भागसूचना
षट्सप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
गोदानकी विधि, गौओंसे प्रार्थना, गौओंके निष्क्रय और गोदान करनेवाले नरेशोंके नाम
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विधिं गवां परं श्रोतुमिच्छामि नृप तत्त्वतः।
येन तान् शाश्वताल्ँलोकानर्थिनां प्राप्नुयादिह ॥ १ ॥
मूलम्
विधिं गवां परं श्रोतुमिच्छामि नृप तत्त्वतः।
येन तान् शाश्वताल्ँलोकानर्थिनां प्राप्नुयादिह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— नरेश्वर! अब मैं गोदानकी उत्तम विधिका यथार्थरूपसे श्रवण करना चाहता हूँ; जिससे प्रार्थी पुरुषोंके लिये अभीष्ट सनातन लोकोंकी प्राप्ति होती है॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न गोदानात् परं किंचिद् विद्यते वसुधाधिप।
गौर्हि न्यायागता दत्ता सद्यस्तारयते कुलम् ॥ २ ॥
मूलम्
न गोदानात् परं किंचिद् विद्यते वसुधाधिप।
गौर्हि न्यायागता दत्ता सद्यस्तारयते कुलम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— पृथ्वीनाथ! गोदानसे बढ़कर कुछ भी नहीं है। यदि न्यायपूर्वक प्राप्त हुई गौका दान किया जाय तो वह समस्त कुलका तत्काल उद्धार कर देती है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतामर्थे सम्यगुत्पादितो यः
स वै क्लृप्तः सम्यगाभ्यः प्रजाभ्यः।
तस्मात् पूर्वं ह्यादिकालप्रवृत्तं
गोदानार्थं शृणु राजन् विधिं मे ॥ ३ ॥
मूलम्
सतामर्थे सम्यगुत्पादितो यः
स वै क्लृप्तः सम्यगाभ्यः प्रजाभ्यः।
तस्मात् पूर्वं ह्यादिकालप्रवृत्तं
गोदानार्थं शृणु राजन् विधिं मे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! ऋषियोंने सत्पुरुषोंके लिये समीचीन भावसे जिस विधिको प्रकट किया है, वही इन प्रजाजनोंके लिये भलीभाँति निश्चित किया गया है। इसलिये तुम आदिकालसे प्रचलित हुई गोदानकी उस उत्तम विधिका मुझसे श्रवण करो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा गोषूपनीतासु गोषु संदिग्धदर्शिना।
मान्धात्रा प्रकृतं प्रश्नं बृहस्पतिरभाषत ॥ ४ ॥
मूलम्
पुरा गोषूपनीतासु गोषु संदिग्धदर्शिना।
मान्धात्रा प्रकृतं प्रश्नं बृहस्पतिरभाषत ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालकी बात है, जब महाराज मान्धाताके पास बहुत-सी गौएँ दानके लिये लायी गयीं, तब उन्होंने ‘कैसी गौ दान करे?’ इस संदेहमें पड़कर बृहस्पतिजीसे तुम्हारी ही तरह प्रश्न किया। उस प्रश्नके उत्तरमें बृहस्पतिजीने इस प्रकार कहा—॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विजातिमतिसत्कृत्य श्वः कालमभिवेद्य च।
गोदानार्थे प्रयुञ्जीत रोहिणीं नियतव्रतः ॥ ५ ॥
आह्वानं च प्रयुञ्जीत समंगे बहुलेति च।
प्रविश्य च गवां मध्यमिमां श्रुतिमुदाहरेत् ॥ ६ ॥
मूलम्
द्विजातिमतिसत्कृत्य श्वः कालमभिवेद्य च।
गोदानार्थे प्रयुञ्जीत रोहिणीं नियतव्रतः ॥ ५ ॥
आह्वानं च प्रयुञ्जीत समंगे बहुलेति च।
प्रविश्य च गवां मध्यमिमां श्रुतिमुदाहरेत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोदान करनेवाले मनुष्यको चाहिये कि वह नियमपूर्वक व्रतका पालन करे और ब्राह्मणको बुलाकर उसका अच्छी तरह सत्कार करके कहे कि ‘मैं कल प्रातःकाल आपको एक गौ दान करूँगा।’ तत्पश्चात् गोदानके लिये वह लाल रंगकी (रोहिणी) गौ मँगाये और ‘समंगे बहुले’ इस प्रकार कहकर गायको सम्बोधित करे, फिर गौओंके बीचमें प्रवेश करके इस निम्नांकित श्रुतिका उच्चारण करे—॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गौर्मे माता वृषभः पिता मे
दिवं शर्म जगती मे प्रतिष्ठा।
प्रपद्यैवं शर्वरीमुष्य गोषु
पुनर्वाणीमुत्सृजेद् गोप्रदाने ॥ ७ ॥
मूलम्
गौर्मे माता वृषभः पिता मे
दिवं शर्म जगती मे प्रतिष्ठा।
प्रपद्यैवं शर्वरीमुष्य गोषु
पुनर्वाणीमुत्सृजेद् गोप्रदाने ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
“गौ मेरी माता है। वृषभ (बैल) मेरा पिता है। वे दोनों मुझे स्वर्ग तथा ऐहिक सुख प्रदान करें। गौ ही मेरा आधार है।’ ऐसा कहकर गौओंकी शरण ले और उन्हींके साथ मौनावलम्बनपूर्वक रात बिताकर सबेरे गोदानकालमें ही मौन भंग करे—बोले॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तामेकां निशां गोभिः समसख्यः समव्रतः।
ऐकात्म्यगमनात् सद्यः कलुषाद् विप्रमुच्यते ॥ ८ ॥
मूलम्
स तामेकां निशां गोभिः समसख्यः समव्रतः।
ऐकात्म्यगमनात् सद्यः कलुषाद् विप्रमुच्यते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार गौओंके साथ एक रात रहकर उनके समान व्रतका पालन करते हुए उन्हींके साथ एकात्मभावको प्राप्त होनेसे मनुष्य तत्काल सब पापोंसे छूट जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्सृष्टवृषवत्सा हि प्रदेया सूर्यदर्शने।
त्रिदिवं प्रतिपत्तव्यमर्थवादाशिषस्तव ॥ ९ ॥
मूलम्
उत्सृष्टवृषवत्सा हि प्रदेया सूर्यदर्शने।
त्रिदिवं प्रतिपत्तव्यमर्थवादाशिषस्तव ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सूर्योदयके समय बछड़ेसहित गौका तुम्हें दान करना चाहिये। इससे स्वर्गलोककी प्राप्ति होगी और अर्थवाद मन्त्रोंमें जो आशीः (प्रार्थना) की गयी है, वह तुम्हारे लिये सफल होगी॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊर्जस्विन्य ऊर्जमेधाश्च यज्ञे
गर्भोऽमृतस्य जगतोऽस्य प्रतिष्ठा ।
क्षिते रोहः प्रवहः शश्वदेव
प्राजापत्याः सर्वमित्यर्थवादाः ॥ १० ॥
मूलम्
ऊर्जस्विन्य ऊर्जमेधाश्च यज्ञे
गर्भोऽमृतस्य जगतोऽस्य प्रतिष्ठा ।
क्षिते रोहः प्रवहः शश्वदेव
प्राजापत्याः सर्वमित्यर्थवादाः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(वे मन्त्र इस प्रकार हैं, गोदानके पश्चात् इनके द्वारा प्रार्थना करनी चाहिये—) ‘गौएँ उत्साहसम्पन्न, बल और बुद्धिसे युक्त, यज्ञमें काम आनेवाले अमृतस्वरूप हविष्यके उत्पत्तिस्थान, इस जगत्की प्रतिष्ठा (आश्रय), पृथ्वीपर बैलोंके द्वारा खेती उपजानेवाली, संसारके अनादि प्रवाहको प्रवृत्त करनेवाली और प्रजापतिकी पुत्री हैं। यह सब गौओंकी प्रशंसा है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावो ममैनः प्रणुदन्तु सौर्या-
स्तथा सौम्याः स्वर्गयानाय सन्तु।
आत्मानं मे मातृवच्चाश्रयन्तु
यथानुक्ताः सन्तु सर्वाशिषो मे ॥ ११ ॥
मूलम्
गावो ममैनः प्रणुदन्तु सौर्या-
स्तथा सौम्याः स्वर्गयानाय सन्तु।
आत्मानं मे मातृवच्चाश्रयन्तु
यथानुक्ताः सन्तु सर्वाशिषो मे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सूर्य और चन्द्रमाके अंशसे प्रकट हुई वे गौएँ हमारे पापोंका नाश करें। हमें स्वर्ग आदि उत्तम लोकोंकी प्राप्तिमें सहायता दें। माताकी भाँति शरण प्रदान करें। जिन इच्छाओंका इन मन्त्रोंद्वारा उल्लेख नहीं हुआ है और जिनका हुआ है, वे सभी गोमाताकी कृपासे मेरे लिये पूर्ण हों॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोषोत्सर्गे कर्मभिर्देहमोक्षे
सरस्वत्यः श्रेयसे सम्प्रवृत्ताः ।
यूयं नित्यं सर्वपुण्योपवाह्यां
दिशध्वं मे गतिमिष्टां प्रसन्नाः ॥ १२ ॥
मूलम्
शोषोत्सर्गे कर्मभिर्देहमोक्षे
सरस्वत्यः श्रेयसे सम्प्रवृत्ताः ।
यूयं नित्यं सर्वपुण्योपवाह्यां
दिशध्वं मे गतिमिष्टां प्रसन्नाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गौओ! जो लोग तुम्हारी सेवा करते हुए तुम्हारी आराधनामें लगे रहते हैं, उनके उन कर्मोंसे प्रसन्न होकर तुम उन्हें क्षय आदि रोगोंसे छुटकारा दिलाती हो और ज्ञानकी प्राप्ति कराकर उन्हें देहबन्धनसे भी मुक्त कर देती हो। जो मनुष्य तुम्हारी सेवा करते हैं, उनके कल्याणके लिये तुम सरस्वती नदीकी भाँति सदा प्रयत्नशील रहती हो। गोमाताओ! तुम हमारे ऊपर सदा प्रसन्न रहो और हमें समस्त पुण्योंके द्वारा प्राप्त होनेवाली अभीष्ट गति प्रदान करो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
या वै यूयं सोऽहमद्यैव भावो
युष्मान् दत्त्वा चाहमात्मप्रदाता ।
मनश्च्युता मन एवोपपन्नाः
संधुक्षध्वं सौम्यरूपोग्ररूपाः ॥ १३ ॥
एवं तस्याग्रे पूर्वमर्धं वदेत
गवां दाता विधिवत् पूर्वदृष्टः।
प्रतिब्रूयाच्छेषमर्धं द्विजातिः
प्रतिगृह्णन् वै गोप्रदाने विधिज्ञः ॥ १४ ॥
मूलम्
या वै यूयं सोऽहमद्यैव भावो
युष्मान् दत्त्वा चाहमात्मप्रदाता ।
मनश्च्युता मन एवोपपन्नाः
संधुक्षध्वं सौम्यरूपोग्ररूपाः ॥ १३ ॥
एवं तस्याग्रे पूर्वमर्धं वदेत
गवां दाता विधिवत् पूर्वदृष्टः।
प्रतिब्रूयाच्छेषमर्धं द्विजातिः
प्रतिगृह्णन् वै गोप्रदाने विधिज्ञः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसके बाद प्रथम दृष्टिपथमें आया हुआ दाता पहले विधिपूर्वक निम्नांकित आधे श्लोकका उच्चारण करे ‘या वै यूयं सोऽहमद्यैव भावो युष्मान् दत्त्वा चाहमात्मप्रदाता।’ —गौओ! तुम्हारा जो स्वरूप है, वही मेरा भी है—तुममें और हममें कोई अन्तर नहीं है; अतः आज तुम्हें दानमें देकर हमने अपने आपको ही दान कर दिया है।’ दाताके ऐसा कहनेपर दान लेनेवाला गोदानविधिका ज्ञाता ब्राह्मण शेष आधे श्लोकका उच्चारण करे—‘मनश्च्युता मन एवोपपन्नाः संधुक्षध्वं सौम्य-रूपोग्ररूपाः।’ —गौओ! तुम शान्त और प्रचण्डरूप धारण करनेवाली हो। अब तुम्हारे ऊपर दाताका ममत्व (अधिकार) नहीं रहा, अब तुम मेरे अधिकारमें आ गयी हो; अतः अभीष्ट भोग प्रदान करके तुम मुझे और दाताको भी प्रसन्न करो’॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोप्रदानीति वक्तव्यमर्घ्यवस्त्रवसुप्रदः ।
ऊर्ध्वास्या भवितव्या च वैष्णवीति च चोदयेत् ॥ १५ ॥
नाम संकीर्तयेत् तस्या यथासंख्योत्तरं स वै।
मूलम्
गोप्रदानीति वक्तव्यमर्घ्यवस्त्रवसुप्रदः ।
ऊर्ध्वास्या भवितव्या च वैष्णवीति च चोदयेत् ॥ १५ ॥
नाम संकीर्तयेत् तस्या यथासंख्योत्तरं स वै।
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो गौके निष्क्रयरूपसे उसका मूल्य, वस्त्र अथवा सुवर्ण दान करता है, उसको भी गोदाता ही कहना चाहिये। मूल्य, वस्त्र एवं सुवर्णरूपमें दी जानेवाली गौओंका नाम क्रमशः ऊर्ध्वास्या, भवितव्या और वैष्णवी है। संकल्पके समय इनके इन्हीं नामोंका उच्चारण करना चाहिये अर्थात् ‘इमां ऊर्ध्वास्यां’ ‘इमां भवितव्यां’ ‘इमां वैष्णवीं’ तुभ्यमहं संप्रददे त्वं गृहाण —मैं यह ऊर्ध्वास्या, भवितव्या या वैष्णवी गौ आपको दे रहा हूँ, आप इसे ग्रहण करें।’—ऐसा कहकर ब्राह्मणको वह दान ग्रहण करनेके लिये प्रेरित करना चाहिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलं षट्त्रिंशदष्टौ च सहस्राणि च विंशतिः ॥ १६ ॥
एवमेतान् गुणान् विद्याद् गवादीनां यथाक्रमम्।
गोप्रदाता समाप्नोति समस्तानष्टमे क्रमे ॥ १७ ॥
मूलम्
फलं षट्त्रिंशदष्टौ च सहस्राणि च विंशतिः ॥ १६ ॥
एवमेतान् गुणान् विद्याद् गवादीनां यथाक्रमम्।
गोप्रदाता समाप्नोति समस्तानष्टमे क्रमे ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इनके दानका फल क्रमशः इस प्रकार है—गौका मूल्य देनेवाला छत्तीस हजार वर्षोंतक, गौकी जगह वस्त्र दान करनेवाला आठ हजार वर्षोंतक तथा गौके स्थानमें सुवर्ण देनेवाला पुरुष बीस हजार वर्षोंतक परलोकमें सुख भोगता है। इस प्रकार गौओंके निष्क्रय दानका क्रमशः फल बताया गया है। इसे अच्छी तरह जान लेना चाहिये। साक्षात् गौका दान लेकर जब ब्राह्मण अपने घरकी ओर जाने लगता है, उस समय उसके आठ पग जाते-जाते ही दाताको अपने दानका फल मिल जाता है॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोदः शीली निर्भयश्चार्थदाता
न स्याद् दुःखी वसुदाता च कामम्।
उषस्योढा भारते यश्च विद्वान्
विख्यातास्ते वैष्णवाश्चन्द्रलोकाः ॥ १८ ॥
मूलम्
गोदः शीली निर्भयश्चार्थदाता
न स्याद् दुःखी वसुदाता च कामम्।
उषस्योढा भारते यश्च विद्वान्
विख्यातास्ते वैष्णवाश्चन्द्रलोकाः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘साक्षात् गौका दान करनेवाला शीलवान् और उसका मूल्य देनेवाला निर्भय होता है तथा गौकी जगह इच्छानुसार सुवर्ण दान करनेवाला मनुष्य कभी दुःखमें नहीं पड़ता है। जो प्रातःकाल उठकर नैत्यिक नियमोंका अनुष्ठान करनेवाला और महाभारतका विद्वान् है तथा जो विख्यात वैष्णव हैं, वे सब चन्द्रलोकमें जाते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गा वै दत्त्वा गोव्रती स्यात् त्रिरात्रं
निशां चैकां संवसेतेह ताभिः।
कामाष्टम्यां वर्तितव्यं त्रिरात्रं
रसैर्वा गोः शकृता प्रस्नवैर्वा ॥ १९ ॥
मूलम्
गा वै दत्त्वा गोव्रती स्यात् त्रिरात्रं
निशां चैकां संवसेतेह ताभिः।
कामाष्टम्यां वर्तितव्यं त्रिरात्रं
रसैर्वा गोः शकृता प्रस्नवैर्वा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गौका दान करनेके पश्चात् मनुष्यको तीन राततक गोव्रतका पालन करना चाहिये और यहाँ एक रात गौओंके साथ रहना चाहिये। कामाष्टमीसे लेकर तीन राततक गोबर, गोदुग्ध अथवा गोरसमात्रका आहार करना चाहिये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवव्रती स्याद् वृषभप्रदाने
वेदावाप्तिर्गोयुगस्य प्रदाने ।
तथा गवां विधिमासाद्य यज्वा
लोकानग्र्यान् विन्दते नाविधिज्ञः ॥ २० ॥
मूलम्
देवव्रती स्याद् वृषभप्रदाने
वेदावाप्तिर्गोयुगस्य प्रदाने ।
तथा गवां विधिमासाद्य यज्वा
लोकानग्र्यान् विन्दते नाविधिज्ञः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो पुरुष एक बैलका दान करता है, वह देवव्रती (सूर्यमण्डलका भेदन करके जानेवाला ब्रह्मचारी) होता है। जो एक गाय और एक बैल दान करता है उसे वेदोंकी प्राप्ति होती है, तथा जो विधिपूर्वक गोदान यज्ञ करता है उसे उत्तम लोक मिलते हैं, परन्तु जो विधिको नहीं जानता, उसे उत्तम फलकी प्राप्ति नहीं होती॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामान् सर्वान् पार्थिवानेकसंस्थान्
यो वै दद्यात् कामदुघांच धेनुम्।
सम्यक्ताः स्युर्हव्यकव्यौघवत्य-
स्तासामुक्ष्णां ज्यायसां सम्प्रदानम् ॥ २१ ॥
मूलम्
कामान् सर्वान् पार्थिवानेकसंस्थान्
यो वै दद्यात् कामदुघांच धेनुम्।
सम्यक्ताः स्युर्हव्यकव्यौघवत्य-
स्तासामुक्ष्णां ज्यायसां सम्प्रदानम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो इच्छानुसार दूध देनेवाली धेनुका दान करता है, वह मानो समस्त पार्थिव भोगोंका एक साथ ही दान कर देता है। जब एक गौके दानका ऐसा माहात्म्य है तब हव्य-कव्यकी राशिसे सुशोभित होनेवाली बहुत-सी गौओंका यदि विधिपूर्वक दान किया जाय तो कितना अधिक फल हो सकता है? नौजवान बैलोंका दान उन गौओंसे भी अधिक पुण्यदायक होता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चाशिष्यायाव्रतायोपकुर्या-
न्नाश्रद्दधानाय न वक्रबुद्धये ।
गुह्यो ह्ययं सर्वलोकस्य धर्मो
नेमं धर्मं यत्र तत्र प्रजल्पेत् ॥ २२ ॥
मूलम्
न चाशिष्यायाव्रतायोपकुर्या-
न्नाश्रद्दधानाय न वक्रबुद्धये ।
गुह्यो ह्ययं सर्वलोकस्य धर्मो
नेमं धर्मं यत्र तत्र प्रजल्पेत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मनुष्य अपना शिष्य नहीं है, जो व्रतका पालन नहीं करता, जिसमें श्रद्धाका अभाव है तथा जिसकी बुद्धि कुटिल है, उसे इस गोदान-विधिका उपदेश न दे; क्योंकि यह सबसे गोपनीय धर्म है; अतः इसका यत्र-तत्र सर्वत्र प्रचार नहीं करना चाहिये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्ति लोकेऽश्रद्दधाना मनुष्याः
सन्ति क्षुद्रा राक्षसमानुषेषु ।
एषामेतद् दीयमानं ह्यनिष्टं
ये नास्तिक्यं चाश्रयन्तेऽल्पपुण्याः ॥ २३ ॥
मूलम्
सन्ति लोकेऽश्रद्दधाना मनुष्याः
सन्ति क्षुद्रा राक्षसमानुषेषु ।
एषामेतद् दीयमानं ह्यनिष्टं
ये नास्तिक्यं चाश्रयन्तेऽल्पपुण्याः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘संसारमें बहुत-से अश्रद्धालु हैं (जो इन सब बातोंपर विश्वास नहीं करते) तथा राक्षसी प्रकृतिके मनुष्योंमें बहुत-से ऐसे क्षुद्र पुरुष हैं (जिन्हें ये बातें अच्छी नहीं लगतीं), कितने ही पुण्यहीन मानव नास्तिकताका सहारा लिये रहते हैं। उन सबको इसका उपदेश देना अभीष्ट नहीं है, उलटे अनिष्टकारक होता है’॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बार्हस्पत्यं वाक्यमेतन्निशम्य
ये राजानो गोप्रदानानि दत्त्वा।
लोकान् प्राप्ताः पुण्यशीलाः प्रवृत्ता-
स्तान् मे राजन् कीर्त्यमानान् निबोध ॥ २४ ॥
मूलम्
बार्हस्पत्यं वाक्यमेतन्निशम्य
ये राजानो गोप्रदानानि दत्त्वा।
लोकान् प्राप्ताः पुण्यशीलाः प्रवृत्ता-
स्तान् मे राजन् कीर्त्यमानान् निबोध ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! बृहस्पतिजीके इस उपदेशको सुनकर जिन राजाओंने गोदान करके उसके प्रभावसे उत्तम लोक प्राप्त किये तथा जो सदाके लिये पुण्यात्मा बनकर सत्कर्मोंमें प्रवृत्त हुए, उनके नामोंका उल्लेख करता हूँ, सुनो॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उशीनरो विष्वगश्वो नृगश्च
भगीरथो विश्रुतो यौवनाश्वः ।
मान्धाता वै मुचुकुन्दश्च राजा
भूरिद्युम्नो नैषधः सोमकश्च ॥ २५ ॥
पुरूरवो भरतश्चक्रवर्ती
यस्यान्ववाये भरताः सर्व एव।
तथा वीरो दाशरथिश्च रामो
ये चाप्यन्ये विश्रुताः कीर्तिमन्तः ॥ २६ ॥
तथा राजा पृथुकर्मा दिलीपो
दिवं प्राप्तो गोप्रदानैर्विधिज्ञः ।
यज्ञैर्दानैस्तपसा राजधर्मै-
र्मान्धाताभूद् गोप्रदानैश्च युक्ताः ॥ २७ ॥
मूलम्
उशीनरो विष्वगश्वो नृगश्च
भगीरथो विश्रुतो यौवनाश्वः ।
मान्धाता वै मुचुकुन्दश्च राजा
भूरिद्युम्नो नैषधः सोमकश्च ॥ २५ ॥
पुरूरवो भरतश्चक्रवर्ती
यस्यान्ववाये भरताः सर्व एव।
तथा वीरो दाशरथिश्च रामो
ये चाप्यन्ये विश्रुताः कीर्तिमन्तः ॥ २६ ॥
तथा राजा पृथुकर्मा दिलीपो
दिवं प्राप्तो गोप्रदानैर्विधिज्ञः ।
यज्ञैर्दानैस्तपसा राजधर्मै-
र्मान्धाताभूद् गोप्रदानैश्च युक्ताः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उशीनर, विष्वगश्व, नृग, भगीरथ, सुविख्यात युवनाश्वकुमार महाराज मान्धाता, राजा मुचुकुन्द, भूरिद्युम्न, निषधनरेश नल, सोमक, पुरूरवा, चक्रवर्ती भरत—जिनके वंशमें होनेवाले सभी राजा भारत कहलाये, दशरथनन्दन वीर श्रीराम, अन्यान्य विख्यात कीर्तिवाले नरेश तथा महान् कर्म करनेवाले राजा दिलीप—इन समस्त विधिज्ञ नरेशोंने गोदान करके स्वर्गलोक प्राप्त किया है। राजा मान्धाता तो यज्ञ, दान, तपस्या, राजधर्म तथा गोदान आदि सभी श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न थे॥२५—२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् पार्थ त्वमपीमां मयोक्तां
बार्हस्पतीं भारतीं धारयस्व ।
द्विजाग्र्येभ्यः सम्प्रयच्छस्व प्रीतो
गाः पुण्या वै प्राप्य राज्यं कुरूणाम् ॥ २८ ॥
मूलम्
तस्मात् पार्थ त्वमपीमां मयोक्तां
बार्हस्पतीं भारतीं धारयस्व ।
द्विजाग्र्येभ्यः सम्प्रयच्छस्व प्रीतो
गाः पुण्या वै प्राप्य राज्यं कुरूणाम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः कुन्तीनन्दन! तुम भी मेरे कहे हुए बृहस्पतिजीके इस उपदेशको धारण करो और कौरव-राज्यपर अधिकार पाकर उत्तम ब्राह्मणको प्रसन्नतापूर्वक पवित्र गौओंका दान करो॥२८॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा सर्वं कृतवान् धर्मराजो
भीष्मेणोक्तो विधिवद् गोप्रदाने ।
स मान्धातुर्देवदेवोपदिष्टं
सम्यग्धर्मं धारयामास राजा ॥ २९ ॥
मूलम्
तथा सर्वं कृतवान् धर्मराजो
भीष्मेणोक्तो विधिवद् गोप्रदाने ।
स मान्धातुर्देवदेवोपदिष्टं
सम्यग्धर्मं धारयामास राजा ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भीष्मजीने जब इस प्रकार विधिवत् गोदान करनेकी आज्ञा दी, तब धर्मराज युधिष्ठिरने सब वैसा ही किया तथा देवताओंके भी देवता बृहस्पतिजीने मान्धाताके लिये जिस उत्तम धर्मका उपदेश किया था, उसको भी भलीभाँति स्मरण रखा॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति नृप सततं गवां प्रदाने
यवशकलान् सह गोमयैः पिबानः।
क्षितितलशयनः शिखी यतात्मा
वृष इव राजवृषस्तदा बभूव ॥ ३० ॥
मूलम्
इति नृप सततं गवां प्रदाने
यवशकलान् सह गोमयैः पिबानः।
क्षितितलशयनः शिखी यतात्मा
वृष इव राजवृषस्तदा बभूव ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! राजाओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर उन दिनों सदा गोदानके लिये उद्यत होकर गोबरके साथ जौके कणोंका आहार करते हुए मन और इन्द्रियोंके संयमपूर्वक पृथ्वीपर शयन करने लगे। उनके सिरपर जटाएँ बढ़ गयीं और वे साक्षात् धर्मके समान देदीप्यमान होने लगे॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरपतिरभवत् सदैवताभ्यः
प्रयतमनास्त्वभिसंस्तुवंश्च ताः स्म ।
न च धुरि नृप गामयुक्त भूय-
स्तुरगवरैरगमच्च यत्र तत्र ॥ ३१ ॥
मूलम्
नरपतिरभवत् सदैवताभ्यः
प्रयतमनास्त्वभिसंस्तुवंश्च ताः स्म ।
न च धुरि नृप गामयुक्त भूय-
स्तुरगवरैरगमच्च यत्र तत्र ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेन्द्र! राजा युधिष्ठिर सदा ही गौओंके प्रति विनीत-चित्त होकर उनकी स्तुति करते रहते थे। उन्होंने फिर कभी बैलका अपनी सवारीमें उपयोग नहीं किया। वे अच्छे-अच्छे घोड़ोंद्वारा ही इधर-उधरकी यात्रा करते थे॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि गोदानकथने षट्सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गोदानकथनविषयक छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७६॥