०७३ पितामहेन्द्रसंवादे

भागसूचना

त्रिसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ब्रह्माजीका इन्द्रसे गोलोक और गोदानकी महिमा बताना

मूलम् (वचनम्)

पितामह उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽयं प्रश्नस्त्वया पृष्टो गोप्रदानादिकारितः।
नास्ति प्रष्टास्ति लोकेऽस्मिंस्त्वत्तोऽन्यो हि शतक्रतो ॥ १ ॥

मूलम्

योऽयं प्रश्नस्त्वया पृष्टो गोप्रदानादिकारितः।
नास्ति प्रष्टास्ति लोकेऽस्मिंस्त्वत्तोऽन्यो हि शतक्रतो ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— देवेन्द्र! गोदानके सम्बन्धमें तुमने जो यह प्रश्न उपस्थित किया है, तुम्हारे सिवा इस जगत्‌में दूसरा कोई ऐसा प्रश्न करनेवाला नहीं है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्ति नानाविधा लोका यांस्त्वं शक्र न पश्यसि।
पश्यामि यानहं लोकानेकपत्न्यश्च याः स्त्रियः ॥ २ ॥

मूलम्

सन्ति नानाविधा लोका यांस्त्वं शक्र न पश्यसि।
पश्यामि यानहं लोकानेकपत्न्यश्च याः स्त्रियः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शक्र! ऐसे अनेक प्रकारके लोक हैं, जिन्हें तुम नहीं देख पाते हो। मैं उन लोकोंको देखता हूँ और पतिव्रता स्त्रियाँ भी उन्हें देख सकती हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मभिश्चापि सुशुभैः सुव्रता ऋषयस्तथा।
सशरीरा हि तान् यान्ति ब्राह्मणाः शुभबुद्धयः ॥ ३ ॥

मूलम्

कर्मभिश्चापि सुशुभैः सुव्रता ऋषयस्तथा।
सशरीरा हि तान् यान्ति ब्राह्मणाः शुभबुद्धयः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तम व्रतका पालन करनेवाले ऋषि तथा शुभ बुद्धिवाले ब्राह्मण अपने शुभकर्मोंके प्रभावसे वहाँ सशरीर चले जाते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरन्यासमोक्षेण मनसा निर्मलेन च।
स्वप्नभूतांश्च ताल्ँलोकान् पश्यन्तीहापि सुव्रताः ॥ ४ ॥

मूलम्

शरीरन्यासमोक्षेण मनसा निर्मलेन च।
स्वप्नभूतांश्च ताल्ँलोकान् पश्यन्तीहापि सुव्रताः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ व्रतके आचरणमें लगे हुए योगी पुरुष समाधि-अवस्थामें अथवा मृत्युके समय जब शरीरसे सम्बन्ध त्याग देते हैं, तब अपने शुद्ध चित्तके द्वारा स्वप्नकी भाँति दीखनेवाले उन लोकोंका यहाँसे भी दर्शन करते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तु लोकाः सहस्राक्ष शृणु यादृग्गुणान्विताः।
न तत्र क्रमते कालो न जरा न च पावकः॥५॥

मूलम्

ते तु लोकाः सहस्राक्ष शृणु यादृग्गुणान्विताः।
न तत्र क्रमते कालो न जरा न च पावकः॥५॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहस्राक्ष! वे लोक जैसे गुणोंसे सम्पन्न हैं, उनका वर्णन सुनो। वहाँ काल और बुढ़ापाका आक्रमण नहीं होता। अग्निका भी जोर नहीं चलता॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा नास्त्यशुभं किंचिन्न व्याधिस्तत्र न क्लमः।
यद् यच्च गावो मनसा तस्मिन् वाञ्छन्ति वासव ॥ ६ ॥
तत् सर्वं प्राप्नुवन्ति स्म मम प्रत्यक्षदर्शनात्।
कामगाः कामचारिण्यः कामात् कामांश्च भुञ्जते ॥ ७ ॥

मूलम्

तथा नास्त्यशुभं किंचिन्न व्याधिस्तत्र न क्लमः।
यद् यच्च गावो मनसा तस्मिन् वाञ्छन्ति वासव ॥ ६ ॥
तत् सर्वं प्राप्नुवन्ति स्म मम प्रत्यक्षदर्शनात्।
कामगाः कामचारिण्यः कामात् कामांश्च भुञ्जते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ किसीका किंचिन्मात्र भी अमंगल नहीं होता। उस लोकमें न रोग है न शोक। इन्द्र! वहाँकी गौएँ अपने मनमें जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करती हैं, वे सब उन्हें प्राप्त हो जाती हैं, यह मेरी प्रत्यक्ष देखी हुई बात है। वे जहाँ जाना चाहती हैं जाती हैं; जैसे चलना चाहती हैं चलती हैं और संकल्पमात्रसे सम्पूर्ण भोगोंको प्राप्तकर उनका उपभोग करती हैं॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाप्यः सरांसि सरितो विविधानि वनानि च।
गृहाणि पर्वताश्चैव यावद्‌द्रव्यं च किंचन ॥ ८ ॥

मूलम्

वाप्यः सरांसि सरितो विविधानि वनानि च।
गृहाणि पर्वताश्चैव यावद्‌द्रव्यं च किंचन ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बावड़ी, तालाब, नदियाँ, नाना प्रकारके वन, गृह और पर्वत आदि सभी वस्तुएँ वहाँ उपलब्ध हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनोज्ञं सर्वभूतेभ्यः सर्वतन्त्रं प्रदृश्यत।
ईदृशाद् विपुलाल्लोकान्नास्ति लोकस्तथाविधः ॥ ९ ॥

मूलम्

मनोज्ञं सर्वभूतेभ्यः सर्वतन्त्रं प्रदृश्यत।
ईदृशाद् विपुलाल्लोकान्नास्ति लोकस्तथाविधः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोलोक समस्त प्राणियोंके लिये मनोहर है। वहाँकी प्रत्येक वस्तुपर सबका समान अधिकार देखा जाता है। इतना विशाल दूसरा कोई लोक नहीं है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र सर्वसहाः क्षान्ता वत्सला गुरुवर्तिनः।
अहंकारैर्विरहिता यान्ति शक्र नरोत्तमाः ॥ १० ॥

मूलम्

तत्र सर्वसहाः क्षान्ता वत्सला गुरुवर्तिनः।
अहंकारैर्विरहिता यान्ति शक्र नरोत्तमाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! जो सब कुछ सहनेवाले, क्षमाशील, दयालु, गुरुजनोंकी आज्ञामें रहनेवाले और अहंकाररहित हैं, वे श्रेष्ठ मनुष्य ही उस लोकमें जाते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः सर्वमांसानि न भक्षयीत
पुमान् सदा भावितो धर्मयुक्तः।
मातापित्रोरर्चिता सत्ययुक्तः
शुश्रूषिता ब्राह्मणानामनिन्द्यः ॥ ११ ॥
अक्रोधनो गोषु तथा द्विजेषु
धर्मे रतो गुरुशुश्रूषकश्च ।
यावज्जीवं सत्यवृत्ते रतश्च
दाने रतो यः क्षमी चापराधे ॥ १२ ॥
मृदुर्दान्तो देवपरायणश्च
सर्वातिथिश्चापि तथा दयावान् ।
ईदृग्गुणो मानवस्तं प्रयाति
लोकं गवां शाश्वतं चाव्ययं च ॥ १३ ॥

मूलम्

यः सर्वमांसानि न भक्षयीत
पुमान् सदा भावितो धर्मयुक्तः।
मातापित्रोरर्चिता सत्ययुक्तः
शुश्रूषिता ब्राह्मणानामनिन्द्यः ॥ ११ ॥
अक्रोधनो गोषु तथा द्विजेषु
धर्मे रतो गुरुशुश्रूषकश्च ।
यावज्जीवं सत्यवृत्ते रतश्च
दाने रतो यः क्षमी चापराधे ॥ १२ ॥
मृदुर्दान्तो देवपरायणश्च
सर्वातिथिश्चापि तथा दयावान् ।
ईदृग्गुणो मानवस्तं प्रयाति
लोकं गवां शाश्वतं चाव्ययं च ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सब प्रकारके मांसोंका भोजन त्याग देता है, सदा भगवच्चिन्तनमें लगा रहता है, धर्मपरायण होता है, माता-पिताकी पूजा करता, सत्य बोलता, ब्राह्मणोंकी सेवामें संलग्न रहता, जिसकी कभी निन्दा नहीं होती, जो गौओं और ब्राह्मणोंपर कभी क्रोध नहीं करता, धर्ममें अनुरक्त रहकर गुरुजनोंकी सेवा करता है, जीवनभरके लिये सत्यका व्रत ले लेता है, दानमें प्रवृत्त रहकर किसीके अपराध करनेपर भी उसे क्षमा कर देता है, जिसका स्वभाव मृदुल है, जो जितेन्द्रिय, देवाराधक, सबका आतिथ्य-सत्कार करनेवाला और दयालु है, ऐसे ही गुणोंवाला मनुष्य उस सनातन एवं अविनाशी गोलोकमें जाता है॥११—१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न पारदारी पश्यति लोकमेतं
न वै गुरुघ्नो न मृषा सम्प्रलापी।
सदा प्रवादी ब्राह्मणेष्वात्तवैरो
दोषैरेतैर्यश्च युक्तो दुरात्मा ॥ १४ ॥
न मित्रध्रुङ्‌नैकृतिकः कृतघ्नः
शठोऽनृजुर्धर्मविद्वेषकश्च ।
न ब्रह्महा मनसापि प्रपश्येद्
गवां लोकं पुण्यकृतां निवासम् ॥ १५ ॥

मूलम्

न पारदारी पश्यति लोकमेतं
न वै गुरुघ्नो न मृषा सम्प्रलापी।
सदा प्रवादी ब्राह्मणेष्वात्तवैरो
दोषैरेतैर्यश्च युक्तो दुरात्मा ॥ १४ ॥
न मित्रध्रुङ्‌नैकृतिकः कृतघ्नः
शठोऽनृजुर्धर्मविद्वेषकश्च ।
न ब्रह्महा मनसापि प्रपश्येद्
गवां लोकं पुण्यकृतां निवासम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परस्त्रीगामी, गुरुहत्यारा, असत्यवादी, सदा बकवाद करनेवाला, ब्राह्मणोंसे वैर बाँध रखनेवाला, मित्रद्रोही, ठग, कृतघ्न, शठ, कुटिल, धर्मद्वेषी और ब्रह्महत्यारा—इन सब दोषोंसे युक्त दुरात्मा मनुष्य कभी मनसे भी गोलोकका दर्शन नहीं पा सकता; क्योंकि वहाँ पुण्यात्माओंका निवास है॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् ते सर्वमाख्यातं निपुणेन सुरेश्वर।
गोप्रदानरतानां तु फलं शृणु शतक्रतो ॥ १६ ॥

मूलम्

एतत् ते सर्वमाख्यातं निपुणेन सुरेश्वर।
गोप्रदानरतानां तु फलं शृणु शतक्रतो ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुरेश्वर! शतक्रतो! यह सब मैंने तुम्हें विशेषरूपसे गोलोकका माहात्म्य बताया है। अब गोदान करनेवालोंको जो फल प्राप्त होता है, उसे सुनो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दायाद्यलब्धैरर्थैर्यो गाः क्रीत्वा सम्प्रयच्छति।
धर्मार्जितान्‌ धनैः क्रीतान् स लोकानाप्नुतेऽक्षयान् ॥ १७ ॥

मूलम्

दायाद्यलब्धैरर्थैर्यो गाः क्रीत्वा सम्प्रयच्छति।
धर्मार्जितान्‌ धनैः क्रीतान् स लोकानाप्नुतेऽक्षयान् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष अपनी पैतृक सम्पत्तिसे प्राप्त हुए धनके द्वारा गौएँ खरीदकर उनका दान करता है, वह उस धनसे धर्मपूर्वक उपार्जित हुए अक्षय लोकोंको प्राप्त होता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो वै द्यूते धनं जित्वा गाः क्रीत्वा सम्प्रयच्छति।
स दिव्यमयुतं शक्र वर्षाणां फलमश्नुते ॥ १८ ॥

मूलम्

यो वै द्यूते धनं जित्वा गाः क्रीत्वा सम्प्रयच्छति।
स दिव्यमयुतं शक्र वर्षाणां फलमश्नुते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शक्र! जो जूएमें धन जीतकर उसके द्वारा गायोंको खरीदता है और उनका दान करता है, वह दस हजार दिव्य वर्षोंतक उसके पुण्यफलका उपभोग करता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दायाद्याद्‌ याः स्म वै गावो न्यायपूर्वैरुपार्जिताः।
प्रदद्यात् ताः प्रदातॄणां सम्भवन्त्यपि च ध्रुवाः ॥ १९ ॥

मूलम्

दायाद्याद्‌ याः स्म वै गावो न्यायपूर्वैरुपार्जिताः।
प्रदद्यात् ताः प्रदातॄणां सम्भवन्त्यपि च ध्रुवाः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पैतृक-सम्पत्तिसे न्यायपूर्वक प्राप्त की हुई गौओंका दान करता है, ऐसे दाताओंके लिये वे गौएँ अक्षय फल देनेवाली हो जाती हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिगृह्य तु यो दद्याद् गाः संशुद्धेन चेतसा।
तस्यापीहाक्षयाल्लोँकान् ध्रुवान्‌ विद्धि शचीपते ॥ २० ॥

मूलम्

प्रतिगृह्य तु यो दद्याद् गाः संशुद्धेन चेतसा।
तस्यापीहाक्षयाल्लोँकान् ध्रुवान्‌ विद्धि शचीपते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शचीपते! जो पुरुष दानमें गौएँ लेकर फिर शुद्ध हृदयसे उनका दान कर देता है, उसे भी यहाँ अक्षय एवं अटल लोकोंकी प्राप्ति होती है—यह निश्चितरूपसे समझ लो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन्मप्रभृति सत्यं च यो ब्रूयान्नियतेन्द्रियः।
गुरुद्विजसहः क्षान्तस्तस्य गोभिः समा गतिः ॥ २१ ॥

मूलम्

जन्मप्रभृति सत्यं च यो ब्रूयान्नियतेन्द्रियः।
गुरुद्विजसहः क्षान्तस्तस्य गोभिः समा गतिः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जन्मसे ही सदा सत्य बोलता, इन्द्रियोंको काबूमें रखता, गुरुजनों तथा ब्राह्मणोंकी कठोर बातोंको भी सह लेता और क्षमाशील होता है, उसकी गौओंके समान गति होती है। अर्थात् वह गोलोकमें जाता है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जातु ब्राह्मणो वाच्यो यदवाच्यं शचीपते।
मनसा गोषु न द्रुह्येद् गोवृत्तिर्गोऽनुकल्पकः ॥ २२ ॥
सत्ये धर्मे च निरतस्तस्य शक्र फलं शृणु।
गोसहस्रेण समिता तस्य धेनुर्भवत्युत ॥ २३ ॥

मूलम्

न जातु ब्राह्मणो वाच्यो यदवाच्यं शचीपते।
मनसा गोषु न द्रुह्येद् गोवृत्तिर्गोऽनुकल्पकः ॥ २२ ॥
सत्ये धर्मे च निरतस्तस्य शक्र फलं शृणु।
गोसहस्रेण समिता तस्य धेनुर्भवत्युत ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शचीपते शक्र! ब्राह्मणके प्रति कभी कुवाच्य नहीं बोलना चाहिये और गौओंके प्रति कभी मनसे भी द्रोहका भाव नहीं रखना चाहिये। जो ब्राह्मण गौओंके समान वृत्तिसे रहता है और गौओंके लिये घास आदिकी व्यवस्था करता है, साथ ही सत्य और धर्ममें तत्पर रहता है, उसे प्राप्त होनेवाले फलका वर्णन सुनो। वह यदि एक गौका भी दान करे तो उसे एक हजार गोदानके समान फल मिलता है॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियस्य गुणैरेतैरपि तुल्यफलं शृणु।
तस्यापि द्विजतुल्या गौर्भवतीति विनिश्चयः ॥ २४ ॥

मूलम्

क्षत्रियस्य गुणैरेतैरपि तुल्यफलं शृणु।
तस्यापि द्विजतुल्या गौर्भवतीति विनिश्चयः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि क्षत्रिय भी इन गुणोंसे युक्त होता है तो उसे भी ब्राह्मणके समान ही (गोदानका) फल मिलता है। इस बातको अच्छी तरह सुन लो। उसकी (दान दी हुई) गौ भी ब्राह्मणकी गौके तुल्य ही फल देनेवाली होती है। यह धर्मात्माओंका निश्चय है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैश्यस्यैते यदि गुणास्तस्य पञ्चशतं भवेत्।
शूद्रस्यापि विनीतस्य चतुर्भागफलं स्मृतम् ॥ २५ ॥

मूलम्

वैश्यस्यैते यदि गुणास्तस्य पञ्चशतं भवेत्।
शूद्रस्यापि विनीतस्य चतुर्भागफलं स्मृतम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि वैश्यमें भी उपर्युक्त गुण हों तो उसे भी एक गोदान करनेपर ब्राह्मणकी अपेक्षा (आधे भाग) पाँच सौ गौओंके दानका फल मिलता है और विनयशील शूद्रको ब्राह्मणके चौथाई भाग अर्थात् ढाई सौ गौओंके दानका फल प्राप्त होता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्चैनं योऽनुतिष्ठेत युक्तः
सत्ये रतो गुरुशुश्रूषया च।
दक्षः क्षान्तो देवतार्थी प्रशान्तः
शुचिर्बुद्धो धर्मशीलोऽनहंवाक् ॥ २६ ॥
महत् फलं प्राप्यते स द्विजाय
दत्त्वा दोग्ध्रीं विधिनानेन धेनुम्।

मूलम्

एतच्चैनं योऽनुतिष्ठेत युक्तः
सत्ये रतो गुरुशुश्रूषया च।
दक्षः क्षान्तो देवतार्थी प्रशान्तः
शुचिर्बुद्धो धर्मशीलोऽनहंवाक् ॥ २६ ॥
महत् फलं प्राप्यते स द्विजाय
दत्त्वा दोग्ध्रीं विधिनानेन धेनुम्।

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष सदा सावधान रहकर इस उपर्युक्त धर्मका पालन करता है तथा जो सत्यवादी, गुरुसेवापरायण, दक्ष, क्षमाशील, देवभक्त, शान्तचित्त, पवित्र, ज्ञानवान्, धर्मात्मा और अहंकारशून्य होता है, वह यदि पूर्वोक्त विधिसे ब्राह्मणको दूध देनेवाली गायका दान करे तो उसे महान् फलकी प्राप्ति होती है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यं दद्यादेकभक्तः सदा च
सत्ये स्थितो गुरुशुश्रूषिता च ॥ २७ ॥
वेदाध्यायी गोषु यो भक्तिमांश्च
नित्यं दत्त्वा योऽभिनन्देत गाश्च।
आजातितो यश्च गवां नमेत
इदं फलं शक्र निबोध तस्य ॥ २८ ॥

मूलम्

नित्यं दद्यादेकभक्तः सदा च
सत्ये स्थितो गुरुशुश्रूषिता च ॥ २७ ॥
वेदाध्यायी गोषु यो भक्तिमांश्च
नित्यं दत्त्वा योऽभिनन्देत गाश्च।
आजातितो यश्च गवां नमेत
इदं फलं शक्र निबोध तस्य ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! जो सदा एक समय भोजन करके नित्य गोदान करता है, सत्यमें स्थित होता है, गुरुकी सेवा और वेदोंका स्वाध्याय करता है, जिसके मनमें गौओंके प्रति भक्ति है, जो गौओंका दान देकर प्रसन्न होता है तथा जन्मसे ही गौओंको प्रणाम करता है, उसको मिलनेवाले इस फलका वर्णन सुनो॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् स्यादिष्ट्वा राजसूये फलं तु
यत् स्यादिष्ट्वा बहुना काञ्चनेन।
एतत् तुल्यं फलमप्याहुरग्र्यं
सर्वे सन्तस्त्वृषयो ये च सिद्धाः ॥ २९ ॥

मूलम्

यत् स्यादिष्ट्वा राजसूये फलं तु
यत् स्यादिष्ट्वा बहुना काञ्चनेन।
एतत् तुल्यं फलमप्याहुरग्र्यं
सर्वे सन्तस्त्वृषयो ये च सिद्धाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजसूय यज्ञका अनुष्ठान करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है तथा बहुत-से सुवर्णकी दक्षिणा देकर यज्ञ करनेसे जो फल मिलता है, उपर्युक्त मनुष्य भी उसके समान ही उत्तम फलका भागी होता है। यह सभी सिद्ध-संत-महात्मा एवं ऋषियोंका कथन है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽग्रं भक्तं किंचिदप्राश्य दद्याद्
गोभ्यो नित्यं गोव्रती सत्यवादी।
शान्तोऽलुब्धो गोसहस्रस्य पुण्यं
संवत्सरेणाप्नुयात् सत्यशीलः ॥ ३० ॥

मूलम्

योऽग्रं भक्तं किंचिदप्राश्य दद्याद्
गोभ्यो नित्यं गोव्रती सत्यवादी।
शान्तोऽलुब्धो गोसहस्रस्य पुण्यं
संवत्सरेणाप्नुयात् सत्यशीलः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो गोसेवाका व्रत लेकर प्रतिदिन भोजनसे पहले गौओंको गोग्रास अर्पण करता है तथा शान्त एवं निर्लोभ होकर सदा सत्यका पालन करता रहता है, वह सत्य-शील पुरुष प्रतिवर्ष एक सहस्र गोदान करनेके पुण्यका भागी होता है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदेकभक्तमश्नीयाद् दद्यादेकं गवां च यत्।
दशवर्षाण्यनन्तानि गोव्रती गोऽनुकम्पकः ॥ ३१ ॥

मूलम्

यदेकभक्तमश्नीयाद् दद्यादेकं गवां च यत्।
दशवर्षाण्यनन्तानि गोव्रती गोऽनुकम्पकः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो गोसेवाका व्रत लेनेवाला पुरुष गौओंपर दया करता और प्रतिदिन एक समय भोजन करके एक समयका अपना भोजन गौओंको दे देता है, इस प्रकार दस वर्षोंतक गोसेवामें तत्पर रहनेवाले पुरुषको अनन्त सुख प्राप्त होते हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकेनैव च भक्तेन यः क्रीत्वा गां प्रयच्छति।
यावन्ति तस्या रोमाणि सम्भवन्ति शतक्रतो ॥ ३२ ॥
तावत् प्रदानात्‌ स गवां फलमाप्नोति शाश्वतम्।

मूलम्

एकेनैव च भक्तेन यः क्रीत्वा गां प्रयच्छति।
यावन्ति तस्या रोमाणि सम्भवन्ति शतक्रतो ॥ ३२ ॥
तावत् प्रदानात्‌ स गवां फलमाप्नोति शाश्वतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

शतक्रतो! जो एक समय भोजन करके दूसरे समयके बचाये हुए भोजनसे गाय खरीदकर उसका दान करता है, वह उस गौके जितने रोएँ होते हैं, उतने गौओंके दानका अक्षय फल पाता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणस्य फलं हीदं क्षत्रियस्य तु वै शृणु ॥ ३३ ॥
पञ्चवार्षिकमेवं तु क्षत्रियस्य फलं स्मृतम्।
ततोऽर्धेन तु वैश्यस्य शूद्रो वैश्यार्धतः स्मृतः ॥ ३४ ॥

मूलम्

ब्राह्मणस्य फलं हीदं क्षत्रियस्य तु वै शृणु ॥ ३३ ॥
पञ्चवार्षिकमेवं तु क्षत्रियस्य फलं स्मृतम्।
ततोऽर्धेन तु वैश्यस्य शूद्रो वैश्यार्धतः स्मृतः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह ब्राह्मणके लिये फल बताया गया। अब क्षत्रियको मिलनेवाले फलका वर्णन सुनो। यदि क्षत्रिय इसी प्रकार पाँच वर्षोंतक गौकी आराधना करे तो उसे वही फल प्राप्त होता है। उससे आधे समयमें वैश्यको और उससे भी आधे समयमें शूद्रको उसी फलकी प्राप्ति बतायी गयी है॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्चात्मविक्रयं कृत्वा गाः क्रीत्वा सम्प्रयच्छति।
यावत् संदर्शयेद् गां वै स तावत् फलमश्नुते ॥ ३५ ॥

मूलम्

यश्चात्मविक्रयं कृत्वा गाः क्रीत्वा सम्प्रयच्छति।
यावत् संदर्शयेद् गां वै स तावत् फलमश्नुते ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने आपको बेचकर भी गायको खरीदकर उसका दान करता है, वह ब्रह्माण्डमें जबतक गोजातिकी सत्ता देखता है, तबतक उस दानका अक्षय फल भोगता रहता है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोम्णि रोम्णि महाभाग लोकाश्चास्याऽक्षयाःस्मृताः।
संग्रामेष्वर्जयित्वा तु यो वै गाः सम्प्रयच्छति।
आत्मविक्रयतुल्यास्ताः शाश्वता विद्धि कौशिक ॥ ३६ ॥

मूलम्

रोम्णि रोम्णि महाभाग लोकाश्चास्याऽक्षयाःस्मृताः।
संग्रामेष्वर्जयित्वा तु यो वै गाः सम्प्रयच्छति।
आत्मविक्रयतुल्यास्ताः शाश्वता विद्धि कौशिक ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभाग इन्द्र! गौओंके रोम-रोममें अक्षय लोकोंकी स्थिति मानी गयी है। जो संग्राममें गौओंको जीतकर उनका दान कर देता है, उनके लिये वे गौएँ स्वयं अपनेको बेचकर लेकर दी हुई गौओंके समान अक्षय फल देनेवाली होती हैं—इस बातको तुम जान लो॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभावे यो गवां दद्यात् तिलधेनुं यतव्रतः।
दुर्गात् स तारितो धेन्वा क्षीरनद्यां प्रमोदते ॥ ३७ ॥

मूलम्

अभावे यो गवां दद्यात् तिलधेनुं यतव्रतः।
दुर्गात् स तारितो धेन्वा क्षीरनद्यां प्रमोदते ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो संयम और नियमका पालन करनेवाला पुरुष गौओंके अभावमें तिलधेनुका दान करता है, वह उस धेनुकी सहायता पाकर दुर्गम संकटसे पार हो जाता है तथा दूधकी धारा बहानेवाली नदीके तटपर रहकर आनन्द भोगता है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वेवासां दानमात्रं प्रशस्तं
पात्रं कालो गोविशेषो विधिश्च।
कालज्ञानं विप्र गवान्तरं हि
दुःखं ज्ञातुं पावकादित्यभूतम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

न त्वेवासां दानमात्रं प्रशस्तं
पात्रं कालो गोविशेषो विधिश्च।
कालज्ञानं विप्र गवान्तरं हि
दुःखं ज्ञातुं पावकादित्यभूतम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केवल गौओंका दानमात्र कर देना प्रशंसाकी बात नहीं है; उसके लिये उत्तम पात्र, उत्तम समय, विशिष्ट गौ, विधि और कालका ज्ञान आवश्यक है। विप्रवर! गौओंमें जो परस्पर तारतम्य है, उसको तथा अग्नि और सूर्यके समान तेजस्वी पात्रको जानना बहुत ही कठिन है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाध्यायाढ्यं शुद्धयोनिं प्रशान्तं
वैतानस्थं पापभीरुं बहुज्ञम् ।
गोषु क्षान्तं नातितीक्ष्णं शरण्यं
वृत्तिग्लानं तादृशं पात्रमाहुः ॥ ३९ ॥

मूलम्

स्वाध्यायाढ्यं शुद्धयोनिं प्रशान्तं
वैतानस्थं पापभीरुं बहुज्ञम् ।
गोषु क्षान्तं नातितीक्ष्णं शरण्यं
वृत्तिग्लानं तादृशं पात्रमाहुः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वेदोंके स्वाध्यायसे सम्पन्न, शुद्ध कुलमें उत्पन्न, शान्तस्वभाव, यज्ञपरायण, पापभीरु और बहुज्ञ है, जो गौओंके प्रति क्षमाभाव रखता है, जिसका स्वभाव अत्यन्त तीखा नहीं है, जो गौओंकी रक्षा करनेमें समर्थ और जीविकासे रहित है, ऐसे ब्राह्मणको गोदानका उत्तम पात्र बताया गया है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्तिग्लाने सीदति चातिमात्रं
कृष्यर्थे वा होम्यहेतोः प्रसूतेः।
गुर्वर्थं वा बालसंवृद्धये वा
धेनुं दद्याद् देशकालेऽविशिष्टे ॥ ४० ॥

मूलम्

वृत्तिग्लाने सीदति चातिमात्रं
कृष्यर्थे वा होम्यहेतोः प्रसूतेः।
गुर्वर्थं वा बालसंवृद्धये वा
धेनुं दद्याद् देशकालेऽविशिष्टे ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी जीविका क्षीण हो गयी हो तथा जो अत्यन्त कष्ट पा रहा हो, ऐसे ब्राह्मणको सामान्य देश-कालमें भी दूध देनेवाली गायका दान करना चाहिये। इसके सिवा खेतीके लिये, होम-सामग्रीके लिये, प्रसूता स्त्रीके पोषणके लिये, गुरुदक्षिणाके लिये अथवा शिशु-पालनके लिये सामान्य देश-कालमें भी दुधारू गायका दान करना उचित है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तर्ज्ञाताः सक्रयज्ञानलब्धाः
प्राणैः क्रीतास्तेजसा यौतकाश्च ।
कृच्छ्रोत्सृष्टाः पोषणाभ्यागताश्च
द्वारैरेतैर्गोविशेषाः प्रशस्ताः ॥ ४१ ॥

मूलम्

अन्तर्ज्ञाताः सक्रयज्ञानलब्धाः
प्राणैः क्रीतास्तेजसा यौतकाश्च ।
कृच्छ्रोत्सृष्टाः पोषणाभ्यागताश्च
द्वारैरेतैर्गोविशेषाः प्रशस्ताः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गर्भिणी, खरीदकर लायी हुई, ज्ञान या विद्याके बलसे प्राप्त की हुई, दूसरे प्राणियोंके बदलेमें लायी हुई अथवा युद्धमें पराक्रम प्रकट करके प्राप्त की हुई, दहेजमें मिली हुई, पालनमें कष्ट समझकर स्वामीके द्वारा परित्यक्त हुई तथा पालन-पोषणके लिये अपने पास आयी हुई विशिष्ट गौएँ इन उपर्युक्त कारणोंसे ही दानके लिये प्रशंसनीय मानी गयी हैं॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलान्विताः शीलवयोपपन्नाः
सर्वाः प्रशंसन्ते सुगन्धवत्यः ।
यथा हि गंगा सरितां वरिष्ठा
तथार्जुनीनां कपिला वरिष्ठा ॥ ४२ ॥

मूलम्

बलान्विताः शीलवयोपपन्नाः
सर्वाः प्रशंसन्ते सुगन्धवत्यः ।
यथा हि गंगा सरितां वरिष्ठा
तथार्जुनीनां कपिला वरिष्ठा ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हृष्ट-पुष्ट, सीधी-सादी, जवान और उत्तम गन्धवाली सभी गौएँ प्रशंसनीय मानी गयी हैं। जैसे गंगा सब नदियोंमें श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार कपिला गौ सब गौओंमें उत्तम है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिस्रो रात्रीस्त्वद्भिरुपोष्य भूमौ
तृप्ता गावस्तर्पितेभ्यः प्रदेयाः ।
वत्सैः पुष्टैः क्षीरपैः सुप्रचारा-
स्त्र्यहं दत्त्वा गोरसैर्वर्तितव्यम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

तिस्रो रात्रीस्त्वद्भिरुपोष्य भूमौ
तृप्ता गावस्तर्पितेभ्यः प्रदेयाः ।
वत्सैः पुष्टैः क्षीरपैः सुप्रचारा-
स्त्र्यहं दत्त्वा गोरसैर्वर्तितव्यम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(गोदानकी विधि इस प्रकार है—) दाता तीन राततक उपवास करके केवल पानीके आधारपर रहे, पृथ्वीपर शयन करे और गौओंको घास-भूसा खिलाकर पूर्ण तृप्त करे। तत्पश्चात् ब्राह्मणोंको भोजन आदिसे संतुष्ट करके उन्हें वे गौएँ दे। उन गौओंके साथ दूध पीनेवाले हृष्ट-पुष्ट बछड़े भी होने चाहिये तथा वैसी ही स्फूर्तियुक्त गौएँ भी हों। गोदान करनेके पश्चात् तीन दिनोंतक केवल गोरस पीकर रहना चाहिये॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दत्त्वा धेनुं सुव्रतां साधुदोहां
कल्याणवत्सामपलायिनीं च ।
यावन्ति रोमाणि भवन्ति तस्या-
स्तावन्ति वर्षाणि भवन्त्यमुत्र ॥ ४४ ॥

मूलम्

दत्त्वा धेनुं सुव्रतां साधुदोहां
कल्याणवत्सामपलायिनीं च ।
यावन्ति रोमाणि भवन्ति तस्या-
स्तावन्ति वर्षाणि भवन्त्यमुत्र ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो गौ सीधी-सूधी हो, सुगमतासे अच्छी तरह दूध दुहा लेती हो, जिसका बछड़ा भी सुन्दर हो तथा जो बन्धन तुड़ाकर भागनेवाली न हो, ऐसी गौका दान करनेसे उसके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोंतक दाता परलोकमें सुख भोगता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथानड्‌वाहं ब्राह्मणाय प्रदाय
धुर्यं युवानं बलिनं विनीतम्।
हलस्य वोढारमनन्तवीर्यं
प्राप्नोति लोकान् दशधेनुदस्य ॥ ४५ ॥

मूलम्

तथानड्‌वाहं ब्राह्मणाय प्रदाय
धुर्यं युवानं बलिनं विनीतम्।
हलस्य वोढारमनन्तवीर्यं
प्राप्नोति लोकान् दशधेनुदस्य ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य ब्राह्मणको बोझ उठानेमें समर्थ, जवान, बलिष्ठ, विनीत—सीधा-सादा, हल खींचनेवाला और अधिक शक्तिशाली बैल दान करता है, वह दस धेनु दान करनेवालेके लोकोंमें जाता है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कान्तारे ब्राह्मणान् गाश्च यः परित्राति कौशिक।
क्षणेन विप्रमुच्येत तस्य पुण्यफलं शृणु ॥ ४६ ॥

मूलम्

कान्तारे ब्राह्मणान् गाश्च यः परित्राति कौशिक।
क्षणेन विप्रमुच्येत तस्य पुण्यफलं शृणु ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! जो दुर्गम वनमें फँसे हुए ब्राह्मण और गौओंका उद्धार करता है, वह एक ही क्षणमें समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा उसे जिस पुण्यफलकी प्राप्ति होती है, वह भी सुन लो॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वमेधक्रतोस्तुल्यं फलं भवति शाश्वतम्।
मृत्युकाले सहस्राक्ष यां वृत्तिमनुकाङ्‌क्षते ॥ ४७ ॥

मूलम्

अश्वमेधक्रतोस्तुल्यं फलं भवति शाश्वतम्।
मृत्युकाले सहस्राक्ष यां वृत्तिमनुकाङ्‌क्षते ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहस्राक्ष! उसे अश्वमेध यज्ञके समान अक्षय फल सुलभ होता है। वह मृत्युकालमें जिस स्थितिकी आकांक्षा करता है, उसे भी पा लेता है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकान् बहुविधान् दिव्यान्‌ यच्चास्य हृदि वर्तते।
तत् सर्वं समवाप्नोति कर्मणैतेन मानवः ॥ ४८ ॥

मूलम्

लोकान् बहुविधान् दिव्यान्‌ यच्चास्य हृदि वर्तते।
तत् सर्वं समवाप्नोति कर्मणैतेन मानवः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाना प्रकारके दिव्य लोक तथा उसके हृदयमें जो-जो कामना होती है, वह सब कुछ मनुष्य उपर्युक्त सत्कर्मके प्रभावसे प्राप्त कर लेता है॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोभिश्च समनुज्ञातः सर्वत्र च महीयते।
यस्त्वेतेनैव कल्पेन गां वनेष्वनुगच्छति ॥ ४९ ॥
तृणगोमयपर्णाशी निःस्पृहो नियतः शुचिः।
अकामं तेन वस्तव्यं मुदितेन शतक्रतो ॥ ५० ॥
मम लोके सुरैः सार्धं लोके यत्रापि चेच्छति ॥ ५१ ॥

मूलम्

गोभिश्च समनुज्ञातः सर्वत्र च महीयते।
यस्त्वेतेनैव कल्पेन गां वनेष्वनुगच्छति ॥ ४९ ॥
तृणगोमयपर्णाशी निःस्पृहो नियतः शुचिः।
अकामं तेन वस्तव्यं मुदितेन शतक्रतो ॥ ५० ॥
मम लोके सुरैः सार्धं लोके यत्रापि चेच्छति ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, वह गौओंसे अनुगृहीत होकर सर्वत्र पूजित होता है। शतक्रतो! जो मनुष्य उपर्युक्त विधिसे वनमें रहकर गौओंका अनुसरण करता है तथा निःस्पृह, संयमी और पवित्र होकर घास-पत्ते एवं गोबर खाता हुआ जीवन व्यतीत करता है, वह मनमें कोई कामना न होनेपर मेरे लोकमें देवताओंके साथ आनन्दपूर्वक निवास करता है। अथवा उसकी जहाँ इच्छा होती है, उन्हीं लोकोंमें चला जाता है॥४९—५१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पितामहेन्द्रसंवादे त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें ब्रह्माजी और इन्द्रका संवादविषयक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७३॥