०९० श्राद्धकल्पे

भागसूचना

नवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्राद्धमें ब्राह्मणोंकी परीक्षा, पंक्तिदूषक और पंक्तिपावन ब्राह्मणोंका वर्णन, श्राद्धमें लाख मूर्ख ब्राह्मणोंको भोजन करानेकी अपेक्षा एक वेदवेत्ताको भोजन करानेकी श्रेष्ठताका कथन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीदृशेभ्यः प्रदातव्यं भवेच्छ्राद्धं पितामह।
द्विजेभ्यः कुरुशार्दूल तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥

मूलम्

कीदृशेभ्यः प्रदातव्यं भवेच्छ्राद्धं पितामह।
द्विजेभ्यः कुरुशार्दूल तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! कैसे ब्राह्मणको श्राद्धका दान (अर्थात् निमन्त्रण) देना चाहिये? कुरुश्रेष्ठ! आप इसका मेरे लिये स्पष्ट वर्णन करें॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणान् न परीक्षेत क्षत्रियो दानधर्मवित्।
दैवे कर्मणि पित्र्ये तु न्यायमाहुः परीक्षणम् ॥ २ ॥

मूलम्

ब्राह्मणान् न परीक्षेत क्षत्रियो दानधर्मवित्।
दैवे कर्मणि पित्र्ये तु न्यायमाहुः परीक्षणम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! दान-धर्मके ज्ञाता क्षत्रियको देवसम्बन्धी कर्म (यज्ञ-यागादि) में ब्राह्मणकी परीक्षा नहीं करनी चाहिये, किंतु पितृकर्म (श्राद्ध) में उनकी परीक्षा न्यायसंगत मानी गयी है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवताः पूजयन्तीह दैवेनैवेह तेजसा।
उपेत्य तस्माद् देवेभ्यः सर्वेभ्यो दापयेन्नरः ॥ ३ ॥

मूलम्

देवताः पूजयन्तीह दैवेनैवेह तेजसा।
उपेत्य तस्माद् देवेभ्यः सर्वेभ्यो दापयेन्नरः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता अपने दैव तेजसे ही इस जगत्‌में ब्राह्मणोंका पूजन (समादर) करते हैं; अतः देवताओंके उद्‌देश्यसे सभी ब्राह्मणोंके पास जाकर उन्हें दान देना चाहिये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्राद्धे त्वथ महाराज परीक्षेद् ब्राह्मणान् बुधः।
कुलशीलवयोरूपैर्विद्ययाभिजनेन च ॥ ४ ॥

मूलम्

श्राद्धे त्वथ महाराज परीक्षेद् ब्राह्मणान् बुधः।
कुलशीलवयोरूपैर्विद्ययाभिजनेन च ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु महाराज! श्राद्धके समय विद्वान् पुरुष कुल, शील (उत्तम आचरण), अवस्था, रूप, विद्या और पूर्वजोंके निवासस्थान आदिके द्वारा ब्राह्मणकी अवश्य परीक्षा करे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामन्ये पंक्तिदूषास्तथान्ये पंक्तिपावनाः ।
अपांक्तेयास्तु ये राजन् कीर्तयिष्यामि तान् शृणु ॥ ५ ॥

मूलम्

तेषामन्ये पंक्तिदूषास्तथान्ये पंक्तिपावनाः ।
अपांक्तेयास्तु ये राजन् कीर्तयिष्यामि तान् शृणु ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंमें कुछ तो पंक्तिदूषक होते हैं और कुछ पंक्तिपावन। राजन्! पहले पंक्तिदूषक ब्राह्मणोंका वर्णन करूँगा, सुनो॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कितवो भ्रूणहा यक्ष्मी पशुपालो निराकृतिः।
ग्रामप्रेष्यो वार्धुषिको गायनः सर्वविक्रयी ॥ ६ ॥
अगारदाही गरदः कुण्डाशी सोमविक्रयी।
सामुद्रिको राजभृत्यस्तैलिकः कूटकारकः ॥ ७ ॥
पित्रा विवदमानश्च यस्य चोपपतिर्गृहे।
अभिशस्तस्तथा स्तेनः शिल्पं यश्चोपजीवति ॥ ८ ॥
पर्वकारश्च सूची च मित्रध्रुक् पारदारिकः।
अव्रतानामुपाध्यायः काण्डपृष्ठस्तथैव च ॥ ९ ॥
श्वभिश्च यः परिक्रामेद् यः शुना दष्ट एव च।
परिवित्तिश्च यश्च स्याद् दुश्चर्मा गुरुतल्पगः ॥ १० ॥
कुशीलवो देवलको नक्षत्रैर्यश्च जीवति।
ईदृशैर्ब्राह्मणैर्भुक्तमपांक्तेयैर्युधिष्ठिर ॥ ११ ॥
रक्षांसि गच्छते हव्यमित्याहुर्ब्रह्मवादिनः ।

मूलम्

कितवो भ्रूणहा यक्ष्मी पशुपालो निराकृतिः।
ग्रामप्रेष्यो वार्धुषिको गायनः सर्वविक्रयी ॥ ६ ॥
अगारदाही गरदः कुण्डाशी सोमविक्रयी।
सामुद्रिको राजभृत्यस्तैलिकः कूटकारकः ॥ ७ ॥
पित्रा विवदमानश्च यस्य चोपपतिर्गृहे।
अभिशस्तस्तथा स्तेनः शिल्पं यश्चोपजीवति ॥ ८ ॥
पर्वकारश्च सूची च मित्रध्रुक् पारदारिकः।
अव्रतानामुपाध्यायः काण्डपृष्ठस्तथैव च ॥ ९ ॥
श्वभिश्च यः परिक्रामेद् यः शुना दष्ट एव च।
परिवित्तिश्च यश्च स्याद् दुश्चर्मा गुरुतल्पगः ॥ १० ॥
कुशीलवो देवलको नक्षत्रैर्यश्च जीवति।
ईदृशैर्ब्राह्मणैर्भुक्तमपांक्तेयैर्युधिष्ठिर ॥ ११ ॥
रक्षांसि गच्छते हव्यमित्याहुर्ब्रह्मवादिनः ।

अनुवाद (हिन्दी)

जुआरी, गर्भहत्यारा, राजयक्ष्माका रोगी, पशुपालन करनेवाला, अपढ़, गाँवभरका हरकारा, सूदखोर, गवैया, सब तरहकी चीज बेचनेवाला, दूसरोंका घर फूँकनेवाला, विष देनेवाला, माताद्वारा पतिके जीते-जी दूसरे पतिसे उत्पन्न किये हुए पुत्रके घर भोजन करनेवाला, सोमरस बेचनेवाला, सामुद्रिक विद्या (हस्तरेखा) से जीविका चलानेवाला, राजाका नौकर, तेल बेचनेवाला, झूठी गवाही देनेवाला, पितासे झगड़ा करनेवाला, जिसके घरमें जार पुरुषका प्रवेश हो वह, कलंकित, चोर, शिल्पजीवी, बहुरूपिया, चुगलखोर, मित्रद्रोही, परस्त्रीलम्पट, व्रतरहित, मनुष्योंका अध्यापक, हथियार बनाकर जीविका चलानेवाला, कुत्ते साथ लेकर घूमनेवाला, जिसे कुत्तेने काटा हो वह, जिसके छोटे भाईका विवाह हो गया हो ऐसा अविवाहित बड़ा भाई, चर्मरोगी, गुरुपत्नीगामी, नटका काम करनेवाला, देवमन्दिरमें पूजासे जीविका चलानेवाला और नक्षत्रोंका फल बताकर जीनेवाला—ये सभी ब्राह्मण पंक्तिसे बाहर रखने योग्य हैं! युधिष्ठिर! ऐसे पंक्तिदूषक ब्राह्मणोंका खाया हुआ हविष्य राक्षसोंको मिलता है, ऐसा ब्रह्मवादी पुरुषोंका कथन है॥६—११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्राद्धं भुक्त्वा त्वधीयीत वृषलीतल्पगश्च यः ॥ १२ ॥
पुरीषे तस्य ते मासं पितरस्तस्य शेरते।

मूलम्

श्राद्धं भुक्त्वा त्वधीयीत वृषलीतल्पगश्च यः ॥ १२ ॥
पुरीषे तस्य ते मासं पितरस्तस्य शेरते।

अनुवाद (हिन्दी)

जो ब्राह्मण श्राद्धका भोजन करके फिर उस दिन वेद पढ़ता है तथा जो वृषली स्त्रीसे समागम करता है, उसके पितर उस दिनसे लेकर एक मासतक उसीकी विष्ठामें शयन करते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोमविक्रयिणे विष्ठा भिषजे पूयशोणितम् ॥ १३ ॥
नष्टं देवलके दत्तमप्रतिष्ठं च वार्धुषे।
यत्तु वाणिजके दत्तं नेह नामुत्र तद् भवेत् ॥ १४ ॥

मूलम्

सोमविक्रयिणे विष्ठा भिषजे पूयशोणितम् ॥ १३ ॥
नष्टं देवलके दत्तमप्रतिष्ठं च वार्धुषे।
यत्तु वाणिजके दत्तं नेह नामुत्र तद् भवेत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोमरस बेचनेवालेको जो श्राद्धका अन्न दिया जाता है, वह पितरोंके लिये विष्ठाके तुल्य है। श्राद्धमें वैद्यको जिमाया हुआ अन्न पीब और रक्तके समान पितरोंको अग्राह्य हो जाता है। देवमन्दिरमें पूजा करके जीविका चलानेवालेको दिया हुआ श्राद्धका दान नष्ट हो जाता है—उसका कोई फल नहीं मिलता। सूदखोरको दिया हुआ अन्न अस्थिर होता है। वाणिज्यवृत्ति करनेवालेको श्राद्धमें दिये हुए अन्नका दान न इहलोकमें लाभदायक होता है और न परलोकमें॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भस्मनीव हुतं हव्यं तथा पौनर्भवे द्विजे।
ये तु धर्मव्यपेतेषु चारित्रापगतेषु च।
हव्यं कव्यं प्रयच्छन्ति तेषां तत् प्रेत्य नश्यति ॥ १५ ॥

मूलम्

भस्मनीव हुतं हव्यं तथा पौनर्भवे द्विजे।
ये तु धर्मव्यपेतेषु चारित्रापगतेषु च।
हव्यं कव्यं प्रयच्छन्ति तेषां तत् प्रेत्य नश्यति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक पतिको छोड़कर दूसरा पति करनेवाली स्त्रीके पुत्रको दिया हुआ श्राद्धमें अन्नका दान राखमें डाले हुए हविष्यके समान व्यर्थ हो जाता है। जो लोग धर्मरहित और चरित्रहीन द्विजको हव्य-कव्यका दान करते हैं, उनका वह दान परलोकमें नष्ट हो जाता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानपूर्वं तु ये तेभ्यः प्रयच्छन्त्यल्पबुद्धयः।
पुरीषं भुञ्जते तेषां पितरः प्रेत्य निश्चयः ॥ १६ ॥

मूलम्

ज्ञानपूर्वं तु ये तेभ्यः प्रयच्छन्त्यल्पबुद्धयः।
पुरीषं भुञ्जते तेषां पितरः प्रेत्य निश्चयः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मूर्ख मनुष्य जान-बूझकर वैसे पंक्तिदूषक ब्राह्मणोंको श्राद्धमें अन्नका दान करते हैं, उनके पितर परलोकमें निश्चय ही उनकी विष्ठा खाते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतानिमान् विजानीयादपांक्तेयान् द्विजाधमान् ।
शूद्राणामुपदेशं च ये कुर्वन्त्यल्पचेतसः ॥ १७ ॥

मूलम्

एतानिमान् विजानीयादपांक्तेयान् द्विजाधमान् ।
शूद्राणामुपदेशं च ये कुर्वन्त्यल्पचेतसः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन अधम ब्राह्मणोंको पंक्तिसे बाहर रखने-योग्य जानना चाहिये। जो मूढ़ ब्राह्मण शूद्रोंको वेदका उपदेश करते हैं, वे भी अपांक्तेय (अर्थात् पंक्ति-बाहर) ही हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षष्टिं काणः शतं षण्ढः श्वित्री यावत्प्रपश्यति।
पंक्त्यां समुपविष्टायां तावद् दूषयते नृप ॥ १८ ॥

मूलम्

षष्टिं काणः शतं षण्ढः श्वित्री यावत्प्रपश्यति।
पंक्त्यां समुपविष्टायां तावद् दूषयते नृप ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! काना मनुष्य पंक्तिमें बैठे हुए साठ मनुष्योंको दूषित कर देता है। जो नपुंसक है, वह सौ मनुष्योंको अपवित्र बना देता है तथा जो सफेद कोढ़का रोगी है, वह बैठे हुए पंक्तिमें जितने लोगोंको देखता है, उन सबको दूषित कर देता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्‌ वेष्टितशिरा भुंक्ते यद् भुंक्ते दक्षिणामुखः।
सोपानत्कश्च यद् भुंक्ते सर्वं विद्यात्‌ तदासुरम् ॥ १९ ॥

मूलम्

यद्‌ वेष्टितशिरा भुंक्ते यद् भुंक्ते दक्षिणामुखः।
सोपानत्कश्च यद् भुंक्ते सर्वं विद्यात्‌ तदासुरम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सिरपर पगड़ी और टोपी रखकर भोजन करता है, जो दक्षिणकी ओर मुख करके खाता है तथा जूते पहने भोजन करता है, उनका वह सारा भोजन आसुर समझना चाहिये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असूयता च यद् दत्तं यच्च श्रद्धाविवर्जितम्।
सर्वं तदसुरेन्द्राय ब्रह्मा भागमकल्पयत् ॥ २० ॥

मूलम्

असूयता च यद् दत्तं यच्च श्रद्धाविवर्जितम्।
सर्वं तदसुरेन्द्राय ब्रह्मा भागमकल्पयत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दोषदृष्टि रखते हुए दान करता है और जो बिना श्राद्धके देता है, उस सारे दानको ब्रह्माजीने असुरराज बलिका भाग निश्चित किया है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वानश्च पंक्तिदूषाश्च नावेक्षेरन् कथंचन।
तस्मात् परिसृते दद्यात् तिलांश्चान्ववकीरयेत् ॥ २१ ॥

मूलम्

श्वानश्च पंक्तिदूषाश्च नावेक्षेरन् कथंचन।
तस्मात् परिसृते दद्यात् तिलांश्चान्ववकीरयेत् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुत्तों और पंकिादूषक ब्राह्मणोंकी किसी तरह दृष्टि न पड़े, इसके लिये सब ओरसे घिरे हुए स्थानमें श्राद्धका दान करे और वहाँ सब ओर तिल छींटे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिलैर्विरहितं श्राद्धं कृतं क्रोधवशेन च।
यातुधानाः पिशाचाश्च विप्रलुम्पन्ति तद्धविः ॥ २२ ॥

मूलम्

तिलैर्विरहितं श्राद्धं कृतं क्रोधवशेन च।
यातुधानाः पिशाचाश्च विप्रलुम्पन्ति तद्धविः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो श्राद्ध तिलोंसे रहित होता है, अथवा जो क्रोधपूर्वक किया जाता है, उसके हविष्यको यातुधान (राक्षस) और पिशाच लुप्त कर देते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपांक्तो यावतः पांक्तान् भुञ्जानाननुपश्यति।
तावत्फलाद् भ्रंशयति दातारं तस्य बालिशम् ॥ २३ ॥

मूलम्

अपांक्तो यावतः पांक्तान् भुञ्जानाननुपश्यति।
तावत्फलाद् भ्रंशयति दातारं तस्य बालिशम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पंक्तिदूषक पुरुष पंक्तिमें भोजन करनेवाले जितने ब्राह्मणोंको देख लेता है, वह मूर्ख दाताको उतने ब्राह्मणोंके दानजनित फलसे वंचित कर देता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमे तु भरतश्रेष्ठ विज्ञेयाः पंक्तिपावनाः।
ये त्वतस्तान् प्रवक्ष्यामि परीक्षस्वेह तान् द्विजान् ॥ २४ ॥

मूलम्

इमे तु भरतश्रेष्ठ विज्ञेयाः पंक्तिपावनाः।
ये त्वतस्तान् प्रवक्ष्यामि परीक्षस्वेह तान् द्विजान् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! अब जिनका वर्णन किया जा रहा है, इन सबको पंक्तिपावन जानना चाहिये। इनका वर्णन इसलिये करूँगा कि तुम ब्राह्मणोंकी श्राद्धमें परीक्षा कर सको॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्यावेदव्रतस्नाता ब्राह्मणाः सर्व एव हि।
सदाचारपराश्चैव विज्ञेयाः सर्वपावनाः ॥ २५ ॥

मूलम्

विद्यावेदव्रतस्नाता ब्राह्मणाः सर्व एव हि।
सदाचारपराश्चैव विज्ञेयाः सर्वपावनाः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्या और वेदव्रतमें स्नातक हुए समस्त ब्राह्मण यदि सदाचारमें तत्पर रहनेवाले हों तो उन्हें सर्वपावन जानना चाहिये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पांक्तेयांस्तु प्रवक्ष्यामि ज्ञेयास्ते पंक्तिपावनाः।
त्रिणाचिकेतः पञ्चाग्निस्त्रिसुपर्णः षडंगवित् ॥ २६ ॥

मूलम्

पांक्तेयांस्तु प्रवक्ष्यामि ज्ञेयास्ते पंक्तिपावनाः।
त्रिणाचिकेतः पञ्चाग्निस्त्रिसुपर्णः षडंगवित् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं पांक्तेय ब्राह्मणोंका वर्णन करूँगा। उन्हींको पंक्तिपावन जानना चाहिये। जो त्रिणाचिकेत नामक मन्त्रोंका जप करनेवाला, गार्हपत्य आदि पाँच अग्नियोंका सेवन करनेवाला, त्रिसुपर्ण नामक (त्रिसुपर्णमित्यादि) मन्त्रोंका पाठ करनेवाला है तथा ‘ब्रह्ममेतु माम्’ इत्यादि तैत्तिरीय-प्रसिद्ध शिक्षा आदि छहों अंगोंका ज्ञान रखनेवाला है ये सब पंक्तिपावन हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मदेयानुसंतानश्छन्दोगो ज्येष्ठसामगः ।
मातापित्रोर्यश्च वश्यः श्रत्रियों दशपूरुषः ॥ २७ ॥

मूलम्

ब्रह्मदेयानुसंतानश्छन्दोगो ज्येष्ठसामगः ।
मातापित्रोर्यश्च वश्यः श्रत्रियों दशपूरुषः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो परम्परासे वेद या पराविद्याका ज्ञाता अथवा उपदेशक है, जो वेदके छन्दोग शाखाका विद्वान् है, जो ज्येष्ठ साममन्त्रका गायक, माता-पिताके वशमें रहनेवाला और दस पीढ़ियोंसे श्रोत्रिय (वेदपाठी) है, वह भी पंक्तिपावन है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋतुकालाभिगामी च धर्मपत्नीषु यः सदा।
वेदविद्याव्रतस्नातो विप्रः पंक्तिं पुनात्युत ॥ २८ ॥

मूलम्

ऋतुकालाभिगामी च धर्मपत्नीषु यः सदा।
वेदविद्याव्रतस्नातो विप्रः पंक्तिं पुनात्युत ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपनी धर्मपत्नियोंके साथ सदा ऋतुकालमें ही समागम करता है, वेद और विद्याके व्रतमें स्नातक हो चुका है, वह ब्राह्मण-पंक्तिको पवित्र कर देता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथर्वशिरसोऽध्येता ब्रह्मचारी यतव्रतः ।
सत्यवादी धर्मशीलः स्वकर्मनिरतश्च सः ॥ २९ ॥

मूलम्

अथर्वशिरसोऽध्येता ब्रह्मचारी यतव्रतः ।
सत्यवादी धर्मशीलः स्वकर्मनिरतश्च सः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अथर्ववेदके ज्ञाता, ब्रह्मचारी, नियमपूर्वक व्रतका पालन करनेवाले, सत्यवादी, धर्मशील और अपने कर्तव्य-कर्ममें तत्पर हैं, वे पुरुष पंक्तिपावन हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये च पुण्येषु तीर्थेषु अभिषेककृतश्रमाः।
मखेषु च समन्त्रेषु भवन्त्यवभृथप्लुताः ॥ ३० ॥
अक्रोधना ह्यचपलाः क्षान्ता दान्ता जितेन्द्रियाः।
सर्वभूतहिता ये च श्राद्धेष्वेतान् निमन्त्रयेत् ॥ ३१ ॥

मूलम्

ये च पुण्येषु तीर्थेषु अभिषेककृतश्रमाः।
मखेषु च समन्त्रेषु भवन्त्यवभृथप्लुताः ॥ ३० ॥
अक्रोधना ह्यचपलाः क्षान्ता दान्ता जितेन्द्रियाः।
सर्वभूतहिता ये च श्राद्धेष्वेतान् निमन्त्रयेत् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने पुण्य तीर्थोंमें गोता लगानेके लिये श्रम—प्रयत्न किया है, वेदमन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक अनेकों यज्ञोंका अनुष्ठान करके अवभृथ-स्नान किया है; जो क्रोधरहित, चपलतारहित, क्षमाशील, मनको वशमें रखनेवाले, जितेन्द्रिय और सम्पूर्ण प्राणियोंके हितैषी हैं, उन्हीं ब्राह्मणोंको श्राद्धमें निमन्त्रित करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेषु दत्तमक्षय्यमेते वै पंक्तिपावनाः।
इमे परे महाभागा विज्ञेयाः पंक्तिपावनाः ॥ ३२ ॥

मूलम्

एतेषु दत्तमक्षय्यमेते वै पंक्तिपावनाः।
इमे परे महाभागा विज्ञेयाः पंक्तिपावनाः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि ये पंक्तिपावन हैं; अतः इन्हें दिया हुआ दान अक्षय होता है। इनके सिवा दूसरे भी महान् भाग्यशाली पंक्तिपावन ब्राह्मण हैं, उन्हें इस प्रकार जानना चाहिये॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतयो मोक्षधर्मज्ञा योगाः सुचरितव्रताः।
(पाञ्चरात्रविदो मुख्यास्तथा भागवताः परे।
वैखानसाः कुलश्रेष्ठा वैदिकाचारचारिणः ॥)
ये चेतिहासं प्रयताः श्रावयन्ति द्विजोत्तमान् ॥ ३३ ॥
ये च भाष्यविदः केचिद् ये च व्याकरणे रताः।
अधीयते पुराणं ये धर्मशास्त्राण्यथापि च ॥ ३४ ॥
अधीत्य च यथान्यायं विधिवत् तस्य कारिणः।
उपपन्नो गुरुकुले सत्यवादी सहस्रशः ॥ ३५ ॥
अग्र्याः सर्वेषु वेदेषु सर्वप्रवचनेषु च।
यावदेते प्रपश्यन्ति पंक्त्यास्तावत्पुनन्त्युत ॥ ३६ ॥

मूलम्

यतयो मोक्षधर्मज्ञा योगाः सुचरितव्रताः।
(पाञ्चरात्रविदो मुख्यास्तथा भागवताः परे।
वैखानसाः कुलश्रेष्ठा वैदिकाचारचारिणः ॥)
ये चेतिहासं प्रयताः श्रावयन्ति द्विजोत्तमान् ॥ ३३ ॥
ये च भाष्यविदः केचिद् ये च व्याकरणे रताः।
अधीयते पुराणं ये धर्मशास्त्राण्यथापि च ॥ ३४ ॥
अधीत्य च यथान्यायं विधिवत् तस्य कारिणः।
उपपन्नो गुरुकुले सत्यवादी सहस्रशः ॥ ३५ ॥
अग्र्याः सर्वेषु वेदेषु सर्वप्रवचनेषु च।
यावदेते प्रपश्यन्ति पंक्त्यास्तावत्पुनन्त्युत ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मोक्ष-धर्मका ज्ञान रखनेवाले संयमी और उत्तम प्रकारसे व्रतका आचरण करनेवाले योगी हैं, पांचरात्र आगमके जाननेवाले श्रेष्ठ पुरुष हैं, परम भागवत हैं, वानप्रस्थ-धर्मका पालन करनेवाले, कुलमें श्रेष्ठ और वैदिक आचारका अनुष्ठान करनेवाले हैं। जो मनको संयममें रखकर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको इतिहास सुनाते हैं, जो महाभाष्य और व्याकरणके विद्वान् हैं तथा जो पुराण और धर्मशास्त्रोंका न्यायपूर्वक अध्ययन करके उनकी आज्ञाके अनुसार विधिवत् आचरण करनेवाले हैं, जिन्होंने नियमित समयतक गुरुकुलमें निवास करके वेदाध्ययन किया है, जो परीक्षाके सहस्रों अवसरोंपर सत्यवादी सिद्ध हुए हैं तथा जो चारों वेदोंके पढ़ने-पढ़ानेमें अग्रगण्य हैं, ऐसे ब्राह्मण पंक्तिको जितनी दूर देखते हैं उतनी दूरमें बैठे हुए ब्राह्मणोंको पवित्र कर देते हैं॥३३—३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो हि पावनात्पंक्त्याः पंक्तिपावन उच्यते।
क्रोशादर्धतृतीयाच्च पावयेदेक एव हि ॥ ३७ ॥
ब्रह्मदेयानुसंतान इति ब्रह्मविदो विदुः।

मूलम्

ततो हि पावनात्पंक्त्याः पंक्तिपावन उच्यते।
क्रोशादर्धतृतीयाच्च पावयेदेक एव हि ॥ ३७ ॥
ब्रह्मदेयानुसंतान इति ब्रह्मविदो विदुः।

अनुवाद (हिन्दी)

पंक्तिको पवित्र करनेके कारण ही उन्हें पंक्ति-पावन कहा जाता है। ब्रह्मवादी पुरुषोंकी यह मान्यता है कि वेदकी शिक्षा देनेवाले एवं ब्रह्मज्ञानी पुरुषोंके वंशमें उत्पन्न हुआ ब्राह्मण अकेला ही साढ़े तीन कोसतकका स्थान पवित्र कर सकता है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनृत्विगनुपाध्यायः स चेदग्रासनं व्रजेत् ॥ ३८ ॥
ऋत्विग्भिरभ्यनुज्ञातः पंक्त्या हरति दुष्कृतम्।

मूलम्

अनृत्विगनुपाध्यायः स चेदग्रासनं व्रजेत् ॥ ३८ ॥
ऋत्विग्भिरभ्यनुज्ञातः पंक्त्या हरति दुष्कृतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

जो ऋत्विक् या अध्यापक न हो, वह भी यदि ऋत्विजोंकी आज्ञा लेकर श्राद्धमें अग्रासन ग्रहण करता है तो पंक्तिके दोषको हर लेता है अर्थात् दूर कर देता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ चेद् वेदवित् सर्वैः पंक्तिदोषैर्विवर्जितः ॥ ३९ ॥
न च स्यात् पतितो राजन् पंक्तिपावन एव सः।

मूलम्

अथ चेद् वेदवित् सर्वैः पंक्तिदोषैर्विवर्जितः ॥ ३९ ॥
न च स्यात् पतितो राजन् पंक्तिपावन एव सः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! यदि कोई वेदज्ञ ब्राह्मण सब प्रकारके पंक्तिदोषोंसे रहित है और पतित नहीं हुआ है तो वह पंक्तिपावन ही है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन परीक्ष्यामन्त्रयेद् द्विजान् ॥ ४० ॥
स्वकर्मनिरतानन्यान् कुले जातान् बहुश्रुतान्।

मूलम्

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन परीक्ष्यामन्त्रयेद् द्विजान् ॥ ४० ॥
स्वकर्मनिरतानन्यान् कुले जातान् बहुश्रुतान्।

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये सब प्रकारकी चेष्टाओंसे ब्राह्मणोंकी परीक्षा करके ही उन्हें श्राद्धमें निमन्त्रित करना चाहिये। वे स्वकर्ममें तत्पर रहनेवाले, कुलीन और बहुश्रुत होने चाहिये॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य मित्रप्रधानानि श्राद्धानि च हवींषि च ॥ ४१ ॥
न प्रीणन्ति पितॄन् देवान् स्वर्गं च न स गच्छति।

मूलम्

यस्य मित्रप्रधानानि श्राद्धानि च हवींषि च ॥ ४१ ॥
न प्रीणन्ति पितॄन् देवान् स्वर्गं च न स गच्छति।

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके श्राद्धोंके भोजनमें मित्रोंकी प्रधानता रहती है, उसके वे श्राद्ध एवं हविष्य पितरों और देवताओंको तृप्त नहीं करते हैं तथा वह श्राद्धकर्ता पुरुष स्वर्गमें नहीं जाता है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्च श्राद्धे कुरुते संगतानि
न देवयानेन पथा स याति।
स वै मुक्तः पिप्पलं बन्धनाद् वा
स्वर्गाल्लोकाच्च्यवते श्राद्धमित्रः ॥ ४२ ॥

मूलम्

यश्च श्राद्धे कुरुते संगतानि
न देवयानेन पथा स याति।
स वै मुक्तः पिप्पलं बन्धनाद् वा
स्वर्गाल्लोकाच्च्यवते श्राद्धमित्रः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य श्राद्धमें भोजन देकर उससे मित्रता जोड़ता है, वह मृत्युके बाद देवमार्गसे नहीं जाने पाता। जैसे पीपलका फल डंठलसे टूटकर नीचे गिर जाता है, वैसे ही श्राद्धको मित्रताका साधन बनानेवाला पुरुष स्वर्गलोकसे भ्रष्ट हो जाता है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मान्मित्रं श्राद्धकृन्नाद्रियेत
दद्यान्मित्रेभ्यः संग्रहार्थं धनानि ।
यन्मन्यते नैव शत्रुं न मित्रं
तं मध्यस्थं भोजयेद्धव्यकव्ये ॥ ४३ ॥

मूलम्

तस्मान्मित्रं श्राद्धकृन्नाद्रियेत
दद्यान्मित्रेभ्यः संग्रहार्थं धनानि ।
यन्मन्यते नैव शत्रुं न मित्रं
तं मध्यस्थं भोजयेद्धव्यकव्ये ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये श्राद्धकर्ताको चाहिये कि वह श्राद्धमें मित्रको निमन्त्रण न दे। मित्रोंको संतुष्ट करनेके लिये धन देना उचित है। श्राद्धमें भोजन तो उसे ही कराना चाहिये जो शत्रु या मित्र न होकर मध्यस्थ हो॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोषरे बीजमुप्तं न रोहे-
न्न चावप्ता प्राप्नुयाद् बीजभागम्।
एवं श्राद्धं भुक्तमनर्हमाणै-
र्न चेह नामुत्र फलं ददाति ॥ ४४ ॥

मूलम्

यथोषरे बीजमुप्तं न रोहे-
न्न चावप्ता प्राप्नुयाद् बीजभागम्।
एवं श्राद्धं भुक्तमनर्हमाणै-
र्न चेह नामुत्र फलं ददाति ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे ऊसरमें बोया हुआ बीज न तो जमता है और न बोनेवालेको उसका कोई फल मिलता है, उसी प्रकार अयोग्य ब्राह्मणोंको भोजन कराया हुआ श्राद्धका अन्न न इस लोकमें लाभ पहुँचाता है, न परलोकमें ही कोई फल देता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणो ह्यनधीयानस्तृणाग्निरिव शाम्यति ।
तस्मै श्राद्धं न दातव्यं न हि भस्मनि हूयते॥४५॥

मूलम्

ब्राह्मणो ह्यनधीयानस्तृणाग्निरिव शाम्यति ।
तस्मै श्राद्धं न दातव्यं न हि भस्मनि हूयते॥४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे घास-फूसकी आग शीघ्र ही शान्त हो जाती है, उसी प्रकार स्वाध्यायहीन ब्राह्मण तेजहीन हो जाता है, अतः उसे श्राद्धका दान नहीं देना चाहिये, क्योंकि राखमें कोई भी हवन नहीं करता॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्भोजनी नाम पिशाचदक्षिणा
सा नैव देवान् न पितॄनुपैति।
इहैव सा भ्राम्यति हीनपुण्या
शालान्तरे गौरिव नष्टवत्सा ॥ ४६ ॥

मूलम्

सम्भोजनी नाम पिशाचदक्षिणा
सा नैव देवान् न पितॄनुपैति।
इहैव सा भ्राम्यति हीनपुण्या
शालान्तरे गौरिव नष्टवत्सा ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग एक-दूसरेके यहाँ श्राद्धमें भोजन करके परस्पर दक्षिणा देते और लेते हैं, उनकी वह दान-दक्षिणा पिशाच-दक्षिणा कहलाती है। वह न देवताओंको मिलती है, न पितरोंको। जिसका बछड़ा मर गया है ऐसी पुण्यहीना गौ जैसे दुखी होकर गोशालामें ही चक्कर लगाती रहती है, उसी प्रकार आपसमें दी और ली हुई दक्षिणा इसी लोकमें रह जाती है, वह पितरोंतक नहीं पहुँचने पाती॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाग्नौ शान्ते घृतमाजुहोति
तन्नैव देवान् न पितॄनुपैति।
तथा दत्तं नर्तने गायने च
यां चानृते दक्षिणामावृणोति ॥ ४७ ॥
उभौ हिनस्ति न भुनक्ति चैषा
या चानृते दक्षिणा दीयते वै।
आघातिनी गर्हितैषा पतन्ती
तेषां प्रेतान् पातयेद् देवयानात् ॥ ४८ ॥

मूलम्

यथाग्नौ शान्ते घृतमाजुहोति
तन्नैव देवान् न पितॄनुपैति।
तथा दत्तं नर्तने गायने च
यां चानृते दक्षिणामावृणोति ॥ ४७ ॥
उभौ हिनस्ति न भुनक्ति चैषा
या चानृते दक्षिणा दीयते वै।
आघातिनी गर्हितैषा पतन्ती
तेषां प्रेतान् पातयेद् देवयानात् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे आग बुझ जानेपर जो घृतका हवन किया जाता है, उसे न देवता पाते हैं, न पितर; उसी प्रकार नाचनेवाले, गवैये और झूठ बोलनेवाले अपात्र ब्राह्मणको दिया हुआ दान निष्फल होता है। अपात्र पुरुषको दी हुई दक्षिणा न दाताको तृप्त करती है न दान लेनेवालेको; प्रत्युत दोनोंका ही नाश करती है। यही नहीं, वह विनाशकारिणी निन्दित दक्षिणा दाताके पितरोंको देवयान-मार्गसे नीचे गिरा देती है॥४७-४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषीणां समये नित्यं ये चरन्ति युधिष्ठिर।
निश्चिताः सर्वधर्मज्ञास्तान् देवा ब्राह्मणान्‌ विदुः ॥ ४९ ॥

मूलम्

ऋषीणां समये नित्यं ये चरन्ति युधिष्ठिर।
निश्चिताः सर्वधर्मज्ञास्तान् देवा ब्राह्मणान्‌ विदुः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! जो सदा ऋषियोंके बताये हुए धर्ममार्गपर चलते हैं, जिनकी बुद्धि एक निश्चयपर पहुँची हुई है तथा जो सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता हैं, उन्हींको देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाध्यायनिष्ठा ऋषयो ज्ञाननिष्ठास्तथैव च।
तपोनिष्ठाश्च बोद्धव्याः कर्मनिष्ठाश्च भारत ॥ ५० ॥

मूलम्

स्वाध्यायनिष्ठा ऋषयो ज्ञाननिष्ठास्तथैव च।
तपोनिष्ठाश्च बोद्धव्याः कर्मनिष्ठाश्च भारत ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! ऋषि-मुनियोंमें किन्हींको स्वाध्यायनिष्ठ, किन्हींको ज्ञाननिष्ठ, किन्हींको तपोनिष्ठ और किन्हींको कर्मनिष्ठ जानना चाहिये॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कव्यानि ज्ञाननिष्ठेभ्यः प्रतिष्ठाप्यानि भारत।
तत्र ये ब्राह्मणान् केचिन्न निन्दन्ति हि ते नराः॥५१॥

मूलम्

कव्यानि ज्ञाननिष्ठेभ्यः प्रतिष्ठाप्यानि भारत।
तत्र ये ब्राह्मणान् केचिन्न निन्दन्ति हि ते नराः॥५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! उनमें ज्ञाननिष्ठ महर्षियोंको ही श्राद्धका अन्न जिमाना चाहिये। जो लोग ब्राह्मणोंकी निन्दा नहीं करते, वे ही श्रेष्ठ मनुष्य हैं॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये तु निन्दन्ति जल्पेषु न ताञ्छ्राद्धेषु भोजयेत्।
ब्राह्मणा निन्दिता राजन् हन्युस्त्रैपुरुषं कुलम् ॥ ५२ ॥
वैखानसानां वचनमृषीणां श्रूयते नृप।
दूरादेव परीक्षेत ब्राह्मणान् वेदपारगान् ॥ ५३ ॥

मूलम्

ये तु निन्दन्ति जल्पेषु न ताञ्छ्राद्धेषु भोजयेत्।
ब्राह्मणा निन्दिता राजन् हन्युस्त्रैपुरुषं कुलम् ॥ ५२ ॥
वैखानसानां वचनमृषीणां श्रूयते नृप।
दूरादेव परीक्षेत ब्राह्मणान् वेदपारगान् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो बातचीतमें ब्राह्मणोंकी निन्दा करते हैं, उन्हें श्राद्धमें भोजन नहीं कराना चाहिये। नरेश्वर! वानप्रस्थ ऋषियोंका यह वचन सुना जाता है कि ‘ब्राह्मणोंकी निन्दा होनेपर वे निन्दा करनेवालेकी तीन पीढ़ियोंका नाश कर डालते हैं।’ वेदवेत्ता ब्राह्मणोंकी दूरसे ही परीक्षा करनी चाहिये॥५२-५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियो वा यदि वा द्वेष्यस्तेषां तु श्राद्धमावपेत्।
यः सहस्रं सहस्राणां भोजयेदनृतान् नरः।
एकस्तान्मन्त्रवित् प्रीतः सर्वानर्हति भारत ॥ ५४ ॥

मूलम्

प्रियो वा यदि वा द्वेष्यस्तेषां तु श्राद्धमावपेत्।
यः सहस्रं सहस्राणां भोजयेदनृतान् नरः।
एकस्तान्मन्त्रवित् प्रीतः सर्वानर्हति भारत ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! वेदज्ञ पुरुष अपना प्रिय हो या अप्रिय—इसका विचार न करके उसे श्राद्धमें भोजन कराना चाहिये। जो दस लाख अपात्र ब्राह्मणको भोजन कराता है, उसके यहाँ उन सबके बदले एक ही सदा संतुष्ट रहनेवाला वेदज्ञ ब्राह्मण भोजन करनेका अधिकारी है, अर्थात् लाखों मूर्खोंकी अपेक्षा एक सत्पात्र ब्राह्मणको भोजन कराना उत्तम है॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि श्राद्धकल्पे नवतितमोऽध्यायः ॥ ९० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें श्राद्धकल्पविषयक नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९०॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ५५ श्लोक हैं)