०६२ इन्द्रबृहस्पतिसंवादे

भागसूचना

द्विषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

सब दानोंसे बढ़कर भूमिदानका महत्त्व तथा उसीके विषयमें इन्द्र और बृहस्पतिका संवाद

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं देयमिदं देयमितीयं श्रुतिरादरात्।
बहुदेयाश्च राजानः किंस्विद् दानमनुत्तमम् ॥ १ ॥

मूलम्

इदं देयमिदं देयमितीयं श्रुतिरादरात्।
बहुदेयाश्च राजानः किंस्विद् दानमनुत्तमम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! यह देना चाहिये, वह देना चाहिये, ऐसा कहकर यह श्रुति बड़े आदरके साथ दानका विधान करती है तथा शास्त्रोंमें राजाओंके लिये बहुत कुछ दान करनेके लिये बात कही गयी है; परंतु मैं यह जानना चाहता हूँ कि सब दानोंमें सर्वोत्तम दान कौन-सा है?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिदानानि सर्वाणि पृथिवीदानमुच्यते ।
अचला ह्यक्षया भूमिर्दोग्ध्री कामानिहोत्तमान् ॥ २ ॥

मूलम्

अतिदानानि सर्वाणि पृथिवीदानमुच्यते ।
अचला ह्यक्षया भूमिर्दोग्ध्री कामानिहोत्तमान् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— बेटा! सब दानोंसे बढ़कर पृथ्वीदान बताया गया है। पृथ्वी अचल और अक्षय है। वह इस लोकमें समस्त उत्तम भोगोंको देनेवाली है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोग्ध्री वासांसि रत्नानि पशून् व्रीहियवांस्तथा।
भूमिदः सर्वभूतेषु शाश्वतीरेधते समाः ॥ ३ ॥

मूलम्

दोग्ध्री वासांसि रत्नानि पशून् व्रीहियवांस्तथा।
भूमिदः सर्वभूतेषु शाश्वतीरेधते समाः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वस्त्र, रत्न, पशु और धान-जौ आदि नाना प्रकारके अन्न—इन सबको देनेवाली पृथ्वी ही है; अतः पृथ्वीका दान करनेवाला मनुष्य सदा समस्त प्राणियोंमें सबसे अधिक अभ्युदयशील होता है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावद् भूमेरायुरिह तावद् भूमिद एधते।
न भूमिदानादस्तीह परं किंचिद् युधिष्ठिर ॥ ४ ॥

मूलम्

यावद् भूमेरायुरिह तावद् भूमिद एधते।
न भूमिदानादस्तीह परं किंचिद् युधिष्ठिर ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! इस जगत्‌में जबतक पृथ्वीकी आयु है, तबतक भूमिदान करनेवाला मनुष्य समृद्धिशाली रहकर सुख भोगता है। अतः यहाँ भूमिदानसे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्यल्पं प्रददुः सर्वे पृथिव्या इति नः श्रुतम्।
भूमिमेव ददुः सर्वे भूमिं ते भुञ्जते जनाः ॥ ५ ॥

मूलम्

अप्यल्पं प्रददुः सर्वे पृथिव्या इति नः श्रुतम्।
भूमिमेव ददुः सर्वे भूमिं ते भुञ्जते जनाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमने सुना है कि जिन लोगोंने थोड़ी-सी भी पृथ्वी दान की है, वे सब लोग भूमिदानका ही पूर्ण फल पाकर उसका उपभोग करते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वकर्मैवोपजीवन्ति नरा इह परत्र च।
भूमिर्भूतिर्महादेवी दातारं कुरुते प्रियम् ॥ ६ ॥

मूलम्

स्वकर्मैवोपजीवन्ति नरा इह परत्र च।
भूमिर्भूतिर्महादेवी दातारं कुरुते प्रियम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य इहलोक और परलोकमें अपने कर्मके अनुसार ही जीवन-निर्वाह करते हैं। भूमि ऐश्वर्यस्वरूपा महादेवी है। वह दाताको अपना प्रिय बना लेती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एतां दक्षिणां दद्यादक्षयां राजसत्तम।
पुनर्नरत्वं सम्प्राप्य भवेत् स पृथिवीपतिः ॥ ७ ॥

मूलम्

य एतां दक्षिणां दद्यादक्षयां राजसत्तम।
पुनर्नरत्वं सम्प्राप्य भवेत् स पृथिवीपतिः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! जो इस अक्षय भूमिका दान करता है वह दूसरे जन्ममें मनुष्य होकर पृथ्वीका स्वामी होता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा दानं तथा भोग इति धर्मेषु निश्चयः।
संग्रामे वा तनुं जह्याद् दद्याच्च पृथिवीमिमाम् ॥ ८ ॥
इत्येतत् क्षत्रबन्धूनां वदन्ति परमां श्रियम्।

मूलम्

यथा दानं तथा भोग इति धर्मेषु निश्चयः।
संग्रामे वा तनुं जह्याद् दद्याच्च पृथिवीमिमाम् ॥ ८ ॥
इत्येतत् क्षत्रबन्धूनां वदन्ति परमां श्रियम्।

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मशास्त्रोंका सिद्धान्त है कि जैसा दान किया जाता है, वैसा ही भोग मिलता है। संग्राममें शरीरका त्याग करना तथा इस पृथ्वीका दान करना—ये दोनों ही कार्य क्षत्रियोंको उत्तम लक्ष्मीकी प्राप्ति करानेवाले होते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनाति दत्ता पृथिवी दातारमिति शुश्रुम ॥ ९ ॥
अपि पापसमाचारं ब्रह्मघ्नमपि चानृतम्।
सैव पापं प्लावयति सैव पापात् प्रमोचयेत् ॥ १० ॥

मूलम्

पुनाति दत्ता पृथिवी दातारमिति शुश्रुम ॥ ९ ॥
अपि पापसमाचारं ब्रह्मघ्नमपि चानृतम्।
सैव पापं प्लावयति सैव पापात् प्रमोचयेत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दानमें दी हुई पृथ्वी दाताको पवित्र कर देती है—यह हमने सुना है। कितना ही बड़ा पापाचारी, ब्रह्महत्यारा और असत्यवादी क्यों न हो, दानमें दी हुई पृथ्वी ही दाताके पापको धो बहा देती है और वही उसे सर्वथा पापमुक्त कर देती है॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि पापकृतां राज्ञां प्रतिगृह्णन्ति साधवः।
पृथिवीं नान्यदिच्छन्ति पावनं जननी यथा ॥ ११ ॥

मूलम्

अपि पापकृतां राज्ञां प्रतिगृह्णन्ति साधवः।
पृथिवीं नान्यदिच्छन्ति पावनं जननी यथा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ पुरुष पापाचारी राजाओंसे भी पृथ्वीका दान तो ले लेते हैं, किंतु और किसी वस्तुका दान नहीं लेना चाहते। पृथ्वी वैसी ही पावन वस्तु है जैसी माता॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामास्याः प्रियदत्तेति गुह्यं देव्याः सनातनम्।
दानं वाप्यथवाऽऽदानं नामास्याः प्रथमं प्रियम् ॥ १२ ॥

मूलम्

नामास्याः प्रियदत्तेति गुह्यं देव्याः सनातनम्।
दानं वाप्यथवाऽऽदानं नामास्याः प्रथमं प्रियम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस पृथ्वी देवीका सनातन गोपनीय नाम ‘प्रियदत्ता’ है। इसका दान अथवा ग्रहण दोनों ही दाता और प्रतिग्रहीताको प्रिय हैं; इसीलिये इसका यह प्रथम नाम सबको प्रिय है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एतां विदुषे दद्यात् पृथिवीं पृथिवीपतिः।
पृथिव्यामेतदिष्टं स राजा राज्यमितो व्रजेत् ॥ १३ ॥

मूलम्

य एतां विदुषे दद्यात् पृथिवीं पृथिवीपतिः।
पृथिव्यामेतदिष्टं स राजा राज्यमितो व्रजेत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पृथ्वीपति विद्वान् ब्राह्मणोंको इस पृथ्वीका दान देता है, वह राजा इस दानके प्रभावसे पुनः राज्य प्राप्त करता है। भूमण्डलमें यह पृथ्वीदान सबको प्रिय है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्चासौ जनिं प्राप्य राजवत् स्यान्न संशयः।
तस्मात् प्राप्यैव पृथिवीं दद्यात् विप्राय पार्थिवः ॥ १४ ॥

मूलम्

पुनश्चासौ जनिं प्राप्य राजवत् स्यान्न संशयः।
तस्मात् प्राप्यैव पृथिवीं दद्यात् विप्राय पार्थिवः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पुनर्जन्म पाकर राजाके समान ही होता है, इसमें संशय नहीं है। अतः राजाको चाहिये कि वह पृथ्वीपर अधिकार पाते ही उसमेंसे कुछ ब्राह्मणको दान करे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाभूमिपतिना भूमिरधिष्ठेया कथंचन ।
न चापात्रेण वा ग्राह्या दत्तदाने न चाचरेत् ॥ १५ ॥

मूलम्

नाभूमिपतिना भूमिरधिष्ठेया कथंचन ।
न चापात्रेण वा ग्राह्या दत्तदाने न चाचरेत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जिस भूमिका स्वामी नहीं है, उसे उसपर किसी तरह अधिकार नहीं करना चाहिये तथा अयोग्य पात्रको भूमिदान नहीं ग्रहण करना चाहिये। जिस भूमिको दानमें दे दिया गया हो, उसे अपने उपयोगमें नहीं लाना चाहिये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये चान्ये भूमिमिच्छेयुः कुर्युरेवं न संशयः।
यः साधोर्भूमिमादत्ते न भूमिं विन्दते तु सः ॥ १६ ॥

मूलम्

ये चान्ये भूमिमिच्छेयुः कुर्युरेवं न संशयः।
यः साधोर्भूमिमादत्ते न भूमिं विन्दते तु सः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे भी जो लोग भावी जन्ममें भूमि पानेकी इच्छा करें, उन्हें भी इस जन्ममें इसी तरह भूमिदान करना चाहिये। इसमें संशय नहीं है। जो छल-बलसे श्रेष्ठ पुरुषकी भूमिका अपहरण कर लेता है, उसे भूमिकी प्राप्ति नहीं होती॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमिं दत्त्वा तु साधुभ्यो विन्दते भूमिमुत्तमाम्।
प्रेत्य चेह च धर्मात्मा सम्प्राप्नोति महद् यशः ॥ १७ ॥

मूलम्

भूमिं दत्त्वा तु साधुभ्यो विन्दते भूमिमुत्तमाम्।
प्रेत्य चेह च धर्मात्मा सम्प्राप्नोति महद् यशः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ पुरुषोंको भूमिदान देनेसे दाताको उत्तम भूमिकी प्राप्ति होती है तथा वह धर्मात्मा पुरुष इहलोक और परलोकमें भी महान् यशका भागी होता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(एकागारकरीं दत्त्वा षष्टिसाहस्रमूर्ध्वगः ।
तावत्या हरणे पृथ्व्या नरकं द्विगुणोत्तरम्॥)

मूलम्

(एकागारकरीं दत्त्वा षष्टिसाहस्रमूर्ध्वगः ।
तावत्या हरणे पृथ्व्या नरकं द्विगुणोत्तरम्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

जो एक घर बनाने भरके लिये भूमि दान करता है, वह साठ हजार वर्षोंतक ऊर्ध्वलोकमें निवास करता है। तथा जो उतनी ही पृथ्वीका हरण कर लेता है, उसे उससे दूने अधिक कालतक नरकमें रहना पड़ता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य विप्रास्तु शंसन्ति साधोर्भूमिं सदैव हि।
न तस्य शत्रवो राजन् प्रशंसन्ति वसुन्धराम् ॥ १८ ॥

मूलम्

यस्य विप्रास्तु शंसन्ति साधोर्भूमिं सदैव हि।
न तस्य शत्रवो राजन् प्रशंसन्ति वसुन्धराम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ब्राह्मण जिस श्रेष्ठ पुरुषकी दी हुई भूमिकी सदा ही प्रशंसा करते हैं, उसकी उस भूमिकी राजाके शत्रु प्रशंसा नहीं करते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् किंचित् पुरुषः पापं कुरुते वृत्तिकर्शितः।
अपि गोचर्ममात्रेण भूमिदानेन पूयते ॥ १९ ॥

मूलम्

यत् किंचित् पुरुषः पापं कुरुते वृत्तिकर्शितः।
अपि गोचर्ममात्रेण भूमिदानेन पूयते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीविका न होनेके कारण मनुष्य क्लेशमें पड़कर जो कुछ पाप कर डालता है, वह सारा पाप गोचर्मके बराबर भूमि-दान करनेसे धुल जाता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येऽपि संकीर्णकर्माणो राजानो रौद्रकर्मिणः।
तेभ्यः पवित्रमाख्येयं भूमिदानमनुत्तमम् ॥ २० ॥

मूलम्

येऽपि संकीर्णकर्माणो राजानो रौद्रकर्मिणः।
तेभ्यः पवित्रमाख्येयं भूमिदानमनुत्तमम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा कठोर कर्म करनेवाले तथा पापपरायण हैं, उन्हें पापोंसे मुक्त होनेके लिये परम पवित्र एवं सबसे उत्तम भूमिदानका उपदेश देना चाहिये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अल्पान्तरमिदं शश्वत् पुराणा मेनिरे जनाः।
यो यजेताश्वमेधेन दद्याद् वा साधवे महीम् ॥ २१ ॥

मूलम्

अल्पान्तरमिदं शश्वत् पुराणा मेनिरे जनाः।
यो यजेताश्वमेधेन दद्याद् वा साधवे महीम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राचीनकालके लोग सदा यह मानते रहे हैं कि जो अश्वमेधयज्ञ करता है अथवा जो श्रेष्ठ पुरुषको पृथ्वीदान करता है, इन दोनोंमें बहुत कम अन्तर है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि चेत्सुकृतं कृत्वा शङ्केरन्नपि पण्डिताः।
अशङ्‌क्यमेकमेवैतद् भूमिदानमनुत्तमम् ॥ २२ ॥

मूलम्

अपि चेत्सुकृतं कृत्वा शङ्केरन्नपि पण्डिताः।
अशङ्‌क्यमेकमेवैतद् भूमिदानमनुत्तमम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरा कोई पुण्य कर्म करके उसके फलके विषयमें विद्वान् पुरुषोंको भी शंका हो जाय, यह सम्भव है; किंतु एकमात्र यह सर्वोत्तम भूमिदान ही ऐसा सत्कर्म है, जिसके फलके विषयमें किसीको शंका नहीं हो सकती॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवर्णं रजतं वस्त्रं मणिमुक्तावसूनि च।
सर्वमेतन्महाप्राज्ञो ददाति वसुधां ददत् ॥ २३ ॥

मूलम्

सुवर्णं रजतं वस्त्रं मणिमुक्तावसूनि च।
सर्वमेतन्महाप्राज्ञो ददाति वसुधां ददत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो महाबुद्धिमान् पुरुष पृथ्वीका दान करता है, वह सोना, चाँदी, वस्त्र, मणि, मोती तथा रत्न—इन सबका दान कर देता है (अर्थात् इन सभी दानोंका फल प्राप्त कर लेता है।)॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपो यज्ञः श्रुतं शीलमलोभः सत्यसंधता।
गुरुदैवतपूजा च एता वर्तन्ति भूमिदम् ॥ २४ ॥

मूलम्

तपो यज्ञः श्रुतं शीलमलोभः सत्यसंधता।
गुरुदैवतपूजा च एता वर्तन्ति भूमिदम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीका दान करनेवाले पुरुषको तप, यज्ञ, विद्या, सुशीलता, लोभका अभाव, सत्यवादिता, गुरु-शुश्रूषा और देवाराधन—इन सबका फल प्राप्त हो जाता है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भर्तृनिःश्रेयसे युक्तास्त्यक्तात्मानो रणे हताः।
ब्रह्मलोकगताः सिद्धा नातिक्रामन्ति भूमिदम् ॥ २५ ॥

मूलम्

भर्तृनिःश्रेयसे युक्तास्त्यक्तात्मानो रणे हताः।
ब्रह्मलोकगताः सिद्धा नातिक्रामन्ति भूमिदम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने स्वामीका भला करनेके लिये रणभूमिमें मारे जाकर शरीर त्याग देते हैं और जो सिद्ध होकर ब्रह्मलोकमें पहुँच जाते हैं, वे भी भूमिदान करनेवाले पुरुषको लाँघकर आगे नहीं बढ़ने पाते॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा जनित्री स्वं पुत्रं क्षीरेण भरते सदा।
अनुगृह्णाति दातारं तथा सर्वरसैर्मही ॥ २६ ॥

मूलम्

यथा जनित्री स्वं पुत्रं क्षीरेण भरते सदा।
अनुगृह्णाति दातारं तथा सर्वरसैर्मही ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे माता अपने बच्चेको सदा दूध पिलाकर पालती है, उसी प्रकार पृथ्वी सब प्रकारके रस देकर भूमिदातापर अनुग्रह करती है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृत्युर्वैकिङ्करो दण्डस्तमो वह्निः सुदारुणः।
घोराश्च दारुणाः पाशा नोपसर्पन्ति भूमिदम् ॥ २७ ॥

मूलम्

मृत्युर्वैकिङ्करो दण्डस्तमो वह्निः सुदारुणः।
घोराश्च दारुणाः पाशा नोपसर्पन्ति भूमिदम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालकी भेजी हुई मौत, दण्ड, तमोगुण, दारुण अग्नि और अत्यन्त भयंकर पाश—ये भूमिदान करनेवाले पुरुषका स्पर्श नहीं कर सकते हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितॄंश्च पितृलोकस्थान् देवलोकाच्च देवताः।
संतर्पयति शान्तात्मा यो ददाति वसुन्धराम् ॥ २८ ॥

मूलम्

पितॄंश्च पितृलोकस्थान् देवलोकाच्च देवताः।
संतर्पयति शान्तात्मा यो ददाति वसुन्धराम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पृथ्वीका दान करता है, वह शान्ताचित्त पुरुष पितृलोकमें रहनेवाले पितरों तथा देवलोकसे आये हुए देवताओंको भी तृप्त कर देता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृशाय म्रियमाणाय वृत्तिग्लानाय सीदते।
भूमिं वृत्तिकरीं दत्त्वा सत्री भवति मानवः ॥ २९ ॥

मूलम्

कृशाय म्रियमाणाय वृत्तिग्लानाय सीदते।
भूमिं वृत्तिकरीं दत्त्वा सत्री भवति मानवः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्बल, जीविकाके बिना दुखी और भूखके कष्टसे मरते हुए ब्राह्मणको उपजाऊ भूमिदान करनेवाला मनुष्य यज्ञका फल पाता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा धावति गौर्वत्सं स्रवन्ती वत्सला पयः।
एवमेव महाभाग भूमिर्भवति भूमिदम् ॥ ३० ॥

मूलम्

यथा धावति गौर्वत्सं स्रवन्ती वत्सला पयः।
एवमेव महाभाग भूमिर्भवति भूमिदम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभाग! जैसे बछड़ेके प्रति वात्सल्यभावसे भरी हुई गौ अपने थनोंसे दूध बहाती हुई उसे पिलानेके लिये दौड़ती है, उसी प्रकार यह पृथ्वी भूमिदान करनेवालेको सुख पहुँचानेके लिये दौड़ती है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

फालकृष्टां महीं दत्त्वा सबीजां सफलामपि।
उदीर्णं वापि शरणं यथा भवति कामदः ॥ ३१ ॥

मूलम्

फालकृष्टां महीं दत्त्वा सबीजां सफलामपि।
उदीर्णं वापि शरणं यथा भवति कामदः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य जोती-बोयी और उपजी हुई खेतीसे भरी भूमिका दान करता है अथवा विशाल भवन बनवाकर देता है, उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणं वृत्तिसम्पन्नमाहिताग्निं शुचिव्रतम् ।
नरः प्रतिग्राह्य महीं न याति परमापदम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

ब्राह्मणं वृत्तिसम्पन्नमाहिताग्निं शुचिव्रतम् ।
नरः प्रतिग्राह्य महीं न याति परमापदम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सदाचारी, अग्निहोत्री और उत्तम व्रतमें संलग्न ब्राह्मणको पृथ्वीका दान करता है, वह कभी भारी विपत्तिमें नहीं पड़ता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा चन्द्रमसो वृद्धिरहन्यहनि जायते।
तथा भूमिकृतं दानं सस्ये सस्ये विवर्धते ॥ ३३ ॥

मूलम्

यथा चन्द्रमसो वृद्धिरहन्यहनि जायते।
तथा भूमिकृतं दानं सस्ये सस्ये विवर्धते ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे चन्द्रमाकी कला प्रतिदिन बढ़ती है, उसी प्रकार दान की हुई पृथ्वीमें जितनी बार फसल पैदा होती है, उतना ही उसके पृथ्वी-दानका फल बढ़ता जाता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र गाथा भूमिगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
याः श्रुत्वा जामदग्न्येन दत्ता भूः काश्यपाय वै ॥ ३४ ॥

मूलम्

अत्र गाथा भूमिगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
याः श्रुत्वा जामदग्न्येन दत्ता भूः काश्यपाय वै ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राचीन बातोंको जाननेवाले लोग भूमिकी गायी हुई गाथाओंका वर्णन किया करते हैं, जिन्हें सुनकर जमदग्निनन्दन परशुरामने काश्यपजीको सारी पृथ्वी दान कर दी थी॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मामेवादत्त मां दत्त मां दत्त्वा मामवाप्स्यथ।
अस्मिल्लोँके परे चैव तद् दत्तं जायते पुनः ॥ ३५ ॥

मूलम्

मामेवादत्त मां दत्त मां दत्त्वा मामवाप्स्यथ।
अस्मिल्लोँके परे चैव तद् दत्तं जायते पुनः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह गाथा इस प्रकार है—(पृथ्वी कहती है—) ‘मुझे ही दानमें दो, मुझे ही ग्रहण करो। मुझे देकर ही मुझे पाओगे; क्योंकि मनुष्य इस लोकमें जो कुछ दान करता है, वही उसे इहलोक और परलोकमें भी प्राप्त होता है’॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य इमां व्याहृतिं वेद ब्राह्मणो वेदसम्मिताम्।
श्राद्धस्य क्रियमाणस्य ब्रह्मभूयं स गच्छति ॥ ३६ ॥

मूलम्

य इमां व्याहृतिं वेद ब्राह्मणो वेदसम्मिताम्।
श्राद्धस्य क्रियमाणस्य ब्रह्मभूयं स गच्छति ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ब्राह्मण श्राद्धकालमें पृथ्वीकी गायी हुई वेदसम्मत इस गाथाका पाठ करता है, वह ब्रह्मभावको प्राप्त होता है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्यानामधिशस्तानामरिष्टशमनं महत् ।
प्रायश्चित्तं महीं दत्त्वा पुनात्युभयतो दश ॥ ३७ ॥

मूलम्

कृत्यानामधिशस्तानामरिष्टशमनं महत् ।
प्रायश्चित्तं महीं दत्त्वा पुनात्युभयतो दश ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त प्रबल कृत्या (मारणशक्ति) के प्रयोगसे जो भय प्राप्त होता है, उसको शान्त करनेका सबसे महान्‌ साधन पृथ्वीका दान ही है। भूमिदानरूप प्रायश्चित्त करके मनुष्य अपने आगे-पीछेकी दस पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनाति य इदं वेद वेदवादं तथैव च।
प्रकृतिः सर्वभूतानां भूमिर्वैश्वानरी मता ॥ ३८ ॥

मूलम्

पुनाति य इदं वेद वेदवादं तथैव च।
प्रकृतिः सर्वभूतानां भूमिर्वैश्वानरी मता ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वेदवाणीरूप इस भूमिगाथाको जानता है, वह भी अपनी दस पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है। यह पृथ्वी सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्तिस्थान है और अग्नि इसका अधिष्ठाता देवता है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिषिच्यैव नृपतिं श्रावयेदिममागमम् ।
यथा श्रुत्वा महीं दद्यान्नादद्यात्‌ साधुतश्च ताम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

अभिषिच्यैव नृपतिं श्रावयेदिममागमम् ।
यथा श्रुत्वा महीं दद्यान्नादद्यात्‌ साधुतश्च ताम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको राजसिंहासनपर अभिषिक्त करनेके बाद उसे तत्काल ही पृथ्वीकी गायी हुई यह गाथा सुना देनी चाहिये; जिससे वह भूमिका दान करे और सत्पुरुषोंके हाथसे उन्हें दी हुई भूमि छीन न ले॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽयं कृत्स्नो ब्राह्मणार्थो राजार्थश्चाप्यसंशयः।
राजा हि धर्मकुशलः प्रथमं भूतिलक्षणम् ॥ ४० ॥

मूलम्

सोऽयं कृत्स्नो ब्राह्मणार्थो राजार्थश्चाप्यसंशयः।
राजा हि धर्मकुशलः प्रथमं भूतिलक्षणम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सारी कथा ब्राह्मण और क्षत्रियके लिये है। इस विषयमें कोई संदेह नहीं है; क्योंकि राजा धर्ममें कुशल हो, यह प्रजाके ऐश्वर्य (वैभव)-को सूचित करनेवाला प्रथम लक्षण है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ येषामधर्मज्ञो राजा भवति नास्तिकः।
न ते सुखं प्रबुध्यन्ति न सुखं प्रस्वपन्ति च॥४१॥
सदा भवन्ति चोद्विग्नास्तस्य दुश्चरितैर्नराः।
योगक्षेमा हि बहवो राष्ट्रं नास्याविशन्ति तत् ॥ ४२ ॥

मूलम्

अथ येषामधर्मज्ञो राजा भवति नास्तिकः।
न ते सुखं प्रबुध्यन्ति न सुखं प्रस्वपन्ति च॥४१॥
सदा भवन्ति चोद्विग्नास्तस्य दुश्चरितैर्नराः।
योगक्षेमा हि बहवो राष्ट्रं नास्याविशन्ति तत् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका राजा धर्मको न जाननेवाला और नास्तिक होता है, वे लोग न तो सुखसे सोते हैं और न सुखसे जागते ही हैं; अपितु उस राजाके दुराचारसे सदैव उद्विग्न रहते है। ऐसे राजाके राज्यमें बहुधा योगक्षेम नहीं प्राप्त होते॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ येषां पुनः प्राज्ञो राजा भवति धार्मिकः।
सुखं ते प्रतिबुध्यन्ते सुसुखं प्रस्वपन्ति च ॥ ४३ ॥

मूलम्

अथ येषां पुनः प्राज्ञो राजा भवति धार्मिकः।
सुखं ते प्रतिबुध्यन्ते सुसुखं प्रस्वपन्ति च ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु जिनका राजा बुद्धिमान् और धार्मिक होता है, वे सुखसे सोते और सुखसे जागते हैं॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य राज्ञः शुभै राज्यैः कर्मभिर्निर्वृता नराः।
योगक्षेमेण वृष्ट्‌या च विवर्धन्ते स्वकर्मभिः ॥ ४४ ॥

मूलम्

तस्य राज्ञः शुभै राज्यैः कर्मभिर्निर्वृता नराः।
योगक्षेमेण वृष्ट्‌या च विवर्धन्ते स्वकर्मभिः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस राजाके शुभ राज्य और शुभ कर्मोंसे प्रजावर्गके लोग संतुष्ट रहते हैं। उस राज्यमें सबके योगक्षेमका निर्वाह होता है, समयपर वर्षा होती है और प्रजा अपने शुभ कर्मोंसे समृद्धिशालिनी होती है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कुलीनः स पुरुषः स बन्धुः स च पुण्यकृत्।
स दाता स च विक्रान्तो यो ददाति वसुन्धराम्॥४५॥

मूलम्

स कुलीनः स पुरुषः स बन्धुः स च पुण्यकृत्।
स दाता स च विक्रान्तो यो ददाति वसुन्धराम्॥४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पृथ्वीका दान करता है, वही कुलीन, वही पुरुष, वही बन्धु, वही पुण्यात्मा, वही दाता और वही पराक्रमी है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदित्या इव दीप्यन्ते तेजसा भुवि मानवाः।
ददन्ति वसुधां स्फीतां ये वेदविदुषि द्विजे ॥ ४६ ॥

मूलम्

आदित्या इव दीप्यन्ते तेजसा भुवि मानवाः।
ददन्ति वसुधां स्फीतां ये वेदविदुषि द्विजे ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वेदवेत्ता ब्राह्मणको धन-धान्यसे सम्पन्न भूमिदान करते हैं, वे मनुष्य इस पृथ्वीपर अपने तेजसे सूर्यके समान प्रकाशित होते हैं॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा सस्यानि रोहन्ति प्रकीर्णानि महीतले।
तथा कामाः प्ररोहन्ति भूमिदानसमार्जिताः ॥ ४७ ॥

मूलम्

यथा सस्यानि रोहन्ति प्रकीर्णानि महीतले।
तथा कामाः प्ररोहन्ति भूमिदानसमार्जिताः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे भूमिमें बोये हुए बीज खेतीके रूपमें अंकुरित होते और अधिक अन्न पैदा करते हैं, उसी प्रकार भूमिदान करनेसे सम्पूर्ण कामनाएँ सफल होती हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदित्यो वरुणो विष्णुर्ब्रह्मा सोमो हुताशनः।
शूलपाणिश्च भगवान् प्रतिनन्दन्ति भूमिदम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

आदित्यो वरुणो विष्णुर्ब्रह्मा सोमो हुताशनः।
शूलपाणिश्च भगवान् प्रतिनन्दन्ति भूमिदम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्य, वरुण, विष्णु, ब्रह्मा, चन्द्रमा, अग्नि और भगवान् शंकर—ये सभी भूमि-दान करनेवाले पुरुषका अभिनन्दन करते हैं॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमौ जायन्ति पुरुषा भूमौ निष्ठां व्रजन्ति च।
चतुर्विधो हि लोकोऽयं योऽयं भूमिगुणात्मकः ॥ ४९ ॥

मूलम्

भूमौ जायन्ति पुरुषा भूमौ निष्ठां व्रजन्ति च।
चतुर्विधो हि लोकोऽयं योऽयं भूमिगुणात्मकः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब लोग पृथ्वीपर ही जन्म लेते और पृथ्वीमें ही लीन हो जाते हैं। अण्डज, जरायुज, स्वेदज और उद्भिज्ज—इन चारों प्रकारके प्राणियोंका शरीर पृथ्वीका ही कार्य है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा माता पिता चैव जगतः पृथिवीपते।
नानया सदृशं भूतं किंचिदस्ति जनाधिप ॥ ५० ॥

मूलम्

एषा माता पिता चैव जगतः पृथिवीपते।
नानया सदृशं भूतं किंचिदस्ति जनाधिप ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! नरेश्वर! यह पृथ्वी ही जगत्‌की माता और पिता है। इसके समान दूसरा कोई भूत नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
बृहस्पतेश्च संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर ॥ ५१ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
बृहस्पतेश्च संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! इस विषयमें विज्ञ पुरुष इन्द्र और बृहस्पतिके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्ट्‌वा क्रतुशतेनाथ महता दक्षिणावता।
मघवा वाग्विदां श्रेष्ठं पप्रच्छेदं बृहस्पतिम् ॥ ५२ ॥

मूलम्

इष्ट्‌वा क्रतुशतेनाथ महता दक्षिणावता।
मघवा वाग्विदां श्रेष्ठं पप्रच्छेदं बृहस्पतिम् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने महान् दक्षिणाओंसे युक्त सौ यज्ञोंका अनुष्ठान करनेके पश्चात् वाग्वेत्ताओंमें श्रेष्ठ बृहस्पतिजीसे इस प्रकार पूछा॥५२॥

मूलम् (वचनम्)

मघवोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् केन दानेन स्वर्गतः सुखमेधते।
यदक्षयं महार्घं च तद् ब्रूहि वदतां वर ॥ ५३ ॥

मूलम्

भगवन् केन दानेन स्वर्गतः सुखमेधते।
यदक्षयं महार्घं च तद् ब्रूहि वदतां वर ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बोले— वक्ताओंमें श्रेष्ठ भगवन्! किस दानके प्रभावसे दाताको स्वर्गसे भी अधिक सुखकी प्राप्ति होती है? जिसका फल अक्षय और अधिक महत्त्वपूर्ण हो, उस दानको ही मुझे बताइये॥५३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स सुरेन्द्रेण ततो देवपुरोहिताः।
बृहस्पतिर्बृहत्तेजाः प्रत्युवाच शतक्रतुम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

इत्युक्तः स सुरेन्द्रेण ततो देवपुरोहिताः।
बृहस्पतिर्बृहत्तेजाः प्रत्युवाच शतक्रतुम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— भारत! देवराज इन्द्रके ऐसा कहनेपर देवताओंके पुरोहित महातेजस्वी बृहस्पतिने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया॥५४॥

मूलम् (वचनम्)

बृहस्पतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवर्णदानं गोदानं भूमिदानं च वृत्रहन्।
(विद्यादानं च कन्यानां दानं पापहरं परम्।)
दददेतान् महाप्राज्ञः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ५५ ॥

मूलम्

सुवर्णदानं गोदानं भूमिदानं च वृत्रहन्।
(विद्यादानं च कन्यानां दानं पापहरं परम्।)
दददेतान् महाप्राज्ञः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहस्पतिने कहा— वृत्रासुरका वध करनेवाले इन्द्र! सुवर्णदान, गोदान, भूमिदान, विद्यादान और कन्यादान—ये अत्यन्त पापहारी माने गये हैं। जो परम बुद्धिमान् पुरुष इन सब वस्तुओंका दान करता है वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भूमिदानाद् देवेन्द्र परं किंचिदिति प्रभो।
विशिष्टमिति मन्यामि यथा प्राहुर्मनीषिणः ॥ ५६ ॥

मूलम्

न भूमिदानाद् देवेन्द्र परं किंचिदिति प्रभो।
विशिष्टमिति मन्यामि यथा प्राहुर्मनीषिणः ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! देवेन्द्र! जैसा कि मनीषी पुरुष कहते हैं, मैं भूमिदानसे बढ़कर दूसरे किसी दानको नहीं मानता हूँ॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा राष्ट्रघातेऽथ स्वामिनः।
कुलस्त्रीणां परिभवे मृतास्ते भूमिदैः समाः॥)

मूलम्

(ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा राष्ट्रघातेऽथ स्वामिनः।
कुलस्त्रीणां परिभवे मृतास्ते भूमिदैः समाः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

जो ब्राह्मणोंके लिये, गौओंके लिये, राष्ट्रके विनाशके अवसरपर स्वामीके लिये तथा जहाँ कुलांगनाओंका अपमान होता हो, वहाँ उन सबकी रक्षाके लिये युद्धमें प्राण त्याग करते हैं, वे ही भूमिदान करनेवालोंके समान पुण्यके भागी होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये शूरा निहता युद्धे स्वर्याता रणगृद्धिनः।
सर्वे ते विबुधश्रेष्ठ नातिक्रामन्ति भूमिदम् ॥ ५७ ॥

मूलम्

ये शूरा निहता युद्धे स्वर्याता रणगृद्धिनः।
सर्वे ते विबुधश्रेष्ठ नातिक्रामन्ति भूमिदम् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विबुधश्रेष्ठ! मनमें युद्धके लिये उत्साह रखनेवाले जो शूरवीर रणभूमिमें मारे जाकर स्वर्गलोकमें जाते हैं, वे सब-के-सब भूमिदाताका उल्लंघन नहीं कर सकते॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भर्तुर्निःश्रेयसे युक्तास्त्यक्तात्मानो रणे हताः।
ब्रह्मलोकगता मुक्ता नातिक्रामन्ति भूमिदम् ॥ ५८ ॥

मूलम्

भर्तुर्निःश्रेयसे युक्तास्त्यक्तात्मानो रणे हताः।
ब्रह्मलोकगता मुक्ता नातिक्रामन्ति भूमिदम् ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वामीकी भलाईके लिये उद्यत हो रणभूमिमें मारे जाकर अपने शरीरका परित्याग करनेवाले पुरुष पापोंसे मुक्त हो ब्रह्मलोकमें पहुँच जाते हैं; परंतु वे भी भूमिदातासे आगे नही बढ़ पाते हैं॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्च पूर्वा हि पुरुषाः षडन्ये वसुधां गताः।
एकादश ददद्‌भूमिं परित्रातीह मानवः ॥ ५९ ॥

मूलम्

पञ्च पूर्वा हि पुरुषाः षडन्ये वसुधां गताः।
एकादश ददद्‌भूमिं परित्रातीह मानवः ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस जगत्‌में भूमिदान करनेवाला मनुष्य अपनी पाँच पीढ़ीतकके पूर्वजोंका और अन्य छः पीड़ियोंतक पृथ्वीपर आनेवाली संतानोंका—इस प्रकार कुल ग्यारह पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रत्नोपकीर्णां वसुधां यो ददाति पुरंदर।
स मुक्तः सर्वकलुषैः स्वर्गलोके महीयते ॥ ६० ॥

मूलम्

रत्नोपकीर्णां वसुधां यो ददाति पुरंदर।
स मुक्तः सर्वकलुषैः स्वर्गलोके महीयते ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरंदर! जो रत्नयुक्त पृथ्वीका दान करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महीं स्फीतां ददद् राजन्‌ सर्वकामगुणान्विताम्।
राजाधिराजो भवति तद्धि दानमनुत्तमम् ॥ ६१ ॥

मूलम्

महीं स्फीतां ददद् राजन्‌ सर्वकामगुणान्विताम्।
राजाधिराजो भवति तद्धि दानमनुत्तमम् ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! धन-धान्यसे सम्पन्न तथा समस्त मनोवांछित गुणोंसे युक्त पृथ्वीका दान करनेवाला पुरुष दूसरे जन्ममें राजाधिराज होता है; क्योंकि वह सर्वोत्तम दान है॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वकामसमायुक्तां काश्यपीं यः प्रयच्छति।
सर्वभूतानि मन्यन्ते मां ददातीति वासव ॥ ६२ ॥

मूलम्

सर्वकामसमायुक्तां काश्यपीं यः प्रयच्छति।
सर्वभूतानि मन्यन्ते मां ददातीति वासव ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! जो सम्पूर्ण भोगोंसे युक्त पृथ्वीका दान करता है, उसे सब प्राणी यही समझते हैं कि यह मेरा दान कर रहा है॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वकामदुघां धेनुं सर्वकामगुणान्विताम् ।
ददाति यः सहस्राक्ष स्वर्गं याति स मानवः ॥ ६३ ॥

मूलम्

सर्वकामदुघां धेनुं सर्वकामगुणान्विताम् ।
ददाति यः सहस्राक्ष स्वर्गं याति स मानवः ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहस्राक्ष! जो सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली और समस्त मनोवांछित गुणोंसे सम्पन्न कामधेनु-स्वरूपा पृथ्वीका दान करता है, वह मानव स्वर्गलोकमें जाता है॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मधुसर्पिःप्रवाहिण्यः पयोदधिवहास्तथा ।
सरितस्तर्पयन्तीह सुरेन्द्र वसुधाप्रदम् ॥ ६४ ॥

मूलम्

मधुसर्पिःप्रवाहिण्यः पयोदधिवहास्तथा ।
सरितस्तर्पयन्तीह सुरेन्द्र वसुधाप्रदम् ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवेन्द्र! यहाँ पृथ्वीदान करनेवाले पुरुषको परलोकमें मधु, घी, दूध और दहीकी धारा बहानेवाली नदियाँ तृप्त करती हैं॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमिप्रदानान्नृपतिर्मुच्यते सर्वकिल्बिषात् ।
न हि भूमिप्रदानेन दानमन्यद् विशिष्यते ॥ ६५ ॥

मूलम्

भूमिप्रदानान्नृपतिर्मुच्यते सर्वकिल्बिषात् ।
न हि भूमिप्रदानेन दानमन्यद् विशिष्यते ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा भूमिदान करनेसे समस्त पापोंसे छुटकारा पा जाता है। भूमिदानसे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददाति यः समुद्रान्तां पृथिवीं शस्त्रनिर्जिताम्।
तं जनाः कथयन्तीह यावद् भवति गौरियम् ॥ ६६ ॥

मूलम्

ददाति यः समुद्रान्तां पृथिवीं शस्त्रनिर्जिताम्।
तं जनाः कथयन्तीह यावद् भवति गौरियम् ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो समुद्रपर्यना पृथ्वीको शस्त्रोंसे जीतकर दान देता है, उसकी कीर्ति संसारके लोग तबतक गाया करते हैं, जबतक यह पृथ्वी कायम रहती है॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्यामृद्धिरसां भूमिं यो ददाति पुरंदर।
न तस्य लोकाः क्षीयन्ते भूमिदानगुणान्विताः ॥ ६७ ॥

मूलम्

पुण्यामृद्धिरसां भूमिं यो ददाति पुरंदर।
न तस्य लोकाः क्षीयन्ते भूमिदानगुणान्विताः ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरंदर! जो परम पवित्र और समृद्धिरूपी रससे भरी हुई पृथ्वीका दान करता है, उसे उस भूदानसम्बन्धी गुणोंसे युक्त अक्षय लोक प्राप्त होते हैं॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वदा पार्थिवेनेह सततं भूतिमिच्छता।
भूर्देया विधिवच्छक्र पाये सुखमभीप्सुना ॥ ६८ ॥

मूलम्

सर्वदा पार्थिवेनेह सततं भूतिमिच्छता।
भूर्देया विधिवच्छक्र पाये सुखमभीप्सुना ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! जो राजा सदा ऐश्वर्य चाहता हो और सुख पानेकी इच्छा रखता हो, वह विधिपूर्वक सुपात्रको भूमिदान दे॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि कृत्वा नरः पापं भूमिं दत्त्वा द्विजातये।
समुत्सृजति तत् पापं जीर्णां त्वचमिवोरगः ॥ ६९ ॥

मूलम्

अपि कृत्वा नरः पापं भूमिं दत्त्वा द्विजातये।
समुत्सृजति तत् पापं जीर्णां त्वचमिवोरगः ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाप करके भी यदि मनुष्य ब्राह्मणको भूमिदान कर देता है तो वह उस पापको उसी प्रकार त्याग देता है, जैसे सर्प पुरानी केंचुलको॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सागरान् सरितः शैलान् काननानि च सर्वशः।
सर्वमेतन्नरः शक्र ददाति वसुधां ददत् ॥ ७० ॥

मूलम्

सागरान् सरितः शैलान् काननानि च सर्वशः।
सर्वमेतन्नरः शक्र ददाति वसुधां ददत् ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! मनुष्य पृथ्वीका दान करनेके साथ ही समुद्र, नदी, पर्वत और सम्पूर्ण वन—इन सबका दान कर देता है (अर्थात् इन सबके दानका फल प्राप्त कर लेता है)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तडागान्युदपानानि स्रोतांसि च सरांसि च।
स्नेहान् सर्वरसांश्चैव ददाति वसुधां ददत् ॥ ७१ ॥

मूलम्

तडागान्युदपानानि स्रोतांसि च सरांसि च।
स्नेहान् सर्वरसांश्चैव ददाति वसुधां ददत् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, पृथ्वीका दान करनेवाला पुरुष तालाब, कुआँ, झरना, सरोवर, स्नेह (घृत आदि) और सब प्रकारके रसोंके दानका भी फल प्राप्त कर लेता है॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओषधीर्वीर्यसम्पन्ना नगान् पुष्पफलान्वितान् ।
काननोपलशैलांश्च ददाति वसुधां ददत् ॥ ७२ ॥

मूलम्

ओषधीर्वीर्यसम्पन्ना नगान् पुष्पफलान्वितान् ।
काननोपलशैलांश्च ददाति वसुधां ददत् ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीका दान करते समय मनुष्य शक्तिशाली ओषधियों, फल और फूलोंसे भरे हुए वृक्षों, वन, प्रस्तर और पर्वतोंका भी दान कर देता है॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निष्टोमप्रभृतिभिरिष्ट्‌वा च स्वाप्तदक्षिणैः ।
न तत्फलमवाप्नोति भूमिदानाद् यदश्नुते ॥ ७३ ॥

मूलम्

अग्निष्टोमप्रभृतिभिरिष्ट्‌वा च स्वाप्तदक्षिणैः ।
न तत्फलमवाप्नोति भूमिदानाद् यदश्नुते ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-सी दक्षिणाओंसे युक्त अग्निष्टोम आदि यज्ञोंद्वारा यजन करके भी मनुष्य उस फलको नहीं पाता, जो उसे भूमिदानसे मिल जाता है॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दाता दशानुगृह्णाति दश हन्ति तथा क्षिपन्।
पूर्वदत्तां हरन् भूमिं नरकायोपगच्छति ॥ ७४ ॥
न ददाति प्रतिश्रुत्य दत्त्वापि च हरेत् तु यः।
स बद्धो वारुणौः पाशैस्तप्यते मृत्युशासनात् ॥ ७५ ॥

मूलम्

दाता दशानुगृह्णाति दश हन्ति तथा क्षिपन्।
पूर्वदत्तां हरन् भूमिं नरकायोपगच्छति ॥ ७४ ॥
न ददाति प्रतिश्रुत्य दत्त्वापि च हरेत् तु यः।
स बद्धो वारुणौः पाशैस्तप्यते मृत्युशासनात् ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूमिका दान करनेवाला मनुष्य अपनी दस पीढ़ियोंका उद्धार करता है तथा देकर छीन लेनेवाला अपनी दस पीढ़ियोंको नरकमें ढकेलता है। जो पहलेकी दी हुई भूमिका अपहरण करता है वह स्वयं भी नरकमें जाता है। जो देनेकी प्रतिज्ञा करके नहीं देता है तथा जो देकर भी फिर ले लेता है वह मृत्युकी आज्ञासे वरुणके पाशमें बँधकर तरह-तरहके कष्ट भोगता है॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहिताग्निं सदायज्ञं कृशवृत्तिं प्रियातिथिम्।
ये भजन्ति द्विजश्रेष्ठं नोपसर्पन्ति ते यमम् ॥ ७६ ॥

मूलम्

आहिताग्निं सदायज्ञं कृशवृत्तिं प्रियातिथिम्।
ये भजन्ति द्विजश्रेष्ठं नोपसर्पन्ति ते यमम् ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्रतिदिन अग्निहोत्र करता है, सदा यज्ञके अनुष्ठानमें लगा रहता और अतिथियोंको प्रिय मानता है तथा जिसकी जीविका-वृत्ति नष्ट हो गयी है, ऐसे श्रेष्ठ द्विजकी जो सेवा करते हैं वे यमराजके पास नहीं जाते॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणेष्वनृणीभूतः पार्थिवः स्यात् पुरंदर।
इतरेषां तु वर्णानां तारयेत् कृशदुर्बलान् ॥ ७७ ॥

मूलम्

ब्राह्मणेष्वनृणीभूतः पार्थिवः स्यात् पुरंदर।
इतरेषां तु वर्णानां तारयेत् कृशदुर्बलान् ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरंदर! राजाको चाहिये कि वह ब्राह्मणोंके प्रति उऋण रहे अर्थात् उनकी सेवा करके उन्हें संतुष्ट रखे तथा अन्य वर्णोंमें भी जो लोग दीन-दुर्बल हों; उनका संकटसे उद्धार करे॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाच्छिन्द्यात् स्पर्शितां भूमिं परेण त्रिदशाधिप।
ब्राह्मणस्य सुरश्रेष्ठ कृशवृत्तेः कदाचन ॥ ७८ ॥

मूलम्

नाच्छिन्द्यात् स्पर्शितां भूमिं परेण त्रिदशाधिप।
ब्राह्मणस्य सुरश्रेष्ठ कृशवृत्तेः कदाचन ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुरश्रेष्ठ! देवेश्वर! जिसकी जीविका-वृत्ति नष्ट हो गयी है, ऐसे ब्राह्मणको दूसरेके द्वारा दानमें मिली हुई जो भूमि है, उसको कभी नहीं छीनना चाहिये॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाश्रु पतितं तेषां दीनानामथ सीदताम्।
ब्राह्मणानां हृते क्षेत्रे हन्यात् त्रिपुरुषं कुलम् ॥ ७९ ॥

मूलम्

यथाश्रु पतितं तेषां दीनानामथ सीदताम्।
ब्राह्मणानां हृते क्षेत्रे हन्यात् त्रिपुरुषं कुलम् ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपना खेत छिन जानेसे दुःखी हुए दीन ब्राह्मण जो आँसू बहाते हैं, वह छीननेवालेकी तीन पीढ़ियोंका नाश कर देता है॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमिपालं च्युतं राष्ट्राद् यस्तु संस्थापयेन्नरः।
तस्य वासः सहस्राक्ष नाकपृष्ठे महीयते ॥ ८० ॥

मूलम्

भूमिपालं च्युतं राष्ट्राद् यस्तु संस्थापयेन्नरः।
तस्य वासः सहस्राक्ष नाकपृष्ठे महीयते ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! जो मनुष्य राज्यसे भ्रष्ट हुए राजाको फिर राजसिंहासनपर बैठा देता है, उसका स्वर्गलोकमें निवास होता है तथा वह वहाँ बड़ा सम्मान पाता है॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इक्षुभिः संततां भूमिं यवगोधूमशालिनीम्।
गोऽश्ववाहनपूर्णां वा बाहुवीर्यादुपार्जिताम् ॥ ८१ ॥
निधिगर्भां ददद् भूमिं सर्वरत्नपरिच्छदाम्।
अक्षयाल्ँलभते लोकान् भूमिंसत्र हि तस्य तत् ॥ ८२ ॥

मूलम्

इक्षुभिः संततां भूमिं यवगोधूमशालिनीम्।
गोऽश्ववाहनपूर्णां वा बाहुवीर्यादुपार्जिताम् ॥ ८१ ॥
निधिगर्भां ददद् भूमिं सर्वरत्नपरिच्छदाम्।
अक्षयाल्ँलभते लोकान् भूमिंसत्र हि तस्य तत् ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो भूमि गन्नेके वृक्षोंसे आच्छादित हो, जिसपर जौ और गेहूँकी खेती लहलहा रही हो अथवा जहाँ बैल और घोड़े आदि वाहन भरे हों, जिसके नीचे खजाना गड़ा हो तथा जो सब प्रकारके रत्नमय उपकरणोंसे अलंकृत हो, ऐसी भूमिको अपने बाहुबलसे जीतकर जो राजा दान कर देता है, उसे अक्षय लोक प्राप्त होते हैं। उसका वह दान भूमियज्ञ कहलाता है॥८१-८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधूय कलुषं सर्वं विरजाः सम्मतः सताम्।
लोके महीयते सद्भिर्यो ददाति वसुन्धराम् ॥ ८३ ॥

मूलम्

विधूय कलुषं सर्वं विरजाः सम्मतः सताम्।
लोके महीयते सद्भिर्यो ददाति वसुन्धराम् ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वसुधाका दान करता है, वह अपने सब पापोंका नाश करके निर्मल एवं सत्पुरुषोंके आदरका पात्र हो जाता है तथा लोकमें सज्जन पुरुष सदा ही उसका सत्कार करते हैं॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाप्सु पतितः शक्र तैलबिन्दुर्विसर्पति।
तथा भूमिकृतं दानं सस्ये सस्ये विवर्धते ॥ ८४ ॥

मूलम्

यथाप्सु पतितः शक्र तैलबिन्दुर्विसर्पति।
तथा भूमिकृतं दानं सस्ये सस्ये विवर्धते ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र! जैसे जलमें गिरी हुई तेलकी एक बूँद सब ओर फैल जाती है; उसी प्रकार दान की हुई भूमिमें जितना-जितना अन्न पैदा होता है, उतना-ही-उतना उसके दानका महत्त्व बढ़ता जाता है॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये रणाग्रे महीपालाः शूराः समितिशोभनाः।
वध्यन्तेऽभिमुखाः शक्र ब्रह्मलोकं व्रजन्ति ते ॥ ८५ ॥

मूलम्

ये रणाग्रे महीपालाः शूराः समितिशोभनाः।
वध्यन्तेऽभिमुखाः शक्र ब्रह्मलोकं व्रजन्ति ते ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज! युद्धमें शोभा पानेवाले जो शूरवीर भूपाल युद्धके मुहानेपर शत्रुके सम्मुख लड़ते हुए मारे जाते हैं, वे ब्रह्मलोकमें जाते हैं॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृत्यगीतपरा नार्यो दिव्यमाल्यविभूषिताः ।
उपतिष्ठन्ति देवेन्द्र तथा भूमिप्रदं दिवि ॥ ८६ ॥

मूलम्

नृत्यगीतपरा नार्यो दिव्यमाल्यविभूषिताः ।
उपतिष्ठन्ति देवेन्द्र तथा भूमिप्रदं दिवि ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवेन्द्र! दिव्य मालाओंसे विभूषित हो नाच और गानमें लगी हुई देवांगनाएँ स्वर्गमें भूमिदाताकी सेवामें उपस्थित होती हैं॥८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोदते च सुखं स्वर्गे देवगन्धर्वपूजितः।
यो ददाति महीं सम्यग् विधिनेह द्विजातये ॥ ८७ ॥

मूलम्

मोदते च सुखं स्वर्गे देवगन्धर्वपूजितः।
यो ददाति महीं सम्यग् विधिनेह द्विजातये ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो यहाँ उत्तम विधिसे ब्राह्मणको भूमिका दान करता है, वह स्वर्गमें देवताओं और गन्धर्वोंसे पूजित हो सुख और आनन्द भोगता है॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतमप्सरसश्चैव दिव्यमाल्यविभूषिताः ।
उपतिष्ठन्ति देवेन्द्र ब्रह्मलोके धराप्रदम् ॥ ८८ ॥

मूलम्

शतमप्सरसश्चैव दिव्यमाल्यविभूषिताः ।
उपतिष्ठन्ति देवेन्द्र ब्रह्मलोके धराप्रदम् ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज! भूदान करनेवाले पुरुषकी सेवामें ब्रह्मलोकमें दिव्य मालाओंसे विभूषित सैकड़ों अप्सराएँ उपस्थित होती हैं॥८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपतिष्ठन्ति पुण्यानि सदा भूमिप्रदं नरम्।
शङ्‌खभद्रासनं छत्रं वराश्वा वरवाहनम् ॥ ८९ ॥

मूलम्

उपतिष्ठन्ति पुण्यानि सदा भूमिप्रदं नरम्।
शङ्‌खभद्रासनं छत्रं वराश्वा वरवाहनम् ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूमिदान करनेवाले मनुष्यके यहाँ सदा पुण्यके फलस्वरूप शंख, सिंहासन, छत्र, उत्तम घोड़े और श्रेष्ठ वाहन उपस्थित होते हैं॥८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमिप्रदानात् पुष्पाणि हिरण्यनिचयास्तथा ।
आज्ञा सदाप्रतिहता जयशब्दा वसूनि च ॥ ९० ॥

मूलम्

भूमिप्रदानात् पुष्पाणि हिरण्यनिचयास्तथा ।
आज्ञा सदाप्रतिहता जयशब्दा वसूनि च ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूमिदान करनेसे पुरुषको सुन्दर पुष्प, सोनेके भण्डार, कभी प्रतिहत न होनेवाली आज्ञा, जयसूचक शब्द तथा भाँति-भाँतिके धन-रत्न प्राप्त होते हैं॥९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमिदानस्य पुण्यानि फलं स्वर्गः पुरंदर।
हिरण्यपुष्पाश्चौषध्यः कुशकाञ्चनशाद्वलाः ॥ ९१ ॥

मूलम्

भूमिदानस्य पुण्यानि फलं स्वर्गः पुरंदर।
हिरण्यपुष्पाश्चौषध्यः कुशकाञ्चनशाद्वलाः ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरंदर! भूमिदानके जो पुण्य हैं, उनके फलरूपमें स्वर्ग, सुवर्णमय फूल देनेवाली ओषधियाँ तथा सुनहरे कुश और घाससे ढकी हुई भूमि प्राप्त होती हैं॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमृतप्रसवां भूमिं प्राप्नोति पुरुषो ददत्।
नास्ति भूमिसमं दानं नास्ति मातृसमो गुरुः।
नास्ति सत्यसमो धर्मो नास्ति दानसमो निधिः ॥ ९२ ॥

मूलम्

अमृतप्रसवां भूमिं प्राप्नोति पुरुषो ददत्।
नास्ति भूमिसमं दानं नास्ति मातृसमो गुरुः।
नास्ति सत्यसमो धर्मो नास्ति दानसमो निधिः ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूमिदान करनेवाला पुरुष अमृत पैदा करनेवाली भूमि पाता है, भूमिके समान कोई दान नहीं है, माताके समान कोई गुरु नहीं है, सत्यके समान कोई धर्म नहीं है और दानके समान कोई निधि नहीं है॥९२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदांगिरसाच्छ्रुत्वा वासवो वसुधामिमाम् ।
वसुरत्नसमाकीर्णां ददावांगिरसे तदा ॥ ९३ ॥

मूलम्

एतदांगिरसाच्छ्रुत्वा वासवो वसुधामिमाम् ।
वसुरत्नसमाकीर्णां ददावांगिरसे तदा ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! बृहस्पतिजीके मुँहसे भूमिदानका यह माहात्म्य सुनकर इन्द्रने धन और रत्नोंसे भरी हुई यह पृथ्वी उन्हें दान कर दी॥९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य इदं श्रावयेच्छ्राद्धे भूमिदानस्य सम्भवम्।
न तस्य रक्षसां भागो नासुराणां भवत्युत ॥ ९४ ॥

मूलम्

य इदं श्रावयेच्छ्राद्धे भूमिदानस्य सम्भवम्।
न तस्य रक्षसां भागो नासुराणां भवत्युत ॥ ९४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष श्राद्धके समय पृथ्वीदानके इस माहात्म्यको सुनता है, उसके श्राद्धकर्ममें अर्पण किये हुए भाग राक्षस और असुर नहीं लेने पाते॥९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षयं च भवेद् दत्तं पितृभ्यस्तन्न संशयः।
तस्माच्छ्राद्धेष्विदं विद्वान् भुञ्जतः श्रावयेद् द्विजान् ॥ १५ ॥

मूलम्

अक्षयं च भवेद् दत्तं पितृभ्यस्तन्न संशयः।
तस्माच्छ्राद्धेष्विदं विद्वान् भुञ्जतः श्रावयेद् द्विजान् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितरोंके निमित्त उसका दिया हुआ सारा दान अक्षय होता है, इसमें संशय नहीं है; इसलिये विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह श्राद्धमें भोजन करते हुए ब्राह्मणोंको यह भूमिदानका माहात्म्य अवश्य सुनाये॥९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतत् सर्वदानानां श्रेष्ठमुक्तं तवानघ।
मया भरतशार्दूल किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ९६ ॥

मूलम्

इत्येतत् सर्वदानानां श्रेष्ठमुक्तं तवानघ।
मया भरतशार्दूल किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ९६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार मैंने सब दानोंमें श्रेष्ठ पृथ्वीदानका माहात्म्य तुम्हें बताया है, अब और क्या सुनना चाहते हो?॥९६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि इन्द्रबृहस्पतिसंवादे द्विषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें इन्द्र और बृहस्पतिका संवादविषयक बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६२॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ९८ श्लोक हैं)