भागसूचना
पञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
गौओंकी महिमाके प्रसंगमें च्यवन मुनिके उपाख्यानका आरम्भ, मुनिका मत्स्योंके साथ जालमें फँसकर जलसे बाहर आना
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्शने कीदृशः स्नेहः संवासे च पितामह।
महाभाग्यं गवां चैव तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥
मूलम्
दर्शने कीदृशः स्नेहः संवासे च पितामह।
महाभाग्यं गवां चैव तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! किसीको देखने और उसके साथ रहनेपर कैसा स्नेह होता है? तथा गौओंका माहात्म्य क्या है? यह मुझे विस्तारपूर्वक बतानेकी कृपा करें॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्त ते कथयिष्यामि पुरावृत्तं महाद्युते।
नहुषस्य च संवादं महर्षेश्च्यवनस्य च ॥ २ ॥
मूलम्
हन्त ते कथयिष्यामि पुरावृत्तं महाद्युते।
नहुषस्य च संवादं महर्षेश्च्यवनस्य च ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— महातेजस्वी नरेश! इस विषयमें मैं तुमसे महर्षि च्यवन और नहुषके संवादरूप प्राचीन इतिहासका वर्णन करूँगा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा महर्षिश्च्यवनो भार्गवो भरतर्षभ।
उदवासकृतारम्भो बभूव स महाव्रतः ॥ ३ ॥
मूलम्
पुरा महर्षिश्च्यवनो भार्गवो भरतर्षभ।
उदवासकृतारम्भो बभूव स महाव्रतः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! पूर्वकालकी बात है, भृगुके पुत्र महर्षि च्यवनने महान् व्रतका आश्रय ले जलके भीतर रहना आरम्भ किया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहत्य मानं क्रोधं च प्रहर्षं शोकमेव च।
वर्षाणि द्वादश मुनिर्जलवासे धृतव्रतः ॥ ४ ॥
मूलम्
निहत्य मानं क्रोधं च प्रहर्षं शोकमेव च।
वर्षाणि द्वादश मुनिर्जलवासे धृतव्रतः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अभिमान, क्रोध, हर्ष और शोकका परित्याग करके दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करते हुए बारह वर्षों-तक जलके भीतर रहे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदधत् सर्वभूतेषु विश्रम्भं परमं शुभम्।
जलेचरेषु सर्वेषु शीतरश्मिरिव प्रभुः ॥ ५ ॥
मूलम्
आदधत् सर्वभूतेषु विश्रम्भं परमं शुभम्।
जलेचरेषु सर्वेषु शीतरश्मिरिव प्रभुः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शीतल किरणोंवाले चन्द्रमाके समान उन शक्तिशाली मुनिने सम्पूर्ण प्राणियों, विशेषतः सारे जलचर जीवोंपर अपना परम मंगलकारी पूर्ण विश्वास जमा लिया था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थाणुभूतः शुचिर्भूत्वा दैवतेभ्यः प्रणम्य च।
गंगायमुनयोर्मध्ये जलं सम्प्रविवेश ह ॥ ६ ॥
मूलम्
स्थाणुभूतः शुचिर्भूत्वा दैवतेभ्यः प्रणम्य च।
गंगायमुनयोर्मध्ये जलं सम्प्रविवेश ह ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समय वे देवताओंको प्रणामकर अत्यन्त पवित्र होकर गंगा-यमुनाके संगममें जलके भीतर प्रविष्ट हुए और वहाँ काष्ठकी भाँति स्थिर भावसे बैठ गये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गंगायमुनयोर्वेगं सुभीमं भीमनिःस्वनम् ।
प्रतिजग्राह शिरसा वातवेगसमं जवे ॥ ७ ॥
मूलम्
गंगायमुनयोर्वेगं सुभीमं भीमनिःस्वनम् ।
प्रतिजग्राह शिरसा वातवेगसमं जवे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गंगा-यमुनाका वेग बड़ा भयंकर था। उससे भीषण गर्जना हो रही थी। वह वेग वायुवेगकी भाँति दुःसह था तो भी वे मुनि अपने मस्तकपर उसका आघात सहने लगे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गंगा च यमुना चैव सरितश्च सरांसि च।
प्रदक्षिणमृषिं चक्रुर्न चैनं पर्यपीडयन् ॥ ८ ॥
मूलम्
गंगा च यमुना चैव सरितश्च सरांसि च।
प्रदक्षिणमृषिं चक्रुर्न चैनं पर्यपीडयन् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु गंगा-यमुना आदि नदियाँ और सरोवर ऋषिकी केवल परिक्रमा करते थे, उन्हें कष्ट नहीं पहुँचाते थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तर्जलेषु सुष्वाप काष्ठभूतो महामुनिः।
ततश्चोर्ध्वस्थितो धीमानभवद् भरतर्षभ ॥ ९ ॥
मूलम्
अन्तर्जलेषु सुष्वाप काष्ठभूतो महामुनिः।
ततश्चोर्ध्वस्थितो धीमानभवद् भरतर्षभ ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! वे बुद्धिमान् महामुनि कभी पानीमें काठकी भाँति सो जाते और कभी उसके ऊपर खड़े हो जाते थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलौकसां स सत्त्वानां बभूव प्रियदर्शनः।
उपाजिघ्रन्त च तदा तस्योष्ठं हृष्टमानसाः ॥ १० ॥
मूलम्
जलौकसां स सत्त्वानां बभूव प्रियदर्शनः।
उपाजिघ्रन्त च तदा तस्योष्ठं हृष्टमानसाः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे जलचर जीवोंके बड़े प्रिय हो गये थे। जल-जन्तु प्रसन्नचित्त होकर उनका ओठ सूँघा करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र तस्यासतः कालः समतीतोऽभवन्महान्।
ततः कदाचित् समये कस्मिंश्चिन्मत्स्यजीविनः ॥ ११ ॥
तं देशं समुपाजग्मुर्जालहस्ता महाद्युते।
निषादा बहवस्तत्र मत्स्योद्धरणनिश्चयाः ॥ १२ ॥
मूलम्
तत्र तस्यासतः कालः समतीतोऽभवन्महान्।
ततः कदाचित् समये कस्मिंश्चिन्मत्स्यजीविनः ॥ ११ ॥
तं देशं समुपाजग्मुर्जालहस्ता महाद्युते।
निषादा बहवस्तत्र मत्स्योद्धरणनिश्चयाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातेजस्वी नरेश! इस तरह उन्हें पानीमें रहते बहुत दिन बीत गये। तदनन्तर एक समय मछलियोंसे जीविका चलानेवाले बहुत-से मल्लाह मछली पकड़नेका निश्चय करके जाल हाथमें लिये हुए उस स्थानपर आये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यायता बलिनः शूराः सलिलेष्वनिवर्तिनः।
अभ्याययुश्च तं देशं निश्चिता जालकर्मणि ॥ १३ ॥
मूलम्
व्यायता बलिनः शूराः सलिलेष्वनिवर्तिनः।
अभ्याययुश्च तं देशं निश्चिता जालकर्मणि ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे मल्लाह बड़े परिश्रमी, बलवान्, शौर्यसम्पन्न और पानीसे कभी पीछे न हटनेवाले थे। वे जाल बिछानेका दृढ़ निश्चय करके उस स्थानपर आये थे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जालं ते योजयामासुर्निःशेषेण जनाधिप।
मत्स्योदकं समासाद्य तदा भरतसत्तम ॥ १४ ॥
मूलम्
जालं ते योजयामासुर्निःशेषेण जनाधिप।
मत्स्योदकं समासाद्य तदा भरतसत्तम ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशशिरोमणि नरेश! उस समय जहाँ मछलियाँ रहती थीं, उतने गहरे जलमें जाकर उन्होंने अपने जालको पूर्णरूपसे फैला दिया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते बहुभिर्योगैः कैवर्ता मत्स्यकाङ्क्षिणः।
गंगायमुनयोर्वारि जालैरभ्यकिरंस्ततः ॥ १५ ॥
मूलम्
ततस्ते बहुभिर्योगैः कैवर्ता मत्स्यकाङ्क्षिणः।
गंगायमुनयोर्वारि जालैरभ्यकिरंस्ततः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मछली प्राप्त करनेकी इच्छावाले केवटोंने बहुत-से उपाय करके गंगा-यमुनाके जलको जालोंसे आच्छादित कर दिया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जालं सुविततं तेषां नवसूत्रकृतं तथा।
विस्तारायामसम्पन्नं यत् तत्र सलिलेऽक्षिपन् ॥ १६ ॥
ततस्ते सुमहच्चैव बलवच्च सुवर्तितम्।
अवतीर्य ततः सर्वे जालं चकृषिरे तदा ॥ १७ ॥
अभीतरूपाः संहृष्टा अन्योन्यवशवर्तिनः ।
बबन्धुस्तत्र मत्स्यांश्च तथान्यान् जलचारिणः ॥ १८ ॥
मूलम्
जालं सुविततं तेषां नवसूत्रकृतं तथा।
विस्तारायामसम्पन्नं यत् तत्र सलिलेऽक्षिपन् ॥ १६ ॥
ततस्ते सुमहच्चैव बलवच्च सुवर्तितम्।
अवतीर्य ततः सर्वे जालं चकृषिरे तदा ॥ १७ ॥
अभीतरूपाः संहृष्टा अन्योन्यवशवर्तिनः ।
बबन्धुस्तत्र मत्स्यांश्च तथान्यान् जलचारिणः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका वह जाल नये सूतका बना हुआ और विशाल था तथा उसकी लंबाई-चौड़ाई भी बहुत थी एवं वह अच्छी तरहसे बनाया हुआ और मजबूत था। उसीको उन्होंने वहाँ जलपर बिछाया था। थोड़ी देर बाद वे सभी मल्लाह निडर होकर पानीमें उतर गये। वे सभी प्रसन्न और एक-दूसरेके अधीन रहनेवाले थे। उन सबने मिलकर जालको खींचना आरम्भ किया। उस जालमें उन्होंने मछलियोंके साथ ही दूसरे जल-जन्तुओंको भी बाँध लिया था॥१६—१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा मत्स्यैः परिवृतं च्यवनं भृगुनन्दनम्।
आकर्षयन्महाराज जालेनाथ यदृच्छया ॥ १९ ॥
मूलम्
तथा मत्स्यैः परिवृतं च्यवनं भृगुनन्दनम्।
आकर्षयन्महाराज जालेनाथ यदृच्छया ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! जाल खींचते समय मल्लाहोंने दैवेच्छासे उस जालके द्वारा मत्स्योंसे घिरे हुए भृगुके पुत्र महर्षि च्यवनको भी खींच लिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदीशैवलदिग्धाङ्गं हरिश्मश्रुजटाधरम् ।
लग्नैः शङ्खनखैर्गात्रे क्रोडैश्चित्रैरिवार्पितम् ॥ २० ॥
मूलम्
नदीशैवलदिग्धाङ्गं हरिश्मश्रुजटाधरम् ।
लग्नैः शङ्खनखैर्गात्रे क्रोडैश्चित्रैरिवार्पितम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका सारा शरीर नदीके सेवारसे लिपटा हुआ था। उनकी मूँछ-दाढ़ी और जटाएँ हरे रंगकी हो गयी थीं और उनके अंगोंमें शंख आदि जलचरोंके नख लगनेसे चित्र बन गया था। ऐसा जान पड़ता था मानो उनके अंगोंमें शूकरके विचित्र रोम लग गये हों॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं जालेनोद्धृतं दृष्ट्वा ते तदा वेदपारगम्।
सर्वे प्राञ्जलयो दाशाः शिरोभिः प्रापतन् भुवि ॥ २१ ॥
मूलम्
तं जालेनोद्धृतं दृष्ट्वा ते तदा वेदपारगम्।
सर्वे प्राञ्जलयो दाशाः शिरोभिः प्रापतन् भुवि ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदोंके पारंगत उन विद्वान् महर्षिको जालके साथ खिंचा देख सभी मल्लाह हाथ जोड़ मस्तक झुका पृथ्वीपर पड़ गये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिखेदपरित्रासाज्जालस्याकर्षणेन च ।
मत्स्या बभूवुर्व्यापन्नाः स्थलसंस्पर्शनेन च ॥ २२ ॥
स मुनिस्तत् तदा दृष्ट्वा मत्स्यानां कदनं कृतम्।
बभूव कृपयाविष्टो निःश्वसंश्च पुनः पुनः ॥ २३ ॥
मूलम्
परिखेदपरित्रासाज्जालस्याकर्षणेन च ।
मत्स्या बभूवुर्व्यापन्नाः स्थलसंस्पर्शनेन च ॥ २२ ॥
स मुनिस्तत् तदा दृष्ट्वा मत्स्यानां कदनं कृतम्।
बभूव कृपयाविष्टो निःश्वसंश्च पुनः पुनः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उधर जालके आकर्षणसे अत्यन्त खेद, त्रास और स्थलका संस्पर्श होनेके कारण बहुत-से मत्स्य मर गये। मुनिने जब मत्स्योंका यह संहार देखा, तब उन्हें बड़ी दया आयी और वे बारंबार लंबी साँस खींचने लगे॥२२-२३॥
मूलम् (वचनम्)
निषादा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञानाद् यत् कृतं पापं प्रसादं तत्र नः कुरु।
करवाम प्रियं किं ते तन्नो ब्रूहि महामुने ॥ २४ ॥
मूलम्
अज्ञानाद् यत् कृतं पापं प्रसादं तत्र नः कुरु।
करवाम प्रियं किं ते तन्नो ब्रूहि महामुने ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देख निषाद बोले— महामुने! हमने अनजानमें जो पाप किया है, उसके लिये हमें क्षमा कर दें और हमपर प्रसन्न हों। साथ ही यह भी बतावें कि हमलोग आपका कौन-सा प्रिय कार्य करें?॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो मत्स्यमध्यस्थश्च्यवनोवाक्यमब्रवीत् ।
यो मेऽद्य परमः कामस्तं शृणुध्वं समाहिताः ॥ २५ ॥
मूलम्
इत्युक्तो मत्स्यमध्यस्थश्च्यवनोवाक्यमब्रवीत् ।
यो मेऽद्य परमः कामस्तं शृणुध्वं समाहिताः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मल्लाहोंके ऐसा कहनेपर मछलियोंके बीचमें बैठे हुए महर्षि च्यवनने कहा—‘मल्लाहो! इस समय जो मेरी सबसे बड़ी इच्छा है, उसे ध्यान देकर सुनो॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणोत्सर्गं विसर्गं वा मत्स्यैर्यास्याम्यहं सह।
संवासान्नोत्सहे त्यक्तुं सलिलेऽध्युषितानहम् ॥ २६ ॥
मूलम्
प्राणोत्सर्गं विसर्गं वा मत्स्यैर्यास्याम्यहं सह।
संवासान्नोत्सहे त्यक्तुं सलिलेऽध्युषितानहम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं इन मछलियोंके साथ ही अपने प्राणोंका त्याग या रक्षण करूँगा। ये मेरे सहवासी रहे हैं। मैं बहुत दिनोंतक इनके साथ जलमें रह चुका हूँ; अतः मैं इन्हें त्याग नहीं सकता’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तास्ते निषादास्तु सुभृशं भयकम्पिताः।
सर्वे विवर्णवदना नहुषाय न्यवेदयन् ॥ २७ ॥
मूलम्
इत्युक्तास्ते निषादास्तु सुभृशं भयकम्पिताः।
सर्वे विवर्णवदना नहुषाय न्यवेदयन् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिकी यह बात सुनकर निषादोंको बड़ा भय हुआ। वे थर-थर काँपने लगे। उन सबके मुखका रंग फीका पड़ गया और उसी अवस्थामें राजा नहुषके पास जाकर उन्होंने यह सारा समाचार निवेदन किया॥२७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि च्यवनोपाख्याने पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें च्यवनमुनिका उपाख्यानविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५०॥