भागसूचना
त्रिषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अन्नदानका विशेष माहात्म्य
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानि दानानि लोकेऽस्मिन् दातुकामो महीपतिः।
गुणाधिकेभ्यो विप्रेभ्यो दद्यात् भरतसत्तम ॥ १ ॥
मूलम्
कानि दानानि लोकेऽस्मिन् दातुकामो महीपतिः।
गुणाधिकेभ्यो विप्रेभ्यो दद्यात् भरतसत्तम ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ! जिस राजाको दान करनेकी इच्छा हो, वह इस लोकमें गुणवान् ब्राह्मणोंको किन-किन वस्तुओंका दान करे?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन तुष्यन्ति ते सद्यः किं तुष्टाः प्रदिशन्ति च।
शंस मे तन्महाबाहो फलं पुण्यकृतं महत् ॥ २ ॥
मूलम्
केन तुष्यन्ति ते सद्यः किं तुष्टाः प्रदिशन्ति च।
शंस मे तन्महाबाहो फलं पुण्यकृतं महत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किस वस्तुके देनेसे ब्राह्मण तुरन्त प्रसन्न हो जाते हैं? और प्रसन्न होकर क्या देते हैं? महाबाहो! अब मुझे दानजनित महान् पुण्यका फल बताइये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्तं किं फलवद् राजन्निह लोके परत्र च।
भवतः श्रोतुमिच्छामि तन्मे विस्तरतो वद ॥ ३ ॥
मूलम्
दत्तं किं फलवद् राजन्निह लोके परत्र च।
भवतः श्रोतुमिच्छामि तन्मे विस्तरतो वद ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इहलोक और परलोकमें कौन-सा दान विशेष फल देनेवाला होता है? यह मैं आपके मुँहसे सुनना चाहता हूँ। आप इस विषयका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये॥३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इममर्थं पुरा पृष्टो नारदो देवदर्शनः।
यदुक्तवानसौ वाक्यं तन्मे निगदतः शृणु ॥ ४ ॥
मूलम्
इममर्थं पुरा पृष्टो नारदो देवदर्शनः।
यदुक्तवानसौ वाक्यं तन्मे निगदतः शृणु ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! यही बात मैंने पहले एक बार देवदर्शी नारदजीसे पूछी थी। उस समय उन्होंने मुझसे जो कुछ कहा था, वही तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो॥४॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नमेव प्रशंसन्ति देवा ऋषिगणास्तथा।
लोकतन्त्रं हि संज्ञाश्च सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम् ॥ ५ ॥
मूलम्
अन्नमेव प्रशंसन्ति देवा ऋषिगणास्तथा।
लोकतन्त्रं हि संज्ञाश्च सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— देवता और ऋषि अन्नकी ही प्रशंसा करते हैं, अन्नसे ही लोकयात्राका निर्वाह होता है। उसीसे बुद्धिको स्फूर्ति प्राप्त होती है तथा उस अन्नमें ही सब कुछ प्रतिष्ठित है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नेन सदृशं दानं न भूतं न भविष्यति।
तस्मादन्नं विशेषेण दातुमिच्छन्ति मानवाः ॥ ६ ॥
मूलम्
अन्नेन सदृशं दानं न भूतं न भविष्यति।
तस्मादन्नं विशेषेण दातुमिच्छन्ति मानवाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्नके समान न कोई दान था और न होगा। इसलिये मनुष्य अधिकतर अन्नका ही दान करना चाहते हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नमूर्जस्करं लोके प्राणाश्चान्ने प्रतिष्ठिताः।
अन्नेन धार्यते सर्वं विश्वं जगदिदं प्रभो ॥ ७ ॥
मूलम्
अन्नमूर्जस्करं लोके प्राणाश्चान्ने प्रतिष्ठिताः।
अन्नेन धार्यते सर्वं विश्वं जगदिदं प्रभो ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! संसारमें अन्न ही शरीरके बलको बढ़ानेवाला है। अन्नके ही आधारपर प्राण टिके हुए हैं और इस सम्पूर्ण जगत्को अन्नने ही धारण कर रखा है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नाद् गृहस्था लोकेऽस्मिन् भिक्षवस्तापसास्तथा।
अन्नाद् भवन्ति वै प्राणाः प्रत्यक्षं नात्र संशयः ॥ ८ ॥
मूलम्
अन्नाद् गृहस्था लोकेऽस्मिन् भिक्षवस्तापसास्तथा।
अन्नाद् भवन्ति वै प्राणाः प्रत्यक्षं नात्र संशयः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस जगत्में गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा भिक्षा माँगनेवाले भी अन्नसे ही जीते हैं। अन्नसे ही सबके प्राणोंकी रक्षा होती है। इस बातका सबको प्रत्यक्ष अनुभव है, इसमें संशय नहीं है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुटुम्बिने सीदते च ब्राह्मणाय महात्मने।
दातव्यं भिक्षवे चान्नामात्मनो भूतिमिच्छता ॥ ९ ॥
मूलम्
कुटुम्बिने सीदते च ब्राह्मणाय महात्मने।
दातव्यं भिक्षवे चान्नामात्मनो भूतिमिच्छता ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यको चाहिये कि वह अन्नके लिये दुखी, बाल-बच्चोंवाले, महामनस्वी ब्राह्मणको और भिक्षा माँगनेवालेको भी अन्नदान करे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणायाभिरूपाय यो दद्यादन्नमर्थिने ।
विदधाति निधिं श्रेष्ठं पारलौकिकमात्मनः ॥ १० ॥
मूलम्
ब्राह्मणायाभिरूपाय यो दद्यादन्नमर्थिने ।
विदधाति निधिं श्रेष्ठं पारलौकिकमात्मनः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो याचना करनेवाले सुपात्र ब्राह्मणको अन्नदान देता है, वह परलोकमें अपने लिये एक अच्छी निधि (खजाना) बना लेता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रान्तमध्वनि वर्तन्तं वृद्धमर्हमुपस्थितम् ।
अर्चयेद् भूतिमन्विच्छन् गृहस्थो गृहमागतम् ॥ ११ ॥
मूलम्
श्रान्तमध्वनि वर्तन्तं वृद्धमर्हमुपस्थितम् ।
अर्चयेद् भूतिमन्विच्छन् गृहस्थो गृहमागतम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रास्तेका थका-माँदा बूढ़ा राहगीर यदि घरपर आ जाय तो अपना कल्याण चाहनेवाले गृहस्थको उस आदरणीय अतिथिका आदर करना चाहिये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधमुत्पतितं हित्वा सुशीलो वीतमत्सरः।
अन्नदः प्राप्नुते राजन् दिवि चेह च यत्सुखम् ॥ १२ ॥
मूलम्
क्रोधमुत्पतितं हित्वा सुशीलो वीतमत्सरः।
अन्नदः प्राप्नुते राजन् दिवि चेह च यत्सुखम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जो पुरुष मनमें उठे हुए क्रोधको दबाकर और ईर्ष्याको त्यागकर अच्छे शील-स्वभावका परिचय देता हुआ अन्नदान करता है, वह इहलोक और परलोकमें भी सुख पाता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावमन्येदभिगतं न प्रणुद्यात् कदाचन।
अपि श्वपाके शुनि वा न दानं विप्रणश्यति ॥ १३ ॥
मूलम्
नावमन्येदभिगतं न प्रणुद्यात् कदाचन।
अपि श्वपाके शुनि वा न दानं विप्रणश्यति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने घरपर कोई भी आ जाय, उसका न तो कभी अपमान करना चाहिये और न उसे ताड़ना ही देनी चाहिये; क्योंकि चाण्डाल अथवा कुत्तेको भी दिया हुआ अन्नदान कभी नष्ट नहीं होता (व्यर्थ नहीं जाता)॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते ।
आर्तायादृष्टपूर्वाय स महद्धर्ममाप्नुयात् ॥ १४ ॥
मूलम्
यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते ।
आर्तायादृष्टपूर्वाय स महद्धर्ममाप्नुयात् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य कष्टमें पड़े हुए अपरिचित राहीको प्रसन्नतापूर्वक अन्न देता है, उसे महान् धर्मकी प्राप्ति होती है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितॄन् देवानृषीन् विप्रानतिथींश्च जनाधिप।
यो नरः प्रीणयत्यन्नैस्तस्य पुण्यफलं महत् ॥ १५ ॥
मूलम्
पितॄन् देवानृषीन् विप्रानतिथींश्च जनाधिप।
यो नरः प्रीणयत्यन्नैस्तस्य पुण्यफलं महत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जो देवताओं, पितरों, ऋषियों, ब्राह्मणों और अतिथियोंको अन्न देकर संतुष्ट करता है, उसके पुण्यका फल महान् है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वातिपातकं कर्म यो दद्यादन्नमर्थिने।
ब्राह्मणाय विशेषेण न स पापेन मुह्यते ॥ १६ ॥
मूलम्
कृत्वातिपातकं कर्म यो दद्यादन्नमर्थिने।
ब्राह्मणाय विशेषेण न स पापेन मुह्यते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो महान् पाप करके भी याचक मनुष्यको, उसमें भी विशेषतः ब्राह्मणको अन्न देता है, वह अपने पापके कारण मोहमें नहीं पड़ता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणेष्वक्षयं दानमन्नं शूद्रे महाफलम्।
अन्नदानं हि शूद्रे च ब्राह्मणे च विशिष्यते ॥ १७ ॥
मूलम्
ब्राह्मणेष्वक्षयं दानमन्नं शूद्रे महाफलम्।
अन्नदानं हि शूद्रे च ब्राह्मणे च विशिष्यते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणको अन्नका दान दिया जाय तो अक्षय फल प्राप्त होता है और शूद्रको भी देनेसे महान् फल होता है; क्योंकि अन्नका दान शूद्रको दिया जाय या ब्राह्मणको, उसका विशेष फल होता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पृच्छेद् गोत्रचरणं स्वाध्यायं देशमेव च।
भिक्षितो ब्राह्मणेनेह दद्यादन्नं प्रयाचितः ॥ १८ ॥
मूलम्
न पृच्छेद् गोत्रचरणं स्वाध्यायं देशमेव च।
भिक्षितो ब्राह्मणेनेह दद्यादन्नं प्रयाचितः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि ब्राह्मण अन्नकी याचना करे तो उससे गोत्र, शाखा, वेदाध्ययन और निवासस्थान आदिका परिचय न पूछे; तुरंत ही उसकी सेवामें अन्न उपस्थित कर दे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नदस्यान्नवृक्षाश्च सर्वकामफलप्रदाः ।
भवन्ति चेह चामुत्र नृपतेर्नात्र संशयः ॥ १९ ॥
मूलम्
अन्नदस्यान्नवृक्षाश्च सर्वकामफलप्रदाः ।
भवन्ति चेह चामुत्र नृपतेर्नात्र संशयः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा अन्नका दान करता है, उसके लिये अन्नके पौधे इहलोक और परलोकमें भी सम्पूर्ण मनोवांछित फल देनेवाले होते हैं, इसमें संशय नहीं है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशंसन्ते हि पितरः सुवृष्टिमिव कर्षकाः।
अस्माकमपि पुत्रो वा पौत्रो वान्नं प्रदास्यति ॥ २० ॥
मूलम्
आशंसन्ते हि पितरः सुवृष्टिमिव कर्षकाः।
अस्माकमपि पुत्रो वा पौत्रो वान्नं प्रदास्यति ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे किसान अच्छी वृष्टि मनाया करते हैं, उसी प्रकार पितर भी यह आशा लगाये रहते हैं कि कभी हमलोगोंका पुत्र या पौत्र भी हमारे लिये अन्न प्रदान करेगा॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणो हि महद्भूतं स्वयं देहीति याचति।
अकामो वा सकामो वा दत्त्वा पुण्यमवाप्नुयात् ॥ २१ ॥
मूलम्
ब्राह्मणो हि महद्भूतं स्वयं देहीति याचति।
अकामो वा सकामो वा दत्त्वा पुण्यमवाप्नुयात् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण एक महान् प्राणी है। यदि वह ‘मुझे अन्न दो’ इस प्रकार स्वयं अन्नकी याचना करता है तो मनुष्यको चाहिये कि सकामभावसे या निष्कामभावसे उसे अन्नदान देकर पुण्य प्राप्त करे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणः सर्वभूतानामतिथिः प्रसृताग्रभुक् ।
विप्रा यदधिगच्छन्ति भिक्षमाणा गृहं सदा ॥ २२ ॥
सत्कृताश्च निवर्तन्ते तदतीव प्रवर्धते।
महाभागे कुले प्रेत्य जन्म चाप्नोति भारत ॥ २३ ॥
मूलम्
ब्राह्मणः सर्वभूतानामतिथिः प्रसृताग्रभुक् ।
विप्रा यदधिगच्छन्ति भिक्षमाणा गृहं सदा ॥ २२ ॥
सत्कृताश्च निवर्तन्ते तदतीव प्रवर्धते।
महाभागे कुले प्रेत्य जन्म चाप्नोति भारत ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! ब्राह्मण सब मनुष्योंका अतिथि और सबसे पहले भोजन पानेका अधिकारी है। ब्राह्मण जिस घरपर सदा भिक्षा माँगनेके लिये जाते हैं और वहाँसे सत्कार पाकर लौटते हैं, उस घरकी सम्पत्ति अधिक बढ़ जाती है तथा उस घरका मालिक मरनेके बाद महान् सौभाग्यशाली कुलमें जन्म पाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्त्वा त्वन्नं नरो लोके तथा स्थानमनुत्तमम्।
नित्यं मिष्टान्नदायी तु स्वर्गे वसति सत्कृतः ॥ २४ ॥
मूलम्
दत्त्वा त्वन्नं नरो लोके तथा स्थानमनुत्तमम्।
नित्यं मिष्टान्नदायी तु स्वर्गे वसति सत्कृतः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य इस लोकमें सदा अन्न, उत्तम स्थान और मिष्टान्नका दान करता है, वह देवताओंसे सम्मानित होकर स्वर्गलोकमें निवास करता है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नं प्राणा नराणां हि सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम्।
अन्नदः पशुमान् पुत्री धनवान् भोगवानपि ॥ २५ ॥
प्राणवांश्चापि भवति रूपवांश्च तथा नृप।
अन्नदः प्राणदो लोके सर्वदः प्रोच्यते तु सः ॥ २६ ॥
मूलम्
अन्नं प्राणा नराणां हि सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम्।
अन्नदः पशुमान् पुत्री धनवान् भोगवानपि ॥ २५ ॥
प्राणवांश्चापि भवति रूपवांश्च तथा नृप।
अन्नदः प्राणदो लोके सर्वदः प्रोच्यते तु सः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! अन्न ही मनुष्योंके प्राण हैं, अन्नमें ही सब प्रतिष्ठित है, अतः अन्न दान करनेवाला मनुष्य पशु, पुत्र, धन, भोग, बल और रूप भी प्राप्त कर लेता है। जगत्में अन्न दान करनेवाला पुरुष प्राणदाता और सर्वस्व देनेवाला कहलाता है॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नं हि दत्त्वातिथये ब्राह्मणाय यथाविधि।
प्रदाता सुखमाप्नोति दैवतैश्चापि पूज्यते ॥ २७ ॥
मूलम्
अन्नं हि दत्त्वातिथये ब्राह्मणाय यथाविधि।
प्रदाता सुखमाप्नोति दैवतैश्चापि पूज्यते ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतिथि ब्राह्मणको विधिपूर्वक अन्नदान करके दाता परलोकमें सुख पाता है और देवता भी उसका आदर करते हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणो हि महद्भूतं क्षेत्रभूतं युधिष्ठिर।
उप्यते तत्र यद् बीजं तद्धि पुण्यफलं महत् ॥ २८ ॥
मूलम्
ब्राह्मणो हि महद्भूतं क्षेत्रभूतं युधिष्ठिर।
उप्यते तत्र यद् बीजं तद्धि पुण्यफलं महत् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! ब्राह्मण महान् प्राणी एवं उत्तम क्षेत्र है। उसमें जो बीज बोया जाता है, वह महान् पुण्यफल देनेवाला होता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षं प्रीतिजननं भोक्तुर्दातुर्भवत्युत ।
सर्वाण्यन्यानि दानानि परोक्षफलवन्त्युत ॥ २९ ॥
मूलम्
प्रत्यक्षं प्रीतिजननं भोक्तुर्दातुर्भवत्युत ।
सर्वाण्यन्यानि दानानि परोक्षफलवन्त्युत ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्नका दान ही एक ऐसा दान है, जो दाता और भोक्ता, दोनोंको प्रत्यक्षरूपसे संतुष्ट करनेवाला होता है। इसके सिवा अन्य जितने दान हैं, उन सबका फल परोक्ष है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नाद्धि प्रसवं यान्ति रतिरन्नाद्धि भारत।
धर्मार्थावन्नतो विद्धि रोगनाशं तथान्नतः ॥ ३० ॥
मूलम्
अन्नाद्धि प्रसवं यान्ति रतिरन्नाद्धि भारत।
धर्मार्थावन्नतो विद्धि रोगनाशं तथान्नतः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! अन्नसे ही संतानकी उत्पत्ति होती है। अन्नसे ही रतिकी सिद्धि होती है। अन्नसे ही धर्म और अर्थकी सिद्धि समझो। अन्नसे ही रोगोंका नाश होता है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नं ह्यमृतमित्याह पुराकल्पे प्रजापतिः।
अन्नं भुवं दिवं खं च सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
अन्नं ह्यमृतमित्याह पुराकल्पे प्रजापतिः।
अन्नं भुवं दिवं खं च सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकल्पमें प्रजापतिने अन्नको अमृत बतलाया है। भूलोक, स्वर्ग और आकाश अन्नरूप ही हैं; क्योंकि अन्न ही सबका आधार है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नप्रणाशे भिद्यन्ते शरीरे पञ्च धातवः।
बलं बलवतोऽपीह प्रणश्यत्यन्नहानितः ॥ ३२ ॥
मूलम्
अन्नप्रणाशे भिद्यन्ते शरीरे पञ्च धातवः।
बलं बलवतोऽपीह प्रणश्यत्यन्नहानितः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्नका आहार न मिलनेपर शरीरमें रहनेवाले पाँचों तत्त्व अलग-अलग हो जाते हैं। अन्नकी कमी हो जानेसे बड़े-बड़े बलवानोंका बल भी क्षीण हो जाता है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवाहाश्च विवाहाश्च यज्ञाश्चान्नमृते तथा।
निवर्तन्ते नरश्रेष्ठ ब्रह्म चात्र प्रलीयते ॥ ३३ ॥
मूलम्
आवाहाश्च विवाहाश्च यज्ञाश्चान्नमृते तथा।
निवर्तन्ते नरश्रेष्ठ ब्रह्म चात्र प्रलीयते ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निमन्त्रण, विवाह और यज्ञ भी अन्नके बिना बंद हो जाते हैं। नरश्रेष्ठ! अन्न न हो तो वेदोंका ज्ञान भी भूल जाता है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नतः सर्वमेतद्धि यत् किंचित् स्थाणु जंगमम्।
त्रिषु लोकेषु धर्मार्थमन्नं देयमतो बुधैः ॥ ३४ ॥
मूलम्
अन्नतः सर्वमेतद्धि यत् किंचित् स्थाणु जंगमम्।
त्रिषु लोकेषु धर्मार्थमन्नं देयमतो बुधैः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जो कुछ भी स्थावर-जंगमरूप जगत् है, सब-का-सब अन्नके ही आधारपर टिका हुआ है। अतः बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि तीनों लोकोंमें धर्मके लिये अन्नका दान अवश्य करें॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नदस्य मनुष्यस्य बलमोजो यशांसि च।
कीर्तिश्च वर्धते शश्वत् त्रिषु लोकेषु पार्थिव ॥ ३५ ॥
मूलम्
अन्नदस्य मनुष्यस्य बलमोजो यशांसि च।
कीर्तिश्च वर्धते शश्वत् त्रिषु लोकेषु पार्थिव ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! अन्नदान करनेवाले मनुष्यके बल, ओज, यश और कीर्तिका तीनों लोकोंमें सदा ही विस्तार होता रहता है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेघेषूर्ध्वं संनिधत्ते प्राणानां पवनः पतिः।
तच्च मेघगतं वारि शक्रो वर्षति भारत ॥ ३६ ॥
मूलम्
मेघेषूर्ध्वं संनिधत्ते प्राणानां पवनः पतिः।
तच्च मेघगतं वारि शक्रो वर्षति भारत ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! प्राणोंका स्वामी पवन मेघोंके ऊपर स्थित होता है और मेघमें जो जल है, उसे इन्द्र धरतीपर बरसाते हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदत्ते च रसान् भौमानादित्यः स्वगभस्तिभिः।
वायुरादित्यतस्तांश्च रसान् देवः प्रवर्षति ॥ ३७ ॥
मूलम्
आदत्ते च रसान् भौमानादित्यः स्वगभस्तिभिः।
वायुरादित्यतस्तांश्च रसान् देवः प्रवर्षति ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्य अपनी किरणोंसे पृथ्वीके रसोंको ग्रहण करते हैं। वायुदेव सूर्यसे उन रसोंको लेकर फिर भूमिपर बरसाते हैं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् यदा मेघतो वारि पतितं भवति क्षितौ।
तदा वसुमती देवी स्निग्धा भवति भारत ॥ ३८ ॥
मूलम्
तद् यदा मेघतो वारि पतितं भवति क्षितौ।
तदा वसुमती देवी स्निग्धा भवति भारत ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! इस प्रकार जब मेघसे पृथ्वीपर जल गिरता है, तब पृथ्वीदेवी स्निग्ध (गीली) होती है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सस्यानि रोहन्ति येन वर्तयते जगत्।
मांसमेदोऽस्थिशुक्राणां प्रादुर्भावस्ततः पुनः ॥ ३९ ॥
मूलम्
ततः सस्यानि रोहन्ति येन वर्तयते जगत्।
मांसमेदोऽस्थिशुक्राणां प्रादुर्भावस्ततः पुनः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उस गीली धरतीसे अनाजके अंकुर उत्पन्न होते हैं, जिससे जगत्के जीवोंका निर्वाह होता है। अन्नसे ही शरीरमें मांस, मेदा, अस्थि और वीर्यका प्रादुर्भाव होता है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्भवन्ति ततः शुक्रात् प्राणिनः पृथिवीपते।
अग्नीषोमौ हि तच्छुक्रं सृजतः पुष्यतश्च ह ॥ ४० ॥
मूलम्
सम्भवन्ति ततः शुक्रात् प्राणिनः पृथिवीपते।
अग्नीषोमौ हि तच्छुक्रं सृजतः पुष्यतश्च ह ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! उस वीर्यसे प्राणी उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार अग्नि और सोम उस वीर्यकी सृष्टि और पुष्टि करते हैं॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमन्नाद्धि सूर्यश्च पवनः शुक्रमेव च।
एक एव स्मृतो राशिस्ततो भूतानि जज्ञिरे ॥ ४१ ॥
मूलम्
एवमन्नाद्धि सूर्यश्च पवनः शुक्रमेव च।
एक एव स्मृतो राशिस्ततो भूतानि जज्ञिरे ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह सूर्य, वायु और वीर्य एक ही राशि हैं जो अन्नसे प्रकट हुए हैं। उन्हींसे समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणान् ददाति भूतानां तेजश्च भरतर्षभ।
गृहमभ्यागतायाथ यो दद्यादन्नमर्थिने ॥ ४२ ॥
मूलम्
प्राणान् ददाति भूतानां तेजश्च भरतर्षभ।
गृहमभ्यागतायाथ यो दद्यादन्नमर्थिने ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! जो घरपर आये हुए याचकको अन्न देता है, वह सब प्राणियोंको प्राण और तेजका दान करता है॥४२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारदेनैवमुक्तोऽहमदामन्नं सदा नृप ।
अनसूयुस्त्वमप्यन्नं तस्माद् देहि गतज्वरः ॥ ४३ ॥
मूलम्
नारदेनैवमुक्तोऽहमदामन्नं सदा नृप ।
अनसूयुस्त्वमप्यन्नं तस्माद् देहि गतज्वरः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— नरेश्वर! जब नारदजीने मुझे इस प्रकार अन्न-दानका माहात्म्य बतलाया, तबसे मैं नित्य अन्नका दान किया करता था। अतः तुम भी दोषदृष्टि और जलन छोड़कर सदा अन्न-दान करते रहना॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्त्वान्नं विधिवद् राजन् विप्रेभ्यस्त्वमिति प्रभो।
यथावदनुरूपेभ्यस्ततः स्वर्गमवाप्स्यसि ॥ ४४ ॥
मूलम्
दत्त्वान्नं विधिवद् राजन् विप्रेभ्यस्त्वमिति प्रभो।
यथावदनुरूपेभ्यस्ततः स्वर्गमवाप्स्यसि ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! प्रभो! तुम सुयोग्य ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक अन्नका दान करके उसके पुण्यसे स्वर्गलोकको प्राप्त कर लोगे॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नदानां हि ये लोकास्तांस्त्वं शृणु जनाधिप।
भवनानि प्रकाशन्ते दिवि तेषां महात्मनाम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
अन्नदानां हि ये लोकास्तांस्त्वं शृणु जनाधिप।
भवनानि प्रकाशन्ते दिवि तेषां महात्मनाम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! अन्न-दान करनेवालोंको जो लोक प्राप्त होते हैं, उनका परिचय देता हूँ, सुनो। स्वर्गमें उन महामनस्वी अन्नदाताओंके घर प्रकाशित होते रहते हैं॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तारासंस्थानि रूपाणि नानास्तम्भान्वितानि च।
चन्द्रमण्डलशुभ्राणि किंकिणीजालवन्ति च ॥ ४६ ॥
मूलम्
तारासंस्थानि रूपाणि नानास्तम्भान्वितानि च।
चन्द्रमण्डलशुभ्राणि किंकिणीजालवन्ति च ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन गृहोंकी आकृति तारोंके समान उज्ज्वल और अनेकानेक खम्भोंसे सुशोभित होती है। वे गृह चन्द्रमण्डलके समान उज्ज्वल प्रतीत होते हैं। उनपर छोटी-छोटी घंटियोंसे युक्त झालरें लगी हैं॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरुणादित्यवर्णानि स्थावराणि चराणि च।
अनेकशतभौमानि सान्तर्जलचराणि च ॥ ४७ ॥
मूलम्
तरुणादित्यवर्णानि स्थावराणि चराणि च।
अनेकशतभौमानि सान्तर्जलचराणि च ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमेंसे कितने ही भवन प्रातःकालके सूर्यकी भाँति लाल प्रभासे युक्त हैं, कितने ही स्थावर हैं और कितने ही विमानोंके रूपमें विचरते रहते हैं। उनमें सैकड़ों कक्षाएँ और मंजिलें होती हैं। उन घरोंके भीतर जलचर जीवोंसहित जलाशय होते हैं॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैदूर्यार्कप्रकाशानि रौप्यरुक्ममयानि च ।
सर्वकामफलाश्चापि वृक्षा भवनसंस्थिताः ॥ ४८ ॥
मूलम्
वैदूर्यार्कप्रकाशानि रौप्यरुक्ममयानि च ।
सर्वकामफलाश्चापि वृक्षा भवनसंस्थिताः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही घर वैदूर्यमणिमय (नील) सूर्यके समान प्रकाशित होते हैं। कितने ही चाँदी और सोनेके बने हुए हैं। उन भवनोंमें अनेकानेक वृक्ष शोभा पाते हैं, जो सम्पूर्ण मनोवांछित फल देनेवाले हैं॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाप्यो वीथ्यः सभाः कूपा दीर्घिकाश्चैव सर्वशः।
घोषवन्ति च यानानि युक्तान्यथ सहस्रशः ॥ ४९ ॥
मूलम्
वाप्यो वीथ्यः सभाः कूपा दीर्घिकाश्चैव सर्वशः।
घोषवन्ति च यानानि युक्तान्यथ सहस्रशः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन गृहोंमें अनेक प्रकारकी बावड़ियाँ, गलियाँ, सभाभवन, कूप, तालाब और गम्भीर घोष करनेवाले सहस्रों जुते हुए रथ आदि वाहन होते हैं॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्ष्यभोज्यमयाः शैला वासांस्याभरणानि च।
क्षीरं स्रवन्ति सरितस्तथा चैवान्नपर्वताः ॥ ५० ॥
मूलम्
भक्ष्यभोज्यमयाः शैला वासांस्याभरणानि च।
क्षीरं स्रवन्ति सरितस्तथा चैवान्नपर्वताः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंके पर्वत, वस्त्र और आभूषण हैं। वहाँकी नदियाँ दूध बहाती हैं। अन्नके पर्वतोपम ढेर लगे रहते हैं॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रासादाः पाण्डुराभ्राभाः शय्याश्च काञ्चनोज्ज्वलाः।
तान्यन्नदाः प्रपद्यन्ते तस्मादन्नप्रदो भव ॥ ५१ ॥
मूलम्
प्रासादाः पाण्डुराभ्राभाः शय्याश्च काञ्चनोज्ज्वलाः।
तान्यन्नदाः प्रपद्यन्ते तस्मादन्नप्रदो भव ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन भवनोंमें सफेद बादलोंके समान अट्टालिकाएँ और सुवर्णनिर्मित प्रकाशपूर्ण शय्याएँ शोभा पाती हैं। वे महल अन्नदाता पुरुषोंको प्राप्त होते हैं; इसलिये तुम भी अन्नदान करो॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते लोकाः पुण्यकृता अन्नदानां महात्मनाम्।
तस्मादन्नं प्रयत्नेन दातव्यं मानवैर्भुवि ॥ ५२ ॥
मूलम्
एते लोकाः पुण्यकृता अन्नदानां महात्मनाम्।
तस्मादन्नं प्रयत्नेन दातव्यं मानवैर्भुवि ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये पुण्यजनित लोक अन्नदान करनेवाले महामनस्वी पुरुषोंको प्राप्त होते हैं। अतः इस पृथ्वीपर सभी मनुष्योंको प्रयत्नपूर्वक अन्नका दान करना चाहिये॥५२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अन्नदानप्रशंसायां त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें अन्नदानकी प्रशंसाविषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६३॥