भागसूचना
एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजा नहुषका एक गौके मोलपर च्यवन मुनिको खरीदना, मुनिके द्वारा गौओंका माहात्म्य-कथन तथा मत्स्यों और मल्लाहोंकी सद्गति
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहुषस्तु ततः श्रुत्वा च्यवनं तं तथागतम्।
त्वरितः प्रययौ तत्र सहामात्यपुरोहितः ॥ १ ॥
मूलम्
नहुषस्तु ततः श्रुत्वा च्यवनं तं तथागतम्।
त्वरितः प्रययौ तत्र सहामात्यपुरोहितः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— भरतनन्दन! च्यवनमुनिको ऐसी अवस्थामें अपने नगरके निकट आया जान राजा नहुष अपने पुरोहित और मन्त्रियोंको साथ ले शीघ्र वहाँ आ पहुँचे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शौचं कृत्वा यथान्यायं प्राञ्जलिः प्रयतो नृपः।
आत्मानमाचचक्षे च च्यवनाय महात्मने ॥ २ ॥
मूलम्
शौचं कृत्वा यथान्यायं प्राञ्जलिः प्रयतो नृपः।
आत्मानमाचचक्षे च च्यवनाय महात्मने ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने पवित्रभावसे हाथ जोड़कर मनको एकाग्र रखते हुए न्यायोचित रीतिसे महात्मा च्यवनको अपना परिचय दिया॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्चयामास तं चापि तस्य राज्ञः पुरोहितः।
सत्यव्रतं महात्मानं देवकल्पं विशाम्पते ॥ ३ ॥
मूलम्
अर्चयामास तं चापि तस्य राज्ञः पुरोहितः।
सत्यव्रतं महात्मानं देवकल्पं विशाम्पते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! राजाके पुरोहितने देवताओंके समान तेजस्वी सत्यव्रती महात्मा च्यवनमुनिका विधिपूर्वक पूजन किया॥३॥
मूलम् (वचनम्)
नहुष उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
करवाणि प्रियं किं ते तन्मे ब्रूहि द्विजोत्तम।
सर्वं कर्तास्मि भगवन् यद्यपि स्यात् सुदुष्करम् ॥ ४ ॥
मूलम्
करवाणि प्रियं किं ते तन्मे ब्रूहि द्विजोत्तम।
सर्वं कर्तास्मि भगवन् यद्यपि स्यात् सुदुष्करम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् राजा नहुष बोले— द्विजश्रेष्ठ! बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? भगवन्! आपकी आज्ञासे कितना ही कठिन कार्य क्यों न हो, मैं सब पूरा करूँगा॥
मूलम् (वचनम्)
च्यवन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रमेण महता युक्ताः कैवर्ता मत्स्यजीविनः।
मम मूल्यं प्रयच्छैभ्यो मत्स्यानां विक्रयैः सह ॥ ५ ॥
मूलम्
श्रमेण महता युक्ताः कैवर्ता मत्स्यजीविनः।
मम मूल्यं प्रयच्छैभ्यो मत्स्यानां विक्रयैः सह ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
च्यवनने कहा— राजन्! मछलियोंसे जीविका चलानेवाले इन मल्लाहोंने आज बड़े परिश्रमसे मुझे अपने जालमें फँसाकर निकाला है; अतः आप इन्हें इन मछलियोंके साथ-साथ मेरा भी मूल्य चुका दीजिये॥५॥
मूलम् (वचनम्)
नहुष उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्रं दीयतां मूल्यं निषादेभ्यः पुरोहित।
निष्क्रयार्थे भगवतो यथाऽऽह भृगुनन्दनः ॥ ६ ॥
मूलम्
सहस्रं दीयतां मूल्यं निषादेभ्यः पुरोहित।
निष्क्रयार्थे भगवतो यथाऽऽह भृगुनन्दनः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब नहुषने अपने पुरोहितसे कहा— पुरोहितजी! भृगुनन्दन च्यवनजी जैसी आज्ञा दे रहे हैं, उसके अनुसार इन पूज्यपाद महर्षिके मूल्यके रूपमें मल्लाहोंको एक हजार अशर्फियाँ दे दीजिये॥६॥
मूलम् (वचनम्)
च्यवन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्रं नाहमर्हामि किं वा त्वं मन्यसे नृप।
सदृशं दीयतां मूल्यं स्वबुद्ध्या निश्चयं कुरु ॥ ७ ॥
मूलम्
सहस्रं नाहमर्हामि किं वा त्वं मन्यसे नृप।
सदृशं दीयतां मूल्यं स्वबुद्ध्या निश्चयं कुरु ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
च्यवनने कहा— नरेश्वर! मैं एक हजार मुद्राओंपर बेचने योग्य नहीं हूँ। क्या आप मेरा इतना ही मूल्य समझते हैं, मेरे योग्य मूल्य दीजिये और वह मूल्य कितना होना चाहिये—यह अपनी ही बुद्धिसे विचार करके निश्चित कीजिये॥७॥
मूलम् (वचनम्)
नहुष उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्राणां शतं विप्र निषादेभ्यः प्रदीयताम्।
स्यादिदं भगवन् मूल्यं किं वान्यन्मन्यते भवान् ॥ ८ ॥
मूलम्
सहस्राणां शतं विप्र निषादेभ्यः प्रदीयताम्।
स्यादिदं भगवन् मूल्यं किं वान्यन्मन्यते भवान् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नहुष बोले— विप्रवर! इन निषादोंको एक लाख मुद्रा दीजिये। (यों पुरोहितको आज्ञा देकर वे मुनिसे बोले—) भगवन्! क्या यह आपका उचित मूल्य हो सकता है या अभी आप कुछ और देना चाहते हैं?॥
मूलम् (वचनम्)
च्यवन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं शतसहस्रेण निमेयः पार्थिवर्षभ।
दीयतां सदृशं मूल्यममात्यैः सह चिन्तय ॥ ९ ॥
मूलम्
नाहं शतसहस्रेण निमेयः पार्थिवर्षभ।
दीयतां सदृशं मूल्यममात्यैः सह चिन्तय ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
च्यवनने कहा— नृपश्रेष्ठ! मुझे एक लाख रुपयेके मूल्यमें ही सीमित न कीजिये। उचित मूल्य चुकाइये। इस विषयमें अपने मन्त्रियोंके साथ विचार कीजिये॥९॥
मूलम् (वचनम्)
नहुष उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटिः प्रदीयतां मूल्यं निषादेभ्यः पुरोहित।
यदेतदपि नो मूल्यमतो भूयः प्रदीयताम् ॥ १० ॥
मूलम्
कोटिः प्रदीयतां मूल्यं निषादेभ्यः पुरोहित।
यदेतदपि नो मूल्यमतो भूयः प्रदीयताम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नहुषने कहा— पुरोहितजी! आप इन निषादोंको एक करोड़ मुद्रा मूल्यके रूपमें दीजिये और यदि यह भी ठीक मूल्य न हो तो और अधिक दीजिये॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
च्यवन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन् नार्हाम्यहं कोटिं भूयो वापि महाद्युते।
सदृशं दीयतां मूल्यं ब्राह्मणैः सह चिन्तय ॥ ११ ॥
मूलम्
राजन् नार्हाम्यहं कोटिं भूयो वापि महाद्युते।
सदृशं दीयतां मूल्यं ब्राह्मणैः सह चिन्तय ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
च्यवनने कहा— महातेजस्वी नरेश। मैं एक करोड़ या उससे भी अधिक मुद्राओंमें बेचने योग्य नहीं हूँ। जो मेरे लिये उचित हो वही मूल्य दीजिये और इस विषयमें ब्राह्मणोंके साथ विचार कीजिये॥११॥
मूलम् (वचनम्)
नहुष उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्धं राज्यं समग्रं वा निषादेभ्यः प्रदीयताम्।
एतन्मूल्यमहं मन्ये किं वान्यन्मन्यसे द्विज ॥ १२ ॥
मूलम्
अर्धं राज्यं समग्रं वा निषादेभ्यः प्रदीयताम्।
एतन्मूल्यमहं मन्ये किं वान्यन्मन्यसे द्विज ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नहुष बोले— ब्रह्मन्! यदि ऐसी बात है तो इन मल्लाहोंको मेरा आधा या सारा राज्य दे दिया जाय। इसे ही मैं आपके लिये उचित मूल्य मानता हूँ। आप इसके अतिरिक्त और क्या चाहते हैं?॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
च्यवन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्धं राज्यं समग्रं च मूल्यं नार्हामि पार्थिव।
सदृशं दीयतां मूल्यमृषिभिः सह चिन्त्यताम् ॥ १३ ॥
मूलम्
अर्धं राज्यं समग्रं च मूल्यं नार्हामि पार्थिव।
सदृशं दीयतां मूल्यमृषिभिः सह चिन्त्यताम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
च्यवनने कहा— पृथ्वीनाथ! आपका आधा या सारा राज्य भी मेरा उचित मूल्य नहीं है। आप उचित मूल्य दीजिये और वह मूल्य आपके ध्यानमें न आता हो तो ऋषियोंके साथ विचार कीजिये॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
महर्षेर्वचनं श्रुत्वा नहुषो दुःखकर्शितः।
स चिन्तयामास तदा सहामात्यपुरोहितः ॥ १४ ॥
मूलम्
महर्षेर्वचनं श्रुत्वा नहुषो दुःखकर्शितः।
स चिन्तयामास तदा सहामात्यपुरोहितः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! महर्षिका यह वचन सुनकर राजा नहुष दुःखसे कातर हो उठे और मन्त्री तथा पुरोहितके साथ इस विषयमें विचार करने लगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र त्वन्यो वनचरः कश्चिन्मूलफलाशनः।
नहुषस्य समीपस्थो गविजातोऽभवन्मुनिः ॥ १५ ॥
स तमाभाष्य राजानमब्रवीद् द्विजसत्तमः।
मूलम्
तत्र त्वन्यो वनचरः कश्चिन्मूलफलाशनः।
नहुषस्य समीपस्थो गविजातोऽभवन्मुनिः ॥ १५ ॥
स तमाभाष्य राजानमब्रवीद् द्विजसत्तमः।
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेहीमें फल-मूलका भोजन करनेवाले एक दूसरे वनवासी मुनि, जिनका जन्म गायके पेटसे हुआ था, राजा नहुषके समीप आये और वे द्विजश्रेष्ठ उन्हें सम्बोधित करके कहने लगे—॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तोषयिष्याम्यहं क्षिप्रं यथा तुष्टो भविष्यति ॥ १६ ॥
नाहं मिथ्यावचो ब्रूयां स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा।
भवतो यदहं ब्रूयां तत्कार्यमविशंकया ॥ १७ ॥
मूलम्
तोषयिष्याम्यहं क्षिप्रं यथा तुष्टो भविष्यति ॥ १६ ॥
नाहं मिथ्यावचो ब्रूयां स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा।
भवतो यदहं ब्रूयां तत्कार्यमविशंकया ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! ये मुनि कैसे संतुष्ट होंगे—इस बातको मैं जानता हूँ। मैं इन्हें शीघ्र संतुष्ट कर दूँगा। मैंने कभी हँसी-परिहासमें भी झूठ नहीं कहा है; फिर ऐसे समयमें असत्य कैसे बोल सकता हूँ? मैं आपसे जो कहूँ, वह आपको निःशंक होकर करना चाहिये’॥१६-१७॥
मूलम् (वचनम्)
नहुष उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रवीतु भगवान् मूल्यं महर्षेः सदृशं भृगोः।
परित्रायस्व मामस्मद्विषयं च कुलं च मे ॥ १८ ॥
मूलम्
ब्रवीतु भगवान् मूल्यं महर्षेः सदृशं भृगोः।
परित्रायस्व मामस्मद्विषयं च कुलं च मे ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नहुषने कहा— भगवन्! आप मुझे भृगुपुत्र महर्षि च्यवनका मूल्य, जो इनके योग्य हो बता दीजिये और ऐसा करके मेरा, मेरे कुलका तथा समस्त राज्यका संकटसे उद्धार कीजिये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्याद्धि भगवान् क्रुद्धस्त्रैलोक्यमपि केवलम्।
किं पुनर्मां तपोहीनं बाहुवीर्यपरायणम् ॥ १९ ॥
मूलम्
हन्याद्धि भगवान् क्रुद्धस्त्रैलोक्यमपि केवलम्।
किं पुनर्मां तपोहीनं बाहुवीर्यपरायणम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये भगवान् च्यवन मुनि यदि कुपित हो जायँ तो तीनों लोकोंको जलाकर भस्म कर सकते हैं; फिर मुझ-जैसे तपोबलशून्य केवल बाहुबलका भरोसा रखनेवाले नरेशको नष्ट करना इनके लिये कौन बड़ी बात है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगाधाम्भसि मग्नस्य सामात्यस्य सऋत्विजः।
प्लवो भव महर्षे त्वं कुरु मूल्यविनिश्चयम् ॥ २० ॥
मूलम्
अगाधाम्भसि मग्नस्य सामात्यस्य सऋत्विजः।
प्लवो भव महर्षे त्वं कुरु मूल्यविनिश्चयम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षे! मैं अपने मन्त्री और पुरोहितके साथ संकटके अगाध महासागरमें डूब रहा हूँ। आप नौका बनकर मुझे पार लगाइये। इनके योग्य मूल्यका निर्णय कर दीजिये॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहुषस्य वचः श्रुत्वा गविजातः प्रतापवान्।
उवाच हर्षयन् सर्वानमात्यान् पार्थिवं च तम् ॥ २१ ॥
मूलम्
नहुषस्य वचः श्रुत्वा गविजातः प्रतापवान्।
उवाच हर्षयन् सर्वानमात्यान् पार्थिवं च तम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! नहुषकी बात सुनकर गायके पेटसे उत्पन्न हुए वे प्रतापी महर्षि राजा तथा उनके समस्त मन्त्रियोंको आनन्दित करते हुए बोले—॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(ब्राह्मणानां गवां चैव कुलमेकं द्विधा कृतम्।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति॥)
अनर्घेया महाराज द्विजा वर्णेषु चोत्तमाः।
गावश्च पुरुषव्याघ्र गौर्मूल्यं परिकल्प्यताम् ॥ २२ ॥
मूलम्
(ब्राह्मणानां गवां चैव कुलमेकं द्विधा कृतम्।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति॥)
अनर्घेया महाराज द्विजा वर्णेषु चोत्तमाः।
गावश्च पुरुषव्याघ्र गौर्मूल्यं परिकल्प्यताम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! ब्राह्मणों और गौओंका कुल एक है, पर ये दो रूपोंमें विभक्त हो गये हैं। एक जगह मन्त्र स्थित होते हैं और दूसरी जगह हविष्य। पुरुषसिंह! ब्राह्मण सब वर्णोंमें उत्तम हैं। उनका और गौओंका कोई मूल्य नहीं लगाया जा सकता; इसलिये आप इनकी कीमतमें एक गौ प्रदान कीजिये’॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहुषस्तु ततः श्रुत्वा महर्षेर्वचनं नृप।
हर्षेण महता युक्तः सहामात्यपुरोहितः ॥ २३ ॥
मूलम्
नहुषस्तु ततः श्रुत्वा महर्षेर्वचनं नृप।
हर्षेण महता युक्तः सहामात्यपुरोहितः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! महर्षिका यह वचन सुनकर मन्त्री और पुरोहितसहित राजा नहुषको बड़ी प्रसन्नता हुई॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिगम्य भृगोः पुत्रं च्यवनं संशितव्रतम्।
इदं प्रोवाच नृपते वाचा संतर्पयन्निव ॥ २४ ॥
मूलम्
अभिगम्य भृगोः पुत्रं च्यवनं संशितव्रतम्।
इदं प्रोवाच नृपते वाचा संतर्पयन्निव ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले भृगुपुत्र महर्षि च्यवनके पास जाकर उन्हें अपनी वाणीद्वारा तृप्त करते हुए-से बोले॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
नहुष उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ विप्रर्षे गवा क्रीतोऽसि भार्गव।
एतन्मूल्यमहं मन्ये तव धर्मभृतां वर ॥ २५ ॥
मूलम्
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ विप्रर्षे गवा क्रीतोऽसि भार्गव।
एतन्मूल्यमहं मन्ये तव धर्मभृतां वर ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नहुषने कहा— धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मर्षे! भृगुनन्दन! मैंने एक गौ देकर आपको खरीद लिया; अतः उठिये, उठिये, मैं यही आपका उचित मूल्य मानता हूँ॥२५॥
मूलम् (वचनम्)
च्यवन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तिष्ठाम्येष राजेन्द्र सम्यक् क्रीतोऽस्मि तेऽनघ।
गोभिस्तुल्यं न पश्यामि धनं किंचिदिहाच्युत ॥ २६ ॥
मूलम्
उत्तिष्ठाम्येष राजेन्द्र सम्यक् क्रीतोऽस्मि तेऽनघ।
गोभिस्तुल्यं न पश्यामि धनं किंचिदिहाच्युत ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
च्यवनने कहा— निष्पाप राजेन्द्र! अब मैं उठता हूँ। आपने उचित मूल्य देकर मुझे खरीदा है। अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले नरेश! मैं इस संसारमें गौओंके समान दूसरा कोई धन नहीं देखता हूँ॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीर्तनं श्रवणं दानं दर्शनं चापि पार्थिव।
गवां प्रशस्यते वीर सर्वपापहरं शिवम् ॥ २७ ॥
मूलम्
कीर्तनं श्रवणं दानं दर्शनं चापि पार्थिव।
गवां प्रशस्यते वीर सर्वपापहरं शिवम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर भूपाल! गौओंके नाम और गुणोंका कीर्तन तथा श्रवण करना, गौओंका दान देना और उनका दर्शन करना—इनकी शास्त्रोंमें बड़ी प्रशंसा की गयी है। ये सब कार्य सम्पूर्ण पापोंको दूर करके परम कल्याणकी प्राप्ति करानेवाले हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावो लक्ष्म्याः सदा मूलं गोषु पाप्मा न विद्यते।
अन्नमेव सदा गावो देवानां परमं हविः ॥ २८ ॥
मूलम्
गावो लक्ष्म्याः सदा मूलं गोषु पाप्मा न विद्यते।
अन्नमेव सदा गावो देवानां परमं हविः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौएँ सदा लक्ष्मीकी जड़ हैं। उनमें पापका लेशमात्र भी नहीं है। गौएँ ही मनुष्योंको सर्वदा अन्न और देवताओंको हविष्य देनेवाली हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वाहाकारवषट्कारौ गोषु नित्यं प्रतिष्ठितौ।
गावो यज्ञस्य नेत्र्यो वै तथा यज्ञस्य ता मुखम्॥२९॥
मूलम्
स्वाहाकारवषट्कारौ गोषु नित्यं प्रतिष्ठितौ।
गावो यज्ञस्य नेत्र्यो वै तथा यज्ञस्य ता मुखम्॥२९॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वाहा और वषट्कार सदा गौओंमें ही प्रतिष्ठित होते हैं। गौएँ ही यज्ञका संचालन करनेवाली तथा उसका मुख हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमृतं ह्यव्ययं दिव्यं क्षरन्ति च वहन्ति च।
अमृतायतनं चैताः सर्वलोकनमस्कृताः ॥ ३० ॥
मूलम्
अमृतं ह्यव्ययं दिव्यं क्षरन्ति च वहन्ति च।
अमृतायतनं चैताः सर्वलोकनमस्कृताः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती और दुहनेपर अमृत ही देती हैं। वे अमृतकी आधारभूत हैं। सारा संसार उनके सामने नतमस्तक होता है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजसा वपुषा चैव गावो वह्निसमा भुवि।
गावो हि सुमहत् तेजः प्राणिनां च सुखप्रदाः ॥ ३१ ॥
मूलम्
तेजसा वपुषा चैव गावो वह्निसमा भुवि।
गावो हि सुमहत् तेजः प्राणिनां च सुखप्रदाः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस पृथ्वीपर गौएँ अपनी काया और कान्तिसे अग्निके समान हैं। वे महान् तेजकी राशि और समस्त प्राणियोंको सुख देनेवाली हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निविष्टं गोकुलं यत्र श्वासं मुञ्चति निर्भयम्।
विराजयति तं देशं पापं चास्यापकर्षति ॥ ३२ ॥
मूलम्
निविष्टं गोकुलं यत्र श्वासं मुञ्चति निर्भयम्।
विराजयति तं देशं पापं चास्यापकर्षति ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौओंका समुदाय जहाँ बैठकर निर्भयतापूर्वक साँस लेता है, उस स्थानकी शोभा बढ़ा देता है और वहाँके सारे पापोंको खींच लेता है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावः स्वर्गस्य सोपानं गावः स्वर्गेऽपि पूजिताः।
गावः कामदुहो देव्यो नान्यत् किंचित् परं स्मृतम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
गावः स्वर्गस्य सोपानं गावः स्वर्गेऽपि पूजिताः।
गावः कामदुहो देव्यो नान्यत् किंचित् परं स्मृतम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गौएँ स्वर्गकी सीढ़ी हैं। गौएँ स्वर्गमें भी पूजी जाती हैं। गौएँ समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली देवियाँ हैं। उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येतद् गोषु मे प्रोक्तं माहात्म्यं भरतर्षभ।
गुणैकदेशवचनं शक्यं पारायणं न तु ॥ ३४ ॥
मूलम्
इत्येतद् गोषु मे प्रोक्तं माहात्म्यं भरतर्षभ।
गुणैकदेशवचनं शक्यं पारायणं न तु ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! यह मैंने गौओंका माहात्म्य बताया है। इसमें उनके गुणोंका दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। गौओंके सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन तो कोई कर ही नहीं सकता॥
मूलम् (वचनम्)
निषादा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्शनं कथनं चैव सहास्माभिः कृतं मुने।
सतां साप्तपदं मैत्रं प्रसादं नः कुरु प्रभो ॥ ३५ ॥
मूलम्
दर्शनं कथनं चैव सहास्माभिः कृतं मुने।
सतां साप्तपदं मैत्रं प्रसादं नः कुरु प्रभो ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद निषादोंने कहा— मुने! सज्जनोंके साथ सात पग चलनेमात्रसे मित्रता हो जाती है। हमने तो आपका दर्शन किया और हमारे साथ आपकी इतनी देरतक बातचीत भी हुई; अतः प्रभो! आप हमलोगोंपर कृपा कीजिये॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हवींषि सर्वाणि यथा ह्युपभुङ्क्ते हुताशनः।
एवं त्वमपि धर्मात्मन् पुरुषाग्निः प्रतापवान् ॥ ३६ ॥
मूलम्
हवींषि सर्वाणि यथा ह्युपभुङ्क्ते हुताशनः।
एवं त्वमपि धर्मात्मन् पुरुषाग्निः प्रतापवान् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मात्मन्! जैसे अग्निदेव सम्पूर्ण हविष्योंको आत्मसात् कर लेते हैं, उसी प्रकार आप भी हमारे दोष-दुर्गुणोंको दग्ध करनेवाले प्रतापी अग्निरूप हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसादयामहे विद्वन् भवन्तं प्रणता वयम्।
अनुग्रहार्थमस्माकमियं गौः प्रतिगृह्यताम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
प्रसादयामहे विद्वन् भवन्तं प्रणता वयम्।
अनुग्रहार्थमस्माकमियं गौः प्रतिगृह्यताम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वन्! हम आपके चरणोंमें मस्तक झुकाकर आपको प्रसन्न करना चाहते हैं। आप हमलोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये हमारी दी हुई यह गौ स्वीकार कीजिये॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अत्यन्तापदि मग्नानां परित्राणं हि कुर्वताम्।
या गतिर्विदिता त्वद्य नरके शरणं भवान्॥)
मूलम्
(अत्यन्तापदि मग्नानां परित्राणं हि कुर्वताम्।
या गतिर्विदिता त्वद्य नरके शरणं भवान्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
अत्यन्त आपत्तिमें डूबे हुए जीवोंका उद्धार करनेवाले पुरुषोंको जो उत्तम गति प्राप्त होती है, वह आपको विदित है। हमलोग नरकमें डूबे हुए हैं। आज आप ही हमें शरण देनेवाले हैं॥
मूलम् (वचनम्)
च्यवन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपणस्य च यच्चक्षुर्मुनेराशीविषस्य च।
नरं समूलं दहति कक्षमग्निरिव ज्वलन् ॥ ३८ ॥
मूलम्
कृपणस्य च यच्चक्षुर्मुनेराशीविषस्य च।
नरं समूलं दहति कक्षमग्निरिव ज्वलन् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
च्यवन बोले— निषादगण! किसी दीन-दुखियाकी, ऋषिकी तथा विषधर सर्पकी रोषपूर्ण दृष्टि मनुष्यको उसी प्रकार जड़मूलसहित जलाकर भस्म कर देती है, जैसे प्रज्वलित अग्नि सूखे घास-फूसके ढेरको॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिगृह्णामि वो धेनुं कैवर्ता मुक्तकिल्बिषाः।
दिवं गच्छत वै क्षिप्रं मत्स्यैः सह जलोद्भवैः ॥ ३९ ॥
मूलम्
प्रतिगृह्णामि वो धेनुं कैवर्ता मुक्तकिल्बिषाः।
दिवं गच्छत वै क्षिप्रं मत्स्यैः सह जलोद्भवैः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मल्लाहो! मैं तुम्हारी दी हुई गौ स्वीकार करता हूँ। इस गोदानके प्रभावसे तुम्हारे सारे पाप दूर हो गये। अब तुमलोग जलमें पैदा हुई इन मछलियोंके साथ ही शीघ्र स्वर्गको जाओ॥३९॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तस्य प्रभावात् ते महर्षेर्भावितात्मनः।
निषादास्तेन वाक्येन सह मत्स्यैर्दिवं ययुः ॥ ४० ॥
मूलम्
ततस्तस्य प्रभावात् ते महर्षेर्भावितात्मनः।
निषादास्तेन वाक्येन सह मत्स्यैर्दिवं ययुः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— भारत! तदनन्तर विशुद्ध अन्तःकरणवाले उन महर्षि च्यवनके पूर्वोक्त बात कहते ही उनके प्रभावसे वे मल्लाह उन मछलियोंके साथ ही स्वर्गलोकको चले गये॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स राजा नहुषो विस्मितः प्रेक्ष्य धीवरान्।
आरोहमाणांस्त्रिदिवं मत्स्यांश्च भरतर्षभ ॥ ४१ ॥
मूलम्
ततः स राजा नहुषो विस्मितः प्रेक्ष्य धीवरान्।
आरोहमाणांस्त्रिदिवं मत्स्यांश्च भरतर्षभ ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! उस समय उन मल्लाहों और मत्स्योंको भी स्वर्गलोककी ओर जाते देख राजा नहुषको बड़ा आश्चर्य हुआ॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तौ गविजश्चैव च्यवनश्च भृगूद्वहः।
वराभ्यामनुरूपाभ्यां छन्दयामासतुर्नृपम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
ततस्तौ गविजश्चैव च्यवनश्च भृगूद्वहः।
वराभ्यामनुरूपाभ्यां छन्दयामासतुर्नृपम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् गौसे उत्पन्न महर्षि और भृगुनन्दन च्यवन दोनोंने राजा नहुषसे इच्छानुसार वर माँगनेके लिये कहा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो राजा महावीर्यो नहुषः पृथिवीपतिः।
परमित्यब्रवीत् प्रीतस्तदा भरतसत्तम ॥ ४३ ॥
मूलम्
ततो राजा महावीर्यो नहुषः पृथिवीपतिः।
परमित्यब्रवीत् प्रीतस्तदा भरतसत्तम ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतभूषण! तब वे महापराक्रमी भूपाल राजा नहुष प्रसन्न होकर बोले—‘बस, आपलोगोंकी कृपा ही बहुत है’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो जग्राह धर्मे स स्थितिमिन्द्रनिभो नृपः।
तथेति चोदितः प्रीतस्तावृषी प्रत्यपूजयत् ॥ ४४ ॥
मूलम्
ततो जग्राह धर्मे स स्थितिमिन्द्रनिभो नृपः।
तथेति चोदितः प्रीतस्तावृषी प्रत्यपूजयत् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर दोनोंके आग्रहसे उन इन्द्रके समान तेजस्वी नरेशने धर्ममें स्थित रहनेका वरदान माँगा और उनके तथास्तु कहनेपर राजाने उन दोनों ऋषियोंका विधिवत् पूजन किया॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाप्तदीक्षश्च्यवनस्ततोऽगच्छत् स्वमाश्रमम् ।
गविजश्च महातेजाः स्वमाश्रमपदं ययौ ॥ ४५ ॥
मूलम्
समाप्तदीक्षश्च्यवनस्ततोऽगच्छत् स्वमाश्रमम् ।
गविजश्च महातेजाः स्वमाश्रमपदं ययौ ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी दिन महर्षि च्यवनकी दीक्षा समाप्त हुई और वे अपने आश्रमपर चले गये। इसके बाद महातेजस्वी गोजात मुनि भी अपने आश्रमको पधारे॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निषादाश्च दिवं जग्मुस्ते च मत्स्या जनाधिप।
नहुषोऽपि वरं लब्ध्वा प्रविवेश स्वकं पुरम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
निषादाश्च दिवं जग्मुस्ते च मत्स्या जनाधिप।
नहुषोऽपि वरं लब्ध्वा प्रविवेश स्वकं पुरम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! वे मल्लाह और मत्स्य तो स्वर्गलोकमें चले गये और राजा नहुष भी वर पाकर अपनी राजधानीको लौट आये॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत्ते कथितं तात यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
दर्शने यादृशः स्नेहः संवासे वा युधिष्ठिर ॥ ४७ ॥
महाभाग्यं गवां चैव तथा धर्मविनिश्चयम्।
किं भूयः कथ्यतां वीर किं ते हृदि विवक्षितम्॥४८॥
मूलम्
एतत्ते कथितं तात यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
दर्शने यादृशः स्नेहः संवासे वा युधिष्ठिर ॥ ४७ ॥
महाभाग्यं गवां चैव तथा धर्मविनिश्चयम्।
किं भूयः कथ्यतां वीर किं ते हृदि विवक्षितम्॥४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात युधिष्ठिर! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने यह सारा प्रसंग सुनाया है। दर्शन और सहवाससे कैसा स्नेह होता है? गौओंका माहात्म्य क्या है? तथा इस विषयमें धर्मका निश्चय क्या है? ये सारी बातें इस प्रसंगसे स्पष्ट हो जाती हैं। अब मैं तुम्हें कौन-सी बात बताऊँ? वीर! तुम्हारे मनमें क्या सुननेकी इच्छा है?॥४७-४८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि च्यवनोपाख्याने एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें च्यवनका उपाख्यानविषयक इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५१॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ५० श्लोक हैं)