०९३ बिसस्तैन्योपाख्याने

भागसूचना

त्रिनवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

गृहस्थके धर्मोंका रहस्य, प्रतिग्रहके दोष बतानेके लिये वृषादर्भि और सप्तर्षियोंकी कथा, भिक्षुरूपधारी इन्द्रके द्वारा कृत्याका वध करके सप्तर्षियोंकी रक्षा तथा कमलोंकी चोरीके विषयमें शपथ खानेके बहानेसे धर्मपालनका संकेत

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विजातयो व्रतोपेता हविस्ते यदि भुञ्जते।
अन्नं ब्राह्मणकामाय कथमेतत् पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

द्विजातयो व्रतोपेता हविस्ते यदि भुञ्जते।
अन्नं ब्राह्मणकामाय कथमेतत् पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! यदि व्रतधारी विप्र किसी ब्राह्मणकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये उसके घर श्राद्धका अन्न भोजन कर ले तो इसे आप कैसा मानते हैं? (अपने व्रतका लोप करना उचित है या ब्राह्मणकी प्रार्थना अस्वीकार करना)॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवेदोक्तव्रताश्चैव भुञ्जानाः कामकारणे ।
वेदोक्तेषु तु भुञ्जाना व्रतलुप्ता युधिष्ठिर ॥ २ ॥

मूलम्

अवेदोक्तव्रताश्चैव भुञ्जानाः कामकारणे ।
वेदोक्तेषु तु भुञ्जाना व्रतलुप्ता युधिष्ठिर ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! जो वेदोक्त व्रतका पालन नहीं करते, वे ब्राह्मणकी इच्छापूर्तिके लिये श्राद्धमें भोजन कर सकते हैं; किंतु जो वैदिक व्रतका पालन कर रहे हों, वे यदि किसीके अनुरोधसे श्राद्धका अन्न ग्रहण करते हैं तो उनका व्रत भंग हो जाता है॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदिदं तप इत्याहुरुपवासं पृथग्जनाः।
तपः स्यादेतदेवेह तपोऽन्यद् वापि किं भवेत् ॥ ३ ॥

मूलम्

यदिदं तप इत्याहुरुपवासं पृथग्जनाः।
तपः स्यादेतदेवेह तपोऽन्यद् वापि किं भवेत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! साधारण लोग जो उपवासको ही तप कहा करते हैं, उसके सम्बन्धमें आपकी क्या धारणा है? मैं यह जानना चाहता हूँ कि वास्तवमें उपवास ही तप है या उसका और कोई स्वरूप है॥३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मासार्धमासोपवासाद् यत् तपो मन्यते जनः।
आत्मतन्त्रोपघाती यो न तपस्वी न धर्मवित् ॥ ४ ॥

मूलम्

मासार्धमासोपवासाद् यत् तपो मन्यते जनः।
आत्मतन्त्रोपघाती यो न तपस्वी न धर्मवित् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! जो लोग पंद्रह दिन या एक महीनेतक उपवास करके उसे तपस्या मानते हैं, वे व्यर्थ ही अपने शरीरको कष्ट देते हैं। वास्तवमें केवल उपवास करनेवाले न तपस्वी हैं, न धर्मज्ञ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यागस्य चापि सम्पत्तिः शिष्यते तप उत्तमम्।
सदोपवासी च भवेद् ब्रह्मचारी तथैव च ॥ ५ ॥
मुनिश्च स्यात् सदा विप्रो वेदांश्चैव सदा जपेत्।

मूलम्

त्यागस्य चापि सम्पत्तिः शिष्यते तप उत्तमम्।
सदोपवासी च भवेद् ब्रह्मचारी तथैव च ॥ ५ ॥
मुनिश्च स्यात् सदा विप्रो वेदांश्चैव सदा जपेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

त्यागका सम्पादन ही सबसे उत्तम तपस्या है। ब्राह्मणको सदा उपवासी (व्रतपरायण), ब्रह्मचारी, मुनि और वेदोंका स्वाध्यायी होना चाहिये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुटुम्बिको धर्मकामः सदास्वप्नश्च मानवः ॥ ६ ॥
अमांसाशी सदा च स्यात् पवित्रं च सदा पठेत्।
ऋतवादी सदा च स्यान्नियतश्च सदा भवेत् ॥ ७ ॥
विघसाशी कथं च स्याद् सदा चैवातिथिप्रियः।
अमृताशी सदा च स्यात् पवित्री च सदा भवेत्॥८॥

मूलम्

कुटुम्बिको धर्मकामः सदास्वप्नश्च मानवः ॥ ६ ॥
अमांसाशी सदा च स्यात् पवित्रं च सदा पठेत्।
ऋतवादी सदा च स्यान्नियतश्च सदा भवेत् ॥ ७ ॥
विघसाशी कथं च स्याद् सदा चैवातिथिप्रियः।
अमृताशी सदा च स्यात् पवित्री च सदा भवेत्॥८॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मपालनकी इच्छासे ही उसको स्त्री आदि कुटुम्बका संग्रह करना चाहिये (विषयभोगके लिये नहीं)। ब्राह्मणको उचित है कि वह सदा जाग्रत् रहे, मांस कभी न खाय, पवित्रभावसे सदा वेदका पाठ करे, सदा सत्य भाषण करे और इन्द्रियोंको संयममें रखे। उसको सदा अमृताशी, विघसाशी और अतिथिप्रिय तथा सदा पवित्र रहना चाहिये॥६—८॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं सदोपवासी स्याद् ब्रह्मचारी च पार्थिव।
विघसाशी कथं च स्यात् कथं चैवातिथिप्रियः ॥ ९ ॥

मूलम्

कथं सदोपवासी स्याद् ब्रह्मचारी च पार्थिव।
विघसाशी कथं च स्यात् कथं चैवातिथिप्रियः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पृथ्वीनाथ! ब्राह्मण कैसे सदा उपवासी और ब्रह्मचारी होवे? तथा किस प्रकार वह विघसाशी एवं अतिथिप्रिय हो सकता है?॥९॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तरा सायमाशं च प्रातराशं च यो नरः।
सदोपवासी भवति यो न भुंक्तेऽन्तरा पुनः ॥ १० ॥

मूलम्

अन्तरा सायमाशं च प्रातराशं च यो नरः।
सदोपवासी भवति यो न भुंक्तेऽन्तरा पुनः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! जो मनुष्य केवल प्रातःकाल और सायंकाल ही भोजन करता है, बीचमें कुछ नहीं खाता, उसे सदा उपवासी समझना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भार्यां गच्छन् ब्रह्मचारी ऋतौ भवति चैव ह।
ऋतवादी सदा च स्याद् दानशीलस्तु मानवः ॥ ११ ॥

मूलम्

भार्यां गच्छन् ब्रह्मचारी ऋतौ भवति चैव ह।
ऋतवादी सदा च स्याद् दानशीलस्तु मानवः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो केवल ऋतुकालमें धर्मपत्नीके साथ सहवास करता है वह ब्रह्मचारी ही माना जाता है। सदा दान देनेवाला पुरुष सत्यवादी ही समझने योग्य है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभक्षयन् वृथा मांसममांसाशी भवत्युत।
दानं ददत् पवित्री स्यादस्वप्नश्च दिवास्वपन् ॥ १२ ॥

मूलम्

अभक्षयन् वृथा मांसममांसाशी भवत्युत।
दानं ददत् पवित्री स्यादस्वप्नश्च दिवास्वपन् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मांस नहीं खाता, वह अमांसाशी होता है और जो सदा दान देनेवाला है, वह पवित्र माना जाता है। जो दिनमें नहीं सोता वह सदा जागनेवाला माना जाता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भृत्यातिथिषु यो भुंक्ते भुक्तवत्सु नरः सदा।
अमृतं केवलं भुंक्ते इति विद्धि युधिष्ठिर ॥ १३ ॥

मूलम्

भृत्यातिथिषु यो भुंक्ते भुक्तवत्सु नरः सदा।
अमृतं केवलं भुंक्ते इति विद्धि युधिष्ठिर ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! जो सदा भृत्यों1 और अतिथियोंके भोजन कर लेनेके बाद ही स्वयं भोजन करता है, उसे केवल अमृत भोजन करनेवाला (अमृताशी) समझना चाहिये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभुक्तवत्सु नाश्नाति ब्राह्मणेषु तु यो नरः।
अभोजनेन तेनास्य जितः स्वर्गो भवत्युत ॥ १४ ॥

मूलम्

अभुक्तवत्सु नाश्नाति ब्राह्मणेषु तु यो नरः।
अभोजनेन तेनास्य जितः स्वर्गो भवत्युत ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक ब्राह्मण भोजन नहीं कर लें तबतक जो अन्न ग्रहण नहीं करता, वह मनुष्य अपने उस व्रतके द्वारा स्वर्गलोकपर विजय पाता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवेभ्यश्च पितृभ्यश्च संश्रितेभ्यस्तथैव च।
अवशिष्टानि यो भुंक्ते तमाहुर्विघसाशिनम् ॥ १५ ॥
तेषां लोका ह्यपर्यन्ताः सदने ब्रह्मणः स्मृताः।
उपस्थिता ह्यप्सरसो गन्धर्वैश्च जनाधिप ॥ १६ ॥

मूलम्

देवेभ्यश्च पितृभ्यश्च संश्रितेभ्यस्तथैव च।
अवशिष्टानि यो भुंक्ते तमाहुर्विघसाशिनम् ॥ १५ ॥
तेषां लोका ह्यपर्यन्ताः सदने ब्रह्मणः स्मृताः।
उपस्थिता ह्यप्सरसो गन्धर्वैश्च जनाधिप ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जो देवताओं, पितरों और आश्रितोंको भोजन करानेके बाद बचे हुए अन्नको ही स्वयं भोजन करता है उसे विघसाशी कहते हैं। उन मनुष्योंको ब्रह्मधाममें अक्षय लोकोंकी प्राप्ति होती है तथा गन्धर्वोंसहित अप्सराएँ उनकी सेवामें उपस्थित होती हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवतातिथिभिः सार्धं पितृभ्यश्चोपभुञ्जते ।
रमन्ते पुत्रपौत्रेण तेषां गतिरनुत्तमा ॥ १७ ॥

मूलम्

देवतातिथिभिः सार्धं पितृभ्यश्चोपभुञ्जते ।
रमन्ते पुत्रपौत्रेण तेषां गतिरनुत्तमा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो देवताओं और अतिथियोंसहित पितरोंके लिये अन्नका भाग देकर स्वयं भोजन करते हैं, वे इस जगत्‌में पुत्र-पौत्रोंके साथ रहकर आनन्द भोगते हैं और मृत्युके पश्चात् उन्हें परम उत्तम गति प्राप्त होती है॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छन्ति दानानि विविधानि च।
दातृप्रतिग्रहीत्रोर्वै को विशेषः पितामह ॥ १८ ॥

मूलम्

ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छन्ति दानानि विविधानि च।
दातृप्रतिग्रहीत्रोर्वै को विशेषः पितामह ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! लोग ब्राह्मणोंको नाना प्रकारकी वस्तुएँ दान करते हैं। दान देने और दान लेनेवाले पुरुषोंमें क्या विशेषता होती है?॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधोर्यः प्रतिगृह्णीयात् तथैवासाधुतो द्विजः।
गुणवत्यल्पदोषः स्यान्निर्गुणे तु निमज्जति ॥ १९ ॥

मूलम्

साधोर्यः प्रतिगृह्णीयात् तथैवासाधुतो द्विजः।
गुणवत्यल्पदोषः स्यान्निर्गुणे तु निमज्जति ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! जो ब्राह्मण साधु अर्थात् उत्तम गुण-आचरणवाले पुरुषसे तथा असाधु अर्थात् दुर्गुण और दुराचारवाले पुरुषसे दान ग्रहण करता है, उनमें सद्‌गुणी-सदाचारवाले पुरुषसे दान लेना अल्प दोष है। किंतु दुर्गुण और दुराचारवालेसे दान लेनेवाला पापमें डूब जाता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
वृषादर्भेश्च संवादं सप्तर्षीणां च भारत ॥ २० ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
वृषादर्भेश्च संवादं सप्तर्षीणां च भारत ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! इस विषयमें राजा वृषादर्भि और सप्तर्षियोंके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कश्यपोऽत्रिर्वसिष्ठश्च भरद्वाजोऽथ गौतमः ।
विश्वामित्रो जमदग्निः साध्वी चैवाप्यरुन्धती ॥ २१ ॥
सर्वेषामथ तेषां तु गण्डाभूत् कर्मकारिका।
शूद्रः पशुसखश्चैव भर्ता चास्या बभूव ह ॥ २२ ॥
ते च सर्वे तपस्यन्तः पुरा चेरुर्महीमिमाम्।
समाधिनोपशिक्षन्तो ब्रह्मलोकं सनातनम् ॥ २३ ॥

मूलम्

कश्यपोऽत्रिर्वसिष्ठश्च भरद्वाजोऽथ गौतमः ।
विश्वामित्रो जमदग्निः साध्वी चैवाप्यरुन्धती ॥ २१ ॥
सर्वेषामथ तेषां तु गण्डाभूत् कर्मकारिका।
शूद्रः पशुसखश्चैव भर्ता चास्या बभूव ह ॥ २२ ॥
ते च सर्वे तपस्यन्तः पुरा चेरुर्महीमिमाम्।
समाधिनोपशिक्षन्तो ब्रह्मलोकं सनातनम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समयकी बात है, कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, भरद्वाज, गौतम, विश्वामित्र, जमदग्नि और पतिव्रता देवी अरुन्धती—ये सब लोग समाधिके द्वारा सनातन ब्रह्मलोकको प्राप्त करनेकी इच्छासे तपस्या करते हुए इस पृथ्वीपर विचर रहे थे। इन सबकी सेवा करनेवाली एक दासी थी, जिसका नाम था ‘गण्डा’। वह पशुसख नामक एक शूद्रके साथ व्याही गयी थी (पशुसख भी इन्हीं महर्षियोंके साथ रहकर सबकी सेवा किया करता था)॥२१—२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाभवदनावृष्टिर्महती कुरुनन्दन ।
कृच्छ्रप्राणोऽभवद् यत्र लोकोऽयं वै क्षुधान्वितः ॥ २४ ॥

मूलम्

अथाभवदनावृष्टिर्महती कुरुनन्दन ।
कृच्छ्रप्राणोऽभवद् यत्र लोकोऽयं वै क्षुधान्वितः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! एक बार पृथ्वीपर दीर्घकालतक वर्षा नहीं हुई। जिससे अकाल पड़ जानेके कारण यह सारा जगत् भूखसे पीड़ित रहने लगा। लोग बड़ी कठिनाईसे अपने प्राणोंकी रक्षा करते थे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कस्मिंश्चिच्च पुरा यज्ञे शैब्येन शिबिसूनुना।
दक्षिणार्थेऽथ ऋत्विग्भ्यो दत्तः पुत्रः पुरा किल ॥ २५ ॥

मूलम्

कस्मिंश्चिच्च पुरा यज्ञे शैब्येन शिबिसूनुना।
दक्षिणार्थेऽथ ऋत्विग्भ्यो दत्तः पुत्रः पुरा किल ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें शिबिके पुत्र शैब्यने किसी यज्ञमें दक्षिणाके रूपमें अपना एक पुत्र ही ऋत्विजोंको दे दिया था॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन्‌ कालेऽथ सोऽल्पायुर्दिष्टान्तमगमत् प्रभुः।
ते तं क्षुधाभिसंतप्ताः परिवार्योपतस्थिरे ॥ २६ ॥

मूलम्

अस्मिन्‌ कालेऽथ सोऽल्पायुर्दिष्टान्तमगमत् प्रभुः।
ते तं क्षुधाभिसंतप्ताः परिवार्योपतस्थिरे ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस दुर्भिक्षके समय वह अल्पायु राजकुमार मृत्युको प्राप्त हो गया। वे सप्तर्षि भूखसे पीड़ित थे, इसलिये उस मरे हुए बालकको चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

वृषादर्भिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(प्रतिग्रहो ब्राह्मणानां सृष्टा वृत्तिरनिन्दिता।)
प्रतिग्रहस्तारयति पुष्टिर्वै प्रतिगृह्यताम् ।
मयि यद् विद्यते वित्तं तद् वृणुध्वं तपोधनाः ॥ २७ ॥

मूलम्

(प्रतिग्रहो ब्राह्मणानां सृष्टा वृत्तिरनिन्दिता।)
प्रतिग्रहस्तारयति पुष्टिर्वै प्रतिगृह्यताम् ।
मयि यद् विद्यते वित्तं तद् वृणुध्वं तपोधनाः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वृषादर्भि बोले— प्रतिग्रह ब्राह्मणोंके लिये उत्तम वृत्ति नियत किया गया है। तपोधन! प्रतिग्रह दुर्भिक्ष और भूखके कष्टसे ब्राह्मणकी रक्षा करता है तथा पुष्टिका उत्तम साधन है। अतः मेरे पास जो धन है उसे आप स्वीकार करें और ले लें॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियो हि मे ब्राह्मणो याचमानो
दद्यामहं वोऽश्वतरीसहस्रम् ।
एकैकशः सवृषाः सम्प्रसूताः
सर्वेषां वै शीघ्रगाः श्वेतरोमाः ॥ २८ ॥

मूलम्

प्रियो हि मे ब्राह्मणो याचमानो
दद्यामहं वोऽश्वतरीसहस्रम् ।
एकैकशः सवृषाः सम्प्रसूताः
सर्वेषां वै शीघ्रगाः श्वेतरोमाः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि जो ब्राह्मण मुझसे याचना करता है, वह मुझे बहुत प्रिय लगता है। मैं आपलोगोंमेंसे प्रत्येकको एक हजार खच्चरियाँ देता हूँ तथा सभीको सफेद रोएँवाली शीघ्रगामिनी एवं ब्यायी हुई गौएँ साँडोंसहित देनेको उद्यत हूँ॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलंभराननडुहः शतं शतान्
धुर्यान् श्वेतान् सर्वशोऽहं ददामि।
प्रष्ठौहीनां पीवराणां च ताव-
दग्र्या गृष्ट्यो धेनवः सुव्रताश्च ॥ २९ ॥

मूलम्

कुलंभराननडुहः शतं शतान्
धुर्यान् श्वेतान् सर्वशोऽहं ददामि।
प्रष्ठौहीनां पीवराणां च ताव-
दग्र्या गृष्ट्यो धेनवः सुव्रताश्च ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथ ही एक कुलका भार वहन करनेवाले दस हजार भारवाहक सफेद बैल भी आप सब लोगोंको दे रहा हूँ। इतना ही नहीं, मैं आप सब लोगोंको जवान, मोटी-ताजी, पहली बारकी ब्यायी हुई, अच्छे स्वभाववाली श्रेष्ठ एवं दुधारू गौएँ भी देता हूँ॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वरान् ग्रामान् व्रीहिरसं यवांश्च
रत्नं चान्यद् दुर्लभं किं ददानि।
नास्मिन्नभक्ष्ये भावमेवं कुरुध्वं
पुष्ट्‌यर्थं वः किं प्रयच्छाम्यहं वै ॥ ३० ॥

मूलम्

वरान् ग्रामान् व्रीहिरसं यवांश्च
रत्नं चान्यद् दुर्लभं किं ददानि।
नास्मिन्नभक्ष्ये भावमेवं कुरुध्वं
पुष्ट्‌यर्थं वः किं प्रयच्छाम्यहं वै ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके सिवा अच्छे-अच्छे गाँव, धान, रस, जौ, रत्न तथा और भी अनेक दुर्लभ वस्तुएँ प्रदान कर सकता हूँ। बतलाइये, मैं आपको क्या दूँ? आप इस अभक्ष्य वस्तुके भक्षणमें मन न लगावें। कहिये, आपके शरीरकी पुष्टिके लिये मैं क्या दूँ॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषय ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् प्रतिग्रहो राज्ञां मध्वास्वादो विषोपमः।
तज्जानमानः कस्मात् त्वं कुरुषे नः प्रलोभनम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

राजन् प्रतिग्रहो राज्ञां मध्वास्वादो विषोपमः।
तज्जानमानः कस्मात् त्वं कुरुषे नः प्रलोभनम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषि बोले— राजन्! राजाका दिया हुआ दान ऊपरसे मधुके समान मीठा जान पड़ता है, परंतु परिणाममें विषके समान भयंकर हो जाता है। इस बातको जानते हुए भी आप क्यों हमें प्रलोभनमें डाल रहे हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षेत्रं हि दैवतमिदं ब्राह्मणान् समुपाश्रितम्।
अमलो ह्येष तपसा प्रीतः प्रीणाति देवताः ॥ ३२ ॥

मूलम्

क्षेत्रं हि दैवतमिदं ब्राह्मणान् समुपाश्रितम्।
अमलो ह्येष तपसा प्रीतः प्रीणाति देवताः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंका शरीर देवताओंका निवासस्थान है, उसमें सभी देवता विद्यमान रहते हैं। यदि ब्राह्मण तपस्यासे शुद्ध एवं संतुष्ट हो तो वह सम्पूर्ण देवताओंको प्रसन्न करता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अह्नापहि तपो जातु ब्राह्मणस्योपजायते।
तद् दाव इव निर्दह्यात् प्राप्तो राजप्रतिग्रहः ॥ ३३ ॥

मूलम्

अह्नापहि तपो जातु ब्राह्मणस्योपजायते।
तद् दाव इव निर्दह्यात् प्राप्तो राजप्रतिग्रहः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण दिनभरमें जितना तप संग्रह करता है, उसको राजाका दिया हुआ दान वनको दग्ध करनेवाले दावानलकी भाँति नष्ट कर डालता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुशलं सह दानेन राजन्नस्तु सदा तव।
अर्थिभ्यो दीयतां सर्वमित्युक्त्वान्येन ते ययुः ॥ ३४ ॥

मूलम्

कुशलं सह दानेन राजन्नस्तु सदा तव।
अर्थिभ्यो दीयतां सर्वमित्युक्त्वान्येन ते ययुः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस दानके साथ ही आप सदा सकुशल रहें और यह सारा दान आप उन्हींको दें जो आपसे इन वस्तुओंको लेना चाहते हों। ऐसा कहकर वे दूसरे मार्गसे चल दिये॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रचोदिता राज्ञा वनं गत्वास्य मन्त्रिणः।
प्रचीयोदुम्बराणि स्म दातुं तेषां प्रचक्रिरे ॥ ३५ ॥

मूलम्

ततः प्रचोदिता राज्ञा वनं गत्वास्य मन्त्रिणः।
प्रचीयोदुम्बराणि स्म दातुं तेषां प्रचक्रिरे ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजाकी प्रेरणासे उनके मन्त्री वनमें गये और गूलरके फल तोड़कर उन्हें देनेकी चेष्टा करने लगे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदुम्बराण्यथान्यानि हेमगर्भाण्युपाहरन् ।
भृत्यास्तेषां ततस्तानि प्रग्राहितुमुपाद्रवन् ॥ ३६ ॥

मूलम्

उदुम्बराण्यथान्यानि हेमगर्भाण्युपाहरन् ।
भृत्यास्तेषां ततस्तानि प्रग्राहितुमुपाद्रवन् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्त्रियोंने गूलर तथा दूसरे-दूसरे वृक्षोंके फल तोड़कर उनमें सुवर्ण-मुद्राएँ भर दीं। फिर उन फलोंको लेकर राजाके सेवक उन्हें ऋषियोंके हवाले करनेके लिये उनके पीछे दौड़े गये॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरूणीति विदित्वाथ न ग्राह्याण्यत्रिरब्रवीत्।
न स्महे मन्दविज्ञाना न स्महे मन्दबुद्धयः ॥ ३७ ॥
हैमानीमानि जानीमः प्रतिबुद्धाः स्म जागृम।
इह ह्येतदुपादत्तं प्रेत्य स्यात् कटुकोदयम्।
अप्रतिग्राह्यमेवैतत् प्रेत्येह च सुखेप्सुना ॥ ३८ ॥

मूलम्

गुरूणीति विदित्वाथ न ग्राह्याण्यत्रिरब्रवीत्।
न स्महे मन्दविज्ञाना न स्महे मन्दबुद्धयः ॥ ३७ ॥
हैमानीमानि जानीमः प्रतिबुद्धाः स्म जागृम।
इह ह्येतदुपादत्तं प्रेत्य स्यात् कटुकोदयम्।
अप्रतिग्राह्यमेवैतत् प्रेत्येह च सुखेप्सुना ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सभी फल भारी हो गये थे, इस बातको महर्षि अत्रि ताड़ गये और बोले—ये ‘गूलर हमारे लेने योग्य नहीं हैं। हमारी बुद्धि मन्द नहीं हुई है। हमारी ज्ञानशक्ति लुप्त नहीं हुई है। हम सो नहीं रहे हैं, जागते हैं। हमें अच्छी तरह ज्ञात है कि इनके भीतर सुवर्ण भरा पड़ा है। यदि आज हम इन्हें स्वीकार कर लेते हैं तो परलोकमें हमें इनका कटु परिणाम भोगना पड़ेगा। जो इहलोक और परलोकमें भी सुख चाहता हो उसके लिये यह फल अग्राह्य है’॥३७-३८॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतेन निष्कगणितं सहस्रेण च सम्मितम्।
तथा बहु प्रतीच्छन् वै पापिष्ठां पतते गतिम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

शतेन निष्कगणितं सहस्रेण च सम्मितम्।
तथा बहु प्रतीच्छन् वै पापिष्ठां पतते गतिम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठ बोले— एक निष्क (स्वर्णमुद्रा) का दान लेनेसे सौ हजार निष्कोंके दान लेनेका दोष लगता है। ऐसी दशामें जो बहुत-से निष्क ग्रहण करता है, उसको तो घोर पापमयी गतिमें गिरना पड़ता है॥३९॥

मूलम् (वचनम्)

कश्यप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
सर्वं तन्नालमेकस्य तस्माद् विद्वान् शमं चरेत् ॥ ४० ॥

मूलम्

यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
सर्वं तन्नालमेकस्य तस्माद् विद्वान् शमं चरेत् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कश्यपने कहा— इस पृथ्वीपर जितने धान, जौ, सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब किसी एक पुरुषको मिल जायँ तो भी उसे संतोष न होगा; यह सोचकर विद्वान् पुरुष अपने मनकी तृष्णाको शान्त करे॥४०॥

मूलम् (वचनम्)

भरद्वाज उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पन्नस्य रुरोः शृंगं वर्धमानस्य वर्धते।
प्रार्थना पुरुषस्येव तस्य मात्रा न विद्यते ॥ ४१ ॥

मूलम्

उत्पन्नस्य रुरोः शृंगं वर्धमानस्य वर्धते।
प्रार्थना पुरुषस्येव तस्य मात्रा न विद्यते ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरद्वाज बोले— जैसे उत्पन्न हुए मृगका सींग उसके बढ़नेके साथ-साथ बढ़ता रहता है, उसी प्रकार मनुष्यकी तृष्णा सदा बढ़ती ही रहती है, उसकी कोई सीमा नहीं है॥

मूलम् (वचनम्)

गौतम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तल्लोके द्रव्यमस्ति यल्लोकं प्रतिपूरयेत्।
समुद्रकल्पः पुरुषो न कदाचन पूर्यते ॥ ४२ ॥

मूलम्

न तल्लोके द्रव्यमस्ति यल्लोकं प्रतिपूरयेत्।
समुद्रकल्पः पुरुषो न कदाचन पूर्यते ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौतमने कहा— संसारमें ऐसा कोई द्रव्य नहीं है, जो मनुष्यकी आशाका पेट भर सके। पुरुषकी आशा समुद्रके समान है, वह कभी भरती ही नहीं॥४२॥

मूलम् (वचनम्)

विश्वामित्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं कामयमानस्य यदा कामः समृध्यते।
अथैनमपरः कामस्तृष्णाविध्यति बाणवत् ॥ ४३ ॥

मूलम्

कामं कामयमानस्य यदा कामः समृध्यते।
अथैनमपरः कामस्तृष्णाविध्यति बाणवत् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वामित्र बोले— किसी वस्तुकी कामना करनेवाले मनुष्यकी एक इच्छा जब पूरी होती है, तब दूसरी नयी उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार तृष्णा तीरकी तरह मनुष्यके मनपर चोट करती ही रहती है॥४३॥

मूलम् (वचनम्)

(अत्रिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जातु कामः कामनामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते॥)

मूलम्

न जातु कामः कामनामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते॥)

अनुवाद (हिन्दी)

अत्रि बोले— भोगोंकी कामना उनके उपभोगसे कभी नहीं शान्त होती है। अपितु घीकी आहुति पड़नेपर प्रज्वलित होनेवाली आगकी भाँति वह और भी बढ़ती ही जाती है॥

मूलम् (वचनम्)

जमदग्निरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिग्रहे संयमो वै तपो धारयते ध्रुवम्।
तद् धनं ब्राह्मणस्येह लुभ्यमानस्य विस्रवेत् ॥ ४४ ॥

मूलम्

प्रतिग्रहे संयमो वै तपो धारयते ध्रुवम्।
तद् धनं ब्राह्मणस्येह लुभ्यमानस्य विस्रवेत् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जमदग्निने कहा— प्रतिग्रह न लेनेसे ही ब्राह्मण अपनी तपस्याको सुरक्षित रख सकता है। तपस्या ही ब्राह्मणका धन है। जो लौकिक धनके लिये लोभ करता है, उसका तपरूपी धन नष्ट हो जाता है॥४४॥

मूलम् (वचनम्)

अरुन्धत्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थं संचयो यो वै द्रव्याणां पक्षसम्मतः।
तपःसंचय एवेह विशिष्टो द्रव्यसंचयात् ॥ ४५ ॥

मूलम्

धर्मार्थं संचयो यो वै द्रव्याणां पक्षसम्मतः।
तपःसंचय एवेह विशिष्टो द्रव्यसंचयात् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरुन्धती बोलीं— संसारमें एक पक्षके लोगोंकी राय है कि धर्मके लिये धनका संग्रह करना चाहिये; किंतु मेरी रायमें धन-संग्रहकी अपेक्षा तपस्याका संचय ही श्रेष्ठ है॥४५॥

मूलम् (वचनम्)

गण्डोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उग्रादितो भयाद् यस्माद् बिभ्यतीमे ममेश्वराः।
बलीयांसो दुर्बलवद् बिभेम्यहमतः परम् ॥ ४६ ॥

मूलम्

उग्रादितो भयाद् यस्माद् बिभ्यतीमे ममेश्वराः।
बलीयांसो दुर्बलवद् बिभेम्यहमतः परम् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गण्डाने कहा— मेरे ये मालिक लोग अत्यन्त शक्तिशाली होते हुए भी जब इस भयंकर प्रतिग्रहके भयसे इतना डरते हैं, तब मेरी क्या सामर्थ्य है? मुझे तो दुर्बल प्राणियोंकी भाँति इससे बहुत बड़ा भय लग रहा है॥

मूलम् (वचनम्)

पशुसख उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् वै धर्मे परं नास्ति ब्राह्मणास्तद्धनं विदुः।
विनयार्थं सुविद्वांसमुपासेयं यथातथम् ॥ ४७ ॥

मूलम्

यद् वै धर्मे परं नास्ति ब्राह्मणास्तद्धनं विदुः।
विनयार्थं सुविद्वांसमुपासेयं यथातथम् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पशुसखने कहा— धर्मका पालन करनेपर जिस धनकी प्राप्ति होती है, उससे बढ़कर कोई धन नहीं है। उस धनको ब्राह्मण ही जानते हैं; अतः मैं भी उसी धर्ममय धनकी प्राप्तिका उपाय सीखनेके लिये विद्वान् ब्राह्मणोंकी सेवामें लगा हूँ॥४७॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषय ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुशलं सह दानेन तस्मै यस्य प्रजा इमाः।
फलान्युपधियुक्तानि य एवं नः प्रयच्छति ॥ ४८ ॥

मूलम्

कुशलं सह दानेन तस्मै यस्य प्रजा इमाः।
फलान्युपधियुक्तानि य एवं नः प्रयच्छति ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषियोंने कहा— जिसकी प्रजा ये कपटयुक्त फल देनेके लिये ले आयी है तथा जो इस प्रकार फलके व्याजसे हमें सुवर्णदान कर रहा है, वह राजा अपने दानके साथ ही कुशलसे रहे॥४८॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा हेमगर्भाणि हित्वा तानि फलानि वै।
ऋषयो जग्मुरन्यत्र सर्व एव धृतव्रताः ॥ ४९ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा हेमगर्भाणि हित्वा तानि फलानि वै।
ऋषयो जग्मुरन्यत्र सर्व एव धृतव्रताः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! यह कहकर उन सुवर्णयुक्त फलोंका परित्याग करके वे समस्त व्रतधारी महर्षि वहाँसे अन्यत्र चले गये॥४९॥

मूलम् (वचनम्)

मन्त्रिण ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपधिं शंकमानास्ते हित्वा तानि फलानि वै।
ततोऽन्येनैव गच्छन्ति विदितं तेऽस्तु पार्थिव ॥ ५० ॥

मूलम्

उपधिं शंकमानास्ते हित्वा तानि फलानि वै।
ततोऽन्येनैव गच्छन्ति विदितं तेऽस्तु पार्थिव ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मन्त्रियोंने शैव्यके पास जाकर कहा— महाराज! आपको विदित हो कि उन फलोंको देखते ही ऋषियोंको यह संदेह हुआ कि हमारे साथ छल किया जा रहा है। इसलिये वे फलोंका परित्याग करके दूसरे मार्गसे चले गये हैं॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स तु भृत्यैस्तैर्वृषादर्भिश्चुकोप ह।
तेषां वै प्रतिकर्तुं च सर्वेषामगमद् गृहम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

इत्युक्तः स तु भृत्यैस्तैर्वृषादर्भिश्चुकोप ह।
तेषां वै प्रतिकर्तुं च सर्वेषामगमद् गृहम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेवकोंके ऐसा कहनेपर राजा वृषादर्भिको बड़ा कोप हुआ और वे उन सप्तर्षियोंसे अपने अपमानका बदला लेनेका विचार करके राजधानीको लौट गये॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गत्वा हवनीयेऽग्नौ तीव्रं नियममास्थितः।
जुहाव संस्कृतैर्मन्त्रैरेकैकामाहुतिं नृपः ॥ ५२ ॥

मूलम्

स गत्वा हवनीयेऽग्नौ तीव्रं नियममास्थितः।
जुहाव संस्कृतैर्मन्त्रैरेकैकामाहुतिं नृपः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ जाकर अत्यन्त कठोर नियमोंका पालन करते हुए वे आहवनीय अग्निमें आभिचारिक मन्त्र पढ़कर एक-एक आहुति डालने लगे॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादग्नेः समुत्तस्थौ कृत्या लोकभयंकरी।
तस्या नाम वृषादर्भिर्यातुधानीत्यथाकरोत् ॥ ५३ ॥

मूलम्

तस्मादग्नेः समुत्तस्थौ कृत्या लोकभयंकरी।
तस्या नाम वृषादर्भिर्यातुधानीत्यथाकरोत् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आहुति समाप्त होनेपर उस अग्निसे एक लोकभयंकर कृत्या प्रकट हुई। राजा वृषादर्भिने उसका नाम यातुधानी रखा॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा कृत्या कालरात्रीव कृताञ्जलिरुपस्थिता।
वृषादर्भिं नरपतिं किं करोमीति चाब्रवीत् ॥ ५४ ॥

मूलम्

सा कृत्या कालरात्रीव कृताञ्जलिरुपस्थिता।
वृषादर्भिं नरपतिं किं करोमीति चाब्रवीत् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालरात्रिके समान विकराल रूप धारण करनेवाली वह कृत्या हाथ जोड़कर राजाके पास उपस्थित हुई और बोली—‘महाराज! मैं आपकी किस आज्ञाका पालन करूँ?’॥५४॥

मूलम् (वचनम्)

वृषादर्भिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषीणां गच्छ सप्तानामरुन्धत्यास्तथैव च।
दासीभर्तुश्च दास्याश्च मनसा नाम धारय ॥ ५५ ॥
ज्ञात्वा नामानि चैवैषां सर्वानेतान् विनाशय।
विनष्टेषु तथा स्वैरं गच्छ यत्रेप्सितं तव ॥ ५६ ॥

मूलम्

ऋषीणां गच्छ सप्तानामरुन्धत्यास्तथैव च।
दासीभर्तुश्च दास्याश्च मनसा नाम धारय ॥ ५५ ॥
ज्ञात्वा नामानि चैवैषां सर्वानेतान् विनाशय।
विनष्टेषु तथा स्वैरं गच्छ यत्रेप्सितं तव ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृषादर्भिने कहा— यातुधानी! तुम यहाँसे वनमें जाओ और वहाँ अरुन्धतीसहित सातों ऋषियोंका, उनकी दासीका और उस दासीके पतिका भी नाम पूछकर उसका तात्पर्य अपने मनमें धारण करो। इस प्रकार उन सबके नामोंका अर्थ समझकर उन्हें मार डालो; उसके बाद जहाँ इच्छा हो चली जाना॥५५-५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तथेति प्रतिश्रुत्य यातुधानी स्वरूपिणी।
जगाम तद् वनं यत्र विचेरुस्ते महर्षयः ॥ ५७ ॥

मूलम्

सा तथेति प्रतिश्रुत्य यातुधानी स्वरूपिणी।
जगाम तद् वनं यत्र विचेरुस्ते महर्षयः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाकी यह आज्ञा पाकर यातुधानीने ‘तथास्तु’ कहकर इसे स्वीकार किया और जहाँ वे महर्षि विचरा करते थे, उस वनमें चली गयी॥५७॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथात्रिप्रमुखा राजन् वने तस्मिन् महर्षयः।
व्यचरन् भक्षयन्तो वै मूलानि च फलानि च ॥ ५८ ॥

मूलम्

अथात्रिप्रमुखा राजन् वने तस्मिन् महर्षयः।
व्यचरन् भक्षयन्तो वै मूलानि च फलानि च ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! उन दिनों वे अत्रि आदि महर्षि उस वनमें फल-मूलका आहार करते हुए घूमा करते थे॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथापश्यन् सुपीनांसपाणिपादमुखोदरम् ।
परिव्रजन्तं स्थूलांगं परिव्राजं शुना सह ॥ ५९ ॥

मूलम्

अथापश्यन् सुपीनांसपाणिपादमुखोदरम् ।
परिव्रजन्तं स्थूलांगं परिव्राजं शुना सह ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन उन महर्षियोंने देखा, एक संन्यासी कुत्तेके साथ वहाँ इधर-उधर विचर रहा है। उसका शरीर बहुत मोटा था। उसके मोटे कंधे, हाथ, पैर, मुख और पेट आदि सभी अंग सुन्दर और सुडौल थे॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरुन्धती तु तं दृष्ट्‌वा सर्वांगोपचितं शुभम्।
भवितारो भवन्तो वै नैवमित्यब्रवीदृषीन् ॥ ६० ॥

मूलम्

अरुन्धती तु तं दृष्ट्‌वा सर्वांगोपचितं शुभम्।
भवितारो भवन्तो वै नैवमित्यब्रवीदृषीन् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरुन्धतीने सारे अंगोंसे हृष्ट-पुष्ट हुए उस सुन्दर संन्यासीको देखकर ऋषियोंसे कहा—‘क्या आपलोग कभी ऐसे नहीं हो सकेंगे?’॥६०॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतस्येह यथास्माकमग्निहोत्रमनिर्हुतम् ।
सायं प्रातश्च होतव्यं तेन पीवाञ्छुना सह ॥ ६१ ॥

मूलम्

नैतस्येह यथास्माकमग्निहोत्रमनिर्हुतम् ।
सायं प्रातश्च होतव्यं तेन पीवाञ्छुना सह ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजीने कहा— हमलोगोंकी तरह इसको इस बातकी चिन्ता नहीं है कि आज हमारा अग्निहोत्र नहीं हुआ और सबेरे तथा शामको अग्निहोत्र करना है; इसीलिये यह कुत्तेके साथ खूब मोटा-ताजा हो गया है॥६१॥

मूलम् (वचनम्)

अत्रिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतस्येह यथास्माकं क्षुधा वीर्यं समाहतम्।
कृच्छ्राधीतं प्रणष्टं च तेन पीवाञ्छुना सह ॥ ६२ ॥

मूलम्

नैतस्येह यथास्माकं क्षुधा वीर्यं समाहतम्।
कृच्छ्राधीतं प्रणष्टं च तेन पीवाञ्छुना सह ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्रि बोले— हमलोगोंकी तरह भूखके मारे उसकी सारी शक्ति नष्ट नहीं हो गयी है तथा बड़े कष्टसे जो वेदोंका अध्ययन किया गया था, वह भी हमारी तरह इसका नष्ट नहीं हुआ है; इसीलिये यह कुत्तेके साथ मोटा हो गया है॥६२॥

मूलम् (वचनम्)

विश्वामित्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतस्येह यथास्माकं शश्वच्छास्त्रं जरद्‌गवः।
अलसः क्षुत्परो मूर्खस्तेन पीवाञ्छुना सह ॥ ६३ ॥

मूलम्

नैतस्येह यथास्माकं शश्वच्छास्त्रं जरद्‌गवः।
अलसः क्षुत्परो मूर्खस्तेन पीवाञ्छुना सह ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वामित्रने कहा— हमलोगोंका भूखके मारे सनातन शास्त्र विस्मृत हो गया है और शास्त्रोक्त धर्म भी क्षीण हो चला है। ऐसी दशा इसकी नहीं है तथा यह आलसी, केवल पेटकी भूख बुझानेमें ही लगा हुआ और मूर्ख है। इसीलिये यह कुत्तेके साथ मोटा हो गया है॥६३॥

मूलम् (वचनम्)

जमदग्निरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतस्येह यथास्माकं भक्तमिन्धनमेव च।
संचिन्त्यं वार्षिकं चित्ते तेन पीवाञ्छुना सह ॥ ६४ ॥

मूलम्

नैतस्येह यथास्माकं भक्तमिन्धनमेव च।
संचिन्त्यं वार्षिकं चित्ते तेन पीवाञ्छुना सह ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जमदग्नि बोले— हमारी तरह इसके मनमें वर्षभरके लिये भोजन और ईंधन जुटानेकी चिन्ता नहीं है, इसीलिये कुत्तेके साथ मोटा हो गया है॥६४॥

मूलम् (वचनम्)

कश्यप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतस्येह यथास्माकं चत्वारश्च सहोदराः।
देहि देहीति भिक्षन्ति तेन पीवाञ्छुना सह ॥ ६५ ॥

मूलम्

नैतस्येह यथास्माकं चत्वारश्च सहोदराः।
देहि देहीति भिक्षन्ति तेन पीवाञ्छुना सह ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कश्यपने कहा— हमलोगोंके चार भाई हमसे प्रतिदिन ‘भोजन दो, भोजन दो’ कहकर अन्न माँगते हैं, अर्थात् हमलोगोंको एक भारी कुटुम्बके भोजन-वस्त्रकी चिन्ता करनी पड़ती है। इस संन्यासीको यह सब चिन्ता नहीं है। अतः यह कुत्तेके साथ मोटा है॥६५॥

मूलम् (वचनम्)

भरद्वाज उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतस्येह यथास्माकं ब्रह्मबन्धोरचेतसः ।
शोको भार्यापवादेन तेन पीवाञ्छुना सह ॥ ६६ ॥

मूलम्

नैतस्येह यथास्माकं ब्रह्मबन्धोरचेतसः ।
शोको भार्यापवादेन तेन पीवाञ्छुना सह ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरद्वाज बोले— इस विवेकशून्य ब्राह्मणबन्धुको हमलोगोंकी तरह अपनी स्त्रीके कलंकित होनेका शोक नहीं है। इसीलिये यह कुत्तेके साथ मोटा हो गया है॥

मूलम् (वचनम्)

गौतम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतस्येह यथास्माकं त्रिकौशेयं च रांकवम्।
एकैकं वै त्रिवर्षीयं तेन पीवाञ्छुना सह ॥ ६७ ॥

मूलम्

नैतस्येह यथास्माकं त्रिकौशेयं च रांकवम्।
एकैकं वै त्रिवर्षीयं तेन पीवाञ्छुना सह ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौतम बोले— हमलोगोंकी तरह इसे तीन-तीन वर्षोंतक कुशकी रस्सीकी बनी हुई तीन लरवाली मेखला और मृगचर्म धारण करके नहीं रहना पड़ता है। इसीलिये यह कुत्तेके साथ मोटा हो गया है॥६७॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ दृष्ट्वा परिव्राट्‌ स तान् महर्षीन्‌ शुना सह।
अभिगम्य यथान्यायं पाणिस्पर्शमथाचरत् ॥ ६८ ॥

मूलम्

अथ दृष्ट्वा परिव्राट्‌ स तान् महर्षीन्‌ शुना सह।
अभिगम्य यथान्यायं पाणिस्पर्शमथाचरत् ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! कुत्तेसहित आये हुए संन्यासीने जब उन महर्षियोंको देखा, तब उनके पास आकर संन्यासकी मर्यादाके अनुसार उनका हाथसे स्पर्श किया॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिचर्यां वने तां तु क्षुत्प्रतीघातकारिकाम्।
अन्योन्येन निवेद्याथ प्रातिष्ठन्त सहैव ते ॥ ६९ ॥

मूलम्

परिचर्यां वने तां तु क्षुत्प्रतीघातकारिकाम्।
अन्योन्येन निवेद्याथ प्रातिष्ठन्त सहैव ते ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वे एक दूसरेको अपना कुशल-समाचार बताते हुए बोले—‘हमलोग अपनी भूख मिटानेके लिये इस वनमें भ्रमण कर रहे हैं’ ऐसा कहकर वे साथ-ही-साथ वहाँसे चल पड़े॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकनिश्चयकार्याश्च व्यचरन्त वनानि ते।
आददानाः समुद्‌धृत्य मूलानि च फलानि च ॥ ७० ॥

मूलम्

एकनिश्चयकार्याश्च व्यचरन्त वनानि ते।
आददानाः समुद्‌धृत्य मूलानि च फलानि च ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबके निश्चय और कार्य एक-से थे। वे फल-मूलका संग्रह करके उन्हें साथ लिये उस वनमें विचर रहे थे॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कदाचिद् विचरन्तस्ते वृक्षैरविरलैर्वृताम् ।
शुचिवारिप्रसन्नोदां ददृशुः पद्‌मिनीं शुभाम् ॥ ७१ ॥

मूलम्

कदाचिद् विचरन्तस्ते वृक्षैरविरलैर्वृताम् ।
शुचिवारिप्रसन्नोदां ददृशुः पद्‌मिनीं शुभाम् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन घूमते-फिरते हुए उन महर्षियोंको एक सुन्दर सरोवर दिखायी पड़ा; जिसका जल बड़ा ही स्वच्छ और पवित्र था। उसके चारों किनारोंपर सघन वृक्षोंकी पंक्ति शोभा पा रही थी॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालादित्यवपुःप्रख्यैः पुष्करैरुपशोभिताम् ।
वैदूर्यवर्णसदृशैः पद्‌मपत्रैरथावृताम् ॥ ७२ ॥

मूलम्

बालादित्यवपुःप्रख्यैः पुष्करैरुपशोभिताम् ।
वैदूर्यवर्णसदृशैः पद्‌मपत्रैरथावृताम् ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रातःकालीन सूर्यके समान अरुण रंगके कमलपुष्प उस सरोवरकी शोभा बढ़ा रहे थे तथा वैदूर्यमणिकी-सी कान्तिवाले कमलिनीके पत्ते उसमें चारों ओर छा रहे थे॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानाविधैश्च विहगैर्जलप्रकरसेविभिः ।
एकद्वारामनादेयां सूपतीर्थामकर्दमाम् ॥ ७३ ॥

मूलम्

नानाविधैश्च विहगैर्जलप्रकरसेविभिः ।
एकद्वारामनादेयां सूपतीर्थामकर्दमाम् ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाना प्रकारके विहंगम कलरव करते हुए उसकी जलराशिका सेवन करते थे। उसमें प्रवेश करनेके लिये एक ही द्वार था। उसकी कोई वस्तु ली नहीं जा सकती थी। उसमें उतरनेके लिये बहुत सुन्दर सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। वहाँ काई और कीचड़का तो नाम भी नहीं था॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृषादर्भिप्रयुक्ता तु कृत्या विकृतदर्शना।
यातुधानीति विख्याता पद्‌मिनीं तामरक्षत ॥ ७४ ॥

मूलम्

वृषादर्भिप्रयुक्ता तु कृत्या विकृतदर्शना।
यातुधानीति विख्याता पद्‌मिनीं तामरक्षत ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा वृषादर्भिकी भेजी हुई भयानक आकारवाली यातुधानी कृत्या उस तालाबकी रक्षा कर रही थी॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पशुसखसहायास्तु बिसार्थं ते महर्षयः।
पद्‌मिनीमभिजग्मुस्ते सर्वे कृत्याभिरक्षिताम् ॥ ७५ ॥

मूलम्

पशुसखसहायास्तु बिसार्थं ते महर्षयः।
पद्‌मिनीमभिजग्मुस्ते सर्वे कृत्याभिरक्षिताम् ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पशुसखके साथ वे सभी महर्षि मृणाल लेनेके लिये उस सरोवरके तटपर गये, जो उस कृत्याके द्वारा सुरक्षित था॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते यातुधानीं तां दृष्ट्‌वा विकृतदर्शनाम्।
स्थितां कमलिनीतीरे कृत्यामूचुर्महर्षयः ॥ ७६ ॥

मूलम्

ततस्ते यातुधानीं तां दृष्ट्‌वा विकृतदर्शनाम्।
स्थितां कमलिनीतीरे कृत्यामूचुर्महर्षयः ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सरोवरके तटपर खड़ी हुई उस यातुधानी कृत्याको जो बड़ी विकराल दिखायी देती थी, देखकर वे सब महर्षि बोले—॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एका तिष्ठसि का च त्वं कस्यार्थे किं प्रयोजनम्।
पद्‌मिनीतीरमाश्रित्य ब्रूहि त्वं किं चिकीर्षसि ॥ ७७ ॥

मूलम्

एका तिष्ठसि का च त्वं कस्यार्थे किं प्रयोजनम्।
पद्‌मिनीतीरमाश्रित्य ब्रूहि त्वं किं चिकीर्षसि ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अरी! तू कौन है और किसलिये यहाँ अकेली खड़ी है? यहाँ तेरे आनेका क्या प्रयोजन है? इस सरोवरके तटपर रहकर तू कौन-सा कार्य सिद्ध करना चाहती है?’॥७७॥

मूलम् (वचनम्)

यातुधान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यास्मि सास्म्यनुयोगो मे न कर्तव्यः कथंचन।
आरक्षिणीं मां पद्‌मिन्या वित्त सर्वे तपोधनाः ॥ ७८ ॥

मूलम्

यास्मि सास्म्यनुयोगो मे न कर्तव्यः कथंचन।
आरक्षिणीं मां पद्‌मिन्या वित्त सर्वे तपोधनाः ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यातुधानी बोली— तपस्वियो! मैं जो कोई भी होऊँ, तुम्हें मेरे विषयमें पूछ-ताछ करनेका किसी प्रकार कोई अधिकार नहीं है। तुम इतना ही जान लो कि मैं इस सरोवरका संरक्षण करनेवाली हूँ॥७८॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषय ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्व एव क्षुधार्ताः स्म न चान्यत् किंचिदस्ति नः।
भवत्याः सम्मते सर्वे गृह्णीयाम बिसान्युत ॥ ७९ ॥

मूलम्

सर्व एव क्षुधार्ताः स्म न चान्यत् किंचिदस्ति नः।
भवत्याः सम्मते सर्वे गृह्णीयाम बिसान्युत ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषि बोले— भद्रे! इस समय हमलोग भूखसे व्याकुल हैं और हमारे पास खानेके लिये दूसरी कोई वस्तु नहीं है। अतः यदि तुम अनुमति दो तो हम सब लोग इस सरोवरसे कुछ मृणाल ले लें॥७९॥

मूलम् (वचनम्)

यातुधान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

समयेन बिसानीतो गृह्णीध्वं कामकारतः।
एकैको नाम मे प्रोक्त्वा ततो गृह्णीत माचिरम् ॥ ८० ॥

मूलम्

समयेन बिसानीतो गृह्णीध्वं कामकारतः।
एकैको नाम मे प्रोक्त्वा ततो गृह्णीत माचिरम् ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यातुधानीने कहा— ऋषियो! एक शर्तपर तुम इस सरोवरसे इच्छानुसार मृणाल ले सकते हो। एक-एक करके आओ और मुझे अपना नाम और तात्पर्य बताकर मृणाल ले लो। इसमें विलम्ब करनेकी आवश्यकता नहीं है॥८०॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विज्ञाय यातुधानीं तां कृत्यामृषिवधैषिणीम्।
अत्रिः क्षुधापरीतात्मा ततो वचनमब्रवीत् ॥ ८१ ॥

मूलम्

विज्ञाय यातुधानीं तां कृत्यामृषिवधैषिणीम्।
अत्रिः क्षुधापरीतात्मा ततो वचनमब्रवीत् ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! उसकी यह बात सुनकर महर्षि अत्रि यह समझ गये कि ‘यह राक्षसी कृत्या है और हम सब ऋषियोंका वध करनेकी इच्छासे यहाँ आयी हुई है।’ तथापि भूखसे व्याकुल होनेके कारण उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया॥८१॥

मूलम् (वचनम्)

अत्रिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरात्रिरत्रिः सा रात्रिर्यां नाधीते त्रिरद्य वै।
अरात्रिरत्रिरित्येव नाम मे विद्धि शोभने ॥ ८२ ॥

मूलम्

अरात्रिरत्रिः सा रात्रिर्यां नाधीते त्रिरद्य वै।
अरात्रिरत्रिरित्येव नाम मे विद्धि शोभने ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्रि बोले— कल्याणी! काम आदि शत्रुओंसे त्राण करनेवालेको अरात्रि कहते हैं और अत् (मृत्यु) से बचानेवाला अत्रि कहलाता है। इस प्रकार मैं ही अरात्रि होनेके कारण अत्रि हूँ। जबतक जीवको एकमात्र परमात्माका ज्ञान नहीं होता, तबतककी अवस्था रात्रि कहलाती है। उस अज्ञानावस्थासे रहित होनेके कारण भी मैं अरात्रि एवं अत्रि कहलाता हूँ। सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अज्ञात होनेके कारण जो रात्रिके समान है, उस परमात्मतत्त्वमें मैं सदा जाग्रत् रहता हूँ; अतः वह मेरे लिये अरात्रिके समान है, इस व्युत्पत्तिके अनुसार भी मैं अरात्रि और अत्रि (ज्ञानी) नाम धारण करता हूँ। यही मेरे नामका तात्पर्य समझो॥

मूलम् (वचनम्)

यातुधान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोदाहृतमेतत् ते मयि नाम महाद्युते।
दुर्धार्यमेतन्मनसा गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ८३ ॥

मूलम्

यथोदाहृतमेतत् ते मयि नाम महाद्युते।
दुर्धार्यमेतन्मनसा गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यातुधानीने कहा— तेजस्वी महर्षे! आपने जिस प्रकार अपने नामका तात्पर्य बताया है, उसका मेरी समझमें आना कठिन है। अच्छा, अब आप जाइये और तालाबमें उतरिये॥८३॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसिष्ठोऽस्मि वरिष्ठोऽस्मि वसे वासगृहेष्वपि।
वसिष्ठत्वाच्च वासाच्च वसिष्ठ इति विद्धि माम् ॥ ८४ ॥

मूलम्

वसिष्ठोऽस्मि वरिष्ठोऽस्मि वसे वासगृहेष्वपि।
वसिष्ठत्वाच्च वासाच्च वसिष्ठ इति विद्धि माम् ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठ बोले— मेरा नाम वसिष्ठ है, सबसे श्रेष्ठ होनेके कारण लोग मुझे वरिष्ठ भी कहते हैं। मैं गृहस्थ-आश्रममें वास करता हूँ; अतः वसिष्ठता (ऐश्वर्य-सम्पत्ति) और वासके कारण तुम मुझे वसिष्ठ समझो॥

मूलम् (वचनम्)

यातुधान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामनैरुक्तमेतत् ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् ।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ८५ ॥

मूलम्

नामनैरुक्तमेतत् ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् ।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यातुधानी बोली— मुने! आपने जो अपने नामकी व्याख्या की है उसके तो अक्षरोंका भी उच्चारण करना कठिन है। मैं इस नामको नहीं याद रख सकती। आप जाइये तालाबमें प्रवेश कीजिये॥८५॥

मूलम् (वचनम्)

कश्यप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलं कुलं च कुवमः कुवमः कश्यपो द्विजः।
काश्यः काशनिकाशत्वादेतन्मे नाम धारय ॥ ८६ ॥

मूलम्

कुलं कुलं च कुवमः कुवमः कश्यपो द्विजः।
काश्यः काशनिकाशत्वादेतन्मे नाम धारय ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कश्यपने कहा— यातुधानी! कश्य नाम है शरीरका, जो उसका पालन करता है उसे कश्यप कहते हैं। मैं प्रत्येक कुल (शरीर) में अन्तर्यामीरूपसे प्रवेश करके उसकी रक्षा करता हूँ, इसीलिये कश्यप हूँ। कु अर्थात् पृथ्वीपर वम यानी वर्षा करनेवाला सूर्य भी मेरा ही स्वरूप है, इसलिये मुझे ‘कुवम’ भी कहते हैं। मेरे देहका रंग काशके फूलकी भाँति उज्ज्वल है, अतः मैं काश्य नामसे भी प्रसिद्ध हूँ। यही मेरा नाम है। इसे तुम धारण करो॥८६॥

मूलम् (वचनम्)

यातुधान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोदाहृतमेतत् ते मयि नाम महाद्युते।
दुर्धार्यमेतन्मनसा गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ८७ ॥

मूलम्

यथोदाहृतमेतत् ते मयि नाम महाद्युते।
दुर्धार्यमेतन्मनसा गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यातुधानी बोली— महर्षे! आपके नामका तात्पर्य समझना मेरे लिये बहुत कठिन है। आप भी कमलोंसे भरी हुई बावड़ीमें जाइये॥८७॥

मूलम् (वचनम्)

भरद्वाज उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरेऽसुतान् भरेऽशिष्यान् भरे देवान् भरे द्विजान्।
भरे भार्यां भरे द्वाजं भरद्वाजोऽस्मि शोभने ॥ ८८ ॥

मूलम्

भरेऽसुतान् भरेऽशिष्यान् भरे देवान् भरे द्विजान्।
भरे भार्यां भरे द्वाजं भरद्वाजोऽस्मि शोभने ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरद्वाजने कहा— कल्याणी! जो मेरे पुत्र और शिष्य नहीं हैं, उनका भी मैं पालन करता हूँ, तथा देवता, ब्राह्मण, अपनी धर्मपत्नी तथा द्वाज (वर्णसंकर) मनुष्योंका भी भरण-पोषण करता हूँ, इसलिये भरद्वाज नामसे प्रसिद्ध हूँ॥८८॥

मूलम् (वचनम्)

यातुधान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामनैरुक्तमेतत् ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् ।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ८९ ॥

मूलम्

नामनैरुक्तमेतत् ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् ।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यातुधानी बोली— मुनिवर! आपके नामाक्षरका उच्चारण करनेमें भी मुझे क्लेश जान पड़ता है, इसलिये मैं इसे धारण नहीं कर सकती। जाइये, आप भी इस सरोवरमें उतरिये॥८९॥

मूलम् (वचनम्)

गौतम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोदमो दमतोऽधूमोऽदमस्ते समदर्शनात् ।
विद्धि मां गौतमं कृत्ये यातुधानि निबोध माम् ॥ ९० ॥

मूलम्

गोदमो दमतोऽधूमोऽदमस्ते समदर्शनात् ।
विद्धि मां गौतमं कृत्ये यातुधानि निबोध माम् ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौतमने कहा— कृत्ये! मैंने गो नामक इन्द्रियोंका संयम किया है, इसलिये ‘गोदम’ नाम धारण करता हूँ। मैं धूमरहित अग्निके समान तेजस्वी हूँ, सबमें समान दृष्टि रखनेके कारण तुम्हारे या और किसीके द्वारा मेरा दमन नहीं हो सकता। मेरे शरीरकी कान्ति (गो) अन्धकारको दूर भगानेवाली (अतम) है, अतः तुम मुझे गौतम समझो॥९०॥

मूलम् (वचनम्)

यातुधान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोदाहृतमेतत् ते मयि नाम महामुने।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ९१ ॥

मूलम्

यथोदाहृतमेतत् ते मयि नाम महामुने।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यातुधानी बोली— महामुने! आपके नामकी व्याख्या भी मैं नहीं समझ सकती। जाइये, पोखरेमें प्रवेश कीजिये॥९१॥

मूलम् (वचनम्)

विश्वामित्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वे देवाश्च मे मित्रं मित्रमस्मि गवां तथा।
विश्वामित्रमिति ख्यातं यातुधानि निबोध माम् ॥ ९२ ॥

मूलम्

विश्वे देवाश्च मे मित्रं मित्रमस्मि गवां तथा।
विश्वामित्रमिति ख्यातं यातुधानि निबोध माम् ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वामित्रने कहा— यातुधानी! तू कान खोलकर सुन ले, विश्वेदेव मेरे मित्र हैं, तथा गौओं और सम्पूर्ण विश्वका मैं मित्र हूँ। इसलिये संसारमें विश्वामित्रके नामसे प्रसिद्ध हूँ॥९२॥

मूलम् (वचनम्)

यातुधान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामनैरुक्तमेतत् ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् ।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ९३ ॥

मूलम्

नामनैरुक्तमेतत् ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् ।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यातुधानी बोली— महर्षे! आपके नामकी व्याख्याके एक अक्षरका भी उच्चारण करना मेरे लिये कठिन है। इसे याद रखना मेरे लिये असम्भव है। अतः जाइये, सरोवरमें प्रवेश कीजिये॥९३॥

मूलम् (वचनम्)

जमदग्निरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाजमद्यजजानेऽहं जिजाहीह जिजायिषि ।
जमदग्निरिति ख्यातस्ततो मां विद्धि शोभने ॥ ९४ ॥

मूलम्

जाजमद्यजजानेऽहं जिजाहीह जिजायिषि ।
जमदग्निरिति ख्यातस्ततो मां विद्धि शोभने ॥ ९४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जमदग्निने कहा— कल्याणी! मैं जगत् अर्थात् देवताओंके आहवनीय अग्निसे उत्पन्न हुआ हूँ, इसलिये तुम मुझे जमदग्नि नामसे विख्यात समझो॥९४॥

मूलम् (वचनम्)

यातुधान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोदाहृतमेतत् ते मयि नाम महामुने।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ९५ ॥

मूलम्

यथोदाहृतमेतत् ते मयि नाम महामुने।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ९५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यातुधानी बोली— महामुने! आपने जिस प्रकार अपने नामका तात्पर्य बतलाया है, उसको समझना मेरे लिये बहुत कठिन है। अब आप सरोवरमें प्रवेश कीजिये॥९५॥

मूलम् (वचनम्)

अरुन्धत्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरान् धरित्रीं वसुधां भर्तुस्तिष्ठाम्यनन्तरम्।
मनोऽनुरुन्धती भर्तुरिति मां विद्ध्यारुन्धतीम् ॥ ९६ ॥

मूलम्

धरान् धरित्रीं वसुधां भर्तुस्तिष्ठाम्यनन्तरम्।
मनोऽनुरुन्धती भर्तुरिति मां विद्ध्यारुन्धतीम् ॥ ९६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरुन्धतीने कहा— यातुधानी! मैं अरु अर्थात् पर्वत, पृथ्वी और द्युलोकको अपनी शक्तिसे धारण करती हूँ। अपने स्वामीसे कभी दूर नहीं रहती और उनके मनके अनुसार चलती हूँ, इसलिये मेरा नाम अरुन्धती है॥९६॥

मूलम् (वचनम्)

यातुधान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामनैरुक्तमेतत् ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् ।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ९७ ॥

मूलम्

नामनैरुक्तमेतत् ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् ।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ९७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यातुधानी बोली— देवि! आपने जो अपने नामकी व्याख्या की है, उसके एक अक्षरका भी उच्चारण मेरे लिये कठिन है, अतः इसे भी मैं नहीं याद रख सकती। आप तालाबमें प्रवेश कीजिये॥९७॥

मूलम् (वचनम्)

गण्डोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वक्त्रैकदेशे गण्डेति धातुमेतं प्रचक्षते।
तेनोन्नतेन गण्डेति विद्धि मानलसम्भवे ॥ ९८ ॥

मूलम्

वक्त्रैकदेशे गण्डेति धातुमेतं प्रचक्षते।
तेनोन्नतेन गण्डेति विद्धि मानलसम्भवे ॥ ९८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गण्डाने कहा— अग्निसे उत्पन्न होनेवाली कृत्ये! गडि धातुसे गण्ड शब्दकी सिद्धि होती है, यह मुखके एक देश—कपोलका वाचक है। मेरा कपोल (गण्ड) ऊँचा है, इसलिये लोग मुझे गण्डा कहते हैं॥९८॥

मूलम् (वचनम्)

यातुधान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामनैरुक्तमेतत् ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् ।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ९९ ॥

मूलम्

नामनैरुक्तमेतत् ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् ।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ ९९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यातुधानी बोली— तुम्हारे नामकी व्याख्याका भी उच्चारण करना मेरे लिये कठिन है। अतः इसको याद रखना असम्भव है। जाओ, तुम भी बावड़ीमें उतरो॥९९॥

मूलम् (वचनम्)

पशुसख उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पशून् रञ्जामि दृष्ट्वाहं पशूनां च सदा सखा।
गौणं पशुसखेत्येवं विद्धि मामग्निसम्भवे ॥ १०० ॥

मूलम्

पशून् रञ्जामि दृष्ट्वाहं पशूनां च सदा सखा।
गौणं पशुसखेत्येवं विद्धि मामग्निसम्भवे ॥ १०० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पशुसखने कहा— आगसे पैदा हुई कृत्ये! मैं पशुओंको प्रसन्न रखता हूँ और उनका प्रिय सखा हूँ; इस गुणके अनुसार मेरा नाम पशुसख है॥१००॥

मूलम् (वचनम्)

यातुधान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामनैरुक्तमेतत् ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् ।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ १०१ ॥

मूलम्

नामनैरुक्तमेतत् ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् ।
नैतद् धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्‌मिनीम् ॥ १०१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यातुधानी बोली— तुमने जो अपने नामकी व्याख्या की है, उसके अक्षरोंका उच्चारण करना भी मेरे लिये कष्टप्रद है। अतः इसको याद नहीं रख सकती; अब तुम भी पोखरेमें जाओ॥१०१॥

मूलम् (वचनम्)

शुनःसख उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एभिरुक्तं यथा नाम नाहं वक्तुमिहोत्सहे।
शुनःसखसखायं मां यातुधान्युपधारय ॥ १०२ ॥

मूलम्

एभिरुक्तं यथा नाम नाहं वक्तुमिहोत्सहे।
शुनःसखसखायं मां यातुधान्युपधारय ॥ १०२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुनःसख (संन्यासी) ने कहा— यातुधानी! इन ऋषियोंने जिस प्रकार अपना नाम बताया है; उस तरह मैं नहीं बता सकता। तू मेरा नाम शुनःसख समझ॥

मूलम् (वचनम्)

यातुधान्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामनैरुक्तमेतत् ते वाक्यं संदिग्धया गिरा।
तस्मात् पुनरिदानीं त्वं ब्रूहि यन्नाम ते द्विज ॥ १०३ ॥

मूलम्

नामनैरुक्तमेतत् ते वाक्यं संदिग्धया गिरा।
तस्मात् पुनरिदानीं त्वं ब्रूहि यन्नाम ते द्विज ॥ १०३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यातुधानी बोली— विप्रवर! आपने संदिग्धवाणीमें अपना नाम बताया है। अतः अब फिर स्पष्टरूपसे अपने नामकी व्याख्या कीजिये॥१०३॥

मूलम् (वचनम्)

शुनःसख उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकृदुक्तं मया नाम न गृहीतं त्वया यदि।
तस्मात् त्रिदण्डाभिहता गच्छ भस्मेति मा जिरम् ॥ १०४ ॥

मूलम्

सकृदुक्तं मया नाम न गृहीतं त्वया यदि।
तस्मात् त्रिदण्डाभिहता गच्छ भस्मेति मा जिरम् ॥ १०४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुनःसखने कहा— मैंने एक बार अपना नाम बता दिया फिर भी यदि तूने उसे ग्रहण नहीं किया तो इस प्रमादके कारण मेरे इस त्रिदण्डकी मार खाकर अभी भस्म हो जा—इसमें विलम्ब न हो॥१०४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा ब्रह्मदण्डकल्पेन तेन मूर्ध्नि हता तदा।
कृत्या पपात मेदिन्यां भस्म सा च जगाम ह॥१०५॥

मूलम्

सा ब्रह्मदण्डकल्पेन तेन मूर्ध्नि हता तदा।
कृत्या पपात मेदिन्यां भस्म सा च जगाम ह॥१०५॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह कहकर उस संन्यासीने ब्रह्मदण्डके समान अपने त्रिदण्डसे उसके मस्तकपर ऐसा हाथ जमाया कि वह यातुधानी पृथ्वीपर गिर पड़ी और तुरंत भस्म हो गयी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुनःसखा च हत्वा तां यातुधानीं महाबलाम्।
भूवि त्रिदण्डं विष्टभ्य शाद्वले समुपाविशत् ॥ १०६ ॥

मूलम्

शुनःसखा च हत्वा तां यातुधानीं महाबलाम्।
भूवि त्रिदण्डं विष्टभ्य शाद्वले समुपाविशत् ॥ १०६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार शुनःसखने उस महाबलवती राक्षसीका वध करके त्रिदण्डको पृथ्वीपर रख दिया और स्वयं भी वे वहीं घाससे ढँकी हुई भूमिपर बैठ गये॥१०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते मुनयः सर्वे पुष्कराणि बिसानि च।
यथाकाममुपादाय समुत्तस्थुर्मुदान्विताः ॥ १०७ ॥

मूलम्

ततस्ते मुनयः सर्वे पुष्कराणि बिसानि च।
यथाकाममुपादाय समुत्तस्थुर्मुदान्विताः ॥ १०७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वे सभी महर्षि इच्छानुसार कमलके फूल और मृणाल लेकर प्रसन्नतापूर्वक सरोवरसे बाहर निकले॥१०७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रमेण महता कृत्वा ते बिसानि कलापशः।
तीरे निक्षिप्य पद्‌मिन्यास्तर्पणं चक्रुरम्भसा ॥ १०८ ॥

मूलम्

श्रमेण महता कृत्वा ते बिसानि कलापशः।
तीरे निक्षिप्य पद्‌मिन्यास्तर्पणं चक्रुरम्भसा ॥ १०८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर बहुत परिश्रम करके उन्होंने अलग-अलग बोझे बाँधे। इसके बाद उन्हें किनारेपर ही रखकर वे सरोवरके जलसे तर्पण करने लगे॥१०८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोत्थाय जलात्‌ तस्मात्‌ सर्वे ते समुपागमन्।
नापश्यंश्चापि ते तानि बिसानि पुरुषर्षभाः ॥ १०९ ॥

मूलम्

अथोत्थाय जलात्‌ तस्मात्‌ सर्वे ते समुपागमन्।
नापश्यंश्चापि ते तानि बिसानि पुरुषर्षभाः ॥ १०९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

थोड़ी देर बाद जब वे पुरुषप्रवर पानीसे बाहर निकले तो उन्हें रखे हुए अपने वे मृणाल नहीं दिखायी पड़े॥१०९॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषय ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

केन क्षुधापरीतानामस्माकं पापकर्मणाम् ।
नृशंसेनापनीतानि बिसान्याहारकांक्षिणाम् ॥ ११० ॥

मूलम्

केन क्षुधापरीतानामस्माकं पापकर्मणाम् ।
नृशंसेनापनीतानि बिसान्याहारकांक्षिणाम् ॥ ११० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वे ऋषि एक दूसरेसे कहने लगे— अरे! हम सब लोग भूखसे व्याकुल थे और अब भोजन करना चाहते थे। ऐसे समयमें किस निर्दयीने हम पापियोंके मृणाल चुरा लिये॥११०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते शंकमानास्त्वन्योन्यं पप्रच्छुर्द्विजसत्तमाः ।
त ऊचुः समयं सर्वे कुर्म इत्यरिकर्शन ॥ १११ ॥

मूलम्

ते शंकमानास्त्वन्योन्यं पप्रच्छुर्द्विजसत्तमाः ।
त ऊचुः समयं सर्वे कुर्म इत्यरिकर्शन ॥ १११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुसूदन! वे श्रेष्ठ ब्राह्मण आपसमें ही एक-दूसरेपर संदेह करते हुए पूछ-ताछ करने लगे और अन्तमें बोले—‘हम सब लोग मिलकर शपथ करें’॥१११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त उक्त्वा बाढमित्येवं सर्व एव तदा समम्।
क्षुधार्ताः सुपरिश्रान्ताः शपथायोपचक्रमुः ॥ ११२ ॥

मूलम्

त उक्त्वा बाढमित्येवं सर्व एव तदा समम्।
क्षुधार्ताः सुपरिश्रान्ताः शपथायोपचक्रमुः ॥ ११२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शपथकी बात सुनकर सब-के-सब बोल उठे—‘बहुत अच्छा’। फिर वे भूखसे पीड़ित और परिश्रमसे थके-माँदे ब्राह्मण एक साथ ही शपथ खानेको तैयार हो गये॥११२॥

मूलम् (वचनम्)

अत्रिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गां स्पृशतु पादेन सूर्यं च प्रतिमेहतु।
अनध्यायेष्वधीयीत बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ ११३ ॥

मूलम्

स गां स्पृशतु पादेन सूर्यं च प्रतिमेहतु।
अनध्यायेष्वधीयीत बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ ११३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्रि बोले— जो मृणालकी चोरी करता हो उसे गायको लात मारने, सूर्यकी ओर मुँह करके पेशाब करने और अनध्यायके समय अध्ययन करनेका पाप लगे॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनध्याये पठेल्लोके शुनः सः परिकर्षतु।
परिव्राट् कामवृत्तस्तु बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ ११४ ॥
शरणागतं हन्तु स वै स्वसुतां चोपजीवतु।
अर्थान्‌ कांक्षतु कीनाशाद् बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ ११५ ॥

मूलम्

अनध्याये पठेल्लोके शुनः सः परिकर्षतु।
परिव्राट् कामवृत्तस्तु बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ ११४ ॥
शरणागतं हन्तु स वै स्वसुतां चोपजीवतु।
अर्थान्‌ कांक्षतु कीनाशाद् बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ ११५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठ बोले— जिसने मृणाल चुराये हों उसे निषिद्ध समयमें वेद पढ़ने, कुत्ते लेकर शिकार खेलने, संन्यासी होकर मनमाना बर्ताव करने, शरणागतको मारने, अपनी कन्या बेचकर जीविका चलाने तथा किसानके धन छीन लेनेका पाप लगे॥११४-११५॥

मूलम् (वचनम्)

कश्यप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वत्र सर्वं लपतु न्यासलोपं करोतु च।
कूटसाक्षित्वमभ्येतु बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ ११६ ॥

मूलम्

सर्वत्र सर्वं लपतु न्यासलोपं करोतु च।
कूटसाक्षित्वमभ्येतु बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ ११६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कश्यपने कहा— जिसने मृणालोंकी चोरी की हो उसको सब जगह सब तरहकी बातें कहने, दूसरोंकी धरोहर हड़प लेने और झूठी गवाही देनेका पाप लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृथामांसाशनश्चास्तु वृथादानं करोतु च।
यातु स्त्रियं दिवा चैव बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ ११७ ॥

मूलम्

वृथामांसाशनश्चास्तु वृथादानं करोतु च।
यातु स्त्रियं दिवा चैव बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ ११७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मृणालोंकी चोरी करता हो उसे मांसाहारका पाप लगे। उसका दान व्यर्थ चला जाय तथा उसे दिनमें स्त्रीके साथ समागम करनेका पाप लगे॥११७॥

मूलम् (वचनम्)

भरद्वाज उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृशंसस्त्यक्तधर्मास्तु स्त्रीषु ज्ञातिषु गोषु च।
ब्राह्मणं चापि जयतां बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ ११८ ॥

मूलम्

नृशंसस्त्यक्तधर्मास्तु स्त्रीषु ज्ञातिषु गोषु च।
ब्राह्मणं चापि जयतां बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ ११८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरद्वाज बोले— जिसने मृणाल चुराया हो उस निर्दयीको धर्मके परित्यागका दोष लगे। वह स्त्रियों, कुटुम्बीजनों तथा गौओंके साथ पापपूर्ण बर्ताव करनेका दोषी हो और ब्राह्मणको वाद-विवादमें पराजित करनेका पाप लगे॥११८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपाध्यायमधः कृत्वा ऋचोऽध्येतु अजूंषि च।
जुहोतु च स कक्षाग्नौ बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ ११९ ॥

मूलम्

उपाध्यायमधः कृत्वा ऋचोऽध्येतु अजूंषि च।
जुहोतु च स कक्षाग्नौ बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ ११९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मृणालकी चोरी करता हो, उसे उपाध्याय (अध्यापक या गुरु) को नीचे बैठाकर उनसे ऋग्वेद और यजुर्वेदका अध्ययन करने और घास-फूसकी आगमें आहुति डालनेका पाप लगे॥११९॥

मूलम् (वचनम्)

जमदग्निरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरीषमुत्सृजत्वप्सु हन्तु गां चैव द्रुह्यतु।
अनृतौ मैथुनं यातु बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १२० ॥

मूलम्

पुरीषमुत्सृजत्वप्सु हन्तु गां चैव द्रुह्यतु।
अनृतौ मैथुनं यातु बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १२० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जमदग्नि बोले— जिसने मृणालोंका अपहरण किया हो, उसे पानीमें मलत्याग करनेका पाप लगे, गाय मारनेका अथवा उसके साथ द्रोह करनेका तथा ऋतुकाल आये बिना ही स्त्रीके साथ समागम करनेका पाप लगे॥१२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वेष्यो भार्योपजीवी स्याद् दूरबन्धुश्च वैरवान्।
अन्योन्यस्यातिथिश्चास्तु बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १२१ ॥

मूलम्

द्वेष्यो भार्योपजीवी स्याद् दूरबन्धुश्च वैरवान्।
अन्योन्यस्यातिथिश्चास्तु बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १२१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने मृणाल चुराये हों उसे सबके साथ द्वेष करनेका, स्त्रीकी कमाईपर जीविका चलानेका, भाई-बन्धुओंसे दूर रहनेका, सबसे वैर करनेका और एक-दूसरेके घर अतिथि होनेका पाप लगे॥१२१॥

मूलम् (वचनम्)

गौतम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधीत्य वेदांस्त्यजतु त्रीनग्नीनपविध्यतु ।
विक्रीणातु तथा सोमं बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १२२ ॥

मूलम्

अधीत्य वेदांस्त्यजतु त्रीनग्नीनपविध्यतु ।
विक्रीणातु तथा सोमं बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १२२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौतम बोले— जिसने मृणाल चुराये हों उसे वेदोंको पढ़कर त्यागनेका, तीनों अग्नियोंका परित्याग करनेका और सोमरसका विक्रय करनेका पाप लगे॥१२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदपानप्लवे ग्रामे ब्राह्मणो वृषलीपतिः।
तस्य सालोक्यतां यातु बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १२३ ॥

मूलम्

उदपानप्लवे ग्रामे ब्राह्मणो वृषलीपतिः।
तस्य सालोक्यतां यातु बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १२३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने मृणालोंकी चोरी की हो उसे वही लोक मिले, जो एक ही कूपमें पानी भरनेवाले, गाँवमें निवास करनेवाले और शूद्रकी पत्नीसे संसर्ग रखनेवाले ब्राह्मणको मिलता है॥१२३॥

मूलम् (वचनम्)

विश्वामित्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवतो वै गुरून् भृत्यान् भरन्त्वस्य परे जनाः।
अगतिर्बहुपुत्रः स्याद् बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १२४ ॥

मूलम्

जीवतो वै गुरून् भृत्यान् भरन्त्वस्य परे जनाः।
अगतिर्बहुपुत्रः स्याद् बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १२४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वामित्र बोले— जो इन मृणालोंको चुरा ले गया हो, जिस पुरुषके जीवित रहनेपर उसके गुरु और माता तथा पिताका दूसरे पुरुष पोषण करें उसको और जिसकी कुगति हुई हो तथा जिसके बहुत-से पुत्र हों उसको जो पाप लगता है वह पाप उसे लगे॥१२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशुचिर्ब्रह्मकूटोऽस्तु ऋद्ध्या चैवाप्यहंकृतः ।
कर्षको मत्सरी चास्तु बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १२५ ॥

मूलम्

अशुचिर्ब्रह्मकूटोऽस्तु ऋद्ध्या चैवाप्यहंकृतः ।
कर्षको मत्सरी चास्तु बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १२५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने मृणालोंका अपहरण किया हो, उसे अपवित्र रहनेका, वेदको मिथ्या माननेका, धनका घमंड करनेका, ब्राह्मण होकर खेत जोतनेका और दूसरोंसे डाह रखनेका पाप लगे॥१२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्षाचरोऽस्तु भृतको राज्ञश्चास्तु पुरोहितः।
अयाज्यस्य भवेदृत्विग् बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १२६ ॥

मूलम्

वर्षाचरोऽस्तु भृतको राज्ञश्चास्तु पुरोहितः।
अयाज्यस्य भवेदृत्विग् बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १२६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने मृणाल चुराये हों, उसे वर्षाकालमें परदेशकी यात्रा करनेका, ब्राह्मण होकर वेतन लेकर काम करनेका, राजाके पुरोहित तथा यज्ञके अनधिकारीसे भी यज्ञ करानेका पाप लगे॥१२६॥

मूलम् (वचनम्)

अरुन्धत्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यं परिभवेच्छ्‌वश्रूं भर्तुर्भवतु दुर्मनाः।
एका स्वादु समाश्नातु बिसस्तैन्यं करोति या ॥ १२७ ॥

मूलम्

नित्यं परिभवेच्छ्‌वश्रूं भर्तुर्भवतु दुर्मनाः।
एका स्वादु समाश्नातु बिसस्तैन्यं करोति या ॥ १२७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरुन्धती बोलीं— जो स्त्री मृणालोंकी चोरी करती हो उसे प्रतिदिन सासका तिरस्कार करनेका, अपने पतिका दिल दुखानेका और अकेली ही स्वादिष्ट वस्तुएँ खानेका पाप लगे॥१२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञातीनां गृहमध्यस्था सक्तूनत्तु दिनक्षये।
अभोग्या वीरसूरस्तु बिसस्तैन्यं करोति या ॥ १२८ ॥

मूलम्

ज्ञातीनां गृहमध्यस्था सक्तूनत्तु दिनक्षये।
अभोग्या वीरसूरस्तु बिसस्तैन्यं करोति या ॥ १२८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने मृणालोंकी चोरी की हो, उस स्त्रीको कुटुम्बीजनोंका अपमान करके घरमें रहनेका, दिन बीत जानेपर सत्तू खानेका, कलंकिनी होनेके कारण पतिके उपभोगमें न आनेका और ब्राह्मणी होकर भी क्षत्राणियोंके समान उग्र स्वभाववाले वीर पुत्रकी जननी होनेका पाप लगे॥१२८॥

मूलम् (वचनम्)

गण्डोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनृतं भाषतु सदा बन्धुभिश्च विरुध्यतु।
ददातु कन्यां शुल्केन बिसस्तैन्यं करोति या ॥ १२९ ॥

मूलम्

अनृतं भाषतु सदा बन्धुभिश्च विरुध्यतु।
ददातु कन्यां शुल्केन बिसस्तैन्यं करोति या ॥ १२९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गण्डा बोली— जिस स्त्रीने मृणालकी चोरी की हो उसे सदा झूठ बोलनेका, भाई-बन्धुओंसे लड़ने और विरोध करने और शुल्क लेकर कन्यादान करनेका पाप लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधयित्वा स्वयं प्राशेद् दास्ये जीर्यतु चैव ह।
विकर्मणा प्रमीयेत बिसस्तैन्यं करोति या ॥ १३० ॥

मूलम्

साधयित्वा स्वयं प्राशेद् दास्ये जीर्यतु चैव ह।
विकर्मणा प्रमीयेत बिसस्तैन्यं करोति या ॥ १३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस स्त्रीने मृणाल चुराया हो उसे रसोई बनाकर अकेली भोजन करनेका, दूसरोंकी गुलामी करती-करती ही बूढ़ी होनेका और पापकर्म करके मौतके मुखमें पड़नेका पाप लगे॥१३०॥

मूलम् (वचनम्)

पशुसख उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दास एव प्रजायेतामप्रसूतिरकिंचनः ।
दैवतेष्वनमस्कारो बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १३१ ॥

मूलम्

दास एव प्रजायेतामप्रसूतिरकिंचनः ।
दैवतेष्वनमस्कारो बिसस्तैन्यं करोति यः ॥ १३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पशुसख बोला— जिसने मृणालोंकी चोरी की हो उसे दूसरे जन्ममें भी दासीके ही घरमें पैदा होने, संतानहीन और निर्धन होने तथा देवताओंको नमस्कार न करनेका पाप लगे॥१३१॥

मूलम् (वचनम्)

शुनःसख उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्वर्यवे दुहितरं वा ददातु
च्छन्दोगे वा चरितब्रह्मचर्ये ।
आथर्वणं वेदमधीत्य विप्रः
स्नायीत वा यो हरते बिसानि ॥ १३२ ॥

मूलम्

अध्वर्यवे दुहितरं वा ददातु
च्छन्दोगे वा चरितब्रह्मचर्ये ।
आथर्वणं वेदमधीत्य विप्रः
स्नायीत वा यो हरते बिसानि ॥ १३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुनःसखने कहा— जिसने मृणालोंको चुराया हो वह ब्रह्मचर्यव्रत पूर्ण करके आये हुए यजुर्वेदी अथवा सामवेदी विद्वान्‌को कन्यादान दे अथवा वह ब्राह्मण अथर्ववेदका अध्ययन पूरा करके शीघ्र ही स्नातक बन जाय॥१३२॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषय ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टमेतद् द्विजातीनां योऽयं ते शपथः कृतः।
त्वया कृतं बिसस्तैन्यं सर्वेषां नः शुनःसख ॥ १३३ ॥

मूलम्

इष्टमेतद् द्विजातीनां योऽयं ते शपथः कृतः।
त्वया कृतं बिसस्तैन्यं सर्वेषां नः शुनःसख ॥ १३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषियोंने कहा— शुनःसख! तुमने जो शपथ की है, वह तो ब्राह्मणोंको अभीष्ट ही है। अतः जान पड़ता है, हमारे मृणालोंकी चोरी तुमने ही की है॥१३३॥

मूलम् (वचनम्)

शुनःसख उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यस्तमद्यं न पश्यद्‌भिर्यदुक्तं कृतकर्मभिः।
सत्यमेतन्न मिथ्यैतद् बिसस्तैन्यं कृतं मया ॥ १३४ ॥

मूलम्

न्यस्तमद्यं न पश्यद्‌भिर्यदुक्तं कृतकर्मभिः।
सत्यमेतन्न मिथ्यैतद् बिसस्तैन्यं कृतं मया ॥ १३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुनःसखने कहा— मुनिवरो! आपका कहना ठीक है। वास्तवमें आपका भोजन मैंने ही रख लिया है। आपलोग जब तर्पण कर रहे थे, उस समय आपकी दृष्टि इधर नहीं थी; तभी मैंने वह सब लेकर रख लिया था। अतः आपका यह कथन कि तुमने ही मृणाल चुराये हैं, ठीक है। मिथ्या नहीं है। वास्तवमें मैंने ही उन मृणालोंकी चोरी की है॥१३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया ह्यन्तर्हितानीह बिसानीमानि पश्यत।
परीक्षार्थं भगवतां कृतमेवं मयानघाः ॥ १३५ ॥

मूलम्

मया ह्यन्तर्हितानीह बिसानीमानि पश्यत।
परीक्षार्थं भगवतां कृतमेवं मयानघाः ॥ १३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने उन मृणालोंको यहाँ छिपा दिया था। देखिये, ये रहे आपके मृणाल। निष्पाप मुनियो! मैंने आपलोगोंकी परीक्षाके लिये ही ऐसा किया था॥१३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षणार्थं च सर्वेषां भवतामहमागतः।
यातुधानी ह्यतिक्रूरा कृत्यैषा वो वधैषिणी ॥ १३६ ॥

मूलम्

रक्षणार्थं च सर्वेषां भवतामहमागतः।
यातुधानी ह्यतिक्रूरा कृत्यैषा वो वधैषिणी ॥ १३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं आप सब लोगोंकी रक्षाके लिये यहाँ आया था यह यातुधानी अत्यन्त क्रूर स्वभाववाली कृत्या थी और आपलोगोंका वध करना चाहती थी॥१३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृषादर्भिप्रयुक्तैषा निहता मे तपोधनाः।
दुष्टा हिंस्यादियं पापा युष्मान् प्रत्यग्निसम्भवा ॥ १३७ ॥
तस्मादस्म्यागतो विप्रा वासवं मां निबोधत।
अलोभादक्षया लोकाः प्राप्ता वै सार्वकामिकाः ॥ १३८ ॥
उत्तिष्ठध्वमितः क्षिप्रं तानवाप्नुत वै द्विजाः ॥ १३९ ॥

मूलम्

वृषादर्भिप्रयुक्तैषा निहता मे तपोधनाः।
दुष्टा हिंस्यादियं पापा युष्मान् प्रत्यग्निसम्भवा ॥ १३७ ॥
तस्मादस्म्यागतो विप्रा वासवं मां निबोधत।
अलोभादक्षया लोकाः प्राप्ता वै सार्वकामिकाः ॥ १३८ ॥
उत्तिष्ठध्वमितः क्षिप्रं तानवाप्नुत वै द्विजाः ॥ १३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपोधनो! राजा वृषादर्भिने इसे भेजा था, किंन्तु यह मेरे द्वारा मारी गयी। ब्राह्मणो! मैंने सोचा कि अग्निसे उत्पन्न यह दुष्ट पापिनी कृत्या कहीं आप-लोगोंकी हिंसा न कर डाले; इसलिये मैं यहाँ आ गया। आपलोग मुझे इन्द्र समझें। आपलोगोंने जो लोभका परित्याग किया है, इससे आपको वे अक्षयलोक प्राप्त हुए हैं, जो सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाले हैं। अतः ब्राह्मणो! अब आपलोग यहाँसे उठें और शीघ्र उन लोकोंमें पदार्पण करें॥१३७—१३९॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो महर्षयः प्रीतास्तथेत्युक्त्वा पुरंदरम्।
सहैव त्रिदशेन्द्रेण सर्वे जग्मुस्त्रिविष्टपम् ॥ १४० ॥

मूलम्

ततो महर्षयः प्रीतास्तथेत्युक्त्वा पुरंदरम्।
सहैव त्रिदशेन्द्रेण सर्वे जग्मुस्त्रिविष्टपम् ॥ १४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इन्द्रकी बात सुनकर महर्षियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने देवराजसे ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। फिर वे सब-के-सब देवेन्द्रके साथ ही स्वर्गलोक चले गये॥१४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेते महात्मानो भोगैर्बहुविधैरपि ।
क्षुधा परमया युक्ताश्छन्द्यमाना महात्मभिः ॥ १४१ ॥
नैव लोभं तदा चक्रुस्ततः स्वर्गमवाप्नुवन् ॥ १४२ ॥

मूलम्

एवमेते महात्मानो भोगैर्बहुविधैरपि ।
क्षुधा परमया युक्ताश्छन्द्यमाना महात्मभिः ॥ १४१ ॥
नैव लोभं तदा चक्रुस्ततः स्वर्गमवाप्नुवन् ॥ १४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उन महात्माओंने अत्यन्त भूखे होनेपर और बड़े-बड़े लोगोंके अनेक प्रकारके भोगोंद्वारा लालच देनेपर भी उस समय लोभ नहीं किया। इसीसे उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति हुई॥१४१-१४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्‌ सर्वास्ववस्थासु नरो लोभं विवर्जयेत्।
एष धर्मः परो राजंस्तस्माल्लोभं विवर्जयेत् ॥ १४३ ॥

मूलम्

तस्मात्‌ सर्वास्ववस्थासु नरो लोभं विवर्जयेत्।
एष धर्मः परो राजंस्तस्माल्लोभं विवर्जयेत् ॥ १४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह सभी दशाओंमें लोभका त्याग करे, क्योंकि यह सबसे बड़ा धर्म है। अतः लोभको अवश्य त्याग देना चाहिये॥१४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं नरः सुचरितं समवायेषु कीर्तयन्।
अर्थभागी च भवति न च दुर्गाण्यवाप्नुते ॥ १४४ ॥

मूलम्

इदं नरः सुचरितं समवायेषु कीर्तयन्।
अर्थभागी च भवति न च दुर्गाण्यवाप्नुते ॥ १४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य जनसमुदायमें इस पवित्र चरित्रका कीर्तन करता है, वह धन एवं मनोवांछित वस्तुका भागी होता है और कभी संकटमें नहीं पड़ता है॥१४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीयन्ते पितरश्चास्य ऋषयो देवतास्तथा।
यशोधर्मार्थभागी च भवति प्रेत्य मानवः ॥ १४५ ॥

मूलम्

प्रीयन्ते पितरश्चास्य ऋषयो देवतास्तथा।
यशोधर्मार्थभागी च भवति प्रेत्य मानवः ॥ १४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके ऊपर देवता, ऋषि और पितर सभी प्रसन्न होते हैं। वह मनुष्य इहलोकमें यश, धर्म एवं धनका भागी होता है। और मृत्युके पश्चात् उसे स्वर्गलोक सुलभ होता है॥१४५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि बिसस्तैन्योपाख्याने त्रिनवतितमोऽध्यायः ॥ ९३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें मृणालकी चोरीका उपाख्यानविषयक तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९३॥

सूचना (हिन्दी)

(दक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल १४६ श्लोक हैं)


  1. पोष्यवर्ग ↩︎