परिव्राट् कामवृत्तोऽस्तु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुनःसख बोले— जो आपका कमल ले गया हो, वह द्विज होकर भी सबेरे और शामको अग्निहोत्रकी अवहेलना करके सुखसे सोये तथा संन्यासी होकर भी मनमाना बर्ताव करे, अर्थात् उपर्युक्त पापोंके फलका भागी हो॥४०॥

मूलम् (वचनम्)

सुरभ्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालजेन निदानेन कांस्यं भवतु दोहनम्।
दुह्येत परवत्सेन या ते हरति पुष्करम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

बालजेन निदानेन कांस्यं भवतु दोहनम्।
दुह्येत परवत्सेन या ते हरति पुष्करम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुरभि बोली— जो गाय आपका कमल ले गयी हो, उसके पैर बालोंकी रस्सीसे बाँधे जायँ, उसके दूधके लिये ताँबे मिले हुए धातुका दोहनपात्र हो और वह दूसरे गायके बछड़ेसे दुही जाय॥४१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु तैः शपथैः शप्यमानै-
र्नानाविधैर्बहुभिः कौरवेन्द्र ।
सहस्राक्षो देवराट् सम्प्रहृष्टः
समीक्ष्य तं कोपनं विप्रमुख्यम् ॥ ४२ ॥

मूलम्

ततस्तु तैः शपथैः शप्यमानै-
र्नानाविधैर्बहुभिः कौरवेन्द्र ।
सहस्राक्षो देवराट् सम्प्रहृष्टः
समीक्ष्य तं कोपनं विप्रमुख्यम् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— कौरवेन्द्र! इस प्रकार जब सब लोग नाना प्रकारकी अनेकानेक शपथ कर चुके, तब सहस्र नेत्रधारी देवराज इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए और उन विप्रवर अगस्त्यको कुपित हुआ देख उनके सामने प्रकट हो गये॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाब्रवीन्मघवा प्रत्ययं स्वं
समाभाष्य तमृषिं जातरोषम् ।
ब्रह्मर्षिर्देवर्षिनृपर्षिमध्ये
यं तं निबोधेह ममाद्य राजन् ॥ ४३ ॥

मूलम्

अथाब्रवीन्मघवा प्रत्ययं स्वं
समाभाष्य तमृषिं जातरोषम् ।
ब्रह्मर्षिर्देवर्षिनृपर्षिमध्ये
यं तं निबोधेह ममाद्य राजन् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ब्रह्मर्षियों, देवर्षियों तथा राजर्षियोंके बीचमें कुपित हुए महर्षि अगस्त्यको सम्बोधित करके देवराज इन्द्रने जो अपना अभिप्राय व्यक्त किया, उसे आज तुम मेरे मुखसे यहाँ सुनो॥४३॥

मूलम् (वचनम्)

शक्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्वर्यवे दुहितरं ददातु
छन्दोगे वा चरितब्रह्मचर्ये ।
अथर्वणं वेदमधीत्य विप्रः
स्नायीत यः पुष्करमाददाति ॥ ४४ ॥

मूलम्

अध्वर्यवे दुहितरं ददातु
छन्दोगे वा चरितब्रह्मचर्ये ।
अथर्वणं वेदमधीत्य विप्रः
स्नायीत यः पुष्करमाददाति ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बोले— ब्रह्मन्! जो आपका कमल ले गया हो, वह ब्रह्मचर्य व्रतको पूर्ण करके आये हुए यजुर्वेदी अथवा सामवेदी विद्वान्‌को कन्यादान दे। अथवा वह ब्राह्मण अथर्ववेदका अध्ययन पूरा करके शीघ्र ही स्नातक बन जाय॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वान् वेदानधीयीत पुण्यशीलोऽस्तु धार्मिकः।
ब्रह्मणः सदनं यातु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

सर्वान् वेदानधीयीत पुण्यशीलोऽस्तु धार्मिकः।
ब्रह्मणः सदनं यातु यस्ते हरति पुष्करम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने आपके कमलोंका अपहरण किया हो, वह सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करे। पुण्यात्मा और धार्मिक हो, तथा मृत्युके पश्चात् वह ब्रह्माजीके लोकमें जाय॥

मूलम् (वचनम्)

अगस्त्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आशीर्वादस्त्वया प्रोक्तः शपथो बलसूदन।
दीयतां पुष्करं मह्यमेष धर्मः सनातनः ॥ ४६ ॥

मूलम्

आशीर्वादस्त्वया प्रोक्तः शपथो बलसूदन।
दीयतां पुष्करं मह्यमेष धर्मः सनातनः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अगस्त्यने कहा— बलसूदन! आपने जो शपथ की है, वह तो आशीर्वादस्वरूप है। अतः आपने ही मेरे कमल लिये हैं, कृपया उन्हें मुझे दे दीजिये। यही सनातन धर्म है॥४६॥

मूलम् (वचनम्)

इन्द्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मया भगवल्लोँभाद्धृतं पुष्करमद्य वै।
धर्मांस्तु श्रोतुकामेन हृतं न क्रोद्धुमर्हसि ॥ ४७ ॥

मूलम्

न मया भगवल्लोँभाद्धृतं पुष्करमद्य वै।
धर्मांस्तु श्रोतुकामेन हृतं न क्रोद्धुमर्हसि ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बोले— भगवन्! मैंने लोभवश कमलोंको नहीं लिया था। आपलोगोंके मुखसे धर्मकी बातें सुनना चाहता था, इसीलिये इन कमलोंका अपहरण कर लिया था। अतः मुझपर क्रोध न कीजियेगा॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मश्रुतिसमुत्कर्षो धर्मसेतुरनामयः ।
आर्षो वै शाश्वतो नित्यमव्ययोऽयं मया श्रुतः ॥ ४८ ॥

मूलम्

धर्मश्रुतिसमुत्कर्षो धर्मसेतुरनामयः ।
आर्षो वै शाश्वतो नित्यमव्ययोऽयं मया श्रुतः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज मैंने आपलोगोंके मुखसे उस आर्ष सनातन धर्मका श्रवण किया है जो नित्य अविकारी, अनामय और संसार-सागरसे पार उतारनेके लिये पुलके समान है। इससे धार्मिक श्रुतियोंका उत्कर्ष सिद्ध होता है॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदिदं गृह्यतां विद्वन् पुष्करं द्विजसत्तम।
अतिक्रमं मे भगवन् क्षन्तुमर्हस्यनिन्दित ॥ ४९ ॥

मूलम्

तदिदं गृह्यतां विद्वन् पुष्करं द्विजसत्तम।
अतिक्रमं मे भगवन् क्षन्तुमर्हस्यनिन्दित ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! विद्वन्! अब आप अपने ये कमल लीजिये। भगवन्! अनिन्दनीय महर्षे! मेरा अपराध क्षमा कीजिये॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स महेन्द्रेण तपस्वी कोपनो भृशम्।
जग्राह पुष्करं धीमान् प्रसन्नश्चाभवन्मुनिः ॥ ५० ॥

मूलम्

इत्युक्तः स महेन्द्रेण तपस्वी कोपनो भृशम्।
जग्राह पुष्करं धीमान् प्रसन्नश्चाभवन्मुनिः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महेन्द्रके ऐसा कहनेपर वे क्रोधी तपस्वी बुद्धिमान् अगस्त्य मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने इन्द्रके हाथसे अपने कमल ले लिये॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रययुस्ते ततो भूयस्तीर्थानि वनगोचराः।
पुण्येषु तीर्थेषु तथा गात्राण्याप्लावयन्त ते ॥ ५१ ॥

मूलम्

प्रययुस्ते ततो भूयस्तीर्थानि वनगोचराः।
पुण्येषु तीर्थेषु तथा गात्राण्याप्लावयन्त ते ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उन सब लोगोंने वनके मार्गोंसे होते हुए पुनः तीर्थयात्रा आरम्भ की और पुण्यतीर्थोंमें जा-जाकर गोते लगाकर स्नान किया॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आख्यानं य इदं युक्तः पठेत् पर्वणि पर्वणि।
न मूर्खं जनयेत् पुत्रं न भवेच्च निराकृतिः ॥ ५२ ॥

मूलम्

आख्यानं य इदं युक्तः पठेत् पर्वणि पर्वणि।
न मूर्खं जनयेत् पुत्रं न भवेच्च निराकृतिः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्रत्येक पर्वके अवसरपर एकाग्रचित्त हो इस पवित्र आख्यानका पाठ करता है, वह कभी मूर्ख पुत्रको नहीं जन्म देता है, तथा स्वयं भी किसी अंगसे हीन या असफलमनोरथ नहीं होता है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तमापत्‌ स्पृशेत्‌ काचिद् विज्वरो नजरावहः।
विरजाः श्रेयसा युक्तः प्रेत्य स्वर्गमवाप्नुयात् ॥ ५३ ॥

मूलम्

न तमापत्‌ स्पृशेत्‌ काचिद् विज्वरो नजरावहः।
विरजाः श्रेयसा युक्तः प्रेत्य स्वर्गमवाप्नुयात् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके ऊपर कोई आपत्ति नहीं आती। वह चिन्तारहित होता है। उसके ऊपर जरावस्थाका आक्रमण नहीं होता। वह रागशून्य होकर कल्याणका भागी होता है तथा मृत्युके पश्चात् स्वर्गलोकमें जाता है॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्च शास्त्रमधीयीत ऋषिभिः परिपालितम्।
स गच्छेद् ब्रह्मणो लोकमव्ययं च नरोत्तम ॥ ५४ ॥

मूलम्

यश्च शास्त्रमधीयीत ऋषिभिः परिपालितम्।
स गच्छेद् ब्रह्मणो लोकमव्ययं च नरोत्तम ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! जो ऋषियोंद्वारा सुरक्षित इस शास्त्रका अध्ययन करता है, वह अविनाशी ब्रह्मधामको प्राप्त होता है॥५४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि शपथविधिर्नाम चतुर्नवतितमोऽध्यायः ॥ ९४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें शपथविधिनामक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९४॥