०८६ तारकवधोपाख्यानम्

भागसूचना

षडशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कार्तिकेयकी उत्पत्ति, पालन-पोषण और उनका देवसेनापति-पदपर अभिषेक, उनके द्वारा तारकासुरका वध

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्ताः पितामहेनेह सुवर्णस्य विधानतः।
विस्तरेण प्रदानस्य ये गुणाः श्रुतिलक्षणाः ॥ १ ॥

मूलम्

उक्ताः पितामहेनेह सुवर्णस्य विधानतः।
विस्तरेण प्रदानस्य ये गुणाः श्रुतिलक्षणाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! सुवर्णका विधिपूर्वक दान करनेसे जो वेदोक्त फल प्राप्त होते हैं, यहाँ उनका आपने विस्तारपूर्वक वर्णन किया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्तु कारणमुत्पत्तेः सुवर्णस्य प्रकीर्तितम्।
स कथं तारकः प्राप्तो निधनं तद् ब्रवीहि मे॥२॥

मूलम्

यत्तु कारणमुत्पत्तेः सुवर्णस्य प्रकीर्तितम्।
स कथं तारकः प्राप्तो निधनं तद् ब्रवीहि मे॥२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुवर्णकी उत्पत्तिका जो कारण है, वह भी आपने बताया। अब मुझे यह बताइये कि वह तारकासुर कैसे मारा गया?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तं स देवतानां हि अवध्य इति पार्थिव।
कथं तस्याभवन्मृत्युर्विस्तरेण प्रकीर्तय ॥ ३ ॥

मूलम्

उक्तं स देवतानां हि अवध्य इति पार्थिव।
कथं तस्याभवन्मृत्युर्विस्तरेण प्रकीर्तय ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! आपने पहले कहा है कि वह देवताओंके लिये अवध्य था, फिर उसकी मृत्यु कैसे हुई? यह विस्सारपूर्वक बताइये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं त्वत्तः कुरुकुलोद्वह।
कार्त्स्न्येन तारकवधं परं कौतूहलं हि मे ॥ ४ ॥

मूलम्

एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं त्वत्तः कुरुकुलोद्वह।
कार्त्स्न्येन तारकवधं परं कौतूहलं हि मे ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुकुलका भार वहन करनेवाले पितामह! मैं आपके मुखसे यह तारक-वधका सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल है॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपन्नकृत्या राजेन्द्र देवता ऋषयस्तथा।
कृत्तिकाश्चोदयामासुरपत्यभरणाय वै ॥ ५ ॥

मूलम्

विपन्नकृत्या राजेन्द्र देवता ऋषयस्तथा।
कृत्तिकाश्चोदयामासुरपत्यभरणाय वै ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजेन्द्र! जब गंगाजीने अग्नि-द्वारा स्थापित किये हुए उस गर्भको त्याग दिया, तब देवताओं और ऋषियोंका बना-बनाया काम बिगड़तेकी स्थितिमें आ गया। उस दशामें उन्होंने उस गर्भके भरण-पोषणके लिये छहों कृत्तिकाओंको प्रेरित किया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न देवतानां काचिद्धि समर्था जातवेदसः।
एता हि शक्तास्तं गर्भं संधारयितुमोजसा ॥ ६ ॥

मूलम्

न देवतानां काचिद्धि समर्था जातवेदसः।
एता हि शक्तास्तं गर्भं संधारयितुमोजसा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कारण यह था कि देवांगनाओंमें दूसरी कोई स्त्री अग्नि एवं रुद्रके उस तेजका भरण-पोषण करनेमें समर्थ नहीं थी और ये कृत्तिकाएँ अपनी शक्तिसे उस गर्भको भलीभाँति धारण-पोषण कर सकती थीं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षण्णां तासां ततः प्रीतः पावको गर्भधारणात्।
स्वेन तेजोविसर्गेण वीर्येण परमेण च ॥ ७ ॥

मूलम्

षण्णां तासां ततः प्रीतः पावको गर्भधारणात्।
स्वेन तेजोविसर्गेण वीर्येण परमेण च ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने तेजके स्थापन और उत्तम वीर्यके ग्रहणद्वारा गर्भ धारण करनेके कारण अग्निदेव उन छहों कृत्तिकाओंपर बहुत प्रसन्न हुए॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तास्तु षट् कृत्तिका गर्भं पुपुषुर्जातवेदसः।
प्रट्‌सु वर्त्मसु तेजोऽग्नेः सकलं निहितं प्रभो ॥ ८ ॥

मूलम्

तास्तु षट् कृत्तिका गर्भं पुपुषुर्जातवेदसः।
प्रट्‌सु वर्त्मसु तेजोऽग्नेः सकलं निहितं प्रभो ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! उन छहों कृत्तिकाओंने अग्निके उस गर्भका पोषण किया। अग्निका वह सारा तेज छः मार्गोंसे उनके भीतर स्थापित हो चुका था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ता वर्धमानस्य कुमारस्य महात्मनः।
तेजसाभिपरीताङ्‌ग्यो न क्वचिच्छर्म लेभिरे ॥ ९ ॥

मूलम्

ततस्ता वर्धमानस्य कुमारस्य महात्मनः।
तेजसाभिपरीताङ्‌ग्यो न क्वचिच्छर्म लेभिरे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गर्भमें जब वह महामना कुमार बढ़ने लगा, तब उसके तेजसे उनका सारा अंग व्याप्त होनेके कारण वे कृत्तिकाएँ कहीं चैन नहीं पाती थीं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तेजःपरीताङ्‌ग्यः सर्वाः काल उपस्थिते।
समं गर्भं सुषुविरे कृत्तिकास्तं नरर्षभ ॥ १० ॥

मूलम्

ततस्तेजःपरीताङ्‌ग्यः सर्वाः काल उपस्थिते।
समं गर्भं सुषुविरे कृत्तिकास्तं नरर्षभ ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! तदनन्तर तेजसे व्याप्त अंगवाली उन समस्त कृत्तिकाओंने प्रसवकाल उपस्थित होनेपर एक साथ ही उस गर्भको उत्पन्न किया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तं षडधिष्ठानं गर्भमेकत्वमागतम् ।
पृथिवी प्रतिजग्राह कार्तस्वरसमीपतः ॥ ११ ॥

मूलम्

ततस्तं षडधिष्ठानं गर्भमेकत्वमागतम् ।
पृथिवी प्रतिजग्राह कार्तस्वरसमीपतः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

छः अधिष्ठानोंमें पला हुआ वह गर्भ जब उत्पन्न होकर एकत्वको प्राप्त हो गया, तब सुवर्णके समीप स्थित हुए उस बालकको पृथ्वीने ग्रहण किया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गर्भो दिव्यसंस्थानो दीप्तिमान् पावकप्रभः।
दिव्यं शरवणं प्राप्य ववृधे प्रियदर्शनः ॥ १२ ॥

मूलम्

स गर्भो दिव्यसंस्थानो दीप्तिमान् पावकप्रभः।
दिव्यं शरवणं प्राप्य ववृधे प्रियदर्शनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह कान्तिमान् शिशु अग्निके समान प्रकाशित हो रहा था। उसके शरीरकी आकृति दिव्य थी। वह देखनेमें बहुत ही प्रिय जान पड़ता था। वह दिव्य सरकंडेके वनमें जन्म ग्रहण करके दिनोंदिन बढ़ने लगा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददृशुः कृत्तिकास्तं तु बालमर्कसमद्युतिम्।
जातस्नेहाच्च सौहार्दात् पुपुषुः स्तन्यविस्रवैः ॥ १३ ॥

मूलम्

ददृशुः कृत्तिकास्तं तु बालमर्कसमद्युतिम्।
जातस्नेहाच्च सौहार्दात् पुपुषुः स्तन्यविस्रवैः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृत्तिकाओंने देखा वह बालक अपनी कान्तिसे सूर्यके समान प्रकाशित हो रहा है। इससे उनके हृदयमें स्नेह उमड़ आया और वे सौहार्दवश अपने स्तनोंका दूध पिलाकर उसका पोषण करने लगीं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभवत् कार्तिकेयः स त्रैलोक्ये सचराचरे।
स्कन्नत्वात् स्कन्दतां प्राप्तो गुहावासाद्‌ गुहोऽभवत् ॥ १४ ॥

मूलम्

अभवत् कार्तिकेयः स त्रैलोक्ये सचराचरे।
स्कन्नत्वात् स्कन्दतां प्राप्तो गुहावासाद्‌ गुहोऽभवत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीसे चराचर प्राणियोंसहित त्रिलोकीमें वह कार्तिकेयके नामसे प्रसिद्ध हुआ। स्कन्दन (स्खलन) के कारण वह ‘स्कन्द’ कहलाया और गुहामें वास करनेसे ‘गुह’ नामसे विख्यात हुआ॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो देवास्त्रयस्त्रिंशद् दिशश्च सदिगीश्वराः।
रुद्रो धाता च विष्णुश्च यमः पूषार्यमा भगः ॥ १५ ॥
अंशो मित्रश्च साध्याश्च वासवो वसवोऽश्विनौ।
आपो वायुर्नभश्चन्द्रो नक्षत्राणि ग्रहा रविः ॥ १६ ॥
पृथग्भूतानि चान्यानि यानि देवार्पणानि वै।
आजग्मुस्तेऽद्‌भुतं द्रष्टुं कुमारं ज्वलनात्मजम् ॥ १७ ॥

मूलम्

ततो देवास्त्रयस्त्रिंशद् दिशश्च सदिगीश्वराः।
रुद्रो धाता च विष्णुश्च यमः पूषार्यमा भगः ॥ १५ ॥
अंशो मित्रश्च साध्याश्च वासवो वसवोऽश्विनौ।
आपो वायुर्नभश्चन्द्रो नक्षत्राणि ग्रहा रविः ॥ १६ ॥
पृथग्भूतानि चान्यानि यानि देवार्पणानि वै।
आजग्मुस्तेऽद्‌भुतं द्रष्टुं कुमारं ज्वलनात्मजम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर तैंतीस देवता, दसों दिशाएँ, दिक्पाल, रुद्र, धाता, विष्णु, यम, पूषा, अर्यमा, भग, अंश, मित्र, साध्य, वसु, वासव (इन्द्र), अश्विनीकुमार, जल (वरुण), वायु, आकाश, चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रहगण, रवि तथा दूसरे-दूसरे विभिन्न प्राणी जो देवताओंके आश्रित थे, सब-के-सब उस अद्‌भुत अग्निपुत्र ‘कुमार’ को देखनेके लिये वहाँ आये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषयस्तुष्टुवुश्चैव गन्धर्वाश्च जगुस्तथा ।
षडाननं कुमारं तु द्विषडक्षं द्विजप्रियम् ॥ १८ ॥
पीनांसं द्वादशभुजं पावकादित्यवर्चसम् ।
शयानं शरगुल्मस्थं दृष्ट्‌वा देवाः सहर्षिभिः ॥ १९ ॥
लेभिरे परमं हर्षं मेनिरे चासुरं हतम्।
ततो देवाः प्रियाण्यस्य सर्व एव समाहरन् ॥ २० ॥

मूलम्

ऋषयस्तुष्टुवुश्चैव गन्धर्वाश्च जगुस्तथा ।
षडाननं कुमारं तु द्विषडक्षं द्विजप्रियम् ॥ १८ ॥
पीनांसं द्वादशभुजं पावकादित्यवर्चसम् ।
शयानं शरगुल्मस्थं दृष्ट्‌वा देवाः सहर्षिभिः ॥ १९ ॥
लेभिरे परमं हर्षं मेनिरे चासुरं हतम्।
ततो देवाः प्रियाण्यस्य सर्व एव समाहरन् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषियोंने स्तुति की और गन्धर्वोंने उनका यश गाया। ब्राह्मणोंके प्रेमी उस कुमारके छः मुख, बारह नेत्र, बारह भुजाएँ, मोटे कंधे और अग्नि तथा सूर्यके समान कान्ति थी। वे सरकण्डोंके झुरमुटमें सो रहे थे। उन्हें देखकर ऋषियोंसहित देवताओंको बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ और यह विश्वास हो गया कि अब तारकासुर मारा जायगा। तदनन्तर सब देवता उन्हें उनकी प्रिय वस्तुएँ भेंट करने लगे॥१८—२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रीडतः क्रीडनीयानि ददुः पक्षिगणाश्च ह।
सुपर्णोऽस्य ददौ पुत्रं मयूरं चित्रबर्हिणम् ॥ २१ ॥

मूलम्

क्रीडतः क्रीडनीयानि ददुः पक्षिगणाश्च ह।
सुपर्णोऽस्य ददौ पुत्रं मयूरं चित्रबर्हिणम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पक्षियोंने खेल-कूदमें लगे हुए कुमारको खिलौने दिये, गरुडने विचित्र पंखोंसे सुशोभित अपना पुत्र मयूर भेंट किया॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राक्षसाश्च ददुस्तस्मै वराहमहिषावुभौ ।
कुक्कुटं चाग्निसंकाशं प्रददावरुणः स्वयम् ॥ २२ ॥

मूलम्

राक्षसाश्च ददुस्तस्मै वराहमहिषावुभौ ।
कुक्कुटं चाग्निसंकाशं प्रददावरुणः स्वयम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसोंने सूअर और भैंसा—ये दो पशु उन्हें उपहाररूपमें दिये। गरुड़के भाई अरुणने अग्निके समान लाल वर्णवाला एक मुर्गा भेंट किया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्रमाः प्रददौ मेषमादित्यो रुचिरां प्रभाम्।
गवां माता च गा देवी ददौ शतसहस्रशः ॥ २३ ॥

मूलम्

चन्द्रमाः प्रददौ मेषमादित्यो रुचिरां प्रभाम्।
गवां माता च गा देवी ददौ शतसहस्रशः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चन्द्रमाने भेंड़ा दिया, सूर्यने मनोहर कान्ति प्रदान की, गोमाता सुरभि देवीने एक लाख गौएँ प्रदान कीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छागमग्निर्गुणोपेतमिला पुष्पफलं बहु ।
सुधन्वा शकटं चैव रथं चामितकूबरम् ॥ २४ ॥

मूलम्

छागमग्निर्गुणोपेतमिला पुष्पफलं बहु ।
सुधन्वा शकटं चैव रथं चामितकूबरम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निने गुणवान् बकरा, इलाने बहुतसे फल-फूल, सुधन्वाने छकड़ा और विशाल कूबरसे युक्त रथ दिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वरुणो वारुणान् दिव्यान् सगजान् प्रददौ शुभान्।
सिंहान् सुरेन्द्रो व्याघ्रांश्च द्विपानन्यांश्च पक्षिणः ॥ २५ ॥
श्वापदांश्च बहून् घोरांश्छत्राणि विविधानि च।

मूलम्

वरुणो वारुणान् दिव्यान् सगजान् प्रददौ शुभान्।
सिंहान् सुरेन्द्रो व्याघ्रांश्च द्विपानन्यांश्च पक्षिणः ॥ २५ ॥
श्वापदांश्च बहून् घोरांश्छत्राणि विविधानि च।

अनुवाद (हिन्दी)

वरुणने वरुणलोकके अनेक सुन्दर एवं दिव्य हाथी दिये। देवराज इन्द्रने सिंह, व्याघ्र, हाथी, अन्यान्य पक्षी, बहुत-से भयानक हिंसक जीव तथा नाना प्रकारके छत्र भेंट किये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राक्षसासुरसंघाश्च अनुजग्मुस्तमीश्वरम् ॥ २६ ॥
वर्धमानं तु तं दृष्ट्‌वा प्रार्थयामास तारकः।
उपायैर्बहुभिर्हन्तुं नाशकच्चापि तं विभुम् ॥ २७ ॥

मूलम्

राक्षसासुरसंघाश्च अनुजग्मुस्तमीश्वरम् ॥ २६ ॥
वर्धमानं तु तं दृष्ट्‌वा प्रार्थयामास तारकः।
उपायैर्बहुभिर्हन्तुं नाशकच्चापि तं विभुम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसों और असुरोंका समुदाय उन शक्तिशाली कुमारके अनुगामी हो गये। उन्हें बढ़ते देख तारकासुरने युद्धके लिये ललकारा; परंतु अनेक उपाय करके भी वह उन प्रभावशाली कुमारको मारनेमें सफल न हो सका॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैनापत्येन तं देवाः पूजयित्वा गुहालयम्।
शशंसुर्विप्रकारं तं तस्मै तारककारितम् ॥ २८ ॥

मूलम्

सैनापत्येन तं देवाः पूजयित्वा गुहालयम्।
शशंसुर्विप्रकारं तं तस्मै तारककारितम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंने गुहावासी कुमारकी पूजा करके उनका सेनापतिके पदपर अभिषेक किया और तारकासुरने देवताओंपर जो अत्याचार किया था, सो कह सुनाया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विवृद्धो महावीर्यो देवसेनापतिः प्रभुः।
जघानामोघया शक्त्या दानवं तारकं गुहः ॥ २९ ॥

मूलम्

स विवृद्धो महावीर्यो देवसेनापतिः प्रभुः।
जघानामोघया शक्त्या दानवं तारकं गुहः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महापराक्रमी देवसेनापति प्रभु गुहने वृद्धिको प्राप्त होकर अपनी अमोघ शक्तिसे तारकासुरका वध कर डाला॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन तस्मिन् कुमारेण क्रीडता निहतेऽसुरे।
सुरेन्द्रः स्थापितो राज्ये देवानां पुनरीश्वरः ॥ ३० ॥

मूलम्

तेन तस्मिन् कुमारेण क्रीडता निहतेऽसुरे।
सुरेन्द्रः स्थापितो राज्ये देवानां पुनरीश्वरः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

खेल-खेलमें ही उन अग्निकुमारके द्वारा जब तारकासुर मार डाला गया, तब ऐश्वर्यशाली देवेन्द्र पुनः देवताओंके राज्यपर प्रतिष्ठित किये गये॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स सेनापतिरेवाथ बभौ स्कन्दः प्रतापवान्।
ईशो गोप्ता च देवानां प्रियकृच्छङ्करस्य च ॥ ३१ ॥

मूलम्

स सेनापतिरेवाथ बभौ स्कन्दः प्रतापवान्।
ईशो गोप्ता च देवानां प्रियकृच्छङ्करस्य च ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतापी स्कन्द सेनापतिके ही पदपर रहकर बड़ी शोभा पाने लगे। वे देवताओंके ईश्वर तथा संरक्षक थे और भगवान् शंकरका सदा ही हित किया करते थे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्यमूर्तिर्भगवानेष एव च पावकिः।
सदा कुमारो देवानां सैनापत्यमवाप्तवान् ॥ ३२ ॥

मूलम्

हिरण्यमूर्तिर्भगवानेष एव च पावकिः।
सदा कुमारो देवानां सैनापत्यमवाप्तवान् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये अग्निपुत्र भगवान् स्कन्द सुवर्णमय विग्रह धारण करते हैं। वे नित्य कुमारावस्थामें ही रहकर देवताओंके सेनापतिपदपर प्रतिष्ठित हुए हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् सुवर्णं मंगल्यं रत्नमक्षय्यमुत्तमम्।
सहजं कार्तिकेयस्य वह्नेस्तेजः परं मतम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

तस्मात् सुवर्णं मंगल्यं रत्नमक्षय्यमुत्तमम्।
सहजं कार्तिकेयस्य वह्नेस्तेजः परं मतम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुवर्ण कार्तिकेयजीके साथ ही उत्पन्न हुआ है और अग्निका उत्कृष्ट तेज माना गया है। इसलिये वह मंगलमय, अक्षय एवं उत्तम रत्न है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं रामाय कौरव्य वसिष्ठोऽकथयत् पुरा।
तस्मात् सुवर्णदानाय प्रयतस्व नराधिप ॥ ३४ ॥

मूलम्

एवं रामाय कौरव्य वसिष्ठोऽकथयत् पुरा।
तस्मात् सुवर्णदानाय प्रयतस्व नराधिप ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! नरेश्वर! इस प्रकार पूर्वकालमें वसिष्ठजीने परशुरामको यह सारा प्रसंग एवं सुवर्णकी उत्पत्ति और माहात्म्य सुनाया था। अतः तुम स्वर्णदानके लिये प्रयत्न करो॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामः सुवर्णं दत्त्वा हि विमुक्तः सर्वकिल्बिषैः।
त्रिविष्टपे महत् स्थानमवापासुलभं नरैः ॥ ३५ ॥

मूलम्

रामः सुवर्णं दत्त्वा हि विमुक्तः सर्वकिल्बिषैः।
त्रिविष्टपे महत् स्थानमवापासुलभं नरैः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परशुरामजी सुवर्णका दान करके सब पापोंसे मुक्त हो गये और स्वर्गमें उस महान् स्थानको प्राप्त हुए जो दूसरे मनुष्योंके लिये सर्वथा दुर्लभ है॥३५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि तारकवधोपाख्यानं नाम षडशीतितमोऽध्यायः ॥ ८६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें तारकवधका उपाख्यान नामक छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८६॥