भागसूचना
अष्टाशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्राद्धमें पितरोंके तृप्तिविषयका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किंस्विद् दत्तं पितृभ्यो वै भवत्यक्षयमीश्वर।
किं हविश्चिररात्राय किमानन्त्याय कल्पते ॥ १ ॥
मूलम्
किंस्विद् दत्तं पितृभ्यो वै भवत्यक्षयमीश्वर।
किं हविश्चिररात्राय किमानन्त्याय कल्पते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! पितरोंके लिये दी हुई कौन-सी वस्तु अक्षय होती है? किस वस्तुके दानसे पितर अधिक दिनतक और किसके दानसे अनन्त कालतक तृप्त रहते हैं?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हवींषि श्राद्धकल्पे तु यानि श्राद्धविदो विदुः।
तानि मे शृणु काम्यानि फलं चैव युधिष्ठिर ॥ २ ॥
मूलम्
हवींषि श्राद्धकल्पे तु यानि श्राद्धविदो विदुः।
तानि मे शृणु काम्यानि फलं चैव युधिष्ठिर ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! श्राद्धवेत्ताओंने श्राद्ध-कल्पमें जो हविष्य नियत किये हैं, वे सब-के-सब काम्य हैं। मैं उनका तथा उनके फलका वर्णन करता हूँ, सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलैर्ब्रीहियवैर्माषैरद्भिर्मूलफलैस्तथा ।
दत्तेन मासं प्रीयन्ते श्राद्धेन पितरो नृप ॥ ३ ॥
मूलम्
तिलैर्ब्रीहियवैर्माषैरद्भिर्मूलफलैस्तथा ।
दत्तेन मासं प्रीयन्ते श्राद्धेन पितरो नृप ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! तिल, ब्रीहि, जौ, उड़द, जल और फल-मूलके द्वारा श्राद्ध करनेसे पितरोंको एक मासतक तृप्ति बनी रहती है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्धमानतिलं श्राद्धमक्षयं मनुरब्रवीत् ।
सर्वेष्वेव तु भोज्येषु तिलाः प्राधान्यतः स्मृताः ॥ ४ ॥
मूलम्
वर्धमानतिलं श्राद्धमक्षयं मनुरब्रवीत् ।
सर्वेष्वेव तु भोज्येषु तिलाः प्राधान्यतः स्मृताः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुजीका कथन है कि जिस श्राद्धमें तिलकी मात्रा अधिक रहती है, वह श्राद्ध अक्षय होता है। श्राद्ध-सम्बन्धी सम्पूर्ण भोज्य-पदार्थोंमें तिलोंका प्रधानरूपसे उपयोग बताया गया है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोच्यते।
यथा गव्यं तथा युक्तं पायसं सर्पिषा सह ॥ ५ ॥
मूलम्
गव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोच्यते।
यथा गव्यं तथा युक्तं पायसं सर्पिषा सह ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि श्राद्धमें गायका दही दान किया जाय तो उससे पितरोंको एक वर्षतक तृप्ति होती बतायी गयी है। गायके दहीका जैसा फल बताया गया है, वैसा ही घृतमिश्रित खीरका भी समझना चाहिये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाथाश्चाप्यत्र गायन्ति पितृगीता युधिष्ठिर।
सनत्कुमारो भगवान् पुरा मय्यभ्यभाषत ॥ ६ ॥
मूलम्
गाथाश्चाप्यत्र गायन्ति पितृगीता युधिष्ठिर।
सनत्कुमारो भगवान् पुरा मय्यभ्यभाषत ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! इस विषयमें पितरोंद्वारा गायी हुई गाथाका भी विज्ञ पुरुष गान करते हैं। पूर्वकालमें भगवान् सनत्कुमारने मुझे यह गाथा बतायी थी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि नः स्वकुले जायाद् यो नो दद्यात्त्रयोदशीम्।
मवासु सर्पिःसंयुक्तं पायसं दक्षिणायने ॥ ७ ॥
मूलम्
अपि नः स्वकुले जायाद् यो नो दद्यात्त्रयोदशीम्।
मवासु सर्पिःसंयुक्तं पायसं दक्षिणायने ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितर कहते हैं—‘क्या हमारे कुलमें कोई ऐसा पुरुष उत्पन्न होगा, जो दक्षिणायनमें आश्विन मासके कृष्णपक्षमें मघा और त्रयोदशी तिथिका योग होनेपर हमारे लिये घृतमिश्रित खीरका दान करेगा?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आजेन वापि लौहेन मघास्वेव यतव्रतः।
हस्तिच्छायासु विधिवत् कर्णव्यजनवीजितम् ॥ ८ ॥
मूलम्
आजेन वापि लौहेन मघास्वेव यतव्रतः।
हस्तिच्छायासु विधिवत् कर्णव्यजनवीजितम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अथवा वह नियमपूर्वक व्रतका पालन करके मघा नक्षत्रमें ही हाथीके शरीरकी छायामें बैठकर उसके कानरूपी व्यजनसे हवा लेता हुआ अन्न-विशेष-चावलका बना हुआ पायस या लौहशाकसे विधिपूर्वक हमारा श्राद्ध करेगा?॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोऽपि गयां व्रजेत्।
यत्रासौ प्रथितो लोकेष्वक्षय्यकरणो वटः ॥ ९ ॥
मूलम्
एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोऽपि गयां व्रजेत्।
यत्रासौ प्रथितो लोकेष्वक्षय्यकरणो वटः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बहुत-से पुत्र पानेकी अभिलाषा रखनी चाहिये, उनमेंसे यदि एक भी उस गया-तीर्थकी यात्रा करे, जहाँ लोकविख्यात अक्षयवट विद्यमान है, जो श्राद्धके फलको अक्षय बनानेवाला है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपो मूलं फलं मांसमन्नं वापि पितृक्षये।
यत् किंचिन्मधुसम्मिश्रं तदानन्त्याय कल्पते ॥ १० ॥
मूलम्
आपो मूलं फलं मांसमन्नं वापि पितृक्षये।
यत् किंचिन्मधुसम्मिश्रं तदानन्त्याय कल्पते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पितरोंकी क्षय-तिथिको जल, मूल, फल, उसका गूदा और अन्न आदि जो कुछ भी मधुमिश्रित करके दिया जाता है, वह उन्हें अनन्तकालतक तृप्ति देनेवाला है’॥१०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि श्राद्धकल्पेऽष्टाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें श्राद्धकल्पविषयक अट्ठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८८॥