भागसूचना
अष्टषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
तिल, जल, दीप तथा रत्न आदिके दानका माहात्म्य—धर्मराज और ब्राह्मणका संवाद
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलानां कीदृशं दानमथ दीपस्य चैव हि।
अन्नानां वाससां चैव भूय एव ब्रवीहि मे ॥ १ ॥
मूलम्
तिलानां कीदृशं दानमथ दीपस्य चैव हि।
अन्नानां वाससां चैव भूय एव ब्रवीहि मे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! तिलोंके दानका कैसा फल होता है? दीप, अन्न और वस्त्रके दानकी महिमाका भी पुनः मुझसे वर्णन कीजिये॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
ब्राह्मणस्य च संवादं यमस्य च युधिष्ठिर ॥ २ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
ब्राह्मणस्य च संवादं यमस्य च युधिष्ठिर ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें ब्राह्मण और यमके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मध्यदेशे महान् ग्रामो ब्राह्मणानां बभूव ह।
गंगायमुनयोर्मध्ये यामुनस्य गिरेरधः ॥ ३ ॥
पर्णशालेति विख्यातो रमणीयो नराधिप।
विद्वांसस्तत्र भूयिष्ठा ब्राह्मणाश्चावसंस्तथा ॥ ४ ॥
मूलम्
मध्यदेशे महान् ग्रामो ब्राह्मणानां बभूव ह।
गंगायमुनयोर्मध्ये यामुनस्य गिरेरधः ॥ ३ ॥
पर्णशालेति विख्यातो रमणीयो नराधिप।
विद्वांसस्तत्र भूयिष्ठा ब्राह्मणाश्चावसंस्तथा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! मध्यदेशमें गंगा-यमुनाके मध्यभागमें यामुन पर्वतके निम्न स्थलमें ब्राह्मणोंका एक विशाल एवं रमणीय ग्राम था जो लोगोंमें पर्णशालानामसे विख्यात था। वहाँ बहुत-से विद्वान् ब्राह्मण निवास करते थे॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ प्राह यमः कंचित् पुरुषं कृष्णवाससम्।
रक्ताक्षमूर्ध्वरोमाणं काकजंघाक्षिनासिकम् ॥ ५ ॥
मूलम्
अथ प्राह यमः कंचित् पुरुषं कृष्णवाससम्।
रक्ताक्षमूर्ध्वरोमाणं काकजंघाक्षिनासिकम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन यमराजने काला वस्त्र धारण करनेवाले अपने एक दूतसे, जिसकी आँखें लाल, रोएँ ऊपरको उठे हुए और पैरोंकी पिण्डली, आँख एवं नाक कौएके समान थीं, कहा—॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ त्वं ब्राह्मणग्रामं ततो गत्वा तमानय।
अगस्त्यं गोत्रतश्चापि नामतश्चापि शर्मिणम् ॥ ६ ॥
शमे निविष्टं विद्वांसमध्यापकमनावृतम् ।
मूलम्
गच्छ त्वं ब्राह्मणग्रामं ततो गत्वा तमानय।
अगस्त्यं गोत्रतश्चापि नामतश्चापि शर्मिणम् ॥ ६ ॥
शमे निविष्टं विद्वांसमध्यापकमनावृतम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम ब्राह्मणोंके उस ग्राममें चले जाओ और जाकर अगस्त्यगोत्री शर्मी नामक शमपरायण विद्वान् अध्यापक ब्राह्मणको, जो आवरणरहित है, यहाँ ले आओ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा चान्यमानयेथास्त्वं सगोत्रं तस्य पार्श्वतः ॥ ७ ॥
स हि तादृग्गुणस्तेन तुल्योऽध्ययनजन्मना।
अपत्येषु तथा वृत्ते समस्तेनैव धीमता ॥ ८ ॥
मूलम्
मा चान्यमानयेथास्त्वं सगोत्रं तस्य पार्श्वतः ॥ ७ ॥
स हि तादृग्गुणस्तेन तुल्योऽध्ययनजन्मना।
अपत्येषु तथा वृत्ते समस्तेनैव धीमता ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसी गाँवमें उसीके समान एक दूसरा ब्राह्मण भी रहता है। वह शर्मीके ही गोत्रका है। उसके अगल-बगलमें ही निवास करता है। गुण, वेदाध्ययन और कुलमें भी वह शर्मीके ही समान है। सन्तानोंकी संख्या तथा सदाचारके पालनमें भी वह बुद्धिमान् शर्मीके ही तुल्य है। तुम उसे यहाँ न ले आना॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमानय यथोद्दिष्टं पूजा कार्या हि तस्य वै।
स गत्वा प्रतिकूलं तच्चकार यमशासनम् ॥ ९ ॥
मूलम्
तमानय यथोद्दिष्टं पूजा कार्या हि तस्य वै।
स गत्वा प्रतिकूलं तच्चकार यमशासनम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने जिसे बताया है, उसी ब्राह्मणको तुम यहाँ ले आओ; क्योंकि मुझे उसकी पूजा करनी है।’ उस यमदूतने वहाँ जाकर यमराजकी आज्ञाके विपरीत कार्य किया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाक्रम्यानयामास प्रतिषिद्धो यमेन यः।
तस्मै यमः समुत्थाय पूजां कृत्वा च वीर्यवान् ॥ १० ॥
प्रोवाच नीयतामेष सोऽन्य आनीयतामिति।
मूलम्
तमाक्रम्यानयामास प्रतिषिद्धो यमेन यः।
तस्मै यमः समुत्थाय पूजां कृत्वा च वीर्यवान् ॥ १० ॥
प्रोवाच नीयतामेष सोऽन्य आनीयतामिति।
अनुवाद (हिन्दी)
वह आक्रमण करके उसी ब्राह्मणको उठा लाया, जिसके लिये यमराजने मना कर दिया था। शक्तिशाली यमराजने उठकर उसके लाये हुए ब्राह्मणकी पूजा की और दूतसे कहा—‘इसको तुम ले जाओ और दूसरेको यहाँ ले आओ’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ते तु वचने धर्मराजेन स द्विजः ॥ ११ ॥
उवाच धर्मराजानं निर्विण्णोऽध्ययनेन वै।
यो मे कालो भवेच्छेषस्तं वसेयमिहाच्युत ॥ १२ ॥
मूलम्
एवमुक्ते तु वचने धर्मराजेन स द्विजः ॥ ११ ॥
उवाच धर्मराजानं निर्विण्णोऽध्ययनेन वै।
यो मे कालो भवेच्छेषस्तं वसेयमिहाच्युत ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराजके इस प्रकार आदेश देनेपर अध्ययनसे ऊबे हुए उस समागत ब्राह्मणने उनसे कहा—‘धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले देव! मेरे जीवनका जो समय शेष रह गया है, उसमें मैं यहीं रहूँगा’॥११-१२॥
मूलम् (वचनम्)
यम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं कालस्य विहितं प्राप्नोमीह कथंचन।
यो हि धर्मं चरति वै तं तु जानामि केवलम्॥१३॥
मूलम्
नाहं कालस्य विहितं प्राप्नोमीह कथंचन।
यो हि धर्मं चरति वै तं तु जानामि केवलम्॥१३॥
अनुवाद (हिन्दी)
यमराजने कहा— ब्रह्मन्! मैं कालके विधानको किसी तरह नहीं जानता। जगत्में जो पुरुष धर्माचरण करता है, केवल उसीको मैं जानता हूँ॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ विप्र त्वमद्यैव आलयं स्वं महाद्युते।
ब्रूहि सर्वं यथा स्वैरं करवाणि किमच्युत ॥ १४ ॥
मूलम्
गच्छ विप्र त्वमद्यैव आलयं स्वं महाद्युते।
ब्रूहि सर्वं यथा स्वैरं करवाणि किमच्युत ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले महातेजस्वी ब्राह्मण! तुम अभी अपने घरको चले जाओ और अपनी इच्छाके अनुसार सब कुछ बताओ। मैं तुम्हारे लिये क्या करूँ?॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् तत्र कृत्वा सुमहत् पुण्यं स्यात् तद् ब्रवीहि मे।
सर्वस्य हि प्रमाणं त्वं त्रैलोक्यस्यापि सत्तम ॥ १५ ॥
मूलम्
यत् तत्र कृत्वा सुमहत् पुण्यं स्यात् तद् ब्रवीहि मे।
सर्वस्य हि प्रमाणं त्वं त्रैलोक्यस्यापि सत्तम ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणने कहा— साधुशिरोमणे! संसारमें जो कर्म करनेसे महान् पुण्य होता हो वह मुझे बताइये; क्योंकि समस्त त्रिलोकीके लिये धर्मके विषयमें आप ही प्रमाण हैं॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
यम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु तत्त्वेन विप्रर्षे प्रदानविधिमुत्तमम्।
तिलाः परमकं दानं पुण्यं चैवेह शाश्वतम् ॥ १६ ॥
मूलम्
शृणु तत्त्वेन विप्रर्षे प्रदानविधिमुत्तमम्।
तिलाः परमकं दानं पुण्यं चैवेह शाश्वतम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यमने कहा— ब्रह्मर्षे! तुम यथार्थरूपसे दानकी उत्तम विधि सुनो। तिलका दान सब दानोंमें उत्तम है। वह यहाँ अक्षय पुण्यजनक माना गया है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलाश्च सम्प्रदातव्या यथाशक्ति द्विजर्षभ।
नित्यदानात् सर्वकामांस्तिला निर्वर्तयन्त्युत ॥ १७ ॥
मूलम्
तिलाश्च सम्प्रदातव्या यथाशक्ति द्विजर्षभ।
नित्यदानात् सर्वकामांस्तिला निर्वर्तयन्त्युत ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजश्रेष्ठ! अपनी शक्तिके अनुसार तिलोंका दान अवश्य करना चाहिये। नित्यदान करनेसे तिल दाताकी सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण कर देते हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिलान् श्राद्धे प्रशंसन्ति दानमेतद्ध्यनुत्तमम्।
तान् प्रयच्छस्व विप्रेभ्यो विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ १८ ॥
मूलम्
तिलान् श्राद्धे प्रशंसन्ति दानमेतद्ध्यनुत्तमम्।
तान् प्रयच्छस्व विप्रेभ्यो विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्राद्धमें विद्वान् पुरुष तिलोंकी प्रशंसा करते हैं। यह तिलदान सबसे उत्तम दान है। अतः तुम शास्त्रीय विधिके अनुसार ब्राह्मणोंको तिलदान देते रहो॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैशाख्यां पौर्णमास्यां तु तिलान् दद्याद् द्विजातिषु।
तिला भक्षयितव्याश्च सदा त्वालम्भनं च तैः ॥ १९ ॥
मूलम्
वैशाख्यां पौर्णमास्यां तु तिलान् दद्याद् द्विजातिषु।
तिला भक्षयितव्याश्च सदा त्वालम्भनं च तैः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशाखकी पूर्णिमाको ब्राह्मणोंके लिये तिलदान दे, तिल खाये और सदा तिलोंका ही उबटन लगाये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्यं सततमिच्छद्भिः श्रेयः सर्वात्मना गृहे।
तथाऽऽपः सर्वदा देयाः पेयाश्चैव न संशयः ॥ २० ॥
मूलम्
कार्यं सततमिच्छद्भिः श्रेयः सर्वात्मना गृहे।
तथाऽऽपः सर्वदा देयाः पेयाश्चैव न संशयः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सदा कल्याणकी इच्छा रखते हैं, उन्हें सब प्रकारसे अपने घरमें तिलोंका दान और उपयोग करना चाहिये। इसी प्रकार सर्वदा जलका दान और पान करना चाहिये—इसमें संशय नहीं है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुष्करिण्यस्तडागानि कूपांश्चैवात्र खानयेत् ।
एतत् सुदुर्लभतरमिहलोके द्विजोत्तम ॥ २१ ॥
मूलम्
पुष्करिण्यस्तडागानि कूपांश्चैवात्र खानयेत् ।
एतत् सुदुर्लभतरमिहलोके द्विजोत्तम ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजश्रेष्ठ! मनुष्यको यहाँ पोखरी, तालाब और कुएँ खुदवाने चाहिये। यह इस संसारमें अत्यन्त दुर्लभ—पुण्य कार्य है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपो नित्यं प्रदेयास्ते पुण्यं ह्येतदनुत्तमम्।
प्रपाश्च कार्या दानार्थं नित्यं ते द्विजसत्तम।
भुक्तेऽप्यन्नं प्रदेयं तु पानीयं वै विशेषतः ॥ २२ ॥
मूलम्
आपो नित्यं प्रदेयास्ते पुण्यं ह्येतदनुत्तमम्।
प्रपाश्च कार्या दानार्थं नित्यं ते द्विजसत्तम।
भुक्तेऽप्यन्नं प्रदेयं तु पानीयं वै विशेषतः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रवर! तुम्हें प्रतिदिन जलका दान करना चाहिये। जल देनेके लिये प्याऊ लगाने चाहिये। यह सर्वोत्तम पुण्य कार्य है। (भूखेको अन्न देना तो आवश्यक है ही,) जो भोजन कर चुका हो उसे भी अन्न देना चाहिये। विशेषतः जलका दान तो सभीके लिये आवश्यक है॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्ते स तदा तेन यमदूतेन वै गृहान्।
नीतश्च कारयामास सर्वं तद् यमशासनम् ॥ २३ ॥
मूलम्
इत्युक्ते स तदा तेन यमदूतेन वै गृहान्।
नीतश्च कारयामास सर्वं तद् यमशासनम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! यमराजके ऐसा कहनेपर उस समय ब्राह्मण जानेको उद्यत हुआ। यमदूतने उसे उसके घर पहुँचा दिया और उसने यमराजकी आज्ञाके अनुसार वह सब पुण्य कार्य किया और कराया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीत्वा तं यमदूतोऽपि गृहीत्वा शर्मिणं तदा।
ययौ स धर्मराजाय न्यवेदयत चापि तम् ॥ २४ ॥
मूलम्
नीत्वा तं यमदूतोऽपि गृहीत्वा शर्मिणं तदा।
ययौ स धर्मराजाय न्यवेदयत चापि तम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् यमदूत शर्मीको पकड़कर वहाँ ले गया और धर्मराजको इसकी सूचना दी॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं धर्मराजो धर्मज्ञं पूजयित्वा प्रतापवान्।
कृत्वा च संविदं तेन विससर्ज यथागतम् ॥ २५ ॥
मूलम्
तं धर्मराजो धर्मज्ञं पूजयित्वा प्रतापवान्।
कृत्वा च संविदं तेन विससर्ज यथागतम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रतापी धर्मराजने उस धर्मज्ञ ब्राह्मणकी पूजा करके उससे बातचीत की और फिर वह जैसे आया था, उसी प्रकार उसे विदा कर दिया॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यापि च यमः सर्वमुपदेशं चकार ह।
प्रेत्यैत्य च ततः सर्वं चकारोक्तं यमेन तत् ॥ २६ ॥
मूलम्
तस्यापि च यमः सर्वमुपदेशं चकार ह।
प्रेत्यैत्य च ततः सर्वं चकारोक्तं यमेन तत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके लिये भी यमराजने सारा उपदेश किया। परलोकमें जाकर जब वह लौटा, तब उसने भी यमराजके बताये अनुसार सब कार्य किया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा प्रशंसते दीपान् यमः पितृहितेप्सया।
तस्माद् दीपप्रदो नित्यं संतारयति वै पितॄन् ॥ २७ ॥
मूलम्
तथा प्रशंसते दीपान् यमः पितृहितेप्सया।
तस्माद् दीपप्रदो नित्यं संतारयति वै पितॄन् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितरोंके हितकी इच्छासे यमराज दीपदानकी प्रशंसा करते हैं; अतः प्रतिदिन दीपदान करनेवाला मनुष्य पितरोंका उद्धार कर देता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दातव्याः सततं दीपास्तस्माद् भरतसत्तम।
देवतानां पितॄणां च चक्षुष्यं चात्मनां विभो ॥ २८ ॥
मूलम्
दातव्याः सततं दीपास्तस्माद् भरतसत्तम।
देवतानां पितॄणां च चक्षुष्यं चात्मनां विभो ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये भरतश्रेष्ठ! देवता और पितरोंके उद्देश्यसे सदा दीपदान करते रहना चाहिये। प्रभो! इससे अपने नेत्रोंका तेज बढ़ता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रत्नदानं च सुमहत् पुण्यमुक्तं जनाधिप।
यस्तान् विक्रीय यजते ब्राह्मणो ह्यभयंकरम् ॥ २९ ॥
मूलम्
रत्नदानं च सुमहत् पुण्यमुक्तं जनाधिप।
यस्तान् विक्रीय यजते ब्राह्मणो ह्यभयंकरम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनेश्वर! रत्नदानका भी बहुत बड़ा पुण्य बताया गया है। जो ब्राह्मण दानमें मिले हुए रत्नको बेचकर उसके द्वारा यज्ञ करता है, उसके लिये वह प्रतिग्रह भयदायक नहीं होता॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् वै ददाति विप्रेभ्यो ब्राह्मणः प्रतिगृह्य वै।
उभयोः स्यात् तदक्षय्यं दातुरादातुरेव च ॥ ३० ॥
मूलम्
यद् वै ददाति विप्रेभ्यो ब्राह्मणः प्रतिगृह्य वै।
उभयोः स्यात् तदक्षय्यं दातुरादातुरेव च ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मण किसी दातासे रत्नोंका दान लेकर स्वयं भी उसे ब्राह्मणोंको बाँट देता है तो उस दानके देने और लेनेवाले दोनोंको अक्षय पुण्य प्राप्त होता है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो ददाति स्थितः स्थित्यां तादृशाय प्रतिग्रहम्।
उभयोरक्षयं धर्मं तं मनुः प्राह धर्मवित् ॥ ३१ ॥
मूलम्
यो ददाति स्थितः स्थित्यां तादृशाय प्रतिग्रहम्।
उभयोरक्षयं धर्मं तं मनुः प्राह धर्मवित् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष स्वयं धर्ममर्यादामें स्थित होकर अपने ही समान स्थितिवाले ब्राह्मणको दानमें मिली हुई वस्तुका दान करता है, उन दोनोंको अक्षय धर्मकी प्राप्ति होती है। यह धर्मज्ञ मनुका वचन है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाससां सम्प्रदानेन स्वदारनिरतो नरः।
सुवस्त्रश्च सुवेषश्च भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ ३२ ॥
मूलम्
वाससां सम्प्रदानेन स्वदारनिरतो नरः।
सुवस्त्रश्च सुवेषश्च भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य अपनी ही स्त्रीमें अनुराग रखता हुआ वस्त्र दान करता है, वह सुन्दर वस्त्र और मनोहर वेष-भूषासे सम्पन्न होता है—ऐसा हमने सुन रखा है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावः सुवर्णं च तथा तिलाश्चैवानुवर्णिताः।
बहुशः पुरुषव्याघ्र वेदप्रामाण्यदर्शनात् ॥ ३३ ॥
मूलम्
गावः सुवर्णं च तथा तिलाश्चैवानुवर्णिताः।
बहुशः पुरुषव्याघ्र वेदप्रामाण्यदर्शनात् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! मैंने गौ, सुवर्ण और तिलके दानका माहात्म्य अनेकों बार वेद-शास्त्रके प्रमाण दिखाकर वर्णन किया है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विवाहांश्चैव कुर्वीत पुत्रानुत्पादयेत च।
पुत्रलाभो हि कौरव्य सर्वलाभाद् विशिष्यते ॥ ३४ ॥
मूलम्
विवाहांश्चैव कुर्वीत पुत्रानुत्पादयेत च।
पुत्रलाभो हि कौरव्य सर्वलाभाद् विशिष्यते ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! मनुष्य विवाह करे और पुत्र उत्पन्न करे। पुत्रका लाभ सब लाभोंसे बढ़कर है॥३४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि यमब्राह्मणसंवादे अष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें यम और ब्राह्मणका संवादविषयक अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६८॥