भागसूचना
चतुःसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दूसरोंकी गायको चुराकर देने या बेचनेसे दोष, गोहत्याके भयंकर परिणाम तथा गोदान एवं सुवर्ण-दक्षिणाका माहात्म्य
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानन् यो गामपहरेद् विक्रीयाच्चार्थकारणात्।
एतद् विज्ञातुमिच्छामि क्व नु तस्य गतिर्भवेत् ॥ १ ॥
मूलम्
जानन् यो गामपहरेद् विक्रीयाच्चार्थकारणात्।
एतद् विज्ञातुमिच्छामि क्व नु तस्य गतिर्भवेत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने पूछा— पितामह! यदि कोई जान-बूझकर दूसरेकी गौका अपहरण करे और धनके लोभसे उसे बेच डाले, उसकी परलोकमें क्या गति होती है? यह मैं जानना चाहता हूँ॥१॥
मूलम् (वचनम्)
पितामह उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्षार्थं विक्रयार्थं वा येऽपहारं हि कुर्वते।
दानार्थं ब्राह्मणार्थाय तत्रेदं श्रूयतां फलम् ॥ २ ॥
मूलम्
भक्षार्थं विक्रयार्थं वा येऽपहारं हि कुर्वते।
दानार्थं ब्राह्मणार्थाय तत्रेदं श्रूयतां फलम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा— इन्द्र! जो खाने, बेचने या ब्राह्मणोंको दान करनेके लिये दूसरेकी गाय चुराते हैं, उन्हें क्या फल मिलता है, यह सुनो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्रयार्थं हि यो हिंस्याद् भक्षयेद् वा निरंकुशः।
घातयानं हि पुरुषं येऽनुमन्येयुरर्थिनः ॥ ३ ॥
मूलम्
विक्रयार्थं हि यो हिंस्याद् भक्षयेद् वा निरंकुशः।
घातयानं हि पुरुषं येऽनुमन्येयुरर्थिनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो उच्छृंखल मनुष्य मांस बेचनेके लिये गौकी हिंसा करता या गोमांस खाता है तथा जो स्वार्थवश घातक पुरुषको गाय मारनेकी सलाह देते हैं, वे सभी महान् पापके भागी होते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घातकः खादको वापि तथा यश्चानुमन्यते।
यावन्ति तस्या रोमाणि तावद् वर्षाणि मज्जति ॥ ४ ॥
मूलम्
घातकः खादको वापि तथा यश्चानुमन्यते।
यावन्ति तस्या रोमाणि तावद् वर्षाणि मज्जति ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौकी हत्या करनेवाले, उसका मांस खानेवाले तथा गोहत्याका अनुमोदन करनेवाले लोग गौके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोंतक नरकमें डूबे रहते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये दोषा यादृशाश्चैव द्विजयज्ञोपघातके।
विक्रये चापहारे च ते दोषा वै स्मृताः प्रभो॥५॥
मूलम्
ये दोषा यादृशाश्चैव द्विजयज्ञोपघातके।
विक्रये चापहारे च ते दोषा वै स्मृताः प्रभो॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! ब्राह्मणके यज्ञका नाश करनेवाले पुरुषको जैसे और जितने पाप लगते हैं, दूसरोंकी गाय चुराने और बेचनेमें भी वे ही दोष बताये गये हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपहृत्य तु यो गां वै ब्राह्मणाय प्रयच्छति।
यावद् दानफलं तस्यास्तावन्निरयमृच्छति ॥ ६ ॥
मूलम्
अपहृत्य तु यो गां वै ब्राह्मणाय प्रयच्छति।
यावद् दानफलं तस्यास्तावन्निरयमृच्छति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दूसरेकी गाय चुराकर ब्राह्मणको दान करता है, वह गोदानका पुण्य भोगनेके लिये जितना समय शास्त्रोंमें बताया गया है, उतने ही समयतक नरक भोगता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुवर्णं दक्षिणामाहुर्गोप्रदाने महाद्युते ।
सुवर्णं परमित्युक्तं दक्षिणार्थमसंशयम् ॥ ७ ॥
मूलम्
सुवर्णं दक्षिणामाहुर्गोप्रदाने महाद्युते ।
सुवर्णं परमित्युक्तं दक्षिणार्थमसंशयम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातेजस्वी इन्द्र! गोदानमें कुछ सुवर्णकी दक्षिणा देनेका विधान है। दक्षिणाके लिये सुवर्ण सबसे उत्तम बताया गया है। इसमें संशय नहीं है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोप्रदानात् तारयते सप्त पूर्वांस्तथा परान्।
सुवर्णं दक्षिणां कृत्वा तावद्द्विगुणमुच्यते ॥ ८ ॥
मूलम्
गोप्रदानात् तारयते सप्त पूर्वांस्तथा परान्।
सुवर्णं दक्षिणां कृत्वा तावद्द्विगुणमुच्यते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य गोदान करनेसे अपनी सात पीढ़ी पहलेके पितरोंका और सात पीढ़ी आगे आनेवाली संतानोंका उद्धार करता है; किंतु यदि उसके साथ सोनेकी दक्षिणा भी दी जाय तो उस दानका फल दूना बताया गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुवर्णं परमं दानं सुवर्णं दक्षिणा परा।
सुवर्णं पावनं शक्र पावनानां परं स्मृतम् ॥ ९ ॥
मूलम्
सुवर्णं परमं दानं सुवर्णं दक्षिणा परा।
सुवर्णं पावनं शक्र पावनानां परं स्मृतम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि इन्द्र! सुवर्णका दान सबसे उत्तम दान है। सुवर्णकी दक्षिणा सबसे श्रेष्ठ है, तथा पवित्र करनेवाली वस्तुओंमें सुवर्ण ही सबसे अधिक पावन माना गया है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुलानां पावनं प्राहुर्जातरूपं शतक्रतो।
एषा मे दक्षिणा प्रोक्ता समासेन महाद्युते ॥ १० ॥
मूलम्
कुलानां पावनं प्राहुर्जातरूपं शतक्रतो।
एषा मे दक्षिणा प्रोक्ता समासेन महाद्युते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातेजस्वी शतक्रतो! सुवर्ण सम्पूर्ण कुलोंको पवित्र करनेवाला बताया गया है। इस प्रकार मैंने तुमसे संक्षेपमें यह दक्षिणाकी बात बतायी॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् पितामहेनोक्तमिन्द्राय भरतर्षभ ।
इन्द्रो दशरथायाह रामायाह पिता तथा ॥ ११ ॥
मूलम्
एतत् पितामहेनोक्तमिन्द्राय भरतर्षभ ।
इन्द्रो दशरथायाह रामायाह पिता तथा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर! यह उपर्युक्त उपदेश ब्रह्माजीने इन्द्रको दिया। इन्द्रने राजा दशरथको तथा पिता दशरथने अपने पुत्र श्रीरामचन्द्रजीको दिया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राघवोऽपि प्रियभ्रात्रे लक्ष्मणाय यशस्विने।
ऋषिभ्यो लक्ष्मणेनोक्तमरण्ये वसता प्रभो ॥ १२ ॥
मूलम्
राघवोऽपि प्रियभ्रात्रे लक्ष्मणाय यशस्विने।
ऋषिभ्यो लक्ष्मणेनोक्तमरण्ये वसता प्रभो ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! श्रीरामचन्द्रजीने भी अपने प्रिय एवं यशस्वी भ्राता लक्ष्मणको इसका उपदेश दिया। फिर लक्ष्मणने भी वनवासके समय ऋषियोंको यह बात बतायी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारम्पर्यागतं चेदमृषयः संशितव्रताः ।
दुर्धरं धारयामासू राजानश्चैव धार्मिकाः ॥ १३ ॥
मूलम्
पारम्पर्यागतं चेदमृषयः संशितव्रताः ।
दुर्धरं धारयामासू राजानश्चैव धार्मिकाः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार परम्परासे प्राप्त हुए इस दुर्धर उपदेशको उत्तम व्रतका पालन करनेवाले ऋषि और धर्मात्मा राजालोग धारण करते आ रहे हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपाध्यायेन गदितं मम चेदं युधिष्ठिर।
य इदं ब्राह्मणो नित्यं वदेद् ब्राह्मणसंसदि ॥ १४ ॥
यज्ञेषु गोप्रदानेषु द्वयोरपि समागमे।
तस्य लोकाः किलाक्षय्या दैवतैः सह नित्यदा ॥ १५ ॥
(इति ब्रह्मा स भगवान् उवाच परमेश्वरः)
मूलम्
उपाध्यायेन गदितं मम चेदं युधिष्ठिर।
य इदं ब्राह्मणो नित्यं वदेद् ब्राह्मणसंसदि ॥ १४ ॥
यज्ञेषु गोप्रदानेषु द्वयोरपि समागमे।
तस्य लोकाः किलाक्षय्या दैवतैः सह नित्यदा ॥ १५ ॥
(इति ब्रह्मा स भगवान् उवाच परमेश्वरः)
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! मुझसे मेरे उपाध्याय (परशुरामजी) ने इस विषयका वर्णन किया था। जो ब्राह्मण अपनी मण्डलीमें बैठकर प्रतिदिन इस उपदेशको दुहराता है और यज्ञमें, गोदानके समय तथा दो व्यक्तियोंके भी समागममें इसकी चर्चा करता है, उसको सदा देवताओंके साथ अक्षयलोक प्राप्त होते हैं। यह बात भी परमेश्वर भगवान् ब्रह्माने स्वयं ही इन्द्रको बतायी है॥१४-१५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७४॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल १५ श्लोक हैं)