भागसूचना
द्विनवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पितर और देवताओंका श्राद्धान्नसे अजीर्ण होकर ब्रह्माजीके पास जाना और अग्निके द्वारा अजीर्णका निवारण, श्राद्धसे तृप्त हुए पितरोंका आशीर्वाद
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा निमौ प्रवृत्ते तु सर्व एव महर्षयः।
पितृयज्ञं तु कुर्वन्ति विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ १ ॥
मूलम्
तथा निमौ प्रवृत्ते तु सर्व एव महर्षयः।
पितृयज्ञं तु कुर्वन्ति विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस प्रकार जब महर्षि निमि पहले-पहल श्राद्धमें प्रवृत्त हुए, उसके बाद सभी महर्षि शास्त्रविधिके अनुसार पितृयज्ञका अनुष्ठान करने लगे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयो धर्मनित्यास्तु कृत्वा निवपनान्युत।
तर्पणं चाप्यकुर्वन्त तीर्थाम्भोभिर्यतव्रताः ॥ २ ॥
मूलम्
ऋषयो धर्मनित्यास्तु कृत्वा निवपनान्युत।
तर्पणं चाप्यकुर्वन्त तीर्थाम्भोभिर्यतव्रताः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सदा धर्ममें तत्पर रहनेवाले और नियमपूर्वक व्रत धारण करनेवाले महर्षि पिण्डदान करनेके पश्चात् तीर्थके जलसे पितरोंका तर्पण भी करते थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवापैर्दीयमानैश्च चातुर्वर्ण्येन भारत ।
तर्पिताः पितरो देवास्तत्रान्नं जरयन्ति वै ॥ ३ ॥
अजीर्णैस्त्वभिहन्यन्ते ते देवाः पितृभिः सह।
सोममेवाभ्यपद्यन्त तदा ह्यन्नाभिपीडिताः ॥ ४ ॥
मूलम्
निवापैर्दीयमानैश्च चातुर्वर्ण्येन भारत ।
तर्पिताः पितरो देवास्तत्रान्नं जरयन्ति वै ॥ ३ ॥
अजीर्णैस्त्वभिहन्यन्ते ते देवाः पितृभिः सह।
सोममेवाभ्यपद्यन्त तदा ह्यन्नाभिपीडिताः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! धीरे-धीरे चारों वर्णोंके लोग श्राद्धमें देवताओं और पितरोंको अन्न देने लगे। लगातार श्राद्धमें भोजन करते-करते वे देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गये। अब वे अन्न पचानेके प्रयत्नमें लगे। अजीर्णसे उन्हें विशेष कष्ट होने लगा। तब वे सोम देवताके पास गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽब्रुवन् सोममासाद्य पितरोऽजीर्णपीडिताः ।
निवापान्नेन पीड्यामः श्रेयो नोऽत्र विधीयताम् ॥ ५ ॥
मूलम्
तेऽब्रुवन् सोममासाद्य पितरोऽजीर्णपीडिताः ।
निवापान्नेन पीड्यामः श्रेयो नोऽत्र विधीयताम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सोमके पास जाकर वे अजीर्णसे पीड़ित पितर इस प्रकार बोले—‘देव! हम श्राद्धान्नसे बहुत कष्ट पा रहे हैं। अब आप हमारा कल्याण कीजिये’॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् सोमः प्रत्युवाचाथ श्रेयश्चेदीप्सितं सुराः।
स्वयम्भूसदनं यात स वः श्रेयोऽभिधास्यति ॥ ६ ॥
मूलम्
तान् सोमः प्रत्युवाचाथ श्रेयश्चेदीप्सितं सुराः।
स्वयम्भूसदनं यात स वः श्रेयोऽभिधास्यति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सोमने उनसे कहा—‘देवताओ! यदि आप कल्याण चाहते हैं तो ब्रह्माजीकी शरणमें जाइये, वही आपलोगोंका कल्याण करेंगे’॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते सोमवचनाद् देवाः पितृभिः सह भारत।
मेरुशृंगे समासीनं पितामहमुपागमन् ॥ ७ ॥
मूलम्
ते सोमवचनाद् देवाः पितृभिः सह भारत।
मेरुशृंगे समासीनं पितामहमुपागमन् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! सोमके कहनेसे वे पितरोंसहित देवता मेरुपर्वतके शिखरपर विराजमान ब्रह्माजीके पास गये॥
मूलम् (वचनम्)
पितर ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवापान्नेन भगवन् भृशं पीड्यामहे वयम्।
प्रसादं कुरु नो देव श्रेयो नः संविधीयताम् ॥ ८ ॥
मूलम्
निवापान्नेन भगवन् भृशं पीड्यामहे वयम्।
प्रसादं कुरु नो देव श्रेयो नः संविधीयताम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितरोंने कहा— भगवन्! निरन्तर श्राद्धका अन्न खानेसे हम अजीर्णतावश अत्यन्त कष्ट पा रहे हैं। देव! हमलोगोंपर कृपा कीजिये और हमें कल्याणके भागी बनाइये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तेषां वचः श्रुत्वा स्वयम्भूरिदमब्रवीत्।
एष मे पार्श्वतो वह्निर्युष्मच्छ्रेयोऽभिधास्यति ॥ ९ ॥
मूलम्
इति तेषां वचः श्रुत्वा स्वयम्भूरिदमब्रवीत्।
एष मे पार्श्वतो वह्निर्युष्मच्छ्रेयोऽभिधास्यति ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितरोंकी यह बात सुनकर स्वयम्भू ब्रह्माजीने इस प्रकार कहा—‘देवगण! मेरे निकट ये अग्निदेव विराजमान हैं। ये ही तुम्हारे कल्याणकी बात बतायेंगे’॥९॥
मूलम् (वचनम्)
अग्निरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहितास्तात भोक्ष्यामो निवापे समुपस्थिते।
जरयिष्यथ चाप्यन्नं मया सार्धं न संशयः ॥ १० ॥
मूलम्
सहितास्तात भोक्ष्यामो निवापे समुपस्थिते।
जरयिष्यथ चाप्यन्नं मया सार्धं न संशयः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्नि बोले— देवताओ और पितरो! अबसे श्राद्धका अवसर उपस्थित होनेपर हमलोग साथ ही भोजन किया करेंगे। मेरे साथ रहनेसे आपलोग उस अन्नको पचा सकेंगे, इसमें संशय नहीं है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा तु पितरस्ततस्ते विज्वराऽभवन्।
एतस्मात् कारणाच्चाग्नेः प्राक् तावद् दीयते नृप ॥ ११ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा तु पितरस्ततस्ते विज्वराऽभवन्।
एतस्मात् कारणाच्चाग्नेः प्राक् तावद् दीयते नृप ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! अग्निकी यह बात सुनकर वे पितर निश्चिन्त हो गये; इसीलिये श्राद्धमें पहले अग्निको ही भाग अर्पित किया जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवप्ते चाग्निपूर्वं वै निवापे पुरुषर्षभ।
न ब्रह्मराक्षसास्तं वै निवापं धर्षयन्त्युत ॥ १२ ॥
मूलम्
निवप्ते चाग्निपूर्वं वै निवापे पुरुषर्षभ।
न ब्रह्मराक्षसास्तं वै निवापं धर्षयन्त्युत ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषप्रवर! अग्निमें हवन करनेके बाद जो पितरोंके निमित्त पिण्डदान दिया जाता है, उसे ब्रह्मराक्षस दूषित नहीं करते॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्षांसि चापवर्तन्ते स्थिते देवे हुताशने।
पूर्वं पिण्डं पितुर्दद्यात् ततो दद्यात् पितामहे ॥ १३ ॥
मूलम्
रक्षांसि चापवर्तन्ते स्थिते देवे हुताशने।
पूर्वं पिण्डं पितुर्दद्यात् ततो दद्यात् पितामहे ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निदेवके विराजमान रहनेपर राक्षस वहाँसे भाग जाते हैं। सबसे पहले पिताको पिण्ड देना चाहिये, फिर पितामहको॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रपितामहाय च तत एष श्राद्धविधिः स्मृतः।
ब्रूयाच्छ्राद्धे च सावित्रीं पिण्डे पिण्डे समाहितः ॥ १४ ॥
मूलम्
प्रपितामहाय च तत एष श्राद्धविधिः स्मृतः।
ब्रूयाच्छ्राद्धे च सावित्रीं पिण्डे पिण्डे समाहितः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर प्रपितामहको पिण्ड देना चाहिये। यह श्राद्धकी विधि बतायी गयी है। श्राद्धमें एकाग्रचित्त हो प्रत्येक पिण्ड देते समय गायत्री-मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोमायेति च वक्तव्यं तथा पितृमतेति च।
रजस्वला च या नारी व्यंगिता कर्णयोश्च या।
निवापे नोपतिष्ठेत संग्राह्या नान्यवंशजा ॥ १५ ॥
मूलम्
सोमायेति च वक्तव्यं तथा पितृमतेति च।
रजस्वला च या नारी व्यंगिता कर्णयोश्च या।
निवापे नोपतिष्ठेत संग्राह्या नान्यवंशजा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिण्ड-दानके आरम्भमें पहले अग्नि और सोमके लिये जो दो भाग दिये जाते हैं, उनके मन्त्र क्रमशः इस प्रकार हैं—‘अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा’, ‘सोमाय पितृमते स्वाहा।’ जो स्त्री रजस्वला हो अथवा जिसके दोनों कान बहरे हों, उसको श्राद्धमें नहीं ठहरना चाहिये। दूसरे वंशकी स्त्रीको भी श्राद्धकर्ममें नहीं लेना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलं प्रतरमाणश्च कीर्तयेत पितामहान्।
नदीमासाद्य कुर्वीत पितॄणां पिण्डतर्पणम् ॥ १६ ॥
मूलम्
जलं प्रतरमाणश्च कीर्तयेत पितामहान्।
नदीमासाद्य कुर्वीत पितॄणां पिण्डतर्पणम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जलको तैरते समय पितामहों (के नामों) का कीर्तन करे। किसी नदीके तटपर जानेके बाद वहाँ पितरोंके लिये पिण्डदान और तर्पण करना चाहिये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं स्ववंशजानां तु कृत्वाद्भिस्तर्पणं पुनः।
सुहृत्सम्बन्धिवर्गाणां ततो दद्याज्जलाञ्जलिम् ॥ १७ ॥
मूलम्
पूर्वं स्ववंशजानां तु कृत्वाद्भिस्तर्पणं पुनः।
सुहृत्सम्बन्धिवर्गाणां ततो दद्याज्जलाञ्जलिम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले अपने वंशमें उत्पन्न पितरोंका जलके द्वारा तर्पण करके तत्पश्चात् सुहृद् और सम्बन्धियोंके समुदायको जलांजलि देनी चाहिये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कल्माषगोयुगेनाथ युक्तेन तरतो जलम्।
पितरोऽभिलषन्ते वै नावं चाप्यधिरोहिताः ॥ १८ ॥
मूलम्
कल्माषगोयुगेनाथ युक्तेन तरतो जलम्।
पितरोऽभिलषन्ते वै नावं चाप्यधिरोहिताः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो चितकबरे रंगके बैलोंसे जुती गाड़ीपर बैठकर नदीके जलको पार कर रहा हो, उसके पितर इस समय मानो नावपर बैठकर उससे जलांजलि पानेकी इच्छा रखते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा नावि जलं तज्ज्ञाः प्रयच्छन्ति समाहिताः।
मासार्धे कृष्णपक्षस्य कुर्यान्निर्वपणानि वै ॥ १९ ॥
पुष्टिरायुस्तथा वीर्यं श्रीश्चैव पितृभक्तितः।
मूलम्
सदा नावि जलं तज्ज्ञाः प्रयच्छन्ति समाहिताः।
मासार्धे कृष्णपक्षस्य कुर्यान्निर्वपणानि वै ॥ १९ ॥
पुष्टिरायुस्तथा वीर्यं श्रीश्चैव पितृभक्तितः।
अनुवाद (हिन्दी)
अतः जो इस बातको जानते हैं, वे एकाग्रचित्त हो नावपर बैठनेपर सदा ही पितरोंके लिये जल दिया करते हैं। महीनेका आधा समय बीत जानेपर कृष्णपक्षकी अमावास्या तिथिको अवश्य श्राद्ध करना चाहिये। पितरोंकी भक्तिसे मनुष्यको पुष्टि, आयु, वीर्य और लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितामहः पुलस्त्यश्च वसिष्ठः पुलहस्तथा ॥ २० ॥
अंगिराश्च क्रतुश्चैव कश्यपश्च महानृषिः।
एते कुरुकुलश्रेष्ठ महायोगेश्वराः स्मृताः ॥ २१ ॥
एते च पितरो राजन्नेष श्राद्धविधिः परः।
मूलम्
पितामहः पुलस्त्यश्च वसिष्ठः पुलहस्तथा ॥ २० ॥
अंगिराश्च क्रतुश्चैव कश्यपश्च महानृषिः।
एते कुरुकुलश्रेष्ठ महायोगेश्वराः स्मृताः ॥ २१ ॥
एते च पितरो राजन्नेष श्राद्धविधिः परः।
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुकुलश्रेष्ठ! ब्रह्मा, पुलस्त्य, वसिष्ठ, पुलह, अंगिरा, क्रतु और महर्षि कश्यप—ये सात ऋषि महान् योगेश्वर और पितर माने गये हैं। राजन्! इस प्रकार यह श्राद्धकी उत्तम विधि बतायी गयी॥२०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेतास्तु पिण्डसम्बन्धान्मुच्यन्ते तेन कर्मणा ॥ २२ ॥
इत्येषा पुरुषश्रेष्ठ श्राद्धोत्पत्तिर्यथागमम् ।
व्याख्याता पूर्वनिर्दिष्टा दानं वक्ष्याम्यतः परम् ॥ २३ ॥
मूलम्
प्रेतास्तु पिण्डसम्बन्धान्मुच्यन्ते तेन कर्मणा ॥ २२ ॥
इत्येषा पुरुषश्रेष्ठ श्राद्धोत्पत्तिर्यथागमम् ।
व्याख्याता पूर्वनिर्दिष्टा दानं वक्ष्याम्यतः परम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रेत (मरे हुए पिता आदि) पिण्डके सम्बन्धसे प्रेतत्वके कष्टसे छुटकारा पा जाते हैं। पुरुषश्रेष्ठ! यह मैंने शास्त्रके अनुसार तुम्हें पूर्वमें बताये श्राद्धकी उत्पत्तिका प्रसंग विस्तारपूर्वक बताया है। अब दानके विषयमें बताऊँगा॥२२-२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि श्राद्धकल्पे द्विनवतितमोऽध्यायः ॥ ९२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें श्राद्धकल्पविषयक बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९२॥