०८२ श्रीगोसंवादः

भागसूचना

द्व्यशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

लक्ष्मी और गौओंका संवाद तथा लक्ष्मीकी प्रार्थनापर गौओंके द्वारा गोबर और गोमूत्रमें लक्ष्मीको निवासके लिये स्थान दिया जाना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया गवां पुरीषं वै श्रिया जुष्टमिति श्रुतम्।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं संशयोऽत्र पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

मया गवां पुरीषं वै श्रिया जुष्टमिति श्रुतम्।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं संशयोऽत्र पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— पितामह! मैंने सुना है कि गौओंके गोबरमें लक्ष्मीका निवास है; किंतु इस विषयमें मुझे संदेह है; अतः इसके सम्बन्धमें मैं यथार्थ बात सुनना चाहता हूँ॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गोभिर्नृपेह संवादं श्रिया भरतसत्तम ॥ २ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गोभिर्नृपेह संवादं श्रिया भरतसत्तम ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— भरतश्रेष्ठ! नरेश्वर! इस विषयमें विज्ञ पुरुष गौ और लक्ष्मीके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीः कृत्वेह वपुः कान्तं गोमध्येषु विवेश ह।
गावोऽथ विस्मितास्तस्या दृष्ट्वा रूपस्य सम्पदम् ॥ ३ ॥

मूलम्

श्रीः कृत्वेह वपुः कान्तं गोमध्येषु विवेश ह।
गावोऽथ विस्मितास्तस्या दृष्ट्वा रूपस्य सम्पदम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समयकी बात है, लक्ष्मीने मनोहर रूप धारण करके गौओंके झुंडमें प्रवेश किया। उनके रूप-वैभवको देखकर गौएँ आश्चर्यचकित हो उठीं॥३॥

मूलम् (वचनम्)

गाव ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

कासि देवि कुतो वा त्वं रूपेणाप्रतिमा भुवि।
विस्मिताः स्म महाभागे तव रूपस्य सम्पदा ॥ ४ ॥

मूलम्

कासि देवि कुतो वा त्वं रूपेणाप्रतिमा भुवि।
विस्मिताः स्म महाभागे तव रूपस्य सम्पदा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौओंने पूछा— देवि! तुम कौन हो और कहाँसे आयी हो? इस पृथ्वीपर तुम्हारे रूपकी कहीं तुलना नहीं है। महाभागे! तुम्हारी इस रूप-सम्पत्तिसे हमलोग बड़े आश्चर्यमें पड़ गये हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इच्छाम त्वां वयं ज्ञातुं का त्वं क्व च गमिष्यसि।
तत्त्वेन वरवर्णाभे सर्वमेतद् ब्रवीहि नः ॥ ५ ॥

मूलम्

इच्छाम त्वां वयं ज्ञातुं का त्वं क्व च गमिष्यसि।
तत्त्वेन वरवर्णाभे सर्वमेतद् ब्रवीहि नः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये हम तुम्हारा परिचय जानना चाहती हैं। तुम कौन हो और कहाँ जाओगी? वरवर्णिनि! ये सारी बातें हमें ठीक-ठीक बताओ॥५॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोककान्तास्मि भद्रं वः श्रीर्नामाहं परिश्रुता।
मया दैत्याः परित्यक्ता विनष्टाः शाश्वतीः समाः ॥ ६ ॥

मूलम्

लोककान्तास्मि भद्रं वः श्रीर्नामाहं परिश्रुता।
मया दैत्याः परित्यक्ता विनष्टाः शाश्वतीः समाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मी बोलीं— गौओ! तुम्हारा कल्याण हो। मैं इस जगत्‌में लक्ष्मी नामसे प्रसिद्ध हूँ। सारा जगत् मेरी कामना करता है। मैंने दैत्योंको छोड़ दिया, इसलिये वे सदाके लिये नष्ट हो गये हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयाभिपन्ना देवाश्च मोदन्ते शाश्वतीः समाः।
इन्द्रो विवस्वान् सोमश्च विष्णुरापोऽग्निरेव च ॥ ७ ॥

मूलम्

मयाभिपन्ना देवाश्च मोदन्ते शाश्वतीः समाः।
इन्द्रो विवस्वान् सोमश्च विष्णुरापोऽग्निरेव च ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे ही आश्रयमें रहनेके कारण इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु, जलके अधिष्ठाता देवता वरुण और अग्नि आदि देवता सदा आनन्द भोग रहे हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयाभिपन्नाः सिध्यन्ते ऋषयो देवतास्तथा।
यान् नाविशाम्यहं गावस्ते विनश्यन्ति सर्वशः ॥ ८ ॥

मूलम्

मयाभिपन्नाः सिध्यन्ते ऋषयो देवतास्तथा।
यान् नाविशाम्यहं गावस्ते विनश्यन्ति सर्वशः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओं तथा ऋषियोंको मुझसे अनुगृहीत होनेपर ही सिद्धि मिलती है। गौओ! जिनके शरीरमें मैं प्रवेश नहीं करती, वे सर्वथा नष्ट हो जाते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मश्चार्थश्च कामश्च मया जुष्टाः सुखान्विताः।
एवंप्रभावं मां गावो विजानीत सुखप्रदाः ॥ ९ ॥

मूलम्

धर्मश्चार्थश्च कामश्च मया जुष्टाः सुखान्विताः।
एवंप्रभावं मां गावो विजानीत सुखप्रदाः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म, अर्थ और काम मेरा सहयोग पाकर ही सुखद होते हैं; अतः सुखदायिनी गौओ! मुझे ऐसे ही प्रभावसे सम्पन्न समझो॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इच्छामि चापि युष्मासु वस्तुं सर्वासु नित्यदा।
आगत्य प्रार्थये युष्मान् श्रीजुष्टा भवताथ वै ॥ १० ॥

मूलम्

इच्छामि चापि युष्मासु वस्तुं सर्वासु नित्यदा।
आगत्य प्रार्थये युष्मान् श्रीजुष्टा भवताथ वै ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तुम सब लोगोंके भीतर भी सदा निवास करना चाहती हूँ और इसके लिये स्वयं ही तुम्हारे पास आकर प्रार्थना करती हूँ। तुमलोग मेरा आश्रय पाकर श्रीसम्पन्न हो जाओ॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

गाव ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्रुवा चपला च त्वं सामान्या बहुभिः सह।
न त्वामिच्छाम भद्रं ते गम्यतां यत्र रंस्यसे ॥ ११ ॥

मूलम्

अध्रुवा चपला च त्वं सामान्या बहुभिः सह।
न त्वामिच्छाम भद्रं ते गम्यतां यत्र रंस्यसे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौओंने कहा— देवि! तुम चंचला हो। कहीं भी स्थिर होकर नहीं रहती। इसके सिवा तुम्हारा बहुतोंके साथ एक-सा सम्बन्ध है; इसलिये हम तुम्हें नहीं चाहती हैं। तुम्हारा कल्याण हो। तुम जहाँ आनन्दपूर्वक रह सको, जाओ॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वपुष्मन्त्यो वयं सर्वाः किमस्माकं त्वयाद्य वै।
यथेष्टं गम्यतां तत्र कृतकार्या वयं त्वया ॥ १२ ॥

मूलम्

वपुष्मन्त्यो वयं सर्वाः किमस्माकं त्वयाद्य वै।
यथेष्टं गम्यतां तत्र कृतकार्या वयं त्वया ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारा शरीर तो यों ही हृष्ट-पुष्ट और सुन्दर है। हमें तुमसे क्या काम? तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ। तुमने दर्शन दिया, इतनेहीसे हम कृतार्थ हो गयीं॥१२॥

सूचना (हिन्दी)

भगवती लक्ष्मीकी गौओंसे आश्रयके लिये प्रार्थना

मूलम् (वचनम्)

श्रीरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमेतद् वः क्षमं गावो यन्मां नेहाभिनन्दथ।
न मां सम्प्रति गृह्णीध्वं कस्माद् वै दुर्लभां सतीम्॥१३॥

मूलम्

किमेतद् वः क्षमं गावो यन्मां नेहाभिनन्दथ।
न मां सम्प्रति गृह्णीध्वं कस्माद् वै दुर्लभां सतीम्॥१३॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मीजीने कहा— गौओ! यह क्या बात है? क्या यही तुम्हारे लिये उचित है कि तुम मेरा अभिनन्दन नहीं करती? मैं सती-साध्वी हूँ, दुर्लभ हूँ। फिर भी इस समय तुम मुझे स्वीकार क्यों नहीं करती?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं च लोकवादोऽयं लोके चरति सुव्रताः।
स्वयं प्राप्ते परिभवो भवतीति विनिश्चयः ॥ १४ ॥

मूलम्

सत्यं च लोकवादोऽयं लोके चरति सुव्रताः।
स्वयं प्राप्ते परिभवो भवतीति विनिश्चयः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तम व्रतका पालन करनेवाली गौओ! लोकमें जो यह प्रवाद चल रहा है कि ‘बिना बुलाये स्वयं किसीके यहाँ जानेपर निश्चय ही अनादर होता है।’ यह ठीक ही जान पड़ता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महदुग्रं तपः कृत्वा मां निषेवन्ति मानवाः।
देवदानवगन्धर्वाः पिशाचोरगराक्षसाः ॥ १५ ॥

मूलम्

महदुग्रं तपः कृत्वा मां निषेवन्ति मानवाः।
देवदानवगन्धर्वाः पिशाचोरगराक्षसाः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, नाग, राक्षस और मनुष्य बड़ी उग्र तपस्या करके मेरी सेवाका सौभाग्य प्राप्त करते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाव एष वो गावः प्रतिगृह्णीत मामिह।
नावमन्या ह्यहं सौम्यास्त्रैलोक्ये सचराचरे ॥ १६ ॥

मूलम्

प्रभाव एष वो गावः प्रतिगृह्णीत मामिह।
नावमन्या ह्यहं सौम्यास्त्रैलोक्ये सचराचरे ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौम्य स्वभाववाली गौओ! यह तुम्हारा प्रभाव है कि मैं स्वयं तुम्हारे पास आयी हूँ। अतः तुम मुझे यहाँ ग्रहण करो। चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकीमें कहीं भी मैं अपमान पानेके योग्य नहीं हूँ॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

गाव ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

नावमन्यामहे देवि न त्वां परिभवामहे।
अध्रुवा चलचित्तासि ततस्त्वां वर्जयामहे ॥ १७ ॥

मूलम्

नावमन्यामहे देवि न त्वां परिभवामहे।
अध्रुवा चलचित्तासि ततस्त्वां वर्जयामहे ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौओंने कहा— देवि! हम तुम्हारा अपमान या अनादर नहीं करतीं। केवल तुम्हारा त्याग कर रही हैं। वह भी इसलिये कि तुम्हारा चित्त चंचल है। तुम कहीं भी स्थिर होकर नहीं रहती॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुना च किमुक्तेन गम्यतां यत्र वाञ्छसि।
वपुष्मन्त्यो वयं सर्वाः किमस्माकं त्वयानघे ॥ १८ ॥

मूलम्

बहुना च किमुक्तेन गम्यतां यत्र वाञ्छसि।
वपुष्मन्त्यो वयं सर्वाः किमस्माकं त्वयानघे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें बहुत बात करनेसे क्या लाभ? तुम जहाँ जाना चाहो—चली जाओ। अनघे! हम सब लोगोंका शरीर तो यों ही हृष्ट-पुष्ट और सुन्दर है; अतः तुमसे हमें क्या काम है?॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवज्ञाता भविष्यामि सर्वलोकस्य मानदाः।
प्रत्याख्यानेन युष्माकं प्रसादः क्रियतां मम ॥ १९ ॥

मूलम्

अवज्ञाता भविष्यामि सर्वलोकस्य मानदाः।
प्रत्याख्यानेन युष्माकं प्रसादः क्रियतां मम ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मीने कहा— दूसरोंको सम्मान देनेवाली गौओ! तुम्हारे त्याग देनेसे मैं सम्पूर्ण जगत्‌के लिये अवहेलित और उपेक्षित हो जाऊँगी, इसलिये मुझपर कृपा करो॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाभागा भवत्यो वै शरण्याः शरणागताम्।
परित्रायन्तु मां नित्यं भजमानामनिन्दिताम् ॥ २० ॥

मूलम्

महाभागा भवत्यो वै शरण्याः शरणागताम्।
परित्रायन्तु मां नित्यं भजमानामनिन्दिताम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम महान् सौभाग्यशालिनी और सबको शरण देनेवाली हो। मैं भी तुम्हारी शरणमें आयी हूँ। तुम्हारी भक्त हूँ। मुझमें कोई दोष भी नहीं है; अतः तुम मेरी रक्षा करो—मुझे अपना लो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माननामहमिच्छामि भवत्यः सततं शिवाः।
अप्येकांगेष्वधो वस्तुमिच्छामि च सुकुत्सिते ॥ २१ ॥

मूलम्

माननामहमिच्छामि भवत्यः सततं शिवाः।
अप्येकांगेष्वधो वस्तुमिच्छामि च सुकुत्सिते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौओ! मैं तुमसे सम्मान चाहती हूँ। तुम सदा सबका कल्याण करनेवाली हो। तुम्हारे किसी एक अंगमें, नीचेके कुत्सित अंगमें भी यदि स्थान मिल जाय तो मैं उसमें रहना चाहती हूँ॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वोऽस्ति कुत्सितं किंचिदंगेष्वालक्ष्यतेऽनघाः।
पुण्याः पवित्राः सुभगा ममादेशं प्रयच्छथ ॥ २२ ॥
वसेयं यत्र वो देहे तन्मे व्याख्यातुमर्हथ।

मूलम्

न वोऽस्ति कुत्सितं किंचिदंगेष्वालक्ष्यतेऽनघाः।
पुण्याः पवित्राः सुभगा ममादेशं प्रयच्छथ ॥ २२ ॥
वसेयं यत्र वो देहे तन्मे व्याख्यातुमर्हथ।

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप गौओ! वास्तवमें तुम्हारे अंगोंमें कहीं कोई कुत्सित स्थान नहीं दिखायी देता। तुम परम पुण्यमयी, पवित्र और सौभाग्यशालिनी हो। अतः मुझे आज्ञा दो। तुम्हारे शरीरमें जहाँ मैं रह सकूँ, उसके लिये मुझे स्पष्ट बताओ॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तास्ततो गावः शुभाः करुणवत्सलाः।
सम्मन्त्र्य सहिताः सर्वाः श्रियमूचुर्नराधिप ॥ २३ ॥

मूलम्

एवमुक्तास्ततो गावः शुभाः करुणवत्सलाः।
सम्मन्त्र्य सहिताः सर्वाः श्रियमूचुर्नराधिप ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! लक्ष्मीके ऐसा कहनेपर करुणा और वात्सल्यकी मूर्ति शुभस्वरूपा गौओंने एक साथ मिलकर सलाह की; फिर सबने लक्ष्मीसे कहा—॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवश्यं मानना कार्या तवास्माभिर्यशस्विनि।
शकृन्मूत्रे निवस त्वं पुण्यमेतद्धि नः शुभे ॥ २४ ॥

मूलम्

अवश्यं मानना कार्या तवास्माभिर्यशस्विनि।
शकृन्मूत्रे निवस त्वं पुण्यमेतद्धि नः शुभे ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शुभे! यशस्विनि! अवश्य ही हमें तुम्हारा सम्मान करना चाहिये। तुम हमारे गोबर और मूत्रमें निवास करो; क्योंकि हमारी ये दोनों वस्तुएँ परम पवित्र हैं’॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्‌या प्रसादो युष्माभिः कृतो मेऽनुग्रहात्मकः।
एवं भवतु भद्रं वः पूजितास्मि सुखप्रदाः ॥ २५ ॥

मूलम्

दिष्ट्‌या प्रसादो युष्माभिः कृतो मेऽनुग्रहात्मकः।
एवं भवतु भद्रं वः पूजितास्मि सुखप्रदाः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मीने कहा— सुखदायिनी गौओ! धन्यभाग्य जो तुमलोगोंने मुझपर अपना कृपापूर्ण प्रसाद प्रकट किया। ऐसा ही होगा—मैं तुम्हारे गोबर और मूत्रमें ही निवास करूँगी। तुमने मेरा मान रख लिया, अतः तुम्हारा कल्याण हो॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं कृत्वा तु समयं श्रीर्गोभिः सह भारत।
पश्यन्तीनां ततस्तासां तत्रैवान्तरधीयत ॥ २६ ॥

मूलम्

एवं कृत्वा तु समयं श्रीर्गोभिः सह भारत।
पश्यन्तीनां ततस्तासां तत्रैवान्तरधीयत ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! इस प्रकार गौओंके साथ प्रतिज्ञा करके लक्ष्मीजी उनके देखते-देखते वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं गोशकृतः पुत्र माहात्म्यं तेऽनुवर्णितम्।
माहात्म्यं च गवां भूयः श्रूयतां गदतो मम ॥ २७ ॥

मूलम्

एवं गोशकृतः पुत्र माहात्म्यं तेऽनुवर्णितम्।
माहात्म्यं च गवां भूयः श्रूयतां गदतो मम ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! इस तरह मैंने तुमसे गोबरका माहात्म्य बतलाया है। अब पुनः गौओंका माहात्म्य बतला रहा हूँ, सुनो॥२७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि श्रीगोसंवादो नाम द्व्यशीतितमोऽध्यायः ॥ ८२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें लक्ष्मी और गौओंका संवादनामक बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८२॥