०७८ गोप्रदानिके

भागसूचना

अष्टसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

वसिष्ठका सौदासको गोदानकी विधि एवं महिमा बताना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नेव काले तु वसिष्ठमृषिसत्तमम्।
इक्ष्वाकुवंशजो राजा सौदासो वदतां वरः ॥ १ ॥
सर्वलोकचरं सिद्धं ब्रह्मकोशं सनातनम्।
पुरोहितमभिप्रष्टुमभिवाद्योपचक्रमे ॥ २ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नेव काले तु वसिष्ठमृषिसत्तमम्।
इक्ष्वाकुवंशजो राजा सौदासो वदतां वरः ॥ १ ॥
सर्वलोकचरं सिद्धं ब्रह्मकोशं सनातनम्।
पुरोहितमभिप्रष्टुमभिवाद्योपचक्रमे ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! एक समयकी बात है, वक्ताओंमें श्रेष्ठ इक्ष्वाकुवंशी राजा सौदासने सम्पूर्ण लोकोंमें विचरनेवाले, वैदिक ज्ञानके भण्डार, सिद्ध सनातन ऋषिश्रेष्ठ वसिष्ठजीसे, जो उन्हींके पुरोहित थे, प्रणाम करके इस प्रकार पूछना आरम्भ किया॥१-२॥

मूलम् (वचनम्)

सौदास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रैलोक्ये भगवन् किंस्वित् पवित्रं कथ्यतेऽनघ।
यत्‌ कीर्तयन्‌ सदा मर्त्यः प्राप्नुयात्‌ पुण्यमुत्तमम् ॥ ३ ॥

मूलम्

त्रैलोक्ये भगवन् किंस्वित् पवित्रं कथ्यतेऽनघ।
यत्‌ कीर्तयन्‌ सदा मर्त्यः प्राप्नुयात्‌ पुण्यमुत्तमम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौदास बोले— भगवन्! निष्पाप महर्षे! तीनों लोकोंमें ऐसी पवित्र वस्तु कौन कही जाती है जिसका नाम लेनेमात्रसे मनुष्यको सदा उत्तम पुण्यकी प्राप्ति हो सके?॥३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै प्रोवाच वचनं प्रणताय हितं तदा।
गवामुपनिषद्विद्वान् नमस्कृत्य गवां शुचिः ॥ ४ ॥

मूलम्

तस्मै प्रोवाच वचनं प्रणताय हितं तदा।
गवामुपनिषद्विद्वान् नमस्कृत्य गवां शुचिः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! अपने चरणोंमें पड़े हुए राजा सौदाससे गवोपनिषद् (गौओंकी महिमाके गूढ़ रहस्यको प्रकट करनेवाली विद्या) के विद्वान् पवित्र महर्षि वसिष्ठने गौओंको नमस्कार करके इस प्रकार कहना आरम्भ किया—॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावः सुरभिगन्धिन्यस्तथा गुग्गुलुगन्धयः ।
गावः प्रतिष्ठा भूतानां गावः स्वस्त्ययनं महत् ॥ ५ ॥

मूलम्

गावः सुरभिगन्धिन्यस्तथा गुग्गुलुगन्धयः ।
गावः प्रतिष्ठा भूतानां गावः स्वस्त्ययनं महत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! गौओंके शरीरसे अनेक प्रकारकी मनोरम सुगन्ध निकलती रहती है तथा बहुतेरी गौएँ गुग्गुलके समान गन्धवाली होती हैं। गौएँ समस्त प्राणियोंकी प्रतिष्ठा (आधार) हैं और गौएँ ही उनके लिये महान् मंगलकी निधि हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावो भूतं च भव्यं च गावः पुष्टिः सनातनी।
गावो लक्ष्म्यास्तथा मूलं गोषु दत्तं न नश्यति ॥ ६ ॥

मूलम्

गावो भूतं च भव्यं च गावः पुष्टिः सनातनी।
गावो लक्ष्म्यास्तथा मूलं गोषु दत्तं न नश्यति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौएँ ही भूत और भविष्य हैं। गौएँ ही सदा रहनेवाली पुष्टिका कारण तथा लक्ष्मीकी जड़ हैं। गौओंको जो कुछ दिया जाता है, उसका पुण्य कभी नष्ट नहीं होता॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्नं हि परमं गावो देवानां परमं हविः।
स्वाहाकारवषट्‌कारौ गोषु नित्यं प्रतिष्ठितौ ॥ ७ ॥

मूलम्

अन्नं हि परमं गावो देवानां परमं हविः।
स्वाहाकारवषट्‌कारौ गोषु नित्यं प्रतिष्ठितौ ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गौएँ ही सर्वोत्तम अन्नकी प्राप्तिमें कारण हैं। वे ही देवताओंको उत्तम हविष्य प्रदान करती हैं। स्वाहाकार (देवयज्ञ) और वषट्‌कार (इन्द्रयाग)—ये दोनों कर्म सदा गौओंपर ही अवलम्बित हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावो यज्ञस्य हि फलं गोषु यज्ञाः प्रतिष्ठिताः।
गावो भविष्यं भूतं च गोषु यज्ञाः प्रतिष्ठिताः ॥ ८ ॥

मूलम्

गावो यज्ञस्य हि फलं गोषु यज्ञाः प्रतिष्ठिताः।
गावो भविष्यं भूतं च गोषु यज्ञाः प्रतिष्ठिताः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गौएँ ही यज्ञका फल देनेवाली हैं। उन्हींमें यज्ञोंकी प्रतिष्ठा है। गौएँ ही भूत और भविष्य हैं। उन्हींमें यज्ञ प्रतिष्ठित हैं, अर्थात् यज्ञ गौओंपर ही निर्भर है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सायं प्रातश्च सततं होमकाले महाद्युते।
गावो ददति वै हौम्यमृषिभ्यः पुरुषर्षभ ॥ ९ ॥

मूलम्

सायं प्रातश्च सततं होमकाले महाद्युते।
गावो ददति वै हौम्यमृषिभ्यः पुरुषर्षभ ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महातेजस्वी पुरुषप्रवर! प्रातःकाल और सायंकाल सदा होमके समय ऋषियोंको गौएँ ही हवनीय पदार्थ (घृत आदि) देती हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानि कानि च दुर्गाणि दुष्कृतानि कृतानि च।
तरन्ति चैव पाप्मानं धेनुं ये ददति प्रभो ॥ १० ॥

मूलम्

यानि कानि च दुर्गाणि दुष्कृतानि कृतानि च।
तरन्ति चैव पाप्मानं धेनुं ये ददति प्रभो ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! जो लोग (नवप्रसूतिका दूध देनेवाली) गौका दान करते हैं, वे जो कोई भी दुर्गम संकट आनेवाले होते हैं, उन सबसे अपने किये हुए दुष्कर्मोंसे तथा समस्त पापसमूहसे भी तर जाते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकां च दशगुर्दद्याद् दश दद्याच्च गोशती।
शतं सहस्रगुर्दद्यात् सर्वे तुल्यफला हि ते ॥ ११ ॥

मूलम्

एकां च दशगुर्दद्याद् दश दद्याच्च गोशती।
शतं सहस्रगुर्दद्यात् सर्वे तुल्यफला हि ते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसके पास दस गौएँ हों, वह एक गौका दान करे। जो सौ गायें रखता हो, वह दस गौओंका दान करे और जिसके पास एक हजार गौएँ मौजूद हों, वह सौ गौएँ दानमें दे दे तो इन सबको बराबर ही फल मिलता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाहिताग्निः शतगुरयज्वा च सहस्रगुः।
समृद्धो यश्च कीनाशो नार्घ्यमर्हन्ति ते त्रयः ॥ १२ ॥

मूलम्

अनाहिताग्निः शतगुरयज्वा च सहस्रगुः।
समृद्धो यश्च कीनाशो नार्घ्यमर्हन्ति ते त्रयः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो सौ गौओंका स्वामी होकर भी अग्निहोत्र नहीं करता, जो हजार गौएँ रखकर भी यज्ञ नहीं करता तथा जो धनी होकर भी कृपणता नहीं छोड़ता—ये तीनों मनुष्य अर्घ्य (सम्मान) पानेके अधिकारी नहीं हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कपिलां ये प्रयच्छन्ति सवत्सां कांस्यदोहनाम्।
सुव्रतां वस्त्रसंवीतामुभौ लोकौ जयन्ति ते ॥ १३ ॥

मूलम्

कपिलां ये प्रयच्छन्ति सवत्सां कांस्यदोहनाम्।
सुव्रतां वस्त्रसंवीतामुभौ लोकौ जयन्ति ते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो उत्तम लक्षणोंसे युक्त कपिला गौको वस्त्र ओढ़ाकर बछड़ेसहित उसका दान करते हैं और उसके साथ दूध दुहनेके लिये एक काँस्यका पात्र भी देते हैं, वे इहलोक और परलोक दोनोंपर विजय पाते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युवानमिन्द्रियोपेतं शतेन शतयूथपम् ।
गवेन्द्रं ब्राह्मणेन्द्राय भूरिशृंगमलङ्‌कृतम् ॥ १४ ॥
वृषभं ये प्रयच्छन्ति श्रोत्रियाय परंतप।
ऐश्वर्यं तेऽधिगच्छन्ति जायमानाः पुनः पुनः ॥ १५ ॥

मूलम्

युवानमिन्द्रियोपेतं शतेन शतयूथपम् ।
गवेन्द्रं ब्राह्मणेन्द्राय भूरिशृंगमलङ्‌कृतम् ॥ १४ ॥
वृषभं ये प्रयच्छन्ति श्रोत्रियाय परंतप।
ऐश्वर्यं तेऽधिगच्छन्ति जायमानाः पुनः पुनः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! जो लोग जवान, सभी इन्द्रियोंसे सम्पन्न, सौ गायोंके यूथपति, बड़ी-बड़ी सींगोंवाले गवेन्द्र वृषभ (साँड़) को सुसज्जित करके सौ गायोंसहित उसे श्रोत्रिय ब्राह्मणको दान करते हैं, वे जब-जब इस संसारमें जन्म लेते हैं, तब-तब महान् ऐश्वर्यके भागी होते हैं॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाकीर्तयित्वा गाः सुप्यात्‌ तासां संस्मृत्य चोत्पतेत्।
सायंप्रातर्नमस्येच्च गास्ततः पुष्टिमाप्नुयात् ॥ १६ ॥

मूलम्

नाकीर्तयित्वा गाः सुप्यात्‌ तासां संस्मृत्य चोत्पतेत्।
सायंप्रातर्नमस्येच्च गास्ततः पुष्टिमाप्नुयात् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गौओंका नाम-कीर्तन किये बिना न सोये। उनका स्मरण करके ही उठे और सबेरे-शाम उन्हें नमस्कार करे। इससे मनुष्यको बल एवं पुष्टि प्राप्त होती है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गवां मूत्रपुरीषस्य नोद्विजेत कथंचन।
न चासां मांसमश्नीयाद् गवां पुष्टिं तथाप्नुयात् ॥ १७ ॥

मूलम्

गवां मूत्रपुरीषस्य नोद्विजेत कथंचन।
न चासां मांसमश्नीयाद् गवां पुष्टिं तथाप्नुयात् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गौओंके मूत्र और गोबरसे किसी प्रकार उद्विग्न न हो—घृणा न करे और उनका मांस न खाय। इससे मनुष्यको पुष्टि प्राप्त होती है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गाश्च संकीर्तयेन्नित्यं नावमन्येत तास्तथा।
अनिष्टं स्वप्नमालक्ष्य गां नरः सम्प्रकीर्तयेत् ॥ १८ ॥

मूलम्

गाश्च संकीर्तयेन्नित्यं नावमन्येत तास्तथा।
अनिष्टं स्वप्नमालक्ष्य गां नरः सम्प्रकीर्तयेत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रतिदिन गौओंका नाम ले। उनका कभी अपमान न करे। यदि बुरे स्वप्न दिखायी दें तो मनुष्य गोमाताका नाम ले॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोमयेन सदा स्नायात् करीषे चापि संविशेत्।
श्लेष्ममूत्रपुरीषाणि प्रतिघातं च वर्जयेत् ॥ १९ ॥

मूलम्

गोमयेन सदा स्नायात् करीषे चापि संविशेत्।
श्लेष्ममूत्रपुरीषाणि प्रतिघातं च वर्जयेत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रतिदिन शरीरमें गोबर लगाकर स्नान करे। सूखे हुए गोबरपर बैठे। उसपर थूक न फेंके, मल-मूत्र न छोड़े तथा गौओंके तिरस्कारसे बचता रहे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सार्द्रे चर्मणि भुञ्जीत निरीक्षेद् वारुणीं दिशम्।
वाग्यतः सर्पिषा भूमौ गवां पुष्टिं सदाश्नुते ॥ २० ॥

मूलम्

सार्द्रे चर्मणि भुञ्जीत निरीक्षेद् वारुणीं दिशम्।
वाग्यतः सर्पिषा भूमौ गवां पुष्टिं सदाश्नुते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीगे हुए गोचर्मपर बैठकर भोजन करे। पश्चिम दिशाकी ओर देखे और मौन हो भूमिपर बैठकर घीका भक्षण करे। इससे सदा गौओंकी वृद्धि एवं पुष्टि होती है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घृतेन जुहुयादग्निं घृतेन स्वस्ति वाचयेत्।
घृतं दद्याद् घृतं प्राशेद् गवां पुष्टिं सदाश्नुते ॥ २१ ॥

मूलम्

घृतेन जुहुयादग्निं घृतेन स्वस्ति वाचयेत्।
घृतं दद्याद् घृतं प्राशेद् गवां पुष्टिं सदाश्नुते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अग्निमें घृतसे हवन करे। घृतसे ही स्वस्तिवाचन कराये। घृतका दान करे और स्वयं भी गौका घृत ही खाय। इससे मनुष्य सदा गौओंकी पुष्टि वृद्धिका अनुभव करता है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोमत्या विद्यया धेनुं तिलानामभिमन्त्र्य यः।
सर्वरत्नमयीं दद्यान्न स शोचेत् कृताकृते ॥ २२ ॥

मूलम्

गोमत्या विद्यया धेनुं तिलानामभिमन्त्र्य यः।
सर्वरत्नमयीं दद्यान्न स शोचेत् कृताकृते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो मनुष्य सब प्रकारके रत्नोंसे युक्त तिलकी धेनुको ‘गोमाँ अग्नेविमाँ अश्वि’ इत्यादि गोमती-मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके उसका ब्राह्मणको दान करता है, वह किये हुए शुभाशुभ कर्मके लिये शोक नहीं करता॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावो मामुपतिष्ठन्तु हेमशृङ्‌ग्यः पयोमुचः।
सुरभ्यः सौरभेय्यश्च सरितः सागरं यथा ॥ २३ ॥

मूलम्

गावो मामुपतिष्ठन्तु हेमशृङ्‌ग्यः पयोमुचः।
सुरभ्यः सौरभेय्यश्च सरितः सागरं यथा ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे नदियाँ समुद्रके पास जाती हैं, उसी तरह सोनेसे मढ़ी हुई सींगोंवाली, दूध देनेवाली सुरभी और सौरभेयी गौएँ मेरे निकट आयें॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गा वै पश्याम्यहं नित्यं गावः पश्यन्तु मां सदा।
गावोऽस्माकं वयं तासां यतो गावस्ततो वयम् ॥ २४ ॥

मूलम्

गा वै पश्याम्यहं नित्यं गावः पश्यन्तु मां सदा।
गावोऽस्माकं वयं तासां यतो गावस्ततो वयम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं सदा गौओंका दर्शन करूँ और गौएँ मुझपर कृपा-दृष्टि करें। गौएँ हमारी हैं और हम गौओंके हैं। जहाँ गौएँ रहें, वहीं हम रहें॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं रात्रौ दिवा चापि समेषु विषमेषु च।
महाभयेषु च नरः कीर्तयन् मुच्यते भयात् ॥ २५ ॥

मूलम्

एवं रात्रौ दिवा चापि समेषु विषमेषु च।
महाभयेषु च नरः कीर्तयन् मुच्यते भयात् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो मनुष्य इस प्रकार रातमें या दिनमें, सम अवस्थामें या विषम अवस्थामें तथा बड़े-से-बड़े भय आनेपर भी गोमाताका नामकीर्तन करता है, वह भयसे मुक्त हो जाता है’॥२५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि गोप्रदानिके अष्टसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गोदानविषयक अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७८॥