भागसूचना
अशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
गौओं तथा गोदानकी महिमा
मूलम् (वचनम्)
वसिष्ठ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
घृतक्षीरप्रदा गावो घृतयोन्यो घृतोद्भवाः।
घृतनद्यो घृतावर्तास्ता मे सन्तु सदा गृहे ॥ १ ॥
घृतं मे हृदये नित्यं घृतं नाभ्यां प्रतिष्ठितम्।
घृतं सर्वेषु गात्रेषु घृतं मे मनसि स्थितम् ॥ २ ॥
गावो ममाग्रतो नित्यं गावः पृष्ठत एव च।
गावो मे सर्वतश्चैव गवां मध्ये वसाम्यहम् ॥ ३ ॥
इत्याचम्य जपेत् सायं प्रातश्च पुरुषः सदा।
यदह्ना कुरुते पापं तस्मात् स परिमुच्यते ॥ ४ ॥
मूलम्
घृतक्षीरप्रदा गावो घृतयोन्यो घृतोद्भवाः।
घृतनद्यो घृतावर्तास्ता मे सन्तु सदा गृहे ॥ १ ॥
घृतं मे हृदये नित्यं घृतं नाभ्यां प्रतिष्ठितम्।
घृतं सर्वेषु गात्रेषु घृतं मे मनसि स्थितम् ॥ २ ॥
गावो ममाग्रतो नित्यं गावः पृष्ठत एव च।
गावो मे सर्वतश्चैव गवां मध्ये वसाम्यहम् ॥ ३ ॥
इत्याचम्य जपेत् सायं प्रातश्च पुरुषः सदा।
यदह्ना कुरुते पापं तस्मात् स परिमुच्यते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसिष्ठजी कहते हैं— राजन्! मनुष्यको चाहिये कि सदा सबेरे और सायंकाल आचमन करके इस प्रकार जप करे—‘घी और दूध देनेवाली, घीकी उत्पत्तिका स्थान, घीको प्रकट करनेवाली, घीकी नदी तथा घीकी भवँररूप गौएँ मेरे घरमें सदा निवास करें। गौका घी मेरे हृदयमें सदा स्थित रहे। घी मेरी नाभिमें प्रतिष्ठित हो। घी मेरे सम्पूर्ण अंगोंमें व्याप्त रहे और घी मेरे मनमें स्थित हो। गौएँ मेरे आगे रहें। गौंएँ मेरे पीछे भी रहें। गौएँ मेरे चारों ओर रहें और मैं गौओंके बीचमें निवास करूँ।’ इस प्रकार प्रतिदिन जप करनेवाला मनुष्य दिनभरमें जो पाप करता है, उससे छुटकारा पा जाता है॥१—४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रासादा यत्र सौवर्णा वसोर्धारा च यत्र सा।
गन्धर्वाप्सरसो यत्र तत्र यान्ति सहस्रदाः ॥ ५ ॥
मूलम्
प्रासादा यत्र सौवर्णा वसोर्धारा च यत्र सा।
गन्धर्वाप्सरसो यत्र तत्र यान्ति सहस्रदाः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहस्र गौओंका दान करनेवाले मनुष्य जहाँ सोनेके महल हैं, जहाँ स्वर्गगंगा बहती हैं तथा जहाँ गन्धर्व और अप्सराएँ निवास करती हैं, उस स्वर्गलोकमें जाते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नवनीतपङ्काः क्षीरोदा दधिशैवलसंकुलाः ।
वहन्ति यत्र वै नद्यस्तत्र यान्ति सहस्रदाः ॥ ६ ॥
मूलम्
नवनीतपङ्काः क्षीरोदा दधिशैवलसंकुलाः ।
वहन्ति यत्र वै नद्यस्तत्र यान्ति सहस्रदाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहस्र गौओंका दान करनेवाले पुरुष जहाँ दूधके जलसे भरी हुई, दहीके सेवारसे व्याप्त हुई तथा मक्खनरूपी कीचड़से युक्त हुई नदियाँ बहती हैं, वहीं जाते हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गवां शतसहस्रं तु यः प्रयच्छेद् यथाविधि।
परां वृद्धिमवाप्याथ स्वर्गलोके महीयते ॥ ७ ॥
मूलम्
गवां शतसहस्रं तु यः प्रयच्छेद् यथाविधि।
परां वृद्धिमवाप्याथ स्वर्गलोके महीयते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो विधिपूर्वक एक लाख गौओंका दान करता है, वह अत्यन्त अभ्युदयको पाकर स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दश चोभयतः पुत्रो मातापित्रोः पितामहान्।
दधाति सुकृतान् लोकान् पुनाति च कुलं नरः ॥ ८ ॥
मूलम्
दश चोभयतः पुत्रो मातापित्रोः पितामहान्।
दधाति सुकृतान् लोकान् पुनाति च कुलं नरः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह मनुष्य अपने माता और पिताकी दस-दस पीढ़ियोंको पवित्र करके उन्हें पुण्यमय लोकोंमें भेजता है और अपने कुलको भी पवित्र कर देता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धेन्वाः प्रमाणेन समप्रमाणां
धेनुं तिलानामपि च प्रदाय।
पानीयदाता च यमस्य लोके
न यातनां काञ्चिदुपैति तत्र ॥ ९ ॥
मूलम्
धेन्वाः प्रमाणेन समप्रमाणां
धेनुं तिलानामपि च प्रदाय।
पानीयदाता च यमस्य लोके
न यातनां काञ्चिदुपैति तत्र ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो गायके बराबर तिलकी गाय बनाकर उसका दान करता है, अथवा जो जलधेनुका दान करता है, उसे यमलोकमें जाकर वहाँकी कोई यातना नहीं भोगनी पड़ती है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवित्रमग्र्यं जगतः प्रतिष्ठा
दिवौकसां मातरोऽथाप्रमेयाः ।
अन्वालभेद् दक्षिणतो व्रजेच्च
दद्याच्च पात्रे प्रसमीक्ष्य कालम् ॥ १० ॥
मूलम्
पवित्रमग्र्यं जगतः प्रतिष्ठा
दिवौकसां मातरोऽथाप्रमेयाः ।
अन्वालभेद् दक्षिणतो व्रजेच्च
दद्याच्च पात्रे प्रसमीक्ष्य कालम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौ सबसे अधिक पवित्र, जगत्का आधार और देवताओंकी माता है। उसकी महिमा अप्रमेय है। उसका सादर स्पर्श करे और उसे दाहिने रखकर चले तथा उत्तम समय देखकर उसका सुपात्र ब्राह्मणको दान करे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धेनुं सवत्सां कपिलां भूरिशृंगीं
कांस्योपदोहां वसनोत्तरीयाम् ।
प्रदाय तां गाहति दुर्विगाह्यां
याम्यां सभां वीतभयो मनुष्यः ॥ ११ ॥
मूलम्
धेनुं सवत्सां कपिलां भूरिशृंगीं
कांस्योपदोहां वसनोत्तरीयाम् ।
प्रदाय तां गाहति दुर्विगाह्यां
याम्यां सभां वीतभयो मनुष्यः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो बड़े-बड़े सींगोंवाली कपिला धेनुको वस्त्र ओढ़ाकर उसे बछड़े और काँसीकी दोहनीसहित ब्राह्मणको दान करता है, वह मनुष्य यमराजकी दुर्गम सभामें निर्भय होकर प्रवेश करता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरूपा बहूरूपाश्च विश्वरूपाश्च मातरः।
गावो मामुपतिष्ठन्तामिति नित्यं प्रकीर्तयेत् ॥ १२ ॥
मूलम्
सुरूपा बहूरूपाश्च विश्वरूपाश्च मातरः।
गावो मामुपतिष्ठन्तामिति नित्यं प्रकीर्तयेत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रतिदिन यह प्रार्थना करनी चाहिये कि सुन्दर एवं अनेक प्रकारके रूप-रंगवाली विश्वरूपिणी गोमाताएँ सदा मेरे निकट आयें॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नातः पुण्यतरं दानं नातः पुण्यतरं फलम्।
नातो विशिष्टं लोकेषु भूतं भवितुमर्हति ॥ १३ ॥
मूलम्
नातः पुण्यतरं दानं नातः पुण्यतरं फलम्।
नातो विशिष्टं लोकेषु भूतं भवितुमर्हति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोदानसे बढ़कर कोई पवित्र दान नहीं है। गोदानके फलसे श्रेष्ठ दूसरा कोई फल नहीं है तथा संसारमें गौसे बढ़कर दूसरा कोई उत्कृष्ट प्राणी नहीं है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वचा लोम्नाथशृंगैर्वा वालैः क्षीरेण मेदसा।
यज्ञं वहति सम्भूय किमस्त्यभ्यधिकं ततः ॥ १४ ॥
मूलम्
त्वचा लोम्नाथशृंगैर्वा वालैः क्षीरेण मेदसा।
यज्ञं वहति सम्भूय किमस्त्यभ्यधिकं ततः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्वचा, रोम, सींग, पूँछके बाल, दूध और मेदा आदिके साथ मिलकर गौ (दूध, दही, घी आदिके द्वारा) यज्ञका निर्वाह करती है; अतः उससे श्रेष्ठ दूसरी कौन-सी वस्तु है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यया सर्वमिदं व्याप्तं जगत् स्थावरजंगमम्।
तां धेनुं शिरसा वन्दे भूतभव्यस्य मातरम् ॥ १५ ॥
मूलम्
यया सर्वमिदं व्याप्तं जगत् स्थावरजंगमम्।
तां धेनुं शिरसा वन्दे भूतभव्यस्य मातरम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने समस्त चराचर जगत्को व्याप्त कर रखा है, उस भूत और भविष्यकी जननी गौको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणवचनसमुच्चयैकदेशो
नृवर मयैष गवां प्रकीर्तितस्ते।
न च परमिह दानमस्ति गोभ्यो
भवति न चापि परायणं तथान्यत् ॥ १६ ॥
मूलम्
गुणवचनसमुच्चयैकदेशो
नृवर मयैष गवां प्रकीर्तितस्ते।
न च परमिह दानमस्ति गोभ्यो
भवति न चापि परायणं तथान्यत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! यह मैंने तुमसे गौओंके गुणवर्णनसम्बन्धी साहित्यका एक लघु अंशमात्र बताया है—दिग्दर्शनमात्र कराया है। गौओंके दानसे बढ़कर इस संसारमें दूसरा कोई दान नहीं है, तथा उनके समान दूसरा कोई आश्रय भी नहीं है॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरमिदमिति भूमिदो विचिन्त्य
प्रवरमृषेर्वचनं ततो महात्मा ।
व्यसृजत नियतात्मवान् द्विजेभ्यः
सुबहु च गोधनमाप्तवांश्च लोकान् ॥ १७ ॥
मूलम्
वरमिदमिति भूमिदो विचिन्त्य
प्रवरमृषेर्वचनं ततो महात्मा ।
व्यसृजत नियतात्मवान् द्विजेभ्यः
सुबहु च गोधनमाप्तवांश्च लोकान् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— महर्षि वसिष्ठके ये वचन सुनकर भूमिदान करनेवाले संयतात्मा महामना राजा सौदासने ‘यह बहुत उत्तम पुण्यकार्य है’ ऐसा सोचकर ब्राह्मणोंको बहुत-सी गौएँ दान दी। इससे उन्हें उत्तम लोकोंकी प्राप्ति हुई॥१७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि गोप्रदानिके अशीतितमोऽध्यायः ॥ ८० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गोदानविषयक अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८०॥