०७० नृगोपाख्याने

भागसूचना

सप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ब्राह्मणके धनका अपहरण करनेसे होनेवाली हानिके विषयमें दृष्टान्तके रूपमें राजा नृगका उपाख्यान

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रैव कीर्त्यते सद्भिर्ब्राह्मणस्वाभिमर्शने ।
नृगेण सुमहत् कृच्छ्रं यदवाप्तं कुरूद्वह ॥ १ ॥

मूलम्

अत्रैव कीर्त्यते सद्भिर्ब्राह्मणस्वाभिमर्शने ।
नृगेण सुमहत् कृच्छ्रं यदवाप्तं कुरूद्वह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— कुरुश्रेष्ठ! इस विषयमें श्रेष्ठ पुरुष वह प्रसंग सुनाया करते हैं, जिसके अनुसार एक ब्राह्मणके धनको ले लेनेके कारण राजा नृगको महान् कष्ट उठाना पड़ा था॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निविशन्त्यां पुरा पार्थ द्वारवत्यामिति श्रुतिः।
अदृश्यत महाकूपस्तृणवीरुत्समावृतः ॥ २ ॥

मूलम्

निविशन्त्यां पुरा पार्थ द्वारवत्यामिति श्रुतिः।
अदृश्यत महाकूपस्तृणवीरुत्समावृतः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्थ! हमारे सुननेमें आया है कि पूर्वकालमें जब द्वारकापुरी बस रही थी, उसी समय वहाँ घास और लताओंसे ढँका हुआ एक विशाल कूप दिखायी दिया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयत्नं तत्र कुर्वाणास्तस्मात् कूपाज्जलार्थिनः।
श्रमेण महता युक्तास्तस्मिंस्तोये सुसंवृते ॥ ३ ॥
ददृशुस्ते महाकायं कृकलासमवस्थितम् ।

मूलम्

प्रयत्नं तत्र कुर्वाणास्तस्मात् कूपाज्जलार्थिनः।
श्रमेण महता युक्तास्तस्मिंस्तोये सुसंवृते ॥ ३ ॥
ददृशुस्ते महाकायं कृकलासमवस्थितम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ रहनेवाले यदुवंशी बालक उस कुएँका जल पीनेकी इच्छासे बड़े परिश्रमके साथ उस घास-फूसको हटानेके लिये महान् प्रयत्न करने लगे। इतनेहीमें उस कुएँके ढँके हुए जलमें स्थित हुए एक विशालकाय गिरगिटपर उनकी दृष्टि पड़ी॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य चोद्धरणे यत्नमकुर्वंस्ते सहस्रशः ॥ ४ ॥
प्रग्रहैश्चर्मपट्टैश्च तं बद्‌ध्वा पर्वतोपमम्।
नाशक्नुवन् समुद्धर्तुं ततो जग्मुर्जनार्दनम् ॥ ५ ॥

मूलम्

तस्य चोद्धरणे यत्नमकुर्वंस्ते सहस्रशः ॥ ४ ॥
प्रग्रहैश्चर्मपट्टैश्च तं बद्‌ध्वा पर्वतोपमम्।
नाशक्नुवन् समुद्धर्तुं ततो जग्मुर्जनार्दनम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो वे सहस्रों बालक उस गिरगिटको निकालनेका यत्न करने लगे। गिरगिटका शरीर एक पर्वतके समान था। बालकोंने उसे रस्सियों और चमड़ेकी पट्टियोंसे बाँधकर खींचनेके लिये बहुत जोर लगाया परंतु वह टस-से-मस न हुआ। जब बालक उसे निकालनेमें सफल न हो सके, तब वे भगवान् श्रीकृष्णके पास गये॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खमावृत्योदपानस्य कृकलासः स्थितो महान्।
तस्य नास्ति समुद्धर्तेत्येतत् कृष्णे न्यवेदयन् ॥ ६ ॥

मूलम्

खमावृत्योदपानस्य कृकलासः स्थितो महान्।
तस्य नास्ति समुद्धर्तेत्येतत् कृष्णे न्यवेदयन् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णसे निवेदन किया—‘भगवन्! एक बहुत बड़ा गिरगिट कुएँमें पड़ा है, जो उस कुएँके सारे आकाशको घेरकर बैठा है; पर उसे निकालनेवाला कोई नहीं है’॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वासुदेवेन समुद्‌धृतश्च
पृष्टश्च कार्यं निजगाद राजा।
नृगस्तदाऽऽत्मानमथो न्यवेदयत्
पुरातनं यज्ञसहस्रयाजिनम् ॥ ७ ॥

मूलम्

स वासुदेवेन समुद्‌धृतश्च
पृष्टश्च कार्यं निजगाद राजा।
नृगस्तदाऽऽत्मानमथो न्यवेदयत्
पुरातनं यज्ञसहस्रयाजिनम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण उस कुएँके पास गये। उन्होंने उस गिरगिटको कुएँसे बाहर निकाला और अपने पावन हाथके स्पर्शसे राजा नृगका उद्धार कर दिया। इसके बाद उनसे परिचय पूछा। तब राजाने उन्हें अपना परिचय देते हुए कहा—‘प्रभो! पूर्वजन्ममें मैं राजा नृग था, जिसने एक सहस्र यज्ञोंका अनुष्ठान किया था’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा ब्रुवाणं तु तमाह माधवः
शुभं त्वया कर्म कृतं न पापकम्।
कथं भवान् दुर्गतिमीदृशीं गतो
नरेन्द्र तद् ब्रूहि किमेतदीदृशम् ॥ ८ ॥

मूलम्

तथा ब्रुवाणं तु तमाह माधवः
शुभं त्वया कर्म कृतं न पापकम्।
कथं भवान् दुर्गतिमीदृशीं गतो
नरेन्द्र तद् ब्रूहि किमेतदीदृशम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी ऐसी बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने पूछा—‘राजन्! आपने तो सदा पुण्यकर्म ही किया था, पापकर्म कभी नहीं किया, फिर आप ऐसी दुर्गतिमें कैसे पड़ गये? बताइये, क्यों आपको यह ऐसा कष्ट प्राप्त हुआ?॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतं सहस्राणि गवां शतं पुनः
पुनः शतान्यष्टशतायुतानि ।
त्वया पुरा दत्तमितीह शुश्रुम
नृप द्विजेभ्यः क्व नु तद् गतं तव ॥ ९ ॥

मूलम्

शतं सहस्राणि गवां शतं पुनः
पुनः शतान्यष्टशतायुतानि ।
त्वया पुरा दत्तमितीह शुश्रुम
नृप द्विजेभ्यः क्व नु तद् गतं तव ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! हमने सुना है कि पूर्वकालमें आपने ब्राह्मणोंको पहले एक लाख गौएँ दान कीं। दूसरी बार सौ गौओंका दान किया। तीसरी बार पुनः सौ गौएँ दानमें दीं। फिर चौथी बार आपने गोदानका ऐसा सिलसिला चलाया कि लगातार अस्सी लाख गौओंका दान कर दिया। (इस प्रकार आपके द्वारा इक्यासी लाख दो सौ गौएँ दानमें दी गयीं।) आपके उन सब दानोंका पुण्यफल कहाँ चला गया?’॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृगस्ततोऽब्रवीत्‌ कृष्णं ब्राह्मणस्याग्निहोत्रिणः ।
प्रोषितस्य परिभ्रष्टा गौरेका मम गोधने ॥ १० ॥

मूलम्

नृगस्ततोऽब्रवीत्‌ कृष्णं ब्राह्मणस्याग्निहोत्रिणः ।
प्रोषितस्य परिभ्रष्टा गौरेका मम गोधने ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजा नृगने भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—‘प्रभो! एक अग्निहोत्री ब्राह्मण परदेश चला गया था। उसके पास एक गाय थी, जो एक दिन अपने स्थानसे भागकर मेरी गौओंके झुंडमें आ मिली॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गवां सहस्रे संख्याता तदा सा पशुपैर्मम।
सा ब्राह्मणाय मे दत्ता प्रेत्यार्थमभिकाङ्‌क्षता ॥ ११ ॥

मूलम्

गवां सहस्रे संख्याता तदा सा पशुपैर्मम।
सा ब्राह्मणाय मे दत्ता प्रेत्यार्थमभिकाङ्‌क्षता ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उस समय मेरे ग्वालोंने दानके लिये मँगायी गयी एक हजार गौओंमें उसकी भी गिनती करा दी और मैंने परलोकमें मनोवांछित फलकी इच्छासे वह गौ भी एक ब्राह्मणको दे दी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपश्यत् परिमार्गंश्च तां गां परगृहे द्विजः।
ममेयमिति चोवाच ब्राह्मणो यस्य साभवत् ॥ १२ ॥

मूलम्

अपश्यत् परिमार्गंश्च तां गां परगृहे द्विजः।
ममेयमिति चोवाच ब्राह्मणो यस्य साभवत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुछ दिनों बाद जब वह ब्राह्मण परदेशसे लौटा, तब अपनी गाय ढूँढ़ने लगा। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते जब वह गाय उसे दूसरेके घर मिली, तब उस ब्राह्मणने, जिसकी वह गौ पहले थी, उस दूसरे ब्राह्मणसे कहा—‘यह गाय तो मेरी है’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावुभौ समनुप्राप्तौ विवदन्तौ भृशज्वरौ।
भवान् दाता भवान्‌ हर्तेत्यथ तौ मामवोचताम् ॥ १३ ॥

मूलम्

तावुभौ समनुप्राप्तौ विवदन्तौ भृशज्वरौ।
भवान् दाता भवान्‌ हर्तेत्यथ तौ मामवोचताम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘फिर तो वे दोनों आपसमें लड़ पड़े और अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए मेरे पास आये। उनमेंसे एकने कहा—“महाराज! यह गौ आपने मुझे दानमें दी है (और यह ब्राह्मण इसे अपनी बता रहा है।)” दूसरेने कहा—“महाराज! वास्तवमें यह मेरी गाय है। आपने उसे चुरा लिया है”॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतेन शतसंख्येन गवां विनिमयेन वै।
याचे प्रतिग्रहीतारं स तु मामब्रवीदिदम् ॥ १४ ॥
देशकालोपसम्पन्ना दोग्ध्री शान्तातिवत्सला ।
स्वादुक्षीरप्रदा धन्या मम नित्यं निवेशने ॥ १५ ॥

मूलम्

शतेन शतसंख्येन गवां विनिमयेन वै।
याचे प्रतिग्रहीतारं स तु मामब्रवीदिदम् ॥ १४ ॥
देशकालोपसम्पन्ना दोग्ध्री शान्तातिवत्सला ।
स्वादुक्षीरप्रदा धन्या मम नित्यं निवेशने ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तब मैंने दान लेनेवाले ब्राह्मणसे प्रार्थनापूर्वक कहा—‘मैं इस गायके बदले आपको दस हजार गौएँ देता हूँ (आप इन्हें इनकी गाय वापस दे दीजिये)। यह सुनकर वह यों बोला—‘महाराज! यह गौ देश-कालके अनुरूप, पूरा दूध देनेवाली, सीधी-सादी और अत्यन्त दयालुस्वभावकी है। यह बहुत मीठा दूध देनेवाली है। धन्य भाग्य जो यह मेरे घर आयी। यह सदा मेरे ही यहाँ रहे॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतं च भरते सा गौर्मम पुत्रमपस्तनम्।
न सा शक्या मया दातुमित्युक्त्वा स जगाम ह॥१६॥

मूलम्

कृतं च भरते सा गौर्मम पुत्रमपस्तनम्।
न सा शक्या मया दातुमित्युक्त्वा स जगाम ह॥१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपने दूधसे यह गौ मेरे मातृहीन शिशुका प्रतिदिन पालन करती है; अतः मैं इसे कदापि नहीं दे सकता।” यह कहकर वह उस गायको लेकर चला गया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तमपरं विप्रं याचे विनिमयेन वै।
गवां शतसहस्रं हि तत्कृते गृह्यतामिति ॥ १७ ॥

मूलम्

ततस्तमपरं विप्रं याचे विनिमयेन वै।
गवां शतसहस्रं हि तत्कृते गृह्यतामिति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तब मैंने उन दूसरे ब्राह्मणसे याचना की—‘भगवन्! उसके बदलेमें आप मुझसे एक लाख गौएँ ले लीजिये”॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न राज्ञां प्रतिगृह्णामि शक्तोऽहं स्वस्य मार्गणे।
सैव गौर्दीयतां शीघ्रं ममेति मधुसूदन ॥ १८ ॥

मूलम्

न राज्ञां प्रतिगृह्णामि शक्तोऽहं स्वस्य मार्गणे।
सैव गौर्दीयतां शीघ्रं ममेति मधुसूदन ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मधुसूदन! तब उस ब्राह्मणने कहा—“मैं राजाओंका दान नहीं लेता। मैं अपने लिये धनका उपार्जन करनेमें समर्थ हूँ। मुझे तो शीघ्र मेरी वही गौ ला दीजिये”॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुक्ममश्वांश्च ददतो रजतस्यन्दनांस्तथा ।
न जग्राह ययौ चापि तदा स ब्राह्मणर्षभः ॥ १९ ॥

मूलम्

रुक्ममश्वांश्च ददतो रजतस्यन्दनांस्तथा ।
न जग्राह ययौ चापि तदा स ब्राह्मणर्षभः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने उसे सोना, चाँदी, रथ और घोड़े—सब कुछ देना चाहा; परंतु वह उत्तम ब्राह्मण कुछ न लेकर तत्काल चुपचाप चला गया॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नेव काले तु चोदितः कालधर्मणा।
पितृलोकमहं प्राप्य धर्मराजमुपागमम् ॥ २० ॥

मूलम्

एतस्मिन्नेव काले तु चोदितः कालधर्मणा।
पितृलोकमहं प्राप्य धर्मराजमुपागमम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसी बीचमें कालकी प्रेरणासे मैं मृत्युको प्राप्त हुआ और पितृलोकमें पहुँचकर धर्मराजसे मिला॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमस्तु पूजयित्वा मां ततो वचनमब्रवीत्।
नान्तः संख्यायते राजंस्तव पुण्यस्य कर्मणः ॥ २१ ॥
अस्ति चैव कृतं पापमज्ञानात् तदपि त्वया।
चरस्व पापं पश्चाद् वा पूर्वं वा त्वं यथेच्छसि॥२२॥

मूलम्

यमस्तु पूजयित्वा मां ततो वचनमब्रवीत्।
नान्तः संख्यायते राजंस्तव पुण्यस्य कर्मणः ॥ २१ ॥
अस्ति चैव कृतं पापमज्ञानात् तदपि त्वया।
चरस्व पापं पश्चाद् वा पूर्वं वा त्वं यथेच्छसि॥२२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यमराजने मेरा आदर-सत्कार करके मुझसे यह बात कही—“राजन्! तुम्हारे पुण्यकर्मोंकी तो गिनती ही नहीं है। परन्तु अनजानमें तुमसे एक पाप भी बन गया है। उस पापको तुम पीछे भोगो या पहले ही भोग लो, जैसी तुम्हारी इच्छा हो, करो॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षितास्मीति चोक्तं ते प्रतिज्ञा चानृता तव।
ब्राह्मणस्वस्य चादानं द्विविधस्ते व्यतिक्रमः ॥ २३ ॥

मूलम्

रक्षितास्मीति चोक्तं ते प्रतिज्ञा चानृता तव।
ब्राह्मणस्वस्य चादानं द्विविधस्ते व्यतिक्रमः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

“आपने प्रजाके धन-जनकी रक्षाके लिये प्रतिज्ञा की थी; किंतु उस ब्राह्मणकी गाय खो जानेके कारण आपकी वह प्रतिज्ञा झूठी हो गयी। दूसरी बात यह है कि आपने ब्राह्मणके धनका भूलसे अपहरण कर लिया था। इस तरह आपके द्वारा दो तरहका अपराध हो गया है”॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वं कृच्छ्रं चरिष्येऽहं पश्चाच्छुभमिति प्रभो।
धर्मराजं ब्रुवन्नेवं पतितोऽस्मि महीतले ॥ २४ ॥

मूलम्

पूर्वं कृच्छ्रं चरिष्येऽहं पश्चाच्छुभमिति प्रभो।
धर्मराजं ब्रुवन्नेवं पतितोऽस्मि महीतले ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तब मैंने धर्मराजसे कहा—प्रभो! मैं पहले पाप ही भोग लूँगा। उसके बाद पुण्यका उपभोग करूँगा। इतना कहना था कि मैं पृथ्वीपर गिरा॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्रौषं पतितश्चाहं यमस्योच्चैः प्रभाषतः।
वासुदेवः समुद्धर्ता भविता ते जनार्दनः ॥ २५ ॥
पूर्णे वर्षसहस्रान्ते क्षीणे कर्मणि दुष्कृते।
प्राप्स्यसे शाश्वताल्लोँकाञ्जितान् स्वेनैव कर्मणा ॥ २६ ॥

मूलम्

अश्रौषं पतितश्चाहं यमस्योच्चैः प्रभाषतः।
वासुदेवः समुद्धर्ता भविता ते जनार्दनः ॥ २५ ॥
पूर्णे वर्षसहस्रान्ते क्षीणे कर्मणि दुष्कृते।
प्राप्स्यसे शाश्वताल्लोँकाञ्जितान् स्वेनैव कर्मणा ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गिरते समय उच्चस्वरसे बोलते हुए यमराजकी यह बात मेरे कानोंमें पड़ी—‘महाराज! एक हजार दिव्य वर्ष पूर्ण होनेपर तुम्हारे पापकर्मका भोग समाप्त होगा। उस समय जनार्दन भगवान् श्रीकृष्ण आकर तुम्हारा उद्धार करेंगे और तुम अपने पुण्यकर्मोंके प्रभावसे प्राप्त हुए सनातन लोकोंमें जाओगे’॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कूपेऽऽत्मानमधःशीर्षमपश्यं पतितश्च ह ।
तिर्यग्योनिमनुप्राप्तं न च मामजहात् स्मृतिः ॥ २७ ॥

मूलम्

कूपेऽऽत्मानमधःशीर्षमपश्यं पतितश्च ह ।
तिर्यग्योनिमनुप्राप्तं न च मामजहात् स्मृतिः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुएँमें गिरनेपर मैंने देखा, मुझे तिर्यग्योनि (गिरगिटकी देह) मिली है और मेरा सिर नीचेकी ओर है। इस योनिमें भी मेरी पूर्वजन्मोंकी स्मरणशक्तिने मेरा साथ नहीं छोड़ा है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया तु तारितोऽस्म्यद्य किमन्यत्र तपोबलात्।
अनुजानीहि मां कृष्ण गच्छेयं दिवमद्य वै ॥ २८ ॥

मूलम्

त्वया तु तारितोऽस्म्यद्य किमन्यत्र तपोबलात्।
अनुजानीहि मां कृष्ण गच्छेयं दिवमद्य वै ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण! आज आपने मेरा उद्धार कर दिया। इसमें आपके तपोबलके सिवा और क्या कारण हो सकता है। अब मुझे आज्ञा दीजिये, मैं स्वर्गलोकको जाऊँगा’॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुज्ञातः स कृष्णेन नमस्कृत्य जनार्दनम्।
दिव्यमास्थाय पन्थानं ययौ दिवमरिंदमः ॥ २९ ॥

मूलम्

अनुज्ञातः स कृष्णेन नमस्कृत्य जनार्दनम्।
दिव्यमास्थाय पन्थानं ययौ दिवमरिंदमः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें आज्ञा दे दी और वे शत्रुदमन नरेश उन्हें प्रणाम करके दिव्य मार्गका आश्रय ले स्वर्गलोकको चले गये॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्मिन् दिवं याते नृगे भरतसत्तम।
वासुदेव इमं श्लोकं जगाद कुरुनन्दन ॥ ३० ॥

मूलम्

ततस्तस्मिन् दिवं याते नृगे भरतसत्तम।
वासुदेव इमं श्लोकं जगाद कुरुनन्दन ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! कुरुनन्दन! राजा नृगके स्वर्गलोकको चले जानेपर वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने इस श्लोकका गान किया—॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणस्वं न हर्तव्यं पुरुषेण विजानता।
ब्राह्मणस्वं हृतं हन्ति नृगं ब्राह्मणगौरिव ॥ ३१ ॥

मूलम्

ब्राह्मणस्वं न हर्तव्यं पुरुषेण विजानता।
ब्राह्मणस्वं हृतं हन्ति नृगं ब्राह्मणगौरिव ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘समझदार मनुष्यको ब्राह्मणके धनका अपहरण नहीं करना चाहिये। चुराया हुआ ब्राह्मणका धन चोरका उसी प्रकार नाश कर देता है, जैसे ब्राह्मणकी गौने राजा नृगका सर्वनाश किया था’॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतां समागमः सद्भिर्नाफलः पार्थ विद्यते।
विमुक्तं नरकात् पश्य नृगं साधुसमागमात् ॥ ३२ ॥

मूलम्

सतां समागमः सद्भिर्नाफलः पार्थ विद्यते।
विमुक्तं नरकात् पश्य नृगं साधुसमागमात् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! यदि सज्जन पुरुष सत्पुरुषोंका संग करें तो उनका वह संग व्यर्थ नहीं जाता। देखो, श्रेष्ठ पुरुषके समागमके कारण राजा नृगका नरकसे उद्धार हो गया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रदानफलवत् तत्र द्रोहस्तत्र तथाफलः।
अपचारं गवां तस्माद् वर्जयेत युधिष्ठिर ॥ ३३ ॥

मूलम्

प्रदानफलवत् तत्र द्रोहस्तत्र तथाफलः।
अपचारं गवां तस्माद् वर्जयेत युधिष्ठिर ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! गौओंका दान करनेसे जैसा उत्तम फल मिलता है, वैसे ही गौओंसे द्रोह करनेपर बहुत बड़ा कुफल भोगना पड़ता है; इसलिये गौओंको कभी कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिये॥३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि नृगोपाख्याने सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें नृगका उपाख्यानविषयक सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७०॥