भागसूचना
एकोनसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
गोदानकी महिमा तथा गौओं और ब्राह्मणोंकी रक्षासे पुण्यकी प्राप्ति
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूय एव कुरुश्रेष्ठ दानानां विधिमुत्तमम्।
कथयस्व महाप्राज्ञ भूमिदानं विशेषतः ॥ १ ॥
मूलम्
भूय एव कुरुश्रेष्ठ दानानां विधिमुत्तमम्।
कथयस्व महाप्राज्ञ भूमिदानं विशेषतः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— महाप्राज्ञ कुरुश्रेष्ठ! आप दानकी उत्तम विधिका फिरसे वर्णन कीजिये। विशेषतः भूमिदानका महत्त्व बताइये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिवीं क्षत्रियो दद्याद् ब्राह्मणायेष्टिकर्मिणे।
विधिवत् प्रतिगृह्णीयान्न त्वन्यो दातुमर्हति ॥ २ ॥
मूलम्
पृथिवीं क्षत्रियो दद्याद् ब्राह्मणायेष्टिकर्मिणे।
विधिवत् प्रतिगृह्णीयान्न त्वन्यो दातुमर्हति ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
केवल क्षत्रिय राजा ही यज्ञ करनेवाले ब्राह्मणको पृथ्वीका दान कर सकता है और उसीसे ब्राह्मण विधि-पूर्वक भूमिका प्रतिग्रह ले सकता है। दूसरा कोई यह दान नहीं कर सकता॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्ववर्णैस्तु यच्छक्यं प्रदातुं फलकाङ्क्षिभिः।
वेदे वा यत् समाख्यातं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥
मूलम्
सर्ववर्णैस्तु यच्छक्यं प्रदातुं फलकाङ्क्षिभिः।
वेदे वा यत् समाख्यातं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दानके फलकी इच्छा रखनेवाले सभी वर्णोंके लोग जो दान कर सकें अथवा वेदमें जिस दानका वर्णन हो, उसकी मेरे समक्ष व्याख्या कीजिये॥३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुल्यनामानि देयानि त्रीणि तुल्यफलानि च।
सर्वकामफलानीह गावः पृथ्वी सरस्वती ॥ ४ ॥
मूलम्
तुल्यनामानि देयानि त्रीणि तुल्यफलानि च।
सर्वकामफलानीह गावः पृथ्वी सरस्वती ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! गाय, भूमि और सरस्वती—ये तीनों समान नामवाली हैं—इन तीनों वस्तुओंका दान करना चाहिये। इन तीनोंके दानका फल भी समान ही है। ये तीनों वस्तुएँ मनुष्योंकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण करनेवाली हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो ब्रूयाच्चापि शिष्याय धर्म्यां ब्राह्मीं सरस्वतीम्।
पृथिवीगोप्रदानाभ्यां तुल्यं स फलमश्नुते ॥ ५ ॥
मूलम्
यो ब्रूयाच्चापि शिष्याय धर्म्यां ब्राह्मीं सरस्वतीम्।
पृथिवीगोप्रदानाभ्यां तुल्यं स फलमश्नुते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मण अपने शिष्यको धर्मानुकूल ब्राह्मी सरस्वती (वेदवाणी) का उपदेश करता है, वह भूमिदान और गोदानके समान फलका भागी होता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव गाः प्रशंसन्ति न तु देयं ततः परम्।
संनिकृष्टफलास्ता हि लघ्वर्थाश्च युधिष्ठिर ॥ ६ ॥
मूलम्
तथैव गाः प्रशंसन्ति न तु देयं ततः परम्।
संनिकृष्टफलास्ता हि लघ्वर्थाश्च युधिष्ठिर ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार गोदानकी भी प्रशंसा की गयी है। उससे बढ़कर कोई दान नहीं है। युधिष्ठिर! गोदानका फल निकट भविष्यमें मिलता है तथा वे गौएँ शीघ्र अभीष्ट अर्थकी सिद्धि करती हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातरः सर्वभूतानां गावः सर्वसुखप्रदाः।
वृद्धिमाकाङ्क्षता नित्यं गावः कार्याः प्रदक्षिणाः ॥ ७ ॥
मूलम्
मातरः सर्वभूतानां गावः सर्वसुखप्रदाः।
वृद्धिमाकाङ्क्षता नित्यं गावः कार्याः प्रदक्षिणाः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौएँ सम्पूर्ण प्राणियोंकी माता कहलाती हैं। वे सबको सुख देनेवाली हैं। जो अपने अभ्युदयकी इच्छा रखता हो, उसे गौओंको सदा दाहिने करके चलना चाहिये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संताड्या न तु पादेन गवां मध्ये न च व्रजेत्।
मंगलायतनं देव्यस्तस्मात् पूज्याः सदैव हि ॥ ८ ॥
मूलम्
संताड्या न तु पादेन गवां मध्ये न च व्रजेत्।
मंगलायतनं देव्यस्तस्मात् पूज्याः सदैव हि ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौओंको लात न मारे। उनके बीचसे होकर न निकले। वे मंगलकी आधारभूत देवियाँ हैं, अतः उनकी सदा ही पूजा करनी चाहिये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रचोदनं देवकृतं गवां कर्मसु वर्तताम्।
पूर्वमेवाक्षरं चान्यदभिधेयं ततः परम् ॥ ९ ॥
मूलम्
प्रचोदनं देवकृतं गवां कर्मसु वर्तताम्।
पूर्वमेवाक्षरं चान्यदभिधेयं ततः परम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंने भी यज्ञके लिये भूमि जोतते समय बैलोंको डंडे आदिसे हाँका था। अतः पहले यज्ञके लिये ही बैलोंको जोतना या हाँकना श्रेयस्कर माना गया है। उससे भिन्न कर्मके लिये बैलोंको जोतना या डंडे आदिसे हाँकना निन्दनीय है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रचारे वा निवाते वा बुधो नोद्वेजयेत गाः।
तृषिता ह्यभिवीक्षन्त्यो नरं हन्युः सबान्धवम् ॥ १० ॥
मूलम्
प्रचारे वा निवाते वा बुधो नोद्वेजयेत गाः।
तृषिता ह्यभिवीक्षन्त्यो नरं हन्युः सबान्धवम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुषको चाहिये कि जब गौएँ स्वच्छन्दता-पूर्वक विचर रही हों अथवा किसी उपद्रवशून्य स्थानमें बैठी हों तो उन्हें उद्वेगमें न डाले। जब गौएँ प्याससे पीड़ित हो जलकी इच्छासे अपने स्वामीकी ओर देखती हैं (और वह उन्हें पानी नहीं पिलाता है), तब वे रोषपूर्ण दृष्टिसे बन्धु-बान्धवोंसहित उसका नाश कर देती हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितृसद्मानि सततं देवतायतनानि च।
पूयन्ते शकृता यासां पूतं किमधिकं ततः ॥ ११ ॥
मूलम्
पितृसद्मानि सततं देवतायतनानि च।
पूयन्ते शकृता यासां पूतं किमधिकं ततः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके गोबरसे लीपनेपर देवताओंके मन्दिर और पितरोंके श्राद्धस्थान पवित्र होते हैं, उनसे बढ़कर पावन और क्या हो सकता है?॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घासमुष्टिं परगवे दद्यात् संवत्सरं तु यः।
अकृत्वा स्वयमाहारं व्रतं तत् सार्वकामिकम् ॥ १२ ॥
मूलम्
घासमुष्टिं परगवे दद्यात् संवत्सरं तु यः।
अकृत्वा स्वयमाहारं व्रतं तत् सार्वकामिकम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो एक वर्षतक प्रतिदिन स्वयं भोजनके पहले दूसरेकी गायको एक मुट्ठी घास खिलाता है, उसका वह व्रत समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला होता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि पुत्रान् यशोऽर्थं च श्रियं चाप्यधिगच्छति।
नाशयत्यशुभं चैव दुःस्वप्नं चाप्यपोहति ॥ १३ ॥
मूलम्
स हि पुत्रान् यशोऽर्थं च श्रियं चाप्यधिगच्छति।
नाशयत्यशुभं चैव दुःस्वप्नं चाप्यपोहति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अपने लिये पुत्र, यश, धन और सम्पत्ति प्राप्त करता है तथा अशुभ कर्म और दुःस्वप्नका नाश कर देता है॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
देयाः किंलक्षणा गावः काश्चापि परिवर्जयेत्।
कीदृशाय प्रदातव्या न देयाः कीदृशाय च ॥ १४ ॥
मूलम्
देयाः किंलक्षणा गावः काश्चापि परिवर्जयेत्।
कीदृशाय प्रदातव्या न देयाः कीदृशाय च ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! किन लक्षणोंवाली गौओंका दान करना चाहिये और किनका दान नहीं करना चाहिये? कैसे ब्राह्मणको गाय देनी चाहिये और कैसे ब्राह्मणको नहीं देनी चाहिये?॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
असद्वृत्ताय पापाय लुब्धायानृतवादिने ।
हव्यकव्यव्यपेताय न देया गौः कथंचन ॥ १५ ॥
मूलम्
असद्वृत्ताय पापाय लुब्धायानृतवादिने ।
हव्यकव्यव्यपेताय न देया गौः कथंचन ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! दुराचारी, पापी, लोभी, असत्यवादी तथा देवयज्ञ और श्राद्धकर्म न करनेवाले ब्राह्मणको किसी तरह गौ नहीं देनी चाहिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भिक्षवे बहुपुत्राय श्रोत्रियायाहिताग्नये ।
दत्त्वा दशगवां दाता लोकानाप्नोत्यनुत्तमान् ॥ १६ ॥
मूलम्
भिक्षवे बहुपुत्राय श्रोत्रियायाहिताग्नये ।
दत्त्वा दशगवां दाता लोकानाप्नोत्यनुत्तमान् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके बहुत-से पुत्र हों, जो श्रोत्रिय (वेदवेत्ता) और अग्निहोत्री ब्राह्मण हो और गौके लिये याचना कर रहा हो, ऐसे पुरुषको दस गौओंका दान करनेवाला दाता उत्तम लोकोंको पाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चैव धर्मं कुरुते तस्य धर्मफलं च यत्।
सर्वस्यैवांशभाग् दाता तं निमित्तं प्रवृत्तयः ॥ १७ ॥
मूलम्
यश्चैव धर्मं कुरुते तस्य धर्मफलं च यत्।
सर्वस्यैवांशभाग् दाता तं निमित्तं प्रवृत्तयः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो गोदान ग्रहण करके धर्माचरण करता है, उसके धर्मका जो कुछ भी फल होता है, उस सम्पूर्ण धर्मके एक अंशका भागी दाता भी होता है, क्योंकि उसीके लिये उसकी गोदानमें प्रवृत्ति हुई थी॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चैनमुत्पादयते यश्चैनं त्रायते भयात्।
यश्चास्य कुरुते वृत्तिं सर्वे ते पितरस्त्रयः ॥ १८ ॥
मूलम्
यश्चैनमुत्पादयते यश्चैनं त्रायते भयात्।
यश्चास्य कुरुते वृत्तिं सर्वे ते पितरस्त्रयः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो जन्म देता है, जो भयसे बचाता है तथा जो जीविका देता है—ये तीनों ही पिताके तुल्य हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कल्मषं गुरुशुश्रूषा हन्ति मानो महद् यशः।
अपुत्रतां त्रयः पुत्रा अवृत्तिं दश धेनवः ॥ १९ ॥
मूलम्
कल्मषं गुरुशुश्रूषा हन्ति मानो महद् यशः।
अपुत्रतां त्रयः पुत्रा अवृत्तिं दश धेनवः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरुजनोंकी सेवा सारे पापोंका नाश कर देती है। अभिमान महान् यशको नष्ट कर देता है। तीन पुत्र पुत्रहीनताके दोषका निवारण कर देते हैं और दूध देनेवाली दस गौएँ हों तो ये जीविकाके अभावको दूर कर देती हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदान्तनिष्ठस्य बहुश्रुतस्य
प्रज्ञानतृप्तस्य जितेन्द्रियस्य ।
शिष्टस्य दान्तस्य यतस्य चैव
भूतेषु नित्यं प्रियवादिनश्च ॥ २० ॥
यः क्षुद्भयाद् वै न विकर्म कुर्या-
न्मृदुश्च शान्तो ह्यतिथिप्रियश्च ।
वृत्तिं द्विजायातिसृजेत तस्मै
यस्तुल्यशीलश्च सपुत्रदारः ॥ २१ ॥
मूलम्
वेदान्तनिष्ठस्य बहुश्रुतस्य
प्रज्ञानतृप्तस्य जितेन्द्रियस्य ।
शिष्टस्य दान्तस्य यतस्य चैव
भूतेषु नित्यं प्रियवादिनश्च ॥ २० ॥
यः क्षुद्भयाद् वै न विकर्म कुर्या-
न्मृदुश्च शान्तो ह्यतिथिप्रियश्च ।
वृत्तिं द्विजायातिसृजेत तस्मै
यस्तुल्यशीलश्च सपुत्रदारः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वेदान्तनिष्ठ, बहुज्ञ, ज्ञानानन्दसे तृप्त, जितेन्द्रिय, शिष्ट, मनको वशमें रखनेवाला, यत्नशील, समस्त प्राणियोंके प्रति सदा प्रिय वचन बोलनेवाला, भूखके भयसे भी अनुचित कर्म न करनेवाला, मृदुल, शान्त, अतिथिप्रेमी, सबपर समानभाव रखनेवाला और स्त्री-पुत्र आदि कुटुम्बसे युक्त हो, उस ब्राह्मणकी जीविकाका अवश्य प्रबन्ध करना चाहिये॥२०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुभे पात्रे ये गुणा गोप्रदाने
तावान् दोषो ब्राह्मणस्वापहारे ।
सर्वावस्थं ब्राह्मणस्वापहारो
दाराश्चैषां दूरतो वर्जनीयाः ॥ २२ ॥
मूलम्
शुभे पात्रे ये गुणा गोप्रदाने
तावान् दोषो ब्राह्मणस्वापहारे ।
सर्वावस्थं ब्राह्मणस्वापहारो
दाराश्चैषां दूरतो वर्जनीयाः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुभ पात्रको गोदान करनेसे जो लाभ होते हैं, उसका धन ले लेनेपर उतना ही पाप लगता है; अतः किसी भी अवस्थामें ब्राह्मणोंके धनका अपहरण न करे तथा उनकी स्त्रियोंका संसर्ग दूरसे ही त्याग दे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(विप्रदारे परहृते विप्रस्वनिचये तथा।
परित्रायन्ति शक्तास्तु नमस्तेभ्यो मृतास्तु वा॥
न पालयन्ति चेत् तस्य हन्ता वैवस्वतो यमः।
दण्डयन् भर्त्सयन् नित्यं निरयेभ्यो न मुञ्चति॥
तथा गवां परित्राणे पीडने च शुभाशुभम्।
विप्रगोषु विशेषेण रक्षितेषु हतेषु वा॥)
मूलम्
(विप्रदारे परहृते विप्रस्वनिचये तथा।
परित्रायन्ति शक्तास्तु नमस्तेभ्यो मृतास्तु वा॥
न पालयन्ति चेत् तस्य हन्ता वैवस्वतो यमः।
दण्डयन् भर्त्सयन् नित्यं निरयेभ्यो न मुञ्चति॥
तथा गवां परित्राणे पीडने च शुभाशुभम्।
विप्रगोषु विशेषेण रक्षितेषु हतेषु वा॥)
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ ब्राह्मणोंकी स्त्रियों अथवा उनके धनका अपहरण होता हो, वहाँ शक्ति रहते हुए जो उन सबकी रक्षा करते हैं, उन्हें नमस्कार है। जो उनकी रक्षा नहीं करते हैं, वे मुर्दोंके समान हैं। सूर्यपुत्र यमराज ऐसे लोगोंका वध कर डालते हैं, प्रतिदिन उन्हें यातना देते और डाँटते-फटकारते हैं और नरकसे उन्हें कभी छुटकारा नहीं देते हैं। इसी प्रकार गौओंके संरक्षण और पीड़नसे भी शुभ और अशुभकी प्राप्ति होती है। विशेषतः ब्राह्मणों और गौओंके अपने द्वारा सुरक्षित होनेपर पुण्य और मारे जानेपर पाप होता है॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि गोदानमाहात्म्ये एकोनसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ६९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गोदानका माहात्म्यविषयक उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६९॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल २५ श्लोक हैं)