०८५ सुवर्णोत्पत्तिः

भागसूचना

पञ्चाशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ब्रह्माजीका देवताओंको आश्वासन, अग्निकी खोज, अग्निके द्वारा स्थापित किये हुए शिवके तेजसे संतप्त हो गंगाका उसे मेरुपर्वतपर छोड़ना, कार्तिकेय और सुवर्णकी उत्पत्ति, वरुणरूपधारी महादेवजीके यज्ञमें अग्निसे ही प्रजापतियों और सुवर्णका प्रादुर्भाव, कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध

मूलम् (वचनम्)

देवा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

असुरस्तारको नाम त्वया दत्तवरः प्रभो।
सुरानृषींश्च क्लिश्नाति वधस्तस्य विधीयताम् ॥ १ ॥

मूलम्

असुरस्तारको नाम त्वया दत्तवरः प्रभो।
सुरानृषींश्च क्लिश्नाति वधस्तस्य विधीयताम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता बोले— प्रभो! आपने जिसे वर दे रखा है, वह तारक नामक असुर देवताओं और ऋषियोंको बड़ा कष्ट दे रहा है। अतः उसके वधका कोई उपाय कीजिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् भयं समुत्पन्नमस्माकं वै पितामह।
परित्रायस्व नो देव न ह्यन्या गतिरस्ति नः ॥ २ ॥

मूलम्

तस्माद् भयं समुत्पन्नमस्माकं वै पितामह।
परित्रायस्व नो देव न ह्यन्या गतिरस्ति नः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितामह! देव! उस असुरसे हमलोगोंको भारी भय उत्पन्न हो गया है। आप हमारी उससे रक्षा करें; क्योंकि हमारे लिये दूसरी कोई गति नहीं है॥२॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

समोऽहं सर्वभूतानामधर्मं नेह रोचये।
हन्यतां तारकः क्षिप्रं सुरर्षिगणबाधिता ॥ ३ ॥

मूलम्

समोऽहं सर्वभूतानामधर्मं नेह रोचये।
हन्यतां तारकः क्षिप्रं सुरर्षिगणबाधिता ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— मेरा तो समस्त प्राणियोंके प्रति समान भाव है तथापि मैं अधर्म नहीं पसन्द करता; अतः देवताओं तथा ऋषियोंको कष्ट देनेवाले तारकासुरको तुम लोग शीघ्र ही मार डालो॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदा धर्माश्च नोच्छेदं गच्छेयुः सुरसत्तमाः।
विहितं पूर्वमेवात्र मया वै व्येतु वो ज्वरः ॥ ४ ॥

मूलम्

वेदा धर्माश्च नोच्छेदं गच्छेयुः सुरसत्तमाः।
विहितं पूर्वमेवात्र मया वै व्येतु वो ज्वरः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुरश्रेष्ठगण! वेदों और धर्मोंका उच्छेद न हो, इसका उपाय मैंने पहलेसे ही कर लिया है। अतः तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये॥४॥

मूलम् (वचनम्)

देवा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

वरदानाद् भगवतो दैतेयो बलगर्वितः।
देवैर्न शक्यते हन्तुं स कथं प्रशमं व्रजेत् ॥ ५ ॥

मूलम्

वरदानाद् भगवतो दैतेयो बलगर्वितः।
देवैर्न शक्यते हन्तुं स कथं प्रशमं व्रजेत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता बोले— भगवन्! आपके ही वरदानसे वह दैत्य बलके घमंडसे भर गया है। देवता उसे नहीं मार सकते। ऐसी दशामें वह कैसे शान्त हो सकता है?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हि नैव स्म देवानां नासुराणां न रक्षसाम्।
वध्यः स्यामिति जग्राह वरं त्वत्तः पितामह ॥ ६ ॥

मूलम्

स हि नैव स्म देवानां नासुराणां न रक्षसाम्।
वध्यः स्यामिति जग्राह वरं त्वत्तः पितामह ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितामह! उसने आपसे यह वरदान प्राप्त कर लिया है कि देवताओं, असुरों तथा राक्षसोंमेंसे किसीके हाथसे भी मारा न जाऊँ॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवाश्च शप्ता रुद्राण्या प्रजोच्छेदे पुराकृते।
न भविष्यति वोऽपत्यमिति सर्वे जगत्पते ॥ ७ ॥

मूलम्

देवाश्च शप्ता रुद्राण्या प्रजोच्छेदे पुराकृते।
न भविष्यति वोऽपत्यमिति सर्वे जगत्पते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत्पते! पूर्वकालमें जब हमने रुद्राणीकी संततिका उच्छेद कर दिया, तब उन्होंने सब देवताओंको शाप दे दिया कि तुम्हारे कोई संतान नहीं होगी॥७॥

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हुताशनो न तत्रासीच्छापकाले सुरोत्तमाः।
स उत्पादयितापत्यं वधाय त्रिदशद्विषाम् ॥ ८ ॥

मूलम्

हुताशनो न तत्रासीच्छापकाले सुरोत्तमाः।
स उत्पादयितापत्यं वधाय त्रिदशद्विषाम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजी बोले— सुरश्रेष्ठगण! उस शापके समय वहाँ अग्निदेव नहीं थे। अतः देवद्रोहियोंके वधके लिये वे ही संतान उत्पन्न करेंगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् वै सर्वानतिक्रम्य देवदानवराक्षसान्।
मानुषानथ गन्धर्वान् नागानथ च पक्षिणः ॥ ९ ॥
अस्त्रेणामोघपातेन शक्या तं घातयिष्यति।
यतो वो भयमुत्पन्नं ये चान्ये सुरशत्रवः ॥ १० ॥

मूलम्

तद् वै सर्वानतिक्रम्य देवदानवराक्षसान्।
मानुषानथ गन्धर्वान् नागानथ च पक्षिणः ॥ ९ ॥
अस्त्रेणामोघपातेन शक्या तं घातयिष्यति।
यतो वो भयमुत्पन्नं ये चान्ये सुरशत्रवः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही समस्त देवताओं, दानवों, राक्षसों, मनुष्यों, गन्धर्वों, नागों तथा पक्षियोंको लाँघकर अपने अचूक अस्त्र-शक्तिके द्वारा उस असुरका वध कर डालेगा, जिससे तुम्हें भय उत्पन्न हुआ है। दूसरे जो देवशत्रु हैं, उनका भी वह संहार कर डालेगा॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सनातनो हि संकल्पः काम इत्यभिधीयते।
रुद्रस्य तेजः प्रस्कन्नमग्नौ निपतितं च यत् ॥ ११ ॥
तत्तेजोऽग्निर्महद्‌भूतं द्वितीयमिति पावकम् ।
वधार्थं देवशत्रूणां गंगायां जनयिष्यति ॥ १२ ॥

मूलम्

सनातनो हि संकल्पः काम इत्यभिधीयते।
रुद्रस्य तेजः प्रस्कन्नमग्नौ निपतितं च यत् ॥ ११ ॥
तत्तेजोऽग्निर्महद्‌भूतं द्वितीयमिति पावकम् ।
वधार्थं देवशत्रूणां गंगायां जनयिष्यति ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सनातन संकल्पको ही काम कहते हैं। उसी कामसे रुद्रका जो तेज स्खलित होकर अग्निमें गिरा था, उसे अग्निने ले रखा है। द्वितीय अग्निके समान उस महान् तेजको वे गंगाजीमें स्थापित करके बालकरूपसे उत्पन्न करेंगे। वही बालक देवशत्रुओंके वधका कारण होगा॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु नावाप तं शापं नष्टः स हुतभुक् तदा।
तस्माद् वो भयहृद्‌ देवाः समुत्पत्स्यति पावकिः ॥ १३ ॥

मूलम्

स तु नावाप तं शापं नष्टः स हुतभुक् तदा।
तस्माद् वो भयहृद्‌ देवाः समुत्पत्स्यति पावकिः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निदेव उस समय छिपे हुए थे, इसलिये वह शाप उन्हें नहीं प्राप्त हुआ; अतः देवताओ! अग्निके जो पुत्र उत्पन्न होगा, वह तुमलोगोंका सारा भय हर लेगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्विष्यतां वै ज्वलनस्तथा चाद्य नियुज्यताम्।
तारकस्य वधोपायः कथितो वै मयानघाः ॥ १४ ॥

मूलम्

अन्विष्यतां वै ज्वलनस्तथा चाद्य नियुज्यताम्।
तारकस्य वधोपायः कथितो वै मयानघाः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमलोग अग्निदेवकी खोज करो और उन्हें आज ही इस कार्यमें नियुक्त करो। निष्पाप देवताओ! तारकासुरके वधका यह उपाय मैंने बता दिया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि तेजस्विनां शापास्तेजःसु प्रभवन्ति वै।
बलान्यतिबलं प्राप्य दुर्बलानि भवन्ति वै ॥ १५ ॥

मूलम्

न हि तेजस्विनां शापास्तेजःसु प्रभवन्ति वै।
बलान्यतिबलं प्राप्य दुर्बलानि भवन्ति वै ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तेजस्वी पुरुषोंके शाप तेजस्वियोंपर अपना प्रभाव नहीं दिखाते। साधारण बली कितने ही क्यों न हों, अत्यन्त बलशालीको पाकर दुर्बल हो जाते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्यादवध्यान् वरदानपि चैव तपस्विनः।
संकल्पाभिरुचिः कामः सनातनतमोऽभवत् ॥ १६ ॥

मूलम्

हन्यादवध्यान् वरदानपि चैव तपस्विनः।
संकल्पाभिरुचिः कामः सनातनतमोऽभवत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपस्वी पुरुषका जो काम है, वही संकल्प एवं अभिरुचिके नामसे प्रसिद्ध है। वह सनातन या चिरस्थायी होता है। वह वर देनेवाले अवध्य पुरुषोंका भी वध कर सकता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगत्पतिरनिर्देश्यः सर्वगः सर्वभावनः ।
हृच्छयः सर्वभूतानां ज्येष्ठो रुद्रादपि प्रभुः ॥ १७ ॥

मूलम्

जगत्पतिरनिर्देश्यः सर्वगः सर्वभावनः ।
हृच्छयः सर्वभूतानां ज्येष्ठो रुद्रादपि प्रभुः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निदेव इस जगत्‌के पालक, अनिर्वचनीय, सर्वव्यापी, सबके उत्पादक, समस्त प्राणियोंके हृदयमें शयन करनेवाले, सर्वसमर्थ तथा रुद्रसे भी ज्येष्ठ हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्विष्यतां स तु क्षिप्रं तेजोराशिर्हुताशनः।
स वो मनोगतं कामं देवः सम्पादयिष्यति ॥ १८ ॥

मूलम्

अन्विष्यतां स तु क्षिप्रं तेजोराशिर्हुताशनः।
स वो मनोगतं कामं देवः सम्पादयिष्यति ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तेजकी राशिभूत अग्निदेवका तुम सब लोग शीघ्र अन्वेषण करो। वे तुम्हारी मनोवांछित कामनाको पूर्ण करेंगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् वाक्यमुपश्रुत्य ततो देवा महात्मनः।
जग्मुः संसिद्धसंकल्पाः पर्येषन्तो विभावसुम् ॥ १९ ॥

मूलम्

एतद् वाक्यमुपश्रुत्य ततो देवा महात्मनः।
जग्मुः संसिद्धसंकल्पाः पर्येषन्तो विभावसुम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा ब्रह्माजीका यह कथन सुनकर सफलमनोरथ हुए देवता अग्निदेवका अन्वेषण करनेके लिये वहाँसे चले गये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त्रैलोक्यमृषयो व्यचिन्वन्त सुरैः सह।
कांक्षन्तो दर्शनं बह्नेः सर्वे तद्गतमानसाः ॥ २० ॥

मूलम्

ततस्त्रैलोक्यमृषयो व्यचिन्वन्त सुरैः सह।
कांक्षन्तो दर्शनं बह्नेः सर्वे तद्गतमानसाः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब देवताओंसहित ऋषियोंने तीनों लोकोंमें अग्निकी खोज प्रारम्भ की। उन सबका मन उन्हींमें लगा था और वे—सभी अग्निदेवका दर्शन करना चाहते थे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परेण तपसा युक्ताः श्रीमन्तो लोकविश्रुताः।
लोकानन्वचरन् सिद्धाः सर्व एव भृगूत्तम ॥ २१ ॥

मूलम्

परेण तपसा युक्ताः श्रीमन्तो लोकविश्रुताः।
लोकानन्वचरन् सिद्धाः सर्व एव भृगूत्तम ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुश्रेष्ठ! उत्तम तपस्यासे युक्त, तेजस्वी और लोकविख्यात सभी सिद्ध देवता सभी लोकोंमें अग्निदेवकी खोज करते रहे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नष्टमात्मनि संलीनं नाधिजग्मुर्हुताशनम् ।
ततः संजातसंत्रासानग्निदर्शनलालसान् ॥ २२ ॥
जलेचरः क्लान्तमनास्तेजसाग्नेः प्रदीपितः ।
उवाच देवान् मण्डूको रसातलतलोत्थितः ॥ २३ ॥

मूलम्

नष्टमात्मनि संलीनं नाधिजग्मुर्हुताशनम् ।
ततः संजातसंत्रासानग्निदर्शनलालसान् ॥ २२ ॥
जलेचरः क्लान्तमनास्तेजसाग्नेः प्रदीपितः ।
उवाच देवान् मण्डूको रसातलतलोत्थितः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे छिपकर अपने-आपमें ही लीन थे; अतः देवता उनके पास नहीं पहुँच सके। तब अग्निका दर्शन करनेके लिये उत्सुक और भयभीत हुए देवताओंसे एक जलचारी मेढक, जो अग्निके तेजसे दग्ध एवं क्लान्तचित्त होकर रसातलसे ऊपरको आया था, बोला—॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसातलतले देवा वसत्यग्निरिति प्रभो।
संतापादिह सम्प्राप्तः पावकप्रभवादहम् ॥ २४ ॥

मूलम्

रसातलतले देवा वसत्यग्निरिति प्रभो।
संतापादिह सम्प्राप्तः पावकप्रभवादहम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवताओ! अग्नि रसातलमें निवास करते हैं। प्रभो! मैं अग्निजनित संतापसे ही घबराकर यहाँ आया हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स संसुप्तो जले देवा भगवान् हव्यवाहनः।
अपः संसृज्य तेजोभिस्तेन संतापिता वयम् ॥ २५ ॥

मूलम्

स संसुप्तो जले देवा भगवान् हव्यवाहनः।
अपः संसृज्य तेजोभिस्तेन संतापिता वयम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवगण! भगवान् अग्निदेव अपने तेजके साथ जलको संयुक्त करके जलमें ही सोये हैं। हमलोग उन्हींके तेजसे संतप्त हो रहे हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य दर्शनमिष्टं वो यदि देवा विभावसोः।
तत्रैवमधिगच्छध्वं कार्यं वो यदि वह्निना ॥ २६ ॥

मूलम्

तस्य दर्शनमिष्टं वो यदि देवा विभावसोः।
तत्रैवमधिगच्छध्वं कार्यं वो यदि वह्निना ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवताओ! यदि आपको अग्निदेवका दर्शन अभीष्ट हो और यदि उनसे आपका कोई कार्य हो तो वहीं जाकर उनसे मिलिये॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गम्यतां साधयिष्यामो वयं ह्यग्निभयात् सुराः।
एतावदुक्त्वा मण्डूकस्त्वरितो जलमाविशत् ॥ २७ ॥

मूलम्

गम्यतां साधयिष्यामो वयं ह्यग्निभयात् सुराः।
एतावदुक्त्वा मण्डूकस्त्वरितो जलमाविशत् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवगण! आप जाइये। हम भी अग्निके भयसे अन्यत्र जायँगे।’ इतना ही कहकर वह मेढक तुरंत ही जलमें घुस गया॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हुताशनस्तु बुबुधे मण्डूकस्य च पैशुनम्।
शशाप स तमासाद्य न रसान् वेत्स्यसीति वै ॥ २८ ॥

मूलम्

हुताशनस्तु बुबुधे मण्डूकस्य च पैशुनम्।
शशाप स तमासाद्य न रसान् वेत्स्यसीति वै ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निदेव समझ गये कि मेढकने मेरी चुगली खायी है; अतः उन्होंने उसके पास पहुँचकर यह शाप दे दिया कि ‘तुम्हें रसका अनुभव नहीं होगा’॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं वै संयुज्य शापेन मण्डूकं त्वरितो ययौ।
अन्यत्र वासाय विभुर्न चात्मानमदर्शयत् ॥ २९ ॥

मूलम्

तं वै संयुज्य शापेन मण्डूकं त्वरितो ययौ।
अन्यत्र वासाय विभुर्न चात्मानमदर्शयत् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेढकको शाप देकर वे तुरंत दूसरी जगह निवास करनेके लिये चले गये। सर्वव्यापी अग्निने अपने-आपको प्रकट नहीं किया॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवास्त्वनुग्रहं चक्रुर्मण्डूकानां भृगूत्तम ।
यत्तच्छृणु महाबाहो गदतो मम सर्वशः ॥ ३० ॥

मूलम्

देवास्त्वनुग्रहं चक्रुर्मण्डूकानां भृगूत्तम ।
यत्तच्छृणु महाबाहो गदतो मम सर्वशः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुश्रेष्ठ! महाबाहो! उस समय देवताओंने मेढकोंपर जो कृपा की, वह सब बता रहा हूँ, सुनो॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

देवा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निशापादजिह्वापि रसज्ञानबहिष्कृताः ।
सरस्वतीं बहुविधां यूयमुच्चारयिष्यथ ॥ ३१ ॥

मूलम्

अग्निशापादजिह्वापि रसज्ञानबहिष्कृताः ।
सरस्वतीं बहुविधां यूयमुच्चारयिष्यथ ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता बोले— मेढको! अग्निदेवके शापसे तुम्हारे जिह्वा नहीं होगी; अतः तुम रसोंके ज्ञानसे शून्य रहोगे तथापि हमारी कृपासे तुम नाना प्रकारकी वाणीका उच्चारण कर सकोगे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलवासं गतांश्चैव निराहारानचेतसः ।
गतासूनपि संशुष्कान् भूमिः संधारयिष्यति ॥ ३२ ॥
तमोघनायामपि वै निशायां विचरिष्यथ।

मूलम्

बिलवासं गतांश्चैव निराहारानचेतसः ।
गतासूनपि संशुष्कान् भूमिः संधारयिष्यति ॥ ३२ ॥
तमोघनायामपि वै निशायां विचरिष्यथ।

अनुवाद (हिन्दी)

बिलमें रहते समय तुम आहार न मिलनेके कारण अचेत और निष्प्राण होकर सूख जाओगे तो भी भूमि तुम्हें धारण किये रहेगी—वर्षाका जल मिलनेपर तुम पुनः जीवित हो उठोगे। घने अन्धकारसे भरी हुई रात्रिमें भी तुम विचरते रहोगे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा तांस्ततो देवाः पुनरेव महीमिमाम् ॥ ३३ ॥
परीयुर्ज्वलनस्यार्थे न चाविन्दन् हुताशनम्।

मूलम्

इत्युक्त्वा तांस्ततो देवाः पुनरेव महीमिमाम् ॥ ३३ ॥
परीयुर्ज्वलनस्यार्थे न चाविन्दन् हुताशनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

मेढकोंसे ऐसा कहकर देवता पुनः अग्निकी खोजके लिये इस पृथ्वीपर विचरने लगे; किंतु वे अग्निदेवको कहीं उपलब्ध न कर सके॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तान् द्विरदः कश्चित् सुरेन्द्रद्विरदोपमः ॥ ३४ ॥
अश्वत्थस्थोऽग्निरित्येवमाह देवान् भृगूद्वह ।

मूलम्

अथ तान् द्विरदः कश्चित् सुरेन्द्रद्विरदोपमः ॥ ३४ ॥
अश्वत्थस्थोऽग्निरित्येवमाह देवान् भृगूद्वह ।

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुश्रेष्ठ! तदनन्तर देवराज इन्द्रके ऐरावतकी भाँति कोई विशालकाय गजराज देवताओंसे बोला—‘अश्वत्थ अग्निरूप है’॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शशाप ज्वलनः सर्वान् द्विरदान् क्रोधमूर्च्छितः ॥ ३५ ॥
प्रतीपा भवतां जिह्वा भवित्रीति भृगूद्वह।

मूलम्

शशाप ज्वलनः सर्वान् द्विरदान् क्रोधमूर्च्छितः ॥ ३५ ॥
प्रतीपा भवतां जिह्वा भवित्रीति भृगूद्वह।

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुकुलभूषण! यह सुनकर अग्निदेव क्रोधसे विह्वल हो उठे और उन्होंने समस्त हाथियोंको शाप देते हुए कहा—तुमलोगोंकी जिह्वा उलटी हो जायगी’॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा निःसृतोऽश्वत्थादग्निर्वारणसूचितः ।
प्रविवेश शमीगर्भमथ वह्निः सुषुप्सया ॥ ३६ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा निःसृतोऽश्वत्थादग्निर्वारणसूचितः ।
प्रविवेश शमीगर्भमथ वह्निः सुषुप्सया ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर हाथीद्वारा सूचित किये गये अग्निदेव अश्वत्थसे निकलकर शमीके भीतर प्रविष्ट हो गये। वे वहाँ अच्छी तरह सोना चाहते थे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुग्रहं तु नागानां यं चक्रुः शृणु तं प्रभो।
देवा भृगुकुलश्रेष्ठ प्रीत्या सत्यपराक्रमाः ॥ ३७ ॥

मूलम्

अनुग्रहं तु नागानां यं चक्रुः शृणु तं प्रभो।
देवा भृगुकुलश्रेष्ठ प्रीत्या सत्यपराक्रमाः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! भृगुकुलश्रेष्ठ! तब सत्यपराक्रमी देवताओंने प्रसन्न हो नागोंपर जिस प्रकार अपना अनुग्रह प्रकट किया, उसे सुनो॥३७॥

मूलम् (वचनम्)

देवा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतीपया जिह्वयापि सर्वाहारं करिष्यथ।
वाचं चोच्चारयिष्यध्वमुच्चैरव्यञ्जिताक्षराम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

प्रतीपया जिह्वयापि सर्वाहारं करिष्यथ।
वाचं चोच्चारयिष्यध्वमुच्चैरव्यञ्जिताक्षराम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता बोले— हाथियो! तुम अपनी उलटी जिह्वासे भी सब प्रकारके आहार ग्रहण कर सकोगे तथा उच्चस्वरसे वाणीका उच्चारण कर सकोगे; किंतु उससे किसी अक्षरकी अभिव्यक्ति नहीं होगी॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा पुनरेवाग्निमनुसस्रुर्दिवौकसः ।
अश्वत्थान्निःसृतश्चाग्निः शमीगर्भमुपाविशत् ॥ ३९ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा पुनरेवाग्निमनुसस्रुर्दिवौकसः ।
अश्वत्थान्निःसृतश्चाग्निः शमीगर्भमुपाविशत् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर देवताओंने पुनः अग्निका अनुसरण किया। उधर अग्निदेव अश्वत्थसे निकलकर शमीके भीतर जा बैठे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुकेन ख्यापितो विप्र तं देवाः समुपाद्रवन्।
शशाप शुकमग्निस्तु वाग्विहीनो भविष्यसि ॥ ४० ॥

मूलम्

शुकेन ख्यापितो विप्र तं देवाः समुपाद्रवन्।
शशाप शुकमग्निस्तु वाग्विहीनो भविष्यसि ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! तदनन्तर तोतेने अग्निका पता बता दिया। फिर तो देवता शमीवृक्षकी ओर दौड़े। यह देख अग्निने तोतेको शाप दे दिया—‘तू वाणीसे रहित हो जायगा’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह्वामावर्तयामास तस्यापि हुतभुक् तथा।
दृष्ट्वा तु ज्वलनं देवाः शुकमूचुर्दयान्विताः ॥ ४१ ॥
भविता न त्वमत्यन्तं शुकत्वे नष्टवागिति।
आवृत्तजिह्वस्य सतो वाक्यं कान्तं भविष्यति ॥ ४२ ॥

मूलम्

जिह्वामावर्तयामास तस्यापि हुतभुक् तथा।
दृष्ट्वा तु ज्वलनं देवाः शुकमूचुर्दयान्विताः ॥ ४१ ॥
भविता न त्वमत्यन्तं शुकत्वे नष्टवागिति।
आवृत्तजिह्वस्य सतो वाक्यं कान्तं भविष्यति ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निदेवने उसकी भी जिह्वा उलट दी। अब अग्निदेवको प्रत्यक्ष देखकर देवताओंने दयायुक्त होकर शुकसे कहा—‘तू शुकयोनिमें रहकर अत्यन्त वाणीरहित नहीं होगा—कुछ-कुछ बोल सकेगा। जीभ उलट जानेपर भी तेरी बोली बड़ी मधुर एवं कमनीय होगी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालस्येव प्रवृद्धस्य कलमव्यक्तमद्‌भुतम् ।

मूलम्

बालस्येव प्रवृद्धस्य कलमव्यक्तमद्‌भुतम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे बड़े-बूढ़े पुरुषको बालककी समझमें न आनेवाली अद्‌भुत तोतली बोली बड़ी मीठी लगती है, उसी प्रकार तेरी बोली भी सबको प्रिय लगेगी’॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा तं शमीगर्भे वह्निमालक्ष्य देवताः ॥ ४३ ॥
तदेवायतनं चक्रुः पुण्यं सर्वक्रियास्वपि।
ततः प्रभृति चाप्यग्निः शमीगर्भेषु दृश्यते ॥ ४४ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा तं शमीगर्भे वह्निमालक्ष्य देवताः ॥ ४३ ॥
तदेवायतनं चक्रुः पुण्यं सर्वक्रियास्वपि।
ततः प्रभृति चाप्यग्निः शमीगर्भेषु दृश्यते ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर शमीके गर्भमें अग्निदेवका दर्शन करके देवताओंने सभी कर्मोंके लिये शमीको ही अग्निका पवित्र स्थान नियत किया। तबसे अग्निदेव शमीके भीतर दृष्टिगोचर होने लगे॥४३-४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पादने तथोपायमभिजग्मुश्च मानवाः ।
आपो रसातले यास्तु संस्पृष्टाश्चित्रभानुना ॥ ४५ ॥
ताः पर्वतप्रस्रवणैरूष्मां मुञ्चन्ति भार्गव।
पावकेनाधिशयता संतप्तास्तस्य तेजसा ॥ ४६ ॥

मूलम्

उत्पादने तथोपायमभिजग्मुश्च मानवाः ।
आपो रसातले यास्तु संस्पृष्टाश्चित्रभानुना ॥ ४५ ॥
ताः पर्वतप्रस्रवणैरूष्मां मुञ्चन्ति भार्गव।
पावकेनाधिशयता संतप्तास्तस्य तेजसा ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भार्गव! मनुष्योंने अग्निको प्रकट करनेके लिये शमीका मन्थन ही उपाय जाना। अग्निने रसातलमें जिस जलका स्पर्श किया था और वहाँ शयन करनेवाले अग्नि-देवके तेजसे जो संतप्त हो गया था, वह जल पर्वतीय झरनोंके रूपमें अपनी गरमी निकालता है॥४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाग्निर्देवता दृष्ट्वा बभूव व्यथितस्तदा।
किमागमनमित्येवं तानपृच्छत पावकः ॥ ४७ ॥

मूलम्

अथाग्निर्देवता दृष्ट्वा बभूव व्यथितस्तदा।
किमागमनमित्येवं तानपृच्छत पावकः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय देवताओंको देखकर अग्निदेव व्यथित हो गये और उनसे पूछने लगे—‘किस उद्देश्यसे यहाँ आपलोगोंका शुभागमन हुआ है?’॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमूचुर्विबुधाः सर्वे ते चैव परमर्षयः।
त्वां नियोक्ष्यामहे कार्ये तद् भवान् कर्तुमर्हति ॥ ४८ ॥
कृते च तस्मिन् भविता तवापि सुमहान् गुणः ॥ ४९ ॥

मूलम्

तमूचुर्विबुधाः सर्वे ते चैव परमर्षयः।
त्वां नियोक्ष्यामहे कार्ये तद् भवान् कर्तुमर्हति ॥ ४८ ॥
कृते च तस्मिन् भविता तवापि सुमहान् गुणः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सम्पूर्ण देवता और महर्षि उनसे बोले—‘हम तुम्हें एक कार्यमें नियुक्त करेंगे। उसे तुम्हें करना चाहिये। उस कार्यको सम्पन्न कर देनेपर तुम्हें भी बहुत बड़ा लाभ होगा’॥४८-४९॥

मूलम् (वचनम्)

अग्निरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रूत यद् भवतां कार्यं कर्तास्मि तदहं सुराः।
भवतां तु नियोज्योऽस्मि मा वोऽत्रास्तु विचारणा ॥ ५० ॥

मूलम्

ब्रूत यद् भवतां कार्यं कर्तास्मि तदहं सुराः।
भवतां तु नियोज्योऽस्मि मा वोऽत्रास्तु विचारणा ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निने कहा— देवताओ! आपलोगोंका जो कार्य है उसे मैं अवश्य पूर्ण करूँगा, अतः उसे कहिये। मैं आपलोगोंका आज्ञापालक हूँ। इस विषयमें आपको कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये॥५०॥

मूलम् (वचनम्)

देवा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

असुरस्तारको नाम ब्रह्मणो वरदर्पितः।
अस्मान् प्रबाधते वीर्याद् वधस्तस्य विधीयताम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

असुरस्तारको नाम ब्रह्मणो वरदर्पितः।
अस्मान् प्रबाधते वीर्याद् वधस्तस्य विधीयताम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता बोले— अग्निदेव! एक तारकनामक असुर है जो ब्रह्माजीके वरदानसे मदमत्त होकर अपने पराक्रमसे हम सब लोगोंको कष्ट दे रहा है। अतः तुम उसके वधका कोई उपाय करो॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमान् देवगणांस्तात प्रजापतिगणांस्तथा ।
ऋषींश्चापि महाभाग परित्रायस्व पावक ॥ ५२ ॥

मूलम्

इमान् देवगणांस्तात प्रजापतिगणांस्तथा ।
ऋषींश्चापि महाभाग परित्रायस्व पावक ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! महाभाग पावक! इन देवताओं, प्रजापतियों तथा ऋषियोंकी भी रक्षा करो॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपत्यं तेजसा युक्तं प्रवीरं जनय प्रभो।
यद् भयं नोऽसुरात् तस्मान्नाशयेद्धव्यवाहन ॥ ५३ ॥

मूलम्

अपत्यं तेजसा युक्तं प्रवीरं जनय प्रभो।
यद् भयं नोऽसुरात् तस्मान्नाशयेद्धव्यवाहन ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! हव्यवाहन! तुम एक ऐसा तेजस्वी और महावीर पुत्र उत्पन्न करो जो उस असुरसे प्राप्त होनेवाले हमारे भयका नाश करे॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शप्तानां नो महादेव्या नान्यदस्ति परायणम्।
अन्यत्र भवतो वीर्यं तस्मात् त्रायस्व नः प्रभो ॥ ५४ ॥

मूलम्

शप्तानां नो महादेव्या नान्यदस्ति परायणम्।
अन्यत्र भवतो वीर्यं तस्मात् त्रायस्व नः प्रभो ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! महादेवी पार्वतीने हमलोगोंको संतानहीन होनेका शाप दे दिया है; अतः तुम्हारे बलवीर्यके सिवा हमारे लिये दूसरा कोई आश्रय नहीं रह गया है इसलिये हमलोगोंकी रक्षा करो॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स तथेत्युक्त्वा भगवान् हव्यवाहनः।
जगामाथ दुराधर्षो गङ्गां भागीरथीं प्रति ॥ ५५ ॥

मूलम्

इत्युक्तः स तथेत्युक्त्वा भगवान् हव्यवाहनः।
जगामाथ दुराधर्षो गङ्गां भागीरथीं प्रति ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके ऐसा कहनेपर ‘तथास्तु’ कहकर दुर्धर्ष भगवान् हव्यवाहन भागीरथी गंगाके तटपर गये॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तया चाप्यभवन्मिश्रो गर्भं चास्यादधे तदा।
ववृधे स तदा गर्भः कक्षे कृष्णगतिर्यथा ॥ ५६ ॥

मूलम्

तया चाप्यभवन्मिश्रो गर्भं चास्यादधे तदा।
ववृधे स तदा गर्भः कक्षे कृष्णगतिर्यथा ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे वहाँ गंगाजीसे मिले। गंगाजीने उस समय भगवान् शंकरके उस तेजको गर्भरूपसे धारण किया। जैसे सूखे तिनकों अथवा लकड़ियोंके ढेरमें रखी हुई आग प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वह तेजस्वी गर्भ गंगाजीके भीतर बढ़ने लगा॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेजसा तस्य देवस्य गंगा विह्वलचेतना।
संतापमगमत् तीव्रं सोढुं सा न शशाक ह ॥ ५७ ॥

मूलम्

तेजसा तस्य देवस्य गंगा विह्वलचेतना।
संतापमगमत् तीव्रं सोढुं सा न शशाक ह ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निदेवके दिये हुए उस तेजसे गंगाजीका चित्त व्याकुल हो गया। वे अत्यन्त संतप्त हो उठीं और उसे सहन करनेमें असमर्थ हो गयीं॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहिते ज्वलनेनाथ गर्भे तेजाः समन्विते।
गंगायामसुरः कश्चिद् भैरवं नादमानदत् ॥ ५८ ॥

मूलम्

आहिते ज्वलनेनाथ गर्भे तेजाः समन्विते।
गंगायामसुरः कश्चिद् भैरवं नादमानदत् ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निके द्वारा गंगाजीमें स्थापित किया हुआ वह तेजस्वी गर्भ जब बढ़ रहा था, उसी समय किसी असुरने वहाँ आकर सहसा बड़े जोरसे भयानक गर्जना की॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अबुद्धिपतितेनाथ नादेन विपुलेन सा।
वित्रस्तोद्भ्रान्तनयना गंगा विस्रुतलोचना ॥ ५९ ॥

मूलम्

अबुद्धिपतितेनाथ नादेन विपुलेन सा।
वित्रस्तोद्भ्रान्तनयना गंगा विस्रुतलोचना ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस आकस्मिक महान् सिंहनादसे भयभीत हुई गंगाजीकी आँखें घूमने लगीं और उनके नेत्रोंसे आँसू बहने लगा॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विसंज्ञा नाशकद् गर्भं वोढुमात्मानमेव च।
सा तु तेजःपरीतांगी कम्पयन्तीव जाह्नवी ॥ ६० ॥
उवाच ज्वलनं विप्र तदा गर्भबलोद्धता।
ते न शक्तास्मि भगवंस्तेजसोऽस्य विधारणे ॥ ६१ ॥

मूलम्

विसंज्ञा नाशकद् गर्भं वोढुमात्मानमेव च।
सा तु तेजःपरीतांगी कम्पयन्तीव जाह्नवी ॥ ६० ॥
उवाच ज्वलनं विप्र तदा गर्भबलोद्धता।
ते न शक्तास्मि भगवंस्तेजसोऽस्य विधारणे ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अचेत हो गयीं। अतः उस गर्भको और अपने-आपको भी न सम्हाल सकीं। उनके सारे अंग तेजसे व्याप्त हो रहे थे। विप्रवर! उस समय जाह्नवी देवी उस गर्भकी शक्तिसे अभिभूत हो काँपती हुई-सी अग्निसे बोलीं—‘भगवन्! मैं आपके इस तेजको धारण करनेमें असमर्थ हूँ॥६०-६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमूढास्मि कृतानेन न मे स्वास्थ्यं यथा पुरा।
विह्वला चास्मि भगवंश्चेतो नष्टं च मेऽनघ ॥ ६२ ॥

मूलम्

विमूढास्मि कृतानेन न मे स्वास्थ्यं यथा पुरा।
विह्वला चास्मि भगवंश्चेतो नष्टं च मेऽनघ ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निष्पाप अग्निदेव! इसने मुझे मूर्च्छित-सी कर दिया है। मेरा स्वास्थ्य अब पहले-जैसा नहीं रह गया है। भगवन्! मैं बहुत घबरा गयी हूँ। मेरी चेतना लुप्त-सी हो रही है॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धारणे नास्य शक्ताहं गर्भस्य तपतां वर।
उत्स्रक्ष्येऽहमिमं दुःखान्न तु कामात् कथंचन ॥ ६३ ॥

मूलम्

धारणे नास्य शक्ताहं गर्भस्य तपतां वर।
उत्स्रक्ष्येऽहमिमं दुःखान्न तु कामात् कथंचन ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तपनेवालोंमें श्रेष्ठ पावक! अब मुझमें इस गर्भको धारण किये रहनेकी शक्ति नहीं रह गयी है। मैं असह्य दुःखसे ही इसे त्यागने जा रही हूँ। स्वेच्छासे किसी प्रकार नहीं॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तेजसोऽस्ति संस्पर्शो मम देव विभावसो।
आपदर्थे हि सम्बन्धः सुसूक्ष्मोऽपि महाद्युते ॥ ६४ ॥

मूलम्

न तेजसोऽस्ति संस्पर्शो मम देव विभावसो।
आपदर्थे हि सम्बन्धः सुसूक्ष्मोऽपि महाद्युते ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देव! विभावसो! महाद्युते! इस तेजके साथ मेरा कोई सम्पर्क नहीं है। इस समय जो अत्यन्त सूक्ष्म सम्बन्ध स्थापित हुआ है वह भी देवताओंपर आयी हुई विपत्तिको टालनेके उद्देश्यसे ही है॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदत्र गुणसम्पन्नमितरद् वा हुताशन।
त्वय्येव तदहं मन्ये धर्माधर्मौ च केवलौ ॥ ६५ ॥

मूलम्

यदत्र गुणसम्पन्नमितरद् वा हुताशन।
त्वय्येव तदहं मन्ये धर्माधर्मौ च केवलौ ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हुताशन! इस कार्यमें यदि कोई गुण या दोषमुक्त परिणाम हो अथवा केवल धर्म या अधर्म हो, उन सबका उत्तरदायित्व आपपर ही है, ऐसा मैं मानती हूँ’॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामुवाच ततो वह्निर्धार्यतां धार्यतामिति।
गर्भो मत्तेजसा युक्तो महागुणफलोदयः ॥ ६६ ॥

मूलम्

तामुवाच ततो वह्निर्धार्यतां धार्यतामिति।
गर्भो मत्तेजसा युक्तो महागुणफलोदयः ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अग्निने गंगाजीसे कहा—देवि! यह गर्भ मेरे तेजसे युक्त है, इससे महान् गुणयुक्त फलका उदय होनेवाला है। इसे धारण करो, धारण करो॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्ता ह्यसि महीं कृत्स्नां वोढुं धारयितुं तथा।
न हि ते किंचिदप्राप्यमन्यतो धारणादृते ॥ ६७ ॥

मूलम्

शक्ता ह्यसि महीं कृत्स्नां वोढुं धारयितुं तथा।
न हि ते किंचिदप्राप्यमन्यतो धारणादृते ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवि! तुम सारी पृथ्वीको धारण करनेमें समर्थ हो, फिर इस गर्भको धारण करना तुम्हारे लिये कुछ असाध्य नहीं है’॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा वह्निना वार्यमाणा देवैरपि सरिद्वरा।
समुत्ससर्ज तं गर्भं मेरौ गिरिवरे तदा ॥ ६८ ॥

मूलम्

सा वह्निना वार्यमाणा देवैरपि सरिद्वरा।
समुत्ससर्ज तं गर्भं मेरौ गिरिवरे तदा ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओं तथा अग्निके मना करनेपर भी सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगाने उस गर्भको गिरिराज मेरुके शिखरपर छोड़ दिया॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समर्था धारणे चापि रुद्रतेजःप्रधर्षिता।
नाशकत् तं तदा गर्भं संधारयितुमोजसा ॥ ६९ ॥

मूलम्

समर्था धारणे चापि रुद्रतेजःप्रधर्षिता।
नाशकत् तं तदा गर्भं संधारयितुमोजसा ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि गंगाजी उस गर्भको धारण करनेमें समर्थ थीं; तो भी रुद्रके तेजसे पराभूत होकर बलपूर्वक उसे धारण न कर सकीं॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा समुत्सृज्य तं दुःखाद् दीप्तवैश्वानरप्रभम्।
दर्शयामास चाग्निस्तं तदा गंगां भृगूद्वह ॥ ७० ॥
पप्रच्छ सरितां श्रेष्ठां कच्चिद् गर्भः सुखोदयः।
कीदृग्वर्णोऽपि वा देवि कीदृग्रूपश्च दृश्यते।
तेजसा केन वा युक्तः सर्वमेतद् ब्रवीहि मे ॥ ७१ ॥

मूलम्

सा समुत्सृज्य तं दुःखाद् दीप्तवैश्वानरप्रभम्।
दर्शयामास चाग्निस्तं तदा गंगां भृगूद्वह ॥ ७० ॥
पप्रच्छ सरितां श्रेष्ठां कच्चिद् गर्भः सुखोदयः।
कीदृग्वर्णोऽपि वा देवि कीदृग्रूपश्च दृश्यते।
तेजसा केन वा युक्तः सर्वमेतद् ब्रवीहि मे ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुश्रेष्ठ! गंगाजीने बड़े दुःखसे अग्निके समान तेजस्वी उस गर्भको त्याग दिया। तत्पश्चात् अग्निने उनका दर्शन किया और सरिताओंमें श्रेष्ठ उन गंगाजीसे पूछा—‘देवि! तुम्हारा गर्भ सुखपूर्वक उत्पन्न हो गया है न? उसकी कान्ति कैसी है अथवा उसका रूप कैसा दिखायी देता है, वह कैसे तेजसे युक्त है? यह सारी बातें मुझसे कहो’॥७०-७१॥

मूलम् (वचनम्)

गंगोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातरूपः स गर्भो वै तेजसा त्वमिवानघ।
सुवर्णो विमलो दीप्तः पर्वतं चावभासयत् ॥ ७२ ॥

मूलम्

जातरूपः स गर्भो वै तेजसा त्वमिवानघ।
सुवर्णो विमलो दीप्तः पर्वतं चावभासयत् ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गंगा बोलीं— देव! वह गर्भ क्या है, सोना है। अनघ! वह तेजमें हूबहू आपके ही समान है। सुवर्ण-जैसी निर्मल कान्तिसे प्रकाशित होता है और सारे पर्वतको उद्भासित करता है॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पद्मोत्पलविमिश्राणां ह्रदानामिव शीतलः ।
गन्धोऽस्य स कदम्बानां तुल्यो वै तपतां वर ॥ ७३ ॥

मूलम्

पद्मोत्पलविमिश्राणां ह्रदानामिव शीतलः ।
गन्धोऽस्य स कदम्बानां तुल्यो वै तपतां वर ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपनेवालोंमें श्रेष्ठ अग्निदेव! कमल और उत्पलसे संयुक्त सरोवरोंके समान उसका अंग शीतल है और कदम्ब-पुष्पोंके समान उससे मीठी-मीठी सुगन्ध फैलती रहती है॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेजसा तस्य गर्भस्य भास्करस्येव रश्मिभिः।
यद् द्रव्यं परसंसृष्टं पृथिव्यां पर्वतेषु च ॥ ७४ ॥
तत् सर्वं काञ्चनीभूतं समन्तात् प्रत्यदृश्यत।

मूलम्

तेजसा तस्य गर्भस्य भास्करस्येव रश्मिभिः।
यद् द्रव्यं परसंसृष्टं पृथिव्यां पर्वतेषु च ॥ ७४ ॥
तत् सर्वं काञ्चनीभूतं समन्तात् प्रत्यदृश्यत।

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यकी किरणोंके समान उस गर्भसे वहाँकी भूमि या पर्वतोंपर रहनेवाले जिस किसी द्रव्यका स्पर्श हुआ, वह सब चारों ओरसे सुवर्णमय दिखायी देने लगा॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर्यधावत शैलांश्च नदीः प्रस्रवणानि च ॥ ७५ ॥
व्यादीपयंस्तेजसा च त्रैलोक्यं सचराचरम्।

मूलम्

पर्यधावत शैलांश्च नदीः प्रस्रवणानि च ॥ ७५ ॥
व्यादीपयंस्तेजसा च त्रैलोक्यं सचराचरम्।

अनुवाद (हिन्दी)

वह बालक अपने तेजसे चराचर प्राणियोंको प्रकाशित करता हुआ पर्वतों, नदियों और झरनोंकी ओर दौड़ने लगा था॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंरूपः स भगवान् पुत्रस्ते हव्यवाहन।
सूर्यवैश्वानरसमः कान्त्या सोम इवापरः ॥ ७६ ॥

मूलम्

एवंरूपः स भगवान् पुत्रस्ते हव्यवाहन।
सूर्यवैश्वानरसमः कान्त्या सोम इवापरः ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हव्यवाहन! आपका ऐश्वर्यशाली पुत्र ऐसे ही रूपवाला है। वह सूर्य तथा आपके समान तेजस्वी और दूसरे चन्द्रमाके समान कान्तिमान् है॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा तु सा देवी तत्रैवान्तरधीयत।
पावकश्चापि तेजस्वी कृत्वा कार्यं दिवौकसाम् ॥ ७७ ॥
जगामेष्टं ततो देशं तदा भार्गवनन्दन।

मूलम्

एवमुक्त्वा तु सा देवी तत्रैवान्तरधीयत।
पावकश्चापि तेजस्वी कृत्वा कार्यं दिवौकसाम् ॥ ७७ ॥
जगामेष्टं ततो देशं तदा भार्गवनन्दन।

अनुवाद (हिन्दी)

भार्गवनन्दन! ऐसा कहकर देवी गंगा वहीं अन्तर्धान हो गयीं और तेजस्वी अग्निदेव देवताओंका कार्य सिद्ध करके उस समय वहाँसे अभीष्ट देशको चले गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतैः कर्मगुणैर्लोके नामाग्नेः परिगीयते ॥ ७८ ॥
हिरण्यरेता इति वै ऋषिभिर्विबुधैस्तथा।
पृथिवी च तदा देवी ख्याता वसुमतीति वै ॥ ७९ ॥

मूलम्

एतैः कर्मगुणैर्लोके नामाग्नेः परिगीयते ॥ ७८ ॥
हिरण्यरेता इति वै ऋषिभिर्विबुधैस्तथा।
पृथिवी च तदा देवी ख्याता वसुमतीति वै ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्हीं समस्त कर्मों और गुणोंके कारण देवता तथा ऋषि संसारमें अग्निको हिरण्यरेताके नामसे पुकारते हैं। उस समय अग्निजनित हिरण्य (वसु) धारण करनेके कारण पृथ्वीदेवी वसुमती नामसे विख्यात हुईं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु गर्भो महातेजा गांगेयः पावकोद्भवः।
दिव्यं शरवणं प्राप्य ववृधेऽद्‌भुतदर्शनः ॥ ८० ॥

मूलम्

स तु गर्भो महातेजा गांगेयः पावकोद्भवः।
दिव्यं शरवणं प्राप्य ववृधेऽद्‌भुतदर्शनः ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निके अंशसे उत्पन्न हुआ गंगाका वह महातेजस्वी गर्भ सरकण्डोंके दिव्य वनमें पहुँचकर बढ़ने और अद्‌भुत दिखायी देने लगा॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददृशुः कृत्तिकास्तं तु बालार्कसदृशद्युतिम्।
पुत्रं वै ताश्च तं बालं पुपुषुः स्तन्यविस्रवैः ॥ ८१ ॥

मूलम्

ददृशुः कृत्तिकास्तं तु बालार्कसदृशद्युतिम्।
पुत्रं वै ताश्च तं बालं पुपुषुः स्तन्यविस्रवैः ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभातकालके सूर्यकी भाँति अरुण कान्तिवाले उस तेजस्वी बालकको कृत्तिकाओंने देखा और उसे अपना पुत्र मानकर स्तनोंका दूध पिलाकर उसका पालन-पोषण किया॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स कार्तिकेयत्वमवाप परमद्युतिः।
स्कन्नत्वात् स्कन्दतां चापि गुहावासाद् गुहोऽभवत् ॥ ८२ ॥

मूलम्

ततः स कार्तिकेयत्वमवाप परमद्युतिः।
स्कन्नत्वात् स्कन्दतां चापि गुहावासाद् गुहोऽभवत् ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीलिये वह परम तेजस्वी कुमार ‘कार्तिकेय’ नामसे प्रसिद्ध हुआ। शिवके स्कन्दित (स्खलित) वीर्यसे उत्पन्न होनेके कारण उनका नाम ‘स्कन्द’ हुआ और पर्वतकी गुहामें निवास करनेसे वह ‘गुह’ कहलाया॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सुवर्णमुत्पन्नमपत्यं जातवेदसः ।
तत्र जाम्बूनदं श्रेष्ठं देवानामपि भूषणम् ॥ ८३ ॥

मूलम्

एवं सुवर्णमुत्पन्नमपत्यं जातवेदसः ।
तत्र जाम्बूनदं श्रेष्ठं देवानामपि भूषणम् ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अग्निसे संतानरूपमें सुवर्णकी उत्पत्ति हुई है। उसमें भी जाम्बूनद नामक सुवर्ण श्रेष्ठ है और वह देवताओंका भी भूषण है॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रभृति चाप्येतज्जातरूपमुदाहृतम् ।
रत्नानामुत्तमं रत्नं भूषणानां तथैव च ॥ ८४ ॥

मूलम्

ततः प्रभृति चाप्येतज्जातरूपमुदाहृतम् ।
रत्नानामुत्तमं रत्नं भूषणानां तथैव च ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तभीसे सुवर्णका नाम जातरूप हुआ। वह रत्नोंमें उत्तम रत्न और आभूषणोंमें श्रेष्ठ आभूषण है॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पवित्रं च पवित्राणां मङ्‌गलानां च मंगलम्।
यत् सुवर्णं स भगवानग्निरीशः प्रजापतिः ॥ ८५ ॥

मूलम्

पवित्रं च पवित्राणां मङ्‌गलानां च मंगलम्।
यत् सुवर्णं स भगवानग्निरीशः प्रजापतिः ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पवित्रोंमें भी अधिक पवित्र तथा मंगलोंमें भी अधिक मंगलमय है। जो सुवर्ण है, वही भगवान् अग्नि हैं, वही ईश्वर और प्रजापति हैं॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पवित्राणां पवित्रं हि कनकं द्विजसत्तमाः।
अग्नीषोमात्मकं चैव जातरूपमुदाहृतम् ॥ ८६ ॥

मूलम्

पवित्राणां पवित्रं हि कनकं द्विजसत्तमाः।
अग्नीषोमात्मकं चैव जातरूपमुदाहृतम् ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजवरो! सुवर्ण सम्पूर्ण पवित्र वस्तुओंमें अतिशय पवित्र है; उसे अग्नि और सोमरूप बताया गया है॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि चेदं पुरा राम श्रुतं मे ब्रह्मदर्शनम्।
पितामहस्य यद् वृत्तं ब्रह्मणः परमात्मनः ॥ ८७ ॥

मूलम्

अपि चेदं पुरा राम श्रुतं मे ब्रह्मदर्शनम्।
पितामहस्य यद् वृत्तं ब्रह्मणः परमात्मनः ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजी कहते हैं— परशुराम! परमात्मा पितामह ब्रह्माका जो ब्रह्मदर्शन नामक वृत्तान्त मैंने पूर्वकालमें सुना था, वह तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवस्य महतस्तात वारुणीं बिभ्रतस्तनुम्।
ऐश्वर्ये वारुणे राम रुद्रस्येशस्य वै प्रभो ॥ ८८ ॥
आजग्मुर्मुनयः सर्वे देवाश्चाग्निपुरोगमाः ।
यज्ञांगानि च सर्वाणि वषट्‌कारश्च मूर्तिमान् ॥ ८९ ॥
मूर्तिमन्ति च सामानि यजूंषि च सहस्रशः।
ऋग्वेदश्चागमत् तत्र पदक्रमविभूषितः ॥ ९० ॥

मूलम्

देवस्य महतस्तात वारुणीं बिभ्रतस्तनुम्।
ऐश्वर्ये वारुणे राम रुद्रस्येशस्य वै प्रभो ॥ ८८ ॥
आजग्मुर्मुनयः सर्वे देवाश्चाग्निपुरोगमाः ।
यज्ञांगानि च सर्वाणि वषट्‌कारश्च मूर्तिमान् ॥ ८९ ॥
मूर्तिमन्ति च सामानि यजूंषि च सहस्रशः।
ऋग्वेदश्चागमत् तत्र पदक्रमविभूषितः ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभावशाली तात परशुराम! एक समयकी बात है, सबके ईश्वर और महान् देवता भगवान् रुद्र वरुणका स्वरूप धारण करके वरुणके साम्राज्यपर प्रतिष्ठित थे। उस समय उनके यज्ञमें अग्नि आदि सम्पूर्ण देवता और ऋषि पधारे। सम्पूर्ण मूर्तिमान् यज्ञांग, वषट्‌कार, साकार साम, सहस्रों यजुर्मन्त्र तथा पद और क्रमसे विभूषित ऋग्वेद भी वहाँ उपस्थित हुए॥८८—९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्षणानि स्वराः स्तोभा निरुक्तं सुरपङ्‌क्तयः।
ओङ्कारश्चावसन्नेत्रे निग्रहप्रग्रहौ तथा ॥ ९१ ॥

मूलम्

लक्षणानि स्वराः स्तोभा निरुक्तं सुरपङ्‌क्तयः।
ओङ्कारश्चावसन्नेत्रे निग्रहप्रग्रहौ तथा ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदोंके लक्षण, उदात्त आदि स्वर, स्तोत्र, निरुक्त, सुरपंक्ति, ओंकार तथा यज्ञके नेत्रस्वरूप प्रग्रह और निग्रह भी उस स्थानपर स्थित थे॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदाश्च सोपनिषदो विद्या सावित्र्यथापि च।
भूतं भव्यं भविष्यं च दधार भगवान् शिवः ॥ ९२ ॥

मूलम्

वेदाश्च सोपनिषदो विद्या सावित्र्यथापि च।
भूतं भव्यं भविष्यं च दधार भगवान् शिवः ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेद, उपनिषद्, विद्या और सावित्री देवी भी वहाँ आयी थीं। भगवान् शिवने भूत, वर्तमान और भविष्य—तीनों कालोंको धारण किया था॥९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संजुहावात्मनाऽऽत्मानं स्वयमेव तदा प्रभो।
यज्ञं च शोभयामास बहुरूपं पिनाकधृत् ॥ ९३ ॥

मूलम्

संजुहावात्मनाऽऽत्मानं स्वयमेव तदा प्रभो।
यज्ञं च शोभयामास बहुरूपं पिनाकधृत् ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! पिनाकधारी महादेवजीने अनेक रूपवाले उस यज्ञकी शोभा बढ़ायी और उन्होंने स्वयं ही अपने द्वारा अपने आपको आहुति प्रदान की॥९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्यौर्नभः पृथिवी खं च तथा चैवैष भूपतिः।
सर्वविद्येश्वरः श्रीमानेष चापि विभावसुः ॥ ९४ ॥

मूलम्

द्यौर्नभः पृथिवी खं च तथा चैवैष भूपतिः।
सर्वविद्येश्वरः श्रीमानेष चापि विभावसुः ॥ ९४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये भगवान् शिव ही स्वर्ग, आकाश, पृथ्वी समस्त शून्य प्रदेश, राजा, सम्पूर्ण विद्याओंके अधीश्वर तथा तेजस्वी अग्निरूप हैं॥९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष ब्रह्मा शिवो रुद्रो वरुणोऽग्निः प्रजापतिः।
कीर्त्यते भगवान् देवः सर्वभूतपतिः शिवः ॥ ९५ ॥

मूलम्

एष ब्रह्मा शिवो रुद्रो वरुणोऽग्निः प्रजापतिः।
कीर्त्यते भगवान् देवः सर्वभूतपतिः शिवः ॥ ९५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये ही भगवान् सर्वभूतपति महादेव ब्रह्मा, शिव, रुद्र, वरुण, अग्नि, प्रजापति तथा कल्याणमय शम्भु आदि नामोंसे पुकारे जाते हैं॥९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य यज्ञः पशुपतेस्तपः क्रतव एव च।
दीक्षा दीप्तव्रता देवी दिशश्च सदिगीश्वराः ॥ ९६ ॥
देवपत्न्यश्च कन्याश्च देवानां चैव मातरः।
आजग्मुः सहितास्तत्र तदा भृगुकुलोद्वह ॥ ९७ ॥

मूलम्

तस्य यज्ञः पशुपतेस्तपः क्रतव एव च।
दीक्षा दीप्तव्रता देवी दिशश्च सदिगीश्वराः ॥ ९६ ॥
देवपत्न्यश्च कन्याश्च देवानां चैव मातरः।
आजग्मुः सहितास्तत्र तदा भृगुकुलोद्वह ॥ ९७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुकुलभूषण! इस प्रकार भगवान् पशुपतिका वह यज्ञ चलने लगा। उसमें सम्मिलित होनेके लिये तप, क्रतु, उद्दीप्त व्रतवाली दीक्षा देवी, दिक्‌पालोंसहित दिशाएँ, देवपत्नियाँ, देवकन्याएँ तथा देव-माताएँ भी एक साथ आयी थीं॥९६-९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञं पशुपतेः प्रीता वरुणस्य महात्मनः।
स्वयम्भुवस्तु ता दृष्ट्वा रेतः समपतद् भुवि ॥ ९८ ॥

मूलम्

यज्ञं पशुपतेः प्रीता वरुणस्य महात्मनः।
स्वयम्भुवस्तु ता दृष्ट्वा रेतः समपतद् भुवि ॥ ९८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा वरुण पशुपतिके यज्ञमें आकर वे देवांगनाएँ बहुत प्रसन्न थीं। उस समय उन्हें देखकर स्वयम्भू ब्रह्माजीका वीर्य स्खलित हो पृथ्वीपर गिर पड़ा॥९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य शुक्रस्य विस्पन्दान्‌ पांसून् संगृह्य भूमितः।
त्रास्यत् पूषा कराभ्यां वै तस्मिन्नेव हुताशने ॥ ९९ ॥

मूलम्

तस्य शुक्रस्य विस्पन्दान्‌ पांसून् संगृह्य भूमितः।
त्रास्यत् पूषा कराभ्यां वै तस्मिन्नेव हुताशने ॥ ९९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब ब्रह्माजीके वीर्यसे संसिक्त धूलिकणोंको दोनों हाथोंद्वारा भूमिसे उठाकर पूषाने उसी आगमें फेंक दिया॥९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्मिन् सम्प्रवृत्ते सत्रे ज्वलितपावके।
ब्रह्मणो जुह्वतस्तत्र प्रादुर्भावो बभूव ह ॥ १०० ॥

मूलम्

ततस्तस्मिन् सम्प्रवृत्ते सत्रे ज्वलितपावके।
ब्रह्मणो जुह्वतस्तत्र प्रादुर्भावो बभूव ह ॥ १०० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर प्रज्वलित अग्निवाले उस यज्ञके चालू होनेपर वहाँ ब्रह्माजीका वीर्य पुनः स्खलित हुआ॥१००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्कन्नमात्रं च तच्छुक्रं स्रुवेण परिगृह्य सः।
आज्यवन्मन्त्रतश्चापि सोऽजुहोद् भृगुनन्दन ॥ १०१ ॥

मूलम्

स्कन्नमात्रं च तच्छुक्रं स्रुवेण परिगृह्य सः।
आज्यवन्मन्त्रतश्चापि सोऽजुहोद् भृगुनन्दन ॥ १०१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुनन्दन! स्खलित होते ही उस वीर्यको स्रुवेमें लेकर उन्होंने स्वयं ही मन्त्र पढ़ते हुए घीकी भाँति उसका होम कर दिया॥१०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स जनयामास भूतग्रामं च वीर्यवान्।
तस्य तत् तेजसस्तस्माज्जज्ञे लोकेषु तैजसम् ॥ १०२ ॥

मूलम्

ततः स जनयामास भूतग्रामं च वीर्यवान्।
तस्य तत् तेजसस्तस्माज्जज्ञे लोकेषु तैजसम् ॥ १०२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शक्तिशाली ब्रह्माजीने उस त्रिगुणात्मक वीर्यसे चतुर्विध प्राणिसमुदायको जन्म दिया। उनके वीर्यका जो रजोमय अंश था, उससे जगत्‌में तैजस प्रवृत्तिप्रधान जंगम प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई॥१०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमसस्तामसा भावा व्यापि सत्त्वं तथोभयम्।
स गुणस्तेजसो नित्यस्तस्य चाकाशमेव च ॥ १०३ ॥

मूलम्

तमसस्तामसा भावा व्यापि सत्त्वं तथोभयम्।
स गुणस्तेजसो नित्यस्तस्य चाकाशमेव च ॥ १०३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तमोमय अंशसे तामस पदार्थ—स्थावर वृक्ष आदि प्रकट हुए और जो सात्त्विक अंश था, वह राजस और तामस दोनोंमें अन्तर्भूत हो गया। वह सत्त्वगुण अर्थात् प्रकाशस्वरूपा बुद्धिका नित्यस्वरूप है और आकाश आदि सम्पूर्ण विश्व भी उस बुद्धिका कार्य होनेसे उसका ही स्वरूप है॥१०३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूतेषु च तथा सत्त्वं तेजस्तथोत्तमम्।
शुक्रे हुतेऽग्नौ तस्मिंस्तु प्रादुरासंस्त्रयः प्रभो ॥ १०४ ॥
पुरुषा वपुषा युक्ताः स्वैः स्वैः प्रसवजैर्गुणैः।

मूलम्

सर्वभूतेषु च तथा सत्त्वं तेजस्तथोत्तमम्।
शुक्रे हुतेऽग्नौ तस्मिंस्तु प्रादुरासंस्त्रयः प्रभो ॥ १०४ ॥
पुरुषा वपुषा युक्ताः स्वैः स्वैः प्रसवजैर्गुणैः।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः सम्पूर्ण भूतोंमें जो सत्त्वगुण तथा उत्तम तेज है, वह प्रजापतिके उस शुक्रसे ही प्रकट हुआ है। प्रभो! ब्रह्माजीके वीर्यकी जब अग्निमें आहुति दी गयी तब उससे तीन शरीरधारी पुरुष उत्पन्न हुए, जो अपने-अपने कारणजनित गुणोंसे सम्पन्न थे॥१०४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भृगित्येव भृगुः पूर्वमंगारेभ्योऽङ्गिराभवत् ॥ १०५ ॥
अंगारसंश्रयाच्चैव कविरित्यपरोऽभवत् ।
सह ज्वालाभिरुत्पन्नो भृगुस्तस्माद् भृगुः स्मृतः ॥ १०६ ॥

मूलम्

भृगित्येव भृगुः पूर्वमंगारेभ्योऽङ्गिराभवत् ॥ १०५ ॥
अंगारसंश्रयाच्चैव कविरित्यपरोऽभवत् ।
सह ज्वालाभिरुत्पन्नो भृगुस्तस्माद् भृगुः स्मृतः ॥ १०६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृग् अर्थात् अग्निकी ज्वालासे उत्पन्न होनेके कारण एक पुरुषका नाम ‘भृगु’ हुआ। अंगारोंसे प्रकट हुए दूसरे पुरुषका नाम ‘अंगिरा’ हुआ और अंगारोंके आश्रित जो स्वल्पमात्र ज्वाला या भृगु होती है उससे ‘कवि’ नामक तीसरे पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ। भृगुजी ज्वालाओंके साथ ही उत्पन्न हुए थे, उससे भृगु कहलाये॥१०५-१०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मरीचिभ्यो मरीचिस्तु मारीचः कश्यपो ह्यभूत्।
अंगारेभ्योऽङ्गितस्तात वालखिल्याः कुशोच्चयात् ॥ १०७ ॥

मूलम्

मरीचिभ्यो मरीचिस्तु मारीचः कश्यपो ह्यभूत्।
अंगारेभ्योऽङ्गितस्तात वालखिल्याः कुशोच्चयात् ॥ १०७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी अग्निकी मरीचियोंसे मरीचि उत्पन्न हुए; जिनके पुत्र मारीच—कश्यप नामसे विख्यात हैं। तात! अंगारोंसे अंगिरा और कुशोंके ढेरसे वालखिल्य नामक ऋषि प्रकट हुए थे॥१०७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रैवात्रेति च विभो जातमत्रिं वदन्त्यपि।
तथा भस्मव्यपोहेभ्यो ब्रह्मर्षिगणसम्मताः ॥ १०८ ॥
वैखानसाः समुत्पन्नास्तपः श्रुतगुणेप्सवः ।
अश्रुतोऽस्य समुत्पन्नावश्विनौ रूपसम्मतौ ॥ १०९ ॥

मूलम्

अत्रैवात्रेति च विभो जातमत्रिं वदन्त्यपि।
तथा भस्मव्यपोहेभ्यो ब्रह्मर्षिगणसम्मताः ॥ १०८ ॥
वैखानसाः समुत्पन्नास्तपः श्रुतगुणेप्सवः ।
अश्रुतोऽस्य समुत्पन्नावश्विनौ रूपसम्मतौ ॥ १०९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विभो! अत्रैव—उन्हीं कुशसमूहोंसे एक और ब्रह्मर्षि उत्पन्न हुए, जिन्हें लोग ‘अत्रि’ कहते हैं। भस्म—राशियोंसे ब्रह्मर्षियोंद्वारा सम्मानित वैखानसोंकी उत्पत्ति हुई, जो तपस्या, शास्त्र-ज्ञान और सद्‌गुणोंके अभिलाषी होते हैं। अग्निके अश्रुसे दोनों अश्विनीकुमार प्रकट हुए, जो अपनी रूप-सम्पत्तिके द्वारा सर्वत्र सम्मानित हैं॥१०८-१०९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शेषाः प्रजानां पतयः स्रोतोभ्यस्तस्य जज्ञिरे।
ऋषयो रोमकूपेभ्यः स्वेदाच्छन्दो बलान्मनः ॥ ११० ॥

मूलम्

शेषाः प्रजानां पतयः स्रोतोभ्यस्तस्य जज्ञिरे।
ऋषयो रोमकूपेभ्यः स्वेदाच्छन्दो बलान्मनः ॥ ११० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शेष प्रजापतिगण उनके श्रवण आदि इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए। रोमकूपोंसे ऋषि, पसीनेसे छन्द और वीर्यसे मनकी उत्पत्ति हुई॥११०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मात् कारणादाहुरग्निः सर्वास्तु देवताः।
ऋषयः श्रुतसम्पन्ना वेदप्रामाण्यदर्शनात् ॥ १११ ॥

मूलम्

एतस्मात् कारणादाहुरग्निः सर्वास्तु देवताः।
ऋषयः श्रुतसम्पन्ना वेदप्रामाण्यदर्शनात् ॥ १११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस कारणसे शास्त्रज्ञानसम्पन्न महर्षियोंने वेदोंकी प्रामाणिकतापर दृष्टि रखते हुए अग्निको सर्वदेवमय बताया है॥१११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानि दारुणि निर्यासास्ते मासाः पक्षसंज्ञिताः।
अहोरात्रा मुहूर्ताश्च पित्तं ज्योतिश्च दारुणम् ॥ ११२ ॥

मूलम्

यानि दारुणि निर्यासास्ते मासाः पक्षसंज्ञिताः।
अहोरात्रा मुहूर्ताश्च पित्तं ज्योतिश्च दारुणम् ॥ ११२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस यज्ञमें जो समिधाएँ काममें ली गयीं तथा उनसे जो रस निकला, वे ही सब मास, पक्ष, दिन, रात एवं मुहूर्तरूप हो गये और अग्निका जो पित्त था, वह उग्र तेज होकर प्रकट हुआ॥११२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रौद्रं लोहितमित्याहुर्लोहितात् कनकं स्मृतम्।
तन्मैत्रमिति विज्ञेयं धूमाच्च वसवः स्मृताः ॥ ११३ ॥

मूलम्

रौद्रं लोहितमित्याहुर्लोहितात् कनकं स्मृतम्।
तन्मैत्रमिति विज्ञेयं धूमाच्च वसवः स्मृताः ॥ ११३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निके तेजको लोहित कहते हैं, उस लोहितसे कनक उत्पन्न हुआ। उस कनकको मैत्र जानना चाहिये तथा अग्निके धूमसे वसुओंकी उत्पत्ति बतायी गयी है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्चिषो याश्च ते रुद्रास्तथाऽऽदित्या महाप्रभाः।
उद्दिष्टास्ते तथांगारा ये धिष्ण्येषु दिवि स्थिताः ॥ ११४ ॥

मूलम्

अर्चिषो याश्च ते रुद्रास्तथाऽऽदित्या महाप्रभाः।
उद्दिष्टास्ते तथांगारा ये धिष्ण्येषु दिवि स्थिताः ॥ ११४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निकी जो लपटें होती हैं, वे ही एकादश रुद्र तथा अत्यन्त तेजस्वी द्वादश आदित्य हैं, तथा उस यज्ञमें जो दूसरे-दूसरे अंगारे थे वे ही आकाशस्थित नक्षत्रमण्डलोंमें ज्योतिःपुंजके रूपमें स्थित हैं॥११४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदिकर्ता च लोकस्य तत्परं ब्रह्म तद् ध्रुवम्।
सर्वकामदमित्याहुस्तद्रहस्यमुवाच ह ॥ ११५ ॥

मूलम्

आदिकर्ता च लोकस्य तत्परं ब्रह्म तद् ध्रुवम्।
सर्वकामदमित्याहुस्तद्रहस्यमुवाच ह ॥ ११५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस लोकके जो आदि स्रष्टा हैं, उन ब्रह्माजीका कथन है कि अग्नि परब्रह्मस्वरूप है। वही अविनाशी परब्रह्म परमात्मा है और वही सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला है। यह गोपनीय रहस्य ज्ञानी पुरुष बताते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीन्महादेवो वरुणः पवनात्मकः ।
मम सत्रमिदं दिव्यमहं गृहपतिस्त्विह ॥ ११६ ॥

मूलम्

ततोऽब्रवीन्महादेवो वरुणः पवनात्मकः ।
मम सत्रमिदं दिव्यमहं गृहपतिस्त्विह ॥ ११६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वरुण एवं वायुरूप महादेवजीने कहा—‘देवताओ! यह मेरा दिव्य यज्ञ है। मैं ही इस यज्ञका गृहस्थ यजमान हूँ॥११६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रीणि पूर्वाण्यपत्यानि मम तानि न संशयः।
इति जानीत खगमा मम यज्ञफलं हि तत् ॥ ११७ ॥

मूलम्

त्रीणि पूर्वाण्यपत्यानि मम तानि न संशयः।
इति जानीत खगमा मम यज्ञफलं हि तत् ॥ ११७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आकाशचारी देवगण! पहले जो तीन पुरुष प्रकट हुए हैं, वे भृगु, अंगिरा और कवि मेरे पुत्र हैं, इसमें संशय नहीं है। इस बातको तुम जान लो; क्योंकि इस यज्ञका जो कुछ फल है, उसपर मेरा ही अधिकार है’॥११७॥

मूलम् (वचनम्)

अग्निरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मदङ्गेभ्यः प्रसूतानि मदाश्रयकृतानि च।
ममैव तान्यपत्यानि वरुणो ह्यवशात्मकः ॥ ११८ ॥

मूलम्

मदङ्गेभ्यः प्रसूतानि मदाश्रयकृतानि च।
ममैव तान्यपत्यानि वरुणो ह्यवशात्मकः ॥ ११८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्नि बोले— ये तीनों संतानें मेरे अंगोंसे उत्पन्न हुई हैं और मेरे ही आश्रयमें विधाताने इनकी सृष्टि की है। अतः ये तीनों मेरे ही पुत्र हैं। वरुणरूपधारी महादेवजीका इनपर कोई अधिकार नहीं है॥११८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाब्रवील्लोकगुरुर्ब्रह्मा लोकपितामहः ।
ममैव तान्यपत्यानि मम शुक्रं हुतं हि तत् ॥ ११९ ॥

मूलम्

अथाब्रवील्लोकगुरुर्ब्रह्मा लोकपितामहः ।
ममैव तान्यपत्यानि मम शुक्रं हुतं हि तत् ॥ ११९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर लोकपितामह लोकगुरु ब्रह्माजीने कहा—‘ये सब मेरी ही संतानें हैं; क्योंकि मेरे ही वीर्यकी आहुति दी गयी है; जिससे इनकी उत्पत्ति हुई है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं कर्ता हि सत्रस्य होता शुक्रस्य चैव ह।
यस्य बीजं फलं तस्य शुक्रं चेत् कारणं मतम्॥१२०॥

मूलम्

अहं कर्ता हि सत्रस्य होता शुक्रस्य चैव ह।
यस्य बीजं फलं तस्य शुक्रं चेत् कारणं मतम्॥१२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं ही यज्ञका कर्ता और अपने वीर्यका हवन करनेवाला हूँ। जिसका बीज होता है उसको ही उसका फल मिलता है। यदि इनकी उत्पत्तिमें वीर्यको ही कारण माना जाय तो निश्चय ही ये मेरे पुत्र हैं’॥१२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रुवन् देवगणाः पितामहमुपेत्य वै।
कृताञ्जलिपुटाः सर्वे शिरोभिरभिवन्द्य च ॥ १२१ ॥

मूलम्

ततोऽब्रुवन् देवगणाः पितामहमुपेत्य वै।
कृताञ्जलिपुटाः सर्वे शिरोभिरभिवन्द्य च ॥ १२१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार विवाद उपस्थित होनेपर समस्त देवताओंने ब्रह्माजीके पास जा दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर उनको प्रणाम किया और कहा—॥१२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं च भगवन् सर्वे जगच्च सचराचरम्।
तवैव प्रसवाः सर्वे तस्मादग्निर्विभावसुः ॥ १२२ ॥
वरुणश्चेश्वरो देवो लभतां काममीप्सितम्।

मूलम्

वयं च भगवन् सर्वे जगच्च सचराचरम्।
तवैव प्रसवाः सर्वे तस्मादग्निर्विभावसुः ॥ १२२ ॥
वरुणश्चेश्वरो देवो लभतां काममीप्सितम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! हम सब लोग और चराचरसहित सारा जगत् ये सब-के-सब आपकी ही संतान हैं। अतः अब ये प्रकाशमान अग्नि और ये वरुणरूपधारी ईश्वर महादेव भी अपना मनोवांछित फल प्राप्त करें’॥१२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निसर्गाद् ब्रह्मणश्चापि वरुणो यादसाम्पतिः ॥ १२३ ॥
जग्राह वै भृगुं पूर्वमपत्यं सूर्यवर्चसम्।
ईश्वरोऽङ्गिरसं चाग्नेरपत्यार्थमकल्पयत् ॥ १२४ ॥

मूलम्

निसर्गाद् ब्रह्मणश्चापि वरुणो यादसाम्पतिः ॥ १२३ ॥
जग्राह वै भृगुं पूर्वमपत्यं सूर्यवर्चसम्।
ईश्वरोऽङ्गिरसं चाग्नेरपत्यार्थमकल्पयत् ॥ १२४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब ब्रह्माजीकी आज्ञासे जलजन्तुओंके स्वामी वरुणरूपी भगवान् शिवने सबसे पहले सूर्यके समान तेजस्वी भृगुको पुत्ररूपमें ग्रहण किया। फिर उन्होंने ही अंगिराको अग्निकी संतान निश्चित किया॥१२३-१२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितामहस्त्वपत्यं वै कविं जग्राह तत्त्ववित्।
तदा स वारुणः ख्यातो भृगुः प्रसव कर्मवित् ॥ १२५ ॥
आग्नेयस्त्वंगिराः श्रीमान् कविर्ब्राह्यो महायशाः।
भार्गवांगिरसौ लोके लोकसंतानलक्षणौ ॥ १२६ ॥

मूलम्

पितामहस्त्वपत्यं वै कविं जग्राह तत्त्ववित्।
तदा स वारुणः ख्यातो भृगुः प्रसव कर्मवित् ॥ १२५ ॥
आग्नेयस्त्वंगिराः श्रीमान् कविर्ब्राह्यो महायशाः।
भार्गवांगिरसौ लोके लोकसंतानलक्षणौ ॥ १२६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर तत्त्वज्ञानी ब्रह्माने कविको अपनी संतानके रूपमें ग्रहण किया। उस समय संतानके कर्तव्यको जाननेवाले महर्षि भृगु वारुण नामसे विख्यात हुए। तेजस्वी अंगिरा आग्नेय तथा महायशस्वी कवि ब्राह्म नामसे विख्यात हुए। भृगु और अंगिरा—ये दोनों लोकमें जगत्‌की सृष्टिका विस्तार करनेवाले बतलाये गये हैं॥१२५-१२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते हि प्रस्रवाः सर्वे प्रजानां पतयस्त्रयः।
सर्वं संतानमेतेषामिदमित्युपधारय ॥ १२७ ॥

मूलम्

एते हि प्रस्रवाः सर्वे प्रजानां पतयस्त्रयः।
सर्वं संतानमेतेषामिदमित्युपधारय ॥ १२७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार ये तीन प्रजापति हैं और शेष सब लोग इनकी संतानें हैं। यह सारा जगत् इन्हींकी संतति हैं, इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो॥१२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भृगोस्तु पुत्राः सप्तासन्‌ सर्वे तुल्या भृगोर्गुणैः।
च्यवनो वज्रशीर्षश्च शुचिरौर्वस्तथैव च ॥ १२८ ॥
शुक्रो वरेण्यश्च विभुः सवनश्चेति सप्त ते।
भार्गवा वारुणाः सर्वे येषां वंशे भवानपि ॥ १२९ ॥

मूलम्

भृगोस्तु पुत्राः सप्तासन्‌ सर्वे तुल्या भृगोर्गुणैः।
च्यवनो वज्रशीर्षश्च शुचिरौर्वस्तथैव च ॥ १२८ ॥
शुक्रो वरेण्यश्च विभुः सवनश्चेति सप्त ते।
भार्गवा वारुणाः सर्वे येषां वंशे भवानपि ॥ १२९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुके सात पुत्र व्यापक हुए, जो उन्हींके समान गुणवान् थे। च्यवन, वज्रशीर्ष, शुचि, और्व, शुक्र, वरेण्य, तथा सवन—ये ही उन सातोंके नाम हैं। सभी भृगुवंशी सामान्यतः वारुण कहलाते हैं। जिनके वंशमें तुम भी उत्पन्न हुए हो॥१२८-१२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टौ चांगिरसः पुत्रा वारुणास्तेऽप्युदाहृताः।
बृहस्पतिरुतथ्यश्च पयस्यः शान्तिरेव च ॥ १३० ॥
घोरो विरूपः संवर्तः सुधन्वा चाष्टमः स्मृतः।
एतेऽष्टौ वह्निजाः सर्वे ज्ञाननिष्ठा निरामयाः ॥ १३१ ॥

मूलम्

अष्टौ चांगिरसः पुत्रा वारुणास्तेऽप्युदाहृताः।
बृहस्पतिरुतथ्यश्च पयस्यः शान्तिरेव च ॥ १३० ॥
घोरो विरूपः संवर्तः सुधन्वा चाष्टमः स्मृतः।
एतेऽष्टौ वह्निजाः सर्वे ज्ञाननिष्ठा निरामयाः ॥ १३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंगिराके आठ पुत्र हैं, वे भी वारुण कहलाते हैं (वरुणके यज्ञमें उत्पन्न होनेसे ही उनकी वारुण संज्ञा हुई है)। उनके नाम इस प्रकार हैं—बृहस्पति, उतथ्य,पयस्य, शान्ति, घोर, विरूप, संवर्त और आठवाँ सुधन्वा। ये आठ अग्निके वंशमें उत्पन्न हुए हैं। अतः आग्नेय कहलाते हैं। वे सब-के-सब ज्ञाननिष्ठ एवं निरामय (रोग-शोकसे रहित) हैं॥१३०-१३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मणस्तु कवेः पुत्रा वारुणास्तेऽप्युदाहृताः।
अष्टौ प्रसवजैर्युक्ता गुणैर्ब्रह्मविदः शुभाः ॥ १३२ ॥

मूलम्

ब्रह्मणस्तु कवेः पुत्रा वारुणास्तेऽप्युदाहृताः।
अष्टौ प्रसवजैर्युक्ता गुणैर्ब्रह्मविदः शुभाः ॥ १३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माके पुत्र जो कवि हैं, उनके पुत्रोंकी भी वारुण संज्ञा है। वे आठ हैं और सभी पुत्रोचित गुणोंसे सम्पन्न हैं। उन्हें शुभलक्षण एवं ब्रह्मज्ञानी माना गया है॥१३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कविः काव्यश्च धृष्णुश्च बुद्धिमानूशना तथा।
भृगुश्च विरजाश्चैव काशी चोग्रश्च धर्मवित् ॥ १३३ ॥

मूलम्

कविः काव्यश्च धृष्णुश्च बुद्धिमानूशना तथा।
भृगुश्च विरजाश्चैव काशी चोग्रश्च धर्मवित् ॥ १३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके नाम ये हैं—कवि, काव्य, धृष्णु, बुद्धिमान् शुक्राचार्य, भृगु, विरजा, काशी तथा धर्मज्ञ उग्र॥१३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टौ कविसुता ह्येते सर्वमेभिर्जगत् ततम्।
प्रजापतय एते हि प्रजाभागैरिह प्रजाः ॥ १३४ ॥

मूलम्

अष्टौ कविसुता ह्येते सर्वमेभिर्जगत् ततम्।
प्रजापतय एते हि प्रजाभागैरिह प्रजाः ॥ १३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये आठ कविके पुत्र हैं। इन सबके द्वारा यह सारा जगत् व्याप्त है। ये आठों प्रजापति हैं और प्रजाके गुणोंसे युक्त होनेके कारण प्रजा भी कहे गये हैं॥१३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमङ्गिरसश्चैव कवेश्च प्रसवान्वयैः ।
भृगोश्च भृगुशार्दूल वंशजैः सततं जगत् ॥ १३५ ॥

मूलम्

एवमङ्गिरसश्चैव कवेश्च प्रसवान्वयैः ।
भृगोश्च भृगुशार्दूल वंशजैः सततं जगत् ॥ १३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुश्रेष्ठ! इस प्रकार अंगिरा, कवि और भृगुके वंशजों तथा संतान-परम्पराओंसे सारा जगत् व्याप्त है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वरुणश्चादितो विप्र जग्राह प्रभुरीश्वरः।
कविं तात भृगुं चापि तस्मात्‌ तौ वारुणौ स्मृतौ॥१३६॥

मूलम्

वरुणश्चादितो विप्र जग्राह प्रभुरीश्वरः।
कविं तात भृगुं चापि तस्मात्‌ तौ वारुणौ स्मृतौ॥१३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! तात! प्रभावशाली जलेश्वर वरुणरूप शिवने पहले कवि और भृगुको पुत्ररूपसे ग्रहण किया था, इसलिये वे वारुण कहलाये॥१३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जग्राहांगिरसं देवः शिखी तस्माद्धुताशनः।
तस्मादांगिरसा ज्ञेयाः सर्व एव तदन्वयाः ॥ १३७ ॥

मूलम्

जग्राहांगिरसं देवः शिखी तस्माद्धुताशनः।
तस्मादांगिरसा ज्ञेयाः सर्व एव तदन्वयाः ॥ १३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्वालाओंसे सुशोभित होनेवाले अग्निदेवने वरुणरूप शिवसे अंगिराको पुत्ररूपमें प्राप्त किया; इसलिये अंगिराके वंशमें उत्पन्न हुए सभी पुत्र अग्निवंशी एवं वारुण नामसे भी जानने योग्य हैं॥१३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मा पितामहः पूर्वं देवताभिः प्रसादितः।
इमे नः संतरिष्यन्ति प्रजाभिर्जगतीश्वराः ॥ १३८ ॥
सर्वे प्रजानां पतयः सर्वे चातितपस्विनः।
त्वत्प्रसादादिमं लोकं तारयिष्यन्ति साम्प्रतम् ॥ १३९ ॥

मूलम्

ब्रह्मा पितामहः पूर्वं देवताभिः प्रसादितः।
इमे नः संतरिष्यन्ति प्रजाभिर्जगतीश्वराः ॥ १३८ ॥
सर्वे प्रजानां पतयः सर्वे चातितपस्विनः।
त्वत्प्रसादादिमं लोकं तारयिष्यन्ति साम्प्रतम् ॥ १३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें देवताओंने पितामह ब्रह्माको प्रसन्न किया और कहा—‘प्रभो! आप ऐसी कृपा कीजिये जिससे ये भृगु आदिके वंशज इस पृथ्वीका पालन करते हुए अपनी संतानोंद्वारा हमारा संकटसे उद्धार करें। ये सभी प्रजापति हों और सभी अत्यन्त तपस्वी हों। ये आपके कृपाप्रसादसे इस समय इस सम्पूर्ण लोकका संकटसे उद्धार करेंगे॥१३८-१३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव वंशकर्तारस्तव तेजोविवर्धनाः ।
भवेयुर्वेदविदुषः सर्वे च कृतिनस्तथा ॥ १४० ॥

मूलम्

तथैव वंशकर्तारस्तव तेजोविवर्धनाः ।
भवेयुर्वेदविदुषः सर्वे च कृतिनस्तथा ॥ १४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपकी दयासे ये सब लोग वंशप्रवर्तक, आपके तेजकी वृद्धि करनेवाले तथा वेदज्ञ पुण्यात्मा हों॥१४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवपक्षचराः सौम्याः प्राजापत्या महर्षयः।
आप्नुवन्ति तपश्चैव ब्रह्मचर्यं परं तथा ॥ १४१ ॥

मूलम्

देवपक्षचराः सौम्याः प्राजापत्या महर्षयः।
आप्नुवन्ति तपश्चैव ब्रह्मचर्यं परं तथा ॥ १४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इन सबका स्वभाव सौम्य हो। प्रजापतियोंके वंशमें उत्पन्न हुए ये महर्षिगण सदा देवताओंके पक्षमें रहें तथा तप और उत्तम ब्रह्मचर्यका बल प्राप्त करें॥१४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे हि वयमेते च तवैव प्रसवः प्रभो।
देवानां ब्राह्मणानां च त्वं हि कर्ता पितामह ॥ १४२ ॥

मूलम्

सर्वे हि वयमेते च तवैव प्रसवः प्रभो।
देवानां ब्राह्मणानां च त्वं हि कर्ता पितामह ॥ १४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! पितामह! ये सब और हमलोग आपहीकी संतान हैं; क्योंकि देवताओं और ब्राह्मणोंकी सृष्टि करनेवाले आप ही हैं॥१४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मारीचमादितः कृत्वा सर्वे चैवाथ भार्गवाः।
अपत्यानीति सम्प्रेक्ष्य क्षमयाम पितामह ॥ १४३ ॥

मूलम्

मारीचमादितः कृत्वा सर्वे चैवाथ भार्गवाः।
अपत्यानीति सम्प्रेक्ष्य क्षमयाम पितामह ॥ १४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पितामह! कश्यपसे लेकर समस्त भृगुवंशियोंतक हम सब लोग आपहीकी संतान हैं—ऐसा सोचकर आपसे अपनी भूलोंके लिये क्षमा चाहते हैं॥१४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते त्वनेनैव रूपेण प्रजनिष्यन्ति वै प्रजाः।
स्थापयिष्यन्ति चात्मानं युगादिनिधने तथा ॥ १४४ ॥

मूलम्

ते त्वनेनैव रूपेण प्रजनिष्यन्ति वै प्रजाः।
स्थापयिष्यन्ति चात्मानं युगादिनिधने तथा ॥ १४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे प्रजापतिगण इसी रूपसे प्रजाओंको उत्पन्न करेंगे और सृष्टिके प्रारम्भसे लेकर प्रलयपर्यन्त अपने-आपको मर्यादामें स्थापित किये रहेंगे’॥१४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स तदा तैस्तु ब्रह्मा लोकपितामहः।
तथेत्येवाब्रवीत् प्रीतस्तेऽपि जग्मुर्यथागतम् ॥ १४५ ॥

मूलम्

इत्युक्तः स तदा तैस्तु ब्रह्मा लोकपितामहः।
तथेत्येवाब्रवीत् प्रीतस्तेऽपि जग्मुर्यथागतम् ॥ १४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके ऐसा कहनेपर लोकपितामह ब्रह्मा प्रसन्न होकर बोले—‘तथास्तु (ऐसा ही हो)।’ तत्पश्चात् देवता जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये॥१४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतत् पुरा वृत्तं तस्य यज्ञे महात्मनः।
देवश्रेष्ठस्य लोकादौ वारुणीं बिभ्रतस्तनुम् ॥ १४६ ॥

मूलम्

एवमेतत् पुरा वृत्तं तस्य यज्ञे महात्मनः।
देवश्रेष्ठस्य लोकादौ वारुणीं बिभ्रतस्तनुम् ॥ १४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पूर्वकालमें जब कि सृष्टिके प्रारम्भका समय था, वरुण-शरीर धारण करनेवाले सुरश्रेष्ठ महात्मा रुद्रके यज्ञमें पूर्वोक्त वृत्तान्त घटित हुआ था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निर्ब्रह्मा पशुपतिः शर्वो रुद्रः प्रजापतिः।
अग्नेरपत्यमेतद् वै सुवर्णमिति धारणा ॥ १४७ ॥

मूलम्

अग्निर्ब्रह्मा पशुपतिः शर्वो रुद्रः प्रजापतिः।
अग्नेरपत्यमेतद् वै सुवर्णमिति धारणा ॥ १४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्नि ही ब्रह्मा, पशुपति, शर्व, रुद्र और प्रजापतिरूप हैं। यह सुवर्ण अग्निकी ही संतान है—ऐसी सबकी मान्यता है॥१४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्न्यभावे च कुरुते वह्निस्थानेषु काञ्चनम्।
जामदग्न्य प्रमाणज्ञो वेदश्रुतिनिदर्शनात् ॥ १४८ ॥

मूलम्

अग्न्यभावे च कुरुते वह्निस्थानेषु काञ्चनम्।
जामदग्न्य प्रमाणज्ञो वेदश्रुतिनिदर्शनात् ॥ १४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जमदग्निनन्दन परशुराम! वेद-प्रमाणका ज्ञाता पुरुष वैदिक श्रुतिके दृष्टान्तके अनुसार अग्निके अभावमें उसके स्थानपर सुवर्णका उपयोग करता है॥१४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुशस्तम्बे जुहोत्यग्निं सुवर्णे तत्र च स्थिते।
वल्मीकस्य वपायां च कर्णे वाजस्य दक्षिणे ॥ १४९ ॥
शकटोर्व्यां परस्याप्सु ब्राह्मणस्य करे तथा।
हुते प्रीतिकरीमृद्धिं भगवांस्तत्र मन्यते ॥ १५० ॥

मूलम्

कुशस्तम्बे जुहोत्यग्निं सुवर्णे तत्र च स्थिते।
वल्मीकस्य वपायां च कर्णे वाजस्य दक्षिणे ॥ १४९ ॥
शकटोर्व्यां परस्याप्सु ब्राह्मणस्य करे तथा।
हुते प्रीतिकरीमृद्धिं भगवांस्तत्र मन्यते ॥ १५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुशोंके समूहपर, उसपर रखे हुए सुवर्णपर, बाँबीके छिद्रमें, बकरेके दाहिने कानपर, जिस मार्गसे छकड़ा आता-जाता हो उस भूमिपर, दूसरेके जलाशयमें तथा ब्राह्मणके हाथपर वैदिक प्रमाण माननेवाले पुरुष अग्निस्वरूप मानकर होम आदि कर्म करते हैं और वह होमकार्य सम्पन्न होनेपर भगवान् अग्निदेव आनन्ददायिनी समृद्धिका अनुभव करते हैं॥१४९-१५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादग्निपराः सर्वे देवता इति शुश्रुम।
ब्रह्मणो हि प्रभूतोऽग्निरग्नेरपि च काञ्चनम् ॥ १५१ ॥

मूलम्

तस्मादग्निपराः सर्वे देवता इति शुश्रुम।
ब्रह्मणो हि प्रभूतोऽग्निरग्नेरपि च काञ्चनम् ॥ १५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः सब देवताओंमें अग्नि ही श्रेष्ठ हैं। यह हमने सुना है। ब्रह्मासे अग्निकी उत्पत्ति भी है और अग्निसे सुवर्णकी॥१५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् ये वै प्रयच्छन्ति सुवर्णं धर्मदर्शिनः।
देवतास्ते प्रयच्छन्ति समस्ता इति नः श्रुतम् ॥ १५२ ॥

मूलम्

तस्माद् ये वै प्रयच्छन्ति सुवर्णं धर्मदर्शिनः।
देवतास्ते प्रयच्छन्ति समस्ता इति नः श्रुतम् ॥ १५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये जो धर्मदर्शी पुरुष सुवर्णका दान करते हैं; वे समस्त देवताओंका ही दान करते हैं, यह हमारे सुननेमें आया है॥१५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य चातमसो लोका गच्छतः परमां गतिम्।
स्वर्लोके राजराज्येन सोऽभिषिच्येत भार्गव ॥ १५३ ॥

मूलम्

तस्य चातमसो लोका गच्छतः परमां गतिम्।
स्वर्लोके राजराज्येन सोऽभिषिच्येत भार्गव ॥ १५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुवर्णदाता परमगतिको प्राप्त होता है, उसे अन्धकाररहित ज्योतिर्मय लोक मिलते हैं। भृगुनन्दन! स्वर्गलोकमें उसका राजाधिराज (कुबेर) के पदपर अभिषेक किया जाता है॥१५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदित्योदयसम्प्राप्ते विधिमन्त्रपुरस्कृतम् ।
ददाति काञ्चनं यो वै दुःस्वप्नं प्रतिहन्ति सः ॥ १५४ ॥

मूलम्

आदित्योदयसम्प्राप्ते विधिमन्त्रपुरस्कृतम् ।
ददाति काञ्चनं यो वै दुःस्वप्नं प्रतिहन्ति सः ॥ १५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सूर्योदय-कालमें विधिपूर्वक मन्त्र पढ़कर सुवर्णका दान करता है, वह अपने पाप और दुःस्वप्नको नष्ट कर डालता है॥१५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददात्युदितमात्रे यस्तस्य पाप्मा विधूयते।
मध्याह्ने ददतो रुक्मं हन्ति पापमनागतम् ॥ १५५ ॥

मूलम्

ददात्युदितमात्रे यस्तस्य पाप्मा विधूयते।
मध्याह्ने ददतो रुक्मं हन्ति पापमनागतम् ॥ १५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्योदयके समय जो सुवर्णदान करता है, उसका सारा पाप धुल जाता है, तथा जो मध्याह्नकालमें सोना दान करता है, वह अपने भविष्य पापोंका नाश कर देता है॥१५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददाति पश्चिमां संध्यां यः सुवर्णं यतव्रतः।
ब्रह्मवाय्वग्निसोमानां सालोक्यमुपयाति सः ॥ १५६ ॥

मूलम्

ददाति पश्चिमां संध्यां यः सुवर्णं यतव्रतः।
ब्रह्मवाय्वग्निसोमानां सालोक्यमुपयाति सः ॥ १५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सायं संध्याके समय व्रतका पालन करते हुए सुवर्ण दान देता है, वह ब्रह्मा, वायु, अग्नि और चन्द्रमाके लोकोंमें जाता है॥१५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेन्द्रेषु चैव लोकेषु प्रतिष्ठां विन्दते शुभाम्।
इह लोके यशः प्राप्य शान्तपाप्मा च मोदते ॥ १५७ ॥

मूलम्

सेन्द्रेषु चैव लोकेषु प्रतिष्ठां विन्दते शुभाम्।
इह लोके यशः प्राप्य शान्तपाप्मा च मोदते ॥ १५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रसहित सभी लोकपालोंके लोकोंमें उसे शुभ सम्मान प्राप्त होता है। साथ ही वह इस लोकमें यशस्वी एवं पापरहित होकर आनन्द भोगता है॥१५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सम्पद्यतेऽन्येषु लोकेष्वप्रतिमः सदा।
अनावृतगतिश्चैव कामचारो भवत्युत ॥ १५८ ॥

मूलम्

ततः सम्पद्यतेऽन्येषु लोकेष्वप्रतिमः सदा।
अनावृतगतिश्चैव कामचारो भवत्युत ॥ १५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मृत्युके पश्चात् जब वह परलोकमें जाता है, तब वहाँ अनुपम पुण्यात्मा समझा जाता है। कहीं भी उसकी गतिका प्रतिरोध नहीं होता और वह इच्छानुसार जहाँ चाहता है, विचरता रहता है॥।१५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च क्षरति तेभ्यश्च यशश्चैवाप्नुते महत्।
सुवर्णमक्षयं दत्त्वा लोकांश्चाप्नोति पुष्कलान् ॥ १५९ ॥

मूलम्

न च क्षरति तेभ्यश्च यशश्चैवाप्नुते महत्।
सुवर्णमक्षयं दत्त्वा लोकांश्चाप्नोति पुष्कलान् ॥ १५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुवर्ण अक्षय द्रव्य है, उसका दान करनेवाले मनुष्यको पुण्यलोकोंसे नीचे नहीं आना पड़ता। संसारमें उसे महान् यशकी प्राप्ति होती है तथा परलोकमें उसे अनेक समृद्धिशाली पुण्यलोक प्राप्त होते हैं॥१५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु संजनयित्वाग्निमादित्योदयनं प्रति ।
दद्याद् वै व्रतमुद्दिश्य सर्वकामान् समश्नुते ॥ १६० ॥

मूलम्

यस्तु संजनयित्वाग्निमादित्योदयनं प्रति ।
दद्याद् वै व्रतमुद्दिश्य सर्वकामान् समश्नुते ॥ १६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य सूर्योदयके समय अग्नि प्रकट करके किसी व्रतके उद्देश्यसे सुवर्णदान करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है॥१६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निमित्येव तत् प्राहुः प्रदानं च सुखावहम्।
यथेष्टगुणसंवृत्तं प्रवर्तकमिति स्मृतम् ॥ १६१ ॥

मूलम्

अग्निमित्येव तत् प्राहुः प्रदानं च सुखावहम्।
यथेष्टगुणसंवृत्तं प्रवर्तकमिति स्मृतम् ॥ १६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुवर्णको अग्निस्वरूप ही कहते हैं। उसका दान सुख देनेवाला होता है। वह यथेष्ट पुण्यको उत्पन्न करने-वाला और दानेच्छाका प्रवर्तक माना गया है॥१६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा सुवर्णस्योत्पत्तिः कथिता ते मयानघ।
कार्तिकेयस्य च विभो तद् विद्धि भृगुनन्दन ॥ १६२ ॥

मूलम्

एषा सुवर्णस्योत्पत्तिः कथिता ते मयानघ।
कार्तिकेयस्य च विभो तद् विद्धि भृगुनन्दन ॥ १६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! निष्पाप भृगुनन्दन! यह मैंने तुम्हें सुवर्ण और कार्तिकेयकी उत्पत्ति बतायी है। इसे अच्छी तरह समझ लो॥१६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्तिकेयस्तु संवृद्धः कालेन महता तदा।
देवैः सेनापतित्वेन वृतः सेन्द्रैर्भृगूद्वह ॥ १६३ ॥

मूलम्

कार्तिकेयस्तु संवृद्धः कालेन महता तदा।
देवैः सेनापतित्वेन वृतः सेन्द्रैर्भृगूद्वह ॥ १६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुश्रेष्ठ! कार्तिकेय जब दीर्घकालमें बड़े हुए तब इन्द्र आदि देवताओंने उनका अपने सेनापतिके पदपर वरण किया॥१६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जघान तारकं चापि दैत्यमन्यांस्तथासुरान्।
त्रिदशेन्द्राज्ञया ब्रह्मल्ँलोकानां हितकाम्यया ॥ १६४ ॥

मूलम्

जघान तारकं चापि दैत्यमन्यांस्तथासुरान्।
त्रिदशेन्द्राज्ञया ब्रह्मल्ँलोकानां हितकाम्यया ॥ १६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! उन्होंने लोकोंके हितकी कामना एवं देवराज इन्द्रकी आज्ञासे प्रेरित हो तारकासुर तथा अन्य दैत्योंका संहार कर डाला॥१६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवर्णदाने च मया कथितास्ते गुणा विभो।
तस्मात् सुवर्णं विप्रेभ्यः प्रयच्छ ददतां वर ॥ १६५ ॥

मूलम्

सुवर्णदाने च मया कथितास्ते गुणा विभो।
तस्मात् सुवर्णं विप्रेभ्यः प्रयच्छ ददतां वर ॥ १६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! दाताओंमें श्रेष्ठ! इस प्रकार मैंने तुम्हें सुवर्णदानका माहात्म्य बताया है। इसलिये अब तुम ब्राह्मणोंको सुवर्णका दान करो॥१६५॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स वसिष्ठेन जामदग्न्यः प्रतापवान्।
ददै सुवर्णं विप्रेभ्यो व्यमुच्यत च किल्बिषात् ॥ १६६ ॥

मूलम्

इत्युक्तः स वसिष्ठेन जामदग्न्यः प्रतापवान्।
ददै सुवर्णं विप्रेभ्यो व्यमुच्यत च किल्बिषात् ॥ १६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! वसिष्ठजीके ऐसा कहनेपर प्रतापी परशुरामजीने ब्राह्मणोंको सुवर्णका दान किया। इससे वे सब पापोंसे छुटकारा पा गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् ते सर्वमाख्यातं सुवर्णस्य महीपते।
प्रदानस्य फलं चैव जन्म चास्य युधिष्ठिर ॥ १६७ ॥

मूलम्

एतत् ते सर्वमाख्यातं सुवर्णस्य महीपते।
प्रदानस्य फलं चैव जन्म चास्य युधिष्ठिर ॥ १६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिर! इस प्रकार मैंने तुम्हें सुवर्णकी उत्पत्ति और उसके दानका फल यह सब कुछ बता दिया॥१६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् त्वमपि विप्रेभ्यः प्रयच्छ कनकं बहु।
ददत्सुवर्णं नृपते किल्बिषाद् विप्रमोक्ष्यसि ॥ १६८ ॥

मूलम्

तस्मात् त्वमपि विप्रेभ्यः प्रयच्छ कनकं बहु।
ददत्सुवर्णं नृपते किल्बिषाद् विप्रमोक्ष्यसि ॥ १६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः नरेश्वर! अब तुम भी ब्राह्मणोंको बहुत-सा सुवर्ण दान करो। सुवर्ण दान करके तुम पापसे मुक्त हो जाओगे॥१६८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सुवर्णोत्पत्तिर्नाम पञ्चाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें सुवर्णकी उत्पत्तिविषयक पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८५॥

Misc Detail