भागसूचना
द्विसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
गौओंके लोक और गोदानविषयक युधिष्ठिर और इन्द्रके प्रश्न
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उक्तं ते गोप्रदानं वै नाचिकेतमृषिं प्रति।
माहात्म्यमपि चैवोक्तमुद्देशेन गवां प्रभो ॥ १ ॥
मूलम्
उक्तं ते गोप्रदानं वै नाचिकेतमृषिं प्रति।
माहात्म्यमपि चैवोक्तमुद्देशेन गवां प्रभो ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— प्रभो! आपने नाचिकेत ऋषिके प्रति किये गये गोदानसम्बन्धी उपदेशकी चर्चा की और गौओंके माहात्म्यका भी संक्षेपसे वर्णन किया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नृगेण च महद्दुःखमनुभूतं महात्मना।
एकापराधादज्ञानात् पितामह महामते ॥ २ ॥
मूलम्
नृगेण च महद्दुःखमनुभूतं महात्मना।
एकापराधादज्ञानात् पितामह महामते ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामते पितामह! महात्मा राजा नृगने अनजानमें किये हुए एकमात्र अपराधके कारण महान् दुःख भोगा था॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वारवत्यां यथा चासौ निविशन्त्यां समुद्धृतः।
मोक्षहेतुरभूत् कृष्णस्तदप्यवधृतं मया ॥ ३ ॥
मूलम्
द्वारवत्यां यथा चासौ निविशन्त्यां समुद्धृतः।
मोक्षहेतुरभूत् कृष्णस्तदप्यवधृतं मया ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब द्वारकापुरी बसने लगी थी, उस समय उनका उद्धार हुआ और उनके उस उद्धारमें हेतु हुए भगवान् श्रीकृष्ण। ये सारी बातें मैंने ध्यानसे सुनी और समझी हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं त्वस्ति मम संदेहो गवां लोकं प्रति प्रभो।
तत्त्वतः श्रोतुमिच्छामि गोदा यत्र वसन्त्युत ॥ ४ ॥
मूलम्
किं त्वस्ति मम संदेहो गवां लोकं प्रति प्रभो।
तत्त्वतः श्रोतुमिच्छामि गोदा यत्र वसन्त्युत ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु प्रभो! मुझे गोलोकके सम्बन्धमें कुछ संदेह है; अतः गोदान करनेवाले मनुष्य जिस लोकमें निवास करते हैं, उसका मैं यथार्थ वर्णन सुनना चाहता हूँ॥४॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यथापृच्छत् पद्मयोनिमेतदेव शतक्रतुः ॥ ५ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यथापृच्छत् पद्मयोनिमेतदेव शतक्रतुः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें जानकार लोग एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। जैसा कि इन्द्रने किसी समय ब्रह्माजीसे यही प्रश्न किया था॥५॥
मूलम् (वचनम्)
शक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्लोकवासिनां लक्ष्मीमभिभूय स्वयार्चिषा ।
गोलोकवासिनः पश्ये व्रजतः संशयोऽत्र मे ॥ ६ ॥
मूलम्
स्वर्लोकवासिनां लक्ष्मीमभिभूय स्वयार्चिषा ।
गोलोकवासिनः पश्ये व्रजतः संशयोऽत्र मे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने पूछा— भगवन्! मैं देखता हूँ कि गोलोक-निवासी पुरुष अपने तेजसे स्वर्गवासियोंकी कान्ति फीकी करते हुए उन्हें लाँघकर चले जाते हैं; अतः मेरे मनमें यहाँ यह संदेह होता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीदृशा भगवल्ँलोका गवां तद् ब्रूहि मेऽनघ।
यानावसन्ति दातार एतदिच्छामि वेदितुम् ॥ ७ ॥
मूलम्
कीदृशा भगवल्ँलोका गवां तद् ब्रूहि मेऽनघ।
यानावसन्ति दातार एतदिच्छामि वेदितुम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! गौओंके लोक कैसे हैं? अनघ! यह मुझे बताइये। गोदान करनेवाले लोग जिन लोकोंमें निवास करते हैं, उनके विषयमें निम्नांकित बातें जानना चाहता हूँ॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीदृशाः किंफलाः किंस्वित् परमस्तत्र को गुणः।
कथं च पुरुषास्तत्र गच्छन्ति विगतज्वराः ॥ ८ ॥
मूलम्
कीदृशाः किंफलाः किंस्वित् परमस्तत्र को गुणः।
कथं च पुरुषास्तत्र गच्छन्ति विगतज्वराः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे लोक कैसे हैं? वहाँ क्या फल मिलता है? वहाँका सबसे महान् गुण क्या है? गोदान करनेवाले मनुष्य सब चिन्ताओंसे मुक्त होकर वहाँ किस प्रकार पहुँचते हैं?॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कियत्कालं प्रदानस्य दाता च फलमश्नुते।
कथं बहुविधं दानं स्यादल्पमपि वा कथम् ॥ ९ ॥
मूलम्
कियत्कालं प्रदानस्य दाता च फलमश्नुते।
कथं बहुविधं दानं स्यादल्पमपि वा कथम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दाताको गोदानका फल वहाँ कितने समयतक भोगनेको मिलता है? अनेक प्रकारका दान कैसे किया जाता है? अथवा थोड़ा-सा भी दान किस प्रकार सम्भव होता है?॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बह्वीनां कीदृशं दानमल्पानां वापि कीदृशम्।
अदत्त्वा गोप्रदाः सन्ति केन वा तच्च शंस मे॥१०॥
मूलम्
बह्वीनां कीदृशं दानमल्पानां वापि कीदृशम्।
अदत्त्वा गोप्रदाः सन्ति केन वा तच्च शंस मे॥१०॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-सी गौओंका दान कैसा होता है? अथवा थोड़ी-सी गौओंका दान कैसा माना जाता है? गोदान न करके भी लोग किस उपायसे गोदान करनेवालोंके समान हो जाते हैं? यह मुझे बताइये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं वा बहुदाता स्यादल्पदात्रा समः प्रभो।
अल्पप्रदाता बहुदः कथं स्वित् स्यादिहेश्वर ॥ ११ ॥
मूलम्
कथं वा बहुदाता स्यादल्पदात्रा समः प्रभो।
अल्पप्रदाता बहुदः कथं स्वित् स्यादिहेश्वर ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! बहुत दान करनेवाला पुरुष अल्प दान करनेवालेके समान कैसे हो जाता है? तथा सुरेश्वर! अल्प दान करनेवाला पुरुष बहुत दान करनेवालेके तुल्य किस प्रकार हो जाता है?॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीदृशी दक्षिणा चैव गोप्रदाने विशिष्यते।
एतत् तथ्येन भगवन् मम शंसितुमर्हसि ॥ १२ ॥
मूलम्
कीदृशी दक्षिणा चैव गोप्रदाने विशिष्यते।
एतत् तथ्येन भगवन् मम शंसितुमर्हसि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! गोदानमें कैसी दक्षिणा श्रेष्ठ मानी जाती है? यह सब यथार्थरूपसे मुझे बतानेकी कृपा करें॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि गोप्रदानिके द्विसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गोदानसम्बन्धी बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७२॥