०७१ यमवाक्यम्

भागसूचना

एकसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पिताके शापसे नाचिकेतका यमराजके पास जाना और यमराजका नाचिकेतको गोदानकी महिमा बताना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दत्तानां फलसम्प्राप्तिं गवां प्रब्रूहि मेऽनघ।
विस्तरेण महाबाहो न हि तृप्यामि कथ्यताम् ॥ १ ॥

मूलम्

दत्तानां फलसम्प्राप्तिं गवां प्रब्रूहि मेऽनघ।
विस्तरेण महाबाहो न हि तृप्यामि कथ्यताम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— निष्पाप महाबाहो! गौओंके दानसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह मुझे विस्तारके साथ बताइये। मुझे आपके वचनामृतोंको सुनते-सुनते तृप्ति नहीं होती है, इसलिये अभी और कहिये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
ऋषेरुद्दालकेर्वाक्यं नाचिकेतस्य चोभयोः ॥ २ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
ऋषेरुद्दालकेर्वाक्यं नाचिकेतस्य चोभयोः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! इस विषयमें विज्ञ पुरुष उद्दालक ऋषि और नाचिकेत दोनोंके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषिरुद्दालकिर्दीक्षामुपगम्य ततः सुतम् ।
त्वं मामुपचरस्वेति नाचिकेतमभाषत ॥ ३ ॥

मूलम्

ऋषिरुद्दालकिर्दीक्षामुपगम्य ततः सुतम् ।
त्वं मामुपचरस्वेति नाचिकेतमभाषत ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समय उद्दालक ऋषिने यज्ञकी दीक्षा लेकर अपने पुत्र नाचिकेतसे कहा—‘तुम मेरी सेवामें रहो।’॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाप्ते नियमे तस्मिन् महर्षिः पुत्रमब्रवीत्।
उपस्पर्शनसक्तस्य स्वाध्यायाभिरतस्य च ॥ ४ ॥
इध्मा दर्भाः सुमनसः कलशश्चातिभोजनम्।
विस्मृतं मे तदादाय नदीतीरादिहाव्रज ॥ ५ ॥

मूलम्

समाप्ते नियमे तस्मिन् महर्षिः पुत्रमब्रवीत्।
उपस्पर्शनसक्तस्य स्वाध्यायाभिरतस्य च ॥ ४ ॥
इध्मा दर्भाः सुमनसः कलशश्चातिभोजनम्।
विस्मृतं मे तदादाय नदीतीरादिहाव्रज ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस यज्ञका नियम पूरा हो जानेपर महर्षिने अपने पुत्रसे कहा—‘बेटा! मैंने समिधा, कुशा, फूल, जलका घड़ा और प्रचुर भोजन-सामग्री (फल-फूल आदि)—इन सबका संग्रह करके नदीके किनारे रख दिया और स्नान तथा वेदपाठ करने लगा। फिर उन सब वस्तुओंको भूलकर मैं यहाँ चला आया। अब तुम जाकर नदीतटसे वह सब सामान यहाँ ले आओ’॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गत्वानवाप्य तत् सर्वं नदीवेगसमाप्लुतम्।
न पश्यामि तदित्येवं पितरं सोऽब्रवीन्मुनिः ॥ ६ ॥

मूलम्

गत्वानवाप्य तत् सर्वं नदीवेगसमाप्लुतम्।
न पश्यामि तदित्येवं पितरं सोऽब्रवीन्मुनिः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाचिकेत जब वहाँ गया, तब उसे कुछ न मिला। सारा सामान नदीके वेगमें बह गया था। नाचिकेत मुनि लौट आया और पितासे बोला—‘मुझे तो वहाँ वह सब सामान नहीं दिखायी दिया’॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुत्पिपासाश्रमाविष्टो मुनिरुद्दालकिस्तदा ।
यमं पश्येति तं पुत्रमशपत् स महातपाः ॥ ७ ॥

मूलम्

क्षुत्पिपासाश्रमाविष्टो मुनिरुद्दालकिस्तदा ।
यमं पश्येति तं पुत्रमशपत् स महातपाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महातपस्वी उद्दालक मुनि उस समय भूख-प्याससे कष्ट पा रहे थे, अतः रुष्ट होकर बोले—‘अरे वह सब तुम्हें क्यों दिखायी देगा? जाओ यमराजको देखो।’ इस प्रकार उन्होंने उसे शाप दे दिया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा स पित्राभिहतो वाग्वज्रेण कृताञ्जलिः।
प्रसीदेति ब्रुवन्नेव गतसत्त्वोऽपतद् भुवि ॥ ८ ॥

मूलम्

तथा स पित्राभिहतो वाग्वज्रेण कृताञ्जलिः।
प्रसीदेति ब्रुवन्नेव गतसत्त्वोऽपतद् भुवि ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताके वाग्वज्रसे पीड़ित हुआ नाचिकेत हाथ जोड़कर बोला—‘प्रभो! प्रसन्न होइये।’ इतना ही कहते-कहते वह निष्प्राण होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाचिकेतं पिता दृष्ट्‌वा पतितं दुःखमूर्च्छितः।
किं मया कृतमित्युक्त्वा निपपात महीतले ॥ ९ ॥

मूलम्

नाचिकेतं पिता दृष्ट्‌वा पतितं दुःखमूर्च्छितः।
किं मया कृतमित्युक्त्वा निपपात महीतले ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाचिकेतको गिरा देख उसके पिता भी दुःखसे मूर्च्छित हो गये और ‘अरे, यह मैंने क्या कर डाला!’ ऐसा कहकर पृथ्वीपर गिर पड़े॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य दुःखपरीतस्य स्वं पुत्रमनुशोचतः।
व्यतीतं तदहःशेषं सा चोग्रा तत्र शर्वरी ॥ १० ॥

मूलम्

तस्य दुःखपरीतस्य स्वं पुत्रमनुशोचतः।
व्यतीतं तदहःशेषं सा चोग्रा तत्र शर्वरी ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुःखमें डूबे और बारंबार अपने पुत्रके लिये शोक करते हुए ही महर्षिका वह शेष दिन व्यतीत हो गया और भयानक रात्रि भी आकर समाप्त हो गयी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पित्र्येणाश्रुप्रपातेन नाचिकेतः कुरूद्वह ।
प्रास्पन्दच्छयने कौश्ये वृष्ट्‌या सस्यमिवाप्लुतम् ॥ ११ ॥

मूलम्

पित्र्येणाश्रुप्रपातेन नाचिकेतः कुरूद्वह ।
प्रास्पन्दच्छयने कौश्ये वृष्ट्‌या सस्यमिवाप्लुतम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! कुशकी चटाईपर पड़ा हुआ नाचिकेत पिताके आँसुओंकी धारासे भीगकर कुछ हिलने-डुलने लगा, मानो वर्षासे सिंचकर अनाजकी सूखी खेती हरी हो गयी हो॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पर्यपृच्छत् तं पुत्रं क्षीणं पर्यागतं पुनः।
दिव्यैर्गन्धैः समादिग्धं क्षीणस्वप्नमिवोत्थितम् ॥ १२ ॥

मूलम्

स पर्यपृच्छत् तं पुत्रं क्षीणं पर्यागतं पुनः।
दिव्यैर्गन्धैः समादिग्धं क्षीणस्वप्नमिवोत्थितम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षिका वह पुत्र मरकर पुनः लौट आया, मानो नींद टूट जानेसे जाग उठा हो। उसका शरीर दिव्य सुगन्धसे व्याप्त हो रहा था। उस समय उद्दालकने उससे पूछा—॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि पुत्र जिता लोकाः शुभास्ते स्वेन कर्मणा।
दिष्ट्‌या चासि पुनः प्राप्तो न हि ते मानुषं वपुः॥१३॥

मूलम्

अपि पुत्र जिता लोकाः शुभास्ते स्वेन कर्मणा।
दिष्ट्‌या चासि पुनः प्राप्तो न हि ते मानुषं वपुः॥१३॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! क्या तुमने अपने कर्मसे शुभ लोकोंपर विजय पायी है? मेरे सौभाग्यसे ही तुम पुनः यहाँ चले आये हो। तुम्हारा यह शरीर मनुष्योंका-सा नहीं है—दिव्य भावको प्राप्त हो गया है’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य पित्रा पृष्टो महात्मना।
स तां वार्तां पितुर्मध्ये महर्षीणां न्यवेदयत् ॥ १४ ॥

मूलम्

प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य पित्रा पृष्टो महात्मना।
स तां वार्तां पितुर्मध्ये महर्षीणां न्यवेदयत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने महात्मा पिताके इस प्रकार पूछनेपर परलोककी सब बातोंको प्रत्यक्ष देखनेवाला नाचिकेत महर्षियोंके बीचमें पितासे वहाँका सब वृत्तान्त निवेदन करने लगा—॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुर्वन् भवच्छासनमाशु यातो
ह्यहं विशालां रुचिरप्रभावाम् ।
वैवस्वतीं प्राप्य सभामपश्यं
सहस्रशो योजनहेमभासम् ॥ १५ ॥

मूलम्

कुर्वन् भवच्छासनमाशु यातो
ह्यहं विशालां रुचिरप्रभावाम् ।
वैवस्वतीं प्राप्य सभामपश्यं
सहस्रशो योजनहेमभासम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पिताजी! मैं आपकी आज्ञाका पालन करनेके लिये यहाँसे तुरन्त प्रस्थित हुआ और मनोहर कान्ति एवं प्रभावसे युक्त विशाल यमपुरीमें पहुँचकर मैंने वहाँकी सभा देखी, जो सुवर्णके समान सुन्दर प्रभासे प्रकाशित हो रही थी। उसका तेज सहस्रों योजन दूरतक फैला हुआ था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्‌वैव मामभिमुखमापतन्तं
देहीति स ह्यासनमादिदेश ।
वैवस्वतोऽर्घ्यादिभिरर्हणैश्च
भवत्कृते पूजयामास मां सः ॥ १६ ॥

मूलम्

दृष्ट्‌वैव मामभिमुखमापतन्तं
देहीति स ह्यासनमादिदेश ।
वैवस्वतोऽर्घ्यादिभिरर्हणैश्च
भवत्कृते पूजयामास मां सः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुझे सामनेसे आते देख विवस्वान्‌के पुत्र यमने अपने सेवकोंको आज्ञा दी कि ‘इनके लिये आसन दो।’ उन्होंने आपके नाते अर्घ्य आदि पूजनसम्बन्धी उपचारोंसे स्वयं ही मेरा पूजन किया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त्वहं तं शनकैरवोचं
वृतः सदस्यैरभिपूज्यमानः ।
प्राप्तोऽस्मि ते विषयं धर्मराज
लोकानर्हो यानहं तान् विधत्स्व ॥ १७ ॥

मूलम्

ततस्त्वहं तं शनकैरवोचं
वृतः सदस्यैरभिपूज्यमानः ।
प्राप्तोऽस्मि ते विषयं धर्मराज
लोकानर्हो यानहं तान् विधत्स्व ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तब सब सदस्योंसे घिरकर उनके द्वारा पूजित होते हुए मैंने वैवस्वत यमसे धीरेसे कहा—‘धर्मराज! मैं आपके राज्यमें आया हूँ; मैं जिन लोकोंमें जानेके योग्य होऊँ, उनमें जानेके लिये मुझे आज्ञा दीजिये’॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमोऽब्रवीन्मां न मृतोऽसि सौम्य
यमं पश्येत्याह स त्वां तपस्वी।
पिता प्रदीप्ताग्निसमानतेजा
न तच्छक्यमनृतं विप्र कर्तुम् ॥ १८ ॥

मूलम्

यमोऽब्रवीन्मां न मृतोऽसि सौम्य
यमं पश्येत्याह स त्वां तपस्वी।
पिता प्रदीप्ताग्निसमानतेजा
न तच्छक्यमनृतं विप्र कर्तुम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तब यमराजने मुझसे कहा—“सौम्य! तुम मरे नहीं हो। तुम्हारे तपस्वी पिताने इतना ही कहा था कि तुम यमराजको देखो। विप्रवर! वे तुम्हारे पिता प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी हैं। उनकी बात झूठी नहीं की जा सकती॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्टस्तेऽहं प्रतिगच्छस्व तात
शोचत्यसौ तव देहस्य कर्ता।
ददानि किं चापि मनःप्रणीतं
प्रियातिथेस्तव कामान् वृणीष्व ॥ १९ ॥

मूलम्

दृष्टस्तेऽहं प्रतिगच्छस्व तात
शोचत्यसौ तव देहस्य कर्ता।
ददानि किं चापि मनःप्रणीतं
प्रियातिथेस्तव कामान् वृणीष्व ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“तात! तुमने मुझे देख लिया। अब तुम लौट जाओ। तुम्हारे शरीरका निर्माण करनेवाले वे तुम्हारे पिताजी शोकमग्न हो रहे हैं। वत्स! तुम मेरे प्रिय अतिथि हो। तुम्हारा कौन-सा मनोरथ मैं पूर्ण करूँ। तुम्हारी जिस-जिस वस्तुके लिये इच्छा हो, उसे माँग लो”॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनैवमुक्तस्तमहं प्रत्यवोचं
प्राप्तोऽस्मि ते विषयं दुर्निवर्त्यम्।
इच्छाम्यहं पुण्यकृतां समृद्धान्
लोकान् द्रष्टुं यदि तेऽहं वरार्हः ॥ २० ॥

मूलम्

तेनैवमुक्तस्तमहं प्रत्यवोचं
प्राप्तोऽस्मि ते विषयं दुर्निवर्त्यम्।
इच्छाम्यहं पुण्यकृतां समृद्धान्
लोकान् द्रष्टुं यदि तेऽहं वरार्हः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उनके ऐसा कहनेपर मैंने इस प्रकार उत्तर दिया—‘भगवन्! मैं आपके उस राज्यमें आ गया हूँ, जहाँसे लौटकर जाना अत्यन्त कठिन है। यदि मैं आपकी दृष्टिमें वर पानेके योग्य होऊँ तो पुण्यात्मा पुरुषोंको मिलनेवाले समृद्धिशाली लोकोंका मैं दर्शन करना चाहता हूँ’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानं समारोप्य तु मां स देवो
वाहैर्युक्तं सुप्रभं भानुमत् तत्।
संदर्शयामास तदात्मलोकान्
सर्वांस्तथा पुण्यकृतां द्विजेन्द्र ॥ २१ ॥

मूलम्

यानं समारोप्य तु मां स देवो
वाहैर्युक्तं सुप्रभं भानुमत् तत्।
संदर्शयामास तदात्मलोकान्
सर्वांस्तथा पुण्यकृतां द्विजेन्द्र ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘द्विजेन्द्र! तब यम देवताने वाहनोंसे जुते हुए उत्तम प्रकाशसे युक्त तेजस्वी रथपर मुझे बिठाकर पुण्यात्माओंको प्राप्त होनेवाले अपने यहाँके सभी लोकोंका मुझे दर्शन कराया॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपश्यं तत्र वेश्मानि तैजसानि महात्मनाम्।
नानासंस्थानरूपाणि सर्वरत्नमयानि च ॥ २२ ॥

मूलम्

अपश्यं तत्र वेश्मानि तैजसानि महात्मनाम्।
नानासंस्थानरूपाणि सर्वरत्नमयानि च ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तब मैंने महामनस्वी पुरुषोंको प्राप्त होनेवाले वहाँके तेजोमय भवनोंका दर्शन किया। उनके रूप-रंग और आकार-प्रकार अनेक तरहके थे। उन भवनोंका सब प्रकारके रत्नोंद्वारा निर्माण किया गया था॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्रमण्डलशुभ्राणि किङ्किणीजालवन्ति च ।
अनेकशतभौमानि सान्तर्जलवनानि च ॥ २३ ॥
वैदूर्यार्कप्रकाशानि रूप्यरुक्ममयानि च ।
तरुणादित्यवर्णानि स्थावराणि चराणि च ॥ २४ ॥

मूलम्

चन्द्रमण्डलशुभ्राणि किङ्किणीजालवन्ति च ।
अनेकशतभौमानि सान्तर्जलवनानि च ॥ २३ ॥
वैदूर्यार्कप्रकाशानि रूप्यरुक्ममयानि च ।
तरुणादित्यवर्णानि स्थावराणि चराणि च ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कोई चन्द्रमण्डलके समान उज्ज्वल थे। किन्हींपर क्षुद्रघंटियोंसे युक्त झालरें लगी थीं। उनमें सैकड़ों कक्षाएँ और मंजिलें थीं। उनके भीतर जलाशय और वन-उपवन सुशोभित थे। कितनोंका प्रकाश नीलमणिमय सूर्यके समान था। कितने ही चाँदी और सोनेके बने हुए थे। किन्हीं-किन्हीं भवनोंके रंग प्रातःकालीन सूर्यके समान लाल थे। उनमेंसे कुछ विमान या भवन तो स्थावर थे और कुछ इच्छानुसार विचरनेवाले थे॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्ष्यभोज्यमयान् शैलान् वासांसि शयनानि च।
सर्वकामफलांश्चैव वृक्षान् भवनसंस्थितान् ॥ २५ ॥

मूलम्

भक्ष्यभोज्यमयान् शैलान् वासांसि शयनानि च।
सर्वकामफलांश्चैव वृक्षान् भवनसंस्थितान् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन भवनोंमें भक्ष्य और भोज्य पदार्थोंके पर्वत खड़े थे। वस्त्रों और शय्याओंके ढेर लगे थे तथा सम्पूर्ण मनोवांछित फलोंको देनेवाले बहुत-से वृक्ष उन गृहोंकी सीमाके भीतर लहलहा रहे थे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नद्यो वीथ्यः सभा वाप्यो दीर्घिकाश्चैव सर्वशः।
घोषवन्ति च यानानि युक्तान्यथ सहस्रशः ॥ २६ ॥

मूलम्

नद्यो वीथ्यः सभा वाप्यो दीर्घिकाश्चैव सर्वशः।
घोषवन्ति च यानानि युक्तान्यथ सहस्रशः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन दिव्य लोकोंमें बहुत-सी नदियाँ, गलियाँ, सभाभवन, बावड़ियाँ, तालाब और जोतकर तैयार खड़े हुए घोषयुक्त सहस्रों रथ मैंने सब ओर देखे थे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षीरस्रवा वै सरितो गिरींश्च
सर्पिस्तथा विमलं चापि तोयम्।
वैवस्वतस्यानुमतांश्च देशा-
नदृष्टपूर्वान् सुबहूनपश्यम् ॥ २७ ॥

मूलम्

क्षीरस्रवा वै सरितो गिरींश्च
सर्पिस्तथा विमलं चापि तोयम्।
वैवस्वतस्यानुमतांश्च देशा-
नदृष्टपूर्वान् सुबहूनपश्यम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने दूध बहानेवाली नदियाँ, पर्वत, घी और निर्मल जल भी देखे तथा यमराजकी अनुमतिसे और भी बहुत-से पहलेके न देखे हुए प्रदेशोंका दर्शन किया॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वान् दृष्ट्‌वा तदहं धर्मराज-
मवोचं वै प्रभविष्णुं पुराणम्।
क्षीरस्यैताः सर्पिषश्चैव नद्यः
शश्वत्स्रोताः कस्य भोज्याः प्रदिष्टाः ॥ २८ ॥

मूलम्

सर्वान् दृष्ट्‌वा तदहं धर्मराज-
मवोचं वै प्रभविष्णुं पुराणम्।
क्षीरस्यैताः सर्पिषश्चैव नद्यः
शश्वत्स्रोताः कस्य भोज्याः प्रदिष्टाः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन सबको देखकर मैंने प्रभावशाली पुरातन देवता धर्मराजसे कहा—‘प्रभो! ये जो घी और दूधकी नदियाँ बहती रहती हैं, जिनका स्रोत कभी सूखता नहीं है, किनके उपभोगमें आती हैं—इन्हें किनका भोजन नियत किया गया है?’॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमोऽब्रवीद् विद्धि भोज्यास्त्वमेता
ये दातारः साधवो गोरसानाम्।
अन्ये लोकाः शाश्वता वीतशोकैः
समाकीर्णा गोप्रदाने रतानाम् ॥ २९ ॥

मूलम्

यमोऽब्रवीद् विद्धि भोज्यास्त्वमेता
ये दातारः साधवो गोरसानाम्।
अन्ये लोकाः शाश्वता वीतशोकैः
समाकीर्णा गोप्रदाने रतानाम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यमराजने कहा—“ब्रह्मन्! तुम इन नदियोंको उन श्रेष्ठ पुरुषोंका भोजन समझो, जो गोरस दान करनेवाले हैं। जो गोदानमें तत्पर हैं, उन पुण्यात्माओंके लिये दूसरे भी सनातन लोक विद्यमान हैं, जिनमें दुःख-शोकसे रहित पुण्यात्मा भरे पड़े हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वेतासां दानमात्रं प्रशस्तं
पात्रं कालो गोविशेषो विधिश्च।
ज्ञात्वा देयं विप्र गवान्तरं हि
दुःखं ज्ञातुं पावकादित्यभूतम् ॥ ३० ॥

मूलम्

न त्वेतासां दानमात्रं प्रशस्तं
पात्रं कालो गोविशेषो विधिश्च।
ज्ञात्वा देयं विप्र गवान्तरं हि
दुःखं ज्ञातुं पावकादित्यभूतम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“विप्रवर! केवल इनका दानमात्र ही प्रशस्त नहीं है; सुपात्र ब्राह्मण, उत्तम समय, विशिष्ट गौ तथा दानकी सर्वोत्तम विधि—इन सब बातोंको जानकर ही गोदान करना चाहिये। गौओंका आपसमें जो तारतम्य है, उसे जानना बहुत कठिन काम है और अग्नि एवं सूर्यके समान तेजस्वी पात्रको पहचानना भी सरल नहीं है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाध्यायवान् योऽतिमात्रं तपस्वी
वैतानस्थो ब्राह्मणः पात्रमासाम् ।
कृच्छ्रोत्सृष्टाः पोषणाभ्यागताश्च
द्वारैरेतैर्गोविशेषाः प्रशस्ताः ॥ ३१ ॥

मूलम्

स्वाध्यायवान् योऽतिमात्रं तपस्वी
वैतानस्थो ब्राह्मणः पात्रमासाम् ।
कृच्छ्रोत्सृष्टाः पोषणाभ्यागताश्च
द्वारैरेतैर्गोविशेषाः प्रशस्ताः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“जो ब्राह्मण वेदोंके स्वाध्यायसे सम्पन्न, अत्यन्त तपस्वी तथा यज्ञके अनुष्ठानमें लगा हुआ हो, वही इन गौओंके दानका सर्वोत्तम पात्र है। इनके सिवा जो ब्राह्मण कृच्छ्रव्रतसे मुक्त हुए हों और परिवारकी पुष्टिके लिये गोदानके प्रार्थी होकर आये हों, वे भी दानके उत्तम पात्र हैं। इन सुयोग्य पात्रोंको निमित्त बनाकर दानमें दी गयी श्रेष्ठ गौएँ उत्तम मानी गयी हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिस्त्रो रात्र्यस्त्वद्भिरुपोष्य भूमौ
तृप्ता गावस्तर्पितेभ्यः प्रदेयाः ।
वत्सैः प्रीताः सुप्रजाः सोपचारा-
स्त्र्यहं दत्त्वा गोरसैर्वर्तितव्यम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

तिस्त्रो रात्र्यस्त्वद्भिरुपोष्य भूमौ
तृप्ता गावस्तर्पितेभ्यः प्रदेयाः ।
वत्सैः प्रीताः सुप्रजाः सोपचारा-
स्त्र्यहं दत्त्वा गोरसैर्वर्तितव्यम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“तीन राततक उपवासपूर्वक केवल जल पीकर धरतीपर शयन करे। तत्पश्चात् खिला-पिलाकर तृप्त की हुई गौओंका भोजन आदिसे संतुष्ट किये हुए ब्राह्मणोंको दान करे। वे गौएँ बछड़ोंके साथ रहकर प्रसन्न हों, सुन्दर बच्चे देनेवाली हों तथा अन्यान्य आवश्यक सामग्रियोंसे युक्त हों। ऐसी गौओंका दान करके तीन दिनोंतक केवल गोरसका आहार करके रहना चाहिये॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दत्त्वा धेनुं सुव्रतां कांस्यदोहां
कल्याणवत्सामपलायिनीं च ।
यावन्ति रोमाणि भवन्ति तस्या-
स्तावद् वर्षाण्यश्नुते स्वर्गलोकम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

दत्त्वा धेनुं सुव्रतां कांस्यदोहां
कल्याणवत्सामपलायिनीं च ।
यावन्ति रोमाणि भवन्ति तस्या-
स्तावद् वर्षाण्यश्नुते स्वर्गलोकम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“उत्तम शील-स्वभाववाली, भले बछड़ेवाली और भागकर न जानेवाली दुधारू गायका कांस्यके दुग्धपात्रसहित दान करके उस गौके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोंतक दाता स्वर्गलोकका सुख भोगता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथानड्‌वाहं ब्राह्मणेभ्यः प्रदाय
दान्तं धुर्यं बलवन्तं युवानम्।
कुलानुजीव्यं वीर्यवन्तं बृहन्तं
भुङ्क्ते लोकान् सम्मितान्‌ धेनुदस्य ॥ ३४ ॥

मूलम्

तथानड्‌वाहं ब्राह्मणेभ्यः प्रदाय
दान्तं धुर्यं बलवन्तं युवानम्।
कुलानुजीव्यं वीर्यवन्तं बृहन्तं
भुङ्क्ते लोकान् सम्मितान्‌ धेनुदस्य ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“इसी प्रकार जो शिक्षा देकर काबूमें किये हुए, बोझ ढोनेमें समर्थ, बलवान्, जवान, कृषक-समुदायकी जीविका चलानेयोग्य, पराक्रमी और विशाल डील-डौलवाले बैलका ब्राह्मणोंको दान देता है, वह दुधारू गायका दान करनेवालेके तुल्य ही उत्तम लोकोंका उपभोग करता है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोषु क्षान्तं गोशरण्यं कृतज्ञं
वृत्तिग्लानं तादृशं पात्रमाहुः ।
वृद्धे ग्लाने सम्भ्रमे वा महार्थे
कृष्यर्थं वा होम्यहेतोः प्रसूत्याम् ॥ ३५ ॥
गुर्वर्थं वा बालपुष्ट्‌याभिषंगां
गां वै दातुं देशकालोऽविशिष्टः।
अन्तर्ज्ञाताः सक्रयज्ञानलब्धाः
प्राणक्रीता निर्जिता यौतकाश्च ॥ ३६ ॥

मूलम्

गोषु क्षान्तं गोशरण्यं कृतज्ञं
वृत्तिग्लानं तादृशं पात्रमाहुः ।
वृद्धे ग्लाने सम्भ्रमे वा महार्थे
कृष्यर्थं वा होम्यहेतोः प्रसूत्याम् ॥ ३५ ॥
गुर्वर्थं वा बालपुष्ट्‌याभिषंगां
गां वै दातुं देशकालोऽविशिष्टः।
अन्तर्ज्ञाताः सक्रयज्ञानलब्धाः
प्राणक्रीता निर्जिता यौतकाश्च ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो गौओंके प्रति क्षमाशील, उनकी रक्षा करनेमें समर्थ, कृतज्ञ और आजीविकासे रहित है, ऐसे ब्राह्मणको गोदानका उत्तम पात्र बताया गया है। जो बूढ़ा हो, रोगी होनेके कारण पथ्य-भोजन चाहता हो, दुर्भिक्ष आदिके कारण घबराया हो, किसी महान् यज्ञका अनुष्ठान करनेवाला हो या जिसके लिये खेतीकी आवश्यकता आ पड़ी हो, होमके लिये हविष्य प्राप्त करनेकी इच्छा हो अथवा घरमें स्त्रीके बच्चा पैदा होनेवाला हो अथवा गुरुके लिये दक्षिणा देनी हो अथवा बालककी पुष्टिके लिये गोदुग्धकी आवश्यकता आ पड़ी हो, ऐसे व्यक्तियोंको ऐसे अवसरोंपर गोदानके लिये सामान्य देश-काल माना गया है (ऐसे समयमें देश-कालका विचार नहीं करना चाहिये)। जिन गौओंका विशेष भेद जाना हुआ हो, जो खरीदकर लायी गयी हों अथवा ज्ञानके पुरस्काररूपसे प्राप्त हुई हों अथवा प्राणियोंके अदला-बदलीसे खरीदी गयी हों या जीतकर लायी गयी हों अथवा दहेजमें मिली हों, ऐसी गौएँ दानके लिये उत्तम मानी गयी हैं”॥

मूलम् (वचनम्)

नाचिकेत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा वैवस्वतवचस्तमहं पुनरब्रुवम् ।
अभावे गोप्रदातॄणां कथं लोकान् हि गच्छति ॥ ३७ ॥

मूलम्

श्रुत्वा वैवस्वतवचस्तमहं पुनरब्रुवम् ।
अभावे गोप्रदातॄणां कथं लोकान् हि गच्छति ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाचिकेत कहता है— वैवस्वत यमकी बात सुनकर मैंने पुनः उनसे पूछा—‘भगवन्! यदि अभाववश गोदान न किया जा सके तो गोदान करनेवालोंको ही मिलनेवाले लोकोंमें मनुष्य कैसे जा सकता है?”॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीद् यमो धीमान् गोप्रदानपरां गतिम्।
गोप्रदानानुकल्पं तु गामृते सन्ति गोप्रदाः ॥ ३८ ॥

मूलम्

ततोऽब्रवीद् यमो धीमान् गोप्रदानपरां गतिम्।
गोप्रदानानुकल्पं तु गामृते सन्ति गोप्रदाः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर बुद्धिमान् यमराजने गोदानसम्बन्धी गति तथा गोदानके समान फल देनेवाले दानका वर्णन किया, जिसके अनुसार बिना गायके भी लोग गोदान करनेवाले हो सकते हैं?॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलाभे यो गवां दद्याद् घृतधेनुं यतव्रतः।
तस्यैता घृतवाहिन्यः भरन्ते वत्सला इव ॥ ३९ ॥

मूलम्

अलाभे यो गवां दद्याद् घृतधेनुं यतव्रतः।
तस्यैता घृतवाहिन्यः भरन्ते वत्सला इव ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो गौओंके अभावमें संयम-नियमसे युक्त हो घृतधेनुका दान करता है, उसके लिये ये घृतवाहिनी नदियाँ वत्सला गौओंकी भाँति घृत बहाती हैं॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घृतालाभे तु यो दद्यात् तिलधेनुं यतव्रतः।
स दुर्गात् तारितो धेन्वा क्षीरनद्यां प्रमोदते ॥ ४० ॥

मूलम्

घृतालाभे तु यो दद्यात् तिलधेनुं यतव्रतः।
स दुर्गात् तारितो धेन्वा क्षीरनद्यां प्रमोदते ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘घीके अभावमें जो व्रत-नियमसे युक्त हो तिलमयी धेनुका दान करता है, वह उस धेनुके द्वारा संकटसे उद्धार पाकर दूधकी नदीमें आनन्दित होता है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिलालाभे तु यो दद्याज्जलधेनुं यतव्रतः।
स कामप्रवहां शीतां नदीमेतामुपाश्नुते ॥ ४१ ॥

मूलम्

तिलालाभे तु यो दद्याज्जलधेनुं यतव्रतः।
स कामप्रवहां शीतां नदीमेतामुपाश्नुते ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तिलके अभावमें जो व्रतशील एवं नियमनिष्ठ होकर जलमयी धेनुका दान करता है, वह अभीष्ट वस्तुओंको बहानेवाली इस शीतल नदीके निकट रहकर सुख भोगता है’॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतानि मे तत्र धर्मराजो न्यदर्शयत्।
दृष्ट्‌वा च परमं हर्षमवापमहमच्युत ॥ ४२ ॥

मूलम्

एवमेतानि मे तत्र धर्मराजो न्यदर्शयत्।
दृष्ट्‌वा च परमं हर्षमवापमहमच्युत ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले पूज्य पिताजी! इस प्रकार धर्मराजने मुझे वहाँ ये सब स्थान दिखाये। वह सब देखकर मुझे बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवेदये चाहमिमं प्रियं ते
क्रतुर्महानल्पधनप्रचारः ।
प्राप्तो मया तात स मत्प्रसूतः
प्रपत्स्यते वेदविधिप्रवृत्तः ॥ ४३ ॥

मूलम्

निवेदये चाहमिमं प्रियं ते
क्रतुर्महानल्पधनप्रचारः ।
प्राप्तो मया तात स मत्प्रसूतः
प्रपत्स्यते वेदविधिप्रवृत्तः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! मैं आपके लिये यह प्रिय वृत्तान्त निवेदन करता हूँ कि मैंने वहाँ थोड़े-से ही धनसे सिद्ध होनेवाला यह गोदानरूप महान् यज्ञ प्राप्त किया है। वह यहाँ वेदविधिके अनुसार मुझसे प्रकट होकर सर्वत्र प्रचलित होगा॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शापो ह्ययं भवतोऽनुग्रहाय
प्राप्तो मया यत्र दृष्टो यमो वै।
दानव्युष्टिं तत्र दृष्ट्‌वा महात्मन्
निःसंदिग्धान् दानधर्मांश्चरिष्ये ॥ ४४ ॥

मूलम्

शापो ह्ययं भवतोऽनुग्रहाय
प्राप्तो मया यत्र दृष्टो यमो वै।
दानव्युष्टिं तत्र दृष्ट्‌वा महात्मन्
निःसंदिग्धान् दानधर्मांश्चरिष्ये ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके द्वारा मुझे जो शाप मिला, वह वास्तवमें मुझपर अनुग्रहके लिये ही प्राप्त हुआ था, जिससे मैंने यमलोकमें जाकर वहाँ यमराजको देखा। महात्मन्! वहाँ दानके फलको प्रत्यक्ष देखकर मैं संदेहरहित दानधर्मोंका अनुष्ठान करूँगा॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं च मामब्रवीद् धर्मराजः
पुनः पुनः सम्प्रहृष्टो महर्षे।
दानेन यः प्रयतोऽभूत् सदैव
विशेषतो गोप्रदानं च कुर्यात् ॥ ४५ ॥

मूलम्

इदं च मामब्रवीद् धर्मराजः
पुनः पुनः सम्प्रहृष्टो महर्षे।
दानेन यः प्रयतोऽभूत् सदैव
विशेषतो गोप्रदानं च कुर्यात् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षे! धर्मराजने बारंबार प्रसन्न होकर मुझसे यह भी कहा था कि ‘जो लोग दानसे सदा पवित्र होना चाहें’ वे विशेषरूपसे गोदान करें॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुद्धो ह्यर्थो नावमन्यस्व धर्मान्
पात्रे देयं देशकालोपपन्ने ।
तस्माद् गावस्ते नित्यमेव प्रदेया
मा भूच्च ते संशयः कश्चिदत्र ॥ ४६ ॥

मूलम्

शुद्धो ह्यर्थो नावमन्यस्व धर्मान्
पात्रे देयं देशकालोपपन्ने ।
तस्माद् गावस्ते नित्यमेव प्रदेया
मा भूच्च ते संशयः कश्चिदत्र ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुनिकुमार! धर्म निर्दोष विषय है। तुम धर्मकी अवहेलना न करना। उत्तम देश, काल प्राप्त होनेपर सुपात्रको दान देते रहना चाहिये। अतः तुम्हें सदा ही गोदान करना उचित है। इस विषयमें तुम्हारे भीतर कोई संदेह नहीं होना चाहिये॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एताः पुरा ह्यददन्नित्यमेव
शान्तात्मानो दानपथे निविष्टाः ।
तपांस्युग्राण्यप्रतिशङ्‌कमाना-
स्ते वै दानं प्रददुश्चैव शक्त्या ॥ ४७ ॥

मूलम्

एताः पुरा ह्यददन्नित्यमेव
शान्तात्मानो दानपथे निविष्टाः ।
तपांस्युग्राण्यप्रतिशङ्‌कमाना-
स्ते वै दानं प्रददुश्चैव शक्त्या ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पूर्वकालमें शान्तचित्तवाले पुरुषोंने दानके मार्गमें स्थित हो नित्य ही गौओंका दान किया था। वे अपनी उग्र तपस्याके विषयमें संदेह न रखते हुए भी यथाशक्ति दान देते ही रहते थे॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काले च शक्त्या मत्सरं वर्जयित्वा
शुद्धात्मानः श्रद्धिनः पुण्यशीलाः ।
दत्त्वा गा वै लोकममुं प्रपन्ना
देदीप्यन्ते पुण्यशीलास्तु नाके ॥ ४८ ॥

मूलम्

काले च शक्त्या मत्सरं वर्जयित्वा
शुद्धात्मानः श्रद्धिनः पुण्यशीलाः ।
दत्त्वा गा वै लोकममुं प्रपन्ना
देदीप्यन्ते पुण्यशीलास्तु नाके ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कितने ही शुद्धचित्त, श्रद्धालु एवं पुण्यात्मा पुरुष ईर्ष्याका त्याग करके समयपर यथाशक्ति गोदान करके परलोकमें पहुँचकर अपने पुण्यमय शील-स्वभावके कारण स्वर्गलोकमें प्रकाशित होते हैं॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् दानं न्यायलब्धं द्विजेभ्यः
पात्रे दत्तं प्रापणीयं परीक्ष्य।
काम्याष्टम्या वर्तितव्यं दशाहं
रसैर्गवां शकृता प्रस्नवैर्वा ॥ ४९ ॥

मूलम्

एतद् दानं न्यायलब्धं द्विजेभ्यः
पात्रे दत्तं प्रापणीयं परीक्ष्य।
काम्याष्टम्या वर्तितव्यं दशाहं
रसैर्गवां शकृता प्रस्नवैर्वा ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए इस गोधनका ब्राह्मणोंको दान करना चाहिये तथा पात्रकी परीक्षा करके सुपात्रको दी हुई गाय उसके घर पहुँचा देना चाहिये और किसी भी शुभ अष्टमीसे आरम्भ करके दस दिनोंतक मनुष्यको गोरस, गोबर अथवा गोमूत्रका आहार करके रहना चाहिये॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवव्रती स्याद् वृषभप्रदानै-
र्वेदावाप्तिर्गोयुगस्य प्रदाने ।
तीर्थावाप्तिर्गोप्रयुक्तप्रदाने
पापोत्सर्गः कपिलायाः प्रदाने ॥ ५० ॥

मूलम्

देवव्रती स्याद् वृषभप्रदानै-
र्वेदावाप्तिर्गोयुगस्य प्रदाने ।
तीर्थावाप्तिर्गोप्रयुक्तप्रदाने
पापोत्सर्गः कपिलायाः प्रदाने ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘एक बैलका दान करनेसे मनुष्य देवताओंका सेवक होता है। दो बैलोंका दान करनेपर उसे वेद-विद्याकी प्राप्ति होती है। उन बैलोंसे जुते हुए छकड़ेका दान करनेसे तीर्थसेवनका फल प्राप्त होता है और कपिला गायके दानसे समस्त पापोंका परित्याग हो जाता है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गामप्येकां कपिलां सम्प्रदाय
न्यायोपेतां कलुषाद् विप्रमुच्येत् ।
गवां रसात् परमं नास्ति किंचिद्
गवां प्रदानं सुमहद् वदन्ति ॥ ५१ ॥

मूलम्

गामप्येकां कपिलां सम्प्रदाय
न्यायोपेतां कलुषाद् विप्रमुच्येत् ।
गवां रसात् परमं नास्ति किंचिद्
गवां प्रदानं सुमहद् वदन्ति ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्य न्यायतः प्राप्त हुई एक भी कपिला गायका दान करके सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। गोरससे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है; इसीलिये विद्वान् पुरुष गोदानको महादान बतलाते हैं॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावो लोकांस्तारयन्ति क्षरन्त्यो
गावश्चान्नं संजनयन्ति लोके ।
यस्तं जानन्न गवां हार्दमेति
स वै गन्ता निरयं पापचेताः ॥ ५२ ॥

मूलम्

गावो लोकांस्तारयन्ति क्षरन्त्यो
गावश्चान्नं संजनयन्ति लोके ।
यस्तं जानन्न गवां हार्दमेति
स वै गन्ता निरयं पापचेताः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौएँ दूध देकर सम्पूर्ण लोकोंका भूखके कष्टसे उद्धार करती हैं। ये लोकमें सबके लिये अन्न पैदा करती हैं। इस बातको जानकर भी जो गौओंके प्रति सौहार्दका भाव नहीं रखता, वह पापात्मा मनुष्य नरकमें पड़ता है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यैस्तद् दत्तं गोसहस्रं शतं वा
दशार्धं वा दश वा साधुवत्सम्।
अप्येका वै साधवे ब्राह्मणाय
सास्यामुष्मिन् पुण्यतीर्था नदी वै ॥ ५३ ॥

मूलम्

यैस्तद् दत्तं गोसहस्रं शतं वा
दशार्धं वा दश वा साधुवत्सम्।
अप्येका वै साधवे ब्राह्मणाय
सास्यामुष्मिन् पुण्यतीर्था नदी वै ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो मनुष्य किसी श्रेष्ठ ब्राह्मणको सहस्र, शत, दस अथवा पाँच गौओंका उनके अच्छे बछड़ोंसहित दान करता है अथवा एक ही गाय देता है, उसके लिये वह गौ परलोकमें पवित्र तीर्थोंवाली नदी बन जाती है॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्त्या पुष्ट्‌या लोकसंरक्षणेन
गावस्तुल्याः सूर्यपादैः पृथिव्याम् ।
शब्दश्चैकः संततिश्चोपभोगा-
स्तस्माद् गोदः सूर्य इवावभाति ॥ ५४ ॥

मूलम्

प्राप्त्या पुष्ट्‌या लोकसंरक्षणेन
गावस्तुल्याः सूर्यपादैः पृथिव्याम् ।
शब्दश्चैकः संततिश्चोपभोगा-
स्तस्माद् गोदः सूर्य इवावभाति ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्राप्ति, पुष्टि तथा लोकरक्षा करनेके द्वारा गौएँ इस पृथ्वीपर सूर्यकी किरणोंके समान मानी गयी हैं। एक ही ‘गो’ शब्द धेनु और सूर्य-किरणोंका बोधक है। गौओंसे ही संतति और उपभोग प्राप्त होते हैं; अतः गोदान करनेवाला मनुष्य किरणोंका दान करनेवाले सूर्यके ही समान माना जाता है॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुं शिष्यो वरयेद् गोप्रदाने
स वै गन्ता नियतं स्वर्गमेव।
विधिज्ञानां सुमहान् धर्म एष
विधिं ह्याद्यं विधयः संविशन्ति ॥ ५५ ॥

मूलम्

गुरुं शिष्यो वरयेद् गोप्रदाने
स वै गन्ता नियतं स्वर्गमेव।
विधिज्ञानां सुमहान् धर्म एष
विधिं ह्याद्यं विधयः संविशन्ति ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शिष्य जब गोदान करने लगे, तब उसे ग्रहण करनेके लिये गुरुको चुने। यदि गुरुने वह गोदान स्वीकार कर लिया तो शिष्य निश्चय ही स्वर्गलोकमें जाता है। विधिके जाननेवाले पुरुषोंके लिये यह गोदान महान् धर्म है। अन्य सब विधियाँ इस आदि विधिमें ही अन्तर्भूत हो जाती हैं॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं दानं न्यायलब्धं द्विजेभ्यः
पात्रे दत्त्वा प्रापयेथाः परीक्ष्य।
त्वय्याशंसन्त्यमरा मानवाश्च
वयं चापि प्रसृते पुण्यशीले ॥ ५६ ॥

मूलम्

इदं दानं न्यायलब्धं द्विजेभ्यः
पात्रे दत्त्वा प्रापयेथाः परीक्ष्य।
त्वय्याशंसन्त्यमरा मानवाश्च
वयं चापि प्रसृते पुण्यशीले ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम न्यायके अनुसार गोधन प्राप्त करके पात्रकी परीक्षा करनेके पश्चात् श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको उनका दान कर देना और दी हुई वस्तुको ब्राह्मणके घर पहुँचा देना। तुम पुण्यात्मा और पुण्यकार्यमें प्रवृत्त रहनेवाले हो; अतः देवता, मनुष्य तथा हमलोग तुमसे धर्मकी ही आशा रखते हैं’॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तोऽहं धर्मराजं द्विजर्षे
धर्मात्मानं शिरसाभिप्रणम्य ।
अनुज्ञातस्तेन वैवस्वतेन
प्रत्यागमं भगवत्पादमूलम् ॥ ५७ ॥

मूलम्

इत्युक्तोऽहं धर्मराजं द्विजर्षे
धर्मात्मानं शिरसाभिप्रणम्य ।
अनुज्ञातस्तेन वैवस्वतेन
प्रत्यागमं भगवत्पादमूलम् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मर्षे! धर्मराजके ऐसा कहनेपर मैंने उन धर्मात्मा देवताको मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और फिर उनकी आज्ञा लेकर मैं आपके चरणोंके समीप लौट आया॥५७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि यमवाक्यं नाम एकसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें यमराजका वाक्य नामक इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७१॥